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[ आवश्यक सूत्र
प्रस्तुत शरीर का है, यह शरीर नाम कर्म की रचना है। इसलिए मैं व्यर्थ ही क्यों संकल्प विकल्प करूँ। सामायिक का साधक चित्ताकर्षक वस्तु को निहारकर आह्लादित नहीं होता तो घिनौने रूप को देखकर घृणा भी नहीं करता। वह तो सोचता है कि आत्मा रूपातीत है। सुरूपता और कुरूपता तो पुद्गल परमाणुओं का परिणमन है, जो कभी शुभ होता है तो कभी अशुभ होता है। मैं पुद्गल तत्त्व से पृथक् हूँ । इस प्रकार वह चिन्तन कर समभाव में रहता है। यह स्थापना सामायिक है। सामायिक व्रतधारी साधक पदार्थों की सुन्दरता को देखकर मुग्ध नहीं होता और असुन्दरता को देखकर खिन्न नहीं होता । इसी तरह बहुमूल्य वस्तु को देखकर प्रसन्न नहीं होता औरअल्पमूल्य वाली वस्तु को देखकर खिन्न नहीं होता । वह चिन्तन करता है कि पदार्थों की सुन्दरता और असुन्दरता मानव की कल्पनामात्र है। एक ही वस्तु एक व्यक्ति को सुन्दर प्रतीत होती है तो दूसरे को वह सुन्दर प्रतीत नहीं होती। हीरे पन्ने, माणक मोती आदि जवाहरात में भी मानव ने मूल्य की कल्पना की है, अन्यथा तो वे अन्य पत्थरों की भाँति पत्थर ही हैं। ऐसा विचारकर साधक सभी भौतिक पदार्थों में समभाव रखता है । यह द्रव्य सामायिक है। ग्रीष्म की चिलचिलाती धूप हो, पौष माह की भयंकर सनसनाती सर्दी हो, श्रावण, भाद्रपद की हजार हजार धारा के रूप में वर्षा हो अथवा रिमझिम रिमझिम बूंद गिर रही हो, चाहे अनुकूल समय हो, चाहे प्रतिकूल समय हो, सामायिक व्रतधारी साधक समभाव में विचरण करता है। शीत उष्ण आदि स्पर्श पुद्गल, पुद्गल को ही प्रभावित करते है। मैं तो आत्मस्वरूप हूँ, आत्मा पर स्पर्श का कोई प्रभाव नहीं हो सकता। मुझे इन वैभाविक स्थितियों से दूर रहकर आत्मभाव में स्थित रहना है यह काल सामायिक है ।
सामायिक साधक के लिए चाहे रमणीय स्थान हो, चाहे अरमणीय, चाहे सुन्दर सुगन्धित उपवन हो, चाहे बंजर भूमि हो, चाहे विराट नगर की उच्च अट्टालिका हो, या निर्जन वन की कंटीली भूमि हो, कोई फर्क नहीं पडता । वह सर्वत्र समभाव में रहता है। उसका चिन्तन चलता है कि मेरा निवास-स्थान न जंगल है, नगर, मेरा तो निवासस्थान आत्मा ही है, फिर व्यर्थ ही क्षेत्र के व्यामोह में पड़कर क्यों कर्मबन्धन करूँ ? प्रत्येक पदार्थ अपने स्वभाव में स्थित रहता है तो मुझे भी आत्मभाव में स्थिर रहना है, यह क्षेत्र सामायिक है ।
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भाव सामायिकधारी का चिन्तन ऊर्ध्वमुखी होता है। वह सदा सर्वदा आत्मभाव में विचरण करता है । उसका चिन्तन चलता है- 'मैं' अजर और अमर हूँ, चैतन्य स्वरूप हूँ, जीवन-मरण, मान-अपमान, संयोगवियोग, लाभ-अलाभ ये सभी कर्मोदयजन्य विकार हैं। मेरा इनके साथ वस्तुतः कोई सम्बन्ध नहीं है। इस प्रकार विचार करके शुद्ध -बुद्ध - मुक्त आत्मतत्त्व को प्राप्त करना ही भाव सामायिक है। आचार्य नेमिचन्द्र ने गोम्मटसार में कहा है-पर द्रव्यों से निवृत्त होकर जब साधक की ज्ञानचेतना आत्मस्वरूप में प्रवृत्त होती है, तभी भाव सामायिक होती है। राग-द्वेष से रहित मध्यस्थ भावापन्न आत्मा सम कहलाता है। उस सम में गमन करना भाव सामायिक है ।
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