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द्वितीय अध्ययन
चतुर्विंशतिस्तव चतुर्विंशतिस्तव के फल के लिए उत्तराध्ययन सूत्र अध्ययन 29वें में गौतम स्वामी ने प्रभु से पृच्छा की है-चउव्वीसत्थएणं भंते! जीवे किं जणयइ?
हे भगवन्! चतुर्विंशतिस्तव से जीव को किस फल की प्राप्ति होती है? प्रभु फरमाते हैं-चउव्वीसत्थएणं दंसणविसोहिं जणयइ। अर्थात् हे गौतम्! चतुर्विंशतिस्तव से दर्शन-विशुद्धि होती है।
समभाव में स्थित आत्मा ही वीतराग प्रभु के गुणों को जान सकती है उनकी प्रशंसा कर सकती है अर्थात् जब सामायिक की प्राप्ति हो जाती है तब ही भावपूर्वक तीर्थङ्करों की स्तुति की जा सकती है, अतएव सामायिक अध्ययन के बाद दूसरा चतुर्विंशतिस्तव अध्ययन रखा गया है।
प्रथम अध्ययन में सावध योग की निवृत्ति रूप सामायिक का निरूपण करके सूत्रकार अब चतुर्विंशतिस्तव रूप इस द्वितीय अध्ययन में समस्त सावद्य योगों की निवृत्ति के उपदेशक होने से समकित की विशुद्धि तथा जन्मान्तर में भी बोधिलाभ और सम्पूर्ण कर्मों के नाश के कारण होने से परम उपकारी तीर्थङ्कर भगवन्तों का लोगस्स के पाठ से गुणकीर्तन करते हैं।
सुगुरुओं को यथाविधि वंदन करने से विनय की प्राप्ति होती है। अहंकार का नाश होता है। वंदनीय में रहे हुए गुणों के प्रति आदरभाव होता है। तीर्थङ्कर भगवन्तों की आज्ञा का पालन होता है। वंदना करने का मूल उद्देश्य ही नम्रता प्राप्त करना है। नम्रता अर्थात् विनय ही जिनशासन का मूल है।
उविकत्तणं सुत्तं
(उत्कीर्तन-सूत्र) मूल- लोगस्स उज्जोयगरे, धम्म-तित्थयरे जिणे ।
अरिहंते कित्तइस्सं, चउवीसंपि के वली ।। 1 ।। उसभमजियं च वंदे, संभवमभिणंदणं च सुमई च। पउमप्पहं सुपासं, जिणं च चंदप्पहं वंदे ।।2।।