Book Title: Nammala
Author(s): Dhananjay Mahakavi, Shambhunath Tripathi
Publisher: Bharatiya Gyanpith
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानपीठ मूर्तिदेवी जैन ग्रन्थमाला [ संस्कृत ग्रन्थाङ्क ६ ] HEAwmayanayamannaahyayaN NAINMEArmaantaruarpardemy महाकवि धनञ्जयविरचिता नाम माला अमरकीर्तिविरचितभाष्योपेता अनेकार्थनिघण्टुः एकाक्षरीकोशश्च 241AL ETAHA FIH सम्पादक पं० शम्भुनाथ त्रिपाठी व्याकरणाचार्य, सप्ततीर्थ भारतीय ज्ञानपीठ काशी mundwayamsanemonetisxeimantumeraryanmmetimananewMiNAN प्रथम आवृनि । १००० प्रति । चैत्र, बीरनि० सं० २४७६ वि० सं० २००७ अप्रैल १९५० मीन रुपये मूल्य संशोधित . ४.y. Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राक्कथन (हिन्दी अनुवाद) अपनी पूज्य माता मूतिदेवीजी की स्मृति के लिए साह शान्तिप्रसाद जी जन द्वारा संस्थापित भारतीय ज्ञानपीठ बनारस ने विद्धतापूर्ण प्रकाशनों की एक उत्साहवर्धक योजना हाथ में ली है। प्राचीन भारतीय संस्कृति के विशाल कृष्टि व कल्पना वाले सभी अंगों का प्रकाशन इस योजना के अन्तर्गत है तथा अब तक इस संस्था से संस्कृत, प्राकृत, पाली, आदि विभिन्न भाषाओं के कतिपय ग्रन्थ प्रकाशित हो चुके है। इस योजना के सम्पादन के लिए काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के संस्कृत महाविद्यालय के सुयोग्य विद्वान् पं० महेन्द्र कुमार न्यायाचार्य, प्रधान सम्पादक के रूप में प्राप्त है। शानपीट से अब तक कई एक अन्य प्रकाशित हुए हैं और कई एक प्रकाशन के लिए तैयार है। वर्तमान ग्रन्थ में प्रसिद्ध कोशकार धनञ्जम को दो कृतियाँ सम्मिलित है। पहली नाममाला लाती है जिसमें पागलादी राज्यों का और दूसरो अनेकार्थ नाममाला, जिसमें अनेक अर्थबोधक शच्चों का संग्रह है। पहली कृति में २०० श्लोक है जब कि दूसरी कृति उससे काफी छोटो है। प्रथम कृति के सम्बन्ध में उल्लेखनीय विशेषता यह है कि इस पर लिखा गया अमरकोति का भाष्य पहले पन्नल प्रकाश में आ रहा है। अमरकोति ने नाममाला के प्रत्यक माखों की व्यत्पत्ति देकर स्पष्टीकरण किया है और अपनी दृष्टि में आए कुछ और पर्यायवाची शब्दों को शामिल कर दिया है। उनके भाष्य को वही सरणि पद्धति है जो कि अमरकोश की प्रसिद्ध टीका में क्षीरस्थाभी ने अपनायी है। सम्पूर्ण कृति का सम्पादन ख्यातनामा पण्डित शम्भुनाथ त्रिपाठी व्याकरणाचार्य सप्ततीर्थ ने बड़ी सावधानी से तथा प्रमाणों का उपयुक्त उद्धरण देते हुए किया है। उनकी टिप्पणियों का अध्ययन करने से, मझे अनेक बार प्रतीत हुआ है कि पण्डित त्रिपाठी-यक्ति और शुद्धि दोनों में कहीं-कहीं भाष्यकार को भी मात कर गये हैं, इतना ही नहीं, उनके व्युत्पत्ति संबन्धी स्पष्टीकरण और भी अच्छे हैं। भुले विश्वास है कि चिद्वान् लोग टिप्पणी में त्रिपाठी जी के प्रयत्न की प्रशंसा करेंगे। ग्रन्थ में अनेक अनुक्रमणिका लगा दी गई है। उनमें सम्पादित दोनों कृतियों की शब्द मूबी का सम्मिलित होना तो स्वाभाविक ही है परन्तु इसके अतिरिक्त अमरकोति के भाष्य के अतिरिक्त दाब्दों की सूची, यौगिक शनरों की सूची, उद्धृत ग्रन्थ और अन्यकर्ताओं की सूची तथा ग्रन्थ में उद्धृत वाक्यों की सूची भी सम्मिलित की गई है। यह सब पण्डित महादेव जी चतुर्वेदी व्याकरणाचाने किया है। सचमुच में अन्य का सम्पादकीय भाग उत्तना पूर्ण बना दिया गया है जितना मानवी शक्ति से संभव था । और इस सब के लिए मैं प्रधान सम्पादक पण्डित महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य की योग्यता की सराहना करता हूं जिन्होंने ऐसे ग्रन्थ के प्रकाशन में इस प्रकार की विद्वन्मण्डली को एकत्रित किया है। काशी हिन्दू विश्व विद्यालय ६ सिलम्बर, १९४९ पी० एल वैद्य एम०ए० डी०लिट मयूरभंज प्रोफेसर सया अध्यक्ष, संस्कृत पाली विभाग। Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "शब्दब्रह्मणि निष्णातः परब्रह्माधिगच्छति" ब्रह्मविन्दु० शब्दब्रह्म में पारंगत व्यक्ति परब्रह्म की प्राप्ति कर सकता है। यह सिद्धान्त इस बात को सूचना देता है कि साधक को पहिले शब्दशक्ति और उसकी मर्यादा तथा भाव का ज्ञान आवश्यक है। यवि उसे शब्द के वाच्यार्थ भावार्य और तात्पर्षि की प्रक्रिया का बोध नहीं है तो वह भटक सकता है। वस्तुतः शब्द भावों के होने का एक लंगा वाहन है। जब तक संकेतग्रहण न हो तब तक उसकी कोई उपयोगिता ही नहीं है। एक ही शब्द संकेतभेव से भिष्ठ भिन्न अयों का वाचक होता है। इसीलिए दर्शनशास्त्रों में एक पक्ष यह भी उपलब्ध होता है कि शब्द केवल वक्ता फी विवक्षा को सूचित करते है, पदार्थ के वाचक नहीं है। 'घट' शब्द का संकेत वक्ता ने जिस रूप में जिस श्रोता को ग्रहण करा दिया है उसी अभिप्राय का घोत्तन वह शब्ब उस श्रोता को करा देगा। शाम्ब विद्यमान अर्थ को भी कहता है और अविद्यमान की। एक खरविषाण भी सच है जिसका अखर वाच्य पदार्थ इस संसार में नहीं है और घट शव भी है जिसका वाच्य घड़ा मौजद है। अतः शम्ब के सम्बन्ध में यह निश्चय करना कि यह शब्द अर्थवाची है और यह अनर्थवामी-टेड़ी खीर है । फिर भी शाब्दिकों ने यह प्रयत्न किया है शब्द के सार्थकत्व और अनर्थकस्य का विवेक हो जाय। ___ उसका मुख्य उपाय है शषितग्रह या संकेतग्रहण । जिस अर्थ में जिस शब्द का संकेतग्रहण होता है वह उस अर्थ का वाचक हो जाता है। यह संकेत कब किसने ग्रहण कराया इसका निर्णय कठिन है। ईश्वर को संकेत ग्रहण कराने के लिए घसीटना श्रद्धा की वस्तु है। इसका इतना ही अर्थ है कि वृद्धपरम्परा से शब्ब संफेत का ग्रहण बराबर होता आया है और वह अनादि है। उसमें विशेष हेर फेर होकर भी सामान्यतया संकेत को परम्परा अनादि है । जब से यह जीव है तभी से शब्दसंकेत है । इस संकेतग्रहण के उपाय निम्न लिखित है: "गक्तिग्रहं बयाकरणोपमानकोशाप्तवाक्याद् व्यवहारतश्च । बावग्रस्त शेषाद् विवृतेर्वदन्ति सानिध्यतः सिद्धपदस्य वृद्धाः 1३' अर्थात्----ध्याकरण, उपमान, कोश, आप्तवाक्य, व्यवहार, वाक्यशेष, विवरण और प्रसिद्ध शब्दके सानिध्य से संकेत ग्रहण होता है। इनमें व्याकरण से यौगिक शब्दों का प्रयुत्पत्ति द्वारा संफेत प्रहण . हो भी जाय पर रूद और योगरूढ़ शब्दों का संकेत ग्रहण व्याकरण से नहीं हो सकता। अन्ततः कोवा ही एक ऐसा उपाय बचता है जिससे सभी प्रकार के शादों का संकेत-ग्रहण हो जाता है। कोश अर्थात् खजाना या भंडार। व्याकरण से सिद्ध या वृद्धपरम्परा से प्रसिद्ध कैसे भी यौगिक रूद या योगाढ़ आदि शब्दों का अनेकार्य के साथ संग्रह कोश में होता है। भाषा वही समुद्ध और जीवित समझो जाती है जिसका शब भंडार पर्याप्त हो और जिसमें व्यबहार और परमार्य के लिए उपयोगी सभी शब्द विधमान हों। जिसमें अन्य भाषाओं के पा विदेशी शम्बों के पचाने की या उन्हें स्व-स्वरूप करने की सामर्थ्य हो। इस दृष्टि से संस्कृत भाश उतनी समृद्ध नहीं बन सफी। इसका कारण यह रहा है कि इस भाषा पर एफ वर्ग का प्रभुत्व रहा और उसने इसकी पाचन शक्ति को धर्म अधर्म के कल्पित बन्धन से जकड़ दिया था। उस वर्ग ने उस युग में प्रचलित अपभ्रंश और प्राकृत बोलियों का जो उस समय की जनबोलियां थी उच्चारण करना पाप गोषित किया था। फिर भी संस्कृत की जो प्रकृति प्रत्यय उपसर्ग आदि के योग से शब्दोत्पादन शक्ति यो Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाममाला उसीके कारण यह बन्धनबद्ध होकर भी विद्वभोग्य अवश्य बनी रही। संस्कृत को लोकभाषा का पब या सबकी बोली होने का सौभाग्य नहीं मिल सका । इस भाषा सम्बन्धो धर्माधर्म बिचार ने संस्कृत के कोशागार को भी सीमित कर दिया। भाषा के एकाधिकारियों ने तो यहां तक कह डाला है कि अपभ्रंश या अन्य लोकभाषा के शब्दों में वाचक शक्ति ही नहीं है। यष्टि का अपभ्रंश लट्ठी या लाठी है। ये लट्ठो या लाठी शन में पानकशक्ति स्वीकार नहीं करना चाहते। इनका कहना है कि शचफशक्ति तो 'यष्टि' शम्द में ही है । लट्ठी या लाठी शाब्द सुनकर जो श्रोता को लाठी पदार्थ का ज्ञान होता है उसकी विधि इस प्रकार है-प्रथम ही श्रोता लाठी शब्द को सुनकर संस्कृत 'यष्टि' शब्द का स्मरण करता है और फिर उस 'यष्टि' शब्द से पदार्थबोध होता है। अर्थात् ऐसे श्रोता को जिसने स्वप्न में भी 'यष्टि' शब्द नहीं सुना उसे भी लाठी शब्द से पदार्थ बोध के लिए संस्कृत 'यष्टि' शब्द का स्मरण आवश्यक है। इस भाषाधारित वर्गप्रभुत्व से संस्कृत भाषा एक विशिष्ट वर्ग को भाषा बन कर रह गई। पा० महाभाष्य के पस्पशा माह्निक में लिखा है कि--"तस्माद् ब्राह्मणेन न म्लेच्छित , नापभाषित , म्लेच्छो ह वा एष अपशब्दः ।' अर्थात् ब्राह्मण को न तो म्लेच्छ शब्दों का व्यवहार करना चाहिए और न अपभ्रंश का हो। अपशब्ब म्लेच्छ है। अपशब्द का विवरण भी वहीं यह दिया है--"यदि तावच्छब्दोपदेशः क्रियते, गौरित्येतस्मिनुपदिष्ट गम्यत एतद् गाच्यादयोऽपशब्दा इनि ।' अर्थात्-गौ शन्न है और गावी गया आदि अपशब्द हैं । यद्यपि भाषा को संस्कृत रखने के लिए व्याकरण का संस्कार आवश्यक है तभी यह एक अपने निश्चित रूप में रह सकती है. लिंग और वचन का अनुशासन भी इसीलिए आवश्यक होता है, परन्तु उसके उच्चारण में किसी जाति विशेष का या वर्ग विशेष का अधिकार मानने से उसको व्यापकता तो एक हो जाती है । नाटकों में स्त्रो, शूद्रों तथा दासों से प्राकृत भाषा का बुलवाया जाना उक्त रूढ़ि का हो साक्षी है। इतना ही नहीं, धर्मक्षेत्र में साथ शब्द अर्थात संस्कृत पाउच का उच्चारण ही पुण्य माना गया। इसका यह सहज परिणाम था कि धर्म का ठेका भी भाषा प्रभुत्व के द्वारा एक वर्ग विशेष को मिला । हुआ भी यही । धर्म का अधिकार और उससे आर्थिक सम्बन्ध एक धर्म का हो गया। इस सम्बन्ध में मौलिक क्रान्ति महाश्रमण महावीर और बुद्ध ने को । उनने भाषा के इस कल्पित बन्धन को तोड़ कर जनभाषा में धर्म का उपदेश दिया और स्त्री शूद्र तथा पामर से पामर व्यक्तियों के लिए धर्म का क्षेत्र पोला। धर्म के उच्च पब के लिए जाति का कोई बन्धन बनने स्वीकार नहीं किया। इस भाषाकान्ति से प्राकृत भाषाओं का विकास हुआ। यह नहीं है कि प्राकृत भाषाएं, व्याकरण और लिंगानुशासन से मुक्त हों। उनके अपने व्याकरण हैं, अपने नियम है, जिनके अनुसार वे पल्लवित पुष्पित और फलित होती रही है। ___ महावीर और बुद्ध के काल से लेफर ईसा को तीसरी सदी तक प्राकृत भाषाओं को गति मिलती रही। अशोक के शिलालेख प्राकृत भाषा में उपलब्ध होते है। पासनादेश प्राकृत भाषा में चलते रहे हैं। पुनः संस्कृत युग में इन भाषाओं की गति मन्द पड़ी। इस युग में जैन और बौद्ध आचार्यों ने भी ग्रन्थरचना संस्कृत में ही की । यही कारण है कि दोनों के विपुल साहित्य से संस्कृत का कोशागार भरा हुआ है। वार्शनिक क्षेत्र में उथल पुथल तो नागार्जुन दिग्नाग समन्तभद्र सिद्धसेन अफलंक आदि के ग्रन्थों से ही मनी । तात्पर्य यह कि श्रमण परम्परा ने मध्यकाल में संस्कृत भाषा के विकास में भी अपना महत्त्वपूर्ण योगवान किया । Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावनी प्रस्तुत ग्रन्थ नाममाला कोश का एक सुन्दर और व्यवहारोपयोगी आवश्यक शम्बों से समृद्ध ग्रन्थ है। महाकषि धमञ्जय ने २०० श्लोकों में ही संस्कृत भाषा के प्रमुख शब्दों का चयन कर गागर में सागर भर दिया है। शब्द से भारदान्तर बनाने की इनको अपनी निराली पद्धति है। जैसे पृथिवी के नामों के आगे 'धर शब्द जोड़ देने से पर्वत के नाम, 'मनुष्य' के नामों के आगे 'पति' शब्द जोड़ देने से राजा के नाम, 'वृक्ष के नामों के आगे 'चर' शब्द जोड़ने पर बन्दर के नामों का बन जाना आदि । इसपर अमरकीति घिरमित भाष्य सर्वप्रथम प्रकाशित किया जा रहा है। सभाष्य में प्रत्येक शब्द की व्याकरणसिद्ध व्युत्पत्ति सूत्रनिर्देश पूर्वक बताई गई है। उणावि से सिद्ध हो या अन्य रोति से पर कोई भी शब्द नि[स्पत्ति नहीं रह पाया है। इन व्युत्पत्तियों की प्रामाणिकता के लिए महापुराण, पप्रमन्दि शास्त्र, यशस्सिलफ घम्यू, मोतिधाक्यामृत, द्विसन्धानकाव्य, बृहत्प्रतिक्रमण भाष्य, महाभारत, सूक्तिमुक्ताश्ली, पाब्बभेव, अनेकार्ययनिमञ्जरी, अमरसिंह भाष्य, आशाधर महाभिषेक, नीतिसार, शाश्वत, हमीनाममाला आदि ग्रन्थों तथा यशःकोति, अमरसिंह, आशापार, इन्द्रनचि, भोरस्वामी, पचनन्वि, श्रीभोज, हलायुध आदि ग्रन्थकारों को नाम निर्देशपूर्वक प्रमाणकोटि में उपस्थित किया है। अनेक व्युत्पत्तियां तो अमरकीर्ति की कल्पना के अच्छे उदाहरण है। यया--- "प्रियन्ते क्षुद्रजन्तवोऽस्य स्पर्शेनेति मरुत्' अर्थात् जिसके स्पर्श से क्षुद्र जन्तु मर जाय वह मरुत है। "न नन्दति भ्रातृजाया यस्यां सत्यां सा नमान्दा" जिसकी मौजूदगी में भौजाई स्युश न हो यह ननांवा-ननय है। "यज्ञानां पशुकारणलक्षणानामरि: यज्ञारिः" अर्थात् पशुयज्ञ का विरोधी महादेव हैं । आदि । इसके साथ ही एक अनेकार्थ निघण्टु भी मुद्रित किया गया है। इसके अन्त में निम्नलिखित पुष्पिका लेख है :--"इति महाकदिधनजयकृते निघण्टु समये भाग्दसंकीर्णे अनेकार्थप्ररूपणो द्वितीयपरिच्छेवः ।" इसकी एक मात्र अशुद्धतम प्रति पं० जुगलकिशोरजो मुख्तार अधिष्ठाता घोरसेषामन्विर से प्राप्त हुई थी। रचना शैली आदि से यह निश्चय पूर्वक नहीं कहा जा सकता कि यह उन्हीं धनञ्जयकी कृति है, पदापि पुष्पिका बाक्य में स्पष्ट रूपसे धनजय का उल्लेख है। इसके साथ ही एक अज्ञातकर्तक एकाक्षरी कोष का भी मुद्रण किया है। इसको हस्तलिखित प्रति भी धीरसेवा मन्दिर से ही प्राप्त हुई थी। प्रस्तुत संस्करण चमरफोतिकृत भाष्य की एकमात्र अशुद्ध प्रप्ति ऐलक पन्नालाल सरस्वती भवन झालरापाटन से प्राप्त हुई थी। इसीके आधार से इसका सम्पादन पं० शम्भुनाथजी त्रिपाठी ने किया है। संस्करण में जो अनेक परिशिष्ट है ये सन पं० महादेवजी चतुर्वेदी व्याकरणाचार्य ने तैयार किये हैं। टिप्पणियाँ ५० भुनाथ जी त्रिपाठी ने बजे परिश्रम से लिखी है। मुझे यह लिखते हुए आनन्द होता है कि उनके सर्वतोमुखी अगाध पाण्डित्य का परिचय टिप्पणों में पद पद पर मिलता है। Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्धकार [ महाकवि धनञ्जय] नाममाला के कर्ता महाकवि धनञ्जय है। इन्होंने स्वयं अपने किसी ग्रन्थ में अपने समय आदि के बारे में निर्देश नहीं किया है। ये ग्रहस्थ थे। द्विसन्धानकाव्य के अन्तिम श्लोक की व्याख्या में उसके टीकाकार ने धनञ्जय के पिता का मास धसुदेव, माता का नाम श्रीदेवी और गा का नाम वशरथ सूचित किया है। इनकी ख्याति विसन्धानकमि' के नाम से थी। नाममाला के अन्त में पाया जानेवाला यह इलोक स्वयं इसका साक्षी है :-- "प्रमाणमकलङ्कस्य पूज्यपादस्य लक्षणम्। द्विसन्धानकवेः कान्यं रत्नत्रयमपदिंचमम्॥" अर्थात्-अफलादेब का प्रमाण शास्त्र, पूज्यपार का लक्षण-व्याकरण शास्त्र और द्विसन्धानकवि का द्विसन्धानकाय्य ये तीनों अपूर्व रत्नत्रय है। यह इलोक नाममाला के भाष्यकार अमरकीति के सामने था, उनने इसकी व्याख्या भी की है। इसमें इनका उप-नाम द्विसन्धानकवि' सूचित किया गया है। टीक भी है। क्योंकि महाकवि धनञ्जय की सर्वश्रेष्ठ चमत्कारिणी कृति द्विसन्धानकाय हो है। पादिराज सूरि ने पार्श्वनाथ चरित के प्रारंभ में द्विसन्धान काव्य की प्रशंसा करते हुए लिखा है : "अनेक दसन्धानाः खनन्तो हृदये मुहुः । बाणानन्तायोसा मागेर लिया; कपम् ।' अर्थात् धनञ्जय के द्वारा कहे गए अनेक सन्धान-अर्थभेद बाले और हृदयस्पर्शी वचन कानों को ही प्रिय कैसे लगेंगे जैसे कि अर्जुन के द्वारा छोड़े जाने वाले अक लक्ष्यों के भेदक मर्मभेवी वाण कर्ण को प्रिय नहीं लगते? द्विसन्धान काट्य अपने समय में पर्याप्त प्रसिद्धि प्राप्त कर का था। इसका उल्लेख धारापोश भोजराम के समकालीन आचार्य प्रभाचन्द्र ने अपने प्रमेयकमलमार्तण्ड (पृ.० ४०२) में किया है। जल्हण (१२वीं सदी) विरचित सूक्ति मुसावली में राजशेखर के नाम से पनञ्जय की प्रझांसा में निम्नलिखित पर "द्विसन्धाने निपुणतां स तां च धनञ्जयः 1 यया जातं फलं तस्य सतां च धनञ्जयः ।।' इस लोक में राजशेखर ने धनञ्जय के हिसन्धानकाय का मनोमांधकर सर्राण से उल्लेख किया है। धनञ्जय कधि के द्वारा एक विषापहार स्तोत्र भी बनाया गया है। यह अपने प्रसाद ओज और गाम्भीर्य के लिए प्रसिद्ध है। कहते हैं कि यह स्तोत्र कवि ने अपने सपंदष्ट पुत्र का विष उतारने के लिए बनाया था। समयविचार इनके समय निर्णय के लिए निम्नलिखित प्रमाण हैं :-- (१) प्रमेयकमलमार्तण्ड आदि के रचयिता प्रभाचन्द्र (१० ११षों सदी) ने इनके द्विसन्धान काव्य का उल्लेख किया है अतः ये ११वों सदी के बाद के विद्वान् तो नहीं हैं। Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना (२) इसी तरह वाबिराज सरि ( सन् १०३५ ) ने पार्श्वनाथ चरित में धनजय और द्विसन्धान का निर्देश किया है अतः ये ११वीं सदी के बाद के नहीं है। (३) जाहण (१२वीं सदी) ने राजशेखर के नाम से सूक्तिमननावली में जो पा उद्धृप्त किया है, वह राजशेखर काव्यमीमांसाकार राजशेखर हैं। इनका उल्लेख सोमदेव (६० १६०) के यशस्तिलक धम्पू में पाया जाता है अतः राजशेखर का समय ई० १०वीं सबो सुनिश्चित है। राजशेखरके द्वारा प्रशंसित होने के कारण धनजय का समय १०वीं सदी के बाद का नहीं हो सकता। (४) उ•ि हीरालालजी ने षटल जागम प्रथम भाग की प्रस्तावना (9. ६२) में यह भूचित किया है कि जिनसेन के गुरु वीरसेन स्वामी ने धवला टीका (पृ० ३८७) में अनेफार्थ नाममाला फा निम्नलिखित लोक प्रमाणरूप में उपत किया है: "हेतावेवं प्रकारायः व्यवच्छेदे विपर्यये । प्रादुर्भावे सगातौ च इतिराज्दं विदुर्बुधाः ॥" यह श्लोक अनेकार्थ नाममाला का है। धवलाटीका वि० सं० ८७३ सन ८१६ में समाप्त हुई थी अतः धनञ्जय का समय ९वीं सदी के बाद नहीं हो सकता (५) धनजय ने अकलंक देव का उल्लेख 'प्रमाणमकलङ्कस्य' श्लोक में किया है । अकलंक का समय ई० ७वीं सदी निश्चित है, अतः धनञ्जय ७वीं सदी से पूर्व के नहीं हो सकते। संस्कृत साहित्य का संक्षिप्त इतिहास के लेखकद्वय ने धनञ्जय का समय ई० १२वां शतक का मध्य निर्धारित किया है। (५० १७४) उनने अपने इस मत फो पुष्टि के लिए डॉ० के० बी० पाठक महाशय का यह मत भी उद्धृत किया है कि--"धनजय ने द्विसन्धान महाकाव्य की रचना ई० ११२३ और ११४० के मध्य में की है"। पर उपरोक्त प्रमाणों के आधार से घनजय का समय ई० ८ वीं सदी का अन्त और नवीं का पूर्षि सिद्ध होता है। जल्लण को सूक्तिमुक्तावली में जो ई० १२वीं सदी को रचना है, राजशेखर के नाम से उद्धृत हिसन्धाने निपुणतां' इलोक कायमीमांसाकार राजशेखर का ही हो सकता है, न कि प्रबन्धकोश के कर्ता राजशेखर का । संस्कृत साहित्य के इतिहास के लेखकद्वय यह भ्रान्ति कर बैठे हैं, वे स्वयं जम्हण -को १२ वीं सदी का विहान लिखकर भी उसमें उद्धृत राजशेखर को १४वों सवी का जैन राजशेखर बताते हैं ! अतः धनञ्जय का समय उपक्त प्रमाणोंके आधार से ई० ८वीं का उत्तर भाग और नदी का पूर्व भाग प्रमाणित होता है। भाष्यकार अमरकीर्तिमहापण्डित अमरकोति ने नाममाला के भाष्य के अन्त में यह पुष्पिका वाक्य लिखा है :-- "इति महापण्डितश्रीमदमरकोतिना वियेन श्री ऐन्द्रवंशोत्पन्न शब्दवेधसा कृतायां धनञ्जयनाममालायां प्रथमकाण्र्ड व्याख्यातम्" इससे इतना हो ज्ञात होता है कि अभरकीति 'विद्य' उपाधि से विभूषित थे और वे सेन्द्रवंश (सेनवंशा) में उत्पन्न हुए थे। इन्होंने अपने को 'शब्दवेधा' उपाधि से अलजकृत किया है। मंगल इलोकों में पूज्यपाद अकलङ्क विधानन्दि और समन्तभद्र के साथ ही साथ एक कल्याण १. इसी के आधार से कल्पद्र कोश की प्रस्तावना ( P.xxxii ) में श्री रामावतार शर्मा ने भी भी धनन्जय का समय १२वीं सदी लिखा है। Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाममाला कोति को भी नमस्कार किया है। इन्होंने अन्य के बीच में जहां आवश्यकता भी नहीं है वहाँ भी अपमा नाम देने में संकोच नहीं किया है। कई स्थानों पर धनजय के इलोकों की उत्थानिका में भी "सम्प्रति मनुष्यवर्ग आरभ्यसे अमरकीर्तिना" (पृ. १३) आदि लिखा है। जो स्पष्टतः श्रम उत्पन्न करता है। एक जगह तो धनञ्जय के इस डोका की पाया करते ए स्वयं अपना ही. नाम लिख दिया है--"शारिधिर्वर्ण्यतेऽधुना। अधुना हदानी धारिषिवर्यते कथ्यते । केन भाष्यका श्रीमदमरकीतिना। स्पष्टतया यहां 'कन का उत्तर धनञ्जयेन' होना चाहिए था। अमरकीति नाम के तीन विद्वानों का पता लगता है :(१) 'छक्कममोवएस' आदि ग्रन्थों के रचयिता अमरकोति'। इन्होंने वि० सं० १२४७ भावों भुधी १४ के दिन यकस्मोषएस ग्रन्थ समाप्त किया था । अर्थात् ये ईसवीय १२ वों सदी के अन्तिम भाग और तेरहवों के प्रारम्भ में विद्यमान थे। ये अमितगति आचार्य की परम्परा में हुए हैं। इनकी गुरु परम्परा यह है :-अमितगति, शान्तिर्षण, अमरसैन, श्रीषेण, चन्द्रकीति और चन्यकीति के शिष्य अमरकोति।। (२) वर्धमान के प्रगुरु अमरकोति । इनको परम्परा इस प्रकार है....देवेन्द्र विशालकीति, शुभफीति, धर्मभूषण, अमरकीति,.....धर्मभूषण वधमान । वर्धमान ने शक संवत् १२९५ वैशाख सुदी ३ बुधवार को धर्मभूषण की निषधा मनवाई थी। इस शिलालेख के अनुसार अमरकीर्ति का समय शक १२५० के आसपास सिद्ध होता है। ये ईसवीय १४वीं सदी के विद्वान थे। इनके इस समय का समर्थन शक १३०७ में उत्कीर्घ वि जयनगर के शिलालेख से भी होता है। (३) दशभक्त्यादि महाशास्त्र के रचयिता वर्षमान के समकालीन, विद्यानन्द के पुत्र विशालकीर्ति के सधर्मा अमरकोप्ति । इनके सम्बन्ध में दशभक्रयाविशास्त्र में लिखा है :-- "जीयादमरकीरित्यभट्टारकविरोमणिः । विशालकीतियोगीन्द्रसधर्मा शास्त्रकोविदः ।। अमरकीतिमुनिर्विमलाशयः कुसुमचापमदाचलवज्रभृत् । जिनमतापहृतारितमाश्च यो जयति निमंलधर्मगुणाश्रयः ॥" अर्थात् शास्त्रकोविध विमलाशय कामजेता निर्मलगुण और धर्म के आश्रय तथा जिनमतके प्रकाशक अमरफीति भट्टारक विशालकोति के सर्मा थे। विशालकीति के पिता विद्यानन्द का स्वर्गवास शक १४०३ सन् १४८१ में हुआ था। यह उल्लेख दशभक्त्यादि महाशास्त्र में विद्यमान है। अतः उनके पुत्र विशालकीति के सधर्मा अमरकोति का समय करीब सन् १४५० अर्थात् ईसवीय १५ वौं शताब्दी सिद्ध होता है । दाभस्यादि शास्त्र का समाप्तिकाल १४०४ शक अर्थात् १४८२ ई० है। १. देखो डा. हीरालाल का 'अमरकीतिगणि और उनका पट्कर्मोपदेश' लेख । जैन मि. भास्कर भाग २ अंक ३। २. जैन शिलालेख संग्रहका ११वां शिलालेख । ३. प्रशस्तिसंग्रह के सम्पादक पं० के० भुजबली शास्त्री ने 'शाके वहिखराब्धिचन्द्रकलिते संवत्सरे का अर्थ शक १४६३ किया है। जब कि दशभक्त्यादि शास्त्र की समाप्ति सूचक 'शाके बंदख राधिचन्द्रकलिते' का अर्थ १४०४ शक किया है। दोनों जगह ख का शून्प लेना चाहिये। यदि दाभबत्यादि शास्त्र' शत्रः १४०४ में समाप्त हुआ है तो उसमें शक १४६३ में हुई विद्यानन्द की मृत्यु की चर्चा कैसे आ सकती है ? ४. देखो प्रशस्तिसंग्रह, १.० १२८ । Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रन्थकार इन तीन अमरकीति में प्रस्तुत ग्रस्य के रचयिता छक्कथ्मोवएस के रचयिता नहीं हो सकते क्योंकि उनका काल वि० १२४७ के आसपास है. जब कि माममाला के भाष्य (१० ६२) में आशाभर के महाभिषेक से उद्धरण दिया है। आशाधर ने अपना अनगारधर्मामृत वि० १३०० में समाप्त किया था। अतः प्रथम अमरकीति इस ग्रन्थ के रचयिता नहीं हो सकते। इस से यह निष्कर्ष निकलता है कि प्रस्तुत ग्रन्थ के भाष्यकर्ता अमरकोति वि० १३०० अर्थात ईसवोय १२४३ तेरहवीं सदी के पहिले के विद्वान तो नहीं हैं । इन्होंने भाष्य में भोज (१श्वों सबी) इन्द्रनन्धि (१०वीं सदी) पद्मनन्धि (१२वीं सदी) सोमप्रभ (१२वो स्दी) हेमचन्द (१२-१३ई सदी) आदि के ग्रन्थों से भी नामोल्ले पूर्वक अवतरण लिए है। शेष को अमरकोति पृथक व्यक्ति सो है ही। द्वितीय अमरकीति को प्रशंसा में बिजयपुर के शिलालेख में निम्नलिहित पध मिलते हैं - "शिष्यस्तस्य गुरोरासीदतर्गलतपोनिधिः। श्रीमानमरकीर्यो देशिकानेसरः शमी। निजपक्षपुटकबाट घटयित्वानलरोधतो हृदये। अविचलितबोधदीपं तममरकीति' भजे तमोहरणम् ।।" अर्थात्-अमरकीति महातारको वातार सधी सारे मामले थे। इस वर्णन से ज्ञात होता है कि ये अमरकीति शास्त्रकार की अपेक्षा घोगी और तपस्वी ही विशेष रूप से ये । नाममाला भाग्य में जिस प्रकार की यशोसिसा पकती है वह एक योगी और तपस्वी में नहीं हो सकती। अतः मेरे विचार से द्वितीय अमरकीर्ति भी प्रस्तुत प्रन्थ के रचयिता नहीं है। तृतीय अमरकीति के वर्णन में 'शास्त्रकोविद विशेषण उनके पाण्डित्य का निर्देश कर रहा है। अतः हमारे प्रकृत ग्रन्यकार दशभक्त्यादि महाशास्त्र के रचयिता वर्धमान के समकालीन, विद्यानन्द के पुत्र विशालकीति के सधर्मा अमरकीति है। ये सन् १४५० के आसपास अर्थात् पाहवीं सदी के विद्वान थे। इस समय का साधक एक प्रमाण यह भी हो सकता है कि हनने कल्याणकीति को नमस्कार किया है। कल्याणकीति का एक जिनयज्ञफलोषय अन्य मिलता है। उसकी प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि ये भट्टारक ललितफोति के शिष्य थे। कल्याणकीर्ति ने जेट सुदी ५ शक संवत् १३५० में जिनयक्षफलोदय समाप्त किया था । अर्थात् सन् १४२८ में यह अन्य समाप्त हुआ था । यदि यही कल्याणकीति अमरकीति के द्वारा स्मृत हुए है, तो मानना होगा कि अमरकीति पन्द्रहवीं सदो के विद्वान् हैं। आभार इस ग्रन्थ के सम्पादक ५० शम्भुनाथजी त्रिपाठी व्याकरणाचार्य सासतीयं अनेक स्त्रों के गंभीर विद्वान् है । वर्षों तक उनने जैन विद्यालय इन्दौर में साहित्य और स्याकरण का अध्यापन कराया है। थे जैन परम्परा से पूरी तरह परिचित हैं। उनके जैसे अगाध ज्ञानी निरहङ्कारी और विद्याजीवी विज्ञान विरल है। उनके तलस्पर्शी गंभोर पाण्डित्य का निदर्शक यह संस्करण है। ज्ञानपीठ इस अन्य के सम्पादक के रूप में उन्हें पाकर गौरवान्वित है। डॉ० पी० एल० बैध ने इस ग्रन्थ का प्राक्कथन लिखकर हमें उपकृत किया है। पं० हरगोबिन्दजी शास्त्री व्याकरणाचार्य ने अनेकार्थ निघण्टु का सम्पादन किया है। पं. महादेव चतुर्वेदी ने सम्पादन परिशिष्टनिर्माण और प्रूफ संशोधन में पूरा योग दिया है। पं० प्रजनन्दनजी मिश्र ध्याकरणाचार्य ने भी प्रेस कापी आदि में पूरा सहयोग दिया है। गुलाबचन्द्रजी व्याकरणाचार्य एम० ए० १ देखो प्रशस्ति संग्रह पृ० १६ । Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाममाला ने प्राक्कथम का हिन्दी अनुवाद किया है । पं० जुगलकिशोर जी मुख्तार ने अनेकार्यनिघण्टु और एकाक्षरी कोश की प्रति भेजी। पं० श्रीनिवासजी शास्त्री ने भाष्य को प्रति भेज कर अनुगहीत किया है। भारतीय ज्ञानपीठ के संस्थापक सेठ शान्तिप्रसाद जी तया अध्यक्षा सौ. रमा रानी जो की संस्कृतिनिष्ठा, उदार वृष्टि, शानानुराग और सौजन्म इस संस्था के जीवन हैं। अपनी स्व. पुण्यश्लोका माता मत्तिदेवी के स्मरणार्थ मूतिदेवी ग्रन्थमाला के संस्कृत विभाग का यह छठवां ग्रन्थ प्रकाशित हो रहा है। इस भद्र दम्पत्ति से ऐसे ही अनेक लोकोदयकारी सांस्कृतिक कार्यो को आशा है। इस संस्था के कर्मनिष्ट मन्त्री श्री अयोध्याप्रसाद जी गोयलीय की कार्यवृष्टि, सत्प्रेरणा और प्रयत्न से इस संस्था का दस रूप में सञ्चालन हो रहा है। मैं इन सब का आभार मानता हूँ। 'भारतीय ज्ञानपीठ काशो, पौष शुक्ल १५ वीर सं० २४७६ ३३१५० -~-महेन्द्र कुमार जैन ग्रन्थमाला सम्पादक प्रकाशन-व्यय ४०.) कागज २० रीम २२४२९/३२ पौण्ड । ५४५॥) कार्यालय व्यवस्था प्रूफ संशोधन आणि ९७५) छपाई पृष्ठ १९६ दर ५०) प्रति फार्म ! ४२६-) सम्पादन २००) जिल्द बधाई | ५००) भेंट आलोचमा, विज्ञापन आदि ६०) कनर छपाई ७८७।।) कमोशन ४०) कवर कागज कुल लागत ३९३४१००० प्रति छपी। लागत एक प्रति ३॥ मूल्य ३५॥) Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्या नाममाला अनेकार्थनिघण्टुः एकाक्षरी कोशश्च Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . महाकविधनञ्जयप्रणीता नाममाला अमरकीर्तिविरचितभाष्योपेता श्रीपूज्यपादमकलङ्कमनन्तबोधं विद्यादिनन्दिनमिनं च समन्तभद्रम् 1 कल्याणकीर्तिममलं पित्य वीर भाष्यं करोमि परम बुधबुद्धिसिद्धयं ॥ १ ॥ सरस्वत्याः प्रसादेन रच्यतेऽमरकीर्तिना । भाध्यं धनञ्जयस्येदं बालानां धीविवृद्धये ॥२॥ यद्यपि धनञ्जयो ( येमो) स्तो भावो धक्तुं न शक्यते । तथाऽन्यहं प्रवक्ष्यामि वाग्देच्याश्च प्रसादतः ॥ ३ ॥ पूर्षाचार्यकृता प्रायो घ्युत्पत्तिरुपदिश्यते । क्वापि क्यापि स्त्रबुद्धथाऽपि क्षम्यतामन मे बुधैः ॥ ४ ॥ शिष्टासमाचार (प्राचार) परिपालना नमस्कारसमुद्गतधर्मद्वारेण निर्विघ्नशानसमाप्त्यर्थ च धनञ्जयबुधः इष्टाधिकृतदेवतानमस्कारार्थ श्लोकमाइ __ तन्त्रमामि परं ज्योतिरवाङ्मनसगोचरम् । उन्मूलयत्यविद्यां यद् विद्यामुन्मीलयत्यपि ॥१॥ तत्परं ज्योति:"णमो' अरईताणं णमो सिखाणं णमो आइरियाणं । गमो उपभायाणं णमो लोए सव्वसा. हूणं ॥" ईदृग्विधम् । नमामि नमस्करोमि । किंविशिष्टम् ? वाङ्मनसगोचरम् वाक् च वाणी मनसंरे १५ च चित्तं वाङ्मनसे तयोर्वाङ्मनसयोन गोचरं न प्रत्यक्षीभूतम् अवाङ्मनसगोचरम् अलक्ष्यस्वरूपत्वात् । तथा चोक्तं शब्दभेदे"नभन्तु नभसा साधं मनसं मनसाऽपि च | तमसेन तमः प्रोकं तपन्तु तपसा सह ॥" तथा च पद्मनन्दिशास्त्र-- ""स्त्रानुभूत्यै भवेद् गम्यं रम्यं यश्चात्मवेदिनाम् । जाने तत्परं ज्योतिरवाङ्मनसगोचरम् ।।" २० १ एतत्यञ्चनमस्कारात्मकमन्त्रप्रतिपाद्यमईसिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुरूपमा ज्योतिः । २ नर्भ तु नभसा सार्थमित्यादिशन्दभेदीसप्रमाणतोऽकारान्तोऽपि मनसशब्दः साधुः । ३ साम्प्रतं निर्णयसागरयात्रा. लयमुद्रिते शब्दभेदनकाशग्रन्थे एतत्पद्यं किञ्चिदन्यथोपलब्धम् । तदित्यम् - कुमुदं कुमुदा चापि योषिरस्यात् योपिता सह । तमस्नु तमसा प्रोक्तं रजसाऽपि रजः स्मृतम् ||३४|| अत्र कालप्रकर्षाद्यद्यपि मनसशब्दः प्रम्राटस्तथापि तदानीन्तनमूलपुस्तके ततथैवासीदिति ध्रुषम् । ४. प० प० २२॥१॥ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५ अमरकोर्तिविरचितभाष्योपेता __ यत् अविद्या पापविद्याम्, चाटुकारसूत्रम्, वैद्यकसूत्रम्, चित्रकर्मादिसूत्रम्, नृत्यसूत्रम्, गन्धर्वमूत्रम्, पटसूत्रम्, अगदसूत्रम्, यौद्धसूत्रम्, मद्यसूत्रम्, द्यूतसूत्रम्, राजनीतिसूत्रम्, चतुरङ्गसूत्रञ्च । गजतुरगपुरुषकमबदगदण्डाजमाता च विया पविदा ] गये, ताम् उन्मूलयति मूलादुच्छेदयति । यत् ' विद्यामपि उन्मीलयति स्थापयतीत्यर्थः । द्वयं द्वितयमुभयं यमलं युगलं युगम् ।। युग्मं द्वन्द्वं यमं द्वैतं पादयोः पातु जैनयोः ॥२॥ देश युग्मे । द्वौ अवयवौ यस्य तद् द्वयम् , "वित्रिभ्यामयड् वा ।" द्वितयम् द्वौ अवयवौ यस्य तद् द्वितयम् । उभयम् उभी अवयवौ यस्य "द्वित्रिभ्यामथट्" इत्यनुवर्तमाने "उभाभ्या नित्यम्' इत्ययट् न तु तयट् । यमलं यमं लातीति यमलम् | युगलं युगं लातीति युगलम् । युगडं युगड च । युगं १० युज्यते धर्मवृश्या युगम् ! समाश्रयत्यन्यं युगम् । युग्मम् युन क्ति द्वितीयेन युज्यते श्लिप्यते युग्मम् । "युजिचितिजा मा५ ।' सुन्नम् द्वौ द्वावित्यर्थः द्वन्दम् । यच्छत्युपरमत्येकत्वात् यमम् । दाम्यामितं द्वीतम्, द्वीतमेव द्रुतम् । पातु रक्षतु | ऋषिमुनितिर्भिक्षुस्तापसः संशितो व्रती । तपस्वी संयमी योगी वर्णी साधुश्च पातु वः ॥३॥ द्वादश मुनौ । ऋषति कालत्रयं जानातीति ऋषिः । "रिपिशुचिगनाम्वुपधादिकः" । तथा च यशस्तिलके - __ "रेषणाक्नेशराशीनामृषिमाधमनीषिणः।" यतिः यो देहमानारामः सम्यविद्यानौलाभेन तृष्णासरित्तरणाय योगाय शुक्लध्यानधर्मध्यानाय यतते स यतिः । तथा च यशस्तिलके --- "यः पापपाशनाशाय यतते स यतिर्भवेत् ।" मुनिः, तपःप्रभावात् सर्वैर्मन्यते मुनिः । “मन्यतेः फिरत उच्च ° ।' तया च मान्यत्वादाप्तविद्यानां महद्भिः कीत्यते मुनिः।" भिक्षुः भिक्षते इत्येवंशीलो भिक्षुः 1 "सन्नन्ताशंसिभिक्षामुः१२ ।" तापसा, तपी विद्यते यस्य स तापसः । "अण्१३ च ।" तपःसहस्राभ्यां न केवलमत्यर्थे विनीनौ अपच, वृद्धिः। संशितः संशायते २३ स्म संशितः | "श्यतेवते नित्यम् ।" व्यवस्थितविभाषया शो तनूकरणे इत्यस्य व्रतेऽर्थे निस्यभिकारो भवति, विकल्पो नास्ति । व्रती, "हिंसाऽनृतम्तेयाऽब्रह्मपरिग्रहेभ्यो विरतिव॑तम् "1" व्रतं विद्यतेऽस्प व्रती । तपस्वी "अनशनावमौदर्यवृत्तिपरिसंख्यानरसपरित्यागविविक्तशय्यासनकायक्लेशा बाय तपः।" "प्रायश्चित्तविनयथावृत्त्यस्वाध्यायव्युत्सर्गध्यानान्युत्तरम् । १७ तपश्च विद्यते यत्येति तपस्वी । संयमी, सयमनं संयमः इन्द्रियमाणलक्षणः । संयमी विद्यते यस्येति संयमी । योगी, ७ युजिर १. यत् इत्यस्य पूर्वम् 'तथ!' इति पद योज्यम् | २. हे. श०७१।१५१ । ३. एतसूत्रं है. श नोपलब्धम् । परंतु द्वित्रिभ्यामय ड्वा इत्यनुवर्तमाने उभाभ्यां नित्यमिति दीकोतवचनासस्थमेवै. तत्सूत्रमिति निश्चीयते । ४. कालवाचक्रयुगपरतयेयं व्युत्पत्तिः, प्रकृतार्थे तु युगं लातीत्येव । ५. का० उ० १५७ इति मक् प्रत्ययः क्रुत्वं च । ६. गनाम्म्युपधास्किः का० उ० ३।१५ इति किप० । ७. यशस्ति. श्रा०८, क० ४४ । ८. यती प्रयत्ने । इः सर्वधातुभ्यः का. उ०३।१४ इन । ६. यश. श्रा० ८ कल्प ४४ । १०. का० उ० ४.३ इति किया । मनु श्रवबोधने । ११. यशः श्रा० ८ कल्प ४४ | १२. का. सू० ४/४/ ५१ | १३.पा० सू० ५१२२१०३ । १४. श्यतेरित्वं त्रने नित्यमिति पातजलभाष्यम् ७/४/४१ । १५. त० सू०७।१ । १६ त० सू० । १७ त. सू. १८. एव चिह्नितांशस्थाने युजिर योगे रुधादी परस्मैपदी युज् समाधौ या दिवादी आत्मनेपदी इत्येघम्पाठः सुगमः । Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाममाला ३ योगे, युज समाधी पर० युज् समाधी वा. दि० । आत्म० युञ् रुघादौ । पर० शुज समाधी वा दि० । श्रात्म० युनक्ति युज्यते वा इत्येवंशीलः योगी | गुजभजेत्यादिना' विनिण् । वर्णी, वणों प्रश्नचर्यमल्यस्य वण । साधुः, शिष्याणां दीक्षादिदानाध्यापनपराङ्मुखः सकलकर्मोन्मूलनसमथों मोक्षमार्गाऽनुष्ठानपरो यः स साधुः । सिद्धिं साधयति साधययिष्यति वा साधुः । “स व्याख्याति न शास्त्रं न ददाति दीक्षादिकं च शिष्याणाम् । कर्मोन्मूलनशक्तो [धर्म] ध्यानः स चात्र साधुज्ञेयः ।।" "कृवापाजिमीस्वदिसाध्यशषणिजनिचरिचरिभ्य उण्" । वो युष्मान् पातु रक्षतु । दीक्षितं मौण्ड शिष्यं च तमन्तेवासिनं विदुः । चत्वारः शिष्ये । [वीक्षितम्] दीक्षा संजाताऽस्येति । तारफितादिदर्शनात्संबातेऽर्थ इतन् । मौरड्यम् मुण्डे मस्तके भवं वपनादिकं मौण्यम् । शिष्यम् , शिष्यते व्युत्पाद्यते गुरुणा शिष्यः । १० "वदृजुपीणशासुस्तुगुहां क्या ।" गुरोरन्ने वसत्यन्तेवासी तम् । विदुः कथयन्ति । कृतान्ताऽगमसिद्धान्ताः प्रयः सिद्धान्त | लोकानां सन्देहस्य कृतः अन्तो विनाशो येन सः कृतान्तः । श्रागच्छतीत्यागमः, श्रागमनमागमो वा । सिद्धान्तो [ सिद्धोऽन्तो ] निश्चयो यस्य स सिद्धान्तः, समयोऽपि | सर्वे पुंसि । गन्थः शास्त्रमतः परम ॥ ५ ॥ अनाति रचयतीति ग्रन्थः । शास्ति शास्त्रम् । भूमिभूः पृथिवी पृथ्वी गहरी मेदिनी मही । घरा वसुमती घात्री क्षमा विश्वम्भराऽवनिः ॥ ५ ॥ चसुधा धरणी क्षोणी मा धरित्री क्षितिश्च कुः। कुम्भिनीलोरा चोर्वी जगती गौर्वसुन्धरा ॥ ६॥ सप्तविंशतिभूमौ । भवति सर्वमत्र भूमिः। "अमिभूमिरश्मयः ।' भक्त्यस्मात्सर्व भूः । रेफान्तम्नाव्ययम् । प्रथते पृथिवी पृथ्वी च | गुइयतीति गहरी । रुहरीति पाठः । न्याये मेति स्निपति मधुकैटभमेदोयोगद वा मेदिनी । मह्यते मही। मह पूजायाम् । धरत्ययान् धरा । वस्वस्त्यस्याः वसुमती । दधाति संग्रहाति भेषजा) वैद्यो यामिति धात्री | "कर्मणि' घेट: ट्रन् । कचिधातेरपीछन्ति। क्षमणं क्षमा") "पाऽनुबन्धभिदादिभ्यस्त्वा ।" विश्व निभर्ति विश्वम्भरा । 'नाम्नि तृजिवारि- २५ तपिदमिसहा संशायाम्।” खप्रत्ययः । भूतानवति अनिः । स्त्रियामीः। 73 "मृतसञ्धम्यश्यविवृतिग्रहिभ्योऽनिः ।" अनिः प्रत्ययः । वसु दधातीति यसुधा । धरति पर्वतानिति धरणिः । 'धृतोऽनिः'४" दौति क्षुपम क्षोणि। नियामीः । क्षोणी । "टु क्षु सकु शब्दै" । क्षमते भारं श्मा क्षमा च । धरति सर्व धरित्री । क्षयति क्षयं प्राप्नोति प्रलयकाले क्षितिः । कायति कूयते वा कुः। कुम्भो रत्नोत्पत्तिदीपो. ल्यत्याः कुम्भिनी । एति जन इमाम् इला। “हरासुराकपिलिकादिदर्शनाल्लत्वम् ।' १"शूद्वादयः-- ३० १. युधभजभुजद्विषद्गुष्टुहाक्रीडत्यजानुरुधाङ्यमाङ्माङ्यसरमाऽभ्याङ हुनां च इति पूर्ण कार सू० ४।४।१२। २. का० उ० श। ३. तदस्य संजास तारकादेरित इति का० रू. पू. सू० ५८ । ४. मौण्ड्यमस्यास्तीत्यपि विग्रह निवेश्यम् । अर्श आदिभ्योऽन् । ५. का. सू० ।२।२३। ६. अश्यते रच्यते इति कर्मणि विग्रहो योग्यः । ७. का० उ० ३।३२ इति भवतेमिप्र० कित्त्वं च ! ८. गूहतीति गहरी सहरी इत्यपि पाठ इति युक्तम् । ६. का० सू० ४४|६० इति हुन् । १०. वस्तुतस्तु क्षमते इति क्षमा, पचादित्यादच , राप् । ११. का. सू० ४/५/८२ । १२. का० सू० ४।३।४ । १३. का. उर २।४३ । १४. का० उ०२।४३ धृतधृञः इत्यादिसूत्रम् । १५. का० उ० २।१७ । Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमरकीर्तिविरचितभाष्योपेता "शूद्रोग्रवजधिप्रभद्रगौरमेरीराः' एते रकमत्ययान्ता निपात्यन्ते । क्लेशमुर्वेति हिनस्ति फलेन उर्वरा । उीं । उवा थुवौं दुवी धुवी हिंसाः । सर्वपूर्वति व्याप्नोति उर्दिः । नियामीः उर्वी । राजान्तरं गच्छति अगतिः । स्त्रियामीः,जगती । पूजां गच्छति गौः । स्त्रीनोः। गमेडोंः। 'गोरी धुटि" इत्यौत्वम् । धृञ् धारणे । धृ: । धरति धरते । इश् । अस्य वृद्धिः। धारि जातम् । वसु वसूनि वा धारयत्ति बसुन्धरा । नाम्नि ५ तृभू०२ खप्रत्ययः । कारितस्या० कारितलो। अभिधानात् हस्वः । “हस्वा रुयोर्मोऽन्तः ।" "स्त्रिया" मादा ।" भूतधात्री, रत्नगर्भा, विपुला, सागराम्बरा, रत्नवती, रसा, अचला, अनन्ता, यामकाश्यपी, गोत्रा, स्थिरा, सर्वेसहा ! तत्पर्यायघरः शैलस्तत्पर्य्यायपतिनृपः।। तत्पायरुहो वृक्षः शब्दमन्यं च योजयेत् ।। ७ । १० योजयेत् योग्येत् अन्य शब्दं च । तत्पर्यायधरः शैलः । भूमिधरः, भूधरः, पृथिवीधरः पृथ्वीधरः, गहरीधरः, मेदिनीधरः, महीधरः, धराधरः, वसुमतीधरः, पात्रीधरः, विश्वम्भराधरः, अवनीधरः, वसुधाधरः, धरणीधरः, क्षोणीधरः, माधरः, धरित्रीधरः, क्षितिधरः, कुधरः; कुम्भिनीधरः, इलाधरः, उर्वराधरः, उर्वोधरः, जगतीधरः, गोधरः, वसुन्धराधरः । सप्तविंशति नामानि शैलस्य ज्ञेयानि। तत्पर्य्यायपतिनगः । भूमिपतिः, भूपतिः, पृथिवीपतिः, पृथ्वीपतिः, गहरीपतिः, मेदिनीपतिः, महीपतिः, धरापतिः, वसुमतीपतिः, १५ धात्रीपतिः, बमापतिः, विश्वम्भरापतिः, अवनीपतिः, वसुधापतिः, घरणीपतिः, झोणीपतिः, दमापतिः, धरित्रीपतिः, चित्तिपत्तिः, कुपतिः, कुम्भिनीपतिः, इलापतिः, उर्वरापतिः, उर्वीपतिः, जगतीपतिः, गोपतिः, वसुन्धरापतिः । सप्तविंशति नामानि नृपस्येति ज्ञातव्यानि । तत्पर्यायरहो वृक्षः । भूमिरुहः, भूरुहः, पृथिवीरहः, पृथ्वोरुहः, गहरीबईः, मेदिनीदह, महोम्हः, घरारुहः, वसुमतीरुहः, धात्रीरुहः, क्षमारहः, विश्व म्भरामहः, अवनीरुहः, वसुधारुहः, धरणीसहः, क्षोणीरुहः, क्षमारुहः, धरित्रीरुहः, क्षितिरुहः, कुरुहः, कुम्भि२० नीरुहः, इलामहः, उर्वरारुहः, गीता, जगरी, नरुतः, गागु छ । लानिंगतिपर्यायनामानि वृक्षस्येति ज्ञातव्यानि । दरीभृदचलः शृङ्गी पर्वतः सानुमान् गिरिः । नगः शिलोच्चयोऽद्रिश्च शिखरी त्रिककुन्मरुत् ॥ ८ ॥ द्वादश पर्वते । दरी बिभौति दरीभृत् । स्वस्थानात् न चलति अचलः । शृङ्गमस्यास्तीति २५ श्ङ्गी । पाणि सन्त्यस्य पर्वतः । पर्वमरुभ्यां तः ।' सानुरस्त्यस्य सानुमान् । जलं गिरतीति गिरिः । गानाम्युपधात्किः ।" न गच्छतीति नगः । “डोऽमझायामपि । नाम्न्युपपदे गमेडों भवति । शिला उच्चीयन्तेऽत्र, शिलोचयः । खम् श्राकाशम् अतीति अद्रिः । “भूस्वदिभ्यः क्रिः ।" शिखरमल्यस्य शिवरी। त्रिकं पृष्टाधरं स्कुम्नाति विस्तारयतीति त्रिककुत् | वर्णविकारत्वाद् भकारस्य "तकारः । स्तम्भु स्तम्भुस्कम्भुस्कुम्भुस्कुभ्यः श्नुश्चेति वक्तव्यमत्रास्य धातोः मयोगः ।" म्रियन्ते क्षुद्रजन्तवोऽस्य ३० स्पर्शनेति मरुत् । “५मृनोरुतिः" । शैलः, क्षितिधरः, गोत्रः, श्राहार्यः, कुधः, ग्रावा । प्रस्थं पाश्र्व तटं सानुर्मेखलोपत्यका तटी। नितम्बमन्तो दन्तश्च तद्वानपि गिरिः स्मृतः॥ १।। - - - १. का. सू० २१ २३३ | २. नाम्नि तृवृणिधारितपिद मिसहां संज्ञायाम् इति पूर्ण का. सू. ४।३।४४ । ३. कारितस्थानामिविकरणे इति पूर्णम् कान्सू. ६/६।४४ । ४. का.सू० ४।१।२२ । ५. का सू० २।४।४० । ६. पर्वमरुतस्तः शचं सू० ४।१।७३ 1 ७. का.उ. ३११३ । ८. का.सू. ४५३४७ | ५. काउ०३।५३११०, वर्ण विनाशेन सकारस्य लोपोऽपि बीध्यः । ११. शच. २११९६ / त्रीणि ककुदानि . काण्यस्येति विग्रहो ऽन्यत्र त्रिककुत्पर्वते पा०स० ५ | ४|१४ इत्यकारलोपः । १२. का. उ०१३० । Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाममाला पर्वतमेखलायां दश । प्रस्थीयते जनेनात्र प्रस्थम् | नाम्निस्थश्च कः । उभयम् । पाति रक्षति जनान् पाश्वम् । तरति उच्छायं गच्छति ससम् । भिषु लिई | समातीति सः । वा; जिमीस्वदिसाध्यशूटपणिजनिचरिचरिभ्य उण् ।" "षण दाने" अस्य धातोः प्रयोगः । मेहनस्य स्खे तस्य मा लातीति निरुक्तिः । मिनोति प्रक्षिपति कामिचित्तानिति या मेखला । उपत्यका उप समीपे भवा उपत्यका | उपाधिभ्यां त्यकामासनारूटयोः ।" तटमस्यास्ति तटी। कोडार्थ जनस्ताम्यतीति नितम्बः । ५ श्रमतीत्यन्तः । "मृगृयाहस्थमिदमिलूपुण्यस्तः “एभ्यस्तप्रत्ययो भवति | दम्यते (भ) क्ष्यतेऽनेन दन्तः । "मृगवाहस्यमिदमिलूपुग्यस्तः ।" तप्रत्ययः । तद्वानपि गिरिः स्मृतः । प्रस्थवान् , पाश्र्ववान् , तवान् , सानुमान् , मेखलायान, उपत्यकावान्, तीमान , नितम्बवान् , अन्तवान् , दन्तवान् । राजाधिपः पतिः स्वामी नाथः परिवृद्धः प्रभुः । ईश्वरो विभुरीशानो भर्तेन्द्र इन ईशिता ||१०|| चतुर्दश राशि ! न्यायमार्गेण राजते इति राजा । "वृषितक्षिराबिधन्विप्रदिवियु यः कनिः।" । को वश्वभावार्थः । एभ्यः कनिः प्रत्ययो भवति । अधि ऐश्वर्य पाति रक्षतीति अधिपः । तथा च उपसर्गवृत्ती-अधि वशीकरणाधिष्ठानाध्ययनैश्वर्यस्मरणाधिकेषु।" पात्यवति पतिः । पाते ईतिः। अस्माइ. उति-त्ययो भवति । “अम् गतौ” सुपूर्वः । शोभनममतीति स्वामी । सावमेरिन् दीर्घश्च ।” सत्रुपपदे मेर्धातोरिन् प्रत्ययो भवति । माथयति रिपु नाथः । “हि वृदि यौ" | ढो वृद्धः । अत एक हः १५ पापूर्वोत् परितृहति परिवर्हति म वा परिवृढः । गत्यर्थाः" इति क्तः । “५१ परिवृढढी प्रभुबलवतो" एतौ प्रभुबलवतोरर्थयोथासंध्यं निपात्येते । परिपूर्वस्य बहेरिडभावो नस्लीपश्च । बृहनहीः प्रकृत्यन्तर योरपीत्यन्ये । ये तु प्रकृत्यन्तरयोरिच्छन्ति, तेषाम्मते "तृह तृहि वृह वृहि दृह वृदौ इति पाठान्तरं वर्तते । तेन पाठान्तरेण दृहस्य बृहस्य या "तुः वृद्ध," इति निपातः । तत्र वर्हति स्म दहति स्म इति वाक्यं क्रियते । प्रभवतीति प्रभुः । भुवो डुर्विशम्प्रेषु च।"५5डानुबन्ध. ऊकारलोपः । “ईश ऐश्वयें। इष्ट इत्येवंशील २१ ईश्वरः । “कशिपिसिभासीशस्थाप्रमदां च ।" एषां वरो भवति तच्छीलादिषु । विभवतीति विभुः । प्रत्ययः । ईष्टे शक्नोति सृष्टिस्थितिप्रलयान् कतुम ईशानः । श्राश्रितज्जनान् विभति पोषयति भर्ता | इन्दति परमैश्वर्यमुक्ती भवतीति इन्द्रः। १"स्फायिविवनिशकिक्षिपिक्षुदिरुदिदिन्दिचन्शुन्दीन्दिभ्यो रक् ।" एतीति इनः । ५५६इजिकृषिभ्यो नम्।" ईष्टे ईशिता । अनोकहस्तरुः शाखी विटपी फलिनो नगः । द्रुमोऽधिपः फलेग्राही पादपोऽगो वनस्पतिः ॥११॥ द्वादश वृक्ष। अनसः शकटस्य अकं गति इन्तीति अनोकरः ॥१७प्रोकहप्रत्ययेन वा अनोकहः । तरनत्यनेनात तरुः । १८भूमृतचरित्सरितनिमस्जिशीङ्म्य उः । शाखाः सन्त्यस्य शाखी। विटपो विस्तारी १. का०स० ४१३५/ वस्तुतस्तु नाम्नि स्थश्चेति कात्ययस्य कर्तरि विधानादत्र घञर्थे कविधानमिति कः । २, का उ० १११ । ३. पा० सू० ५/२। ३४ इति त्यकन् प्रत्ययष्टाप् च । ४. क्रीडार्थ जनस्तम्यते काझ्यते इति कर्मणि विग्रहो न्याय्यः । ५. का० उ० ४।२७ । ६. का. उ० २१३ । ७. उ० १० ११ । ८. का. उ० ३१५२ इति पातेईतिप्र० टिलोपश्च 1 ९. का उ०६१६८पाणिनीयैस्तु स्वामिन्नैश्वर्ये पा०मूक ५/२११२६ इति स्वशब्दादामिन्प्रत्ययेन साधितः । स्वमैश्वर्यमस्यास्तीति विग्रहः । १०. गत्यकर्मकश्लिघशीत्यासवसजनकजीर्यतिभ्यश्च इति पूर्ण का० सू० ४।६।४९ | ११. का.सू. ४४१६५ 1 १२. का. सू. ४।४।५९ । १३. डानुबन्धेत्यस्वरावेलोप इति पूर्ण का सू० २६/४२ । १४. का० सू.० ४।४।४७ । १५. का. उ०२११४ । १६. का० उ० २५१ । १७. अन प्राणने | अनिति श्वासोच्छ्वास करोतीति । अन धातोरोकहप्रत्यय प्रौणादिक इत्यपेक्षितांशः । १८. का० ३० १।५ । Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ अमरकीर्तिविरचितभाष्योपेता ऽस्त्यस्य विटपी। फलानि सन्त्यस्य फलिनः । “फलवाभ्यामिनन् ।" न गच्छतीति नमः। २"डोs. संशायामरि" | द्रवत्ति वृद्धि गच्छति अथवा द्रुफदेशोऽस्यास्तीति दुमः । अधिभिश्चरणैः पिबति पाति या अधिपः । श्रनिपश्च | फलानि गृह्णातीति फलेग्राही । अभिधानाहीः “ फलमलरजासु प्रहः।"पादैः पिबति पानीयं पादपः। न गच्छतीत्यगः | "नमस्याऽाणिनि वा" विकल्पेन नकारलोपः । वनस्य पतिः वनस्पतिः। "पारस्करादित्वात्सुट् । महीरुहः, कुरः, शालः, पलाशी, दुः, वृक्षः, कुजः, विष्टरः, अगश्चापि । तत्पर्यायचरो ज्ञेयो हरिलिमुखः कपिः । वानरः सवगश्चैव गोलाङ्गेलोऽथ मर्कटः ॥१२॥ एकोनविंशति नामानि इरौ | अनोकह चरः, तरुचरः, शाखिचरः, विटपिचरः, फलिनचरः, १० नगचरः, दुमचरः, अधिपचरः, फलेग्राहिचरः पादपचरः, अगचरः,वनस्पतिश्चरः, । इत्यादिद्वादशनामानि मर्कटस्य शेयानि । हरतीति हरिः । "इ: सर्वधातुभ्यः।" वलयो मुखेऽस्य पलिमुखः । कम्पते वाथुना शरीरे कपिः । “अंहिकम्प्योर्न 'लोपश्च ।' प्राभ्यां फिः प्रत्ययो भवति नलोपश्च ! धनं वनति सम्भजते चानरः ___ नरोऽपि । प्लओन उत्फालेन गच्छति प्लषगः । 'डो संज्ञायामपि" च । गां भूमि लङ्गातोति गोलाङ्ग लम् , गोलाङ्गलमत्यासौ गोलाङ्गलः उणादित्वात् "लंगे' दोघंच" 1 "मृङ् प्राण त्यागे ।" म्रियते मर्कटः । १५ "जला मकटौ'' एतावटप्रत्ययान्तो निपात्येते । वनौकाः | प्लवङ्गमः । कीशः । शास्त्रागः । विपिनं गहनं कक्षमरण्यं कानन वनम् । कान्तारमटवी दुर्गम् नव वने । वेष्यते कम्प्यते भयेनात्र विपिनम् । १५"वेपिनुहोस्वश्न" इ तीनच । उणादौ उप्यते । .१ जिनाऽजिनेरिणविपिनतुहिनमचिनानि ।” एतानि इनप्रत्ययान्तानि निपात्यन्ते । . ग्राह्यले २० मुगादिभिर्गहनम् । उभयम्। कति वर्षति कक्षम् । अयंते गम्यते श्वापदे भरण्यम् । प्रतिभ्राम्यन्ति अत्र वा अरण्यम् । १४"प्रतैरन्यः अस्मादन्यः प्रत्ययो भवति । उभयम् । कन्यते गम्यतेऽस्मिन् काननम्"। वन्यते सेव्यते धनम् । कान्तम् जलान्तम् गच्छति इच्छति वा कान्तारम् । अन्त्यस्यामरविः । नियामीः। अरवी । दुःखेन महता कष्टेन गम्यते दुर्गम् | नानाऽर्थे । सत्रम् , हट्यम् , दावम् , अरण्यानी , फलम् (१६प्रफलम)। २. पातर भाष्यः ५१२।१२२ । २.का सू० ४३२४७ इति गमेर्डः । ३. का०९० ४२२४७ अनेन ग्रहेरिन्। एवं सति तृदयभावात् फलेपहिरिति रूपं सम्भवति । तत्राभिधानादीर्घ इति टोकाकारः । तथाभिधायकवचनाभावाकोषान्तरेषु फलेग्रहीति दीर्घरहितस्यैव दर्शनाच्च फलेमाहीति रूपं चिन्त्यम् । ४. नेदृशं किमपि सूत्र कातन्त्रे । नगोऽप्राणिनि वा इति हे० श० सू० ३।२।१२७। ५. पारस्करप्रभृतीनि च संज्ञायाम् पा. सू. ६१२१५७ ६. श्रत्र . चि. ४|१८७ प्रमाणन् । तदुक्तमू-वृक्षोऽगः शिखरो च शाखिफलदावद्रिईरिद्रद्रमो जीर्णोद्रुर्विटपी कुटः क्षितिरुहः कारस्करी विष्टरः | नन्द्यावर्तकरालिको तरुवसू पर्णी पुलाक्य हिपः सालानोकगच्छुपादपनगा रूक्षागमा पुष्पदः ॥ इति । ७. का० उ० ४३४/ ८. का. सूत ४।३।४७) ९. खर्जिकृषिमसिपिलादिग्य ऊरीली का उ० ३।६० इत्यूला उणादित्वाल्लगे दीर्घश्चति दुर्गवृत्तिः । १०. का० उ० ३/५८ । ११. पा० उ० २।५५ । १२. का. उ. २२ । इतीनप्रत्यय: वपेरकारेकारश्च । १३. गाहू विलोडने । बहुलमन्यत्रापीति युच् । कृच्छंगहनयोरिति निर्देशाद्मस्वः । १४. का उ० ३।२। १५. कानयति दीपयति स्मरादि । कनी दीप्तौ । युच् । कम बलम् अननं जीवनमस्य वेति विग्रहोप्यूह्यः । १६. फलपुष्परहिते पन्ध्य-श्रवकेशि-अफल-शब्दाः कल्पद्रुकोशे दृष्टाः । तद्भुक्तम् "नजात्फलपर्यायोऽयकेशी बन्थ्य इत्यपि । फलपुष्पैविरहित एते दध्यादयस्त्रिषु ।। Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाममाला तधरः स्याद् बनेचरः ॥१३॥ चरशब्देन युक्त शवरस्य नघ नामानि । विपिनचरस, गहनचरः, कक्षचरः, अरण्यचरः, काननचरः, वनचरः, कान्तारचरः, अटवीचरः, दुर्गचरः ।। पुलिन्दः शवरो दस्युनिषादो व्याधलुब्धको । घानुष्कोऽथ किरातश्च सोऽरण्यानीचरः स्मृतः॥१४॥ पोलति भ्रमति महत्त्वं याति गच्छति पुलिन्दः । पुलीन्दश्व । शवति' निर्दयत्वं गच्छतीति शवरः । तालव्यः । शवति अरण्यं शवरः । दस्यति अन्यमुपक्षिणीति दस्युः । “जनिमनिदसिभ्यो :२ ।" एभ्यो युः प्रत्ययो भवति । निषादति पापकर्मात्र निषादः । निषदश्च | वा ज्वलादिदुनीभुवो णः । “न्यध ताडने'' न्यध विध्यतीति व्याधः । "दिहि लिहिरिलविश्वसिविध्यतीयश्यातां च ।" एषां णो भवति । लुन्यते गृध्यते मांसे लुब्धः । स्वार्थे क: लुब्धका । धनुषा" सह वर्तते इति धानुष्कः। किरति शरान्६ १. किरातः । अरण्यस्य अरण्यानी (तत्र) चरतीति अरण्यानीचर: । इन्द्र वरुणभवशवरुद्रमृडहिमयमारण्ययवयत्रनमातुलाचार्याणामानुक् ईश्च । श्ररण्यानीति । वारि के पयोऽम्भोऽम्बु पाथोऽर्णः सलिलं जलम् | सरं वनं कुशं नीरं तोयं जीवनमविषम् ॥ १५ ॥ अष्टादश पानीये । वारयति तुषामिदम् पारि, वृणोति का वारि । · शृवसिवपिराजिबहनिन- १५ भेरिन ।" एभ्य इभ प्रत्ययो भवति । अकार इज्वभावार्थः । गन्तम् वार् । स्त्रीक्लीवे । काम्यते इष्यते कम् , फायतीति (था)1 ..°कायते? तिडमौ" प्रत्यवौ भवतः । पीयते पयते या पयः। "पीड पाने।" "सर्व अधातुभ्योऽसुन् ।" अमति गच्छति स्वादुत्वं सान्तम् अम्भम् ।"श्रम गती।"अमे' २म्भोऽन्तश्च प्रकार उच्चारणार्थः । “अचि शब्दे" "अम्बु" इति सौत्रो या "सेवायाम् ।" अम्ब्यते तृष्णातरित्यम्बु । "१३अम्बिकम्बिभ्यामुः।"श्राभ्यामुः प्रत्ययो भवति । पीयते पाति वा पाथः । ॥५४रमिकासिकुषिपातचिरिचिसि- २० चिगुन्यस्थक् ।” एभ्यस्थक् प्रत्ययो भवति | को यण्वद् भावार्थः । ऋणोत्यणः । गम्यते "स्नानानाय: सान्तम् अस् । सरति गच्छति सलिलम् । उणादौ"षच सेचने ।' "१६धात्वादः पःसः।" "सचते ७ इति सलिलम् । "सचेलिलश्च चस्य लुक्१८' सलिल' : प्रत्ययो भवति चात्य लुक् च | जडति नीचं मच्छति जलम् । जई च । शुणाति हिनस्ति तृष्णाम् इति शरम् । बन्यते सेव्यते एनत् वनम् । कोशते कुशम् । प्राणिचेष्ठां वृद्धि नयतीति नीरम् । मीयते हिनस्ति तृषां मीरम् च । तुदति तृष्पान तोयम् । “तुः" " सौत्र वावरणार्थो वा । जीव्यतेऽनेन जीवनम् । जीवनीयम् च । श्राप्नुवन्ति समुद्रमित्यापः । श्राप्नोतेः विप् प्रत्ययो भवति । ह्रस्वश्च । अम् स्त्रियां बर्थः । क्वचिदेकत्वम् । क्लीबत्वम् | अपशन्दी बहुवचनान्तः । १. शव गतौ वादिः । बाहुलकादरः। २. का० उ० ४.११ ३. का. सू० . ४।२।५५ । ४. का. सू. १५८ । ५. धनुः ग्रहरणमस्येति व्युत्पत्तिर्यता । प्रहरणमिरण । ६. किरतीति किरः। विक्षेपे । प्रत्ययः । अततीत्यतः । श्रत सातत्यगासने । पचायच । किरमचासावतश्चेति किरात इति पूर्णव्युत्पत्तिः । ७. मादरण्यामरण्यानी तत्र चरतीति विग्रहो युक्तः । ८, इदं पाणिनीय ४१।४९ अत्र यमेल्यधिकः पाठः । ९.का. उ० ४।५ । १०.का०३० ५।५० । ११.का उ० ४।५६ । १..का.उ. ४६६ । अमति स्वादुत्वं गच्छतीति शेषः । रामाश्रमन्तु अमिशब्द इत्यतोऽसुन् प्रत्ययमाह । १३. का. उ० ५.३५ । १४. का. उ०१० । १५, अर्थते इल्यस्य पर्यायो गम्यते । यतोऽगस् शब्दो नसत्ययान्तः । गतौ । १६. का सू० ३६८।२४ । २७. सलति गच्छति निम्न मिति विग्रहे सल गतौ इत्यस्मात् सलिकल्यनिः इत्यादि ११५४३० सूत्रेण साधितोऽन्यत्र । १८. का उ०६।३९ । - - Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमरकीतिविरचितभाष्योपेता "अपश्च' " इति घुटि दीर्घः। श्रापः । अधुस्वरत्वात् शसादेर्न दीर्घः। अपः। "अपां- मेदः ।" इति विभक्तिभे पस्व दः । अदिः । अयः । अभ्यः । अपाम् | अप्सु । "3 वर्गादेः शुषसेषु द्वितीयो वा ।' अफ्सु । अप्सु । श्रामन्त्रणे हे आपः । वैवेष्टि देई शैत्येन व्याप्नोतीती विधम् । उभयम् । घनरसः, पुष्करम. मेघपुष्पम्, 'पानीयम, उदकम्, चीरम्, भुवनम्. दकम्, कमलम, कौलालम, अमृतम्, करन्धम् , सर्वतोमुत्रम्, ५ श्रानत इति नानार्थे । तत्पर्य्यायचरो मत्स्यस्तत्पर्यायप्रदो घनः । तत्पर्यायोगवं पद्मं तत्पर्यायघिरम्बुधिः ।। १६ ॥ तस्य पर्यायस्तत्पर्याया, तत्परं चरशब्दे प्रयुज्यमाने मत्स्यनामानि भवन्ति । वार्चरः, बारिचरः, कचरः, पयश्चरः, अन्भश्चरः, अम्बुचरः, पाथश्चरः, अर्णश्चरः, सलिलचा,जलचरः, शरचरः,चनचरः, १० कुशचरा, नीरचरः, तोवचरा, जीवनचरः, अपचरः, विषचरः । पदप्रयोगे वारिपर्याय शब्दाने घनस्य नामानि भवन्ति । वार्षदः, वारिप्रदा, कम्मदः, पयःप्रदः, श्रम्भ प्रदः, अम्बुप्रदः, पाथःप्रदः, अर्ण प्रदः,सलिल. प्रदः,जलप्रदः, शरप्रदः, कुशप्रदः, नीरपदा, तोयप्रदः, जीवनप्रदः, अप्पदः, विषप्रदः। इत्यादीनि घननामानि । तत्पर्यायोद्भवं पद्मम् । वारिपायशब्दाने उद्भवंप्रयुज्ये उद्भक्शब्दप्रयोगे कमलनामानि भवन्ति | वाम्भवम् , वायुद्भवम्, कमुद्भवम् , फ्यउद्भवम्, अम्भउद्भवम्, अम्बूद्भवम्, पाथउद्भवम्. अर्ण उद्भवम्, सलिलोद्भयम्. जलोद्भवम्, शरीद्भवम्, वनोद्भवम् , कुशोद्भवम्, नीरोद्भवम्. तोयोद्भवम्, जीवनोद्भयम्, अबुद्भवम्, विषोद्भवम् । तत्पर्यायधिरम्बुधिः । वाः शब्दा ( शब्दपर्याया) ने धिप्रयुज्ये धिशब्दप्रयोगे अम्बुधिनामानि ज्ञेयान । वार्षिः, वारिधिः, कन्धिः, पयोधिः, अम्भोधिः, अन्बुधिः, पाथोषिः, अोधिः, सलिलधिः, जलधिः, शरधिः, वनधिः, कुशतिः,नीरधिः, तोयधिः, जीवनधिः, अब्धिः, विषधिः | युगेमा पदक्षीणो यादो वैसारिणो झपः। विसारी शफरी मीनः पाठीनो (s) निमिपस्तिमिः ॥१७॥ एकादश मत्स्ये । पृथूनि विस्तीर्णानि रोमाण्यस्य पृथुरोमा। षट् श्रदीणि स्पर्शन-रसन-प्राणचक्षुः-श्रोत्र-मनांसि यस्य सः षडक्षीणः । याति गच्छति अले, यावः । विसरति “ग्रहादेशिन विसारी मत्स्य इति । स्त्रार्थेऽण् । चैलारिणः । झषति जन्तून् दिनस्ति झवः | "सू गतौ" । स ऋ गती वा"। स. विपूर्जा विसरति विससति वा इत्येवंशीलः,विसारी । '."विप्रतिन्यामाकः सतेर्णिन प्रत्ययः । अस्यो. २१ (स्य) वृद्धिः । विसारिन् इति जाते सिः | इन्हन् [पूर्ववत् ] ( पूषाय म्णां शौच )" | शफिति शफरः । शफाः (न्) वायन्ते ( राति ) शीघ्रगत्वाच्छफरी । मीयते हिंस्यतेभ्योऽन्यतः, मीनः । बहुद्रष्ट्रत्वात् पाटयति भक्ष्यत्वेन पारयते वा पाठीनः । निमिषति परस्पर हिनस्ति इन्तीति वा निमिषः । "नाम्युषघ (धात् ) पृकाज्ञां कः" | तिम्थति जलेनार्दो भवति तिमिः । मत्स्यः, अण्डजः, शकली, विसारः, जलचरः, शल्की । घनाघनो घनो मेघो जीमूतोऽभ्रं बलाहकः । पर्जन्यो मिहिरो नभ्राट १. कार सू० २।२।१९ । २. का. सू. २३/४३ । ३, का सू. पू. सू. २५७ । ४. का.सू.० ४१२।५० इति णिन् प्र. । ५. पा.सू. ३।२।७६ उत्प्रतिभ्यामाजि सर्तेरुपसंख्यानम् इति काशिकावृत्तिः । ६. का सू० २।।२१ । ७.निमेषरहितत्वाम्मीनानाम् । कोषान्तरेषु तेषामनिमिपसंज्ञादर्शनाच्च अत्राप्यनिमिष इत्येव छेदो युक्तः । न तु निमिष इति । तदुक्का-विसारः शकली शल्की शंवरोऽनिमिपस्तिमिः' चि० ४|११५ |८. का० सू. ४२५१ ।। Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाममाला नव मेघे । इन हिंसागस्योः । हन्तीति घनाधनः । "अच् घनाघनः" इति सूत्रेण धनापन इति निपातः। अथवा २चिक्लिदचक्नसचराचरचलाचलपतापतवदावधनाघनपाट्रपथ वा' इति नामभूता संज्ञा रूढाः। तत्र क्लिदेः “ नाम्युपधात्' का। क्नसिबरिचलिपतिदिहनिपाध्यतिभ्योऽप्रत्ययो द्विर्वत्रननिपातने चेति | वाशब्दात् क्लिदः, नसः, चरः, चला, पवः, षदः, श्रम, परः, इत्यपि भवति । इम्यते वायुना धनः । मूतौ पनिश्च ।" अल | मिह सेचने । मेहति सिञ्चति भूमिमिति मेघः । । "श्रच्य "चाम् ( दिभ्यश्च )' श्रच । नामिनो गुणः | "न्य कु:६' इत्येषमादीनां चोः फगी भवतः ।। इश्च (हस्य च) धो भवति । जीवनस्य जलस्य मूतः पुबन्ध इति निरुक्ल्या जीमूतः । जीवन्त्यनेन भूतानि वा जीमूतः । जीव प्राणने । अनन्त्यपो राति वा अभ्रम् । अभ्र गत्यर्थः । न भ्रश्यति तपो यस्मादित्येके । आप्नोति सर्वा दिशी वा अझ क्लीबे । वलाकादिमिहीयते बलाहकः । पारिवाइको था । प्रवर्षति जलं पर्जन्यः। उणादौ "पृनी सम्पर्के' पृडक्तः पृणक्ति वा पर्जन्यः । पर्जन्यपुण्ये १० इति र "प्रत्ययान्तो निपात्यते । मेहति सिञ्चति विश्व मिहिरः । महिरः मुहिरश्च । न आजते न शो नभ्राट् । “विनाजिधुर्षिभासाम्" " एषां विषम् भवति । अब्दः, स्तनयित्नुः, पयोधरः, धाराधरः, योनिः, तडित्वान, वारिदः, अम्बुभृत् , मुदिरः, जलमुच । शम्पा सौदामि (म) नी तडित् ॥१८॥ आकालिकी क्षणचिर्विद्युत् पट् शम्पायाम् । शाम्यति शीघ्र शम्पा । शम्बा च । शम्पिबति वा शम्पा । सुदाम्ना अद्रिणा एकदिक् सौदामि (म)नी। तेनेकदिगित्यण् । शोभनस्य दाम्नी बन्धनरनोरियं सदृशी सौदामि (म) नी । सौदानी। सौदामिनी च । ताडयति तडित् । ताइयतेणिलुक् । ताडयति मेवं ताडयतेऽसी वेति तडित् । तान्तम् । अाक्लयति स्तोककालं रोचते वा आकालिकी"श्राङ् मर्यादाऽभिविध्योः ।" क्षणे क्षणे रोचते शालते क्षणचिः । विद्योतते विद्युत् । चल्ला, क्षणिकर, शतवदा, हादिनी, अचिरांशुः, २० ऐरावती, चञ्चला, चटुला, दिश्या । तत्पतिरम्बुदः । विधुच्छब्दाने पतिशब्दे प्रयुज्यमाने अम्बुदनामानि भवन्ति । शम्पापतिः, सौदामनीपतिः, तडित्पतिः, श्राकालिकीपतिः, क्षणचिपतिः, विद्युत्पतिः, निर्घातपतिः, अशनिपतिः, वज्रपतिः, उल्कापतिः, इत्यादिमेघनामानि स्युः। निर्यातमशनियंत्रमुल्काशब्दं च योजयेत् ॥१६॥ चत्वारो षने । निईन्यतेऽनेनेति निर्घातम् । पर्वतादीनश्नाति, अशनिः । तृमधूयम्य १. इन्तेर्घत्वं च का वार्तिकम् । श्रच् धनाधन इत्याकारकं वचनं न चिटुपलब्धम् । शा० सू० ४।१।५५ धनाधन पाटूपम् इति । २. हदं तु मोपलब्धम् । चरिचलिपतिबदीनां वा द्वित्वमच्याक् चाभ्यासस्य वक्तव्यम् इति कात्या वा । ३. का. सू. ४।२।५१ । ४. का सू० ४।५।५० इति इन्तेरलप्र० घनिगदेशश्च । ५. का० सू० ४/२/४८ । ६. न्य वादीनाम् इति का. सू० ४।६१५७ इति हस्य घः । ७. बलाकाभिहीयते । श्रोहाल गतौ । कर्मणि क्वुत् । अथवा बलेन हीयते श्राहायते वा चन् इति रामाश्रमः | पृषोदरादित्वाद् पारिवाइकशब्दस्य बलाहक इति निपातश्च । ८. का.उ. ३।४६.का. सू. ४।४५७ । १०. तेन प्रोक्तमित्यतस्तेनेत्यधिकारे “एकदिक" इति जै० सू० ३।३।८१ । १५. सम नकालावाद्य-तौ यस्या इति विनई आफालिफडाधन्तवचने इति पा. सूत्रेण समानकालशब्दस्याकाल आदेश इकट् प्रत्यये रित्वान्डीपि श्राकालिकोति मूलोक्तमपि साधु । १२. का० उ० २।४३ । Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० अमरकीर्तिविरचितभाष्योपेता श्यविवृतिमहिन्योऽनिः ।" एभ्योऽनिः प्रत्ययो भवति । "टु उ स्फूर्जा वज्रनिर्घोघे" स्फूर्जतीति वाम् । शूद्रादयः२-"शूद्रोग्रवज्रविप्रभद्रगौरभेरीराः” एते रक् प्रत्ययान्ता निपात्यन्ते । पर्वतेष्वपि वति वज्रम् । उपति ज्वलति उल्का | उल् इति सौत्रोऽयं धातुर्वा | परिषत्कर्दमः पङ्कः त्रयः कर्दमे । परि समन्ताद् भाराक्रान्तः सोदति गन्तुं न शक्नोतीति परिषत् । “सत्यू द्विपद्धहदुहयुजविदभिदच्छिदनिनीराजामुपसर्गे" एषामुपसर्गे ऽनुपसर्गेऽपि नाम्युपधात्विम्। कृणोति चटा हिनस्तीति कर्दमः । 'पृथिचरिकर्दिभ्योऽमः" । पच्यते विस्तार्यते वर्षाकालेन पङ्कः । उभयम् । उरणादौ 'पन च' पनायते पन्यते धा पङ्कः । “पसिपनिभ्यां कः'' आभ्यां कः प्रत्ययो भवति । तथा चामर सिंहः निषवरस्तु जम्बालः पङकोऽस्त्री शादकर्दमी।" निषद्बरः, जम्बालः, शादः, इचिकिलः, चिकित्सश्चानेकार्थे । तज्जम् तस्मात् जम् उद्भवम् पङ्कजम् , कर्दमजम् , परिषजम् , इत्यादीनि कमलनामानि भवन्ति । तामरसं विदुः। कमलं नलिनं पद्मं सरोजं सरसीरुहम् ॥ २० ॥ खरदण्डं कोकनदं पुण्डरीकं महोत्पलम् । दश कमलनामानि भवन्ति । ताम्यति जलं कानति तामरसम्। अमरसिंहभाष्ये-"तामः प्रकों रसोऽस्य तामरसम् । तमः प्रकर्याऽयस्तारतम्यवत् ।' केन मस्तकन मल्यते धावते कमलम् । श्रिया कासाऽर्थ काम्यते वा । 'पटिकमिमुशिकुशिया कलः।" एभ्यः कलः प्रत्ययो भवति । कम्मलं च । नलाः सन्त्यस्य नलिनम्। नलति प्राकर्षति श्रियं वा नलिनम् । “पुलिनलितलिलिहिभ्यः २० किना' । नलं च । पद्यते पाति लक्ष्मीरत्र पद्मम् । "१ अर्तिघृहुसुधृक्षिणीपदभायास्तुभ्यो मः।" उभयम् | सरसि तडागे जातम् सरोजम् । सरस्यां रोहति प्रादुर्भवति सरसीरुद्दम् । १ खरञ्च तद्दण्डञ्च स्वरदण्डम् । कोकाश्चक्रवाका नदन्त्यत्र कोफनदम् । क्लीवे | [ रक्त ] कुमुदम्'२ । रक्तकमलञ्च । विशेषणम् [ कुमुदकमलविशेषे ] | पुणति माङ्गल्यात्वात्पुण्डरोकम् । म ( मुट) प्रमर्दने स्थाने। पुण्डिरित्येके । पुण्डति पुण्डरीकम् । भाष्यकर्तृमते पुण शोभे । पुणति अल्पति २५ शोभा पुण्डरीकः । "अनुनासिकान्ताड्डः" अनुनासिकान्ताद्धातोर्डः प्रत्ययो भवति । महच्च तदुत्पर्ल त्र महोत्पलम् । तथा च हुलायुधः- "पुण्डरीक ५४ सिताम्बुजम् ।" १. स्फूर्जतीति विग्रहे स्फूर्जधातो बजादेशी रकप्रत्ययश्च निपात्यः । बज गतौ। बबत्तीति विग्रहे केवलं रक् । २. का० उ० २।१५। ३. का० सू० ४।३।७४ । ४. का० उणादौ एतत्सूत्रं नास्ति । पाः उसूल ४१८४ कलिकोरम इप्यमप्र० । ५. का० उ० ५।३० । रामाश्रमस्तु पचि विस्तारे कर्मणि हलश्चेति घन इत्याह । ६. अमर० १३१९ । ७.क्षी० भा० ११९१४०। ८. का उ०६।१ । ९. का. उ०६।६ । १०. का ३० १।५३। १२. खरो दण्डो यस्येति विग्रहो न्याय्यः । १२. श्रथ कोकनदं रक्तकुमुद रक्तपंकजे इति मेदिनी तद्विशेषे प्रमाणम् । १३-पारीकादयश्च पा० उ० ४।२० इति मुद्घातो रीकन्त्ययान्तः पुण्डरीकशब्दो निपात्यते । रामाश्रमस्तु पुविधातोररीकन्प्रत्ययमाई | भाग्यकर्त मते पुण्ठ धातोररीकप्रत्ययो डान्तागमश्चेत्युभयं विधेयम | केवलं डप्रत्ययस्तु न युक्तः । १४. इलायुधः ३३५८ । Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाममाला इन्दीवरं चारविन्दं शतपत्रं च पुष्करम् ॥२१॥ स्यादुत्पलं कुवलयम् सम्त नीलोत्पले । इन्दति शोभैश्वर्यं प्राप्नोति इन्दीवरम् । श्ररान् राजीः विन्दति इति अरविन्दम् । विद्लु लामे, विद् अरपूर्वः । अरान् वि-दतीति अरविन्दः । "कर्मणि च विदः" श. प्रत्ययो भवति । इति परसूनमः । स्वमते--अन्यत्रापि चेति [कर्मण्यण' ] अण बाधकः । “साहिमातिः ५ वैद्युदेजिचेतिधारिपारिलिपि(म्पिोविन्दा स्वनुपसर्गे" एषामनुपसर्ग शो भवति । चक्रस्याऽवयवः पर. विन्दम् 1 पिण्डी (पुण्डरीक) कमलेर्थे तु (अधि) अरविन्दम् । राबविशेषस्तु अरविन्दः । केचित्कम. लेऽपि पुस्त्यं मन्यन्ते । शत पत्र ण्यस्य शतपत्रम् । बलीचे । शोभा पोषयति पुग्यति बा पुष्करम् । शोभामुत्कर्षण पलति गच्छतीत्युत्पलम् । कौ बलते प्राणिति कुवलयम् । कुक्षितो बहिर्वलयः पत्रवेनमस्येति श्रीभोजः। विशेषमा अथ नीलाम्बुजन्म च । इन्दीवरं च नीलेऽस्मिन् सिते कुमुदकैरये ॥२२॥ नीलामाल-म । इवतीमगा३ । मुबार दिलनोलेति] सामान्यस्य | नीले ] विशेएवृत्तिः । अस्मिन् सिते । रात्री विकास करोति चन्द्रेण काम्यते वा की मोदते वा कुमुदम् । दान्तञ्च । १५ के उदके जले रौति केरवो हंसः, तत्येदं प्रियं कैरवम् । क्लीबे । तद्वती तस्य कमलस्य पर्याये 'चती' इति प्रयुज्यमाने कमलिनीनामानि भवन्ति । तामरसवती, कमलवती, मलिनवती, पद्मवती, सरोजवती, सरसीरुहवती, कोकनदवती, पुण्डरीक्वती, महोत्वलवती, अरविन्दवत्ती, शतपत्रवती । विसिनी ब्रेया दिनविकासिन्यामेकः । विसमस्यस्या विसिनी। नलिनी । पुटकिनी । मृणालिनी । व्रततीवल्लरी लता। वल्लीनामानि योज्यानिचतुर्व" ( चत्वारो व ) लान् । वृणोतीति व्रतती कष्टा ततिरस्या व्रतती, व्रततिश्च । २५ अपादित्वाद्वत्त्वम् । बल्लते वल्सारी । लाति ललति चितं था ल । । वल्लते वेष्टते वल्ली । वल्लादी। बल्लिग्दिन्तोऽपि । स्त्रियामी: । वल्ली । वातश्च । वोरुक ( ), गुल्मिनी, प्रतानिनी, शारिवाः किमी च | वृक्षशास्त्रापामपि । १. का. सू. ४।३।१ । २. का. सू० ४।३-५४ । ३. इन्दतीतीन्दीः लक्ष्मीः । सर्वधातुभ्य इन् उ. सू. ४|११७ इतीन् । कृदिकारादक्तिन इति ङीष् च । तस्यावरमिष्टम् इति व्युत्पत्त्यन्तरमप्यूह्यम् । ४. एका विसौनीशब्द इत्यर्थः । ५. अत्र चत्वारो वलर्यामिति युक्तम् । ६. प्रतनोतीति व्रततिः । तन् धातोः तिच् । कौ च संशायामिति तिच् । पुपोदरादित्वात्पस्य व इत्यन्यत्र । ७. लतिः सौत्रो धातुर्वेष्टनार्थी लततीति लता । पचायच् इत्यन्यत्र । ६. सारिवाशब्दोऽनन्तमूलनामकौषधि विशेषवाचकः । किर्मिः स्त्री स्वर्णपुत्र्यां स्यादपि पालापलाशयो. रिति विश्वलोचनप्रमाणतः किर्भिशब्दः । किौशब्दो स्वर्णपुत्री-माला-पलाशवाचकः । वृक्षशाखार्या लतायां वा उभावप्यप्रसिद्धौं । अतोऽत्रेदमेव प्रमाणम् Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमरकीर्तिविरचितभाष्योपेता वारिधिण्यतेऽधुना ॥२३॥ अधुना इदानी घारिधियेते कथ्यते । केन ? भाष्यक; मुनिश्रीमदभरकीर्तिना । साम्प्रतं समुद्रनामानि भारभ्यन्ते-- स्रोतस्विनी धुनी सिन्धुः सवन्ती निम्नगाऽपगा । नदी नदो द्विरेफश्च सरिनामा तरङ्गिणी ॥२४॥ एकादश नद्याम् । स्रोतः प्रवाही पुस्त्यस्याः स्रोतस्विनी। धुनौति कम्पते धुनिः। नियामीः । धुनी । स्यन्दति जले चलति सिन्धुः । त्रिषु । "स्यन्देः२ सम्प्रसारणं धन ।” तटेभ्यो जलं सवति यन्ती। निम्नं गच्छति निम्नगा। श्रा समन्तादाप्नोति अभिरगति वा श्रापगा । आपेन वा गच्छति प्रापगा। नदत्यव्यक्तं शब्दं करोति नदी। नदति नदः । "अचः पचादिभ्यश्च" च । द्वौ रेफी तटी यस्य द्विरेफः । १० सरति समुद्रं गच्छति सारित् । तान्तम् । तरङ्गाः सन्त्यस्यां तरङ्गिणी । तटिनी, निरिणी, कुलङ्कामा, शेवलिनी, सरस्वती, समुद्रकान्ता, हादिनी, स्रोतः, कषुः", कुल्या, द्वीपवती. रोधीवक्त्रा । तत्पतिश्च भवत्यब्धिः, तस्या धुन्याः पतिथुनीपतिरित्यादिसमुद्रनामानि भवन्ति । स्रोतस्विनीपतिः, धुनीपतिः, सिन्धुपतिः, सवन्तीपतिः, निम्नगापतिः, श्रापगापतिः, नदीपतिः, नदपतिः, द्विरेफपतिः,सरित्पतिः,तरङ्गियोपतिः । पारावारोऽमृतोद्भवः । अपारवारकूपारौ रनमीनाभिधाऽकरः ॥२५॥ समुद्रो चारिराशिश्च सरस्थान् सागरोऽर्णयः । नव समुद्रे । पारमाणोति पारावारः। अतस्योद्भवः अमृतोद्भवः । अपार वार् जलं यत्राऽसौ अपारवाः । न कुं पृणोति मर्यादापालनादकूपारः । इलायुधे-"न कुं पृथिवी पिपर्ति व्या२० प्नोतीति अकूपारः।" अकूवारोऽपि । रत्नमीनशब्दयोरगे आकर प्रयुज्यमाने समुद्रनामानि भवन्ति । रत्नाकरः, पृथरीमाकरः, घडक्षोणाकरः, यादाकरः ६, वैसारिणाकरः, झपाकरः, विसाधाकरः, शकराकरः, मीनाकरः, पाटीनाकरः, निमिषाकरः, तिन्याकरः । 'उन्दी क्लेदने सम्पूर्वः । समन्तादुनत्त्यस्मादिति समुद्रः । ""सावितश्विर्वाञ्चशकिक्षिपिक्षुदिरुदिमदिमन्दिच शुन्दीन्दि-यो रक"" अनिदनुबन्धानाम गुणेऽनुषङ्गः । तथा च हलायुधे --"मुदन्ति मिश्रीभवन्ति भौमाऽन्तरीक्षनादेयजलान्यत्रसमुद्रः।" २५ अमरसिंह- १ 'समुनत्ति समुहः'' । वारीणां जलानां राशिरिराशिः । सरांसि जलप्रसारणानि सन्त्यस्य सरस्थान् । सागरस्यापत्यं सागरः, सगरतनयः खातत्वात्। श्रणांसि सन्त्यस्य अर्णवः । -- - - - - - - - - -- - - - - - -... . .. - १. धुनोति कम्पयति वेतसादीन् । धुञ् कम्पने । विप् । पृषोदरादित्वाइक ! नान्तत्यान्डीप धुनी इति रामाश्रमः । २. कार उ०१७। ३. अभिरगतीति विग्रहेपः पकारस्य बदस्वाभावोऽकारस्य दीर्घरवं च पृषोदरादित्यैन निपातासाध्यम् । ४. का० सू० ४।२१४८ । ५. अत्र कर्पूरिति दीघोंकारान्तपाठो शुक्तः । तदुक्तम् -कषू नदी करोषाग्न्योरिति शाश्वतः ६७२ । ६. यादत् शब्दस्य सकारान्तत्वाद् याद श्राकर इत्येव न तू यादाकरः । ७. समन्तादुनत्ति आकरोति भूभागानेतावानेव विग्रहः । अत्रास्मादित्यपा. दानार्थष्टोकोक्तो नापेक्षणीयः । समीचीना मुद्रा जलचरविशेषा यस्मिन् सह मुट्या मर्यादया वर्तते वेति व्युत्पश्यन्तरमप्यूत्यम् । ८, का० उ० २।१४ । ६. का० स० ३।६।१ । १०. मुद संसर्गे चुरादिः सम्पूर्वः । कथादावदन्ते तत्पाठाच्चुरादिणिचो वैकल्पिकवान्मुदन्तीत्यपि पझे । सभी मकारलोपः पृषोदरादित्वात्तत्र बोध्यः । ११. क्षी० भा. १।६।११ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाममाला तथा च क्षीरस्वामिभाष्ये-- अोऽस्यास्त्यर्णवः । 'अणेसो लोपश्च' इति वः सलोपश्च ।" उदधिः, उदन्छन् , तोयनिधिः, जलराशिः. वीचिमाली, शशध्वजः । तदभेदाः सप्त-लपणोदः, हीरोदः, सुरोदः, इक्षुदः, स्वादूदः, दयुदः, घृतोदः । सीमोपकण्ठं तीरश्च पार रोधोऽवधिस्तटम् ॥२६॥ गम पे ! गिना न भने ! सोति नमातीति सीमा | “धर्ममामाग्रीगमाऽधमाः ५ एते मक्प्रत्ययान्ता निपात्यन्ते । फण्ठस्य समीपे उपकण्ठम् । तरन्त्यस्मात्तीरम् । तरति प्लबते इव के तीरं वा । पिपति घृणोति जलेनेति पारम् । पार्यते समाप्यतेऽस्मित्रिति वा। रुणदि जलं वेगेन रोधस्। . सान्तम् । उभयम् | अवधानम् अवधिः । उपसर्गे दः किः" । तस्यते पाहन्यतेऽग्भसा तटम् । त्रिषु । तः। तटी। इदन्तो वा । तरिः। स्त्रियामीः, तटी । कूलम्, कच्छः, प्रपातः. तीरम् । मङ्गस्तरङ्गः कल्लोलो चीचिरुत्कलिकाऽवलिः । पाली वेला तटोच्छ्वासी विभ्रमोऽयमुदन्वतः ॥२७।। एकादश तरङ्ग । भज्यते जले स्वयमेव भङ्गः । तरति प्लवते सरतः । ""नृपतिभ्यामङ्गः" श्राभ्यामङ्गप्रत्ययो भवति । 'कल्ल्यन्तेऽनेन नद्यः कल्लोलः । कुत्सितं लोहति कल्लोल इत्येकः । याति (वयति ) गच्छति वीचिः । स्त्रियामीः, वीची। दृद्धिमुत्कर्षेण कलयति उत्कलिका । स्त्रि- १५ याम् । श्रा समन्ताद् वलते श्रावलिः । पाल्यते पालिः । स्त्रियामीः । पाली। वलयति पूर्णिमादिकालमुपदिशति वेला । स्त्रियान् । तटश्च उच्छ्वासश्च तटोच्छ्वासौं । तति तटः। उच्छवसनम् उच्छ्वासः। विभ्रमति विभ्रमः विकारः । कस्य १ उदम्वतः समुद्रस्य ! ऊर्मिः, लहरी । सम्प्रति मनुष्यवर्ग आरभ्यते श्रीमदमरकोर्तिना मनुष्यो मानुषो मयों मनुजो मानवो नरः । ना पुमान् पुरुषो गोधा एकादश मनुष्ये । मनोरपत्य मनुष्यः । कुरुनिषादेभ्यः प्रथमा पत्ये पि" । कुरुनिषादाम्यामणीपि मनोः सान्तश्च । क्वचिद्विस्वरस्य न वृद्धिः । अण्वा । * मनुष्यः । मानुषः । उणादौ च । मन्यते सुखदुःखादिकमिति मनुष्यः । “मनेरुस्यः" उस्यमत्ययः। मानयति मान्यते इति वा मानुषः । " मानेरुसः'' उस् प्रत्ययः । उभयम् । १क्षी० भा० श६ । २. कोपान्तरेषु समुद्रस्य शशध्वज इति नाम मोपलब्धम् । कथं चित्समाधानापेक्षायां शशिध्वज इति गठो बोध्यः । शशी चन्द्रो ध्वजश्चिद्रं वंशमयारकं यस्येति तद्विग्रहः । चन्द्रस्य समुद्रप्रभवत्वं पुराणप्रसिद्धम् । ३. का. उ. १५६ । ४. त प्लवनतरणयोः । कप्रत्यये ऋत हर दीवं च । अत्रीणादिः शरणम् | सरलः पन्थास्तु पार तीर कर्मसमाती । ततस्तीरयतीति विग्रहे पचाद्यच् । ५, पालनपूरणयोः प धातुस्तेन पिपर्तीत्यस्य पूरयतीति पर्यायो युक्तो न तु वृणोतीति | ज्वमादित्वाग्ण: । क्षीरस्वामी तु परे पायें भवं कूलम् पारम् इत्याह । ६ का सू० ४.५]७० इति कि । ७. का उ० ५।२२ । ८. कल्ल अव्यते शब्दे कल्लन्ते इत्यस्य शब्दायन्ते इत्यर्थः । उणादिस्वादोलच्न । के बलम तस्य लोलश्चञ्चलोऽवयवः । अनुस्वारस्य परसवर्णो लकार इति रामाश्रमः । ९. वैव संवरणे । यो डिच्च उ० सू० ४।३२ इतीचिन । १०. *एवं चिह्नितांशस्याने "मनोः परायः" का०रू.पू. ४९३ इति ष्य पण प्रत्ययौ इति पाठी युक्तः । ११. का० उ० ६।१० । १२. का. उ• ६।११ । Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ अमर कीनिविरचितभाष्योपेता "रडीय बाछितं यान्तो वरमेते भुजङ्गमाः। न पुनः पक्षहीनत्वात् पङ्गुप्रायन्तु मानुषम् ।।" नियते मर्त्यः । . रुस्त्यः" | स्वार्थ खो वा । मनोर्जातः मनुजः । मनोरपत्यं मानवः । नृणाति विनयति नरः, ‘णी प्रापणे' नयतीति वा । "नियो डाऽनुबन्धश्च"। अस्मात् ऋन् प्रत्ययो भवति, स च डाऽनुबन्ध इष्यतेन्त्यस्वरादिलोपार्थः । पूर्यते कुलमनेन सान्तः-४पुमान् । उणादी पूडः पवते पुनातीति वा पुमान् । ""सिर्मनन्तश्च ।" असमात्सिः प्रत्ययो भवति, अस्य च मन अन्तः चकाराद् हुम्वत्वं च । इकार उच्चारणार्थ: । पुरि पुरि चयनात् पूरणादा पुरुषः । पृणाति पूरयति वा स्त्रोगामुदर गर्भेणेति पुरुषः । “पृणातेः" कुषः" । अस्मात्कुषः प्रत्ययो भवति । कोऽनुबन्धः । अन्येपा. मपंाति वा दार्घः । पूरुषः । लत्वे पुरुषः, पुलुषश्च । “गुध परिवेष्टने' । गुध्यति गोधा । १० धवः स्यात्तरपतिनृपः ॥२८॥ तस्य मनुष्यशब्दस्याने धव-पतिशन्दप्रयोगे नृपनामानि भवन्ति । मनुष्यघवः, मानुषपषः, मर्यधवः, मनु बधवः, मानवधवः नरधवः, नृथवः, पुन्ववः, पुरुषधवः गोधाधवः । मनुष्यपतिः, मानुपातिः मयपतिः मनुजपतिः, मानवपतिः, नरपतिः, नृपतिः, पुस्पतिः, पुरुषपतिः, गोधापतिः । भृत्योऽथ भृतकः पतिः पदातिः पदगोऽनुगः । भटोऽनुजोव्यनुचरः शस्त्रजीवी च किङ्करः ॥२६॥ एकादश सेवकं । भ्रियते इति भृत्यः । भृो संज्ञायाम" । प्रियते राजा भृतः । स्वार्थ कः । भृतकः । पतति अधो गच्छति पत्तिः'', पतनं वा । [पादाभ्याम्] अतति [पदातिः' १] । पादातिकः । आणादिक इम : विनयादित्वा र माटोति पदगः । अनु पश्चाद् गच्छति अनुगः | भति युद्धं बिभर्ति भटः। अनुजीवतीत्येवंशीलः अनुजीवी । अन्नु पश्चाचरतीत्यनुचरः । २० शस्त्रेण श्रायुधेन जीवतीत्येवंशीलः शस्त्रजीवी । किं कुसितं कार्य विद्धाति किङ्करः । सहायः, सेवकः, पदजेयः, पद्गः पदिकश्च । तथा च यशस्तिलके-(श्लो० १३०) "सत्यं दुरे विहरति समं साधुभावेन पुंसां धर्म श्वित्तात्सह करणया याति देशान्तराणि । पापं शापादिव च तनुते नीचवृत्तेन साथै सेवावृत्तः परमिह परं पातक नास्ति किञ्चित् ॥" स्वी नारी वनिता मुग्धा भामिनी भीरुरङ्गना । ललना कामिनी योषिद् योषा सीमन्तिनीति च ॥३०॥ १. का। उ० ६।१२ । २. वाणपत्ये का० रू० पू० ४७३ इत्या । ३. का० उ० २।४१ । ४. पाति पुनाति वा पुमान् । पातेईम्सुन् पूजी डुम्सुन् , पा० उ० ४.१७० इति हुासुन् इति प्रकियाऽन्यत्र | ५. का उ० ४/४२१ ६.पुरि शयनादिति तु निरुतप्रकारो विग्रहस्तु पृणातीत्यादिरेव । ७. का०3० ३।५४ । ८. गोधाशब्दस्य पुरुषार्थे कोषान्तरप्रमाणं नोपलब्धम् । तदुक्तम्-"गोधा तलनिहत्कयोः" वि०लो । गोधा प्राणिविशेषे स्य ज्याधातत्य च वारणे | आकारान्तत्रीलिगत्वं च सर्वत्रास्योक्तम् | अ०सं० २४३। अतोऽस्य मूलं भृग्यम् । गोद इति पाठे तु गोदो मस्तिष्क मस्यात्तीति गोदः मुख्यमस्तिष्कवत्त्वात् पुरुष इति समाधेयम् । तदुक्तम् गोदं तु मस्तकस्नेहो मरितको मस्तुलुङ्गकः १० चि० ३।२८९ । ६.का. सू० ४।२।२५ इति क्यप् । १. . ाणादिकस्तिः, क्तिच् क्तौ च संज्ञायामिति वा तिच् । पतनं या इति व्युत्पत्तित्वप्रासङ्गिकत्वापेक्ष्या । ११. अत्यतिभ्यां च पा उ. ४१३० इत्यतेरन् । पादस्य पदाच्यातिहतेषु इति पदादेशश्च । ५२. विनयादेष्ठण जै० सूर ४।२।४० । १३. पदाभ्यां पादाभ्यां वेति वक्तव्यम्, न तु पद्भ्यामिति । पाद इत्यापत्तेः । पादस्य पदाज्यातीति पादस्य पद्' । Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाममाला नितम्बिन्यबला बाला कामुकी वामलोचना । भामा तनूदरी रामा सुन्दरी युवती चला ॥३१॥ द्वाविंशतिः स्त्रियाम् । रतृा प्राच्छादने" स्तृणात्याच्छादयति स्वदोषान् परगुणानिति स्त्री। उपादौ । स्तृणात्याच्छादयत्ति लनवाऽत्मानमिति स्त्री । स्तृणातेष्टत् " प्रत्ययो भवति । अकारमात्रः । "स्मृवर्णः । अथवा इटपाठः । सबभाजन वादिनीयः । डमरो नदाद्यर्थः । रकारमात्र एव | श्रमरसिहभाष्ये -स्यायस्य तेऽ) स्या गर्भः स्त्री।" तया च हलायुधे"स्तरणाति विवेकमाचिनत्ति स्त्री" | नरस्य स्त्री जातिश्चेत नारी। नरें वनति भजने वनिता । मुह वैचित्ये कायेंघु मुह्यति मुग्धा । "मुहर्थक इस्व गः ।" भामते कुप्यते (ति) भामिनी । [भामः] क्रोधी त्यस्याः वा भामिनी । त्रिभेत्यस्माद(त्यसौ)भीरुः । "भियो रुग्लुको च ।" भीरुः । प्रशस्तान्यङ्गान्यस्या श्रङ्गना। लाइयति, (लइति) विलसति, ललपति (ललति) नरमीप्सते वा ललना । "लल ईप्सायाम" | भोगान् १० कामयते कामिनी । युधः सौत्रोऽयं धातुः सेवाऽर्थे । योषति पुरुषं गच्छति रतेच्छया प्रात्मनो योषा । "कष शिष जप झष दष मष रुष रिष यूष जय हिंसाः " । योपति हिनस्ति हन्तीति योषित् । “हस्तडि. रुहियुषिभ्य इतिः" एभ्य इतिप्रत्ययो भवति । इकार उप्यारणार्थः । श्रमरसिंह-"योति घुसा योपिन् ।' अनादित्वादाम्प्रत्यये योरिता च । सीमन्तोऽस्तस्याः सीमन्तिनी। बध्नाति चित्तं बधूः । नितम्बोऽस्त्यस्या नितम्बिनी । न विद्यते बलमस्या अबला । 'बा' सौभाग्यं लाति गृहातीति बाला । “कम् कान्ती" कम । १५ "“कमेरिमिङ् कारितम्" इन । "श्रस्योप." दीर्घः । कामयते इत्येवंशीला कामुकी । " शकमगमहनकृषभस्थालपपतपदामुकम् ।" 'कारितलोपः । " निमि" दीर्घाभावः । अकाराऽनुबन्घत्वात्पूर्वस्योप दीर्घः । वामे सुन्दरे लोचने नेत्रे यस्याः सा यामलोचना। "भाम को" चुरादौ । भामयति । 'भाम क्रोध भ्वादापकाराऽनुबन्ध श्रात्मनेपदी । भामते भामा । चक्षुर्दोषादिदर्शनात् । तनु सूक्ष्मदरं यस्याः सा तनूदरी। नरेणु रमते, मनांसि रमयति वा रामा' । सुष्टु द्रियते श्राद्रियते जनोऽत्र, शोभनी दरो २० वराङ्गच्छिद्रमस्या वा १३ सुन्दरी । अथवा 'सुन्दर' इति सौत्रोऽयं धातुः । युवत् शब्दानदादिविहितस्तिः४, युवतिः। यु मिश्रणे यौति नरान् मिश्रयति प्रोणादिको वा अतिः युवतिः । खिय मीः । युवती । यूनीत्यन्यः । तथाहि प्रयोगः-- "भर्ता संगर एवं मृत्युवसति प्राप्तः समबन्धुभिः, यूनी काममयं दुनोति च मनो वैधन्यदुःखाद् वधूः । बालो दुस्त्यज एक एव च शिशुः कष्टं कृतं वेधसा, जीवामीति महीपते प्रलपति यदरिसीमन्तिनी।" चलचित्तान्पुरुपान् चालयतीति चला" । वामनेत्रा, पुरन्धी, वासिता, वर्णिनी,प्रमदा, रमणी, - -.--..-- १. का. उ० ४।३६ । २. का. सू. १।२।१०। ३. क्षी० भार २ २ । ४ का ३० ६।३८४ इति धिक् म हस्य गश्च । ५. का०सू० ४१४५६ । ६. का . १।३५ । ७. क्षी० भार शार/ ८. का रू० उ० ४६२ । ५. काल सू० ४।४।३४ । १०. कारितस्यानामिड्विकरणे का० सू० ३१६।४४ इत्तीनो लोपः । इनः कारितसंज्ञा कातन्त्रव्याकरणे । ११. निमित्तापाये नैमित्तिकस्याप्यपाय: इति परिभाषेन्दुशेखरे अकृतव्यूहपरिभाषार्थरूपः । १२. रमते रामा । ज्वमादित्वाम्णः । रमयतीति तु न युनम, ण्यन्तस्य ज्वलादित्वाभावात् । १३ सु-अतीव उननि सुन्दरी । उन्दी क्लेदने । बाहुलकादरप्र० । शकन्भ्वादित्वादुकारस्य पररूपम् । गौरादित्वान्दीप् इति रामाश्रमः । १४. का० सू० २४.५० । १५. चलचिरीः पुरुश्चलती त चलत्येव विग्रहः । पचायच् । णिजन्तातु चाला इति स्यात् । Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमरकोर्तिविरचितभाष्योपेता दयिता, प्रतीपदर्शिनी, कान्ता, यशा, महिला, महेला च । भार्या जाया जनिः कुन्या कलत्रं गेहिनी गृहम् । महिला मानिनी पत्नी तथा दाराः पुरन्ध्रयः ॥३२।। दश कलत्रे । "हुभृञ् धारणपोषणयोः' । भियते पुष्यते गर्भण भार्या। वर्णव्यञ्जना५ न्तात्थ्यण्" । कारमात्रः । अत्योपधावृद्धिः । भार्या इति जातम् । "त्रियामादा" | श्राप्रत्ययः | प्र० सिः | " श्रद्धायाः सिलोपम् ।" सिलोपः । "ज्या वयोहानी" जा (जि) नाति जाया। जनी प्रादुर्भावे च' । सुखी जायते अात्मा एत्रज्ञाया। "सन्ध्यादयः सन्ध्या वन्ध्या जाया इत्यादयः शब्दाः यत्ययान्ता निपात्यन्ते । जनयति पुत्राञ्जनिः । इ." सर्वधातुभ्यः" । कुले साधुः कुल्या यदुगवादितः" | "कड मदे" कड सौदादिक । कडति माद्यति यौवनेनेति कलत्रम् । "अमिनक्षिकडिभ्योऽत्रः" अप्रत्ययः । १० कत्रम् | डलयोरै क्यम् । प्रथ. सि. नपुं० "प्रका मुरा० । "मोनु । गेहमस्त्यस्या गेहिनी ‘ग्रह उपादाने" | गुल्लाति प्रत्युपार्जितं गृहम्। “१ गेहेत्वक अप्रत्ययः । 'अहिज्या५१.---सम्प्रसारणम् । मह्यते पूज्यते । महिला । मानः प्रणयकोपोऽस्था मानिनो । पति पतति याति पत्नी । 'दृ विदारणे" । १० क्र० । दोर्यते शतखण्डीभवति पुरुष एभिरिति दाराः । "1 भावे" घम् । अकारमात्रः । वृद्धिः । दार इति जातम् । प्रथमा जस् । प्रायो बहुत्वं च । पुरं धमयन्ति, नेत्रान्ते पुरं शरीरं धरन्तीति १ पुरन्ध्रयः । १५ क्षेत्रम, सहधर्मचारिणी, गृहाः, सहचरी, सहचरा । १५ वल्लभा प्रेयसी प्रेष्ठा रमणी दयिता प्रिया। इष्टा च प्रमः कान्ता चण्डी प्रणयिनी तथा ॥ ३३ ॥ एकादश बल्लभायाम् । बल्लते पत्युश्चित्तं संवृणोतीति वल्लमा । '१६कृशशलिंगर्दिरासिपलिवल्लिन्योऽमः" अभः प्रत्ययः आप्रत्ययः । अतिशयेन प्रिया प्रेयसी । "तर तमेयस्विष्ठः" प्रकर्षाऽर्थे २० 'तर तम ईसाइय' इत्येने प्रत्यया भवन्ति । अतिशयेन प्रिया प्रेष्ठा । रमते जनोऽत्र, माति रमयति - ... -- - - का सू० ४।२।३५ इति प्य त्ययः । २. का० सू० २।४।४९ । ३. का. सू०२।१।३७ । ४. फार ३०४।३।५. का ३०३।१४ । ६. का• सू० २१६।११ इति यत्प1-9.-- का उ० ३।५/ गड खेचने | गइति गज्यते वा "गडेरादश्च कः" पार उ० इत्यत्रन् । इलयोरेकत्वम् | कड शासने मदे । कडति कल्यते वा बाहुल कादत्रन् । कलं मधुर ध्वनि त्रायते रक्षति वा। त्रैङ् पालने क: इत्यन्यत्र । ८. अकारादसम्बुद्धी युश्च पति पूर्ण का० सू. २२७ इति सेलोपो युरागमश्च । ५. मोनुस्वार व्यञ्जने इति पूर्ण का सू० १४१५ इत्यनुस्वारः । २०. का. सू० ४१२०६७ । ११. का सू० ३।४।२ हज्यावधियधिवष्टिव्यचिपच्छिवश्चिभ्रस्जीनामगुणे इति पूर्णसूत्रम् | १२ का० सू. ४/५/१३ । १३ का० सू० ३।६।५ । अस्योपत्रायः दीघों वृदिनामिनामिनिचक्षु इति सूत्रस्वरूपम् | १४. स्यातु कुटुम्बिनी पुरन्ध्री २।६:६ । इयमरादिकोशेनु दाकारान्तपुरन्ध्रीशब्दस्वैव सस्थादत्र पुरन्ध्रय इति पाठी युक्त इति न भ्रमितव्यम् । पुरं धरन्तीति विग्रह ''अन इ.'' पा० उ०४।१३९ इति इः । पृषोदरादित्वात्पुरोऽकारान्तत्वं मुमागमश्चेति रीत्या तस्याप्युपपत्तेः । अत एव " लौ स्नातकर्थन्धुमता च रासा पुरधिभिश्च क्रमशः प्रयुक्तम्" इति रघुः । पुरन्धमयन्तीति न विचारसहम, तत्साघकानुशासनविरहात् । १५. भार्यादिपुरन्ध्यन्तशब्देषु सामान्य विशेषभावादर्थभेदो न विस्मर्तव्यः । तद्यथा-भायां, जाया, कुल्या, कलत्र. गेहिनी,गृह,पत्नी दारा परिणतिनोवाचकाः । महिलामानिन्यौ विशिष्टनायिके । पुरन्त्री पतिपुत्रपती । १६. का उ० ३।१२। १७ एतच्च कात त्रसूर्व नोग्लब्धम् । गुणाकादेष्ठपसू शा० सू० ३।४।७५ इतीयलुप्रत्ययो लोभ्यः । Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाममाला १७ वा रमणी । मरेषु दयते गच्छति ईष्टे वा दयिता। प्रीणाति पतिचित्तं रञ्जयति प्रिया। इज्यते इष्यते वा इष्टा । प्रकृष्टो मदोऽस्याः प्रमवा | काम्यते नरेण कान्ता । चण्डते कुप्यति चण्डी । चण्डिका च । प्रणयोऽस्या अस्तीति प्रणयिनी 1 सती पतिव्रता साध्वी पतिवत्येकपत्यपि । मनस्विनी भवत्यार्या___ सप्त पतिव्रतायाम् | एकः पतिरस्तीति सती' 1 पतितं करोति,पतिरेव व्रतं सेन्यो नान्यो यस्या इति वा पतिव्रता । पतिसेवैध व्रतं यस्याः पतिव्रता । यस्मृतिः--"नास्ति' स्त्रीणां पृथग्यसो न व्रतमिति ।" सापयति साध्वी। पतिरस्या अस्तीति पतिवती । एकः पतिर्यस्याःसा एकपती। मनोऽस्या अस्तीति मनस्थिनी । अर्यते सेव्यते श्रार्या । सुचरिता । विपरीता निरूप्यते ।। ३४ ॥ था धानोर, भ गनानीना वा काय विपरोता असदृशा । बन्धकी कुलटा मुक्ता पुनः (श्चली खला । षड् बन्धक्याम् । बध्नाति तरुणचित्तानि बन्धको। कुलमति कुलटा। तथा चोणादी "टल टबल बैकल्ये' हेलाविन् । अस्योपधाया दीर्घः । कुलपूर्वः । कुलं टालयति कुलटा । "कुले' टालेरिलुक् डश्च' कुले उपपदे टाले रिनन्तस्य डा प्रत्ययो भवित इलक् च । स्वाचारं मुच्यते (स्म) पत्या जनैर्षा मुक्ता | पुनर्भवतोति पुनर्भूः । पुमांसं चालति पुश्चली। खं पञ्चेन्द्रियोत्पन्न सुर्ख लाति गृहातीति १५ मला, अन्यपुरुषलम्पटत्वात् । पांशुला, स्वैरिणी, असती, इत्वरी, धर्षणी, अविनीता, अभिसारिका, चपला। स्पर्शाऽभिसारिका दूती स्वैरिणी शम्फली तथा । ___ यञ्च दूत्याम् । 'स्पृश संस्पर्श' । स्पृशति, स्प्रक्ष्यति, अप्राक्षीत्, पस्पर्श वा घम् । स्पर्शः । "पद५. सबविशस्पृशोचा यन '' । नामिन श्व गुणः । "स्त्रियामादा'' आप्रत्ययः । स्पर्शा। पुरुषान्तरमभिसरति अभिसारिका । दूयन्तेऽस्या' मौखर्यात् दूती। ईर् गती कम्पने च'। ईर् । ईरणम् ईरः | "भावे" २० घन प्रस्य ।। । स्वस्य ईरः स्वैरः । स्वैरो विद्यतेऽस्या स्वैरिणी । "तदस्याऽस्तीति" मन्त्वात्वीन्" इन् । "1"नदाद्यविवाह" ई प्रत्ययः । 'रघुवर्णेभ्यः'५' नस्य यात्वम् । शं सुखम् फलति निष्पादयतीति शम्फली । तथा तेनैव प्रकारेण । गणिका लञ्जिका वेश्या रूपाजीया विलासिनी । पण्यस्वी दारिका दासी कामुकी सर्ववतभा ॥ ३६॥ नव वेश्यायाम् । गणः पेटकोऽत्यस्याः, गणयतीश्वरानीश्वरी वा गणिका । 'जि लाजि लाजा लज तर्ज भर्सने' । लञ्जयति निः स्वान्पुरुषान् तर्जयतीति लक्षिका । वेशे वेश्यावाटे भवा वेश्या । लपेण पा समन्ताबीवतीति रूपाजीवा। विलासोऽस्या:स्तीति विलासिनी। तथा चोक्तम् "हावो मुखविकारः स्याद् भावश्चित्तसमुद्भवः। विलालो नेत्रजो शेयो यिभ्रमोऽत्र हगन्तयोः ।। १ अस्थातोः शतृप्रत्ययान्तो डीवन्तः सतीशब्दः। २ "नास्ति स्त्रीणां पृथग यज्ञो न व्रतं नाप्युपोषणम् । पति शुश्रूषते येन तेन स्वर्ग न हीयते” इति मनुस्मृतिः ५।१५५। ३. पतिपत्नी, एकपत्नी इति पाठो युक्तः । ४. का० उ० ५/४७ । ५. का. सू. ४/५।१ । ६. का.सू. ६/५/२ नामिनश्चीपधाया लघोः इति पूर्णसूत्रम् । ७. दूयन्ते परितप्यन्ते । अस्य कर्तारः स्त्रीपुमासः | E. का० सू० ४।५।३ । ५. का० म. २।६।१५ । १०.का • सू० २१६/५०। ११. का० सू. २॥४॥४८| "रपवणेभ्यो नोममन्स्यः स्वरहयकवर्गा-स्तरी ऽपि" इति पूणे सूत्रम् । १२. वैशेन नेपथ्येन शोभते, "कर्मवैशाधत्" इति यत् । वेशे भवा दिगादिस्वायत् । Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमरकीर्तिविरचितभाष्योपेत्ता पण्यस्य स्त्री पण्यत्री । परिमाणं कृत्वा रमयतीत्यर्थः । दृणाति विदारयति कामिनम् वारिका । दस्यति परिकर्मणा क्षयति, ददात्यात्मानं वा वासी । दाशी । तालव्यदन्त्यः ! कामयते इत्येवंशीला कामुकी । सर्वेषां पुरुषाणां वल्लभा सर्वयल्लभा । सैरिन्धी। "चतुःषष्टिकलाभिज्ञा शीलरूपादिसेविनी । प्रसाधनोपचारशा सैरिन्ध्री कथ्यते बुधैः॥" गन्धकारिका । पण्यस्त्री च । कान्तेष्टौ दयितः प्रीतः प्रियः कामी च कामुकः। वल्लभोऽसुपतिः प्रेयान् विटश्च रमणो वरः ॥३७॥ बयोदश कान्ते । काम्यते भिलप्यते कान्तः । इष्यते इष्टः 1 दया कृपा संजाता अस्येति दयितः । २० ताकितादिदर्शनात्संजातेऽर्थे इतन्त्र ।' उइवर्णावर्णयोलोपः स्वरे प्रस्थये पे च ।' आकारलोपः । सोरेफः । प्र प्रकोण ई कामसुखम् इतः प्रातः मीतः । पृषोदरादित्वात् श्राकारलोपः । प्रीणातिस्म प्रीतः। प्रीणाति प्रीणीते वा मियः । “"नाभ्युपधनीकुग़ज्ञां कः' | ""स्वरादाविवर्णविर्णान्तस्य धातोरिजुवौ ।" कामोऽस्यात्तीति कामी । कामयते इत्येवंशीलः कामुकः । बल्लते वल्लभः । कृशृशलिगर्दि रासिवलिवल्लिभ्योऽभः।" अभः प्रत्ययः । असूना प्राणानां पतिः असुपतिः । अतिशयेन प्रियः प्रेयान् ! १५ “प्रियस्थिरस्फिरोहबहुलगुरुवृद्ध तृप्रदीर्घवृन्दारकाणो प्रस्थस्फवबेंहिंगर्षित्रदाधिवृन्दाः ।" विट शब्दे विरति कामोद्रेकशब्दं करोतीति विट!। 'इगुपधेति कः । 'रमु क्रीडायाम् ।' रम् । रमते कश्चित् । तं प्रयुक्त इन्। अस्योपधादीर्घः । 'मानुबन्धानां हृस्वः ।" रमयतीति रमणः । “नन्यादेयुः।" ५१ युधुझानामनाकान्ताः" अनः । १२ कारितस्य" कारितलोपः। ५५र१०" नस्य णत्वम । वृणोति वर यति वा वरः । कमिता | पतिः । वरयिता । भर्ता । भोक्का । धवः | रुच्यः । अभीकः | अम्य२० तुभ्यां कामपितरि को वा दीर्घश्च" जनयति का | अभिकः । अमुकः । प्राणाधिनाथः । सेक्ता । सवित्री जननी माता त्रयः मातरि । सूते जनयति सवित्री। जनयति जायतेऽस्या वा अननी। माति गर्भोष १"मानयति या माता। अम्बा । जनकः सविता पिता। त्रयः पितरि । जनयति उत्पादयतीति जनकः। पुत्रान् सबते (सूते) सविता । अहितात् पाति रदतीति पिता । "उणादौ" पा रक्षणे, पातीति पिता ! 'स्वस्त्रादयः' ५६ । 'स्वसनननेष्टत्वष्ट क्षत्तृहोतृप्रशास्तृपिनुमानृदुहिनजामानुभ्रातरः" एसे शब्दास्सून प्रत्ययान्ता निपात्यन्ते । १. चतुष्पष्टिकलाऽभिशा शीलस्मादिसेविनी । प्रसाधनोपचारज्ञा सरन्ध्री स्ववशेति चेति कात्यः" इत्यमरकोशे क्षी० स्वा० | २. का. रू० पू० ५०८ । ३. का सू० २१६४४ । ४. का० सू० ४।२।५१ १५. का.सू. ३।४।५५/ इतीप् । ६. का. उस सू० ३।१२ । ७. पासू० ६।४१५७ इति प्रियशब्दस्य प्रादेशः । ८. "इगुपधशाप्रीकिरः कः" पा सू० ३।१।१३५/६. का. सू० ३।४३६५/ इति हस्तः । १०. का. म. ४।२।४९इति युप्रत्ययः । ११. का० स० ४।६५४इति योरनादेशः । १२, का. सू. ३१६१४४| इतीनो लोपः । १३. का. सू० २।४।४।१४. कातन्त्र नैतत्सूत्रमुपलब्धम् । बैनेन्ट्रन्याकरणे-"गृहखलि. कोदरिके" त्यादि सूत्रम् ४।१।१५ तेम कात्ययान्तः पक्षे दीर्घान्त धाभिकोऽभीक इति निपातितः । १५. मानयतीर्थः, विग्रहस्तु मातीरयेव । मा माने । तच प्रत्ययान्तः । ५६. का० उ० २।४२ ॥ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाममाला देहापवनकायानं वपुः संहननं तनुः ॥ ३८ ॥ कलेवरं शरीरं च मूर्तिः दश देहे । देहश्च अपघनश्च कायश्च अङ्ग च | समाहारसमासत्वादेकवचनम् । दिह। देग्घीति देहः । "दिहिलिहिरिलषिश्वसिन्यध्यतावश्यातां च। ए ! नयाँत । अपहले अपचनः । "मूर्ती पनिश्च" अल् । चिञ् चयने । चि । चीयतेऽसौ फायः । "शरीरनिवासयोः कश्चादेः" ५ चिनोतेः शरीरे निवाले चार्थे बज भवति आदेश्च को भवति । उख. रणख, वख, मख, रख, लखि, इखि. वल्ग, रगि, लगि, अगि, वगि, मगि, स्वगि, इगि, रिगि, लिगि गत्यर्थाः । अङ्गति मरणं गच्छत्तीति अङ्गम् । उप्यन्ते पुरुषायों अनेनेति वपुः । ' पृवपिचसिजनितनिभनिभ्य उस्' एभ्य उस प्रययो भवति । संहन्यन्ते संपद्यन्ते धातयोऽत्र संहननम् । धातुभिः रसासगमांस मेदोऽस्थिमजस्तन्यन्ते तनुः । तनूः । उनादौ तविस्तारे। तनोतीति तनूः । 'कृषि"चमिनिपनि- १० अधिमर्जिर्जिन्य ऊ' एभ्य ऊप्रत्ययो भवति | कलते स्थिरत्वं गति कलेवरम् | कडति माद्यति वा कलेवरम् | कडेवरं च । अमरसिंहभाध्ये 'कल्पते कलेघरम् ।' शीर्यते क्षयं गच्छति रोगज्वरादिभिः शरीरम् । "कुशशौण्डप ईरः ।' एभ्य ईरप्रत्ययो भवति । उगादित्वात् । 'मूल मोहसमुच्छाययोः' मूर्छ । मूर्छनं भूतिः । स्त्रियां तिः । "घोषवत्योश्च कृति'.१ "इति नेट् । "राल्लोपः (प्यो) 'इति छकारलोपः । "नामिनावोंदकुछु रोयंञ्जने" १२ दीर्घः । व्यञ्जनम् । प्रथ० सिः। "रेफ.०१४ | विग्रहः। १५ वर्म । पुरम् । पिण्डम् । क्षेत्रम् । गोत्रम् | धनः । पुद्गलः | प्रतीकः । अवयवः । अस्मिन भवः अस्मिन् काये भवः कायभवः। देहभवः । अपघनभवः । अङ्गभवः । वपु वः । संहननभवः । तनुभवः । कलेवरभवः । शरीरभवः । मूर्तिभवः । कायजः । देहजः ! अपधनजः 1 अजः । वपुजः । संहनन नः। तनुजः । कलेवरजः । शरीरजः । मूर्तिनः । एतानि पुत्रनामानि भवन्ति । भव २० प्रयोग। सुतः। पुत्रः सूनुरपत्यं च तुक् तोकं चात्मजः प्रजा ॥३६॥ अष्टौ पुत्रे | सूयते सुतः । पुनातीति पुत्रः । (३"पूजो ह्रस्वश्च ।" अस्मात् प्रत्ययो भवति धातोह वश्च । कोणार्यः । तथा च सोमनीत्याम१६..-"य उत्पन्नः पुनाति वंशं स पुत्रः 1 अथ २५ पुरनाम्नो नरकात्त्रायते वा पुत्रः । सूयते सूनुः । १७विषिभ्या यण्वत् ।" प्राभ्यां नु प्रत्ययो भवति, स च यवत् ।" खूङ प्राणिगर्भविमोचमे ।" पल शल पल्लू पथे च गतौ ।' पत् नत्र पूर्वः । न पतन्ति येन बावेन पूर्वजा नरकादौ सदपत्यम् । “भबि पतेयः" यप्रत्ययः । नस्य५ तत्पु० सिः । नपु० १. का. सू० ४।२।५८१ २. का. सू० ४/५१५८। इत्यत् घन्यादेशश्च । ३. का० सू० ४।५।३५ । ४. का. उ. २२४६। ५. का. उ० ११३१। ६. कले शुक्रे मधुराव्यक्तम्वनौ वा दरं श्रेयम् । 'हलदन्तादि" ति सप्तम्या अलुक । इत्यन्यत्र | ७. क्षीर० भा० २।६७०। . का. उ० ३/४८। ६. का. सू० ४/५/७२। इति क्तिप्रत्ययः । १०. का० सू० ४.६१८०११. का. सू. ४।१।५८। १२. का. पू. ३१८१४॥ १३, "व्यञ्जनमस्वरं परं वर्ण नयेत्" इति पूणे कातन्त्र सूत्रम् ।११।२१। इति व्यञ्जनस्य परवर्णयोगः। १४. "रेफसोर्विसर्जनोयः' इति पूर्णम् । का० सू० २१३।६३। इति सकारस्य विसर्गः । १५. का. उ० ४/४१। १६. नी० वा. समु० ५ सू० ११ । १७. का. उ० २।८।१८, का. उ० ६.३० १९. "नस्य तत्पुरुषे लोप्यः" इति पूर्णम् | का० सू० २।५।२२। इति नलोपः । Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५ अमरकीर्तिविरचितभाष्योपेता अक्रा०' । मोऽनु०२ । ताजति उतक । स्तूयते सोनमः । आत्मनो जात: आत्मजः । प्रकर जाता प्रजा । " "सतमीपञ्चम्यन्ते जनेईः ।" बालः, पाकः, अर्भकः, गर्भपोतश्च । पृथुका, शिशु, शावः, डिम्भः, बद्धः, माणवकः, भ्र णः ।। उद्वहस्तनयः पोतो दारको नन्दनोऽर्भकः । स्तनन्धयोत्तानशयोअष्टौ बालके । उदहतीति उद्धहः । स्वश् | तनोति विस्तारयति वंशम, तनयः। "तने: क्यः ।" पवते वातेन पोतः' । दारयति दृणाति वा तरुणीनां मनांसि दारकः। 'टुमदि समृदी।' नन् । अत एव नन्द् । नन्दति कश्चित्तमन्यः प्रयुङ्क्ते । ""धातोश्च होतो ( हेतौ " दम् । नन्दयतीति नन्दनः । "नन्दि' वासिमदिदूषिसाधिशोभिवर्षिभ्य इनन्तन्धोऽसंज्ञायाम्' युप्रत्ययः । स्वमते "नन्द्यादेयुः" यु प्रत्ययः “युबुझानाम० - इति युस्थाने अनः । “१२कारितस्यानामि० कारितलोपः । 'अह मद्द पूजायाम्' अईत्यकः । ॥१७मूकादयः ।' मूकयुकार्भकपृथुकवृकस्कभूकाः एते कात्ययान्ता निपात्यन्ते । स्तनौ धयतीति स्तनन्धयः । 1४'शुनीस्तनभुञ्जकूलास्यपुष्पेषु घेरा ।" खश् । उत्तानः शेते उत्तानशायः । १उत्तानादिषु कर्तृषु'' च । __ स्त्री चेद् दुहितरं विदुः ॥४०॥ पुत्र्यां दुहितर १६ दोग्धि मातृकुल दुनोति वा विदुः कथयन्ति । तनया, पुत्री । वयस्याऽली सहचरी सधीची सवयाः सखी। षट् सख्याम् । वयसा तुल्या वयस्या। वयसी च । श्रा समन्ताच्चित्तं लाति मालिः । नियामीः । माली। सह साई चरतीति सहचरी । सहाम्चतीति सभ्यङ्। १७ सहसन्तिरसां सभिसमितिरयः 1" ईप्रत्यये सध्रीची । सह वयसा धर्तते सषया:१८ ! समानं त्यातीति सखिः (खा ) ! नियामी: सखी। २६ "सख्यादयः" सखि अश्रि प्रदि इत्यादयो डिप्रत्ययान्ता निपात्यन्ते । आलीविवर्जितं मित्र सम्बन्धो मित्रयुक् सुहृत् ॥४१॥ चल्यारो मित्रे । श्राली रहितानि वयस्यादीनि नामानि मित्रधाच्यानि स्युरित्यर्थः । भिमिदा स्नेहने । मेद्यति स्म मेदते स्म वा स्नेहयुक्तो भयति स्म वा मित्रम् । २०"चिमिदिभ्यां प्रक्" प्राभ्या २१ १. "अकारादसम्बुद्धौ मुश्च" इति पूर्ण | का. सू० २।।७। इति सेलोपो मुरागमश्च । २ "मोऽनुस्वारं व्यसने' इति पूर्णम् । का० सू० १।५।१५। ३. "तुज हिंसाबलादान निकेतन' । चुरादौ वा णिच् । तोजति पितृधनमादरी 'तुक्' इति टीकाशयः । ४. तौति पुरयति पितृकार्य पितुरभावेऽपीति तोकम् । तुः सौत्रो धातुहिमावृत्तिपूर्ति । बाहुलकारकः इति व्युत्पत्यन्तरमप्यूश्यम् । ५. का. सू० ४।५।५१॥ इति जनेर्डः । ६. का० उत २।२५। इति तन् धातोः कयप्रत्ययः। ७. पवते बातेनेति विग्रहस्तु नौका. वाचकपोले बौध्यः । पुप्रार्थे तु पुनाति पवते वा वंशं पोतः । मगवाहवाम' - इति का० उ० ४।२७। सूत्रेण तप्रत्ययः । ८. युवतिमनीदारगणं बालद्वारा न घटते । श्रतो दृणाति दारयति वा मातुर्योक्नम्, पित्रोनिस्सन्तानता जन्यातिवति तदाशयोऽयुन्ने यः । ६. का. सू० ३१२।१०। १०. का० सू० ४।२।१२/ "नन्द्यादे युः' इति सूत्रे दुर्गवृत्तिः । ११. का० सू० ४।६।५४ । १२. का० सू० ३।६।१४। इतीनो लोपः । इनः कारितसंशा कातन्त्र । १३. का० उ० २।५८३ १४. का. सू० ४१३१३१॥ १५. का. सू० ४१३१८ अत्र दुर्गवृत्तिः । १६. दोग्धि पितृकुलं दहति दुनोति षा मातृकुलं दुहिता । स्वादिस्यात्तृनप्रत्यय इत्याशयः । १७. का० सू० ४।६।७१॥ इति सदस्य मध्यादेशः । १८. समानं वयो यस्या इति विग्रहो न्याय्यः । ज्योतिर्जनपदेति समानस्य सादेशः । १९. का० उ० ४।९।२०. का० उ० ४।४० | २१. मेद्यति मेदते इति वर्तमामकालिको विग्रहो युक्तः, न तु भूतकालिकः । Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाममाला १ अक् प्रत्ययो भवति । ककारी यण्वभावार्थस्तेनागुणत्वम् । सम्यक् स्नेहेन बध्नातीति सम्बन्धः । मित्र युनक्तीति मित्रयुक् । सुष्टु हरति चित्तं सुखद् । शोभनं हृदयं यस्य वा । सखा, स्निग्धः । सहकृत्वा सहकारी सहायः सामवायिकः । चत्वास सहाये । सहकृतवान् सहकृत्वा । "कृत्रश्च वनिप् प्रत्ययः । प्र. सि | "धुटि: चा" दीर्घः । सह समन्ताकरोतीति सहकारी । "नाम्न्यजाती णिनिस्ताच्छील्ये”। सह सार्धम् प्रयते ५ गच्छति सहायः । समवाये नियुक्तः सामवायिकः । इकण् । सनाभिः सगोत्रो बन्धुश्च सोदय: चत्वारो भ्रातरि | समाना नाभिर्यस्य सनाभिः । समान गोत्रं यस्य सगोत्रः । बमाति स्नेहेन बन्धुः । “पट्यसि बसिहनिमनित्रपीन्दिकन्दिनन्धिबह्मणिभ्यश्च'' एभ्य एकादशभ्य उः प्रत्ययो भवति । सोधी । मामा, मग, पा, सदर, श्रात्मीयः, वजनः, प्रासः, शातिः, १० सनामेयः, सपिण्डः । अवरजोऽनुजः ॥ १२॥ कनीयान्दौ (यो) लघुमातरि । अवर पश्चाजातः अबरजः । (अनु) पश्चाजातः अनुजः । "सतमी-६ पञ्चम्योर्ज ( म्यन्ते ज) नेर्ड:" । अयमनयोरतिशयेन युवा कनीयान् । “युवाऽल्पयोः" कन्या । कनिष्ठः। १५ अग्रजो ज्येष्ठः अने जातः अग्रजः। प्रकृष्टो वृद्धी ज्येष्ठः। "पृद्धस्य ज्यः'' वृद्धशब्दस्य ज्य श्रादेशी भवति । पूर्वजः, वरिषः, वर्षीयान, भनिया। भ्रातृजानी स्वसाऽनुजा । त्रयो भगिन्याम् | भातुर्जाता भ्रातृजानी' । स्वस (स्य) ति क्षयति क्षिपति चित्तं स्पस् । २० दन्तः । अनु पश्चाजाता अनुजा | भगिनी । भग्मी च । जामिः । यामिश्च | भत्तु स्वसा ननान्दा स्यात्स्यात् भवेत् । भर्तुःस्वसा भगिनी । ननान्दा | "दुनदि समृगौ” । नद् । "अत'' एक." नञ् पूर्वः। न नन्दति मातृवाया यस्यां सत्यां सा नमान्दा ! "नधि च नन्देऋन् दीर्घश्व" नभि उपपदे ---- - ..-- १.सुष. हरतीतिव्युत्पत्तिस्तु तान्तसुहत्शब्दे सम्भवति । मित्रवाचकदान्तमुद्शब्दे तु शोभनं हृदय यस्थेत्येव । हृदयस्य हृदादेशः समासे । २. का०सू० ४।३।९।। ३. "घुटि चासम्बुदी"|४.का.सू. २।२।१७ का०सू० ४।३१७६१ ५.का० उ० ११६) ६. का.सू.० ४।३।९१। ७. वर्तमानकातन्त्रे नोपलब्धम् । ८. वर्तमानकातन्त्रे नोपलब्धम् । ९. नान्यस्मिन्कोषे भातवानीशब्द उपलब्धः, नाष्येतत्साधकं किमपि ग्याकरणसूत्रम् । भ्रातुतिति विग्रहोऽपि भगिन्यर्थे ऽसंगतः । तथापि भ्रात्रा सह मातुजातेति विगृह्य बाहुलकादौणादिकमणप्रत्ययं जनधातोः प्रकल्प्य भणन्तत्वान्डीपि प्रातबानीति शब्दो ग्रन्थकारप्रत्ययात् कथञ्चित समाधेयः । १० स्वस्यति क्षिपति चित्तं भातुः स्वसेति विग्रहो बोध्यः । “अमु क्षेपणे" दिवादौ । सुपूर्वकाक्ततः "सुज्यसेऋन्” इति ऋन्प्रत्ययः । कातन्त्रोणादौ तु "स्वस्रादयः" इति 'श्वस् प्राणने इत्यत ऋन्प्रत्यये शकारस्य सकारे च "श्ववितीति स्वसा" इत्याह । अत्र क्षिपतीति दर्शनात् 'असु क्षेपणे इत्येव भाष्यकरभिप्रेत इति शयते । ११. "अत एव वर्जनादिदमनुबन्धानां नोऽस्तीति" दुर्गवृत्तिः । का० सू० ३।६।१० १२. का. उ. सू० २।३९| Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमरकीर्तिविरचितभायोपेता मति नन्देर्धातोन् प्रत्ययो भवति अक्रारो दीर्घश्व भवति । ननान्दा इति बातम् । मातुलानी प्रियाम्बिका ।। ४३ ॥ द्वौ मातुलभायाम् । मातुलस्येयं भार्या मातुलानी । “इन्द्र वरुणभवशवरुद्रहिमयमारण्ययवयवनमालाचार्याणामानुक ईपच" | अम्व अम्बिका । "अम्बादिभ्यो दलेका:" ड, ल, इक, प्रत्यया ५ भवन्ति । प्रिया चासौ अम्बिका प्रियाम्बिका। वैशिविरभित्रोऽरिदि सपत्नो द्विषद्रिपुः । भ्रातृव्यो दुर्जनः शत्रुर्दुष्टो द्धपी खलोहितः ।। ४४ ॥ पञ्चदश शत्रौ। विशिष्टाम ई लक्ष्मीम् ईरयति निर्गमरति वीरः, वीरस्य कर्म वैरम् । [ वैरमस्यास्तीति वैरी।] बैरिपुरमियर्ति गति श्रारातिः। श्ररातिश्च । न मित्रम् अमित्रम् । १. अधर्मान्तादिवत् | "विपक्षे नन" इति सारस्वत सूत्रम् । शत्रुत्वमियत्ति अरिः । द्वेष्टीति विट् । "सत्"सूतिष्द हदुइयुजविदभिदछिदजिनीराजामुपसर्गेऽपि वियू । एकार्थाऽभिनिवेशेन समानं पतति सपलः। द्विण्टे विषन् । निष्ठुर रयति रिपुः । ज्जतकुंबल्गुफल्गुशिशुरिपुपृथुलषयः ।" एते उप्रत्ययान्ता निपात्यन्ते । निपातनमप्राप्त प्रापणार्थ प्रामस्य बाधनार्थम् । लक्षणेन यवदसिद्ध तत्सर्व निपातनासिद्धम् । तथा झीरस्वामिनः- "रेपयति रिपुः। रेपू गो । भ्रातरं व्यरति मारयति १५ भ्रातृव्यः । दुष्टजनः दुर्जनः । परमभहारकोयश कीर्तिसम्भाषितग्रन्थे --- "प्रशस्या न नमस्याऽपि दुजनैर्या विधीयते । कण्दकः पादलग्नोऽपि न शुभाय प्रजायते ।।" सथा च सूक्तिमुक्तावल्याम् - "वर क्षिप्तः पाणिः कुपितफणिनो पत्रकुहरे वरं झम्पापातो ज्वलदनलकुण्डे विरचितः । वरं प्रासप्रान्तः सपदि जठरान्तर्विनिहितो न जन्यं दौजन्यं तदपि विपदा सद्म विदुषा ।" अब ये केचिद् दुर्जनाः सन्ति, तेषां मस्तकेऽशनिपाती भवतु । तथा च - "दुज्जण सुछिया होत जगि सुयशु पयासिउ जेण । अमिर विसें वासरु तिमिण जिमि मरगउ कच्चेण ।।" शृणाति शीर्यते वा शत्रुः । दूष्यते निन्द्रते लोके दुष्टः। देष्टि । देषोऽस्त्यस्य वा द्विषन् । १. पा. सू. ४।१।४९। अत्र सूचे यमेत्यधिकः पाठः । २. "हायनान्तबुवादिभ्योऽण् 'युवादित्वादण् । ततो मत्वर्थे 'अत इन्टनौ" इतीन् । ३. " गती" । आइपूर्वकाद् ऋधातो हुलकादाविपत्ययः । अन्यत्र तु न राति सुखं ददातीति नत्र पूर्वकात् 'रा' (दाने) धातोः क्तिच् क्तौच संशयामिति तिच् । ४. "तदन्यतद्विरुक्तदभावेषु नव वर्तते" इति वक्तव्यम् | “अन् स्वरे' सार० समा० १४ सू० | ५ का सू० ४।३।७४।६. का० उ० सू० १।६। ७. क्षीर० भा० २।८।१०। ८. "ज्येा संवरणे" धातूनामनेकार्थस्वाद्धिसाथै वृत्तिः । आतोऽनुपर्ने कः । ५. निर्णयसागरयन्त्रालयकाशितकाव्यमालाससम गुच्छमूक्तिमुक्तावली ६१ श्लो० । १० सावयधः दो० २ । ११. "जयादयः । जत्रुश्मनु शिग्रुशत्रवः । एते कमत्ययान्ता निपात्यन्ते"। इति का० उ. दुर्ग• वृ० ३६६॥ १२. द्वेषोऽस्त्यस्येति केवलमा एभिप्रायल | विग्रहस्तु द्वेष्टीत्येव । शतप्र० । Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाममाला खलति सजनगुणानाच्छादयतीति खलः । न मैत्री हिनोति गच्छति, न हितो वा. 'अहितः । अभियातिः, प्रतिपक्ष : असहन:, जिघांसुः, परिपन्थी, परः, असुहन, अपथी, पर्यवस्थाता, शात्रवः, प्रत्यनीका, द्वेषणः, दुह द्, दस्युः, अभिमन्थी । दीधितिभानुरुखोंऽशुर्गभस्तिः किरणः करः । पादो रुचिमरीचिर्भास्तेजोऽचिंगौद्युतिः प्रभा ॥४५॥ षोडश किरणे। दिधीते दीप्यते दीधितिः । दीधीडो डिति:" दीधीङो धातोडितिः प्रत्ययो भवति । 'भा दीप्तौ' भाति भानुः । “दाभारिवृत्रभ्यो नुः ।" एभ्यो नुः प्रत्ययः स्यात् । वसति रवी * उस्रः | पुंसि । अश्नुते जगद् व्याप्नोति अंशुः । स्त्री । उणादी । अनन् । अनितीति अंशुः । अनेः" शुः" अनेधांतोः शुप्रत्ययो भवति । [भा दीप्तौ" भाति भानुः : "दाभारी" ! गां भुवं बभस्ति "गभस्तिः । “वर्णागमो गवेन्द्रादौ सिंहे वर्णविपर्ययः । षोडशादौ विकारस्तु वर्णनाशः पृषोदरे।'' __ कीर्यते किरणः । हलायुधे-'फिरति विक्षिपति तमांसि किरणः ।" .. ९ कभूम्यां कनः | कोर्य ते करः । पद्यते पादः। ५ पदरुजविशस्पृशोचा छन । रोचते रुचिः । नियते तमोऽनेन मरीचिः। स्त्रीनोः । उणादौ । म्रियते मरीचिः | "मृणिभ्यामीचिः" श्राभ्यामीचिः प्रत्ययो भवति : भासने २५ क्रिपि सान्तो भास्। स्त्रीनोः।" पुस्येवेति शब्दभेदः । भाः । भासी । भासः । तेजयतीति तेजस् । अर्चयतीति अचिम् । अन्य ते पूज्यते अर्चिः । “अर्चि 'शुचिरुचिहुपिछदिछर्दिम्य इसिः।" गच्छति तमोऽत्रीदिते गौः । स्त्रीनोः । योतनं द्युतिः । द्योतते (वा) द्युतिः । प्रभाति प्रभा। रोचिः, अभीशुः, प्रद्योतः, रश्मिः, घृणिः, रूचिः विभा, धाम, वसुः, केतुः, प्रग्रहः, उपधृतिः, धृष्णिः, पृश्निः, मयूखः, विरोकः. शेकश्च । दीप्तिज्योतिर्महो घाम रश्मिरूजों विभावसुः ।। सप्त तेजसि । दीप्यते दीप्तिः। द्योतते ज्योतिः । 'ज्योतिरादयः'३ । ज्योतिर्महिरादयः । महति महः ५४ । सान्तम् । घीयते सूर्वेण न.न्तम् धामन् । रशिः सौत्रः । रशति प्रश्नुते रश्मिः । "ऊर्च बलप्राणनयोः । ऊर्जयतीति ऊर्जः। कः । [ "विभा वसुर्यस्य स विभावसुः । विभा । वसुः । ) शीतोष्णप्रायपूर्वाञ्चौ तदन्ताविन्दुभास्करौ ॥४६॥ तयोरन्तौ 'तवन्तौ । इन्दुभास्करी। इन्दुश्च भाकरश्न इन्दुभाकरी । कथंभूती ! शीतोष्ण १. न मैत्री हिनीतिस्मेति भूते विग्रहो बोध्यः । गत्यर्थत्वाकर्तरि नः । न हितमस्मादिति रामाश्रमः | २. का० उ० सू०६।२६। ३. का० उ०म० २१७ ४ "स् निवासे' वस् घातोः 'स्फाथि तची त्यादि उ० सूत्रेण रक्प्रत्ययः सम्प्रसारणं च | ५. का० उ०म० ५/४८ | अंशपति विभाजयति "अंश विभाउने" उप्रत्ययः व्युत्पत्त्यन्तरं च । ६. पुनक्तत्वात्परिहार्यः । ७. अभस्ति दीपयति । "भस भर्सनदीस्योः'। तिप्रत्ययः | पृषोदरादित्वात्लोडशादी वर्णविकारवदोकारस्याकारः । ८. शा. मू. २५२१७२। "पृषोदरादयः” इत्यत्र कारिकारूपेण पटितः । १ का. उ. सू० ६।१४। १२. का मू० ४।५।१५ ११ का उ. सू. ३।४३। १२. का० उ० सू. २।४४। १३. का. उ० सू० २१४५। ५१. महर्न महः । मद्यते पूज्यते वेति रामाश्रमः । १५ वस्तुतस्तु "विभा'' इति "सु" इति च नमः संज्ञा | समुदितो “विभावसु" शब्दस्तु सूर्याग्निवाची । तदुक्तं "सूर्यवहीं विभाघरम्” इति अम० को ३३॥२२६1 १६. ते दीधित्यादयः शब्दा अन्ते ययोस्तौ तदन्तौ इत्येन्त्रं समासो बोध्यः । तयोरन्ताविति समासस्तु लेखकप्रमादात्प्रयुक्तः । Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमरकीर्तिविरचितभाष्योपेदा ( प्राय ) पूर्वाञ्चौ। शीतोष्णौ (प्रायेण ) पूर्वाञ्चौ यथोरिन्टुभास्करयोः (तौ) शीतोष्ण (प्राय) पूर्वाञ्चौ। शीतदीधितिः । शीतदीधितिमान् । शीतभानुः। शीतभानुमान् । शीतांशुः । शीतांशुमान् । शीतगभस्तिः । शीतगभरितमान् । शीतकिरणः । शीतकिरणवान् । शीतपादः। शीतपादवान् । शोत रुचिः। शीतरुचिमान्। शीतमरीचिः । शीतमरीचिमान् । शीतार्चिः । शीतार्चिष्मान् । शीतभाः । ५ शीतभावान् । शीतगुः। शीतगोवा' (मा) न । शीतयुतिः । शीतयुतिमान् । शीतप्रभः । शीतप्रभावान् । शीतदीहिः । शीतदीसिमान् । शीतज्योतिः। शीतज्योति मान् । तिमहाः । शीतमहस्वान् । शीतधामा । शीतधामवान् । शीतरश्मिः । शीतरश्मिवान् । शीतोर्जः । शीतोवान् । शीतविभावसुः । शीतविभावसुमान् । किरण शब्दाना (ब्देभ्यः ) पूर्व शोतशब्दप्रयोगे चन्द्रनामानि भवन्ति । उष्णशब्दप्रयोगे सूर्यनामानि भवन्ति । उष्णादीधितिः । उष्णदीधितिमान् । उप्राभानुः । १० उगाभानुमान् । उष्णोस्रः । उणीसवान् । उष्णांशुः । उष्णशुमान् । उगमस्तिः । उष्णुगभस्तिमान। उषाकिरण। उष्णकिरणवान। उष्णपादः । उषा पादवान्। उष्णरुचिः । उष्णुरुचिमान् । उष्णामरीचिः । उष्णमरीचिमान् । उध्यभाः । उष्णभास्वान् । उष्णतेजाः। उष्ण नेजस्वान् । उष्णार्थिः । उष्णार्चिष्मान् । उणगुः । उष्णगोमान् । उष्ाद्युतिः । उष्णयुतिमान । उष्णप्रभः । उष्या प्रभाधान् । उष्णदीप्तिः । उष्णुदीप्तिमान | उMणज्योतिः । उष्णज्योतिष्मान् । उष्णमहाः। उप्णमाह॥ स्वान् । उष्णुधामा । उष्णधामवान् । उष्णरश्मिः । उष्णरश्मिवान् । उष्णोर्जः । उष्णोर्जवान् । उष्णविभाषसुः । उणविभावसुमान् । शशी विधुः सुधासतिः कौमुदीकुमुदप्रियः। कला चन्द्रमाश्चन्द्रः कान्तिमानोषघीश्वरः ॥ ४७ ॥ दश चन्द्र । शशोऽस्यास्तीति शशी । विदधाय नृतं घिधुः । “यो धाञश्च" | सुधा अमृतं २० सूयते सूधास्तिः । कुमुदानामियं विकाश (स) हेनुरवात्कौमुदी ( ज्योत्स्ना तस्याः प्रियः कौमुदीप्रियः)। कुमुदानां प्रियः अभीष्टः कुमुदप्रियः । कलां बिभर्तीति कलाभृत् । “मा मान" चन्द्रं मातीति चन्द्रमाः । "चन्द्र र मातेः" चन्द्र उपपदै अस्मादसन् प्रत्ययो भवति । अगुणवभावादकारलोपः । भिनयोगः स्वयार्थ एव । चन्दतीति चन्द्रः । "कायि तश्चिवञ्चिशकिदिपिक्षुदिरुदिमदिमन्दिदन्युन्दी न्दिभ्यो रक्" | कान्तिरस्यास्ति कान्तिमान् | श्रोषधीनामीश्वरः ओषधीश्वरः। इन्दुः, सोमः, राजा, २५ रोहिणीदल्लभः, अब्जः, क्षेशः, अत्रिनेत्रप्रसूतः ] तथा चोक्तं यशस्तिलके-' "आहु नेत्रोत्थमः चुतममृवनिये यं हरेनर्मबन्धु मित्रं पुष्यायुधस्य त्रिपुरविजयिनो मौलिभूषाविधानम् । वृत्तिक्षेत्रं सुराणां यदुकुलतिलक बान्धवं करवाणा, सम्प्रीतिं वस्तनोतु द्विजरजनियतिश्चन्द्रमाः सर्वकालम् ॥" १. "मादुपधायाश्च." इत्यादि वत्वविधायकं सूत्रम् । मवर्णाऽवर्णान्तान्मवर्णावोंपधाच्च मतोर्मकारस्य वकार शास्ति । अत्र तथात्वाभावात् “शीतगोमान्" इति वक्तव्यम् । वस्तुतस्तु शीतगोशब्दत्य कर्मधारये ततो “गोरतद्धितलुकि” इति टचो दुरित्वात् “शीतगववान्” इति सुवचन । सिद्धान्ततस्तु नेशस्थले मतुविष्टः । तदुक्तं "न कर्मधारयान्मत्वर्थीयो बबीहिश्यत्तदर्थप्रतिपत्तिकरः । २. का० उ० सूत ५।२। कुप्रत्ययः । ३. चन्द्र कपूर माति तुलयति साहश्येनेति प्रयोग विग्रहार्थः । चन्द्रमाह लाई मिमीते तुलयति सादृश्यनेति विग्रहान्तरमप्यूधम् । ४. का० उ. सू० ४५७/ ५. का० उ० सू०।१४। ६. आश्वा० ३।४७ श्लो०। Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाममाला प्रालेयांशुः, श्वेतरोचिः, शशाङ्कः, द्विजराजः, रजनिकरः, पीयूषरुचिः, निशीथिनीनाथः, जैबातृकः, मृगा, दाक्षायणीरमणः, मा' अप्युच्यते. सत्यभामेतिवत् । सुधामूर्तिः अमृतनिर्गमः, समुद्रनवनीतम् । देश्याम् । उडूनि भानि तारखं नक्षत्रम्चत्वारो नक्षत्रे । श्रवति प्रभाम् उड्डः । स्त्रीक्लीवे । तथा चामरसिंह ---- ____ “नक्षत्रमृक्षं भन्तारा तारकाऽप्युड़ या स्त्रियाम्।" भाति दीप्यते भम् । क्षीरस्वामिनि-""भा विद्यतेऽस्य भम् ।" तरन्त्यनया तारा' । तारपति वा। ऋणोति हिनस्ति तम् ऋक्षम् । नक्षति खे याति न तमः वि (क्ष) होति वा नक्षत्रम् । "अमि नक्षिकडिभ्योऽत्रः" । तारकं क्लीबेऽपि । यच्च" शाश्वतः-- "नक्षत्रे वाऽतिमध्ये च तारकं तारकाऽपि च । द्वियोम्नि पुराणौक्तिकधनच्छायः स्थित तारकै" तत्पतिः ( नक्षत्र पर्यायेभ्यः परं ) पतिशब्दप्रयोगे चन्द्रनामानि भवन्ति । उडुपतिः । तारापतिः।। ऋक्षपतिः । नक्षत्रपतिः । उडुराजः । उडुस्वामी । उडुनाथः । नदात्रेश्वर: । तारेन्द्रः । निशा। क्षणमा रजनी ना दो. त्याला शिक्षा ___सत रात्रौ । निशाति तनूकरीति चेष्टामिति निशा, निशो वा । 'आत चोपसमें" । क्षणमवसरं ददातीति क्षणदा । तमसा रक्षति रजनिः । स्त्रियामीः। रजनी। रजनशब्दाद् वा नदादिवादीः। नैनेक्ति नक्तम् । दुष्टं दूषयति याऽत्र दोषा । श्रादन्तोऽव्ययाऽनव्ययः । श्यायन्ते गच्छन्ति २० रात्रिचरा अत्र श्यामा । तथाऽनेकार्थ' (ध्वनि) मञ्जयाम् "श्यामा रात्रिस्तु विद्यामा श्यामा स्त्री मुग्धयौवना । श्यामा प्रियङ्गराख्याता श्यामा स्याद् वृद्धदारिका ||" क्षिप प्रेरणे । क्षिप् । क्षेपणं क्षिपा। "५२ऽनुबन्धभिदादिभ्यस्त्वङ् ।" चिप्यत स्वापेन जनै निर्गम्यते वा । तमी। तमा नादन्तोऽव्ययानव्ययः । तमिला । तमस्विनी । विभावरी । नतमुखा । शर्वरी त्रियामा । निशोथिनी। यामिनी। वसतिः । वासतेयो । रात्रिः । १, "लोपः पूर्वपदस्य च अप्रत्यये लथैवेष्टः" इति कात्यायनवार्तिकम् ।।३।८३. पा. सूत्रस्थं पूर्वपदलोपविधायकमत्र प्रमाणं बोध्यम् । २. "देशी" शब्दः प्रान्त भाषावाचकः। क्षीरस्वामिकृताम्मरभाष्येऽपि बहुत्र उपलभ्यते । साघुत्तमस्य पचादेराकतिगणस्त्रात् "देवी" इतिवद् बोध्यम् । वस्तुतस्त्वयं शब्दो देशिक एव । ३. भवति प्रभां रक्षतीति ऊः । "अव रक्षणे" विप् । “ज्वरत्वरे" त्यूट । डयते इति डुः। डयतेईप्रत्ययः । ऊश्वासी दुश्चेति कर्मधारयः । नक्षत्राणां रक्षणाईत्वादाकाशोत्पतन शीलत्वाच उडत्वमुपपत्रम् | "इको हृस्वः" इत्यूकारस्य दृस्व इति रीकाशमः । ४. अम० को० ११३२१॥ ५. क्षीर० भा० १।३।२२। ६. भिदादित्वादङ् । अहि परे गुणः । निपातनादीर्घः । ७. ऋषति गच्छति "ऋषी गती" तुदादिः । औणादिकः संप्रत्ययः किन् । प्रत्वकत्वक्षत्वानि । क्षमिति | ८. का० उ० सू० ३५। ९. "यच्च शाश्वतः” इत्यारभ्व "स्थित तारकैः' इत्यन्तः पाठः १।२२। क्षीरस्वामिभाध्यस्थोऽत्र गृहीतः । १०, का० सू. ४।५।८४॥ ११, ९६ श्लो० श्लोका । १२. का० सू० ४/५/८२ । Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमरकीर्तिविरचितभाष्योपेता करः ॥४८॥ (निशापर्यायात्परं) करशन्दे प्रयुज्यमाने चन्द्रनामानि भवन्ति । निशाकरः । क्षणदाकरः । रजनीकरः । नक्तङ्करः । दोषाकरः । श्यामाकरः । क्षपाकरः । तरणिस्तपनो भानुध्नः पूपार्यमा रविः । तिग्मः पतङ्गो द्युमणिर्मार्तण्डोऽकों ग्रहाधिपः ॥४६|| इनः सूर्यस्तमोध्वान्ततिमिरारिविरोचनः ।। सप्तदश सूर्ये । तर त्यनेनेति तरणिः । "ऋतु'सृञ धम्पश्यविवृतिग्रहिन्यो ऽभिः ।' तपति त्रिलोकी तपनः । भाति दीयते करे: भानुः। ॥२दाभारिवृभ्यो नुः" नुः प्रत्ययः । "बन्ध बन्धने" बनाति जन्तुष्टी धनः । “अन्धेन धिश्च" । अस्मान्न प्रत्ययो भवति अध्यादेशश्च । इकार उच्चारणार्थः । १० पुष पुष्टी । पुष्णाति वर्धते तेजसा पूषा : पूपादयः -- "पृषन्नर्यमन्नतवनप्लान्मातरिश्वनक्लेदनस्नेहन मूर्धन्यूषन्दोषन्" एते कन्यन्ता निपात्यन्ते । इयतीति अर्यमा । ' गसौ" । रूयते स्तृयते रविः । "इ: "सर्वधातुभ्यः" । तीतिक्षतीति तिग्मः । "युजिरुचितिजा मक्' । पतति नक्षत्रपणे पतङ्गः । “त“पतिभ्यामङ्गः" । प्राभ्यामङ्गः प्रत्ययो भवति । दिवो मणिरिव धुमणिः । मृतण्डस्थापत्यं मार्तण्डः । मुतण्डश्च । श्राकाशमियति अर्की । उणादौ "अचं पूजायाम् ।" अयंत अर्कः । “इभीकापाशल्य. १५ चिकृदाधाराभ्यः कः" एभ्यः कः प्रत्ययो भवति । प्रहाणामधिपः स्वामी ग्रहाधिपः। एतीति इनः । इजिकृषिभ्यो नम्" । सुवति (प्रेरयति कर्मणि) लोकान् सूर्यः । “सूर्यरच्याव्यथ्याः फरि। सूर्य इति यत्ययान्ती निपातः । तमश्च वान्तं च तिमिरच तमोध्यान्ततिमिराः,तेपामरिः,- तमो-रिः, ध्वान्तारिः तिमिरारिः । विरोचते इत्येवंशीलो विरोचनः । ११ रुचादैश्च यजनादः" । रुचा. देर्गणाद् व्यञ्जनादेर्यः भवति । आदित्यः, सविता, सहसकिरणः, प्रयोतनः, भास्करः, तिग्मांशुः, दिनमणिः, २० भास्वान् , विवस्वान् . हरिः, विकर्तनः, भगः, गोपतिः, दिनकरः, सूरः शूरच, अंशुमाली, मिहिरः, तिमिर रिपुः, अंशुमान् , अंशुः, हरिदश्वः, सताश्वः, प्रभाकरः, भानुमान् , हंसः, खगः, मित्रः, चित्रभानु ग्रहपतिः, कर्मसाक्षी, जगचक्षुः, द्वादशात्मा, त्रयीतनुः ।। दिनं दिवाऽहर्दिवसो वासर:-- पञ्च दिवसे | "दोऽवखण्डने' यति खण्डयति अन्धकारमिति दिनम् । “दोनात', ह (यतेरि) " ते प्रत्ययो भवत्याकारश्येच । रविदर्दी [र्घान दी] प्यतेऽत्र; अादन्तमव्ययम् दिवा । अदन्तं क्लीयम् । देिवं विदन् । न जहाति काल (रवि)महः । “मत्रि१ जहातेः" इति चिप् (कनिः)। दीव्यतीति दिवसः १४ दिवसम् । '१" वेतसवाइसदिवसफनसाः' एतेऽस्प्रत्ययान्ता निपात्यन्ते । वासयत्यत्र वासरः ६ । वासोऽपि । उभयम् । “देवि विटिजठिनमिवासिभ्योऽर: ', एभ्योऽर् प्रत्ययो भवति । गुः । घनः । १. का० उ. सू० २।४.३ । २. का० उ० सू० २।७। ३. का. उ० सू० २।५२॥ दुर्गवृत्तिश्च । ४. का० उ० सू० २१५ । ५. का. उ० सू० ३।१४) ६. का. उ० सू१।५७) ७. का. उ- सू ० ५।२२। ८. का० उ० सू.०२५७] १. का० उ० सू० २।५१८ १२. का सू० ४।२।३०३ ११. का. सू. ४४.३१॥ १२. का० उ० सू० ६।३७० १३. का० उ०पू० २।४। १४. दीव्यन्ति कीडन्ति प्राणिनोऽत्र दिवस इत्यपि । १५. का.उ.सू. ३११ । १६. "वास उपसेवायाम” यास्यति सूर्यालोकं प्राणिनं वा वासरः । विग्रह "अत्र" इति पदमधिकम् । १७. नैतरसूत्रम् का उणादो लब्धम् । तत्र 'कृवाभ्यः सरका' ३३६२। इति सूत्रम् । वातीति वासरः,बाधातोः सरक् प्रत्यय इत्युक्तम् । तत्रैव चतुर्थपाद ३३ तमपरमपि सूत्रम् "पद्यसिवशियासिभ्यः सर:'" इति वासिधातोः सरप्रत्यय उक्तः । वासयतीति वासरः । कौमुदीस्थमुणादिसूत्रम् "अर्तिकमिर्मिभ्र. भिदिविवासिभ्यश्चित्" ३१२७॥ इति वासिधातोररप्रत्ययः । Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाममाला ५ तत्करश्च सः ।। ५० ।। दिनकरः, दिवाकरः, अहस्करः, दिवसकरः, वासरकरः, इत्यादि सूर्यनामानि भवन्ति । चक्रवाकाब्जपर्यायबन्धुःचक्रवाकश्च अजं च चक्रवाकाजे, तयोश्चक्रवाकाब्जयोः (परत्र) अन्धु शब्दप्रयोगे सूर्य. नामानि भवन्ति । चक्रवाकबन्धुः । अब्जबन्धुः । पद्मनन्धुः । कमलबन्धुः । इत्यादीनि ज्ञातव्यानि । कुमुदर्विप्रियः । कुमुदाना(परत्र) विभियशब्द प्रयुज्यमाने सूर्यनामानि भवन्ति । कुमुदविप्रियः । कैरवविप्रियः । कुमुदविवल्लभा । इत्यादि । यमुनायमकानीनजनकः सविता मतः ।। ५१ ॥ यमुनाजनकः । यमजनकः । 'कानीनजनकः । सविता । मतः कथितः । बाहोऽश्वस्तुरगो चाजी यो धुर्यस्तुरङ्गमः । सप्तिरवों हरी रथ्य:एकादशाश्वे । वाह्यते गम्यतेऽश्वयार्षािहः । तथाऽनेकार्थ २ (ध्वनि ) मञ्जम "वाहो युग्यं धमो वाहो वाहके वाह इत्यपि । वाहो मानविशेषश्च बाहो बाहुरिति स्मृतः ।।" "अशू ज्याप्तौ ।। अश् । अश्नुते व्याप्नोति धेगेनरभीत्रस्थानमित्यश्वः । अथवा अश, भोजने" अनाति भत्यति मुगादीनित्यश्वः। 3 अशिलटिखटिविशिभ्यः कः । वमानः | "धोरवयोश्चर कृति" नेट् । "उरो ( रसा ) गच्छतोति उरगः | "डोऽ संझायामपि" | पूर्वमश्वानां वाजा अभुवन्निति श्रुतिः । वाजाः सन्त्यस्य वजतीत्येवंशीलो वा चाजी । इदन्तोऽपि, वाजिः । तथा हेमनाममालागान् - "वाज वाजन्तु पक्षेऽपि मुनी निःस्वनवेगयोः। हिनोति गच्छत्ति वर्धते (वा) अनेन हयः। धुरि समामे साबुधुयः । यदुग्रवादिताः" । तुरं (रण) गच्छति तु (तो) तोति त्वरते घा तुरङ्गमः । 'गमश्च ५" नाम्बुपपदे गमेश्च संज्ञायां खो भवति "धानादे:११ ष सः" । सपत्यध्वानं गच्छतीति सप्तिः । “११ सपेस्तिततितनः" सपेर्धातास्ति तति तन् एते प्रत्यया भवन्ति । अति गच्छति अनेन नान्तः, ४ अर्वन् । हरत्यनेन हरिः । रथे साधू रथ्यः॥ गन्धर्वः, तायः, ययुः, घोटकः, अर्दनिः ६, वौतिः, पीतिः । २५ १. कानीनः कर्णः | कन्याऽवस्थायां कुन्त्याः कांदुत्पन्न प्रति पौराणिकी कथा नुसन्धेया । २. ११ श्लोइलोका० १३.काउ०पू० २।१४. का.सू. ४।६।८७।५. भ्रान्तोऽयं पाठः । उचितस्तु तुरेण वेगेन गच्छतीति तुरगः । ६. का सू० ४।३।४७१७. अने०स० २१७८॥ ८. धुरं बहतीति धुर्वः । 'धुरी यड्दको" इत्यन्यत्र । ९. का सू०२।६।१११ १०.तुरपूर्वकाद्गमेः “गमश्च" इति खे तुरङ्गमः । तोतीति त्वरते वेति विग्रहे ससिद्धिप्रकारोऽन्यथा कल्पनीयः । ११. का सू० ४।३।४५। १२. का सू० ३।८।२४॥ १३. का. उ. सू. ५।३८। .४, "श्रवं गतौ" बाहुलकात्कनिन् । १५. "रथं वहतीति सुवचः । "तद् वहति रथयुगप्रासङ्गम्' इति यत् । १६. अनिशब्दस्याश्वार्थे प्रमाणं मृग्यम् | कोशान्तरेऽदनिशब्दार्थ श्वेत्यम्-"अर्दनी त्रार्दनिरपि स्त्रियः स्युः प्रार्थनाऽर्थना' कल्पर को० १।९।२१। अर्षतीशब्दोऽश्विनीपर्यायस्तु सर्वसम्मतः । “वीति' "पीति" शब्दयोरश्वार्थे प्रमाणमधस्तात् धीतिः सनिधिकाया वातस्कन्धार्थ इत्यपि" कल्प० को० ११५/ १९३। “पीतिः पाने सपूर्षों तु सहपाने हवे पुगान्" विश्व० । Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૮ अमरकीतिविरचितभाष्योपेता सप्ताद्यश्वो मयूखचान् ।। ५२ ॥ अश्वशब्दस्य (धात् ) पूर्व यदि सप्तादि ( स शब्दः ) तदा सूर्यनामानि भवन्ति | सप्तवाहः । सप्ताश्वः 1 सप्ततुरगः । सप्तवाजी । सप्तयः । सप्तधुर्यः । सप्ततुरङ्गमः । सससतिः | सप्तावां । सप्तहरिः । सतरघ्यः । खं विहायो वियद् व्योम गगनाकाशमम्बरम् । द्यौर्नभोऽम्रोऽन्तरीक्षं चएकादश गगने । खनति शून्यत्वेन खन्यते वा 'खम् । विबहाति सर्वं विहाय । प्रवाय विहायसा पक्षिणा मार्ग विहं यच्छतीति वियत् । ( अथवा बीना पक्षिा मार्ग यच्छति वियत् )। अमरेन्द्रभाष्ये "षियच्छति विरमति वियत् ।" वायुना वीयते (व्यवति व्यव्यते था) व्योमन् । "सियदि मविवरि१० वरामुपधायाः'' एषामुपधाया वकारस्य चोट भवति । 'सर्वधातुभ्यो मन्" (इति विपूर्वकादवेर्मन्) । गम्यते सर्वमनेन गगनम् । क्लीवे धा । गच्छत्यनेन गगनं वा । आकाशन्ते सूर्यादयोऽत्राकाशम् । न काशते वा छान्दस्रो दीर्घः । अम्बते शब्दायते अम्बरम् । दयन्ति पक्षिणोड चौः । स्याम् । नाति बध्नाति सर्वमात्मना सान्तम् नमः | नभम् इत्यदन्तम् नभसं च । न भाजतेऽभ्रम् | अन्तः ऋक्षाण्यत्र अन्तरीक्षम् । पृषोदरादित्वम् । द्यावाभूम्योरन्तरीक्ष्यते वा अन्तरिक्षम, अन्तरीक्षं च | मरुवर्मन् | तारापथः । पुष्करम् । १५ विष्णुपदम् । त्रिदिवम् । नाकम् । अनन्तम् । सुरवल्म । महाब (वि) लम् । देश्यान् । मेघवायुपथोऽप्यथ ॥ ५३ ॥ मेघशब्दाने वायुशब्दाने च पथशब्दे प्रयुज्यमाने श्राकाशनामानि भवन्ति । मेघपयः । मेघमार्गः। धनपथः। वनमार्गः । पर्जन्यपथः । पर्जन्यमार्गः । मिहिरपथः । मिहिरमार्गः । नम्राटपथः । नभ्रामार्गः । तडित्पतिपथः । तडिस्पतिमार्गः। सौदामिनीपतिपथः। सौदामिनीपतिमार्गः । वायुपथः । वायुमार्गः। २० वातपथः । वातमार्गः। अनिलपथः। अनिलमार्गः । मरुत्पथः । मरुन्मार्गः । समीरणपथः । समीरणमार्गः । गन्ववाहपथः । गन्धवादमार्गः । श्वसनपथः । श्वसनमार्गः | सदागतिपथः । सदागतिमार्गः | तचरः खेचरःतत्र श्राकाशे चरतीति तच्चरः। आकाशाने चरशब्द प्रयुज्यमाने विद्याधरनामानि भवन्ति । खचर: 1 विहायश्चरः । वियश्चर: 1 व्योमचरः। नभश्वरः | गगनचर। अम्बरचरः । आकाशचरः | अन्तरिक्ष२५ चरः । मेघश्यचरः । मेघमार्गचरः । वायुपथचरः । वायुमार्गचरः । धनपथचरः। धनमार्गचरः । धनाधन पथचर: 1 घनाघनमार्गचरः । जीमूतपथचरः । जीमूतमार्गचरः । अभ्रपथचरः । अभ्रमार्गचरः | चलाइफपथचरः । ग्लाइकमार्गचरः । पर्जन्यपथचरः । पर्जन्यमार्गचरः । इत्यादिनामानि विद्याधरस्य ज्ञेयानि | तद्गः , तत्र गगने गच्छतीति तद्गः । गगनाध्ये “ग' शब्दे प्रयुज्यमाने शकुन्तनामानि भवन्ति । ३० खगः | विहायोगः । वियद्गः। व्योमगः । नभोगः | गगनमः । यंगः । श्राफाशगः | अन्तरिक्षणः । १. "स्खनु अघदारणे" डप्रत्ययः । "खर्व गतौ" खर्वत्यस्मिन्निति वा विग्रहः । अत्रापि हः । २. उक्तविग्रह "श्रोहाक् त्यागे” हाधातोः “वहिहाधा पश्छन्दमि" ४१२२] इत्यसुन् णित्वं च । गित्वाद्युक् । विशेषेण हाययति गमयति विमानादीन् इत्यपि बोध्यम् । "हय गतौ"प्यन्तादसुन् । ३. क्षीर०भा० ११२।२। ४. का. सू० ४|११५७। ५. का० उ० सू० ४।२८१ ६. "गमेगंभू" इति युच गश्वान्तादेशः । ७. महाविल. शब्दस्याकाशवाचकत्वेऽमरकोषमधस्ताल्पमाणम् --"तारापथोऽन्तरीक्ष च मेघावा च महाविलम्" १२।२। क्षेपक। Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाममाला मेघपथगः । मेघमार्गगः । इत्यादिनि शातम्यानि । पक्षी पत्री पतत्र्यपि । शकुन्तिः शकुनिर्षिश्च पतको विष्किरोऽन्यथा ॥५४|| सप्त पतङ्क । पक्षाः सन्त्यस्य पनी । पत्राणि सन्स्यस्य पत्री । नान्तः । पततीति पत्रिः । त्रिप्रत्यये इदन्तः । पतत्राणि सन्त्यत्य पतत्री । नान्तः । पततीति पते परतोऽत्रिप्रत्यये इदन्तो वा पतत्रिः । हलायुध. ५ भाष्यकारेण डालणिकेन-पत्रिशब्दः पत्रिन नकारान्तः पत्रिरिकारान्तश्च व्याख्यातः । अमरसिंह-1 नाममालायाम् - "पतत्रिपत्रिपतगपतपत्ररथाण्डजाः। नगोकोवाजिविकिरविविष्फरपतत्रयः ।।" इकारान्तः पत्रिशब्दः पठितोऽस्ति । भाष्यका क्षीरस्वामिना पतनिरिकारान्तो निषिद्धः । १० "पतेरनिरिति" भान्सा पतत्रि ग्रन्थ दिदन्तं मन्यते । एवं कथितमस्ति श्रीमदमरकीर्तिना दूयोर्वचनं । प्रमाणम् । शब्दानों वैचित्र्यं वर्तते । नभसा गन्तु शक्नोति शकुन्तः । शकुन्तिः । एवं शकुनिः । एवं माकुनी । शकुन्तः । शकुन: । द्वौ अदन्ती । घयतीति विः । “वैनो डि'" । पतेन वेगेन गनछतीति पतङ्गः । विकिरति पत्राणि विष्किरः । वर्णागमो गवेन्द्रादौ सिंहे वर्णविपर्ययः । षोडशादौ विकारस्तु वर्णमाश: धूषोदरे ।। सुद्धागमः । विकिरश्च । जाङ्गलं पिशितं मांसं पलं पेशी च पञ्च मांसे । गल्यते अद्यते जाङ्गले जङ्गलं च । पिश्यते रुधिरादिभिः पूर्यते पिशितम् । मन्यते सम्भाव्यते शरीरोपचयोऽनेनेति मांसम् । “वृतृ बदिनिमनिकस्यशिकपिम्यः सः" । एभ्यः सः प्रत्ययो २० भवति । पलयते ( पालयते ) देहं पलम्। रुधिरादिभिः पिश्यते (पिंशति) शरीरम् पेशी । आमिपम् । रुच्यम् । तरसम् । तप्रियः। वस्य मांसस्य प्रियः । आभिपशब्दाने प्रियशब्दे प्रयुज्यमाने राक्षसनामानि भवन्ति । जाङ्गलप्रियः । पिशितप्रियः । मांसप्रियः । पलप्रियः । पेशीत्रियः । यातुधानस्तथा रक्षो'ही यातुधाने | यातूमि यातना धीयन्ते ऽस्मिन् यातुधानः । रक्षतीति रक्षः' । राक्षसः | कौणपः । झज्यादः । नैऋतः । नैकसेयः । नैकपेयश्च । विपुसेऽपि ( कर्नुरः । असपः ) । कीनाशो नानार्थे । राब्यादिचर इष्यते ॥ ५५ ॥ १. अम० को० २।५।३४। २. क्षीर० भा० २।५।३४ | ३. का. उ. सू. ४|| रामाश्रमस्तु . वातीति विः । “वाते ढिच्च" इत्याह । ४. पतेन बेगेन गच्छतीति विग्रहे तन्साधु-वं कल्पनीयम् । तादृशसूत्राs. नुपलम्भात् । पतायुष्यते इति पतङ्गः । "नुपतिभ्यामङ्गः” का. उ. सू. ५१२२॥ इत्यङ्गप्रत्ययस्तु युक्तः । 'तृपतिभ्यामङ्ग"इत्यङ्गप्रत्ययः । ५. "पृषोदरादयः” २।२।१७२। शा० कारिका । ६. "पिश अवयवे" पिंशति पिश्यते स्म वा पिशितम् । "पिशेः किच" उ०सू. ३६५। इतीतन् । अथवा क्तः। इति रामाश्रमः । ७. का० उ०पू०४।५३ । ८. रक्षन्त्यस्मादिति रक्षः । "सर्वधातुभ्योऽसुन्" | "भीमादयोऽपादाने इत्यन्यत्र । Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमरकीर्तिविरचितभाष्योपेता रात्रिशब्दारे चरशब्द प्रयुज्यमानै राक्षसनामानि भवन्ति | रात्रिचरः | निशाचरः। क्षणदाचरः । रजनीचरः | नक्तवरः । दोषाचरः । इत्यादीनि शावव्यानि | प्रारभ्यते स्वर्गवर्गः सुतोऽदितेस्अदितिशब्दाने सुतशब्द प्रयुज्यमाने दैत्य ( देव ) नामानि भवन्ति । अदितिसुतः । अदिति. तनयः । अदितिपोतः । अदितिदारकः । अदितिमन्दनः । अदित्यर्भकः । अदितिस्तनन्धयः । अदित्युत्तानशयः । तडिद्धन्वा सेन्द्रो देवः सुरोऽमरः । पश्च देव । सह इन्द्रेण वर्तते हाते सद्रः। दिबु क्री."-- दिव् । दीव्यन्ति क्रीडन्ति स्वर्गेऽ २० सरोभिः सह विलसन्ति देवाः । अचा सिद्धम् । अथवा दीव्यति क्रीडति परमानन्दपदे देवः । सुन्नु राजते सुरः । तथा सुरन्ति सुराः ।“सुर ऐश्वर्य"सुरा एषामस्तीति वा । "अर्शसादिभ्योऽ""। यतोऽधिजा सुरा तैः पीता 1 न म्रियते अमरः । आदित्याः । त्रिदशाः · सुमनसः । स्वर्गीकसः । देवताः । गीर्वाणाः । ऋभवः | मरुतः । वृन्दारकाः । निर्जराः । अस्वप्नाः। विबुधाः । त्रिविष्पसदः । लेखाः । सुपर्वाणः । अमृताशनाः । अनिमिषाः । दैवतम् ।। स्वद्याः स्वर्गोऽथ नाकश्च, चत्वारः स्वर्गे | मुदितो जाः स्वरति शब्दं करोत्यत्र रान्तमव्ययम् । स्यर् । “दिबु क्रीडादिर" | दीव्यन्ति कीडन्ति अत्र पुण्यवन्तः इति द्यौः । “दिवहिविः' प्रत्ययो भवति । असौ सुष्ठ अयंते स्वर्गः । "तु' भृभ्यां गः' गप्रत्ययः । नास्त्यकं दुःखमत्र नाकः । उभयम् । तद्वासस्त्रिदशो मतः ।। ५६ ॥ सस्व स्वर्गस्य वासः,तदू वासः-स्वर्गवाः । योवासः,स्वर्गवासः,इत्यादीनि देवनामानि भवन्ति । तत्पतिः तस्य देवस्य ( स्वर्गस्य च) पतिः, तत्पतिः । देवपतिः, सेन्द्रपतिः, स्वर्गपासपतिः, स्वर्गपतिः, नाकपतिः, नाकेन्द्रः, इत्यादिपर्यायनामानि इन्द्रस्य ज्ञेयानि । ___ शक्र इन्द्रश्च शुनासीरः शतक्रतुः। प्राचीनबर्हिः सुत्रामा वत्री चाखण्डलो हरिः ॥ ५७ ॥ शत्रुर्बलस्य गोत्रस्य पाकस्य नमुघेरपि । वृत्रहा च सहस्राक्षो गीर्वाणेशः पुरन्दरः ॥ ५८ ॥ विडोजाश्चाप्सरोनाथो वासवो हरिवाहनः । मरुतश्च मरुत्वाँश्च वृपा चैरावणाधिपः ॥ ५६ ।।. शतमन्युस्तुरापाट् च पुरुहूतश्च कौशिकः । संक्रन्दनोऽथ मयवान् पुलोमारिर्मरुत्सखः ॥ ६ ॥ त्रयस्त्रिंशदिन्ने । पातुं शक्नोतीति शकः | "स्फायितश्चिवञ्चिशकिक्षिपिक्षुदिरुदिमदिचन्द्यु __... ----- - --- -- --. - १. "अर्श श्रादेरः" जै० स० १११।५०। २. का. 3. सू० ६।५३॥ ३. का. उ. सू० ५।६० | ४. तस्मिन् स्वर्गे वसतीति तद्बासः । णप्रत्ययः । स्वर्गर्यायार्थात् परत्र वासशब्दे प्रवुन्यमाने त्रिदशनामानि भवन्तीत्यर्थः । ५. का० उ० सू० २११४) Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाममाला दीन्दिन्यो रक"। इन्दति परमैश्वयुक्ती भवति इन्द्रः । रक् । शुम श्रादित्यः शीरो वायुस्तयारपन्यमको यभेदावा दीर्ष शुनाशीरः । तालबद्वयम् । शोभनं नासीर कटक वा यस्य स सुनासीरः । द्वौ दन्त्यो। शु अव्ययं तालव्यमपि । अत्र पक्षे प्रथमस्तालव्यो द्वितीयो बन्यो भवति । तथा च शोभना नासीरा अग्रेसरा अस्य, शुनासोरः | शुः पूजयाम्, श्वशुरवत् । शुनातीरयोरपायमित्येके । शर्त ऋतवी यशा यस्य शतक्रतुः । प्राचीना प्राचीनमुखा बहिषी दर्भा यस्य सः । सुन त्रायते नान्तः नावामा । वहं विहान ५ यस्य स वजी। श्राखण्डयति भिनत्त्थरीनाखण्डलः 1 हियते शचीकबाहरिः । __ "शत्रुर्बलस्य गोत्रस्य पाकस्य नमुचेरपि"बलशगोत्रशत्रुः पाकशत्रुर्नमुचिशत्रुः, इत्यादीनि इन्द्रनामानि भवन्ति । वृत्रं दानवं यज्ञं वा हलवान् वृत्रहा। किम् । “(किब्)ब्रह्मभूगगकृत्रेषु विप सहस्रमनीणि यस्य स सहस्राक्षः । गोर्वाणानां देवाना मीश: (गीर्वाणेशः) । विट्सु प्रजासु औजो यस्य धोदरादित्याद वृद्धिः । विड भेट्ने वा । विडं भेदकमोजी यस्य वा विडोजाः)। श्रीसरसा माथोऽप्सरोनाथः । वस्वपत्यं वासवः । हरिनि यस्य हरिचाहनः । ' पुण्यक्षये म्रियते च्यवते मरुत् । तान्तम् । मस्तो देवाः सन्त्यस्य मरुत्यान्" । वर्षति, नान्तम,नषा । ऐगव. गणानामधिपः (ऐरावणाधिपः) । शतं मन्यवः ऋतवोऽस्य शतमन्युः । "पह मर्पणे" ।। पद । 'धात्वादेः घः सः" । सइते कश्चित्तमपरः प्रयुक्त "घातोश्च हतौ" इञ् । अस्याप० दीर्घः । साहि जाते । तुरपूर्वकः । तुरं त्वरितं साहयत्यभिभवत्यरीनिति तुराबाट । “सहश्छन्दसि८' विण | "का रितस्या० कारितलोपः । लॉप' " | "नहिवृतिवृषिष्यधिचिसहितनिघु को शिवन्ते प्राधकारपणा दीर्घः । तुरा बातम् । नरासाह, २५ निष्यन्नः । सि: । "पञ्जनान्ताच '९"सिलोपः । “हशरच्छान्तेजादोनांड:" हस्य दः । "संह: साहः षः।" सस्य पत्वम् । रपरवाल्परपदेऽपि सस्य प्रत्वम् । स्त्रमते अपिशबलात् । अथवा तुरं वेगं सहते तुरापाट । "सह "श्छन्दसि'' विए पूर्ववत् । पुरु प्रभूत हुतं यचे यशेम्वा ( से आ) हानं यस्य पुरुहूतः । वातमात्रोsदित्या कुशैराच्छादितत्वात् (कौशिकः) । तथा पुराणम् १६ "जातमात्रोऽथ भगवानदित्या स फुशंवृतः । तदा प्रभृति देवेशः कौशिकत्वमुपागतः ।। कुशैदनेश्वरति वा । परिस्त्रीः सङ्कन्दयति सङ्क्रन्दनः । मध्यते पूज्यते नान्तो मघवा । “मधे "लुगवन्तश्च' मनेः कनिः प्रत्ययो भवति. नलुगवन्तश्च | पुलोमस्या (ग्नो-) रि: पुलोमारिः । मस्ता पवनानां सखा मित्रः (S) मरुत्सवः । दुश्च्यवनः । बुत्रारिः । अलसूदनः । वृद्धश्रवाः | जिगुः । बवश्वरः । बास्तोष्पतिः । गोपतिः । पर्जन्यः । हरिहयः । पूर्वदिकपतिः । स्वराट् । गोत्रभिद। अग्रधन्वा । हरिमान् । पाकशासनः । दिवस्यतिः । १. शु पूजायाम् अश्नुते व्याप्नोति "श्वशुरः" इति व्युत्पत्या "श्वशुर' शब्दो निष्पन्नः । तद्द्व च्युनासीरशब्देऽपि शु शब्दः पूजार्थ इत्याशयः । २. का. सू.० ४।३।८३। ३. पैवेष्टि व्याप्नोति विट् । “विलव्यातो' विप् । विद् व्यापकमोजो यस्य स विडोजाः । पृयोदरादिवादोकारस्योकारः। इत्यप्यूह्यम् । ४. त्वक्तेशवालरोमाणि सुवर्णाभानि यस्य तु । हरिः स वर्णतोऽश्वस्तु पीतकोशेयसप्रभः । इति शालिहोत्रोक्तभकारो श्वो हरिः । ५. मस्ती देवाः शास्यत्वेन सन्त्यस्येति यावत् । ६. का० - ३।८।२४। ७. का. सू. ३।२।१०। ८. का० सू० ४१३।६०१ ९. का० सू० ३।६।४४॥ १०, “वैरपृक्तस्य' पा० सू.. ६।१।६७ । ११. पा० सू० ६।३।११६१ १२. का० सू० २।१४९। १३. का. सू० २।३।४६॥ १४. रा सू० ८।३।५६। १५. का. सू० ४।३।६०। १६. श्लोकोऽयम् अभि. चि० २१८७१ टीकावामध्येवमेवोपलभ्यते । १७. का. उ. सू. ५४ । Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ अमरकीर्तिविरचितभाध्योपेता काष्ठा ककुछ दिगाशा च दक्षकन्या तथा हरिन । पडू दिशायाम् । काशन्ते राजन्ते (नक्षत्रादयोऽन) काष्ठा । के स्कुम्नाति विस्तारयति ककुप' । भान्तम् । दिशत्यवकाशं दिक् । “३ऋत्विग्दधक सगदिगुष्णुिहश्श' इति साधुः । श्राश्नुते आशा । दक्ष प्रजापतिः, तस्य कन्या, दक्षकन्या । हरत्यनया हरित्' । । तत्पर्याययरं योज्यं प्राज्ञः पालगजाम्बरम् ।। ६१॥ काष्ठादिनामतः परं योज्यं प्राः विद्व द्भिः पालगनाम्बरम् । काष्ठापालः | कुप्पालः । दिकपालः । श्राशापालः । दक्षकन्यागालः । इरित्पालः । पालप्रयोगे दिमाजनामानि भवन्ति । काष्ठागजः । ककुद्गजः । दिगाजः । प्राशाजः । दया गर । इन। अरमान्दयोगे दिगम्बर - नामानि भवन्ति । काष्ठाऽम्बर: । ककुचबरः । दिगम्बर: । आशाऽम्बरः । दक्षकन्याम्बरः । हरिदम्बरः | १० तथा च-.. "गिरिकन्दरदुर्गेषु ये वसन्ति दिगम्बराः। पाणिपात्रपुटाहारास्ते यान्तु परमा गतिम् ।।" एवंविधा मुनयो भव्यानां शरणं भवन्तु जन्मनि जन्मनि । पवनः पवमानश्च वायुतोऽनिलो मरुत् । समीरणो गन्धवाहः श्वसनश्च सदागतिः ॥ ६२ ।। नभस्वान् मातरिश्वा च चरण्युर्जवनस्तथा । प्रभञ्जन:-- पञ्चदश पायी । पवते जगत् पवित्रीकरोति पवनः। बुच् । 'पूङ् पवने ।" पू । पवते पवमानः । यजोः शान" श्रानमात्रः। अन्वि०६ अनिच०७ नाम्यन्तगुणः । "श्रो अव ।" मान्मो ऽन्त २० श्राने" मोऽन्त; । वातीति घायुः । ११ क्वापाजी" ति उप । वाति सर्वत्राऽस्खलितं वा वायुः । वाति अस्खलितं याति, वातः । मृगवाहत्पमिदमिलूपूभ्यस्तः । अनेन जगत् अनिति प्राणिति. न निलति वा अनिलः । “निल गहने" । क्षुद्रजन्तवो म्रियन्ते स्पर्शेनास्य मरुत् । तान्तन् । ५२मृग्रोरुतिः" उतिप्रत्ययः । समन्तादौरयति समीरणः । गन्धं वहति गन्धवहः । गन्धयाहः । गन्धवाही । श्वसन्त्यनेन श्वसनः । सदा सर्वकालं गतिर्यस्य स सदागतिः । नभ श्राकाशमस्यास्तीति नभस्वान् । मातरि २५ रेतः श्ययति बर्द्धते नास्ती मातरिश्वन् । मातरिश्वेव भवति मातरिश्वा । चराचरं याति चरे १. "काश दीप्तौ" "इनिशि' इत्यादि रारा पा सूत्रण क्थन् । २. कं वातं स्कुम्नाति विस्तारयति । क्रिप् । पृषोदरादित्वात्सलोपः । केनादित्येन जलेन वा कुत्सितानि भानि नक्षत्राणि यस्यामिति “ककुभा' इत्यामन्तोऽपीति केचित् । ३, कास०४।३।७३। ४. हरन्ति नयन्ति अनया हरित् दिग्ज्ञानेनैव कञ्चित् कुतश्चित् कुत्रचिन्नयति । "दसरुहियुनिभ्य इतिः" इतीतिः । ५. का०सू० ४।४।८। ६. "अन्त्रिकरणः कतरि" इति पूर्ण सूत्रम् । कास ॥२॥३२॥ इत्यन्विकरणः । ७. "अनि च विकरणे" का सू० ३३५॥३। ८. का सू० १।२।१४॥ १. का० सू० ४।४७] १०. का. उसू० १३१३ ११. का उ० सू० ४।२३। १२. का उ०स० १।३०। १३. मातरि जनन्या रेतः प्रसिक्तं वथा वर्धते, तथाऽन्तरीक्ष वर्धमानो वायुः ‘मातरिश्वा" इत्याशयः । तीरस्वामी तु--"मातरि से श्वयति' इत्याह । समाश्रमस्तु-- 'मातरि जमन्यां श्वपति वर्धते समसप्तकरूपत्वात्" इत्याह । मापनसरवाया दितेर्निद्रा पुवस्थायां तत्कुक्षिपविष्ट नेन्द्रेण कुलिशद्वारा तद्गर्भस्यैवोनपञ्चाशच्छकलीकरणस्य पुराणप्रसिद्धत्वात्सप्तसप्तकत्वमुचपन्नम् | " श्रोश्वि गतिवृदयीः ।" शिषधातोः "श्वन्नुवन्नि" ति कनिन्नन्तो निपातः सप्तम्या अलुक् च । Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाममाला "रण्यः । "केवमुभुरण्य्वश्वर्वादयः" केववादयः शब्दा बुप्रत्ययान्ता निपात्यन्ते । तथा च द्विसन्धानकाव्ये -. "असूययाऽगम्य निशाम्य यो पुरो विळज्जयाऽम्भापरिणामिनीदशाम । गता इवाभान्ति कुलादिपेशला चरण्युलोलाः परिखाऽम्बुचीचयः ॥" "जु" इति सौत्री घातुर्गतौ । सौत्रा धातवोऽपि स्वादौ पठूयन्ते । अवतीति जवनः । 'जुचाक्रम्यदन्द्रम्यस्यधिज्वलशुचपतपदाम" एभ्यो युर्भवति । सर्वां दिशाः प्रभनक्ति प्रमानः । जगत्प्राणः । पृषदश्व: । स्पर्शनः । समीरः । हारे: । महाबलः । श्राशुगः । अस्य पर्यायपुत्रौ भीमाजनात्मजौ ॥६३॥ अस्य पर्यावात् प्रभञ्जनादिशब्दात्यरत्र पुत्रशब्दो दीयते तदा भीमहनुमती मानि भवन्ति । १० पवनपुत्रः । पवनतनयः । पवमानतनयः । वायुपुत्रः । वायुतनयः । वातपुत्रः । वाततनयः | अनिलपुरः । अनिलतनयः । समीरणपुत्रः | समीरणतनवः | गन्धवाहपुत्रः । गन्धवाहतनयः । श्वसनपुत्रः । श्वसनतनयः । सदागतिपुत्रः । सदागतितनयः । नभस्वत्पुत्रः । नभस्वतनयः । मातरिश्वपुत्रः । मातरिश्वतनयः । चरण्युपुत्रः । चरण्युतनयः । जवनपुत्रः । जवनतनयः । चलपुत्रः । चलतनयः 1 प्रभञ्जनपुत्रः । प्रभजनतनयः । भीमन्य हनुमतश्च नामानि ज्ञातव्यानि । तत्सखाऽग्निः, तस्थ बायोः सखा, तत्सखः । वाशब्दाने सखशब्दे प्रयुज्यमाने अग्निनामानि भवन्ति । पवनसखः । वायुसखः । अनिलसखः । वातसखः । ममत्सखः । गन्धवाहसखः । समीरणसखः । श्वसनसन्तः । सदागतिसखः । नभस्वत्सख: । मातरिश्वसखः । चरण्युसाखः । जवनसखः । बलसखः । प्रभखनसखः । पवनेष्टः । पवमानेशः । इत्यादीनि अग्ने मानि ज्ञातव्यानि । २० शिखी वह्निः पावकश्चाशुशुक्षणिः । हिरण्यरेता सप्तार्चिर्जातवेदास्तनूनपात् ।। ६४ ।। स्वाहापति ताशश्च ज्वलनो दहनोऽनलः । वैश्वानरः कृशानुश्च रोहिताश्वो विभावसुः ॥ ६५ ॥ वृषाकपिः समीगर्भो हव्यवाहो हुताशनः। एकविंशतिरग्नौ । "अक अग कुटिलायां गतौ ।" अगति वायुवशाय गच्छुतीत्यग्निः । शिखाऽस्त्यस्य शिस्त्रो । उह्यते वह्निः । "अगिश्रुथियुवहिन्यो निः" एभ्यो धातुभ्यो निः प्रत्ययो भवति । पुनाति पायकः । श्राशु शोषयति रसान् 'श्राशुशुक्षणिः । “अाशौ शुषेः सनिक" । "शुध १. चरशब्दोयम; न तु चरेग्युः । द्विसन्यानेऽपि चरण्युशब्दस्यैव दर्शनात् । एतत्साधकमुणा. दिसूत्रम् अभिधानचिन्तामणिटीकायाम् ( ३।४८३ ) उपलभ्यते; नैवान्यत्र | वस्तुतस्तु वैदिकोऽयं प्रयोगः । ''चरण वरण गतौ कण्ड्वादौ चरण धातुर्यक् प्रत्ययान्तः । ततः "क्याच्छन्दसि" पासू० ३।२।७० । इत्युप्रत्ययः । सुग्नयु, तुरष्षु. भुरण्य. सपर्यु, आदिशब्दवदस्य सिद्धिः। विशेषस्तु "क्याच्छन्दसि" इत्यस्य तत्वबोधियो द्रध्ध्यः । चरण्यतीति चरण्युः | २.४० १ श्लो। १९ । ३. का. सू० ४।४।३२ । ४. वहति हव्यं वह्निरिति व्युत्पत्तिरन्यत्र । ५. का० उ० सू० ३।५०। ६. आशीष्टुमिच्छतीति आङपूर्वकान्टुपः सन्नन्वात् ‘ाडि शुघेः सनश्छन्दसि" पा० उ०सू० २।१०६ | अनिः । माशु शीघ्रम्, आशुं व्रीहि वाशु सुष्टु क्षणोतीति वा । "सर्वधातुभ्य इन्" इत्यन्यत्र । ७. का० उ० सू०५।१५ । Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ अमरकोर्तिविरचितभाष्योपेता शोथे।" अन्तभूतकारितार्थोऽयम् । अाशुपूर्वः। आशानुपपदे शुषेः सनिक् प्रत्ययो भवति । हिरण्यं रेतोऽस्य स हिरण्यरेताः। यत् स्मृति:'--"अग्रपत्यं प्रथमं सुवर्णम्" । सप्ताचिषो यत्य स सप्ता. चिः। भवन्ति "हिरण्या, कतका, रक्ता, कृष्णा, प्रसुप्तभावाऽन्या । अतिरिक्ता बहुरूपति सप्त सप्ताधिषो जिह्वाः ।" जाते जाते विद्यते सान्तो जातवेदस् । आता वेदा अत्माद् वा जातवेदाः । ५ तनू न पातयः। मसूलपात् : पति गाको कालो ग! जहा इत्यस्य ( स्या) पतिः भर्ता स्वाहापतिः । हुतं वषटकारकृतं वस्तु अश्नातीति हुताशः । हुतम् आशो भोजनं यस्य वः । ज्वलतीस्थेबंशीलो ज्वलनः । दहतीत्येवंशीली दहनः । अनि ति प्राणित्यनेन अनलः। विश्वानरम्या रत्य वैश्वानरः । कुश्यति तनूकरोति कृशानुः । रोहितात्यो मृगोऽश्वी वाहनमस्य रोहिताश्वः । विभा वमुर्धनं यस्य स विभावसुः । वषी धर्मः कपिराहः श्रेष्ठश्च तद्यात् वृषाकपिः । "पुराणम् - “कपिराहः श्रेष्ठश्च धर्मश्च वृष उच्यते । तस्माद् वृषाकपि प्राह काश्यपो मां प्रजापतिः।।'' हमीनाममालायाम् -- "वृषाकपिर्यासुदेवे शिवेऽग्नौ च " शम्यां गभी यस्य स शमीगर्भः । हव्यं वहतीति हव्यबाट । दुतमानातीति हुताशनः । बहुलः । १५ वसुः । सितेतरगतिः । अर्चिष्मान् । धूमध्वजः | बहिज्योतिः । उपर्चधः । चित्रभानुः। शुचिः । कृषी योनिः । दमुना । कृष्णवर्मा । अपांपित्तम् । वीतहोत्रः । वृद्भानुः । श्राश्रयाशः । धनञ्जयः । तमोचः । दमूना इत्येके | दमेसनसि ! तदादिसूनुः, अग्नि सूनुः । वह्निपुत्रः । वृषाकपिसूनुः । तृषाकपिपुत्रः । इत्यादीनि स्कन्दनामानि भवन्ति । सेनानीः स्कन्दश्च शिखिवाहनः ॥ ६६ ॥ कार्तिकेयो विशाखश्च कुमारः षण्मुखो गुहः । शक्तिमान् क्रौञ्चभेदी च स्वामी शरचणोद्भवः ॥ ६७ ।। द्वादश स्कन्दे । सेनां नयतीति सेनानीः। 'सत्यू द्विषटुहदुइयुजविदभिदछिदजिनीराजामुप___ सर्गेऽपि' एपामुपसर्गेऽप्यनुपसर्गेऽपि नाम्न्यनाम्न्युपपदे कि भवति । स्कन्दत्यरीन् स्कन्दः । स्कन्नं ' २५ शुष्क रेतोऽस्य वा । शिखी मयूरी वाइनमस्य शिखियाहनः । कृत्तिकामामपत्यं कार्तिकेयः । दानव बलौचस्तेजासि श्यत्ति विशेषेण तनूकरोति विशास्त्रः । विशाखासुतो वा । कुमारो बामनारित्वात् । १. अम. को हीर० भा० १११८५५ । २. सर्वत्रोत्पन्नपदार्थे वर्तमानत्वाद् वेदोन्पत्तिकारणत्वेन चाग्नेरुनस्वाच्च । जातं वेदो धन ( सुवर्ण ) यस्मात्, जारां वेत्ति वेदयते वा इति व्युत्पत्तिरपि । ३. तनं स्यस्वरूपं न पातवति दकृतीत्यर्थः । विप् । “नम्रागनपात्" इति भलोपाभावः । तनं न पति रक्षति जाते जाते विनष्टत्वादिति वा । पाते; शतृप्रत्ययः । तन्वा ऊनं पात रक्षातीति रान नपं धृन तदनीति | "आदोऽनन्” इति बिट । इत्यप्ह्यम् । ४. अशोऽप्यनिति वर्धते कृशानुरिति वा । ५. श्लोकोऽयम्, अभि. चि. २१२९ 1 टीकायामेवोपलभ्यते। ६. अनेका० सं० ४।२१८ | ७. का० सू० ४।३।७४ । ८. स्कनं रेतोऽस्येत्यर्थाभिप्रायेण । विग्रहस्तु स्कन्दति शुष्करेता भवतीति स्कन्द इत्येवंरूपः । ब्रह्मचारिणां शुधरेतस्त्वमागमासिद्धम् । पचाद्यच् । १. विर्वात् “शो तकरो" इत्यस्माद् बाहुलकात्खप्रत्ययः, विशाखानक्षत्रे जातो वा । विशाखयति विशेपेण च्याप्नोति दानवचलमिति वा । "शाख व्याप्ती ।" पचायच् । Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाममाला कुत्सितो मारोऽत्येति कुमारः' | षण्मुखानि यस्य स षण्मुखः । गृहति रक्षति देवसैन्यं गुहः । नाम्युपध प्रीकृगज़ा कः ।" शक्तिविद्यतेऽस्य शक्तिमान् | कौञ्च पर्वतं भिनतीति क्रौञ्चभेदी । स्वमरूयस्य स्वामी । शराणां धनम्, शरवणम्, तस्मिन्नु वः शरवणोद्भवः । गौरीपुत्रः । शक्तिपाणिः । तारकारिः । अग्निभूः । बाहुलेयः । गाई यः । बलचारी | महासेनः । महातेजाः । पार्वतीनन्दनः । तत्पिता शङ्करः शम्भुः शिवः स्थाणुमहेश्वरः ।। ज्यम्बको धूर्जटिः शर्वः पिनाकी प्रमथाधिपः॥ ६८ ॥ त्रिपुरारिविशालाक्षो गिरीशो नीललोहितः । रुद्रेन्दुमौलिर्यज्ञारिस्त्रिनेत्रो वृपमध्वजः ॥ ६६ ।। उग्रः शूली कपाली च शिपिविष्टो भयो हरः । उमापतिविरूपाक्षो विश्वरूपः कपर्धपि ॥ ७० ॥ एकोनत्रिंशदीश्वरे । तस्य स्कन्दस्य पिता । शं सुखं करोतीति शङ्करः । शाभवती (त्यस्मादि) ति शम्भुः। "भुवो"डुर्विशम्प्रेषु च ।" शेते प्रलयकाले जगदत्र शिव:। जाति प्रलीनेऽपि तिष्ठति स्थाणुः । महाँनाशौ ईश्वरः महेश्वर । त्रीण्यम्बकामि अहीण्यस्य त्र्यम्बका । उया लोकानाम् अग्नकः पितेत्यागमः । धूभारभूता जटयो जटा यस्य, पूर्गङ्गा जरिषु यस्य वा धूर्जटिः । शणाति दैत्यान् शर्वः। "शर्वजिह्वाग्रीवा' एते कप्रत्ययान्ता निपात्यन्ते । पिनाकमस्त्यस्य पिनाकी | प्रमथाया 'अधिपः, प्रम- १५ थाधिपः । त्रिपुरासुरस्यारित्रिपुरारिः । विशाले विस्तीर्णे अक्षिणी यस्य विशालाक्षः। “सक्थ्यक्षिणी स्वाङ्ग।" गिरीणामीशी गिरीशः | कालकूटभक्षणानीले कृष्णं लोहितं यस्य स नीललोहितः । "नीलः'' कण्ठे लोहितश्च के शे इति नीललोहितः” इति पुराणम् । रोदयत्यरिश्री रुद्रः । "रकायितञ्चिवञ्चि-:: शशिक्षिपिक्षुदिकदिमदिमन्दिचन्द्घन्दीन्दिभ्यो रक् ।" इन्दुमौलिम कुटं यस्य (सः) इन्दुमौलिः । यज्ञानो पशुकारणलक्षणानाम् अरिः, यहारिः। त्रीणि नेत्राण्यस्य त्रिनेत्रः। वृषभो अलीवदों ध्वजायो २० यस्य स वृषभध्वजः । कोपमूर्जति उग्न ४ः । शूलमस्त्यस्य शूली । कपालं मनुष्यकरोटिरस्त्यस्य कपाली । शिवः पिष्टो हती अस्थिरूपो (विष्टे) मूनि यस्य स शिपिविष्ट:"५ | भवतीति भव' | हरत्यघं हरः । १. "कुमार क्रीडायाम ।' कुमारयतीति पचायच् । को पृथिव्यां मारयति दुष्टानिति वा विग्रहो दोध्यः | २. का० उ० सू० ६६८। इतीन्प्रत्ययः । ३. स्वशब्दादामिन् प्रत्ययः | "स्वामिन्नश्वर्ये" पा. सू० ५।२।१२६ । अथवा शोभनममसि रक्षतीति स्वामी। "सावमेरिन् दीर्घश्च" का० उ. सू.० ६।६८ इतोन् प्रत्ययः । ४. शम्भवति भावयतीत्यर्थों वा । अन्तावितण्यर्थोऽत्र भवतिः । ५. का. सू० ४/४/५६ । ६. उक्तविग्रहे शेते हुलका विप्रत्ययः । शिवं करोतीति शिवयति, ततः पचाद्यचि शिवो वा । शिवरस्यात्यस्मिन्वेत्यपि विग्रहो बाध्यः । ७. का० उ० सू. २१२१८. प्रमथाया दुर्गावाः । परन्तु मथाः म्युः पारिषदाः' इत्यमरादिषु प्रमथशब्दस्य शिवपर्यायवेन प्रसिद्ध, दुर्गात्वेनाप्रसिद्धेः प्रमथानामधिपः इति सुवचम् । ९. "राजादीनामदन्तता" का सू० २। ।४१। वृत्तिः ५०। १०. नीलं कण्ठे लोहितं जटायामङ्क वस्येति विग्रहार्थः । तदुक्तम्-"नीलं येन ममा रसात लोहितं विषा । नीललोहित इत्येष ततोऽई पारेकीर्तितः ॥ इति स्कान्दै" इति मुकुदः । ११. श्रमको वीर०मा० १११।३३। १२. का० उ०पू० २।१४। १३. इन्दुभौली यस्येति विग्रहः सरलः। १४. उच्यति कुधा समवैति उग्रः । 'उच् समवाये" उच् धातुः । ततो रक् । गश्चान्तादेशः। अजेन्द्रादि उ० सू० । १५. शिवरिष्शब्दयोरायक्षरोपादानेन शिपिशब्दोऽ । १६. भव्याय भवति कल्पते इत्यर्थः ।। Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ अमरकीतिविरचितभाष्योपैदा उमायाः पतिः उमापतिः। विरूपाण्यचीण्यस्य विरूपाक्षः । विश्वेपु रूपं यत्य स विश्वरूपः । कपदीड स्त्यस्य कप: । कपर्दो जटाजूटः। कं शिरः पिपीति कपर्दः । श्रोणादिको दः । अपिशब्दात्-ईशानः | शशिशेखर : । पशुपतिः। शम्भुः । गिरिशः। श्रीकण्ठः । सर्वज्ञः । त्रिपुरान्तकः । भूनेशः । परमेश्वरः । अन्धकरिपुः । दक्षाध्वरध्वंसकः । स्रष्टा । वामदेवः । कामध्वंसी । व्योमकेशः । यहिरेताः । भीमः | भगः। ५ कृत्तिवासाः । वृषाङ्कः ! भागीरथी त्रिपथगा जाह्नवी हिमवत्सुता । मन्दाकिनी पञ्च गङ्गायाम् | भगीरयेन राज्ञाऽवतारितस्वात्तत्वापत्यं वा भागीरथी । त्रिभिः पथिभिर्गच्छति त्रिपथगा'। त्रिमागंगा च । जहाना पीता श्रीत्रण त्यता जाहवी। जहोरपत्य वा जाह्नवी । १० दिमवतो हिमाचलस्य सुता हिमवत्सुता । मन्दाका मन्दा गतिरस्त्यरया 'मन्दाकिनी । मुरसरित् । विष्णुपदी। सरिद्वरा । त्रिदशदीपिका । त्रिस्रोताः। भीगनसूः। सुरनिम्नगा 1 धुपर्यायधुनी अाकाश शब्दतो (तः परत्र ) नदीपर्यायेषु गङ्गानामानि भवन्ति । खस्रोतस्विनी । विहायोधुनी । वियसिन्धुः । व्योमस्रवत्ती | नभोनदी। गगननिम्नगा । अम्बरापगा। धोनदो । अाकाशनदी। १५ अन्तरीक्षाद्विरेफा। मेधपथसरित् । वायुपथतरङ्गिणी । इत्यादीनि ज्ञातव्यानि । ___ गङ्गानदीश्वरः ।। ७१॥ भागीरथ्यादिशब्दतः (परत्र ) ईश्वरपर्यायेषु हरनामानि भवन्ति । भागीरथीरामः । त्रिपथगाधिपः । जाहीपतिः । हिमवरसुतास्वामी । मन्दाकिनीनाथः । इत्यादीनि शातव्यानि । विधिधा विधाता च द्रुहिणोऽजश्चतुर्मुखः । पद्मपर्याययोनिश्च पितामहविरश्विनी ।।७२।। हिरण्यगर्भः स्रष्टा च प्रजापतिस्सहस्रपात् । ब्रह्मात्मभूरनन्तात्मा का सप्तदश ब्रह्मणि । विधति सृजति विधिः । विधत्ते वा विधिः । “उपसर्गे दः किः ।' विधति सृजति वेधाः । "सघातुभ्यो ऽसन् ।" "विध विधाने ।' विदधाति धारयति भूतानीति विधाता । २५ दृह्यत्यसुरेभ्यो द्रुहिणः । न जायतेजः । चत्वारि मुखानि वस्त्राण्यस्य चतुर्मुख । “पद्मपर्यायथोनिः" पद्मपर्यायशब्दामे योनिशब्दे प्रयुज्यमाने धातुर्नामानि भवन्ति । तामरस निः। कमलयोनिः । नलिनयोनिः । पद्मयोनिः । सरोजयोनिः। सरसोरुहयोनिः । वरदण्डयोनिः । पु ..कभषः । महोत्पलजः । अरविन्दयोनिः । शवपश्योनिः । पुष्करयोनिः । इत्यादीनि ज्ञातव्यानि । दक्षमन्त्रादीनां लोकपितृणां पिता पितामहः । आत्मनो भूतानि विरिक्त पृथक करोति विरिश्चनः । विरिश्चः । विरिञ्चिश्च | १. ग्रयाणां पथा समादारस्त्रिपथं तेन गच्छतीति वा। इत्थं च पूर्व समाहारद्विगौ कृते तत्र समासान्तविधानेन विपयशब्दस्त्याकारान्तत्वं सूपपाधं भवति । गंगाया स्त्रिपथगामित्वे भारतोतं वचनम्"क्षितौ तारयते मान् नागाँस्तारयतेऽन्यधः । दिवि तारयते देवास्तेन त्रिपथगा स्मृता ।।" २. मन्दमकित गन्तुं शीलमस्या इति वा । "अफ कुटिलायां गतौ ।' णिन् । डीपू । प्रन्योक्तविग्रह मन्दाकशब्दस्य मन्दगत्यर्थं प्रमाणं ग्यम् । ३. "विध विधाने । तुदादिः । सर्व धानु'य इन् किवं च । ४. का. सू० ४५/७० ५, का० उ० सू० ४५६ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाममाला ५ १. हिरण्यं गर्भ यस्य, हिरण्यं गभी वा यस्य हिरण्यगर्भः। 'पुराणम्-- "हिरण्यगर्भमभवत्तत्राण्डमुद के तथा। तत्र यज्ञे स्वय ब्रमा स्वयम्भूलोकविश्रुतः ॥" सूती गेयंशी चहा। न ति राजापतिः । “पद गती ।" पद् । पद्यन्ते गम्यन्ते (गच्छन्ति ) प्राणिनः, तान् पद्यमानान् जस्तून् चरणा एवं प्रक्षते । "पातोश्च देतो" इग, । अत्योप० दीर्घः । पादि जा । पादयन्तीति पादः । क्रिप च । "कारितस्या" कारितलोपः । वेलोपः । पाद । सहसौंपादो यस्य स सहस्रपाद । बुंहन्ति अर्धन्ते चराचराण्यत्र ब्रह्म । उभयम् । इदं ब्रह्म । अयं ब्रह्मा । अथवा बृहन्ति प्रतानि यस्मिन्निति ब्रह्म । बृहे: मन् प्रत्ययो भवति, अच्च इकारात् पूर्वम् । श्रात्मना भवति श्रात्मभूः । न अन्तो विद्यते यत्य सोऽनन्तः, अनन्तो विनाशरहित यात्मा यस्य सः अनन्तात्मा। कायतीति "कः | परमेष्ठी। मुरज्येष्ठ: 1 शतानन्दः । स्वयम्भूः । जगत्कर्ता । शतधृतिः । स्थविरः । तत्पुत्रोऽथ नारदः॥७३॥ तस्य पुत्रस्तत्पुत्रः । ब्रह्मणः शब्दात् ( परत्र ) पुत्रशब्द प्रयुज्यमाने नारदनामानि भवन्ति । विधिपुत्रः । वेधःपुनः । विधानूपुत्रः । विरिञ्चिपुत्रः । द्रुहिणपुत्रः । अलपुनः । चतुमुखपुर : ! पद्मयोनिपुत्रः । पितामहपुत्रः । हिरण्यगर्भ पुत्रः । प्रजापतिपुत्र : । सइम्स गत्पुत्रः । ब्रह्मपुत्रः । श्रात्मभूमुतः । अनन्तात्मपुत्रः । इत्यादीनि ज्ञातव्यानि । कृष्णो दामोदरो विष्णुरुपेन्द्रः पुरुषोत्तमः । केशवश्च हृषीकेशः शाी नारायणो हरिः॥ ७४ ।। केशी मधुर्वलिर्बाणो हिरण्यकशिपुर्मुरः । तदादिमदनः शौरिः पद्मनाभोऽप्यधोक्षजः ॥७॥ गोविन्दो वासुदेवश्चएकविंशतिर्नारायणे । कर्षत्यरीन् कृष्णवर्णत्वाद्वा कृष्णः । ६ इचिकृषियो नक् ।" दाम उदरे यस्य स दामोदरः । यल्लक्ष्यम् -वालौ हि चापलाद्दाम्ना बद्धोऽभूत् । वेवेष्टि व्याप्नोति विष्णुः । विपिन्यां यावत् ।।" उपगतमिन्द्रमुपेन्द्रः । इन्द्र उपगतो नजत्वाद् वा उपेन्द्रः । पुरुषेयु उत्तमः पुरुषोत्तमः । केशाः सन्त्यस्य केशवः । हरीकाणामिन्द्रियाणामीशी वाद हृषीकेशः। शाङ्ग धनुरस्त्यस्य शाही | नारा अपः अयनं यत्य नारायणः । यस्मृतिः १ --- "आपो नारा इति प्रोचा आपो वै नरसूनवः। अयनं तस्य ताः पूर्व तेन नारायणः स्मृतः ॥" १. "पुराणम्" इत्यारम्य "लोक विश्रुतः" इत्यन्तम् अभिधान चिन्तामणिटीकायाम् २।१२७/ उपलभ्यते। २. का सू० ३।२।१०। ३. का. सू० ३६४४। ४. 'सर्वधातुभ्यो मन्" का. उ० सू० ४।२८१ ५. "कै शब्दे" वेदश्वनिकत्वेन ब्राणि कायतीति के इति विग्रहः । 'कच दीप्तौ" कचते वा 1 "अन्येभ्योऽपि दृश्यते" पासू० ३।९।१०। सूत्रवार्तिकेन डः । ६. का उसू. २१५१। ७. बालकृष्णो हि यशोदया लाचापल्यनिवारणाय करिनदेशे बद्ध इति पौराणिकी कथा "लक्ष्यम्" इति पदेन स्मायी ८. का० उ० सू० २।८। ९. मराय समूहो नारम्; तदयन यस्य, नराद विराट पुरुपान्जातं तत्त्वं नारम्: सदयते जानाति या, श्राययति प्रवर्तयति धा, "नारायणः' इत्यपि पत्तिरत्र । १२. मनुस्मृति. १।१०। तृतीयचरणे "ता पदस्यायनपूर्वम्” इति पाठी लभ्यते । -. -- Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमरकीर्तिविरचितभाष्योपेता नरस्यापत्यं वा । नरामयते इति वाक्येन नरायणोऽपि । इरत्ययं हरिः । वेशाः सन्त्यस्य केशी । 'मन्यते जनः मधुः । “२मनिजनिना मधबतनाकाथ" एषामुप्रत्ययो भवति भघजतनाकाच यथासंख्यमादेशा भवन्ति । "वल वल्ल च ।" बलतीति बलिः । “इ: सर्वधातुभ्यः ।" बण्यते बाणः । तदादि. सूदनः । तदादोनां केश्‍वादीनां सूदनो माशकर्ता रिः । ऋशी. मधुः, बलिः, बाणः, हरिण्यकशिपुः. मुरः, ५ एभ्यः शब्दभ्यः परत्रारिशब्द प्रयुज्यमाने नारायणनामानि भवन्ति । केशिवैरी । फेल्यरातिः । केश्यमित्रः। केशिद्विष्ट । केशिसपनः | मधुवैरी । मध्वरातिः । मध्यमित्रः । मध्वारः । मधुदिन । मधुसपत्नः । मधुरिपुः । बलिवरी । बल्यरातिः । बल्यमित्रः । बलिहिट् । अलिसपत्नः । अलिरिपुः । बागावैरी । बाणारातिः । बाणामित्रः | बाणारिः । वागविट् । बाणसपनः । आगारभुः । हिरण्यकशिपुनिट् । हिरण्यकशिपुसपत्नः । हिरण्यकशिपुरिपुः । मुरवैरी । मुरारिः | मुरारातिः । मुरविट् । भुरसपानः । नुररिपुः । मधुशत्रुः | पाण२० शत्रुः । मधुसूदनः । बलिसूदनः । बलिबन्धनः । बारणसूदनः । हिरण्यकशिपुसूदनः । केशिसूदनः । इत्यादि पर्यायनामानि । शुरस्तस्यादिपुरुषस्तस्यापत्यम्, शौरिः। सौरिख । पद्म नामावस्य पद्मनाभः । .संज्ञायां नाभिः।' अधोक्षाणां जितेन्द्रियाणां जायते प्रत्यक्षीभवति, अधोक्षजः" | गां भुवं विन्दति गोविन्दः । वसुदेवस्यापत्यं चासुदेवः। मनुकेशः । श्रीवत्साङ्कः । श्रीपतिः । पीतवासाः । धिष्वक्सेनः । विश्व रूपः । मुकुन्दः । धरशिधरः | सुपर्णकेतुः । वैकुण्ठः | जलशयनः । रथाङ्गपाणिः । दाशाईः । ऋतुपुरुषः । १५ पाकपिः । अच्युतः । इन्द्रावरज: | बभ्रः । विष्टरश्रवाः । वनमाल।। सनातनः । बिनः । शम्भुः । इत्याचूनाम् । लक्ष्मीः श्री! मिनीन्दिरा । चत्वारः श्रियाम् । "लक्ष दर्शनाकानयोः।" लेक्षयति दर्शयति पुण्यकर्माणं जनमिति लक्ष्मीः । लक्षेमोऽन्तश्च" अस्मादीप्रत्ययो भवति मोऽन्तश्च । “भज् श्रि ( सेवायाम् )।'' पुण्यकृतं अयतीति २० श्रीः। ॥ वचिच्छिश्रिद्रुम॒ज्वो क्रिदीर्घश्च" एभ्यः किप्प्रत्ययो भवति दीर्घश्र स्वरस्य चैप म् । गां मिनो तोति गोमिनी । इन्दति परमैश्वर्श्वयुक्ता भवति इन्दिरा | कमला। पद्मा | पनवासा | हरिप्रिया । क्षीरोदतनया । माया । मा । ता" ५। ई। या । रमा | सीता | वला (चला) । भर्भरी । अग्विजापि । तत्पतिः शैलभूम्यादिघश्चक्रधरस्तथा ॥ ७६ ।। तस्याः पतिस्तत्पतिः । लक्ष्मीपतिः । श्रीपतिः । गोमिनीपतिः । इन्दिरापतिः । इत्यादीनि हरि२५ नामानि स्युः । शैलभूम्यादिधरः ३ पर्वतधरः । शैलधरः । दरीभृद्धरः । अचलधरः । डिघरः । सानुम धरः । गिरिधरः । नगधर । शिलोचयधरः । भूमिधरः । भूधरः । पृथ्वीधरः । गहरीधरः । मेदिनीधरः | १. मन्यते जनैः 'खलत्वेन' इति शेषः । २. का० उ. सू० १३८ । ३. का० उ० २० ३।१४ ॥ ४. का सू० २०६४१ । वृत्तिः । ८ । ५. अधः कृतमक्ष जमैन्द्रियकं ज्ञानं येन, अधो न क्षीयते जातु इति वा विग्रहोऽधिकोऽन्यत्र । ६. “मजुकेश" शब्दस्य "विष्णु" पर्वायत्वे कल्परपि प्रमाण्यम्-'मजुकेशः कौस्तुभोराः सोमगों घराघरः ।" ३३२१७ । ७. ब च शब्दस्य नारायणार्थेऽमरोऽपि प्रमाणम् । “विपुले नकुले विष्णौ बभ्र: स्वारिपाले त्रिषु ।" ३।३।१७०। ८. का. उ. सू. ३३३५ । ६. का. उ. सू. २।२३। १०. "गोमिनी" शब्दस्य लक्ष्म्यर्थे प्रमाणं मृग्यम् । अप्रत्यविग्रहोऽपि चिन्त्यः । मत्वर्षे गोशन्दामिनि प्रत्यये डीधि गोपालिकाथै तस्य प्रसिद्धौ कोषान्तरसंवादः । ११. ता, ई,पा, एपो लदम्पर्थे प्रमाणम्"लक्ष्मी पदमा रमा या मा ता श्री कमलेन्दिरा" अभि. चि. २११४५ । "या" इत्पत्र ई श्रा इति च्छेदः । “लक्ष्म्पान्तु भरो विष्णु शक्तिः दोराब्धिमानुषी।" इति तट्टीकायाम् । Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाममाला महीधरः | धराधरः । वसुन्धराधरः । धात्रीधरः । क्षमाधारः । वसुमतीधरः । विश्वम्भराधरः । अवनीधरः । धरणीधरः । क्षमाधरः | धरित्रीवरः । क्षितिधरः । कुधरः (घा)। कुम्भिनीधरः । इलाधरः । उर्वरीधरः । उर्चीधरः । गोधरः | जगतीधरः । इत्यादीमि हरेर्नामानि ज्ञातव्यानि । तथा चक्रधरोऽपि । तत्पुत्रो मन्मथः कामः सूर्पकाराति (कारि) रनन्यजः । कायपर्यायरहितो मदनो मकरध्वजः ॥ ७७ ॥ पट कामे मात्र • कृष्णा पुनः । दामोदर पुत्र: ! विष्णुपुत्रः 1 उपेन्द्रतनयः । पुरुषोत्तमसूनुः । केशवपुत्रः । हृषीकेशपुत्रः । हृषीकेशतनयः । शानिन्दनः । नारायणोद्वहः । इरिमूनुः । गोविन्दतक । इमानि मदनस्य पर्यायनामानि ज्ञातस्यानि | मथ्नाति चित्तं 'मन्मथः । कामयते जनः (पानेन) कामः। २ सर्पकारातिः । मनसोऽन्यस्मान्न जायने अनन्यजः । कायपर्यायरहितः । विदेहः । अकायः । अनङ्गः। अनपधनः। अवपुः । असंहननः । अकलेवरः । श्रमूर्तिः । इत्यादि (दीन्यपि तस्य) पर्यायनामानि । जन १० मदयतीति मदनः 1 मकरी ध्वजे यस्य स मकरध्वजः । प्रद्युम्नः । मनसिजः | सङ्कल्यजन्मा। अहवः । पञ्चेषुः । श्रीमन्दनः । हन्छयः । मधुसखः । शिलीमुखः शरो बाणो मार्गणो रोयणः कणः । इषुः काण्डं क्षुरप्रं च नाराचं तोमरं खगः ।। ७८ ।। द्वादश बाणे। शिलोक सूक्ष्मानं मुखं यस्य शिलीमुखः। "श हिंसायाम्" | शृणन्त्यनेनेति १५ शरः । ४'सि संज्ञायां घः" घप्रत्ययः । बणति "बाणः । यजनाच्च" प्रञ्। मार्गयति अन्वेषयति मार्गणः । रोप्यते देहे निखन्यने रोषणः । कणति कणः । “इप गतौ"। इध्यले गम्यते शत्रुसम्मुखमिति 'घुः । जन्तुमिष्यति हिनस्तीति वा इषुः । "इषिधृषिभिदिगृधिमृदिपृभ्यः कुः" | काम्यते रिपुवधाय १ काण्डम् । उभयम् । खनति भिनत्ति ११क्षुरप्रम् । ना नरसमूहम् अञ्चतीति १२नाराचम् । स्तोग्यते श्लाघ्यते तोमरम् | खमाकाशं गच्छतीति नगः। कङ्कपत्रः । चित्रपुखः । विशिखः । कलम्बः । २० कदम्बोऽपि । सायकः । प्रदरः । पृषत्कः । रोपः । गार्धपक्षः । १४खरु: । भल्लिः । भल्लः । १. विग्रहे चित्तस्थाने मनःशब्दपाटो योज्यः । मनसटलोपार्थ पृपोदरादिगणपाठायासो ऽपि तस्य कार्यः । क्षीरस्वामिरामाश्रमौ तु मननं मत चेतमा । मनातीति मथः । पचाद्यच् । मतश्चेत. नाया मथः "मन्मथः" इत्याहतुः । २. छन्दोमङ्गभयान्छुपकारिरिति पाटो बोध्यः । शूर्पको नाम कश्चिद दानवस्तत्य नाशकारित्वात्कामः शूर्वकारिः । तदुताम्- अभि. चि० २११४२ । 'पुष्पाण्यस्येषुचापास्त्राएयरी शम्बर सूर्पको ।' ३. शिली नाम गण्डपदः । “केचुवा' इति लोके ख्यातः 1 ४. का सू० ४।५.९६ । ५. बणति शब्दायते शुद्धोः स्मिन्निति पूणे विग्रहः । ६. का• सू० ४।५।९९ । ७. करणति शब्दाफ्ते कणः । पचायच् । ८. इपति गच्छति शत्रुसम्मुखमिति वा । ९. का० उ० सू० १।१०। ११. कनति दीप्यते काण्ड इति रामाश्रमः | "कनी दीप्तौ" । "बादिभ्यः कित्" उ• ११२ । इति डः । अनुनासिकस्येत्युपघादीर्घश्च | अमरको हविभहे “कमु कान्ती" कमधाती; स एव प्रत्ययः। कात्यनेनाइतः काण्ड इति हेमचन्द्रः । "कण शब्द इत्यतो डः। ११. क्षुरं तेक्ष्ण्येन माति गतीति क्षुरप्रम् इत्यपि । क्षुरामं लोह प्राति गति वा । १२ नारमाचामतीति रामाश्रमः । नरमदतीति नराची, नराच्यास्तुल्यो नाराच इति हेमचन्द्रः। १३. "तु गतौ" सौत्रः । तौतीति तौः । विच । म्रियतेऽनेनेति मरः । पुंसि संज्ञायां घः । सौश्वास मरश्चेति तोमर इत्यन्यत्र । १४. खमाणः । तदुक्तं कल्पद्धकोशे १९५५२६९ । “विकर्णः पत्रवाइव चित्रपुलः शरः खकः ।'' इति । Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमरकीतिविरचितभाग्योपेता काम के धन्व चापं च धर्म कोदण्डकं धनुः । शिलीमुखादेरसनम्षड् धनुपि । कर्मणे शत्रुवधलक्षणाय प्रभवतीति कामुकम् । दधन्ति मारयत्यनेन धन्धन् । अदन्तम् धन्वम् । चपस्य देशोर्विकारश्चापम् । उभयम् । घरति धर्मन् । भर्मे च । "कुदृ अमृतभाषणे' | ५ कोयत्यनेन 'कोदण्डम् । शत्रुवधार्थ धन्यते अद्यते धार्यते वा धनुः । उभयम् । उणादौ दघन्तीति धनुः (नूः । "कृषिमितनिधनिवधिसनिखर्जिभ्य ऊः'। शिलीमुखादेरसनम् । शिलीमुखासनः । शरःसनः । मार्गणासनः । शेषशासनः । कणासनः । इप्वासनः । काण्डासनः । शुरनासनः । नाराचासनः ! तोमरासनः । तत्कोटिमटनी विदुः ॥ ७६ ॥ समय अनुपः कोरियामः . कामाको कोरिः । चापकोधिः । काण्डकोदिः । धनुष्कोधिः । शिलीमुखासनकोरिः। शरासनकोटिः । वाणासनकोटिः । रोपणासनकोरिक। मार्गणास्नकोटिः । इत्यादिकमटनीति कथ्यते। अति गच्छति भूमिमटनिः । ब्याभ । अटनो । द्वा स्त्रियाम् । पुष्पं सुमनसः फुल्लं लतान्तं प्रसवोद्गमौ । प्रसूनं कुसुमं ज्ञेयम्पट (अष्ट) पुष्पे । पुष्यति विकसति पुष्पम् । सुष्टु मन्यन्ते नाभिः सुमनसः । स्रोत्यवहुवे । "जिफला विशरयो।" फल । फलति स्म फुल: । फुरल बा यथाऽकर्मक-"तः। 'यादानुनन्धाच" प्रति नेट् । "" अनुपसर्गालफुलक्षीचकृशोल्लापाः" निधातकारस्य सत्वम् । "१ "चरफलोसदस्य" सकारादावगुरणे उत्त्वम् । सिः । रेफः । लताया अन्तं पतितं लतान्तम् । प्रसू ( य ) ते प्रसषम् । उद्गच्छति प्रादुर्भ वति उद्गमः । श्रियं प्रसूते प्रसूनम् । सून सूनकं च । एता उभयम् । को शोभा सूते १ 'कुसुमम् । २० सुमं च । ज्ञेयं ज्ञातव्यम् । तदायत्रशरः स्मरः ।। ८०॥ पुष्पपर्यायतो (तः परत्रा) उपर्याय तथा बारापर्यायेष्वपि स्मरनामानि भवन्ति । पुष्पेषुः । पुष्पबाणः । पुष्पशिलीमुखः । पुष्पशरः । एप्पमार्गणः | पुष्परोपण | पुष्पकाण्डः । पुष्पकणः । पुष्पक्षुरणः । पुष्पनाराचः । पुष्पतोपरः । सुमनःशुरः । सुमशिलीमुखः । मुमभीनाराचः । लतान्तषुः । १. "कर्मण उका " पा सू० ५।१।१०३ । इति प्रभवत्यथै उकन । टिलोपः । २. "धन धान्ये" जुहोत्यादिः । वन्प्रत्ययः । धातूनामनेकार्थत्वान्मारयतीत्यर्थः । धात्वर्थानुरोधे तु दधति धान्यमर्जयत्यनेनेत्यों बोध्यः । वीराणां घनधान्यार्जनसाधनवाद धनुषः। धन्वति गछति धन्वेति क्षीरस्वामिरामाश्रमहेमचन्द्राः । कनिन् प्रत्ययः । ३. धरती रक्षत्यापन सत्यानित्यर्थः । मनिन्प्रत्ययः । अकारान्तधर्मशब्दस्य धनुर्वाचित्वे मेदिनों प्रमाणम् - "धर्मीऽस्त्री पुण्य प्राचारे स्वभावोपमयोः ऋतौ । अहिंसोपनिषल्याये ना धनुर्यमसोमपे ]" मान्तक १६ श्लोः ॥ ४. बाहुलकादण्डप्रत्ययः । रामाश्रमस्तु "कुट प्रभृतभाषणे कोटती विग्रहमाह । स एव प्रत्ययः। पृषोदरादित्वादृस्य दः 1 कदिः सौरः । कयतेऽनेनेति हेमचन्द्रः । 'क शन्दे' कौतीति कौः । कौः शब्दायमानो दण्डोऽस्येत्यप्यन्यत्र । ५. का. उ० सू० १।३१ । ६. सुप्रीतं मन प्राभिरिति मुकुटः । ७. का.सू. ४॥६॥४२॥ ८. का सू०४।५।११। ५. का.सू. ४६।११५। १०. का. ससू. ४६११७६ । १९. कुत्यति कुसुमम् । "कुस संश्लेषणे" दिवादिः । “कुसेसम्भौमेदेताः पा उ. सू.. ४११०६। इत्युमप्रत्ययः । इति रामाश्रमः । Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाममाला लतान्तकाण्डः । लतान्तभुरतः । लतान्तनाराचः । लतान्ततोमरः। प्रसवमार्गणः । प्रसबरोपण: । प्रसवकणाः । प्रसवेषुः । प्रसवकाण्डः । प्रसवक्षुरप्रः। प्रसवनाराचः। प्रसवतोमरः। उद्गम शिलीमुखः । उद्गमशरः । उद्गमबाणः । उद्गममार्गणः । उद्गमरोपणः। उद्गमकणाः । उद्गमेषुः । उद्गमक्षुरप्रः । उद्गमनाराचः । उद्गमतोमरः । प्रसूनशिलीनुखः । प्रसूनशरः । प्रसूनवाणः । प्रसूनरोपणः । प्रसूनकयाः । प्रस्नकाण्डः । प्रसूनेः । प्रसूनारप्रः । प्रसूननाराचः । प्रसूनतोमरः । कुसुमशिलीमुखः । कुसुमशरः । कुसुमबाणः । कुसुम- ५ मार्गणः । कुसुमरोपण। कुसुमकरण:। कुसुमे ः। कुसुमकाण्डः । कुसमक्षुरप्र: । कुसुमनाराचः । कुसुमतोमरः । पुष्पशब्दाने धनुपि शब्दे प्रयुज्यमानै कन्दर्पनामानि भवन्ति । पुष्पकामुकः । पुष्पधन्वा । पुप्पचापः । पुष्पधर्मा । पुष्पकोदण्डः । पुष्पधनुः (म्बा) । लतान्तकामुकः । लतान्तधनुः (न्वा) । लतान्तचापः । लतान्तधर्मः (मी)। लतान्तकोदण्दः । लत्तान्तधन्वा । प्रसवचापः । प्रसवकोदण्डः । प्रसवपनुः (वा)। प्रसूनकामुकः । कुमुमधन्वा । कुसुमचापः । कुसुमधर्मः (मा)। कुसुमकोदण्डः । कुसुमधनुः (न्वा) । १० इत्यादीनि शालव्यानि । स्वान्तमास्वनितं चित्तं चेतोऽन्तःकरणं मनः । हृदयं विशिखाऽकृतम् नव चिने । 'स्यम स्वन ध्वज शब्दै ।" प्राङपूर्वः 1 वनति स्म, श्रास्वनति स्म इति स्थान्तम्, श्रास्वा-तम् | "गत्या १५ निष्ठा क्तः । "चा हष्धमत्वरसंघुषाऽस्वनाम्" एभ्यः क्ते विभापये १५ भवति । वेट । 'पञ्चमो०" । "मनोरनुस्वारो' धुरि' । मनोऽर्थे अभिवाही"" त्यादिना तो नेट् । कथितस्वकथनेऽपि परत्वारपूर्वोक्तपरोक्तयोः परोक्तविधिर्बलवान् इति वचनात् । अनेन सूत्रेणायमेव विकल्पी भवति । मनोऽभिघानेऽपि परत्वादयमेव विधिर्भवति । चेतति चित्तम् । चेतति जानाति अनेनात्मा घेतस् सान्तम् । अन्तः निश्चयः क्रियतेऽनेन, अन्तःकरणम् । मन्यते बुध्यते ऽनन सान्तम् मनस्। बुद्ध्याय हरति हृदयम् । “हलो' दोऽन्तन" । दान्तं च हृद् । विगतं (ता नष्ट () शिखं (खा) २० यस्य तत्. विशिखम् | आ समन्तात् फूयते आक्रूयते ( आतम् ) । तथा चाष्टसाहस्याम् :"जाताकूतेनाकारेणेति मानसम्"। मारस्तत्रोद्भवो मतः ॥ ८१ ॥ तत्र चित्ते उद्भधो मारो मतः कथितः । स्वान्तसम्भवः । स्वान्जः । भास्वनितजः । चित्त सम्भवः । चित्तजः । चेतस्सम्भवः । चेतोजः । अन्तःकरणसम्भवः । हृदयसम्भवः । हृदयनः । विशिखसम्भवः। २। विशिखजः । अाकूतसम्भवः । इत्यादीनि कन्दर्पनामानि ज्ञातव्यानि । मौर्वी जीवा गुणो गव्या ज्यापाट् गुणे । मूर्वति हिनस्त्यनया मूर्वा । तदारुणस्य तृणस्य विकारी मौ: । धनुरनया जीवतीति १. का सू० ४।६।४९) २. #T० रन २ ४।६।९७ ३. का. सू० ४।११५५। 'पञ्चमोपधाया धुटि चागुणे" इति पूर्ण सूत्रम् । ४. का सू० २४/४४॥ ५. का० सू० ४।६।९३ । ६. प्रास्वनितमित्यत्र मनोऽर्थेऽपि परत्वात् “वा रुष्यमत्वरे" ति वेर् । आङ्पूर्वकत्वाभावे तु स्वान्तमित्यत्र "क्षुभिवाही" त्यादिनैटप्रतिषेधः । तेन स्वान्तमित्येकमेव रूपम् । आयूर्वकल्वे तु आस्वनितमाखान्तमित्युभयमित्याशयः । 9. 'ज्यनुबन्धमतिबुद्धिपूजार्थेभ्यः क्तः" इति का. ४४६६सूत्रेण ज्ञानार्थत्वावर्तमाने क्तः। ८. अन्तःशन्दस्याऽत्राधिकरणशक्तिप्रधानरेफान्ताव्ययत्वेनान्तो निश्वव इति व्युत्पत्तिनं युक्ता । अन्तर्गतं करणम्. करणानामन्तर्गतं वेति व्युत्पत्तिबोध्या । ५. का० उ० सू० २।२६ । १०. विशिखशब्दस्य हृदयार्थे न किमप्यन्यत्र प्रमाणमुपलब्धम् | अधोमुखपुण्डरीकाकारत्वावृदयस्य शिखारहितवं काश्चन्नेयम् । Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० ४२ अमरकीर्तिविरचितभाप्योपेता जीवा । गुण्यते अभ्यस्यतेऽनेन गुणः। पुंसि । गोभ्यो हिता गव्या'। जीयतेऽनया ज्या२। माणासनम् । गुणा। अलिभृङ्गः शिलीमुखः । भ्रमरः षट्पदो शेयो द्विरेफश्च मधुव्रतः ।। ८२॥ सप्त भृङ्ग । अलति मण्डयति पुष्यजातीः अलिः'। मधुना बिभात्मानं भृङ्गः । ४ श्रद्ध५ भृङ्गागानि' एजेऽङ्गप्रत्ययान्ता निपात्यन्ते । शिलीसदृशं शिलासदृशं वा मुखमस्य शिलीमुखः । भ्रमन् रीतीति निरुक्त्या भ्रमरः । “शफन्भ्वादयः"" शकन्धुप्रभृतीनाम् अकारस्य लोपो भवति । अादिशब्दात नकारस्य लोपः । उणादौ "श्रम चलगे" । भ्रमतीति भ्रमरः। "देवि घटिजटिभ्रमिवासिम्योपुरः । फ्ट पदानि चरणा अस्य षट्पदः । द्रौ रेफो यस्व द्विरेफः । मधु प्रतयति भुक्त मधुम्रतः । मधुकरः । पुष्पलिङ । इन्दिन्दिरः । षट्चरणः । षडधिः । चचरीकः । भसलः । रोलम्बः । देश्याम् | मौादिप्रान्तमन्यादिनाक्षवं 'पद्धः । इक्षीविकार ऐक्षवम् । अलिमौवीं (कम्) । भूमौवीं (कम्) । शिलीमुखम।वीं (कम् ।। भ्रमरमौवी (कम्) । षट्पदमौर्वी (कम् ) द्विरेफमावा (कम) । मधुव्रतमौवीं (कम) । अलिजीवा (वन् ! 1 भृङ्गजीवा (बम्) । शिलीमुखजीवा (वम्) । भ्रमरजीवा (वम् । षट्पद जीवा (वम्) । द्विरेफजीवा (वम् ) । मधुव्रतजीवा (वम्) । अलिगुणः (णम् )। भृगुणः (णम्) । शिलीमुत्रगुण: (णम्)।भ्रमरगुणः (णन है। १५ षट्पदगुणः (गाम् ) । द्विरेफगुणः (सन.) । मधुवतगुणः (णम्) । अलिज्या (ज्यम्) । भृङ्गन्या (ज्यम्)। द्विरेफच्या (ज्यम्) । मधुव्रतज्या (ज्यम्) । इत्यादीनि कन्दर्पशिलीमुख (धनुः) नामानि ज्ञेयानि । हेतिरखाऽयुवं शस्त्रम्चत्वारः शस्त्रे । हिनौति अनया हेतिः । स्त्रियाम् । .. : "सातिहतिजूतियूतयश्च । एक तिप्रत्ययान्ता निपात्यन्ते । अस्यते क्षिप्यतेऽनेनेति अस्त्रम् । श्रायुध्यतेऽनेन श्रायुधम् । उभयम् : शस्यते नेन शस्त्रम् ।११ नीदापशसुयुयुजस्तुतुदसिसिवमिहनतर्दशनहा करणे"एन् । ऋमात्रः ।"ध्यान " इति सपरगमनम् । ननु अस्येप्रतिषेधाभावात् नि प्रत्यये इडागमः कथं भवति । श्रागमशास्त्रमनियमित वचनात् शसुधातोः ष्ट्रनि प्रत्यये इट न भवति । "युग्यं । पत्रे' इति ज्ञापकादेत्र (हा) । पुष्पाद्यस्त्रः स्मरो मतः ॥ ३ ॥ पुष्पपर्यायतः अस्त्रापर्याय शरपर्यायेषु तथा चापपर्यायेष्वपि स्मरनामानि भवन्ति । पुष्प १. गोभ्यो बाणेयो हितेत्यर्थः । २. जिनाति जीयतेऽनया । "ज्या वयोहानी"। "अन्यधपि दृश्यते' इति डः । ३. अल भूषणादौ । सर्वधातुभ्य इन् । ४. का० उ० १४८१ ५. का. सू. वृः । ६. कातन्त्रोणादी नोपलब्धम् । ७. भ्रमरपद रेफद्वयसत्त्वाद द्विरेफः । ८. कन्दस्यि धनुरै दयम् । इक्षुदण्ड. निर्मितम् । अत एव काम इक्षुधन्वेत्युच्यते । मौर्यादयः शब्दा अन्ते यस्य, अलिः अलिपर्याय अादौ यत्येदृर्श तद्धनुरिति यथाश्रुतपाठार्थः । अस्मिन्नर्थे धनुर्विशेषणतया अलिमौर्वीकम् भहमाकम् इत्यादि टीकायां वक्तव्यम् । प्रस्तुतस्तु मौयादिप्रोक्तमल्यादिरिति पाटो बुः । तत्र पदार्थयोउना-पि साधु संगच्छते । अन्यादिः कन्दर्पस्य मौव्यादि धनुश्च ऐक्षवन इत्यर्थः । तदुक्तम् -- भोज़ रोलम्बमाला धनुरथ विशिवाः कौसुमाः पुण्यकतोः" इति साहित्यदर्पणे। टीवैषा तु यथाश्रुतपाठानुगामिनी । ६. "हिं गतौ वृद्धी च ' । इयं व्युत्पत्तिरग्निशिखाथै बोध्या । शस्त्रार्थे "इन हिंसायाम्' हन्यतेऽनयेति सुवचम् । १८. का मू० ४/५/७३ । ११. का० सू० ४।४१६१। व्यञ्जनमस्वरं परवर्ण नयेत्' । १२. का० सू०११।२१॥ इति सकारस्य परगमनम् । १३. का. लू० ४।२।३३। Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाममाला हेतिः । पुष्पात्रः । पुष्पायुधः । पुष्पशनः । सुमनोहेतिः । सुमनोऽन्तः । सुमनश्रायुधः । सुमनश्शनः । लतान्तहेतिः । लतान्तानः । लतान्तायुधः । लतान्तशस्त्रः । प्रसवात्रः । प्रसवायुधः । प्रसव शस्त्रः । उद्गमहेतिः । उद्गमायुधः । उद्गमशस्त्रः । प्रसून हेतिः । प्रसूनास्त्रः । प्रसूनायुधः । प्रसूधशस्त्रः । कुसुम इतिः । कुममात्रः 1 कुसुमायुधः । कुसुमशनः । इत्यादिकानि नामानि ज्ञातव्यानि । ध्वजं पताका केतश्च चिह्न तदैजयन्त्यपि ।। पञ्च पताकायाम। ध्वजते (ति) धूयते ध्यजः' । तथाऽमरसिंह-अजमस्त्रियाम ।' ध्वजिश्न । पताकादण्डे ध्वज इत्यन्यः । पत्यते क्षिप्यते वातेन पताका। बलाकादयः-'बलाकापिनाकपताकाश्यामाक्शलाकाः" एते भकप्रत्ययान्ता निपात्यन्ते । पथका च । स्त्रियाम् । कोयते सैन्यमनेन केतुः। केवादयः - "केन्ऋतुमत्वाप्तुपीत्वैधतुबहतुजीवातवः” एते तुन्प्रत्ययान्ता निपात्यन्ते । चह परिकल्कने । चयति (अनेन) चिह्नम् । विजयतेऽनया बैजयन्ती" । जयन्ती च । स्त्रीत्रो: । वैजयन्तः । जयन्तः । १० तत्तदन्तो झपाद्यादिः शम्भोधिकरः स्मरः ।। ८४ ॥ पध्वजः । झपपताकः । मषकेतुः । झापचिलः । मापवैजयन्तिः । पडक्षीणध्वजः । पदक्षीणपताकः । पडक्षीणकेतुः । षडक्षीणचिह्नः । पक्षीण वैजयन्तिः । सफरवजः । सफरपताकः । सफर केतुः । सारविहः । सफरवैजयन्तिः । अनिमिषवजः । अनिमिषपताकः। अनिमिषकेतुः । अनिमिपचिह्नः । अनिमिपवैजयन्तिः ।तिमिध्वजः । तिमिपताकः । तिमिकेतुः । तिमिचिह्नः । तिमिवैजयन्तिः । मीनध्वजः । मौन• १५ पताकः ।मीनकेतुः। भीनचिह्नः । मीनवैजयन्तिः । पाठीनध्वजः 1 पाठीनपताकः । पाठीनतुः । 'गठीनचिहः ।। पाठीनवैजयन्तिः । शम्भोधिनकरः । हरविभकरः । इत्यादीनि स्मरनामानि ज्ञातव्यानि । कौक्षेयकासिनिस्त्रिशकृपाणाः करवालकः । तरचारिमण्डलाय खगनामावलिं विदुः ॥ ८५ ।। अष्टौ खड्गे । कुक्षौ भवः कौ क्षेयकः" । कौक्षयः । अत्यते क्षिप्यतेऽसिः । निष्क्रान्तस्त्रिंशतोः २० झुलिभ्यो निस्त्रिंशः । तालव्यान्तः । शत्रून् हन्तुं कल्यते याचते कृपाणः । “कृपेः काग:"। करे वलत करवालः ५० करपालः | तरति (तरं) लवमानं वारि यति मिरुकत्या तरवारिः। मण्डलं धतलमनं यस्य तन्मण्डताग्रम् । खण्द्धति परमर्माण्यनेन खडः । “खण्डेगक" ' | स्त्रीत्राः । ऋष्टिः । चन्द्रहासः । अक्षौहिणी बलानीकं वाहिनी साधनं चमूः। ध्वजिनी पृतना सेना सैन्यं दण्डो चरूथिनी ।। ८६॥ द्वादश सेनायाम् । अक्षाणां रथानामूहिनी अक्षौहिणी । “अक्षस्यौत्वमूहिन्याम् ' श्रौत्वम् । अथवा धात्वर्थेन साध्यते भाष्यकर्ता श्रीमदमरकीर्तिन। | अशू व्यासौ । प्रश्नुते व्याप्नोतीति अदः । '१३तृ - - १. "ध्वज गती" | पचायच् । २. श्रम को २।८२५। ३.का० उ० ३।४०। ४. का० उ. १।२८। ५. विजयते विजयन्तः, विजयशाली पुरुषः । श्रोणादिको झच्प्रत्ययः । झस्यान्तादेशः । विजयन्तस्येयं पताका वैजयन्तीति । ६. ते ते ध्वजपाया अन्ते याय झपादिमीनपर्यायशादी यस्य ईशस्तथा शम्भुविघ्नकरच स्मरः कामः। तेऽपि स्मरपर्यायाः । तद्यथा अपवजेत्यादि । ७. कुलकुनिग्रीवास्यः श्वाऽस्यलङ्कारेषु' पासू० ४२१.६। इति खड्कार्थे ढकम्। ८. कृपां नुदति कृपाण इत्यपि । ९. का०३०सू० ५।१७। १०, "पल वेष्टने'। ज्वलादित्वाणः । बलनं वालो वेतनम । करे वालो यस्य, करेण वल्यते कोभयमप्यन्यत्र | ११. का० उ० सू० ५।५२। १२. का० सू० वृकश२१७॥ १३. का.30सू० ४।५। Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमरकीतिविरचितभाष्योपेता यदिहनिमनिकम्पशिकषिभ्यः सः" स प्रत्ययः । “छशोश्व" । "पढोः कारसे' अक् प । कापसंयोगे क्षः" । अक्ष इति जातः । ऊहन ऊहः । ऊहो विद्यते यस्याः सा ऊहिनी । अक्षाणामूहिनी अक्षौहिणी । “समा. सान्तसमीपयोरसुवादे" अस्पार्थः समासस्य अन्ते समासस्य समीपे च नकारस्य पूर्वपदस्थात् निमित्तात् (परस्य) यो भवति वा । इदानीम् अक्षौहिणीप्रमाणं क्रियते । यद्भारतम् "एको रथो गजश्वको तराः पञ्च पदातयः। वयश्च तुरगास्तज्नैः पत्तिरित्यभिधीयते ।। पस्यंगलिगुणः सर्व क्रमादाख्या यथोत्तरम् । सेनामुख गुल्मगणौ वाहिनी पृतना चमूः॥ अनीकिनी पत्ते स्त्रिगुणं सेनामुखम् । गाः ३, रथाः ३, अश्वाः ९, पदातयः १५ इति सेनामुखम् । गजाः ९, रथाः ६, अश्वाः २७, पदातवः ४५ इति गुल्मम् । गजाः २७, रथाः२७, अश्वाः ८१, पदातयः १३५, इति गणः । गजाः ८१, रथाः८१, श्रश्वाः २४३, पदालयः ४०५ इति वाहिनी । गजा २४३, रथाः २४६. अश्वाः ७२६, पदातयः १२१५, इति पृतना | गनाः ७२६, रथाः ७२६. अश्वाः २१८७, पदातयः ३६४५. इति च । गजार २१८३, रा. २१८७, अश्वाः ६५६१, पदातयः १०९३५ इत्यनीकिनी । दशानी"१५ किन्योऽक्षौहिणी | गजाः २१८७०, रथाः २१८७०, अश्वाः ६५६१०, पदातयः १०९३५० | बलते संवृणोति परभूमि बलम् । उभयम् । अनिति प्राणिति तूर्यस्वनैः न नीयते पराभवं वा अनीकम् । वाहा अश्वाः सन्स्यस्या वाहिनी। साध्यते (मनेन) साधनम् । परान् शत्रून् चमति ग्रसते चमूः । कृषि- . चमितनिधनिवधिसर्जिर्जिभ्य ः।" चमुश्च । ध्वजाः सन्त्यस्यां वजिनी । नायकं पिपति पृतना । अझै सिनोति बध्नाति सेना | "सिनोतेना"। सेनायाः स्वाथै यणि सैन्यम् । दाम्पत्ति दण्डः । वरूथो रथ. २० गुप्तिरस्त्यस्या वरूथिनी । पताकिनी । चक्रन् । अनीकिनी । “गूदः । तन्त्रम् । कदनं समरं युद्धं संयुगं कलहं रणम् । संग्राम सम्परायाजी संयदाहुमहाहवम् ।। ८७ ॥ एकादश युद्धे । कयते कदनम् । समियति प्रतिविकला भवन्त्यत्र नगः समरम् । युध्यते. (ना) रिभिर्युद्धम् । भटाः संयुज्यन्ते मिलन्त्यत्र संयुगम् । कलं मधुरं वाक्यं हन्त्यत्र कलहः । रणन्ति २५ दुन्टु भयोऽत्र रपाम् । संग्रस्यन्ते सत्वान्यनेनेति संग्राम:'"। पुंसि | संपरैति मृत्युरत्र सम्परायः। भटा अज्यन्ते क्षिप्यन्तेऽत्र श्राजिः ! स्त्रीचोः । संयतन्तेऽत्र तान्तं संयत् । महाश्चासौ आहवः' 'महाहवः । तम् आहुः १. का. सू. ३।६।६।। २. का. सू. ३।८।४। ३. 'कषयोगे क्षः" 1 का. रू० पू० २५६ स० । ४. प्रथमः इलोको महाभारत उपलभ्यते । तस्योपलब्धिस्तु द्वितीयाध्याये पञ्चदशश्लोकत्येन । इतरस्तष नोपलभ्यते। तत्र "एको रथः" इति श्लोकानन्तरम् - "पत्तिन्तु त्रिगुणामेतामाहुः सेनामुर्ख युधाः । त्रीणि सेनामुखान्येको गुल्म इत्यभिधीयते ।। त्रयो नुल्मा गणो नाम वाहिनी तु गणात्रयः । स्मृताः स्तिस्वस्तु वाहिन्यः पृतनेति विचक्षणः ॥ चमूस्तु पृतनास्तिमस्तिस्रश्वम्बस्वनीकिनी। अनीकिनी दशगुणां प्राहुः सेनामुखं बुधाः ॥ इति । श्लो० १६, १७.१८ । ५. अभि• चि० २१४१३। ६. का० उ० सू. ६।३.! ७. का० उ० सू० ६॥३॥ ८. गूदशब्दस्य सेनाथें उन्यत्र प्रमाणं मग्यम् । ५. "कद वैक्लव्ये' | कात विक्तूयतेऽनेनास्मिन्धा । करोधिकरणे वा ल्युट । १०. खङ् ग्राम युद्धे । स मामयन्ते नेति । हेमचन्द्रः । सङ्कामणं सलाम इति रामाश्रमः । ११. 'प्रादूयन्ते बोद्धारोऽवेत्याहवः । Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाममाला र बस्ति । आयोधनम् । बन्यम् । प्रधनम् । प्रविदारणम् | मृद्यम् | आस्कन्दनम् | संसयम् । समीकम् । अनीकम् । विग्रहः । समुदायः । अभ्यागमः । संस्फोटिः (ट:)। समितिः। समित् । द्वन्द्वम् । सम्मदः । संगरः। गजो मतङ्गजो हस्ती चारणोऽनेकपः करी | दन्ती स्तम्बेरमः कुम्भी द्विरदेभमितङ्गमाः ॥ ८८ || शुण्डालः सामजो नागो मानङ्गः पुष्करी द्विपः । करेणुः सिन्धुरःविशतिर्गजे । गजति मायति गजः | अच् । मतङ्गाहर्जातो मतगजः । सप्तमीपञ्चम्यन्ते जनेईः । हस्तो विद्यतेऽस्य हस्ती । “जातौ तु दन्तहस्ताभ्यां कराच्चैव इनेव हि । वारयति गन् शत्रुन् यारणः । न एकेन पिबत्यनेकपः। करोऽस्यत्य करिन् । इदन्तोऽपि करिः । दन्तो विद्यतेऽस्व . दन्ती। स्तम्बे तृणे रमते स्तम्बरमः । ॥ स्तम्वकर्णयो रमिअपोः" स्वच् । कुम्भो विद्यते स्य कुम्भी। हौ रदौ यस्य द्विरदः । एति गछति मुसलमतीम। "३ नम्वत्' भन्नत्यवो भवति स च वण्वन् । मितं गच्छतीति मितङ्गमः । “गमेरच्" खप्रत्ययः "हृस्या रुषोमान्तः ।' गुण्डा लाति गृलातीति, शुण्डालः | साम्नः' सामवेदाज्जास: सामजः । नगे पर्वते भवो नागः। मन्यते जनेन मातङ्गः । पुष्करं विद्यतेऽस्य पुष्करी | द्राभ्यां पिप्रति द्विपः । करोति कार्य करेणुः । "इकृभ्यामेणुः'' : १५ श्रा यामेणुः प्रत्ययो भवति । स्वन्दते स्रवति मदं सिन्धुरः१५ । दन्तावलः । पद्मी'२ | पीलुः । कालिगः। तेषु यन्ता याता निपाधपि ।। ८६ ॥ ___ त्रयो इस्तिपके । यच्छतीति यन्ता। यातीति याता । निषीदति इत्येवंशीली निषादी । गजयन्ता | गजयाता | हस्तियन्ता ३ हस्तियाता । इत्यादीनि ज्ञातव्यानि । अपिशब्दात- आधोरणः । हस्तिपः । हत्यारोहः । गजाजीवः । महामात्रः । नागाधरिः कण्ठी” (ण्ठि) स्वो मृगेन्द्रः केसरी हरिः । चत्वारः सिंहे । नागारिः । गजरिपुः । मतङ्गधैरी । इस्तिद्रिट् । वारणावैरी । अनेकपसपनः । करिरिपुः । दन्तिवैरी । स्तम्बरमरितः । कचिदृश्यते ईदृशः पाठः। कुम्भिवैरी । इभवैरी । मतदशनः । शुण्डालरिपुः । सामजद्वेषी । नागारिः । पुष्करिरिपुः । द्रिपवैरी । करेणुरिपुः । सिन्धुरबैरी । इत्यादीनि पर्यायनामानि सिंहस्य ज्ञातम्यानि । कण्ठे रखो ध्वनिर्यस्य कराठीरधः। १. सजति मायति गर्जति वा गज: । २. का. सू. ५।३।११। ३. कासू०२।६।१५। वृत्तिः । १. कान रसू० ४।३।१६। ५. का. उ० सू० २।२६। ६. का. सू.. ४।३। ४५। ७. का सू० ४।३। । ८.शुण्डास्त्यस्येत्यपि । 'प्राणिस्थादातो लजन्यतरस्याम्पा सू. ५२।१६। इति मत्वीयो लचप्रत्ययः । ५. सामवेदी हि गीतपरः । तस्वरेण समाकृष्टा दस्तिनो रद्धा अभवन । बद्धाश्चाप्य जनपदे समानीताः । गीतमूहा यतो बसमानीताः । अत एव सामजा इत्युच्यन्ते । इति सङ्गतिः । प्रमाणान्तरमरि मुग्यम् । सामवेदमुच्चारयन् विधिगजान् ससर्ज 1 साम्ना सह जातक्षात्सामजा इति । १०. का. उ. मू०६।६। ११. स्यन्दधातोरकर्मकत्वात्तवति मदमित्यर्थश्चिन्तनीयः। १२. अत्र फल्पद्रुकोषः११५।१४४। प्रमाणम्"करी मताजा पद्मी सूर्पकर्णी लसारसः" । इति । १३. छन्दो भङ्गभियात्र कण्टिरच इति पाटः प्रतिभाति । बागमो गवेन्द्रादाविस्येकारस्य प्रकार इकारश्च विधेयः । Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ अमरकीर्तिविरचितभाध्योपेता वर्णागमो गवेन्द्रादौ सिंहे वर्णविपर्ययः । षोडशादी विकारग्तु वर्णनाशः पृषोदरे ।।" इत्यनेन एकारस्य ईकारः। मृगाणो चतुष्पदान; मध्ये इन्द्रः मृगेन्द्रः । कसराः स्कन्धकेशाः सन्न्यस्य केसरी । क्रमप्राप्ते हरति हरिः । पञ्चाननः । हर्यक्षः । नखरायुधः । मृगरिपुः । सिंहः । व्याघ्रश्चमुरः शार्दूल:त्रयो व्या । व्याजिघ्रति प्राणान् उपादत्ते व्याघ्रः। चमति अत्ति पशून चमूरः । परान् शृणाति हिनस्ति शार्दुलः । द्वीपी | पुण्डरीकः । तरक्षः । चित्रकायः ! मृगारिः । ___ शरभोऽष्टापदोऽष्टपात् ।। ६० || त्रयोऽष्टापदे । शृणाति हिनस्ति शुरभः । कृशश लिगदिरासनलिवलियोःमः" । 'अष्टें। १० पदान्वस्य अष्टापदः । अथे! पादा यस्यास। अष्टपात् । ___ क्रोडो वराहो दंष्ट्री च घृष्टिः पोत्री च शूकरः । अष्टा (षट् ) शूकरे | पल्वलं संफनति क्रोडः" । बरानाहन्ति वराहः' । दंधाः सन्यस्य दंट्री । घर्पतीति घृष्टिः । रष्टिश्च । गुरु पत्रने । पू 1 भी० । पून् पवने वा । कैत । उभयपदी । पुर्यतेऽनेनेति पोत्रम् ""हलशूकरयोः पुवः" हुन् । बा ! पम्प-तारण: : दि जरूर हो । सूते प्रचुग. १५ पत्यानि, खयति वर्धते वा गीनत्वेन सूकरः । शुकरश्च । दन्त्यतालच्यः । कोलः । किरः । किरिश्च । उष्ट्रो मयः शृंखलिकः कलभः शीघ्रगामुकः ।। ११॥ पोष्ट्र । उम्यते दह्यते मरौ उष्टः । ॥१:सबंधातुभ्यः पून" । मद्यते गच्छति मयः' । मर्यते इन्येके । शृङ्खलं बन्धनमस्य ललिकः५२ । कं शिरी रभते उन्नमयतीति कलभः । करभश्च | शाम गच्छतीति शीघ्रगामुकः । दासेरकः । दीर्घजङ्घः । श्रीवी । रबसः। धूमाकोः ( धूपक: )। कौलेयकः सारमेयो मण्डल: श्या पुरोगतिः । जिह्वापो ग्रामशार्दलः कुक्कुरो रात्रिजागरः ।। ०२ ॥ नव सारमेये । कुले गृहे भवः कौलेयः१३ ( यकः) । सरमाया अपत्यं सारमेयः । मण् लाति मण्डलः । चौरादीन श्वयति गच्छति श्या । श्व नोऽदन्तोऽपि | पुरो गच्छति पुरोगतिः । "जिवां शरीरं १. “पृषोदरादयः” इति शा० सू० २२:१७२। कारिका । २. प्राणान हरतीस्यतावानचान्यत्र । ३. यद्वा शारयतीति शार। किम् । दूयते इति दूलः । अन्तर्भावितणियां दूर् । शार चासो दूलश्चेति विग्रहः । ४, का उ०पू० ३.१२१ ५. " उ धनत्रे" | कोडनं बनत्वं सोस्यात्तीति कोडः । "अर्श पायच" इति रामाश्रमः । ६. बरमा इन्तीति, घर आहारी यत्येति वा पृषोदरादित्वात् । ७. कासू - ४६।६२ ८. सुवं प्रसत्रं करोतीति । शूकोस्त्वस्थ शूकरः खररोमत्वात् । शूर्क राति वा । शु इतिध्वनि करोति वा । १. अष्टि इच्छति काटकिवृक्षादगं मरुभूमि वा इति उः । 'सर्वधातुभ्यः ष्ट्रम्" इति का उ. ४२६। सूत्रे दुर्गसिंह:--"वश कान्ती । वष्टीति उष्ट्रः करमः। अस्य अन्नन्तस्य सम्प्रसारणं निपातना. स्पत्वं च" । इत्याह । १२. का०3० सू. १३१ । ११. मीनात्यहीन् मयः । 'मीज् हिसायाम । पचावाच । इति वा । १२. ललमस्य बन्धन करमे" पा० सू० ५/७२ । इति कन् । तेन शृझवलक इति साधुः । 'स तु लक: काष्ठमय ः स्यात्पादयन्धनैः' । इति अभिर चिः । १३."कुलकक्षिग्रीवाभ्यः श्वाःभ्यलारे पा० सू० ४।२।९६३ इति श्वाऽर्थे नका । ११. जिया रसनया पिस्तीति विग्रहः सुवचः । जिलया दानीरं पातीत्यपि सम्भवति । Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाममाला ाति रक्षति मिलापः ! ग्राम नाईल माघः पाप्रशार्दूल । कुक शब्दं करोतीति कुक्कुरः' ! कुर शब्दे । कुकुरश्च | रात्रौ जामति रात्रिजागरः । लेड्वहः । चुक्कणः । भषणः । मृगदं शः । शालायकः । हेम चाष्टापदं स्वर्ण कनकार्जुनकाञ्चनम् । सुवर्ण हिरण्यं भर्म जातरूपं च हाटकम् ॥ १३ ॥ तपनीय कलाधौत कार्तस्वरशिलोद्भवम् | पञ्चदश स्वर्णे । दिनौति वर्धतेऽनेन हेमन् । नान्तम् । अदन्तं हेमं च । अष्टसु लोहेमुपदं प्रतिटास्य अष्टापदम् । “अष्टनर संज्ञायाम् इति दीर्घः । शोभनो वर्णोऽस्य स्वर्णम् । उकारलोपः । अथवा समासे वर्णस्य का बलोपमाहुः । यथा पञ्चाणों मन्त्रः। कनति दीयते कनकम् । कनिचनिभ्यामकः' । कनी दीप्तिकान्तिगतिम् । अर्ज सर्व अर्जने । अर्जतीत्यर्जुनम् । "अकलत्र्यमि. दार्जिभ्य उमः' । काति शोभा बध्नाति काञ्चनम् । शोभनो वणी यत्य सुवर्णम् । उभयम् । पुण्यं निहोते १० हिरण्यम् । अथवा प्रौहान त्यागे । हीवते हिरण्यम् । “हो हिरश्च' अस्मादन्यः प्रत्ययो भवति हिरादेशश्च । भियते धार्यते नान्तम् भर्मन् । श्रदन्तं च नर्मम् । जातं कई पत्र जातरूपम् । क्लीने । तथा च यशस्तिलके-"प्रसङ्गम्पृहोऽपि जातरूपस्पृहः । इति हाटकम् । दीप्ती । अग्निना उन्यते तपनीयम् | कला श्रावति गच्छति कलधौतम् । कृतस्वराकरे भवं कार्तस्वरम् । शिलायाः राषाणानुद्भवो यस्य शिलोधम् । शातकुम्भम् । गाङ्ग यन् । कनरम् | चामीकरम् । महारजतम् । १५ कामम् । रुम्मम् । जम्बूनदम् । कल्याणम् । गिरिक । चन्द्रवसु च । रूप्यं रजतं गुलिकात्रयो रूध्ये । रूप्यते बना मुह्यतेऽनेन रूप्यम्। जनं रजति रजतम् । रज्यते हेना रजतं या । शुद्ध रक्षायाम् । गुदति रक्षति यापदः सकाशाद् गुलिका । गुडिका च | कलाधीतम् । तारम् । सितन् | . दुर्वर्णम् । खर्जुरम् । श्वेतम् । शुक्तिज मौक्तिक तथा || ६४ ॥ दो मौक्तिके । शुकथा जलादियानोपकरणदल्यविशेषाज्जातम् शुक्तिजम् । मुक्तानां नमूहो मौक्तिकम् । समूहेऽर्थे हकण्। वित्तं वस्तु बसु द्रव्यं स्वार्थं रा द्रविणं घनम् कस्वरं दश धनं : बिन्दति पुण्यकृतं वित्तम् । धात्वर्थन व्युत्पत्तिः क्रियतेऽमरकीर्तिना । 'विद्ल लाभ । विद् । विद्यते म्म भुज्यते (स्म) वित्तम् । निधातः । "भित्तर्णपित्ताः शकलाघमर्णभोगेषु वित्तमिनि ---- १. कुक इति शब्दं कुरति उच्चारयतीति विग्रहः । इगुपनत्वात्प्रत्ययः । यद्वा कोक्ते स्थ्यादिकमादत्ते कुक् । “कुक् श्रादाने' । किप् । कुरति शब्दायते कुरः । कुछ चासौ कुरश्रेति विग्रहः । २. पा. सू० ६।३।१२५ । ३. का. ड० सू० ३।४ । ४. अर्धते पुण्यै रर्जुनम् । ५. का उ- सू० २१६०। ६. का. उ. सू. ३।३। ७. अकृतकरूपमित्यर्थः । अथवा प्रशस्तं जातं जातरूपम् । यशंसायो रूप प्रत्ययः । ८. सुदत्तमुनिवर्ण ने आ। ५. हारकाकरमभवत्वाद् वा हाटकम । ११. कला सुवर्ण कलिका धौता गता धावति गच्छति वा यस्मादिति कलधौतम् । ११. रूप रूपक्रियायाम । ण्यतः । अचो यत् । १२. का सू० ४।६।११४| Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ अमरकोतिविचितभाष्योपेता निपातः । निपातस्ये न भवति । “दाहस्य' च" तो नो न भवति । वसति सुस्वमनेन वस्तु ! "कमि. मनिजनिवसिहिभ्यश्च" एभ्यस्तुम् प्रत्ययो भवति । वसति सुखमनेन वसु । "पथ्य सिवसिहनिर्मानप्रपीन्दिकन्दिवनिवस्वणिभ्यश्च" एन्य एकादशभ्यः ॐ प्रत्ययो भवति । द्रूयते गम्यते द्रव्यम् । परं स्थति अन्तं नयति अथवा पुण्यं स्वनति स्वः स्वम् । उभयम् । पुण्यकृतमियर्ति अर्थम् । गुणान् राति । ५ "राते डे: ।' श्रीनोः । द्रूपते गम्यते द्रषिणम् । दधाति धारयति सारत्वं धनम् । कश गतौ । कशतीत्येवं शीलं कस्वरम्। कसिपिसियासीशस्थाप्रमदा च'' वरप्रत्ययः । द्युम्न । सारम् । स्वापत्तेयम् । ऋक्थम् । रिक्थम् । हिरण्यम् । विभवः । तत्पतिं प्राहुः कुवेरं चैकपिङ्गलम् || ५ || वैश्रवणं राजराजमुत्तराशापति तथा । अलकानिलयं श्रीदं धनपर्यायदायकम् ।। ६६ ॥ सन कुवेरे । तस्य पतिः तत्पतिः तं कुबेरं प्राहुब वन्ति । वित्तपतिः 1 बसुपतिः । वानुपतिः । द्रव्यपतिः । क्पतिः । अर्थपतिः । रा()पतिः । द्रविणपतिः । धनपतिः । कस्बरपतिः । इत्यादिपर्यायनामानि कुवेरस्य ज्ञातव्यानि । कुत्सितो वेरो देहः कुल्जस्वाद्यस्य स वैरः । पिङ्गलेकनेत्रत्वाइकपिलः । विश्र वसोऽपत्यमणि शिवादित्वात् । गादेशो वैश्यणः । राज्ञां यक्षाणां राजा राजराजः । उत्तराशायाः पतिः १५ उत्तराशापतिः । अलका निलयो गृहं यस्व अस्तकानिलयः । श्रियं दयते श्रीदः । धनपर्यायदायका । घनदायकः । धनदः । वित्तदायकः । वित्तदः। वसुदायकः । वसुदः । द्रव्यदायकः । द्रवदः । स्वदायकः । स्वदः । रेंदायकः । रदः । द्रविणदायकः । द्रविणदः । कस्बरदायकः । फस्वरदः । राष्ट्र जनपदो निर्गो जनान्तो विषयः स्मृतः ।। पञ्च जनपदे | राजते राष्ट्रम् । तथा च सोमनीती"-"पशुधान्यहिरण्यसंपदा राजते २० शोभते इति राष्ट्रम्" । जनी प्रादुर्भावे । जन् । जायते कश्चित्तमन्ये प्रयुञ्जते । धातोश्च इंतो"इन् प्रत्ययः । अस्यौप० दीर्घः । जानिरिति जातम् । 'जनिबध्योन' हस्वः। अनि जातम् । जनयन्ति प्रलां घनमिति जना: 1 "अच् ' ' 'पचादिभ्यः'अच प्रत्ययः । कारितस्याना० ११'कारितलोपः । पद गतौ । पद् । जनैर्वण श्रम लक्षणः पद्यते गम्यते प्राध्यते अाश्रीयत इति अनपदः ।"अच् पचादे: २"अच प्रत्ययः । जनपद इति जातः । तथा च सोमनीती—१ जनस्य वर्णाश्नमलक्षणस्य द्रव्योत्पत्तेर्वा स्थानमिति जनपदः ।" निर्गम्यते यस्मिन्निति निर्गः । “निगी देशेऽधिकरणे इति डप्रत्ययः । देशादन्यत्र -- निर्गभ्यरो वस्मिन्निति निर्गमनी गिरिः । अनानामन्तो निकटे जतान्तः । पित्र बन्धने । 'धात्वादेः१५ पः सः" सि विपू० । विपिण्वन्ति अस्मिन्निति विषयः । "पुंसि संज्ञायां ६ घः नाम्यं०१७ ' गुणः । "५१८ अव" तथा | च सोमनीती- . ४१"विविधवस्तुप्रदानेन स्वामिनः सद्मनि गजान नृवाजिनश्च सिनोति बध्नातीति विषयः ।" यू: पुरी नगरं चैव पट्टनं पुटमेदनम् ॥ १७ ॥ १. का स० ४१३।१०२। २. का० उ० सूत १।२७१३. का० उ. सू. १।६। ४. पोऽन्तकर्मणि" । अप्रत्ययः । "स्वन शब्दे' इप्रत्ययो वा । ५. का० उ० सू.० २१२७। ६. का. सू० ४।४।५७ ७. जन समु० १। ८. का. स. १२।१०॥ १. का० सू० ३।४।६७/ १० कार सू४।२।५८। ११. का सू० ३।६।४४॥ १२. घनर्थे कविधानम्, पुंसि संज्ञायां घः इति कर्मणि कप्प्रत्ययो धप्रत्ययो वा वक्तव्यः । न तु पचायन; तस्य कर्तरि विधानात् । १३.जन० सम्० ५। १४.हे ०।०५।१।१३३॥ १५.काम.० ३८।२४ १६. फा० सू० ४१५/६६। १७. का सू. ४।५।११ १८. का सू० ।।१२। १६. जन समु०३ । Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाममाला षट् (प) नगरे । ५ पालनपूरगायोः । पृ । ऊ । पृणातीत्येवंशीला पूः । फिभ्रात्रि धुर्विभासाम्" क्रिप् । “उरोश्योपधस्य च" उर् । पुर जातम् । “नामिनोवार" पूर । वेलीपः । सिः । "क्यञ्जनाच्च” सिलोपः । रेफसोसिर्जनीयः" रस्य विसर्गः । पूः । अदन्तः । पुरं पुरी च । इदन्तोऽपि पुरिः । नगाः सन्त्यत्र, ग्राम्यत्वं नश्यत्या वा नगरम् । क्लीचे | नगरी च । नानादिग्देशागतानां वणिजा भाण्टानि पतन्त्यत्र पत्तनम् । पट्टनं च । अत्र स्मृतिभेदः "पट्टनं शकटैगम्यं घोटकनौभिरेख वा। नौभिरेव तु यद्गम्यं पसनं तत्प्रचक्षते ।।" पुटा बासा भिद्यन्तेऽन पुटभेदनम् । क्लीवे | अधिष्ठानम् । निगमः । द्रः । स्थानीयम् । __ वक्त्रं लपनमास्यं च वदनं मुखमाननम् । एपगुखे । घच परिभाषणे | उच्यतेऽनेन वक्त्रम् । “सर्वधातुभ्यः एन्" । र ल जल्यू व्यनापां १० बाचि। लप्यतेऽनेन लपनम् । युट् । अत्यतेऽस्मिन्नास्यम्।"कृत्यल्युटो बहुल"मिति प्यच । वद व्यक्तायों वाचि । उद्यतेऽनेन वदनम् । मइति मुह्यति स्तोत्रेण वा मुखम्'' । खन्यते वा मुखम। उणाद। । सुख दुःख तस्त्रियाम् । चौरादिकत्वादिन् । मुखयति अनादिखादनेनेति मुखम् । "सुग्वे: । २ को मुखिश्च'। सुखेः कः प्रत्ययो भवति धातोमुखिश्च । इकार उच्चारणार्थः । आ अनिति श्वसित्यनेन अाननन् । नुण्डन । श्रवणं श्रोत्रं श्रवश्चापि कर्ण चैव श्रुति विदुः ॥ ६८ ॥ १५ पञ्च कर्णे । श्रूयतेऽनेन श्रवणम् । श्रूयतेऽनेन श्रोत्रम् । क्लीवे । शृगणोन्यनेन सान्तम् भ्रषः । क्लीवे । करोति शब्दावधानं कर्णः ५३ | कर्णयति वा कर्णः । छिद्रः कर्ण भेदे । श्रूयतेऽनया श्रुतिः । त्रियाम् । विदुः कथयन्ति । ___ हगक्षि चक्षुर्नयनं दृष्टिनेत्रं विलोचनम् । सम नेने । दृश्यतेऽनया दृफ । तालव्यान्तः । अशू व्याप्ती । अश्नुते व्याप्नोत्यनेनामा घटादीन- २० निति अक्षि । “१४अशिकुषिभ्यां सिक्" 1 चष्टे हृदयाकूतं सान्तम् चक्षुः । "1"पपिचक्षिजीय. तनिघनिन्य उस्" । नीयते चित्तं विषयेषु अनेन नयनम् । दृश्यते प्रक्रयार्थोऽनया दृष्टिः । नीयतेऽनेन दृश्यं नेत्रम् । उभयम् । विशेषेण लोच्यते अवलोक्यतेऽनेन विलोचनम् | अक्षम् । तारका । ज्योतिः । कटाक्षं केकरापाङ्गं विभ्रमस्तस्य वैकृतम् ।। ६६ ॥ तस्य नेत्रस्य वैकृते घट (पञ्च )। कटयतीति १६कटाक्षम् । उभयम् | के (शिरसि) २५ १. का० सू० ४।४।५७१ २. का०सू० १३.५:४३ । कारस्योत्वम् । ३. का०सू० ३।८।१४। इति दीर्घः । ४. का० सू० ४।११३४। ५. का० सू० २१४६। ६. का० सू० २।३।६३। ७. 'नगपासुपाण्डम्यश्चेति" पा० सू०५/२।१०७। वार्तिकेन मत्वर्थीयो २ः । अथवा नश् धातोरोणादिको प्रत्यय: शस्य गत्वे च । ८. का० उ. सू.० ४।३१। ९. श्रास्यन्दतेऽम्लादिना प्रसवत्यति । १०. "कृत्यल्युटी:- . न्यत्रापि" इति का सूत्रम् । ४।१९२। टीकोक्यथा श्रुतपत्रन्तु पाणिनीयम् ३।३।१९३१ ११. खन्यतेऽवदायते फलादिक्रमनेनेत्यपि । “दित्यनेमुट चौदातः" उ० अच् स च द्वित् मुडागमश्वेत्यन्यत्र । "मुदितानि खानोन्द्रियाण्यत्रेत्येके" इति क्षीर स्वा० । १२. का० उ.सू ६।६५। १३. वीकोतविग्रहे करोतेरोणादिको प्रत्ययः । कीर्यते शब्दग्रहणाय क्षिप्यते, कीर्यते शब्दोऽस्मिन्निति का, किरति शरीरे सुखमिति वा । १४. का उ. सू० ६।५७। १५. का. उ० सू० २।४६। १६, कटे ऽतिशयितेऽक्षिणी यत्र, करें गण्डमक्षति च्याप्नोति वैति रामाश्रमः । कटे आक्षिपतीति क्षीरस्वा । Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ अमरकोतिविरचितभाष्योपेदा किरति विक्षेपं क्षिपीति (कर्षतीति) केकरः । न पाति कामिनमपाङ्गः' । उभयम् । विभ्रमणं विभ्रमः । विकृतम्य भावो वैकृतम् । दन्तवासोऽधरोऽप्योष्ठे वर्णितो दशनच्छदः। चत्वारश्चतुर्थे प्रोष्टे । दन्ताना वासो दन्तवासः । अवति शोभामधरः । अधी' भवो धरी ५ या । श्रोष्ठाभ्यां सहिताषधरी वा । अधरोऽप्योटमात्रे वर्तते । उषति दहति सपनीहृदय मोष्ठः। उष्यते तीक्ष्णाहारेणीष्ठी वा । वर्णितः कथितः । दशनस्य लदो 'दशनच्छदः । शिरोघरो गलो ग्रीवा कण्ठश्च धमनी धमः ।। १०० ।। ___ पड़ गले । शिरो धरति शिरोधरः । शिरोधरा च । गलति भोजन गलः । गृणाति गिरति वा नांचा । उपद गशब्द जातीति श्रीवा। शजिह्वाग्रीवा:४॥ एते प्रत्ययान्ता निपात्यन्ते । कणति १० करठः । "कणेयः । अस्माद्रुमत्ययो भवति । धमः सौत्री धातुः । धम्यतेऽनया धमनिः । इदन्तः । खियामीः । धमनी । धमति धमः । मन्या । कन्धरा । दोदोपा च भुजो बाहुःचत्वारो चाही । दम्यते चिनीयते परोऽनेन दो। सान्तम् । “दमेडोस्' । दूपति दु या इति दोषा | श्रादन्तः। अव्ययः । न व्ययते । भुज्यतेऽनेन भुजः । निपातनात् चजोः कगत्वं न भवति । नामिन १५ इति गुणच न भवति । 'भुजन्युजी' पाणिरोगयोः' इत्यस्मिन्नर्थे निपातनात् । भुजा च । वहत्यनेनेति बाहुः । “बहिस्वादिः (रहि) तलि पंशिभ्य उण" | प्रकोष्ठः । पाणिहस्तः करस्तथा । त्रयी इस्ते । पणायते व्यवहरत्यनेन पाणिः | अजिजन्यतिरशिपणिभ्यः" एभ्य इन __ भवति । हमने हस्तः । 'हसेस्तः । कीर्यते तिप्यतेऽनेन करः । शयः । शम'' इत्यन्यः । पशाखः । प्राहुर्बाहुशिरोंऽसश्चबाहुशिरसोः अंस इति संज्ञां माहुः कथयन्ति । अस्यते भारेणांसः । स्कन्धश्च । __ हस्तशाखा करालिः ॥१०१।। हौ अगुल्याम् । इस्तस्य शाखा इव हस्तशास्त्रा । आकुचनादिकर्माणि अति गति अङ्गुलम् । स्त्रोक्लीबे । श्रङ्गुली । करस्याङ्गलिः१३ करालिः । एवमगुरम् । अगुरी । नासा घ्राणम्१. अपाङ्गतीत्यपाङ्गः । "अमि गतौ"। अच् । २. "अधो भवः' इत्यारभ्य “वर्तते' इत्यन्नं क्षौर. स्वामिभाष्यमत्रोद्वत्तम् । तद्भाष्ये 'श्रोचाधरी तु" इत्यमरोक्तमूलपदस्य व्याख्यारूपम् "ष्ठाभ्यां सहितावघरी" इति वाक्यमन्धानुसरणेनात्रोधृतमप्रस्तुतमिति विवेकः । ३. दन्ताश्चाद्यन्ते नेनेति तदाशयः । पुसि संज्ञायां घः । ४. का० उ० सू० २।२। ५. का. जर सू० १॥४२॥ ६, का. उ० सू० २।३।। ७. का. सू. ४१६१६४] ८. का. 3- सू० १३ । ६. का० उ० सू० ४।६। १०. का. उ० सू० ४२“गृवा. हस्पमिदमिलूपूभ्यस्तः" इति पूर्ण सूत्रम् । ११. अत्र प्रमाणम्-'पाणिः शयः शमो इस्तः' इत्यमरमाला | "पञ्चशाखः शयः शमः" इति अभि चि. | १२. अस्यते समादम्यते इत्यर्थः । "अंस समाघाते' | अंम धातुक्षुरादिः । या "अम गती" श्रमति अभ्यते वा अंसः । श्रोणादिकः लन्प्रत्ययः । १३. अङ्गुल इत्यत्र "मकलः" का० उ० सू. ६।४८इत्यङ्गधातोरुलप्रत्ययः । अङ्गुलिशन्द नु "अङ्गायतिच्यामुलीथि' का. उ ३३०1 इत्युलिप्रत्ययः । नियामीः । अङ्गली इत्यपि । Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाममाला ५१ द्वौ मासिकायाम् । नासते शब्दायते नास्यतेऽनया वा नासा । नेस्ना च । निमत्यनेन ब्राणम् । क्लीने । सिवनी । नासिका । घोणा । उरो वक्षः द्वौ भुजमध्ये | अर्थते गम्यते उरः | "अतरुश्च" अस्मादसुन्प्रत्ययो भवति अस्य उरादेशो भवति । गती । अस्य धातोः प्रयोगः । वक्ति वाणी वक्षः। “वचे" सोऽन्तश्च" अत्मादसन् प्रत्ययो ५ भवति सोऽन्तः । प्रकार उच्चारणार्थः । इचवर्गस्य किः । " निमित्तादि" त्यादिना परवं च । कुक्षिः स्याजठरोदरम् । वयो जठरे । कुषति (कुष्णाति ) निष्कर्षत्याहार, कुक्षिः । पुसि | कुक्षम् । क्लीवे । बमति जठरम् । अथवा जट' सौत्रोऽयं धाः। उखादौ निपाताऽसि । उनान्स क्लेदपत्याशामुपरम् । एते उभयम् | पिचण्डम् । नुन्दम् । स्तनः पयोघरकुचौ वक्षोज इति वर्णितः ॥ १०२। चत्वारः कुक्षौ । स्तन्यते बालैः स्तनः । पयो धरतीति पयोधरः५० । कोचते स्त्री मृामाने त्र, कुच्यते मर्दनेन अाकुलीक्रियते वा कुचः । कूचश्च । वक्षसि जातो यक्षोजः । उरसिजः । पक्षीमहः । कटिनितम्ब श्रोणी च जपनंचत्वारः कटमाम् । कट्यने वस्त्रैराच्छाग्रते कटिः । कटी ! करः । करम् । नितरामतिशयेन लभ्यते काझ्यते "नितम्बः। श्राश्रीयते कामिभिः श्रोणः। नदादित्वादी थोणी । इदन्तोऽपि श्रोणिः । स्त्रियामीः । श्रोणी । इन्ति चित्तमिति जघनम् । "हनेर्जनश्च"। चकारात् काञ्चीपदम् । कलत्रम् । कात्रम् | जघनम् । ककुभती | आरोहः । करीरम् । त्रिकस्थानकम् । स्थानपदाभावेऽपि त्रिकम् । फलकं च । जानु जल च । द्वौ जानी । गन्तु बायते जानुः ।। ५ "कृवापाजिभिस्वदिसायशूटसनिजनिचरिचटिम्य उण्" । जहाति जहुः । अष्टीवान् । जङ्घा । चलनं चरणं पादं क्रमोऽहिश्च पदं विदुः ।। १०३ ।। १. "णास. शन्दे' । नास् धातुः । श्रच् धन वा । २. नेदमतोऽन्यत्र समुपलब्धम् । ३. अर्यने गम्यते बलेनैति शेषः । अथवा उरस बलार्थः कण्डवादिः । उरस्यति बलमाधत्ते उरः । किर । ४. का. उ. सू० ४।६७। ५. काउ०० ४।१२। ६. कान्सू. ३।६।५५। "चवर्यम्य किरसवर्ण" । इति पूर्ण सूत्रम | ७. का. सू० ३।८।२६॥ निमित्तात्प्रत्ययविकारागमस्थ: सः षत्वम्" इति पूर्ण सूत्रम् । ८. "कुष निष्कर्ष" "अशिकषिभ्यां सिक" का उ००६।५७४६. "स्तन गदी शब्दे" स्तनति कथयति यौवनोदयम् । स्तन्यते वर्ण्य ते कामुक| स्तन इत्यन्यत्र । १०. 'धरतीति धरः । पचायच् । पयसो धरः पयोधरः । इति बोध्यम् । टोकोक्तविग्रहे तु कर्मण्यणि पयोधार इति स्यात् । “११. तम्ब गतौ" नितम्बति गच्छतीति, निभृतं तम्यते कामुकैः निभृतं ताम्यति सुरतसम्म वा नितम्ब इति रामाश्रमः । १२. श्रूयते किङ्किणिवनिरत्र "श्रु श्रवणे' प्रोग्णादिको णिः । इति हेमचन्द्रः । ''श्रीण सड्याते" श्रोणति विविधशरीरावयवैः सङ्घातीभवतीति श्रीणिः । "सर्वधातुभ्य इन्" इति रामाश्रमः । १३. का. उ० सूत २।३७। १४. जायते ऽनेनाकुञ्चनादि जानुरिति हेमचन्द्रः १५. का. उसून १।। १६. नात्र कोषान्तरप्रमाणमुपलब्धम् । १७. यद्यपि जानोरध आगुरुकान्त जना, जवाजघनयोः सन्धिर्जानुरिति भेदः। तथापि बङ्घासामीप्याद् भेदाविवक्षया जानु यो बचेत्युक्तम् । तत्र भेदस्तु न विस्मत्तम्यः । Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमरकीतिविरचितभाष्योपेता पट् चरणे । चाल्यते चलनम्। चरत्यनेन बरणम् । 'पद्यतेऽनेन पादः । अत्र । दान्तोऽपि पाद् । 'कमु पादविक्षेपे । काम्यत्यनेनेति क्रमः । 'अहि गतौ । इदनुनन्धत्वानरागमः : अंडेत्यनेनेत्यं हिः । २ अंहेरिः" अंर्धातीरित्ययो भवति 1 अमिश्च । पद्यते पदम् । क्लीवे | शिरो मूर्वोत्तमाङ्ग कम्चत्वारो मस्तके । ऋ हिंसायाम् । शौर्यते हिंस्यते शिरः । उपिर जिश-या यावन्" एभ्योऽसन् प्रत्ययो भवति स च यण्वत् । तेनागुणः 1 अनुषङ्गलोपः । 'मूर्छा मोहसमुच्छावयाः । मूलत्वपाहताः पाणिनी मूर्धा । पूषादयः--'पूषन अर्थमन्मन्नन्नुक्षनद्वन्नीहन्मातरिश्वनक्लेदनस्नेहन्मुर्धन्यूपिन्' पंत कन्यन्ता निपात्यन्ते । उत्तमं च तद् अङ्गम् उसमाजम् । के गे शब्दे,। कास्तीति कम् । शीर्षम् । मस्तकः । "कन्या च नानार्थे । प्रारभ्यं प्रेरितेरितम् । त्रयः प्रेरणे । प्रारभ्यते प्रारभ्यम् । शाकिसहिपवर्गान्तान्च" य: प्रत्ययः । ईर गती कम्पने च । प्रर्वते प्रेरितम् । इरितम् । "नपुसके भान तः। साम्प्रतं सरस्वतीनामानि प्रारभ्यन्ते प्राचार्यश्रीमदमरकीर्तिना वाग्वचो वचनं वाणी भारती गीः सरस्वती ।। १०४ ॥ सम वाण्याम् | उन्यते वाक् । "वचिपचिनिश्रुनयां कि दीर्घश्च' एभ्यः कि.प प्रत्ययो ' भवति दीर्घश्चश्वरस्यैषाम् । बक्ति वचः । “सर्वधातुभ्योऽसन्" । उच्यते वचनम् । वाण्यते वाणिः" । नियामीः । वाणी । बिभर्ति जगद् धारयति, भरतो ब्रह्मा तस्येयं भारती । तथा ब "आत्मनि मोक्षे झाने वृत्तौ ताते च भरतराजस्य । ब्रह्मेति गीः प्रगीता न चापरो विद्यते ब्रह्मा ।" गीर्यते उच्चार्यते रान्तं गीः । सरः प्रसरणामरूस्याः सरस्वतीः । ब्राह्मी । तथाहि-- ''गौ!ः कामदुधा सम्यक् प्रयुका स्मयते बुधैः । दुष्पयुक्ता पुनर्गोवं प्रयोक्तः सव शंसति ॥' सिंहद्विपघने गर्ज:सिंहे कण्ठीरवे. द्विपे गजे, घने मेवे च गर्ज' शब्दः कथ्यते । गर्जनं गजः ! हेपाऽश्वे अश्वानां शब्दे हेषा । हेपणाम् । हेपा हो पा च । बृंहितं गजे । गजशब्दे वृहितम् । वहणम् । स्फीत्कृतं धेनुकलमे २० १. चलत्यनेनेति चलनमिति सुवचः। २, अत्राभिधान चिन्तामणिः प्रमाणम -"चरण: मणः पादः पदोऽहिश्चलनः क्रमः" । इति | २८०) ३. का० उ० सू० ४/५९। ४. का पू. २१५/ ५. अत्र प्रमाणान्तराभावः । वराङ्ग कमनोयाङ्गमिति वा स्यात् । ६. का.सू. ४।२।११। ७. का. उ०२.० २।२६। ८. उच्यते वच 'इति कर्मणि विग्रहो युक्तः । ९. का. उ० सू० ४।२६] .१०. "वण शब्द चुरादिः । ११. सिंहगलमेघध्वनौ गर्जशब्दः प्रयुज्यते । एवं वक्ष्यमाणतत्तद्ध्वनी सर्धन योज्यम् । Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाममाला धेनुकलभे शिशुबत्से स्फीकृतं' रफीत् शब्दः कथ्यते । स्तमितं जलदे तथा ॥ १०५ ।। जलदे मेघे मेघानां शब्द स्तनितं कथ्यते 1 स्तन्यते स्तनितम् । स्यन्दने चीत्कृतं मन्त्रे मटे च हुकतं तथा । स्यन्दने रथशब्दे चीत्कृतं पश्यते । मन्त्र भटे च हुशब्दः कथ्यते । हुँ मन्ने, हुं परिप्रश्ने ५ हुं सत्यं सुष्टु ते भयादो राक्षसोऽयम् | कुत्सने हुँ निलजा। अनिच्छायाम हुं हुं मुञ्च । सीत्कृतं मणितं कामेकामे कन्दर्पभोगप्रस्तावशब्द सीत्कृतं मणितम् । सीस्क्रियते सीकृतम् । मण्यते मणितम् । खनकनं शृङ्खलायुधे ॥ १०६॥ शृङ्खलाऽयुधे खन्कृतम् । सुगमम् । मञ्जीरकं तुलाकोटिन पुरंत्रयः स्त्रीणां घरणाभरणे । मञ्जिः सँ.त्रः । मञ्जत्याकति चितं मञ्जीरम् । अथवा मञ्ज मधुरमीरयति मञ्जीरन् । तुलाकृतेर्जवाया कोरिरिव तुलाकोदिः । स्रोगति नौतीति नूपुरम् । शिञ्जिनी । पादकटकः । हंसकम् | पदाङ्गदम् । कलापी नानार्थे । तत्र संमृतम् । तत्र तस्मिन् मञ्जीरके तच्छब्दे संसृतं कथ्यते । झाङ्कतं चाथ मरुतिमरुत्ति वायो तच्छन्दै झाकृतं कश्यते । क्रेतं क्रौञ्चहंसयोः ।। १०७ ।। क्रौञ्चश्व हंसश्च कोजहंसौं तयोः क्रौञ्चसयोः केतशब्दो मतः कथितः । तथा" चामरसिंहः- २० "निषादर्षभगान्धारषड्जमध्यमधेवताः। पञ्चमश्चेत्यमी सप्त तन्त्रीकण्ठोत्थिताः स्वराः ॥ तथा च भरतनाटके - ६"षड्ज मयूग जबते गावस्त्यूपममाषिणः । भाजाविकं तु गान्धार कौश्चः कणति मध्यमम् ।। पुष्पसाधारणे काले पिकः कूजति पश्चमम् । धंवतं हेषते बाजी निषादं बृहते गजः ।। नासाकण्ठमुरस्तालुजिह्वादन्तांश्च संस्पृशन् । षड्भ्यः संजायते यस्मात्तस्मात्षड्ज इति स्मृतः ।।'' १. नवप्रसूता गौ धेनुः त्रिंशब्दो हस्तिशाक्कः फलभस्तयोः शब्दः सीकृतमुच्यते इति शब्दार्थः । टीकास्वारस्यन्नु गोवत्सशब्द: स्फीकृतमित्येव प्रतिभाति । अत्र कोशान्तरप्रमाणाभावाल्कविप्रयोगादर्शनाच मृलशब्दार्थाऽनुसरणमेव शरणम् | २. तुलां तुलया वा कोश्यति । कुट प्रतापने चुरादिः । अच इ. 1 यद्वा तुलाकारः कोटिरममस्येति समाश्रमः । ३. नुवनं नूयते वा नः । णू स्तवने । किम् । नुवि पुरति नूपुरम् । पुर अग्रगमने। इगुपधेति कः । ४. शब्दभेदप्रसङ्गाद् ग्रन्थान्तरोक्तमन्यशब्दभेद स्वरभेदं च ।। ५. प्रम० को १।११। ६.. "पज" इत्यारण्य "इति स्तः" इत्यन्तः "तथा च भरतनाटक इत्येवं टीकायामुपन्यस्तः पायः "निषादर्षभगान्धार” इति दीरस्वामिभाष्येऽमरेऽविकल उपलभ्यते । Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ अमरकीतिविरचितभाष्यापेता प्रतीतं संस्तुतं लब्धं दृष्टं परिचितं स्मृतम् । ट् स्नृते । प्रतीयते प्रतीतम् । ष्टुञ् स्तुती। ष्टु । "धात्वादेः पः सः। स्तुः सम्पूर्वः । सम्यकप्रकारेण स्तूयते स्म संस्तुतम् । लभ्यते स्म लब्धम् । परिचीयते स्म परिचितम् । स्मर्यते स्म स्मृतम् । संस्थितं दामीस्थं च परामं च मनं विद्धः ॥१.८ ॥ चत्वारो मृते । संतिष्ठते स्म संस्थितः । सम्पूर्वकस्तितिः । दशमी तिधतीति दशमोस्थः । तथा च--- "प्रथमे जायते चिन्ता द्वितीये द्रष्टुमिच्छति । तृतीये दीर्घनिःश्वासश्चतुथें भजते ज्वरम् ।। पञ्चमे दह्यते गात्रं षष्ठ भुक्तं न रोचते । सप्तमे स्यान्महामूर्बी उन्मत्तत्वमथाष्टमे ।। नवमे प्राणसन्देहो दशमे मुच्यते सुभिः । पतंवर्गः समाक्रान्तो जीवस्तत्त्वं न पश्यति ।।" दशानां पूरणी दशमी तत्र तिष्ठतीति वा दशमीस्थः । परागता प्रसवोऽस्य परासुः । म्रियते रम मृतं विदुः कथयन्ति । खेदो द्वेषोऽप्यमर्षश्च रुटकोपक्रोधमन्यवः । सात क्रोधे । खिद परिवाते । जुदादी खिन्दति । देन्ये धादिपाठात् खिन्ते (ततः खेदनं ) 'खेदः । भाने घञ्प्रत्ययः । द्विष् श्वप्रीतौ श्रदादौ । वेपणं घेषः । भूप तितिक्षायाम् । चुरादौ । शक भृष क्षमायाम् । दिवादी विभाषितः । भृषु सहने म्वादौ परस्मैपदी । अमर्षणम् अमर्षः। कुच क्रुध रुप रोपे । रोषणं रुट । सम्पदादित्वाइवे क्षिप् । कोपनं कोषः। क्रोध क्रोधः । मन ज्ञाने । मन्यते २ मम्युः। " जनिमनिदसिभ्यो युः" । एभ्यो युप्रत्ययो भवति । उणादित्वाद्योरनादशो न भवति । हर्पः प्रमोदः प्रमदो मुक्तोषानन्दमुत्सवः ॥१०६॥ सप्त इर्षे । हर्षणं हर्षः । प्रहर्षश्व | प्रमोदनं प्रमोवः । भदी हर्षे 1 प्रमदनं प्रमदः । मदः प्रसमोहमें" प्रसमोरुपपदयोर्मदेरल भवति इषार्थ । मोदनं मुद्दान्तः स्त्रियाम् । तु तुष्टौ । तोपरणं तोषः । श्रानन्दनम् अानन्दः । पुसि | टुनदि समुद्धौ । उत्सवनम् उत्सवः । प्रीतिः । उत्कर्षः । उपधः । कृपाऽनुकम्पानुक्रोशोऽहन्तोक्ति : करुणा दया । षड् दयायाम । ऋप कृपायाम् | पणं कृपा । पानुबन्धभिदादिभ्योऽन्" इत्यङ् । "कपः । सम्प्रसारणम्' इति परसूत्रेणा सम्प्रसारणं च | स्वमने क्रप कृपायम् इति ज्ञापकात् सम्प्रसारणम | "स्त्रियामादा ।" अनुकम्पनमनुकम्पा । अनुक्रोशनत्यनेन अनुक्रोशः । पुंसि | न हन्तोक्तिः अहन्तोक्तिः । करोति विषादं चित्तं किरति बा करुणा । उगादौ इकन करो । क्रियते करुणा । "ऋक्तवृदमिद ये १५ २० १ द्वेषपयाँये स्वेदपाठश्चिन्तनीयः । वेदपर्यायत्तु 'शोकः शुक शौचनं खदः' इति अभि. चि० । क्रोधपर्यायस्तु-"कोपक्रोधा मर्परोषप्रतिधा रुटकुधौ स्त्रियों" इत्यमरः । २. मन्यते त्याज्यत्वेनेति शेषः । ३. का. उ० सू० ४।११ ४. का सू० ४५/४४। ५. उद्धवशब्दस्योत्सवाथे प्रमाणम्"उद्धधी यादबनिदि महें च क्रतुपावके'। इति मेदि को वा० ० ३२ श्लोर । ६ का मू. ४।५।८। “३. सम्प्रसारणं च" पागण सू० ३।३।१०४। ८. कातन्त्रमतामत्र खमतम् । पाणिन्यादि. मूत्रं परमतम् । ५. कार उ. सू.० २।६०। Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाममाला बिभ्य उनः" एभ्य उनः प्रत्ययो भवति । दयनं दया | दय दानगतिहिंसादानेषु । भिदायङ् । शेमुषी धिषणा प्रज्ञा मनीषा धीस्तथाऽशयः ॥ ११०।। षड् दी। शे इत्यव्ययम् । मोहः। नं मुष्णाति शमयति इति शेमुषो' । घृष्णोत्यनया धिषणा | प्रशानं प्रशा' | मनुते जानात्य मया मनीषा। मनस ईषा मनीषा वा। "हल लाङ्गलयोरीषे मनसश्च" इत्यनेन अत्यस्वरादेलोपः । छात्र सलोपश्च । चकाराधिकाराल्लोकोपचाराद्वा सलोपः । ५ स्मृध्ये चिन्तायाम् । ध्यानं धीः" | सम्पदादित्वादाने किम् । 'ध्यायोः सम्प्रसारणम्""अनेनैव सम्प्रसारणं दीव च । प्र. मिः | रेफसोर्विसनीयः" । आशेने तिष्ठति सर्वमन्नाशयः । तथा-प्रेक्षा । प्रतिभा। बुद्धिः । मतिः । मेधा । संख्या । संवित्तिः । उपलब्धिः ।। प्राज्ञमेघाविनौ विद्वानभिरूपो विचक्षणः । पण्डितः मूरिराचार्यों वाग्मी नैयायिकः स्मृतः ।। १११ ।। दश विदुषि । प्रधानाताति प्रज्ञः । प्रशादित्वादण प्रामः । भेधास्त्यस्य मेधाधी । “माया. मेघाजी किर" वानिक एवं जिन विनि ; शेपे यो मरिष्यते । मतिमान् । बुद्धिमान् | बिद ज्ञाने । विद । वेत्ति जानातीति विद्वान् । वर्तमान शत शतृट् । 'अन्यिः" अदादि १२ । “यत्त : ३ शतुर्वसुः" । शतृनः स्थाने वसुः । तदादेशास्तन्नद्रवन्ति इति वचनात् बसोः शन्ड्वद्भावेन सावधातुकत्वात् “ीण धयेसै कस्वरातामिड्वसौ अनेने कस्वरत्वात्मात इट् न भवति । विद्वन् संजातम् । १५ "सिः। 'सान्तमहतोनोंपधायाः" दीर्घः । विदुषोऽपि । अभिगतं रूपं येनाभिरूपः । रूपं विद्या । "कोकिलानां स्वरो रूप नारीरूपं पतिव्रता। विद्या रूपं कुरूपाणां क्षमा रूपं तपस्विनाम् ।" नक्ष धातुर्विपूर्वः । विविधं चष्टे विचक्षणः । नन्दादेयुः। योरनः। १६२ णत्वम् । विचक्षणो विद्वान् इत्यनेन विचक्षण इति निपातः । निपातस्य फलं ख्यादेशो न भवति । पण्डा बुद्धिः । २० पण्डा संबाताऽस्येति पण्डितः । '"तारकिवादिदर्शनासंजातेऽर्थे इतच् ।" " "वयाविर्ण" आकारलोपः । सि:। रेफः । छु प्राणिगर्भविभौचने । सूते बुद्धि मूरिः । १' भूस्वादिभ्यः क्रिः'' एभ्यः क्रिप्रत्ययो भवति । को यावदर्थः । दे आचर्यते श्राचार्यः। "चरेराठि चागुरौ' । तथा चोक्तम् - १न्द्र नन्दिनीतिशास्त्र “पचाचाररतो नित्यं मूलाचारविदग्रणीः । चतुर्वणस्य सङ्घस्य यः स प्राचार्य इष्यते ॥' १. शेते इति शेर्मोहः । विच् । तम्मुष्पातीति, मूलविभुजादित्वात्कः । गौरादिकान् । शमेः यसी एत्वाऽभ्यासलोपे उगितश्चेति कीपि शशामेति शेमुपीति दी स्वा० । २. "धिष शब्द"। देधेटीति । ही स्वा० । ३. प्रज्ञायतेऽनयेत्यन्यत्र । १. का. रू. पूर्वा० २८ सू०। ५. च्यायतेऽनया धीरित्यन्यत्र । ६. "सम्पदादिभ्यः विप" का. रू. उ० ८०५ ० | . का. रू मा० ६५८ सू० । ८. का. पू. ३.३१६३। ६. का० सू० २।६।१३। अत्र दुर्गवृत्तिः । १८, "वर्तमान शन्तृहानशावप्रथमैक्राधिकरणामन्त्रितयोः" । का० सूर ४।४।। ११. "अन्विकरणः कर्तरि" का० सू.. 11३२॥ १२. "प्रदादेलुमिकरणास्य" का० सू० ३४.९२। ५३. 'शन्तुर्वसुः" । का. सू !४|४| १४. का सू० ४।६१७६ | २५. का० सू० २।२।१८।१६. का. सू. २।४/४८। १७. ० रु. पू० ५०८ । १८. का सू० २।६।४४) १६. का० उ० सू० ३।५३ । २०. का. सू. ४।२।१४२१. नाहिसा. १५ श्लोक Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमरकीतिविरचितभाष्योपेता प्रशस्ता बागस्त्यम्य याग्मी। न्याये बिचारे नियुक्तो नैयायिकः । धीरः । लब्धवणः । विपश्चित् । वृद्धः । श्रामरूपः । सन् । मनीषी । शः । दोषज्ञः । कोविदः । प्रबुद्धः । सुधीः । कृती । कृधि । फधिः । ब्यक्तः । विशारदः । संशावान् । मतिमान् । पारिपद्यो बुधः सभ्यः सदः संसत्सभोचितः । षट् सभापुरुपे । परिषदि सभायां भवः पारिषद्यः । यण् । बुध अवगमने । चोधतीति बुधः ! सभायां साधुः सभ्यः 1 कुशलो योग्यो हितश्च साधुरच्यते । सदसि उचितो योग्यः सदउचितः । संसदुचितः, सभोचितः । सभासद् । सभास्तारः । सामाजिकः । परिषत्सभाऽस्थानपती--- प्रयः सभायाम् । परिषीदन्त्यस्यां परिषद् । सह भान्त्यस्यां सभा । अासमन्तात्स्थीयते १. स्मिन् आस्थानम् । (अधिपति राजा) पतिः-आस्थान सभा इत्यादिपर्यायनामतोऽधिपतिः पतिरित्यादिपर्याय शब्दपु सत्सु राज्ञो नामानि भवन्ति । परिषदधिपतिः। परिषत्यतिः । समाधिपतिः । सभापतिः । अास्थानाधिपतिः । श्रास्थानपतिः । राजसूयो नृपक्रतुः ॥ ११२ ।। मण्डलेश्वरग्रजायां (प्रयाजे ) द्रौ। पुत्र अभिषन्ने । पु | 'धात्रा' सः । राजन् पूर्वः १५ राज्ञा सोतन्यो राज्ञा सूयते वा यस्मिन्निति राजसूयः । राजसूयश्च"। घ्यणप्रत्ययान्तो निपातः । गृपाणां राज्ञां ऋतु: नृपक्रतुः। तथा च "स्मृती-- "गोसवे सुरभि हन्याद्राजसूये तु भूभुजम् । अश्वमेधे हयं हन्यात पौण्डरीके घ दन्तिनम् ॥" विष्टरं मल्लिकापीटमासन्दीमासनं विन्दुः । पड़ासने । स्तुत्र अाच्छादने । विपूर्यः । विस्तरणं विष्ठरः । "स्वर वृदृगमिनहाभल ।'' अल । नान्यन्तगुणः । वौस्तुणतेः" । संज्ञायां सस्य चत्वम् । “तवर्गस्य प्रवाहवर्गः 1" मल्ल्यते धार्यते मल्लिका | पेठतीति पीठम् । “पृषोदरादित्वादीर्घः । श्रा समन्तात्सीदति तिष्ठत्यस्यामासन्दी । श्रास्यते १. अत्र प्रमाणम् अभि० चि० ३।५। “विद्वान् सुधीः कविधिचक्षणलब्धवर्णा शः प्रारूपकृतिकृष्टयभिरूपधीराः । मेधाविकोविद विशारदसूरिंदीपज्ञाः प्राज्ञरण्डितमनीषिबुधप्रबुद्धाः ॥ व्यतो विपश्चित्सङ्ख्यावान् सन् ' इति । २. "अधिपतो राजा' इति प्रतीकमाश्रित्य व्याख्यादर्शनादयं मूलपद्यांश इति, न भ्रमितव्यम् । पूर्वापरपादयोर्मध्ये तत्समावेशासम्भवात् प्रहारत्वन स्वतन्त्रपादत्वा भावात्। अत्र राजवर्णनस्याप्रसरत्वाच । एवं च सभाप्रसङ्गेन तदधिपते राजव्यपदेशार्थ-टीकाक्नुधिशेपवचनमित्येय युहं नाति । ३. का० सू० ३1८।२४i ४. का० सू० ४।२।४।। ५. ' स्मृती" इत्युक्तम् । परमविकलः श्लोको बशस्तिलके आ. ' कर ३० श्लो० ३ उपलभ्यते । ६. का. सू० ४५ ४१ । ७. का सू... ३८५। ८. शा० सू. २।२।१२।६. "यास उपवेशने" । अब्दायः” पा० उ० सू . ४i६८। इति दप्रयो भवति, अमागमष्टिव च । टित्त्वान्यो । तथा चोक्तम्--"स्याद् देत्रासनमासन्दी' पूक्ति ३६३४८ । अभिचि। Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाममाला उपविश्यते ऽस्मिन्नासनम् । “१कृत्ययुटोन्यत्रापि च" युट् । विदुः कथयन्ति । विष्टपं भुवनं लोको जगत्___ चत्वारो जाति । 'विष्टपस्यत्र विष्टपम्' | भूतानि भवन्त्यस्माद्भुवनम् । लोक्यने लोकः । गच्छत्तीत्येवंशीलं जगत् । “ द्युतिगमौ₹ च' स्विम् । गमो द्विचनम् । अभ्यासमकारलोपः । '"कवर्गभ्य चवर्गः' गस्य जः । न गम् जातम् । पञ्चमी''। दीर्घः । *यममनतनगमां कौ" पश्चमलोपः। ५ श्रात् अत् । धातोत्तोऽन्तः पानुबन्धे' तोऽन्तः । वेलोपः । सिः । नपुसकम् । तस्य पतिर्जिनः ॥ ११३ ।। तस्य भुवनस्य पतिर्जिनः कथ्यते । अनेकभक्गइनव्यसनप्रापणहेतून कर्मारातीन जयतीति जिनः। ५नशविकृषिभ्यो ना" | विष्टपपतिः । लोकपतिः । जगतिः । इत्यादीनि जिनस्य पर्यायनामानिशातव्यानि । वर्षीयान् वृषभो ज्यायान् पुरुरायः प्रजापतिः । ऐल्यातुः (कः) काश्यपो ब्रमा गौतमो नाभिजोऽग्रजः ॥११४।। द्वादश वृषभे । अतिशयेन वृद्धो वर्षीयान् । “१ प्रियस्थिरम्झिरोमबहुलगुरुवृद्ध प्रदीर्घवृन्दारकाणा प्रस्थसावहिगर्षित्रदाधिवृन्दाः"। वृपेण अहिंसालक्षणोपेतधर्मेण भातीति वृषभः । "ऋषिवृषिभ्यो यण्वत्" | आभ्यामभा प्रत्ययो भवति स च षण्वत् । अयमेषां मध्ये प्रकृष्टो १५ वृद्धः यशस्यो वा ज्यायान् । “वृद्धस्य ४ च ज्यः" वृद्धशब्दस्य ज्यादशो भवति । पृ पालनपूरणयोः । प्रणाति पाल यतीति पुरुः । ०1"इषिषिभिदिधि दिपन्य कुः" एभ्य: कुप्रत्ययो भवति। अस्मिन्नहनि अद्य । इदमोदायी यश्च परविधिः "सद्योऽद्या' निपात्यन्ते' इति वचनात् । (श्रादौ भव आद्यः) प्रजानाम् इन्द्रधरणेन्द्रचक्रयादीनां पतिः स्वामी प्रजापतिः । इपु इच्छायाम् । वाश्यते लोकैः पेक्षवाकः । तथा चा महापुराणे "अनाच तदेक्षणा रससंग्रहणे नृणाम् । इक्ष्वाकुरित्यभूदेवो जगतामभिसम्मतः ॥" काश्य क्षत्रियतेजः पातीति काश्यपः । तथा च महापुराणे-- "काश्यमित्युच्यते तेजः काश्यपस्तस्य पालनात ।' बृहतीति ब्रह्मा। १. का. सू० ४।५।१२। २. "टप स्ता प्रतिपाते" अम० को क्षी० स्वा० भाष्य एवोपलभ्यते. न तु पाणिनिधातुपाठे । ३. विशन्त्यति रामाश्रमः | विशन्त्यस्मिन् जीवाजीवा इति हेमचन्द्रः । ४. काय मू० ४॥४४८1५. का० सू० ३।३।१३ । ६. का. सू. ४।१५५/. का. सू० ।१।६९/८. का सू. ४।१।३०। ९. का० सू० ४११३४!" वेलोपोऽयुक्तस्य" इति पूर्ण सूत्रम् । १२. का. उ. सू. २।५११ ११. पा०सू० ६।४।१५७/ १२. तृषेण भातीति बिग्रहे श्रातोऽनुपसर्गे कः | भा दोती । वर्षति धर्मामृतमित्ति विग्रहे "ऋपिवृषिभ्यां यण्वत्" इत्यभः । "वृषु सेचने" । १३. का.उ. सू० ३.१३ । १४. हे ००० ७/४/५. ३ १५.का. उ० स० १।१०। १६. अत्र अाग्रशन्दो न वद्मशब्दः । तेनादी भव आद्य इति युनः प्रतिभाति । १७. का० स. २।६।३७५ १८. इसूणाम् श्रा ( रसापकर्पणम् ) अतीति इक्ष्वाकुः । तत ऐक्ष्वाकः । तत्र प्रमाणामार-"अङ्कनाच्चेति' सङ्गतिः ! Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमरकीर्तिविरचितभाध्योपेता "आत्मनि मोक्षे ज्ञाने वृत्ती ताते च भरतरराजस्य । ब्रह्मेति गीः प्रगीता न चापरो विद्यते ब्रह्मा ।।" अतः परो बला नास्ति | गौतमो गोत्रोक्ताराद गौतमः । श्रा महापुराणे--- "गौ: स्वगः स प्रकृष्टात्मा गोतमोऽभिमतः सताम् । स तस्मादागतो देवो गौतमश्रुतिमन्वभूत् ।।" नाभेतो नाभिजः । अग्रे जाताऽग्रजः । अदृष्टत्वात् । सन्मति हनिर्वाहारोबार शसः : नाथान्वयो वर्धमानो यत्तीर्थमिह साम्प्रतम् ॥ ११५ ॥ सती समोचीना मतिर्यस्य स सन्मतिः । महापुराणे "तत्सन्देहे गते ताभ्यां चरणाभ्यां च भक्तितः। अस्तावि सन्मतिर्देवो भात्रीति समुदाकृतः ।।" (मझते पूज्यते इति महतिः ) । महसी पूजा यस्य स महतिः । विशिशम् इन्द्राद्यसन्भाविनीम् ईम् अन्तरङ्गी समत्रसरणानन्तचतुष्टयलक्षणां लक्ष्मी रात्यादत्त इति वीरः। वीर इति नाम कस्माज्जातम् ? जन्माभिषेके चालवुशरीरदर्शनादाशङ्कितवृत्तै रिन्द्रस्य सामर्थ्यख्यापनार्थे पादाङ्गुठेन मेहसंचालनादिन्द्रेण ५५वीरनाम कृतन् । महाश्चासौ वीरः महावीरः । तथा च धृहत्प्रतिक्रमणभाष्ये ___ "कुमारकाले श्रामलकीकीखायां क्रीडतः सङ्गमदेवेन विमानस्खलनाद्भगवत्पो (मोदनाथ महाफमाटोपोपेतं भयानकं सर्परूप विकृत्य वृक्षो वेष्टितः । भगवाँस्तस्मान्मस्तकादिपादन्यासं कुत्रा वृक्षादुत्तीर्णः । ततस्तेन महायीर इति नाम कृतम् ।” अन्त्यं काश्यं तेजः पातीति अन्त्यकाश्यपः । ततः परस्तीर्थकरो नास्ति । नाथोऽन्वयो यस्य स नाथान्ययः । तथा च"चत्वारः पुरुवंशजा जिनवृषा धर्मादयस्ते पुन मिश्रीमुनिसुव्रतो हरिकुले वीरोऽथ नाथान्वये ।। शेयाः सप्तदशाधिका जिनवरा इक्ष्वाकुवंशोद्भवाः प्रोद्यमोह विनाशकनिपुणाः सङ्घस्य सन्तु श्रिये ।।" अब समन्ताद् ऋद्ध परमातिशवप्राप्त मानं केवलज्ञानं पत्यासौ वर्धमानः | २५ "वष्टिभागुरिरल्लोपमवाप्योरुपसर्गयोः। आपं चंब हलन्ताना यथा वाचा निशा दिशा ।।' इल्यवशब्दस्याकारलोपः । तथा ऋषिश्च प्रत्यक्षवेदी–भगवतो हि गर्भाक्तारपदी पित्रेन्द्रादिविनिर्मिता विशिष्टां पूजां रत्नवृष्टि स्वत्य च ऋद्धिवृदयादिकं दृष्ट्वा वर्धमान इति नाम कृतम् । इह अस्मिन् 'पञ्चमकाले यस्य तीर्थे यत्तीर्थम् साम्प्रतम् अधुना वर्तते । सर्वज्ञो वीतरागोऽहन केवली धर्मचक्रभृत् । तीर्थङ्करस्तीर्थकरस्तीर्थकृहिव्यवाक्पतिः ।। ११६ ।। नव जिनेन्द्र । ज्ञा अवबोधने । ज्ञा । सर्वशः । सर्वे नानाति वेत्तति सर्वज्ञः । “श्रातो ऽनुपसल्कः" अप्रत्ययः । “कर यण्वच्च योक्तवर्जम्' इति यद्भावात् आलोपः । विशिष्टा ई ता प्रति इतः प्राप्ती रागो यस्य स वीतरागः । अरिइननादत्रोहनन (स्या) भावाच्च परिप्राप्तानन्तचतुष्ट्रयस्वरूपः सन् इन्द्रनिर्मिता - . १. कान लू० ४।३।४। २. का० सू० ४११७/ . .. -: Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाममाला मतिशयवती पूजामई ताति म पनि जानादिगनु दिन यति वाऽहं न । त्रिकाल केवलज्ञानमत्यस्य केवली । जिनधर्मचक्र सहस्रारयुक्त तीर्यकृदने निराधारतया विहारकाले गगने गच्छत् सर्घजीवदयासूचक रत्नमयमायुधविशेष निति तद्वाऽनुभवतीति धर्मचक्रभृत् । सीओं द्वादशाङ्गशाम्नं करोतीति सीर्थङ्करः । तीयें करोतीति तीर्थकृत् । दिव्यवाचाम्पतिः दिन्यवाक्पतिः । तथा चोक्तः "यत्सर्वात्महित न वर्णसहित न स्पन्दितोटद्वयं नो वाग्छाकलितं न दोषमलनं न श्वासमक्रमम् । शान्तामविष समं पशुगणः संकर्णितं करिणभि स्तदः सर्वविदः प्रनष्टविपदः पायादपूर्व वचः ॥" चेलं निवसनं कासवीरमम्बरमंशुकम् ।। घड वस्त्रे । चिल्यते त्रस्मनेऽनेन चेलं चैलं च । निवसत्यनेन निवसनं, विक्सनं, वस्न च। वस्थतेऽनेना वासः| सान्तम् । चिनोति उपार्जयति सारतां चीरम् , चीवरं च । अम्बतें गच्छति शोभामनेन अम्बरम् । उभयम् । अंशून् कारयति अंशुकम् । क्लीबे । कर्मटम् । पाच्छादनम् । वस्त्रम् । सिंचयः। परः, पटम्, पटी । पोतः । प्रावरः । प्रावारः । संध्यानं च।। वस्त्राद्यन्तः दिगागादिसंज्ञितो वृषभेश्वरः । वस्त्रादयः वस्त्रयांया अन्ते दिगादयो दिपर्याया आदी यस्य तत्संछितो वृषभेश्वरः । वस्त्रादिक १५ नाम अन्तै दिगादिकं नाम श्रादौ वया–दिक्चेलः । दिग्यासाः । दिग्वसनः । दिगम्बरः । दिगंशुकः । दिग्वस्त्रः । काष्ठाचेलः । काठानिवसनः। काष्ठावासाः । काष्ठाचीरः । काष्टाम्बरः । काठांशुकः । काष्ठावनः। ककुचेलः । ककुन्निवसनः । ककुब्वासाः । ककु-चीर । ककुबबरः । ककुवंशुकः । ककुत्रः । पाशाचेलः । आशानित्रसनः। प्राशावासाः। श्राशाचीरः । आशाम्बरः । आशांशुकः । श्राशावनः । दनकन्याचेलः । दक्षकन्यावासाः । दक्षकन्याचीरः । दक्षकन्याम्बरः । दक्षकन्यांशुक्रः । दक्षकन्यावस्त्रः । हरिचेलः 1 हरिन्नि- २ बसनः । हरिद्वासाः। हरिचौरः । हरिदम्बर: । हरिदंशुकः । हरिद्वस्त्रः। इत्यादीनि वृषभेश्वरनामानि शातव्यानि । कुङ्कुमं रुधिरं रक्तम्त्रयः कुङ्कुमे । काम्यते जनैः कुङ्कमम् । रुघिर आवरणे । रुणद्धि कधिरम् । “तिमिधिभन्दिधिरुचिशुषिभ्यः किरः" । रज्यतेऽनेन रक्तम् । कस्तूरी मृगनाभिजम् ।। ११७ ।। द्वौ मृगमदे । के स्तूयते कस्तूरी' । मृगनामेजर्जातम् मृगनाभिजम् । मृगनाभीजं च । करं घनसारं च हिम सेवेत पुण्यवान | कृपू सामर्थे । कल्पते कर्पूरः । "कृपेरप्रत्ययः । "नान्यसगुणः ।" "कृपे रोलः' कथन, १. कुक्यते आदीयते कुडकुमम । कुक आदाने । "कुदकुकोनु म च" भो० उ० प्रति उमके प्रत्ययो नुमागमश्च । इति रामाश्रमः | कुं कौतीति क्षीरत्वामी । २. का. 3०१।२३। ३. तथा चोक्तममेदिताम् ता. ६० श्लोक ४६ | "रक्तोऽनुरक्ते नील्यादि रञ्जिते लोहित त्रिपु । क्लीबन्तु कुमे ताने प्राचोनामलके सजि" । इति । ४. के शिरसि स्तूयते प्रशस्तधार्यत्वेन मन्यते इत्यर्थः । विकति मोगध्यमस्था इति क्षी० स्वा । "कस गतौ" कसति गच्छति गन्धोऽल्या इति रामाश्चमः । "श्चर्जविजादिन्य उरीलचौ" 1 पा उ. ४।१०। इत्यमरः । पृषोदरादिस्यात्तुट, गौरादित्वान्छीम् च । ५. “खर्जिपिमसिपिझा. दिभ्य उरोलो" इति का. उ० ३।६।। ६. नाम्यन्तयोर्धातुविकरणयोगुणः" का० स० ३।५।१ । ७. का. मू० ३।६।९७ Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० अमरकीर्तिविरचितभाष्योपेता .. सत्यम् । उणादयो हि बहुलम्, तेन चित्प्रवृत्तिः क्वचिदप्रवृत्तिः कचिद्विभाषा क्वचिदन्यदेव । विधेविधानं बहुधा समीक्ष्य चतुर्विधं बाहुलकं बदन्ति ।।" घनस्येव सारोऽस्य घनसारः । हिं गतौ । दिनोतीति हिमम् । इन्धियुधिश्याभूहिन्यो ५ मक्" । चन्द्रसंज्ञः । सिताभ्रः । हिमवालुकः । - समालम्भोऽङ्गरागश्च प्रसाधनविलेपनम् ।। ११८ ।। चत्वारी रागे । सन्या प्रकारेरणालभ्यते "समालम्भः । अस्प रागोऽङ्गरागः । प्रकर्येण साध्यते माड्यते प्रसाधनम् । विलिप्यते विलेपनम् । भूषणाभरणं रुच्यम्घर याभरणे । तसि भूष अलङ्कारे । भूष्यने मण्ड्यतेऽनेन भूषणम् । अा समन्ताद् भ्रियते शोभा धार्य रोऽनेन श्राभरणम् । रोचते रुच्यम् । अलङ्कारः। परिष्कारः । मण्डनन् । माल्यं मालागुणस्रजः । चत्वारः पुष्पमालायाम् । मालैय माल्यम्। चातुर्वणादित्वालया | माल्यते घार्य ते माला। अथवा मा लान्ति पुण्याण्यत्र माला । श्रियाम् । गुणतीति गुणः । "नाम्युपधप्रीकगा* :"। सूज्यते १५ सक् । “अरिष दधृक्सगिति" साधुः । मेखला रसना काञ्ची। प्रयः काञ्च्याम । मेहनस्य खं तस्य मा लालीति निरुक्तिः। मिनोति प्रक्षिपति कामिचिसमिति वा मेखला । रसति शब्दं करोतीति रसना । रस कान्तौ (शब्दे ) सौत्रोऽयं धातुः । श्रोणी शोभा कचति( काचते ) बध्नातोति काञ्चिः । स्त्रियामीः । काञ्ची । तप्तकी । कलापः । करिमूत्रम् । सारसनम् । २० शिञ्जिनी' च । हेमपर्यायसूत्रकम् ॥ ११६ ॥ हेमसाब्दात्सूत्रशब्दे प्रयुज्यमाने मेखलापर्यायनामानि भवन्ति । हेमसूत्रम् | अापदसूत्रम् । स्वर्णसूत्रम् । कनकसूत्रम् | अर्जुनसूत्रम् । काञ्चनसूत्रम् । हिरण्यसूत्रन । जातरूपसूत्रम् | शातकुम्भसूत्रम् । हाटकसूत्रम् । कलधौतसूत्रम् । तपनीयसूत्रम् । कार्तस्वरसूत्रम् । इत्यादीनि ज्ञातव्यानि । श्रोणीबिम्ब कटीसूत्रं मानसूत्रमिवाहितम् । त्रयः पट्टसूत्रे । श्रीष्पाः कयाः बिम्ब प्रच्छादकं श्रोणोविम्यम् । कर्टी सूत्रयति वेष्टयनीति १. शा.सू. १६३।१४९॥ श्रन कारिकारूण पठितः । २. दिनोति गच्छनीत्यर्थः । कपूरस्याशूल्पतनस्वभावात् । इन्ति श्रौष्ठ्यमिति रामाश्रमः । ३. का. उ० ११५५। ४. आलभ्यते विलियते इत्यर्थः । ५. का सू०४॥२॥५१॥ ६. का०सू० ४।३।७३। ७. मखं गति लातीति पृपोदरादित्वान्मेखलेति रामाश्रमः | मुहुः स्खलतीति हेमचन्द्रः । मीयते प्रक्षिप्यते इति क्षीस्त्रा | "मित्रः खलच्चैच" २६३११७! सर० के० । ८. अश्नुते कटिम,अश्नाति कामिचित्तं वेति रामाश्रमहेमचन्द्रौ । ' अरोरथ" इति यूरशादेशश्च । १. काचि दीप्तिबन्धनयो"। "सर्वधातुल्य इन्' । १५. शिञ्जिनी नूपुरम् । मेखलापर्याये तत्पाठोऽयुक्तः । तदुक्तम्"नूपुरन्तु तुलाकोटिः पादत' कटकालदे। मीर हंसकं शिखिनी,-अभिः चि ३।३३० Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाममाला कटीसत्रम् । मानं प्रमाणीभूतं सूत्रयतीति मानसूत्रम् । केचिद् रागसूत्रं पठन्ति पट्टसूत्र' च | मदिरां मधमेरेयं शीधु कादम्बरीमिराम् ।। १२० ॥ प्रसन्नां वारुणीं हालां मधुबारां सुरां विदुः । एकादश मद्ये । माद्यत्यनथा मदिरा । मधिष्टा च | मयतेऽनेन मद्यम् । “यमिकदिगदा स्वनुपसर्गे'। इरायां ग्रामसीमायाम साधु घेरेयम् । शेरतेऽनेन शीधुः । "शीडो धुक्" । शीपो(धौ)रित्येके ५ पठितत्वात् शोधुप्रवृतेः क इति व्याख्यत् । अथवा पीतेऽत्र जनः शेते शी। उभयम् । तालव्यः । कुत्सितं मीलमम्बरं यस्य स कदम्बरो बलदेवः । तस्येयं प्रिया कादम्बरी । कुत्सितमन्वते याल्पनया या कादम्बरी । एति परिभ्राम्यत्यनया इरा। मारमा प्रसीदत्यनया प्रसन्ना । आदम्तः । वरुणस्यारत्यं धारणी। जति लज्जायनया हाला। स्त्रियाम् । मधु धारयतीति मधुवारा । मुवति सूते भवं सुरा । तथा द्विसन्धानभाष्ये---"अतिप्रलापभावेन समुद्रमथनानिष्कासिता सुरेः सुरा।" "लक्ष्मीकौस्तुभफारिजातकसुरा धन्वन्तरिश्चन्द्रमा ___ गावः कामदुघाः सुरेश्वरगजो रम्भादिदेवाङ्गना ।। अश्वः सप्तमुखः सुधा हरिधनुः शलो विघं चाम्बुधः रत्नानीति चतुदश प्रतिदिनं कुर्वन्तु ते मङ्गरम् ।। . विदुः कथयन्ति । मधुः । पासवः । परिप्लुता । स्वादुरसा । शुण्डा । गन्धोत्तमा । माधवः । १५ माधवः । कल्यं, कन्या । कश्यं, कश्या | परिश्रुत् । तान्तं स्त्रियाम् । तालव्यदन्त्यः । हारहूर । कापिशायनम् । मृद्रीकम् । माध्वीकम् । शुण्डासबःमध विशेषौ द्वो । सुन्ब(न)न्ति तृप्ति गच्छन्त्यनया शुण्य न्य)ने पातुमभिगम्यते का शुण्डा" | स्त्रीनोः । शुण्डः । प्रास्ते जनयति मदम् आसवः । पुंसि । तद्विधायी शौण्डो गयेत मद्ययः ।। १२१ ॥ Tो कल्यपालकें । शुण्डायर्या मधे भवः शीरडः । मद्यं पिबति पाययतीति वा मापः । सक्तोऽक्षधूतपानेषु विचित्रा शब्दपद्धतिः । त्रयो मद्यासक्ते । अक्षेषु जूतेषु सक्तः अक्षसक्तः । युतसक्तः । पानेषु सक्तः पानसक्तः। विधिया नाना प्रकारा शब्दानों पद्धतिः श्रेणिः शब्दपद्धतिर्वर्तते । अक्षशौण्डः । अक्षधूतः। अक्षकितवः । स २५ शौण्डैः" : घ्याल, अधि, पटु, पण्डित, कुशल, चपल. निपुण, स्वेत्यादि शौण्डादिराकृतिगरणः । सर्पिहैं यङ्गवीनाज्यंत्रियः सर्पिषि । सप्त धातवः सन्त्यिनेन सान्तं सपः । क्लीवे । “अचिंशुचिचिहुसृषिछादिछर्दिभ्य इसिः'। सात्तृ गतौ। ह्यो गोदोहस्य विकारो हैयङ्गधीनम् । इदं हैयङ्गबोनं ह्यस्तनदिनगोदोहे सक्षातम् । उक्तं च-~ __तत्तु हैयङ्गवीनं यद् योगोदोहोद्भवं घृतम् ।। -- --- .... - - . --.. १. का. सू. ४२११३। - .. उ० सू० २।३३। ३. सीधुरिति दन्त्योऽयन्यत्र पाठः । ४. "शुण्डा हाला हारहूरं प्रसन्ना यारु, मुरा।" अभि० चि. ३१५६७ ५. शुण्डाशब्दो मदिरावाची पानमदस्थानमपि । तदुक्तम्-"शुण्डा हाला हारहूरम" अभि० चि०६।५.६७१ "शुण्डा पानमदस्यानभ" श्रभिः चि० ३३९७०। ६. शुण्डायां मदिरापानागारे भव इति रामाश्रमः । 'शुण्डा मदिरा उस्त्यस्येति ज्यो स्नादित्यादण्" इति हेमचन्द्रः । ७. पा०सू० २०११४०। ८. काउ.सू. २१४४ | ६. अम० की० २।९।५२। Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमरकीर्तिविरचितभाप्योपेता तथा चाशाधरमहाभिषेक"आयुः पीयूषकुण्डेः स्मृतिमणिनिभिः शेमुषीबल्लिकन्दै मैंधासस्थाम्बुबाहै बरफलतरुभिनेत्ररत्नाधिदेवैः । निष्टतैर्घाणपेयप्रचुरमधुरिमस्नेहधूमो पि येषां कुमो हैयङ्गवीनः स्नपनमपनय ध्वान्तभानोर्जिनस्य ।।" वीयते तिप्यते पित्तमनेनाज्यम् । तथा क्षीरस्वामिनि-"श्रा अञ्जनीयमाज्यम्। "'श्राछपूर्वादजेः संज्ञायाम्' क्यम् । घृतम् । श्राधारः । स्पृह्यम् । याज्यम् । हविः । दुग्धं क्षीराऽमृतं पयः ॥१२२ ॥ चत्वारी दुग्धे । दुह प्रपूरणे। दुहाते दुग्धम् । घस्ल अदने। सौत्रोऽयम । घस्पते क्षीरम् । १० 'घसे किन्” ईरमात्र: । गमश्नजनेत्युपधालोपः | अघोषेष्वशिगं प्रथमः' कः । 'शासिबसि घसौनां च एत्वम् । क्पसंयोगे क्षः । “व्य नमस्व" | उणादौ क्षिगु वाणु हिंसायान । क्षणोतीति क्षीरम् । क्षीरोशोरगभौरगम्भीरा" एते ईरप्रत्ययान्ता निपात्यन्ते। न म्रियते -नेन अमृतम् । अजरामरकारित्वात् । पीयते वा सरसत्वात् पयः । अमुन् । ऊधस्यम् । स्तन्यम् । पीयूषं, पयूषं च । उदश्विन्मथितं तळं कालशेयं पिबेद् गुरुः। चत्वारस्तके । उदकेन श्यति वर्धते उश्चित् । तान्तस्तालव्यमध्यः । मध्यते (स्म ) मथितं घोलं च । तञ्चति द्रवं गच्छति तकम् | उभयम् । "तकं विभागभिन्नं तु केवलं मथितं __ स्मृतम्" इति धन्वन्तरिः। कलश्या गर्गयाँ भवं कालशेयं पियेत् गुरुः । तत्कालीन गरिष्ठम् । अरिष्टम् । दण्डाहतम् । प्रायो वयो दशानेहा पूर्ण यौवनकं विदुः ॥ १२३ ।। तारुण्यं यौवनं च अष्टौ तारुण्ये । प्रकर्षण परलोकमेत्यनेन प्रायः१ : पंसि । सान्तोऽपि प्रायस् । दयते वयः । दशति चुम्बति स्त्रीमुखं दशा । न ईहते २ चेष्टते अनेहा। "अनेहमीप्सरसो ङ्गिरस:१३ गते:सन् प्रत्यवान्ता निपात्यन्ते । ई४ चेष्टायाम् । पूरी श्राप्यायने दिवादी आत्मनेपदी । अदन्तानां प्राक् तृतीयः परस्मैपदी । पूर्वते कश्चित्, पूरयति कश्चित् । इन् सुराद्यपेक्षया वः । ५१४कारित०' कारितलोपः । उभयया २५ पूरि बातम् । पूर्यते स्म पूर्णः । निष्ठाक्त । "५"दान्तशान्तपूर्णदातरुपष्टछन्नशताश्चेनन्ताः' इत्यनेन पूर्णेति निपातः । यूनो भावो यौवनम् । स्वार्थे का । यौवनकम् । १६ युवा दित्याद्भावेऽण । वृद्धी । तरुणस्य __१५ . १. पा. सू.. ३.१११०६ । वार्तिकम् । २. पा० उ० पू० ४।३२ । ३. का मूल ३।६।४३ । ४. का मू० ३।८।२। ५. का० म० ३।दार । ६. का. रू० पू० सू. २५६ । ७. 'न्यनमस्वरं परं वर्ण नये" का• स० १।१५२१॥ ८. का. उ। सू. ३४६। ५. अत्र प्रायादयोऽनेहोऽन्ताश्चत्या. यावाचकाः । पूर्णपूर्व का एते चत्वारो यौषन फताहण्ययोषनानीति त्रयः । एवं च सप्त तारुण्ये इति वक्तुं युक्तम् । १०. प्रकरण शरीरस्य क्रमेणायते गछति इति है। च । ११. शरीरस्य क्रमेण क्यिन्ति पयः, बाल्यादीनि दृश्यन्ते दशा इति हैमः । १२. नाहन्ति नागच्छति नाइन्यते नागम्यते चेति रामाश्रमः। "नव्याहन एह च" इति साधुः । १३. का० उ० पू० ४१ १४. का०म० ३।६।४४१ १५. का० स० ४।६।१००१ १६. हे श० ७११६७. युवादेरण इति सूत्रम् । Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाममाला भावस्तारण्यम् । भावार्थे यण् । यूनो भावी यौवनम् । अन्त्यो वार्दीनः स्थविरो मतः । __ यो वृद्धे । अन्तं भवोऽन्त्यः। वृद्ध नियुक्तो वासनः' । तिष्टतीति स्थपिरः । गतिभवाम्मतः कथितः । प्रवयाः । यातयामः । दशमीस्थः । जरन् । बरठः । जीर्णः । वृद्धः।। बंशोऽवयोऽन्ववायः स्यादानायः संततिः कुलम् ।। १२४ ॥ ५ पड़ वंशे । उश्यते काम्यते जनेन वंशः । पुस । अन्वयते सन्ततिरप्रान्धयः । अन्ववैश्यपत्यमत्रान्ववायः । श्राम्नायते श्रानायः" । सम् सम्यक् प्रकारेण तनोति विस्तारयतीति सन्ततिः । सन्तनन वा सन्ततिः । कु ( को ) सति सर्वं भवत्यत्र कुलम् । उभयम् । गोत्रम् । अभिजनः | ओघो वर्गश्च सन्तानः त्रयः समूहे ( वंशस्यावान्तरवर्गभेदे )। श्रोयते श्रोधः । शृज्यते विवातोयेन पृथक क्रियते १० वर्गः । सन्तन्यते सन्तामः। विकरः । निकायः । निवहः । विसरः । वजः । पुखः । समूहः । सञ्चयः । समुदयः । समुदायः । सार्यः । यूथः । निकुर ग्वः । कदम्बम् । पूगः । राशिः । चयः । समवायः । मण्डलम् । चक्रवालम् । जालम्। स्तोमः । ब्यूहः । काव्यमेव कविस्थितिः । द्वौ काव्ये । कवर्भावः काव्यम् । तथा च यशस्तिलके "दुर्जनाना- विनोदाय बुधानां मतिजन्मने । मध्यस्थानां न मौनाय मन्ये काव्यमिदम्भवेत् ।।" कवीनां स्थितिः कविस्थितिः। पक्षिवर्गः प्रारभ्यते श्रीमदमरकीर्तिना-- हंसो मरालश्च क्राङ्गः प्रयो हंसे । विसं हन्ति खण्डपति, चागल्या हन्ति गच्छति वा हंसः। इन्ते: स: । मरं मलं कमलमण्डिततडायमियति गच्छतीति मरालः । चक्रमति चक्राण्यङ्गानि वा यस्य चकाङ्गः। मानसौकाः । श्वेतच्छदः । हंसवाहः सनातनः ।।१२४॥ हंसशब्दाद वाहशब्द प्रयुज्यमाने ब्रह्मणो नामानि भवन्ति । हंसवाहः । मरालबाहः । चाङ्ग- २५ पाइः । इत्यादीनि ज्ञातव्यानि । मयूरो बर्हिणः केकी शिखी प्रावृषिकस्तथा ।। नीलकण्ठः कलापी च शिखण्डीअष्टी मरे । मयां रौति मयूरः । मीनाति बाटी- युरः । उणादौ । मीत्र हिंसायाम | मयते १. अनान्यत्प्रमाणं नीपलब्धम् । २. यौवनमतिक्रम्य तिष्ठतीति है ० च । "अजिरशिशिरेत्यादि पाउ १।५३ इति किरप्रत्ययो जुगागमो हृस्वत्वं च | ३. वश कान्तौ" पञ् । नुम् । बन्यते कन्यतेऽनेनेति स्वामी । ४. अन्ववैति अन्वीयते । अन्वयः । “हण गती" 1 अच् । इत्यन्यत्र ५. अत्र प्रमाणम्-'थाम्नायः कुल आगमे उपदेशे" इति हैम. । ३।५।११॥ ६. सन्तन्यते सम्यग्विस्तारयतीति समाश्रमः । ७. या कहते । ऊह वितर्के । न्यवादित्वाद् हस्य घः। ८. प्रा० १ श्लोक २९॥ ९. का० उ० स० ४१५। 'वृनृवादहनिमतिकस्यशिकषेभ्यः सः" । इति । Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ अमरकोर्तिविरचित्तभाष्यपेता इति मधुरः । "मयते सरी खो' । बहमत्यास्ति वहीं। “फल बहाभ्यामिनच"। कैका वाणो अस्यस्य केकी । शिखात्यस्व शिखी । प्रावृषि वर्षाकाले प्रयुक्तः प्रावृषिकः । नीलं कण्ठे यस्य म नीलकण्ठः । क्लापोः यस्य कलापी । शिखाडोऽयस्य शिखण्डी । प्रचलाकी । सर्पशनः । शिखावलः । श्यामकण्ठः । चन्द्रकी 1 शुक्लापाहः । तत्पतिर्मुहः ।। १२६ ॥ तस्य पतित्तत्पतिर्मुहः कार्तिकेयः । मदूरशब्दात् पतिशब्दे प्रयुज्यमाने कार्तिकेयपर्यायनामानि भवन्ति । मयूरपतिः । बहिणपतिः । केकितिः । शिखिपतिः । प्रवृषिकपतिः। नीलकण्ठपतिः । कलापिपतिः । शिखण्डिरतिः । इत्यादीनि ज्ञातव्यानि । वरटा वारली हंसी१० . त्रयों हंसभायाम् । बरं विशिष्टमटति गच्छति वरटा । वरलक्ष्य भार्या वारली । स्वार्थेऽणि । वरला च । इन्तीति हंसी। कोक ईहामृगो वृकः । अजादिकं कोक्ते आदत कोकः । ईशा गोष्टभ्य ईहामण: ' है मगयटे वा ईहानगः । कुक वृक आदाने । बर्कते वृकः । अरण्यवा.। हरिणो मृगश्च पृषतःत्रयो मगे 1 गीतेन हियते हरिणः । व्याधैमुग्यो मृगः । पर्वति सिंचति मृत्रण पृषतः" । तान्तोऽपि पृषत् । एणः । कुरङ्गः । कुरङ्गमः । सारङ्ग। ऋश्यः । रिश्यः । ऋष्यश्च । करुः । न्य. । वातप्रमी । शम्बरः । शबलः । कृष्णसारः । कालसारोऽपि । तदङ्कः शर्वरीकरः ॥ १२७ ॥ हरिणपर्यायादवपर्याये प्रयुज्यमाने चन्द्रम्य नामानि भवन्ति । हरिणाङ्कः । मृगाङ्कः । पृथताः । इत्यादीनि ज्ञातव्यानि । यन्नगोऽहिर्विषधरो लेलिहानो भुजङ्गमः ।। नागोरगी फणी सर्पः नव सधै । पद्धयां न गच्छृतीति पन्नगः । नभ्राण्नपादित्यस्योपलक्षत्वात् । अहत्य (तेs) २५ हिः। "अंहि कम्प्योनलोपश्च" नलोपः । विपं धरति विषधरः । लिलेहेति लेलिहानः । भुजाभ्यां गच्छति भुजङ्गमः। न गच्छतोति । नागः। उरसा गच्छतोत्युरगः । “५१उरो विहायसो हरविही च"। उरी विधायसोयपदयोर्गमश्च संज्ञायां खो भवति तयोश्च उरविहौ यथासंख्यं भवतः । कपास्यस्य फणो। १. का० उ. स. ६१४७ । २. पा० ५।२।१२२ षार्तिकम्--"फलबहाभ्यामिनच्" । ३. देहया मइताऽयासेन मृग्यते आखेटी क्रियते इत्यन्यत्र । ४. ते वादिकमादत्ते, वृणोति वा अकः । ५. रामाश्रमस्तु'-'पृघता बिन्दवो विन्दुसद्दशलक्षणान्यस्य पतः । श्रर्श श्राद्यच् इत्याह । पृपतो बिन्दचित्र इति क्षो स्वा । ६. पन्नं पतितं यथा स्यात्तथा गच्छतीति !माश्रमः । सर्वपन्न योरिति चातिकन डः। ७. का. उ०म० ४१४ । किप्रत्ययों नलोपश्च । अहि गती । अंइति वेगेन गछति । ८. भृशं लेटीत्येवंशीलो लेलिहानः । लिहेलुगन्तात्-"ताच्छील्यवयोव चनशक्तिषु चान' पा स्० ३।२।१६। इति चानश् । ५. भुजेन कौटिल्येन गच्छति, भुज इव गन्छति अत्यन्यत्र । "गम" का सू० ४॥३॥४३॥ इति । विहङ्गतरङ्ग भुजङ्गाय का० र ० ४।३।४८॥ इति खचि, डे च, भुजङ्गमः, भुजङ्ग इति । १:. नगे पर्वते भवो नागः । अथवा न बाच्छतीत्यगः, न अगा, नाग इत्यन्यत्र । ११. का. सू. ४।३।४६१ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाममाला ६५ सर्पति गच्छति सपः । पदाकुः । भुनगः । श्राशीविपः । चक्री । ध्यालः । सरसरः । कुण्डली । गृढपात् । द्विरसनः । चक्षुःश्रवाः । काकोदरः । दवाकरः । दीर्घपुष्ठः । दन्दशूकः । विलेशयः । भीगी । जिमगः । पवनाशनः । गोका। कुम्भीनसः । कञ्चुकी। राजसपः । भुजङ्गमुक। दृकश्रुतिः । तद्वेरी विनतात्मजः॥१२७ ।। तस्य पन्नगस्य वैरी शत्रुः बिनतात्मजः गमः । पन्नगौरी । अहिरिपुः । विपधारातिः । लेलिहामरिपुः । भुजङ्गशत्रुः । नागहिट । गुजङ्गसपत्नः । फणिहिट । सर्पहत् । सर्पद्वेषी । इत्यादीनि। गगडनामानि स्युः। सुपर्णो गरुडस्ताक्ष्यों गरुत्मान् शकुनीश्वरः । इन्द्रजिन्मन्त्रपूतात्मा चैनतेयो विषाशयः ।। १२८ ।। नव गमडे । शोभनं स्वई मयं पर्णमस्य सुपर्णः । तथा न-“सुपी हमपक्षत्वात् ।' डी १० विहायसा गतौ । गरुत्पूर्वः । गहद्भिः पटयने गरुडः।। “२वर्णागमो गरेन्द्रादों सिंहे बणविपर्ययः । पोसशादी विकारस्तु वर्णनाशः पृषोदरे ।।'' इत्यनेन श्लोकन गम्तशब्दस्य तकारस्य लोपः । लत्वे गरुलः । गरुःश्च । वृक्षस्थापत्यं तायः । गरतः पक्षा: सन्त्यस्य गरुत्मान् । शकुनीमा विहानामीश्वरः स्वामी शकुनीश्वरः । इन्द्र जित्तवान् इन्द्रजित् । मन्त्रया पूतः पवित्र आत्मा यस्य स मन्त्रपूतात्मा । विनतावा 'अपम्यं वैनतेयः । विष क्षयतीति विषक्षयः । काश्यपनन्दनः । विष्णुरथः । पन्नगाशनः । नागान्तकः । खमिन्द्रियं हुपाकं च श्री (स्त्री) तोऽक्ष करण विदुः । पडिन्द्रिये । स्वर्गमोक्षी खनति विदारयतीति स्वम् । इन्द्रस्यात्मनो लिङ्गमिन्द्रियम् । हृप्यति हर्षे प्राप्नोति विषयेषु शब्दपर्शरूपरसगन्धे हृषीकम् । गणोत्यनेन सान्तम् श्रोतः। , तालव्यादिः । अहणोति विपयं व्याप्नोति अक्षम् । क्रियते मनोऽनेन विषयेषु करणम् । शेवं [बिपाय] | कम्बलनः । पुण्यं भाग्यं च सुकृतं भागधेयं च सत्कृतम् ॥१२६।। पन पुण्ये । गुणा शोभे । पुगति शोगते पवने वा "पुण्यम् | “पर्जन्यपुण्य' । भगस्यैश्वर्या ___ देछि कारणम ] भारान । मागमेव भाग्यम् । "भागाद्यय" ! मुष्ट क्रियने सुकृतम् । 'ऐश्वर्यस्य समग्रस्य धर्मस्य यशसः श्रियः। बंगम्यस्याध मोक्षस्य पण्णो भग इति स्मृतिः ।।" १.क्षी व भ० १।१२९ । २. शाः सू. १७२ । अत्र कारिकारूपेण पठितः । ३. ग्लन्या; रातदिन्द्रियाधिष्ठानस्य खातप्तशत्यदर्शनात. खम् । ' खनु अबदार' । दप्रत्यव इन्यन्यत्र । ४. इन्द्रियमिलिमित्यादिना धच । घस्पेयः । ५ तालवीराश्शब्दः कणेन्द्रियवाचकः । दध्यस्रोतश्शब्द इन्द्रियनाची, सोत्र पठितव्यः । तदुक्तम-"हमीकमदं करा स्रोतः खं विषयीन्द्रियम् श्र. चि. ‘स्रोत इन्द्रिये गिनगारये ." इत्यमरः ३।३।२३३। ६. नात्रायत्यमाणमपलव्धन् । क्लियसमाधानशफारस्तु--कमिति सुवार्थ-भिव्ययम् , तस्य बलं साधनमिन्द्रियमिति । ७. पुश्तीति गुणः . "पुग शुभे कर्मणि । धनिकः | पुणभईति पुण्यम । 'तदहति' । पा० म.) ५।१।६३ । इति यत् । पुनाति पत्रते अत्यन्यत्र । ८. का. उ• मू० ३.४ । ५. श्लोकोऽयं विष्णुपुराणस्थत्वेनोल्लिखितः अम० को। क्षी स्वा० भाष्ये ११।१३। Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . असरकीतिविरचितभाप्योपेता भगस्येद भाग भागमेव भागधेयम् । नामरूप गांग यो धरः''' | सत्समीदान कियते (म) सत्कृतम् । अघमंहश्च दुरिनं पाप्मा पापं च किन्विषम् । वृजिनं कलिलं होनो दुष्कृतम् दश पाप । म जहाति प्राणिनन अयम् । अंनि गति नरकादिकमनेन हः । सा-तम । दुरितम् । दुर् सौत्रोऽयं धातुः । पाति मुगतेरियति पापमा । पुसि । 'सर्वधातुभ्यो मन ।" पाति सुगनधारयति पापम् | "पातेः पः" । निन्द्रत्वन कल्यते मुहुर्महः किरति मतिं वा किल्विपम् । "किल्विया व्यथिपी' एती टिपपत्यवान्तौ निपात्येते । पृज्यते पनीयतेऽनेन वृजिनम् । कलयति कलिलम्" । "कलेरिला" । एति गच्छति [मुखम् अनेन पनः । सान्तम् । क्रियते स्म दुष्कृतम् । तमः 1 कल्कम् । १० कल्मपम | अशुभम । प्रतिकिका 1 प्रकम् । किम्वम् । मलः । अनेकार्थे । तजयी जिनः ।। १३०॥ तस्य पापस्य जया तजयी । अघजयी | दुरितजयी। पापजयी । इत्यादीनि मिनस्य नामानि भवन्ति । सदनं सम भवन धिष्ण्यं वेश्माथ मन्दिरम् । गेहं निकेतनागारं निशान्तं निवृतं गृहम् ॥ १३२ ॥ वसत्यावसथावासं स्थानं धामास्पदं पदम् । निकायं निलयं पस्त्यं शरणं विदुरालयम् ॥ १३३ ॥ चन विशतिग है। जनाः सीदन्यत्र सदनम । ङ्गी । सीदन्ति सुत्रे गछन्त्यत्र सन्न | "सर्व. धातुःयो मन्"प्रायेण । भवति भूतान्यत्र भवनम् । धिप शब्दे । देवेष्टि शब्दं करोत्यत्र धिप्रायम् । ""धिपर्य' प्रत्ययो भवति । विशन्यत्र वेश्म | नान्तम् । माद्यन्ति जना पत्र मन्दिरम् । श्री२. कोवे । मन्दिरा । गेहः मौत्री निवारणग्रहयोः। गेहति शीतवासातपादिकं निवारयतीनि गेहम् । महानि वा मेहम् । 'गेई : 'स्वक" । मुखं निकितन्ति जानत्यत्र निकेतनम् । अङ्गन्ति गम्छन्स्यत्र श्रागारम्' । अगारं च । निशाम्यन्त्यत्र निशान्तम् । नित्रियते अाच्छाद्यते निवृतम् । गद्गानि नरेणोपार्जितं धनं गृहम् । वसनं वसतिः । श्रावसन्त्यत्र जना आषमधम् । अा ममतादम्यते वाचासः । स्थीयने जनेनात्र स्थानम् । दधाति धनादि धाम । नान्तम् । अदन्तं न धाम । क्लीचे । प्राणप) नेवास्पदम् ।। पद्यते २५ गम्यते पदमा निचायतेऽर्सी निकायः । ॥१"शरीनिवासयोः कथाद: ' धनु । निलीयत ग्रास्टियत पत्र) मनि मन्यत्र पसत्यम | वस्ती पात माधवस्त्या निलयम् । पसिः सौत्री निवासे । जनाः पमन्ति वसन्त्यत्र पस्न्यम्। ३ | वस्ती वाले साधु वस्त्यम वस्ती १. पा. सू० ५।४१३५ बार्तिकम् । २. अटवते गच्छति दानादिनाऽयम् । “अघि गत।' । पचाराच । श्रागमशास्त्रस्यानित्यवान नुम् । ३. दुष्मितं गमनमनेनेनि रामाश्रमः । ४. का० उ. सू. २॥५५॥ ५. “किल्विषाव्यथिती' का उ०म० ११२९॥ ६. 'ज। वर्जने ।' 'वजे: किचतीनन् । मृज्यते जनगित्पपि । ७ कलयति जनयति समिति शेपः । ८. का० उ० म०४।२८ । ६ का ३० म० १६० । १०. "तिमिहधिमदिमन्दिचन्दियधिरुचिपिभ्यः फिरः" का १० स० ११२३ । ११. काल म. ४॥२॥६० इति निर्देश द गेह इति निपातः । १२. श्रा अङ्गलि अङयले वाम बाहुलक थारप्रत्ययः । “अगि गतो' ' पार्वः । नलाए । १३. निशाया अननोचे त्यन्यत्र । निशायाम् अन्यने गायते स्मेति रामाश्रमः । "यम गती"। क्तः । १४. "श्रास्पदं प्रतिक्षायाम्" पा० सू० ६।१।१४६३ इति मुद। १५ का.स. ४५॥३५॥ १६. प्रात्स्यायन्ति मधीभवन्त्यत्र पस्यम् । "स्त्यै शब्दसल्पयोः" 1 Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाममाटा ६७ वास माधु 'वस्यमिति श्रीभाजः । शीर्यते हिंस्यते शीतात्र शरणम् । प्रालीयने अनेनात्रालयः । मि । निशुः कथयन्ति । पु'म । कुल! ! मेन्यायः । खेयं खातं च परिखा प्रयः परिवायाम् । ग्वनु अवदारण। खन् । खन्यते नेयम् । पाल्खनोरिच" यत्ययो नकारस्यकारः । अवर्ण वर्ग ए" प्रवर्णवर्णयोरे कारः । वन्यो [भ] खातम् । परिख यो परिणा। ५ वनं स्याद्ध लिकुट्टिमम् । द्वौ प्राकारे । शुल्कादिकं वरन्स्यत्र वप्रम् । पून्याः कुट्टिगं धूलिकुट्टिमम् । बद्धभूमिकम् । धूलिकुट्टिमम् । प्राकारः परिधिः सालः अयो दुर्ग | प्रकुर्वन्ति तमिति प्राकार: 1 "अकर्तरि च" कारके संज्ञायान" प । परि १५ समन्तात् धीयते परिधिः । यति तनूकरोति स्वनगरपर्वतं शालं सालं' च | - प्रतोली गोपुराकृतिः॥ १३४ ।। या विशिखायाम । प्रविशन् जनः प्रतोल्यों परिमीयतेऽत्र प्रतोली। गोप्यने रक्ष्यते पोपुर तम्यातिः गोपुराकृतिः ।। प्रासादमौघहाणि अय. साधे । प्रासादश्च सौधं च हयं च प्रासादसौघहाणि । प्रसीदन्त्यस्मिन्नयनमनोसति १५ प्रासादः । "यकर्तरि ' च कारक संज्ञायामू'। सुनायां लिप्तायो भवं 'सौधम् । चन्द्रकरान् रात हय॑म् । निम्हो मनवारणः । बा अपाश्रये । निव्यूहाते नियंहः । मत्ताः प्रमादिनः पतन्ती वार्यतऽनेन मनवारण। वातायनं मतालम्बम् । द्रौ गवाक्षे । वातस्यायनं मागों वातायनम् । उभयम् । मतमभीष्टम् मालाचन मतास्तम्पम् । जालकन । बालम् । आलम्ब्यसुखमासनम् ।। १३५ ।। रज़ामसभे ।। पालम्ब्यस्य अरल बनस्य सुखम् श्रालयसुखम् सुखेनास्यते श्रासनम् । २४ समः सवणः सज्ञातिः सदृक्षः सदृशः सटक् | तुल्यः सधर्मरूपश्च तुला कक्षोपमा विधा ।। १३६ ।। १. यद्यपि मूले वस्त्यशब्दो नास्ति, तथापि पाटभेदात् "निशान्तवस्त्यमदनम" २।२५। इत्यमरे वस्त्यशब्दपासात् टीकाकृता तदपि विगृहीतन । २. का. स. ४.३।१२। १. का० . १।२।२। ४. प्रक्रियने इति कर्मगि घ । इनि रामाश्रमः । ५. का. म. ४।५।४। ६. परितो धीयते वेष्ट्यते नगरमनेनति गामाश्रमः । ७. दन्त्यपाठे तु सल्यते सालः । "सल गती । धनं । ८ पुग्धान्तु गोपुर भरक्षितम् । तस्याकृतिरिवाकृति स्यारतासह शीत्यर्थः । ६. का सू. ४।३।४। १५. मुच या लिगः समः । शेपेण । ११. हरति गनांग्मि इय॑मिन्यन्यत्र । प्रासादसँधिहाणामयाविशेषेशपादानम् । परं तद्रिशेषा न विस्मर्त्तव्यः । तदुक्तम्-“हादि धनिनां वसः प्रासादी देवभूभृजाम । सौधोऽस्त्री राजमश्नम' शा१०। इत्यमरः । Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ अमरकीर्तिविरचितभाष्योपेता एकादश समाने । समानं मातीति २ समः | समानः सदृशो वर्णोऽन्य सवर्णः । समाना शातिः अस्य सशातिः । समान एव दृश्यते सरक्षः । “समानान्ययोश्च" सक् प्रत्ययः । शस्य च पत्वम् । 'षदो:४ करसे' पस्य कत्वम् । "कागोगे"नः" | मगन ट्व दृश्यते सर!! समानान्ययोश्च टक्प्रत्ययः | अमात्रः | कानुबन्धत्वाद्गुणानिषेधः । आनुवन्धत्वानदादौ पठ्यते । "ईक "इश' इति समानस्य सभावः । समान इव दृश्यते सडक । " *समानान्ययोश्च' किप् । तुलया सम्मिनस्तुल्यः। समानो धर्मों यस्य सधर्मः । समान रूपं यस्य स सरूपः । रूपनामगोत्रस्थानवर्णवोत्रयस्तु" इति समानस्य सादेश: 1 तोलनं तुला । ॥५°वोलेरुच" अप्रत्ययः । श्रोकारस्यकारश्च । कषति कक्षा। उपमा । विधा । प्ररण्यः । प्रकाशः । प्रतिमः । मनिमः | प्रकारः । विन्मान्यो विधमानश्च गुरुस्थानाम्बुजाननाः। सिंहादीनि च पर्यायमुपमानेषु योजयेत् ॥ १३७ ॥ योजयेत् जोश्येत् । पर्यायं विशेषणम् उपमानेषु । वित्समः । विसवर्णः । वित्म जातिः | वित्सद्दक्षः । वित्सदृशः। वित्सहक | वित्तुल्यः । वित्सधर्मः । विसरूपः । वित्तल्यः । विकक्षः । अनेन प्रकारेण मान्यविद्यमानगुरुस्थानाम्बुजाननसिंहादिशब्दा उपमानेषु प्रयोजनीयाः । व्यपदेशो निभं व्याजः पदं व्यतिकरश्छलम् । প্রয়। सप्त कैतवे । व्यपदेशनं व्यपदेशः१५ 1 पुंसि । निर अतिशयेन भाति निभम् २ । व्यज्यते व्याजः। मुंसि । पद्यते गम्यते कैतवेन पदम् । व्यतिकरणं व्यतिकरः । छलति "छलम् । क्लीबे छादयति छम" । नान्तम् । क्लोचम् । कैतषम् । कपटम् । कूटम् । उपाधिः । मिपम् । लक्ष्यम्" | वृत्तान्तमुत्प्रेक्षा शब्दमन्यं च निर्णयेत् ।। १३८ ॥ ही वार्तायाम् । वृत्तस्य चरितस्यान्तो वृत्तान्त.१७॥ उत्प्रेक्षणम् उत्प्रेक्षा ! बातां । प्रवृत्तिः। उदन्तः । १. श्रन समादयः सरूपान्ता नघ तमाने । तुलाकक्षोपमा विधा इति चत्वारन्नुलायामिति पार्थक्ष्येन वक्तव्ये पि सदृशाऽभिप्रायेण तदाह । कचिदभिधेति पाठः । परन्तु तुलार्थऋविधाशब्दोच युक्तः । एवं च त्रयोदश इति वक्तव्यम् । अभिधापाटे तु "उपमाभिधा' इत्यनयोरुपमावाचकत्वे सनि “एकादश" इति सङ्गन्छते । २. मकारे परे समानस्य सादेशविधायकवचनाभावासमान मातीति विग्रह श्रिन्त्यः | ''सम वैक्लव्ये" समति वैक्लप्यं करोतीति समः । सतः समस्य वैक्लव्यं करोत्येव । पचाअच् । ३. "कमयु पम ने त्यदादौ दृशष्टक सकी च'' का० सू० ४।३।७५। अत्र तृत्तिः । ४. का सू० ३।४। ५. का रू. पू०२५६ । सू० ६. "समानान्ययोदचेति वक्तव्यम्" इति वार्तिकरूपेणोपलभ्यते ।।१०। काशिकायाम् । कातन्त्रसूत्रन्तु नैतादृशनुग्लब्धम् । वृत्तिरपीदृशी कापि नास्ति । काशिकायां टीकोन वचनसान्ये पि प्रत्ययाबरूयसाम्यं नास्ति । ७. "गद्द शष्टक्षेषु समानस्य सः" का सू० ४।६।६५। ८. का. सू. ४।।५। वृत्तिः । ६. "ज्योतिर्जनपदरात्रिमाभिनामगोवरूपस्थानणवयौवचनबन्धुर" इति पा. सू. ६।३८५। १८. वाचनिकं नैतत्, अतुलोरमान्यामिति ज्ञारितमिति प्रतिभाति । ११. व्यपदिश्यते व्यपदेशोऽतपस्य ताप्पम् । १२. नि नित तदिव भाति निभम् इत्यन्यत्र । १३. व्य अन्ति विक्षिपन्ति अनेन ध्याजः । “अज गतिक्षेषणयों:” | घञ् । १४. यति छिनत्ति प्रस्तुतत्त्वमनेगेति का छी छोदने । कल प्रत्ययः । १५. छायतें रूपमनेन छद्म । मनिन् । हृत्वः । “छद अपवारणे' | चुरादिः । १६. लत शब्दोऽव्ययम् । १७. वृत्तानुमधानीयो गवेषणीयोगन्तः समातिर्यस्येति रामाश्रमः । Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाममाला प्रातः' पूगः समाजश्च समूहः सन्ततिघ्रजः। व्यहो निकायो निकुरो निकुरम्बं कदम्बकम् ।। १३४ ॥ ओघः समुदयः सङ्घः सङ्घातः समितिस्ततिः । निचयः प्रकरः पङ्क्तिः विंशतिस्समूहे ! वृणोति छादयति वातः । पूज्यते पूयते या पूगः । संघीय समाजः 1 छ । समूह्यते सन्यग् दौक्यते समूहः। संतन्यते सन्ततिः। प्रजन्स्यत्र बजः । उभयम् । विशेषेण उपते व्यूहः । ५ निचीयते सौ निकायः । मागम । निको ने लिभर ! गुनानिन्ति वदन्ति (छिन्दन्ति) निकुरम्वः । कुरिसतम् अन्नते कदम्बम् । स्वार्थ के कदम्बकम् । द्वौ क्लीवे । उह्यते मोघः । "यकवादीनां हश्च घः।" समुदीयतेऽत्र समुदयः । समुदायश्च । संहन्यन्तेऽस्मिन्नवववाः सङ्घः' । संहन्यते संघातः । हन्तेर्घः । तूण गते) समपूर्वः । समयनं समितिः । स्त्रियां क्तिः । तनने ततिः। निचीयतेसा निचयः । १० उच्चयः । प्रचयः 1 सञ्चयः | प्रक्रियते प्रकरः | पचि विस्तारवचने । पञ्च । इदनुबन्धानां धातूनां नलोशे नास्तीति । पञ्चनं पङ्क्तिः । स्त्रियां क्तिः । पशूनां समजो व्रजः ॥ १४ ॥ पशूनां नजः समूहः समजः कथ्यते । अज क्षेत्रणे । अज् सम्पूर्वः । समजनं समजः । "समुदोरमः पशुषुप." अल् । समीपाभ्यासमासन्नमभ्यणं सनिधि विदुः । अविरं च निकटमबलग्नमनन्तरम् ।। १४१ ॥ नव समीपे । समाप्नोति समीपम्' । अभ्युपेल्थ चास्यते अभ्यासः । घन । श्रासद्यते स्म श्रासनम् । अर्द गतो याचने च । अर्द अभिवः। अभ्यर्द ति स्म श्रभ्यराः: निश्वात्तः । "सामीप्य भे" नेट् । 'दादस्य च" दकारतकारयोर्नत्वम् ! "rees४-धातोर्न कारस्य सत्वम् । १ "तवर्गस्य०"निष्ठा- २० नस्य णत्वम् । सन्निधीयते सनिधिः। श्र(व)विदुनोतीति अघिदूरम् ! “दुनोतेदार्पश्च'६"दुनोतेरक प्रत्ययो भवति दीर्घश्च। दृढ़ उपतापे । निकटति निकटम् । (नि) नास्ति कटो स्येति व निकटः । कटे वर्षावरणयोः । अवलगति (स्म) अवस्तग्नः । न अन्तरम् अनन्तरम् । सनीडम् । समांदम् । श्रारात् । सदेशम् । उपक १. चेतनाचेतनसर्वसमूहे बातादयो विंशतिशब्दाः प्रयुज्यन्ते । ओषो वर्गश्च सन्तान इति वंशस्यावान्तरवर्गभेद इति द्रष्टव्यः । परन्तु व्यवहारे प्रयोगसायमपि दृश्यते । २. "बृज करणे.'' | पातक प्रत्ययः । अन्यत्र तु प्रत्यते एकस्मिन राशी नियम्यते इति मुण्डमिश्र इति पयन्ताहतेघन । बातफोरिति निर्देशाद् दीर्वः । ३. पूज्यते गशित्वेन मन्यते, पूर्यते जनसमुदायात् गशिभेदेन निर्वाच्यते वा पूगः । "छापूडिम्यः पित" । उ०पू०१२४। इति पूर: पूजो बा कि गश्ययः । पूगयतेः पूगसाधुत्व पत्रि कृतेऽपि स्थानिवत्त्वेन ण्वन्तात्कुत्वं दुस्साध्यम् । ४. "अज गविक्षेपणयोः" । घञ् । ५. "कुर् छेदने"। बाहुलकादम्बच । अस्योत्त्वे निकुरुम्ब इत्यपि । ६. श्राप दूहतर्घन् । "कद वित । ७. का. सू. ४।६।५७ । ८. सम्-उद्पूर्वकः "इण् गत।" इग्वानुः । अलि समुदयः । घधि समुदायः । १. "समुदागणप्रशंसयोः" का सू• ४।५।६४। इति हन्तेईप्रत्ययो धादेशश्च | १८. का सू० १५५१ । ११. साता आपोस्मिन्निति विनह समासः । अध्समासान्तः । “यन्तरुपसर्ग योऽप ईत्" इतीकारः। उपचारादभ्यामपि समीपम् । १२. का. सू.०४।६।६७ । १३. का० सू० ४।३।१७२। १४. का. सू. २।४।४८ । १५. "तवर्गस्य प्रवर्गावर्गः" का० सू० ३.८१५। १६. का. उ. सू. ६।५ । Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमरकीतिविरचितभाष्योपेता ण्ठा । अभ्यन्नम् ! सन्निकटम् । श्रासन्नम् । जित्या हलिहलं सीरं लाङ्गलम् पञ्च इले। जि जये। जि। जीयते जित्या।" जयतेईलो क्यवेव" क्या । "धाती स्तोऽन्स: पानुबन्धे । “ स्त्रियाभादा" । हलांत हाले । मदनलं लिया। भूमि हलति विलिखति इलम् । ५ सीयते बश्यते वस्त्रया सीरम् । लङ्गति भूमि गच्छति लाङ्गलम् । तत्करो बलः। हलपर्यायत: करपर्यायु बलभद्रनामानि भवन्ति । जित्याकरः । इलिकरः । इलकरः । सीरकरः । लाङ्गलकरः । हसपाणिः । इत्यादीनि शातव्यानि | रेवतीदयितो नीलवसनः केशवाग्रजः ॥ १४२ ।। त्रयो बलभद्र । रेवत्या दयिती भर्ता रेवतीदयितः। मोल कृष्णं वणे वसनं यस्य स नीलवसनः । केशवस्याग्रजः केशवाग्रजः । कालिन्दीकरणः । बलः । प्रलम्बघ्नः । अर्जुनः फाल्गुनो जिष्णुः श्वेतवाजी कपिध्वजः । गाण्डीवी कार्मुकी सव्यसाची मध्यमपाण्डवः ।। १४३ ।। पसेनः सुनिमाको दैत्यारिः शक्रनन्दनः । कर्णशूली किरीटी च शब्दभेदी धनञ्जयः ।। १४४ ॥ सप्तदशार्जने । अर्ज सर्ज अर्जने । अजति (कीर्तिम् ) अर्जुनः । “प्रकृतघ्न यमिदार्जिन्य उनः।' पल निष्पत्तौ । फलतीति फाल्गुनः | ""पिशुनफाल्गुन।" एती उनप्रत्ययान्ता निपान्यते । जयती येई. शीलो जिष्णुः । " जिभुवोः स्नु' । श्वेता वाजिनो यस्य स वेतबाजी। कपिर्यानरी धजे यत्व स कपिध्वजः । गां जीवत्तीत्येवंशीलो "गाण्डीवो। कामुकं धतुरस्तीत्यय कार्मुकी। सव्ये साचयतीति 'सव्यसाची। मध्यमश्चासी पाण्डवः मध्यभपाण्डवः । युधिरिभीमयोः सहदेवनकुलयोमर्जुनः, तेन मध्यमपाण्डवः कथ्यते । वृष सिनोति बध्नातीति वृपसेनः । तुनिनु च्यते शत्रुभिः सुनिर्मोकः । दुःमा. ध्यत्वात् । दैत्यस्यारि: शत्रुर्दैत्यारिः। शक्रस्येन्द्रस्य नन्दनः शक्रनन्दनः अर्जुनः कथ्यते । यमस्य पुत्रो युधिष्ठिरः । वायोभिः । इन्द्रस्यार्जुनः. अश्विनीकुमारयोनकुलसहदेवौ पुत्री । असत्यमेवं तत् । क शूलं विद्यते यस्यासी कर्णशूली। किरीट शेखरं विद्यते यस्थासौ किरीटी । शब्दभेदोऽस्त्यस्य शब्दभेदी । १. का. सू० ४।२।२६ । अत्र दुर्गवृत्तिः । २. का० सू. ४.१३। ३. का० सू. २।४।४६ | ४. का० उ० सू० २।६० । . का. उ. सू. २।६१ । फल निष्पनौ' उनप्रत्ययो गोन्तन । फलति कर्मसिद्धिमयते इत्यर्थः । ६. का मूल ४४।१८ । ७. गां जीवस्तीति बोध्यम् । विराटनगरे पाण्डवानुसन्धानाय भीमककगवानारसी-जनद्वारारक्षणस्थ महाभारतोक्तत्वात् । वस्तुतस्तु गाजीवं गागडीवमिति अर्जुनधनुषो नाम, तदस्याम्तीति गातीत्री इति मत्वर्थाव इन् । तदुक्त कल्पकोये - "गाण्डीवी गाडिवो खियाम । गाजीयो गाजियोऽप्यत्री' इति १।।४४| भूले गाण्डीवीशब्दस्तु गाण्डी ग्रन्धिरस्थास्तीति गाडीवम | गाण्डयागात्संशायाम्" पा० सू० ५।स२१० । इति मत्वर्थीयां वः । सदस्यास्तीति मत्वर्थाय इन् । ८. सम्येन वाभाणिनापि सचते वाणान् वर्षतीति सत्यसाची । Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाममाला ७१ केचित् शब्दयदीति पठन्ति इत्यपि स्यात् । जि जये | धनपूर्वः । धनं जितवान धनञ्जयः। "नाग्नि''' खः । "नाम्यन्त." गुणः । “ए अय" । "हस्वा' स्त्रीमान्तः।" धनञ्जयेति कवेर्नामाभिधानमपि ज्ञातव्यम् । स कथम्भूतः १ शब्दभेदी । अतः परः कोऽपि नास्ति । पाण्डवनाम मिर्पण स्वनाम कथितमस्ति । कुरुकीचकयोरी वायुपुत्रो चकोदरः। कुरुवरी। कीचकवरी । कुरुशत्रुः। कीचकशत्रुः। कुरुरिपुः । कीचकरिपुः । अनिलसुतः । ५ पवनात्मज. । इत्यादीनि भीमस्य पर्यायनामानि ज्ञातव्यानि । वृकोऽरयस्वा तान् उदरं यस्य स वृकोदरः । समरी यमः कालः कृतान्तो मृत्युरन्तकः ।। १४५॥ घड् यमे । सर्वेषु समं तुल्यं वर्तते समय । नान्तः । रिपो मित्रे च समं वसते इति वा । यमयति निगृह्णाति प्रजा यमः। यमल जातवादा। कलयति जन्तून् विनाशहेनुत्वन कालः । कृतोन्तो विनाशो वेन स कृतान्तः । म्रियतेऽनेनति मृत्युः । " भुजिन्छोः युक्त्युको"। श्रन्तं करोतीति अन्तकः । १० शमनः । प्रेतपतिः | पितृपतिः । कीनाशः। वैवस्वत: । कालिन्दीसोदरः | धर्मराजः । दण्डधरः । हरिः । दक्षिणापतिः । श्राद्धदेवः। तदात्मजो जातरिपुः कौन्तेयो भरतान्ययः । कौरव्यो राजयक्ष्माऽसौ सोमवंशो युधिष्ठिरः ।। १४६ ।। सप्त युधिष्ठिरे | तस्य धर्मस्यात्मजस्तदात्मजः । समवर्तिपुत्र: 1 यमोहः । कृतान्तपोतः । । मृत्युनन्दनः | अन्तकदारकः । इत्यादीनि युधिष्ठिरपर्यायनामानि ज्ञातव्यानि । जातस्य स्वगोत्रत्य रिपुः 'जातरिपुः । कुन्त्या अपत्यं पुमान् कौन्तेयः । भरतोवियोन्त्य भरतान्वयः । कुरोरपत्य घुमान् कौरव्यः। राजभिर्न रेन्द्र यक्ष्यते पूज्यते राजयक्ष्मा। ११ सर्वधातु-यो मन्"। राजलक्ष्मा चति ये.चित्पठन्ति । सोमो वंशोऽस्य सोमवंशः । युधि संग्रामे तिष्ठतीति युधिष्ठिरः । श्वेतार्जुनो शुचिः श्वेतो चलक्ष सितपाण्डुरम् । शुक्लावदात घवलं पाण्डः शुभं शशिप्रभम् ।। १४७ ॥ त्रयोदश श्वेत । श्वेतते श्वेतः१२ । अर्यतेऽर्जुनः' । शोचतीति शुचिः । शुच शीके । श्यायते श्येतः५५ । अवलक्षयति अषलक्षः । घलक्षश्च ६ । सिनोति बध्नाति(मनः)सितः । पण्डते याति मनोऽत्र पाएजुरः । अथवा "नगपाशुपाण्डुम्यो रः" पाण्डुत्वमस्यास्तीति पाण्डुरसा पाण्डु : । पाण्डरः । शोकति मनोऽस्मिन् शुक्लः । शुक गतौ । अबदायते शोध्यते अषदातः७ । धयति धघल:१८ । पण्डते याति २५ १. "नाम्नि तृभृजिधारितपिदमिसहां संज्ञायाम" का सू० ४।३।४४ । ३. का. सू. ३५.११ ३. का. सू०१।२।१२ । ४. का० सू० ४।१।२२ । ५. धनञ्जयारपरं कश्चिच्छन्दभेद देना नास्तीत्यर्थः । ६. वृको भीमजठराग्निः स उदरे यस्येत्यपि । ७. कलयतीत्यस्य स्थाने कालयतीति वक्तव्यम् । ८. का० उ० सू० २।३४ । ९. अन्तरोत्यन्तयति, अन्तयत्पन्तक इति यावत् । १०. कोशान्तरप्रमाणान्महाभारतादिकथासंवादात् महाकविव्यवहाराच "यजातरिपुः इतिच्छेदोऽत्र युतः । न जाता रिपधो यस्येति युधिष्ठिरस्य अजातशत्रुः" इति संज्ञा । तदुक्तम्- 'अजातश: शल्यारिधर्मपुत्री युधिष्टिरः'' | अभिः चि० ३१३०८ । ११. का उ.सू० ४।२८ । १२. "शिवता वर्णे'' | स्वादि० यात्म | पत्राद्यच् । १३. अयं ते सगृह्यते जनः । १४. शुन्युचलवस्तूनां सर्वसङ्ग्रहणीयत्वं लोकानुभवसिद्धम् । शोचति निर्मलीभवति शुचिः । शुच दीप्ती । इक् । १५. श्यैङ् गतौ 1 श्यायते गच्छति नीलादिवर्णविशुद्धत्वभू । “दृश्वाभ्यामितन्" । पा. ३. सू० ३।९३ । इतन् । १६. अवलक्षयति श्रवलक्ष्यते वा अन्यवर्णापक्षया उत्कृष्टत्वनेति । वष्टि भागुरिरल्लोप इत्यल्लोपपक्षे। १७. श्रवदायते स्म । दैप शोधने । कर्मणि क्तः । १८. धुनोत्यशोभाम् इति हेमचन्द्रः । धावति मनोज । घाबु गतिशुद्धयोः । कलच, हृत्वश्चेतीनि रामाश्रमः । Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० अमरकीतिविरचितभाध्यापेता ममोऽस्मिन् पाण्डुः । । शोभते शुभ्रः । शशिन इव प्रभा वस्य शशिप्रभम् । गौरः । हरिणः । कृष्णं नीलासितं कालम् । चत्वारः कृष्णे । वर्णान् कर्षतिः कृष्णः। नीलति नीलम् । उभयम् । न सितम् असितम् । कं मुखमालाति कालः ! कालयति या मनः कालः । मेचकम् । श्यामलम् । श्यामं च । पालाशम्" । ५ हरित् । शित्रिकाका इति दुर्गः। घूमं धूम्रमलिप्रमः। विशिष्ट कृष्णे त्रयः । धूनोति धूमः। धूनोत्यभिभवति रामं धूम्रः। धूमलश्च । अलिवनमा यस्य सोलिप्रभः । तमोऽधकार तिमिरं ध्वान्तं संतमसं तमम् ।। १४८ ॥ ताम्यति मन्दी-गवति चास्त्र तमः । सान्तम् । क्लोथे । अन्धं दृष्टय पनातं करोतीति अन्धकारम् । तिग्यते आच्छाद्यतेनन तिमिरम् । कान्तारे ध्वन्यते ध्वान्तम् । सम् सम्यक् प्रकारेगा तमः सन्तमसम् । ताग्वतीति तममित्यदन्तम् । क्लीवे । अवतमसम् | श्रावतमसम् । तमितम् । भूलाया । भूलायन् । दिगम्बरम । लोहितं रन मातानं पाटलं विशदारुणम् । पड़ रक्त" । रोहनि जायते शोभात्र लोहितः । रज्यते रक्तम् । श्राताम्यते कादयते *णेपु श्राताम्नः । पाट्यत्तीति पाटलः । पाटेरलः । विशीयते विशदः । अच्छति इमर्य(ति वाऽ) रुणः। पीतं गौरं हरिद्राभम् हरिद्वारतवर्ण त्रयः । पीयते मनोऽनेन पीतम्५ । गाते गच्छति वर्ग विशेषः गौरः | ., तथा च नामामालायाम-गोरः श्वेते ऽरुणे पीते विशुद्ध चन्द्रमस्यापि । विशदेः' । इरिद्रावत् प्राभा छविधस्य हरिद्राभः । पालाशं हरितं हरित् ।।१४६॥ हरिदवणे त्रयः । पलाशस्य वर्णस्यावं पालाशः। पलाश इत्याह -शक्षसे। किंशुक वणे पलायाख्या । हरित्यपि" | हरति चितं हरितम् । हरित् । १. पन्यते स्तूयते पाण्डुः । “पनेदीर्घश्च” इति डुः । इति हमचन्द्रः । २. कति मन इति रामाश्रमः । वृषेणे इति नक् । ३. "गील वर्णे"। नान्युपधेति का सूत कः । ४. कालयति मन इत्यन्यत्र । ५. अयं पाठोऽत्र न युक्तः । "पालाश हरित हरित्' इति पन्नस्य टीकायामग्रे द्रष्टव्यः । ६.कृष्णमिश्रितलोहिते धूम्रधूमलशब्दाविति वैशिष्यार्थः । तदुक्कन-धूमधूनल। कालोहिते" इत्यमरः । ११५/१६ । ७. कान्तारप्रदेशादिपु तमसोऽविच्छिन्ननिवेशात्तदाह – "कान्तारे ध्वन्यते" इति । सर्वरोगहरतया वन्यते बान्तमिति हेमचन्द्रः । =. अछ। रक्ते, अयी विशदारुणे. इति म । विशदं च तद्रूपम, श्वेतविशिष्टरक्तमित्यर्थः । तदेव पालम । तदुक्तम्---श्वेतरनस्तु पाटलः' इत्यमरः । ६. "सह बीजन मनि प्रादुभावे' | "महे रच लो वा" । पाउल . ३१४ । इतीतन् , लल च वा । १५. रक्षति रम रज्यते म्म वा रनमित्यन्यत्र । ११.पीयते वन् पोतः । "नीट पाने" । दि०। इत्यपि । १२.मूरते उशुद्धत मनोऽस्मिन गौरः । “पूरी उद्यमने'। ऋगेन्द्र प्रत्युणादिसूण व्युत्पादितः । 'गूयते गौरः' इति हेमचन्द्रः । "ङ संश्लेपणे । १३. अने २१४६५।१४. शा० को० ५१२ । Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाममाला ७३ हरिणी लोहिनी शोणी गौरी श्येनी पिशङ्गायपि । घन रक्त वर्णे'' | "श्यतेतहरितलोहितेभ्यस्तो नः" अनेन ईप्रत्यये तकारस्य नकारश्च । हरिणी। तथा च हलायुव'--"शुशाभा हरिणी रमृता।" हरिता च । रोहति जायते शोभात्र लोहितः । लयारक्यान । "येतेतहरितलोहितेभ्यत्ती नः" अनेन ईस्तकारस्य च नकारः । लोहिनी जाता। हलायुधे -- __ "जपाकुसुमसंकाशा लोहिनी परिकीर्तिताः । शौगुते शोणी। गातं गौरः । नदादित्वादीः । गौरी। श्वायते गन्छति श्रियं श्येनी : ५ लायुधे'..-"श्वेनी कुमुदपत्राम।।" श्येना च । पेशति पिशङ्गः । ईप्रया पिशङ्गी । सारङ्गी शवरी काली कल्माषी नीलपिजरी ॥१५॥ पट पा वर्णे | सारयति गमयति [ बहुवर्णान् ] सारङ्गः । इप्रत्यये सारङ्गी! शवति याति वर्गान् शवरः शवलश्च । ईप्रत्यये शबरी। कालयति कालः । ईप्रत्यये काली। कलयति कान् .. मापः । ई: करमाषी । नील गन्थे । नीलति नीलम् । ईप्रत्यये नीली । पिति विजरः । " :. इप्रत्यय पिजरी। पराग मधु किजल्कं मकरन्दं च कौसुमम् । पज' कुसुमरेणा । पर प्रकर्षमग्यते सम्भाब्यते पुष्पेषु परागः" । उभयम् । मन्यते सम्भाव्यते पुष्पेन मधु । उभयम् । कि अन्पति किल्कम् । मङ्कवते मण्ड्यते पुष्पमनेन मकरन्दम् । कुसुमस्येदं कौमुमम् । उपचाराद्रजः पांशुरेणुधूलीश्च योजयेत् ॥१५॥ चतारो धूल्यान् । रंब रागे । रजत्यनेन रजः। 'उषिरंजिशृभ्यो यण्वत् " |नक धक पशि नाशने । पंशयते पांशुः । “अहिरहितलिपशिभ्य उण् ।' रीङ् गतौ । रीयते रेणः । 'दाभारीवृन्यो । नु' । धूयते धुनोति इष्टिं बा धूलिः । उपचारात् पुष्परजः । मुमनापांशुः । पुष्परेणुः ! लतान्तधूलिः । । प्रसवरजः । प्रसूनरेणुः । इत्यादौनि पुष्परजी नामानि ज्ञातव्यानि । कलङ्कावधमलिनं किञ्जल्क लक्ष्म लाञ्छनम् नियोधमधमं पश्म लीमसमपि त्यजेत् ।।१५२।। १. अत्र षट्स्रीलिङ्गबाचके तत्तवर्णविशिष्टे इति वक्तव्यम्, न तु रक्तवर्णे। तत्तवर्णभेदा यथा--हरिणी शुकाभा, लोहिनी जपाकुसुमङ्काशा, शोणी कोकनद छविः, गौरी हरिद्राभा, श्येनी कुमुदपत्राभा, पिशङ्गी पीतरक्ता। २. "इयेतैतहरितभरितरोहिताद् वर्णान्तो नः" ६० श० २।४।३६ | ३ "श्येनी कुमुदपत्राभा शुकामा हरिणी स्मृता । जपाकुसुमसङ्काशा रोहिणी परिकीर्तिता।" इति पूर्णः श्लोकः । ३. हलायु. ४५३ । ४. हला. ४.५३ । ५. हला. ४.५३ । ६. अब पट् स्त्रीलिङ्गवाचके तत्तद्यण विशिष्टे इति वक्तव्यम् । तभेदो यथा-सारङ्गीशम्बरीकल्याण्यश्चित्रवः। काली नील्यारसिते । पिजरी पीतरक्ता । ७. अत्र परागविझल्कशन्दी पुरुपरजीवाचकौ, मधुमकरन्दशब्दौ . पुष्परसवाचकी, कौमुमशब्दातदुभयवाचकः, इति विवेकः । ८. परागच्छति परमुत्कर्षमगति वेति विग्रहः सरलः । ९. किञ्चिज्जलति, “जल अपवारणे" | बाहुलकारक। किञ्चिजलति जडीभवति इति ती. स्वा। १०. मकरमपि द्यति कामजनकत्वान्मकरन्दः । "दो अवखण्डने" | कः । मकरमपि अन्दति बनातीति का । "अदि बन्धने" । कर्मण्यम् । शकन्थ्वादिः । इति रामाश्रमः । ११. का उ० सू० ४.५९ । १२. का. उ. सू. १।३।१३. का. उ० सू०.२७ । Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ अमरकीतिविरचितभाष्योपेता दश कलङ्क । कल्यते लक्षणेन कलङ्कः । न वा समीचीनम् अवद्यम् । मल्यते धार्यतेऽपयशोऽनेन मलिनम्। किं कुत्सितं जल्पति किझल्कम् । लक्षयति परं नान्तम् लक्ष्म । लाञ्छयतेऽनेन लाञ्छनम् । निबुध्यते नियोधम् । नज पूर्वो धान । न दधातीत्यधमः । “धर्मसीमाग्रीष्माधमाः । "पच्यते पकम् । मलिना फदर्येण मस्यते परिमार्गकितने मलीगसः ! सं त्यजेत रूपः । जनोदाहरणं कीर्ति साधुवादं यशो विदुः । वर्ण गुणावलि ख्याति सप्त यशसि । जनानां लोकानामुदाहरणं, जनेन लोकेनोदाहियते वा जनोदाहरणम् । कृत संशब्द । कृत्-"चुरादिश्च ।" इन् । कृतः कारिते इर् | किर्ति बातः । नामिनीर्वा' । कीर्ति जातम् । कीर्तनं कीर्तिः । कीर्तीषोः किश्च" तिप्रत्ययः । कारितलोपः । त्रिषु व्यञ्जनेषु सञ्जातेपु स्वजातीयानां मध्ये १. एकव्यञ्जनलोपः । एकस्तकारो लुप्यते । सिः। रेकः । साधना सत्पुरुषाणां वादः साधुवादः । कुशलो योम्यो हितश्च साधुरुच्यते । यज वपूजादिषु । इज्यते यशः । “५ यजः शिदच" अस्मादसन् प्रत्ययो भवति स च वृण्वत् । अस्य शिः । कार उच्चारणार्थः । वर्ण्यते साधुजनेन घर्णः । गुणानामवलिः श्रेणिः गुणावलिः । ख्यायते ख्यातिः । श्लोकः । अभिख्या । समाख्या । अश्यानं तु साहसम् ॥१५३॥ साहसे द्वौ । अवधीयतेऽवधानम् । अवदानं च । साधते ''साहसम् । प्रेप्यादेशनिदेशाज्ञानियोगाः शासनं तथा । पडादेशे । प्रेष्यते इति प्रेष्यः । या समन्ताद् दिशतीत्यादेशः । निदिश्यते निदिशतीति वा निदेशः। आजानातीत्याशा' | नियुज्यन्ते नियोगाः । शास्यते प्रतिपाद्यते शासनम् । शासु अनुशिष्टौ । सन्देशः प्रिययोः स्त्रीपुरुपयोः मुखवार्तायां सन्देशः । सन्दिशति "सन्देशः । श्रमरसिंहनाममालायाम् - "सन्देशवागवाचिकं स्यात् ।" वार्ता प्रवृत्तिः किंवदन्त्यपि ॥१५४|| यो नवीनवार्तायाम् । वृत्तिोषवृत्तं विद्यतेऽस्था धार्ता । “प्रज्ञाअदाऽर्चादृत्तिभ्यो णः" १. कं ब्रह्माणमपि लङ्कपति हीनतां गमयतीत्यन्यत्र । २. न वदितु' योग्यमित्यवयं गम् ि । "अवद्यापण्यवयोगांपरिणतन्यानिरोधेषु' इति यत् । ३. नात्र प्रमाणान्तरमुपलब्धम् । निभ्यते निश्चयेन ज्ञायते कलङ्किजनोऽनेनेति करणे धन । बलविना राजशासनचिह्नितत्वदर्शनात् । ४, का0 उ. सू०५३ । ५. पच्यते दुःखमनेन । पचि व्यक्तीकरणे विस्तारे वा। कर्मणि घञ्। ६. "मसी समी परिमाणे" 1 पुंसि संज्ञायां घः । यद्वा मलोऽस्यास्तीति 'ज्योस्स्नातमिहे" त्यादिना मत्यर्थीय ईयस् प्रत्ययः। टीकोतविग्रहश्चिन्त्यः । तत्र मलिमस इत्यापत्तेः । ७. का. म्। ३।२।११। ८. कीर्तीषोः तिश्चेति निर्देशात् कृतः कारिते इर् । ६. "नामिनोर्वोऽकुछुरोयखने' का सू० ३।१४ | १०. का सू० ४/५/८६ । ११. का० उ० सू० ४।६० । १२. सहसि बले भवं साहमाम् । १३. श्रादेशनम् यादिश्यते वेति विग्रहः । १४. अत्रापि आशायते श्राज्ञानं वेति विग्रहः । १५. सन्दिश्यते इति कर्मणि घन न्याय्यः । १६. अम० को० १।६।१७ | १७. पा० सू० ५२।१०१ 1 Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाममाला स्त्रीक्लीबे वाः च । प्रवर्तते जमोऽनया प्रवृत्तिः । स्त्रियाम् । किं कुत्सितं वदस्यत्र किंवदन्ती' | वृत्तान्तः । उदन्तः । कठोरं कठिनं स्तब्धं कर्कशं परुषं दृढम् ।। षड् दृढे | कठति कृच्छेण जीवति कटोरः । कठति कठिनः । स्तम्नोति स्म स्तम्धः । ककः सोत्रोऽयं धातुः । कर्कति करोति निर्दयत्वं कर्कशः। पहष्यति कुष्यतीति परुषः । कुप कुध रुष रोये । ५ हह दहि वृद्धी । दृहति स्म दृढः । “परिवृददौ प्रभुबलवतोः।" क्रूरः । कस्खदः । खरः । चण्डः ।। निष्टुरः । जरठः । मूर्तिमत् । मूर्तम् । प्रबुद्धम् । प्रौढम् । रचितम् | सबै त्रिषु । अश्लीलंकाल फल्ग निस्सारे वचसि वयः । न श्लीयते न श्लिष्यते सतां चित्तम् अश्लीखम्” । वचनम् । के शिरः पा समन्तात् इलति अशोभमान करोतीति काइलम् । लोइलञ्च । लुहः सौत्रः । फल निष्पत्तौ । ५. फलति फल्गुः । 'रउजुतकुंबल्गुफल्गुशिशुरि पृथुलघषः । कोमलं मृदु पेशलम् ॥ १५५ ।। प्रयः कोमले । कौ पृथिव्यां मलते कोमलम् । मृद क्षोदे । मृनातीति मृदु । पिंशति पेशलम् । सुकुमारः | मृदुलम् । प्रत्यग्रं साम्प्रतं नव्यं नवं नूतनमग्रिमम् । __घड् नवीने । प्रत्यप्रगति प्रत्यग्रम् । सम्प्रति भवं साम्मतम् । नूयते नव्यम् । नौति नवम् " | नूयते नूतनम् । अग्ने भवन् अनिमम्११ । "पृथ्वादिम्य इमन्वा' । अभिनवम् । १. कोऽपि वादः। पिम्पूर्वाद् वदेरौणादिको झच् प्रत्ययः, झात्यान्तः। गौरादित्वान्डीम् । इति रामाश्रमः । २ 'कटिचकिभ्यामोर" का उ० सू० ४३७ । 'कठ कृष्टीवने" । ३. वष्टिभागुरिल्लोपमित्यापेरल्लोपो नत्वपस्येति टीकोक्त विश्चिन्यः । रामाश्रमस्नु-"पिपर्ति पूरयति अलं बुद्ध करोति । " पालनपूरणयोः' । पुनहि' इत्यादिना उ० सू० ४६५ 1 उपच । इत्याह ।" पृणाति पूरयति परं फोनेति हेमचन्द्रः । ४ का मू० ४६।१५ । ५. न श्रियं लातीति अश्लोलम् । कयत्ययः । करितकादित्याल्लत्वम् । इति रामाश्रमः । न श्रोरस्यास्तीति सिमादित्वान्मत्वर्थीयो लः। ६. काइलो स्फुटवा गिति हेमचन्द्रः । ७. फलति विशीर्यते इत्यन्यत्र । ८. का. उ. सूक श। इत्युपत्ययः गश्च । ५. की पृथिव्यां मलते धारयति श्रियम् इत्यर्थः। “मल मल्ल घारसे" पचायच । 'परमेवं कुमल' इत्येव सिध्यति । कलुतस्तु "कोमल" शब्दस्य सिद्धिः प्रकारान्तरेव सापनीया । कौतीति कोमलः इति विग्रदोऽभिधानचिन्तामणी । काम्यते जनः इत्यन्यत्र । १०. रयते इति कर्मणि कुप्रत्ययो न्याय्यः। ११. विशल्येकदेशेन सर्व करोतीति। श्रौणादिकोऽलन् । रामाश्रमस्तु-'पिश समाधो" पेशनं पेशः समाहितचित्तला, मोऽस्यास्तीति सिध्मादिल्बादलच् इत्याह । पेशल शब्दस्य दक्षार्थो मुन्थ्यः कोमलार्थो गौणः । तद्युतम् -"दक्षे चतुरपेशलपटवः मूत्थान उष्णश्च" इत्यमरः । ।१०।१९ । "दक्षस्तु पेशजः । इति अभि. चि. ३।४ । १२ "अग गतौ" | दः । प्रतिनवमग्रमस्येति क्षीरस्वामिरामाश्रमौं । प्रतिशतमामनेनेति हेमचन्द्रः। १३. 'णु स्तवने" | अचो यत् । १४. गूयते नवम् । अदीदम् । एवं कर्मणि विग्रहो युक्तः । १५. नवगेव भूतनम् । "नवस्य नूरपिशरत्नपतनपखाश्च प्रत्ययाः खा० ५।४।३० | इति तनप् प्रत्ययो नूरादेशश्च । इत्यत्र । १६. 'अमादिपश्चाडिमच्" वा० इति हिमच। नाष पृथ्वादिभ्यः , इमन् , तस्य भावकर्मणोविधानात् पृथ्वादी पाटाभावाच्च । सत्यपि । अनिमन, इत्यनिष्टरूपापत्तेः । Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमरकीर्तिविरचितभाष्योपेता नूनश्च । सधै त्रिषु । पुराणं जठरं जीणं प्राक्तनं सुचिरन्तनम् ॥ १५६ ।। पञ्च पुरातने । पुरा भवम् पुराणम् । जठ इति सौत्रोऽयं धातुः । जठतीति जठरम्' । जीर्यते जीर्णम् । प्राक् पूर्व भवम् प्राकनम् । सुष्ठ चिरं भवं सुचिरन्तनम् । प्रतनम् । प्रत्नम् । भो रे हं हो यामन्त्र ___ एते शब्दा आमन्त्रणार्थे वर्तन्ते । भू सत्तायाम् | भोः । रेपृ प्लबगतौ । रे। हनु हिंसागयोः । हं । हु दाने 1 हो । हि गतौ । है। कश्चित् किञ्चन संशये। ___सन्देहाथै द्वौ शन्दी वर्तते । अविशेषाभिधाने चिच्चनशब्दो अवगन्तव्यो। तथा चोक्तन५० "किमः सर्वविभवत्यन्ताविश्वनौ ।” कश्चित् । कश्चन | कौचित् । फौचन | केचित् । कंचन इत्यादि । स्त्रियां काचित् काचन इत्यादि । क्लीवे किजित् । किञ्चन । इत्यादि । "द्राक्क्षणेऽहाय" सपदि शीनाथें त्रयः शब्दा वर्तन्ते । निषेधे मा न खल्बलम् ॥ १५७ ॥ निषेधे चत्वारः शल उच्चैरुच्चावचं तुङ्गमुच्चमुमतमुच्छ्रितम् । पड् दीर्धे । उच्चीयते उच्चैस् । अध्ययः । उच्च च अवचं च उच्चावचम् । तुजति दैमाइते तुगम् । उच्चीयते उच्चम् । उन्नमत्युनतम् । उच्छीयले उच्छ्रितम् । प्रांशुः' : तालव्यः । उग्रम् दीर्घम् । आयतं च । __ नीचं न्यगातनं कुछ नीचैह स्वं नयेत्परम् ॥१५८।। घडू हवे । निचीयते नोचम् । न्यश्चतीति न्यन् । आतन्यते श्रातनम्। कौति व्याधि कुञ्जः । ५. यद्यपि जरठशब्दो जीर्णे प्रसिद्धी जठरशब्दस्तूदरे, तथापि कचिजठरशब्दोऽपि जीणे पठितस्तदाशयेनाइ-जठतीति जठरमिति । यदुक्तम् -- जठरः कुक्षिद्धयोः" अने० स० ३।५५ । २. भातीति भोस् । डोस्प्रत्ययः । यथा-भी भार्गव । रिणातीति रे । विच् । यथा रे चेटाः । .. हो, इति पृथकसम्बोधनद्वयमुक्तम् । परन्तु नाटकादौं 'इं हो' हत्यखण्ड एव सम्बोधने प्रयुज्यते । हं जुहोतीति हो । यथा इंहो ति सखे । हिनोति हे । "हिं गतों वृद्धी" | विच् । यथा हे हेरम्ब । ३. अविशेषार्थे इत्याशयः। ४. द्राति द्राक् । "ट्रा कुत्सायां गतौ" । बाहुलकात्कः । अकार इत् । स चासो क्षणो द्वापक्षणः । ५. श्राहक्नम् श्राहायः “हुनु अपनयने" । घम, । पृषीदरादित्वाद वस्य यः । ६. सम्पद्यते सपदि । 'यद गती" । इन् | पृषोदरादित्वात्समोऽन्त्यलोपः। ७. तुमति दैर्घ्य पालयतीति । धन । कुत्वम् । ८. उन्नमति स्म उन्नतम् । ९. उर्ख श्रयते उछितम् । १८. प्राश्नुते दैर्ध्य प्रांशु । “अशा व्यासी"। ११. निकृष्टामा लक्ष्मी चिनोतीति । डः । इति रामाश्रमः । निम्नमश्चति, नीचैरस्त्यस्य वा । अर्श आदित्वादच । अध्ययाना ममात्र टिलोपः । १२. मात्र प्रमाणामुपलब्धभू । १३. कौति व्याधिविशेषं ब्रूते सूचयति । की पृथिव्याम् उन्जति जूभवति । "उब्ज बाजचे ।" अच । शकन्भ्वादिः । कु ईश्न उब्जमा वामस्य वेति रामाश्रमः | Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाममाला म्युञ्जश्च । मिचीयते नीचैम् । इसति हस्वः । अमा सह समं साकं साद्रं सत्रा सज्रः समाः। ___ अष्टौ साधे । अमति अमा' | सह इन्ति गच्छति सह । सह मिनोति समम् । सह अति गच्छति साका । सइ ऋद्धम् साद्धम् । सह प्रायते सत्रा। जुषी प्रीतिसेवनयोः । जुप् सहपूर्वः । सह जुषते सजूः । किच वेलोपः। सि: । व्यञ्ज २२ । सिलोपः | समन्ति समाः । सह मान्ति वर्तन्ते प्रदतहो । यासा वा। स्त्रीबहुत्वै । सर्वदा सततं नित्यं शश्वदात्यन्तिकं सदा ॥१५६।। षद नित्ये । सर्वस्मिन् काले सर्वदा । काले कि सर्वयदेकान्येभ्यः एप दा" । संतन्यतेस्म सततं ' सन्ततम् च । नियच्छति नित्यम् । श्वसतीति शश्वत्' । अत्यन्ते भवमात्यन्तिकम् । सदा इति निशतः । सर्वशब्दास्परी दाप्रत्ययो भवति सर्वस्य सभावश्च | सर्वस्मिन् काले सवा। सना.. तन, सदातनम् । ध्रुवम् । शाश्वतम् । शाश्वतिकम् | अनश्वरम् । अविनश्वरम् । सर्वे त्रिपु । वियोग मदनावस्थां विरहं पल्लकं विदुः । चत्वारो बिरदै । वियोजन त्रियोगः । मदनस्य कन्दर्पत्यावस्या मदनावस्था। विरह चिरहः । मल मल्ल घारगो । मल्लस्थाने कंचित्पल्ल इति पठन्ति । पल्लते पान्ल: । स्वार्थक पल्लकः'। प्रेमाभिलाषमालभ्यं रागं स्नेहमतः परम् ॥१६॥ पञ्च स्नेहे। प्रियस्य भावः कर्म वा प्रेमा। प्रिय स्थिरेति प्रादेशः । अभिलष्यते भिलाषः । लप श्लेषणक्रीडनयोः । पालभ्यते नालभ्यम्' | '' . सकिसहिपवर्गान्ताच्च" । रञ्ज रागे | रम्ज । रजने रागः । भावेघञ्। :सजेंर्भावकरायोः" पञ्चमलोपः। अस्यो दीर्घः । “चजो: गौ धुट घानुबन्धयोः।" जकारगकारः | ०सिः । रेफः । अथवा रज्यतेऽनेन रागः | "व्यञ्जनाञ्च | करगो पा । प्रा .. रम्जे वकरणयोः" पनमलोपः । अत्यो० दीर्घः । चजोः कगाविति जकारगकारः । स्निह्यते स्नेहः । संहितं सहितं युक्तं संपृक्त संभूतं युतम् । संस्कृतं समवेतं च प्राहुरन्वीतमन्वितम् ॥१६॥ १. न माति सह मापिनामनेकत्वान्मयतां न गच्छति । इप्रत्ययः । कात्यो का । २. "व्यञ्जनाच' का सू० २१४६ । ३. "मसी सभी परिमागो' | सम धातुः । पचायच् । सममिति मान्तमव्ययम् | सहार्थ कमत्रोक्तम् । तदभिन्नः समा शब्दी वर्षवाचको न तु सहार्थवाचकः । तदुक्तम्-'हायनोऽस्त्री शरत्समाः" इत्यमरः । अतोऽस्मिन्नर्थे एतत्य प्रामाण्य चिन्त्यम् । सह मान्ति ऋतत्री यासमिति विग्रहो पि वर्पयाचकसमाशब्द एव मङ्गच्छते। तत्रैव ऋतूनां सहमानात् । ४. का सू० २१६।३४ । ५. 'तनु विस्तारे" । क्तः । "समो वा हितततयोः" इति नलोपः। ६. त्यग्नेर्भुवे नित्यमिति वा० निशब्दात्त्यम् । नियच्छति नियतं भवतीत्यर्थः। ७. अत्र शशतीति वक्त युक्तम् । शश लुप्तगती। बाहुलकावत् । ८. सनातनादिशब्दाना विशेष्यनिम्नामां यथोक्त शश्वदादिशब्दसमानार्थतया टीक कृतीतिर्न सङ्गच्छने । ९. मल्लकफल्लकशब्दयोरिहार्थव प्रमाणान्तरं नौपलब्धम् । १०. पा० सू० ६।४।१५७ | इति प्रादेशः । इमनिफ्ययः । पृश्यादिभ्य इमनिवा इति । ११. आलस्यशब्दस्य रागाईं फौपान्तरसंवादो नीपलब्धः । १२. का० सू० ४।२।११ । १३. का. सू० ४।१।६६ । १४. का० सू० ४१६।१६ । १५, का०सू० ४५.९९ । Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमरकीतिविरचितभाध्यापेता दश सहिते । संहीयते संहितम् । सहितम् । "लुम्पेदवश्यमः कृत्ये तुम्काममनसोरपि । समो वा हितततयोमासम्य पचि युडघमोना" योजन युक्तम् । पृची सम्पर्के । पृच् । सम्पृणक्ति स्म सम्पृक्तम् । “गत्यर्थाकर्मक०४" इति ५ कर्तरि क्तःप्रत्ययः । “चबोः क्रगो"--चस्य कः । सम्भ्रियते श्म सम्भृतम् । यौतिस्म युतम् । संस्क्रियते स्म संस्कृतम् । समवेयते स्म समवेतम् । अन्वीयते स्म अन्वीतम् । अन्धितम् । बाऽध्या सरणिः पन्थाः मार्गः प्रचरसञ्चरौ । सप्त मार्गे । वर्तन्ते प्रतिपद्यन्ते जना येन तत् वम । नान्तम् । सर्वघातुभ्यो मन्" | गच्छति अतति चलति अनेन नान्तोऽभ्वा' । सरत्यनया सरणिः । दन्ततालव्यः । मनिवास्त्रियाम् ! हो। १० पतन्ति गञ्जन्ति अनेन पन्थाः । नान्तः । इदन्तोऽपि । पथिः। पथः । पचानः । पन्थ इत्यपि । एते पुसि। मार्जनं मार्गयन्त्यनेन वा मार्गः | पुसि | प्रकर्षण चरत्यनेनेति प्रसरः। सञ्चरत्यनेनेति सञ्चरः। पद्धतिः । एकपदी । वर्तनी । अयनम् । पदवी । पद्या । निगमः । त्रिमागंनामगा गङ्गा ___मार्गपूर्व त्रिशब्दे प्रयुज्यमाने गङ्गानामानि भवन्ति । त्रिवर्मा । व्यध्वा । त्रिसरणिः । विस्था । ५५ त्रिपचरा । त्रिसञ्चरा । घोषो गोमण्डलं नजः ॥१६२।। प्रयो गवा स्थाने । घोषन्ते गावोऽत्र घोपः। गवां मण्डलम् गोमण्डलम् । गावो । अजन्त्यत्र अजः । गोकुलम् । गोत्रम् | शृङ्गो इतिहरि थहरिस्तिर्यक्च शृङ्गिणः । २० पञ्च महिषादिक । पर याति हिनस्तीति शृङ्गः । (म्)। त्रियु । हुन् । हाणे 1 ह इतिपूर्वः । ति चर्म सेवकं जलमाण्डं हरति वति इतिहरिः। "हरतेह तिनाथयो:१२ पी" इप्रत्ययः । नाम्यन्तगुणः । नाथं स्वामिनं हरतीति नाथहरिः । "मुरते तिनाथयोः पशी'। तिरोन्नतीति १. संहीयते इति विग्रहो न युक्तः । सम्पूर्वस्य हाकल्यागार्थकत्वात्प्रस्तुतार्याप्रतीतेः । अतः सन्चीयते रम संहिताम् । सम्पूर्वाधाञः तम्यये पाजो हिरिति ह्यादेशः। २. ६।१।१४४ का सू० । ३. बुज्यते स्म युक्तम् । ४. का. सूत ४।६।४२ । ५. का. सू० ४।६।५६ । ६. का उ. सू० ४।२८ । ७. अतति सन्ततं गच्छति जनोत्र श्रया । "अत सातत्यगमने" । “धनिस्तस्व घ.' का० उ. सू० ६५२ । इति वनिप्रत्यया, तकारस्य धकारश्च । “अति बलं पथिकानाम् । अर्थ. श्वेति कनिम् पश्चान्तादेशः ।" इति रामाश्रमः । ... "पतृ पतने" । पतेस्थश्वेतीति योऽन्तादेशश्वेत ग्रन्थाशयः । पथन्तेऽनेन । “पथै गतौ' । पथन्तेऽनेन । ‘पथे गत।' । पश्मिथिम्यामिनिः । इति रामाश्रमः | ९. मृज्यते वितरण किया पादः। मृजू शुझौं । घत् । वृद्धिः । कुत्वं च । माग्यते इति वा । "मार्ग अन्वेषणे" । १२. वासन्ते शब्दायन्ये इत्यर्थः "बास शब्दे" । ११. "शृङ्गभूडामनि" का उ० सू० १।४।४८ । "श हिंसायाम् | अङ्गप्रत्यये शिपातः | शृङ्ग गदादीनां विषाणमिति तत्रैव दुर्गः । ततः मापस्यास्तीति अर्श प्रादिभ्योऽत्र । एवं सति महिषादिसंज्ञा संगच्छते । अजमावे विषाणमेवार्थः स्यात् । १२. का० सू० ४।३।२६ । १३. नाथं नासारज्जु इरतीत्यन्यत्र । Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाममाला तियञ्चः' | शृणातीति शृङ्गम् । " शृङ्गभृङ्गाङ्गानि एतेऽङ्गप्रत्ययान्ता निपात्यन्ते । शृङ्गानि वियन्ते येषां ते शृङ्गिणः । गौश्चतुष्पात्पशुः योगवि । पूजां गच्छतीति गौः । चत्वारः पादा यस्याध चतुष्पात् । स्पश्च इति सौत्रो धातुः । स्पर्शले [ बाधते ] इति पशुः । श्रवादयः - "अष्टुष्टहरिनुमितद्रुतद्रुशंकुधनु- ५ युपशुदेवयुजटायुकुमारमृगयव:" एते शब्दाः कुप्रत्ययान्ता निपात्यन्ते । तत्र महिषी नाम देहिका ॥ १६३ ॥ 1 द्वौ महिष्याम् । तत्र तस्मिन् मयतेः " महिषः । नदादित्यादीः । महिषी । दिते उपचीयते दुग्धेन देहिका" । कृती नदीष्णो निष्णातः कुशली निपुणः पटुः । क्षुण्णः प्रवीणः प्रगल्भः कोविंद विशारदः || १६४ ॥ I एकादश कुशले । प्रशस्तं कृतं कर्मास्य कृती नयां स्नातीति नदीष्णः | "निनदीभ्यो स्नातेः कौशले” इति घत्वम् । नितरां संस्नाति स्म शुचिलमाप्नोति स्म निष्णातः । कुत्सितं यति कुशलः । अथवा कुशान् लाति कुशलः । निपुणतीति निपुणः । शोभनकर्मत्वात् । परति जानातीति पटुः । क्षुत्ति स्म क्षुराणः । क्षुर्दिर् सम्पे । प्रकृष्टा वीणास्य प्रवीणः इति मुख्यार्थं परित्यज्य १५ निपुणे रूठा 1 तदाहुः "" निरुद्धा लक्षणा कैचित्सामर्थ्यादभिधानवत् । क्रियतेऽयतनैः कैश्वितश्चिन्नैव त्वशक्तितः ॥" १० प्रगल्भते प्रगल्भः । गल्भ धाष्टर्यो । को वैत्ति तदभिप्रायमिति निरुक्त्या करते कोविदः । विशेषेण पाव शुतिविशारदः" । क्षेत्रः । कृतहस्तः । कृतसुखः । कृतकर्मा । दक्षः । शिक्षितः | २० विदग्वश्चतुरः ह्रौ चतुरे । विदधते विदग्धः । पुरुषार्थान् चतते याचते चतुरः । धूर्तश्चादुकृत् क्रितवः शठः । श्रागमशास्त्र १. "तिर्यञ्च" इत्यकारान्तपाठश्चिमयः । वप्रत्ययान्तेऽञ्चता वेच "तिरसस्तिर्यलोपे " इति तिर्यादेश इति चकारान्तस्यैव युक्तस्वम् । चकारान्तये चााक्षरपादे एकाक्षरोनत्वेन मूले छन्दभङ्गश्व । न चाका रान्तस्तिर्यञ्चशब्दः केनाऽप्यन्यकोषकारेश पश्यर्थेऽभिमतः । तदुक्तम्- - 'पशुत्तिर्यङ्नरिः अ० चि० ४२८१ । २ सामान्यविशेषार्थत्वादेषां पर्यायत्वाभावात्त्रयो गवोति पाठश्चिन्त्यः । गोशब्दः पशुविशेषे बलीवददौ । चतुष्पात्पशुशन्दयोः सर्वपशुवाचकत्वात्पययत्वमिति विवेकः । ३. का० उ० सू० ११ १५ / ४. "महि वृद्धी" । मंदते वर्धते वा विशालकायत्वात । श्रादिकपिच् । स्यानित्यत्वान्न नुम् । इत्यन्यत्र । ५. नात्र कोषान्तरसंवादः । ६. पा० सू० ८ ३४८२ । ७. अस्य पूर्वार्धः ध्वन्यालोकलोचने १६ कारिकाटीकायामेवमुपलभ्यते "निरूडालक्षणाः काश्चित्सामर्थ्यादभिधानवत्" इति । उत्तरार्धस्तु न समुपगतः कौति प्रतिपादयति धर्मादि की विदः । कुधातोर्विच् । वैतीति विदः । इगुपचेति कः । कोविदः । श्रथवा कषि वेदे विदा यस्येते रामाश्रमः । ६ विशेषेणे शारदोऽधृष्टः प्रत्ययो वा विशारदः । इति हेमचन्द्रः । विशिष्टो विपरीतो वा शारदः इति रामा० | १०. विशेषेण मैर्खचित्तं दहति स्म विदग्धः । Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2 १० १५ co अमरकीर्तिविरचितभाष्योपेता चत्वारो धूर्त प्रति स्म नितिन चार धूती ना करोतीति चाटुक! | कितवोऽस्त्यस्येति कितवः । शटयतीति शठः । दण्डाजिनकः । कुहकः । कार्यटिकः । जालिकः । काम तिकः । व्यञ्जकः । मायावी । मायी । कापि नागरिको ज्ञेयः कापि कुत्रापि शेयः ज्ञातव्यः । नगरे भवो नागरिकः । गोत्रसंज्ञाङ्कनाम तत् ।।१६५॥ · चत्वारो नाम्नि | गवा वाण्या स्वाचारेण त्रायते रति पालयति गोत्रम् | संज्ञानं संज्ञा । श्रच नाम च समाहारत्वादेकवचनम् । श्रयते लक्ष्य अङ्कम् । नमनम् नाम । मुग्धो मूढो जडो नेडो को मूर्खश्च कद्वदः । 7 ነ १६ सत मूर्खे | धर्मकार्येषु मुहति संशयं प्राप्नोतीति मुग्धः । मुह वैचित्ये । मुहाति य्म मूढः । गत्यर्थेत्यादिना कः । हो ः | | 'तवर्ग ०] डे टीलोप | सिः । रेफः । जति न पुण्यं यच्छति I जडः | नामश्च । न ईयते न स्तूयते केनापि नेडः । मुङ् बन्धने । मूयते मूकः । मूकादयः- मूक्यूकअर्भकमृथुक्पृकटकनूकाः" पते कात्ययान्ता निपात्यन्ते । मुद्द वैचित्ये मुह्यति कार्येषु मूर्खः । "मुहं बालः | १८ बद्धरः । सलि } । " | कुत्सितं वदति कछदः । विधेयः । वालिशः । वाडिशः नालीकः । पशुः । ד स देवानां प्रियोऽप्राज्ञो मन्दः यो मन्दे । देवानां प्रियः । ग्रथि (न्थि) ल इत्यर्थः । न प्राज्ञः अप्राज्ञः कार्येषु मन्दते स्वपितवेति मन्दः | १. कुसृत्या चरतीति कौमृतिकः । तेन चरतोति ठक् । २. धूर्तसामान्यार्थ इत्यर्थः । ३. चचया श्राचारेण च स्वस्य रूपं रक्ष्यते । नामाऽपि स्वानुरूपाचारख चोभ्यामात्मानं प्रतिष्ठापयति । रामाश्रमस्तुदगूयते शब्दयते उच्चार्यते इति व्युत्पत्तिमाह । "गुड् शब्दे" । ४. दुतम् — "संज्ञा स्याच्चेतना नाम हस्ताद्यैश्चार्थसूचना" इति । श्रमको ३/३/३३ । ५. श्रनेनेति शेषः । नाम्ना जनो भवति । ६. नमनं नामेत्यसङ्गतम् । भावे घञि प्रणामयिक दन्त्यनामशब्दसाधुत्वापत्तेः । अतः सन्ना अभ्यासे" म्नायसे उच्यते ऽभिधीयते ज्योऽनेनेति विग्रहो न्यास्यः । नामन् सीमम् इति निपातितः । ७. श्रत्र "मुहादीनां का" का सूत्र ३४६ । इति तकारस्य धकारः । ८. " तवर्गस्य घट वर्ग: " का० सू० ३८५ इति घस्य दः । . " दलोपोदीर्घ श्रीपधायाः । का० सू० ६ इति टोपी दीर्घश्च । १०. जलति तीत्रो न भवति । डलयेोरैक्ये जड इति हेमचन्द्रः । न्तरे नोपलभ्यते । एडमूक शब्दोऽवमूकशब्दो वा वाक्स्तु तिवर्जितार्थे लभ्यते वक्तुं श्रीतुमशिक्षिते' इति । श्रम० कौ० ३ | ११३८ । " एडमूकौ त्वावाक्षुतौ” तत्रापि अनेडमूक इति पाठः सम्भाव्यते । बडविशेषवाचकत्वेऽपि तस्य सामान्याभिप्रायेण जडे प्रयोगः श्रनेडशब्दो वा बधिरार्यः सामान्याभिप्रायेण प्रयोगः | १२. का० उ० सू० २१५८ । १३. का० उ० सू० ४ १७ । १४. नात्र प्रमाणान्तरमुपलब्धम् । १५. श्रत्रापि नान्यत्प्रमाणम् । १६. अत्रानेकार्थं सङ्ग्रहः ३।५४ | प्रभाणम् । तदुक्तम्- नालीकोऽजे शरे सन्धे नालीकं पद्मनन्दने" इति । १७. 'देवानां प्रिय इति च मूर्खे” वा० ३।३।२११ “षष्ट्या अलुक्" इति पा० सूत्रे । ११. नेडशब्दः कोषा तदुक्तम् - "एडमूक स्तु श्रभि० च० ३११२ । Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११ नाममाल ०१ श्रीनामवर्जितः ।। १६६ ॥ वर्जितः । बुद्धिवर्जितः । प्रतिभावर्जितः । प्रज्ञावर्जितः । मनीषावर्जितः । धिषणावर्जितः | मतिवर्जितः । संख्यावर्जितः । इत्यादीनि मुर्खनामानि भवन्ति । पाष्टिकः कलमः शालिवहिः स्तम्बकरिस्तथा । चत्वारः शालिभेद । षष्टिरात्रेण पच्यन्ते पाष्टिकाः । षष्टिदिव ैरुत्पन्ना इत्यर्थः । ५ कलयति पुष्टिमनेन कलमः | शालते धान्येषु शान्तिः । श्रथवा सहालिना भ्रमरेण युतः खालिः | कति वर्ष श्रीहिः । स्तम्बकरिः । वत्सः शकृत्करिर्जातः षोडन् षड्दर्शनः स्मृतः ॥ १६७ ॥ चत्वारो वत्से | मातरमभीक्ष्णं वदति वत्सः । शकृत् करोतीति शकृत्करिः | ( : ) । स्तम्ब" शकृती रिति" श्रीहिवत्सयोरुपसंख्यानादिन् । षड् दन्ता यस्य स षोडन् । “समासे दन्तदशधासु उत्वं दधोईदौ" षड् दशनाः यस्थ स षडक्शनः । शौण्डीरो गर्वितः स्तब्धो मानी चाहयुरुद्धतः । उद्ग्रीव उद्धरो दृशः नव गर्विते । शौण्डतीति शोरबीरः । " " कृशृशौण्डुभ्य ईरः " । गर्योऽहंकारः संजातोऽस्व गर्वितः । तारकितादिदर्शनात्संजातेऽर्थे इतच् । स्तभ्यते स्म स्तब्धः । मानः पूजादिलक्षणो गर्यो विद्यते १५ श्रस्य मानी । अहम् अहंकारो ऽस्त्यस्य श्रहंयुः । "उर्णाऽहं शुभंभ्यो युः । उद्धन्यते रूपेण उद्धतः । उद् क ग्रीवा यस्य स उदद्भीवः । उद्धरति गर्वेणान्यम् उद्धरः । दृप्यते रसः । . १० नीचश्च पिशुनोऽधमः ॥१६८॥ ť 16901 त्रयो दुर्जने । नितरां पापं चिनोति नीचः " | मैत्री विंशति मैत्रीं पेशयति वा पिशुनः | तालव्यः । पिनष्टि वा पिशुनः । पिशुनफाल्गुनी” नञ्पूर्वी धाञ । न दधातीत्यधमः । "घर्मसीमाग्रीष्मा २० धमाः" | दुर्जनः । क्षुद्रः । कः । दोषग्राही । द्विजिहः । ་་་ चौर कागारिकस्तेनास्तस्करः प्रतिरोधकः । निशाचरो गूढनरो हेरिकः प्रणिधिश्व सः ॥ १६६ ॥ न चौरे चोरयतीति चोरः । स्वार्थेऽखि चौरश्च । एकागारं प्रयोजनमस्येत्यै कागारिकः । 1 १. षष्टिकाः पष्टिरात्रेण पच्यन्ते" पा० ५/१/१० । इति कन् प्रत्ययो रामशब्दलोपश्च । २. स्तम्बं करोतीति स्तम्बकरिः । "इ स्तम्बकृती : " | का० सू० ४१३/२५ | इति कृञ इप्रत्ययः । ३. का०सू० ४।३।२५ । ४. का० उ० सू० ३।४८ । ५. " ऊर्णाऽशुभमोस्" इति ३० श० ७२१७१ ६. उत्कण्ठ हन्ति गच्छति हिनस्ति वा० उद्धतः इति हेमचन्द्रः । ७. हृस्वार्थे ऽयं शब्दो गतः । तत्र न्यञ्चतोति fara amः । त्र पिशुनार्थानुरोधेन विग्रहभेदः । निपूर्वका चिनोतेर्वा हुलकाड्डः । उपसर्गदीर्वश्व । अन्यत्र तु निकृष्टञ्चतीति विग्रहः । ८ पिंशत्येकदेशेन सुलयति "क्षुधिपिशिमिथिभ्यः कित्" उ० सू० ३५५॥ इत्युन् । पिशुनयति अपिशुनति वा । " श्रपश्यति खण्डयतीति भोजः" इति हेमचन्द्रः । ९. का० उ० सू० २।६१ । १०. का० उ० सू० १४५६ । १. चौरादयी निशाचरान्ताः षट् चौरे । गूहनरादयः प्रणिभ्यन्तास्त्रयो गुप्तचरे । इति पाठ उचितः । तदुक्तम् - " हेरिको गूढपुरुषः । प्रणिधिः"अभि० चि० ३।३६७ । Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमरकीर्तिविरचितभाष्योपेता स्तेनयति स्त्यायति वा स्तेनः । उभयम् । तस्पति परद्र ध्यं यं नयति तरकरः। "तसे:करः | अथवा कृषु तत्पूर्वः । तत्करोतीति तस्करः । तदाद्य । नाम्यन्तगुणाः। रूदित्वातस्य सकारः । प्रतिरुणद्धि मार्गः प्रतिरोधकः । निशां चरतीति निशाचरः । गूदश्चासौ नरः गूढनरः । हिनोति परराष्ट्रं गच्छति हेरिकः । प्रकर्षण नितरां गुप्तो घीयते म्रियते घा प्रणिधिः। दस्युः । परास्कन्दी । मलिम्लुचः । ५ मा । असिना । प्रस्तरोपलपाषाणषद्धातुः शिला घनः । प्रस्तुणात्याच्छादयति "प्रस्तरः । काठिन्यमुपलाति उपलम् । उभयम् । पिनष्टि सर्वे *पाषाणः। पासानश्च । हणाति चूर्णयति द्रियते आद्रियते वा कार्यार्थ उपत् । स्त्रियाम् । दधाति 'धातुः। शिनोति तनूकरोति शिला । शिली च । स्त्रियाम् । इन्यते १२घनः । अश्मन् । प्रावन् । पुलकश्च । तत्र जातमयो लोहम् द्वी लोहे । तत्र तस्मिन् पाषाणे जातम् उद्भवम् तत्रजातम् । प्रस्तरोद्भवः । उपलोद्भवः । धातूद्भवः । दृषटुद्भवः । शिलोद्भवः | पनौद्भवः । इत्यादि लोहनामानि भवन्ति । अयते सर्वविकार सान्तम् अयः । लुनाति सर्व लोहम् । शातकुम्भं नयेत्परम् ।। १७० ॥ तत्र पाषाणे उद्भवानि सुवर्णनामानि भवन्ति । क्षार्म शान्तं कृशं क्षीणं हीनं जीणं च वैरिणाम् । शीर्णावसानं दूनं च नव कशे । वायति म्म क्षामम् । शाम्यति स्मशान्तम् । कृशम् । क्षीणम् । हीनम् । १० -. .. -..... १. "सेन चौयें"। चुरादिः । पचाद्यच । २. का० उ० सू० ६।३ । ३. "तदाद्याथन्तानन्तकारबहुबाहर्दिवाविभानिशाप्रभामाश्चित्रकत्तु नान्दीकिलिपिलिपिबलिभक्तिक्षेत्रजवाधवरकःसङ्ख्यासु च" का सू० ४३२३ । इति अष्टप्रत्ययः । ४. दस्युप्रभृतयः प्रतिमोषकान्ताश्चौरपाया न तु गुप्तचरपर्योयाः । गुप्तचरपायास्तु-यथाई वर्णः । असर्पः । मन्त्रविद् । चरः । वायिनः । स्पशः । चारः । ५. "स्तम् अाच्छादने" । पचाद्यच् । ६. अथवा पलतोति पलः । श्रोः शम्भोः पलो चोपलः । ७. "पितृ सञ्चूर्णने" । बाहुलकादानन्। पृपोदरादित्यादिकारख्याकारः । "पर बाधे प्रन्ये च" । हलचेति पञ् । पषल्यनेनेति । अणसीत्यणः | "श्रण शब्दे"। अच् । पाषश्वासावणचेति विग्रहोऽप्य. न्यत्र द्रष्टव्यः । ८. "हणातेः घुम् हस्वचे" ति साधुः । ६. "घातुस्तु मैरिफम्" अभि. चि० : 'धातुर्मनःशिलाद्यद्रेगरिकन्तु विशेषतः" अन० को । इत्यादिकोपप्रमाणतः सामान्यप्रस्तरपर्यायेऽस्य पाटोऽयुक्तः । १०. शिनोसीति तालव्यशिधातुर्न क्वचिदुपलभ्यते । “शो तनूकरणे" । तस्य श्यतीति रूपम् । तनूकरोतीत्यर्थः । ततः शिलेति निपातो बाहुलकादौणादिकार्थेन समायाति । रामाश्रमादिव्युत्पत्तिकारस्तु “शिल उन्छे" शिलतीति शिला | इगुपधेति का इत्युक्तम् । तत्रान्तरतम्यं सुधीभिर्विचारशीयम् । १. उदुम्बरश्वाथ शिली शिला चापि शिलिः स्मृतः" इति कल्पद्रुकोषवाक्यमत्रोपीलकम् । १२. "मूतौ घनिश्च" का सू० ४।५।५० । इन्तेरा धनादेशश्च । १३, तमुक्तम्-''पुलकः कृमिभेदे स्यान्मरिणदोषे शिलान्तरे । गजानपिण्डे रोमाञ्चे गल्पहरितालयोः ।" वि० को० का०व० ११६ । Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाममाता ८२ जीर्यते स्म जीर्णम् । शीर्यते स्म शोर्णम् । भवस्यते अवसानम् । दूयते स्म दूनं । हे राजेन्द्र, तव वैरिणां शत्रूणां भवतु इति प्रयोजनीयम् । धैर्य शौयं च पौरुषे ॥१७॥ . अयः पौरुषे । धीरस्य भायो धैर्यम् । शूरस्य भावः शौर्यम् । पुरुषस्य भावः पौवषम् । युम्माकं भवत इत्यध्याहार्यम् । क्षिप्राशुमश्वरं शीघ्रं सहसा झटिति द्रुतम् । तूर्ण जवः स्यदो रहो रयो वेगस्तरो लघुः ॥१७२।। षोडशः वैगे। क्षिपति निरस्यति क्षिप्रम् । रकप्रत्यय उणादी ज्ञातव्यः । अश्नुते श्राशु । कृवापानीति उण् । मज्जति महति वा मक्षुः " । यति मान्तमव्ययम् अरम् । अदन्तं च अरम् । शेवे कार्य शीघ(शिव) ति न्यानोति वा शीघ्रम् । सइते सहसा । अव्ययम् । झटति संघातीभवति १० इदन्तमव्ययम् । झटिति' । द्रवति स्म द्रतम् । त्वरते स्म तूर्णम् । जपनं जयः । जु गतौ । स्यन्दते स्यदः । "स्यदो जबः" इति साधुः । रंयत्यनेन रहः । रयवे राणाति या ऽनेन रयः । वीय (विन्य) ते वेगः · । तरत्यनेन तरः। "1"सर्वधातु योऽसुन्" । लक्ते भूमि लघुः । संवैगः । गतिवचनो जवो धर्मः पचना पाशुशीवादय इत्यर्थमेदः । सदागतिप्रस्तावादाइ-- साधीयोऽत्यर्थमत्यन्नं नितान्तं स वै शम् । सप्त भृशे । साधुभ्यो हितः साधोयः११ । ईवसुः । प्रतिकान्तोऽर्थ वेलो मात्राम् भन्तं च अत्यर्थम् । अत्यन्तम् । भतिवेलम् । अतिमात्रं च । निसाम्यति स्म नितान्तम् । सुष्टौति सुष्टु । - -- -- १. अत्रावसान भिन्ना अष्टावपि शब्दा विशेष्यनिम्नास्तेन कुटुम्ममिति विशेषमध्याहार्य हे राजेन्द्र तब वैरिणां कुटुम्ने दामं भवतु । एवं शान्तं कृशमित्याद्यपि योज्यम् । अवसानशब्दस्य भावल्युडन्तत्वात् तव वैरिणामवमानं नाशो भवत्विति विकः । अवस्यते ऽवसानमिति रीको कविग्रहस्वसत्तः । अवपूर्वस्य "योऽन्त कर्मणि" इत्यस्य भावलटि अवसीयते इति लपम्, नत्वरस्यते इति । करीरि लटि विषादी अवस्यतीति परस्मैपदमेव । नापि फतक्तान्तोऽवसानशब्दः । प्रत्यये "अवसित" इति रूपस्यैव सर्वसम्मतत्वात् । तस्मादवसायतेऽवसायो वा अवसानमिति विग्रदो युक्तः । २. कोषान्तरप्रमाणतो व्यवहाराच धैर्यादिशब्दानां परस्परकर्मभेदात्पर्यायानईत्वेऽपि बलसामान्यविवक्षया त्रयः पौरुषे इत्युक्तम् । ३. गतिवचनो अवो धर्मवचना श्राशुशीघ्रादय इत्यर्थभेदस्य वक्ष्यमाणत्वात् क्षिप्रादयस्तूर्णा ता नव शीघार्थे, जवादयो लध्वन्तारसत वेगाथै इति सुवचम् | "द्राक् क्षणेऽहाय झटिति"एतत्सहैवास्य सीमार्थतया पाठे कर्तव्येऽपि पृथगस्य पाठो मरितिशब्द पुनरुक्तिश्च दोषः। ४. क्षिपति विलम्वमिति शेषः । ५ "टु मस्त्री शुद्धौ" | बाडुलकात्सुः । मस्जिनशोरिति नुम् । स्कोरिति सलोपः । मज्जति कालाल्पत्वे मक्षुः। ६. "पह मर्षणे । असा प्रत्ययः यद्वा सहस्यति । "षोऽन्तकर्मणि" । प्राप्रत्ययो दित् । विभक्यन्तप्रतिरूपकमाकारान्तमव्ययम् ? उदाहरणम्-"सहसा विदधीत न क्रियामित्यादि । ७. "झट सखाते"। श्रोणादिक इतिः । ८. का. सू० ४१॥३५॥ स्यन्देषभि नलोपो दीर्घाभावश्च । स्यन्दन स्यद इति भावविग्रहो न्याय्यः । ६. "मी विजी भयचलनयोः" । १०. का उ० सू० ४/५६ । ११. अतिशयेन साधु बादं का साधीय इति । साधुभ्यो हिव इति टीकोक्तविग्रहस्तु न सङ्गच्छते । अतिशया ईनसो विधानात् । साधीय इति मूलोक्तपदस्य क्लीयत्वेन हित इति पुंबिग्रहोऽपि तथैव । Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमरकीर्तिविरचित भाष्योपैता | श्रव्ययम् । विभर्ति भृशम् I अष्ट्वादयः पटु दुष्टु सुष्टु हरिद्रु मितद्रु शतद्र, श धनु इत्यादयः । स्फुटं साधु खलु स्पष्टं विशदं पुष्कलामलौ ॥१७३॥ 3 सप्त निर्मले । स्फुरत्यभिप्रायो ऽस्मात् स्फुटम् । साध्यतीति साधु खलतीति खलु । सयते स्म स्पष्टम् । विशति चित्ते विशदम् । पुष्णातीति पुष्कलम् । न मलमस्मिन् अमलम् । ५ प्रकाशम् | प्रकटम् । चित्राश्चर्याद्भुतं चोद्यं विस्मयः कौतुकाऽप्यहो । श्रट् कौतुके 1 चित्र चयने । चिनोतीति चित्रम्" । आचरतीत्याश्चर्यम् । पारस्करादि" । चोद्यते इति त्वाद् ] भू सत्तायाम् | अद् पूर्वः अद् विस्मितो भवत्यत्र अद्भुतः । "अदि भुवो डुतः बोद्यम् । विस्मीयते इति विश्मयः । कुतुकस्य भावः कौतुकम् । श्रहो लोका आश्चर्यम् इति १० प्रयोजनीयम् । ५१ ८४ २० अभियोगोद्यमोद्योग उत्साहो त्रिक्रमो मतः || १७४ ॥ पञ्चोद्यमे। अभियोजनम् श्रभियोगः । यमु उपरमे । यम् उद्पूर्वः । "चुरादेश्च "–इन् । 9417 ह्रस्वः । उद्यमि जातम् । । उद्यमन मुद्यमः "अस्योप १०" - दीर्घः । उद्यामि इति जातम् । “मानुबन्धानां भावे घञ् । “कारितस्य० ३२ ।” उद्योजनम् उद्योगः । उत्सहनमुत्साहः । विक्रमणं विक्रमः । I रहोऽनुरहसोपांशु रहस्यं च भिनत्ति कः । चत्वार एकान्ते । रहति त्यजति जनः स यत्र सान्तं रहः । क्लीवे । श्रव्ययं च । श्रनुगतं रहः अनुरद्दसम् । १३ श्रन्ववतप्तेभ्यो रहस्" | उपाश्नुते श्रन्ययमुदन्तम् उपांशुः । रहसि भवं रहस्यम् । कः पुमान् भिनति विदारयति । प्रच्छन्नम्। एकान्तम् । निःशलाकम् । उपहूरम् । विजनम् । विविक्तम् । नान्तिकम् । कीनाशः कृपणो लुब्धो गृध्नुदनोऽभिलाषुकः ॥ १७५ ॥ षट् कृपणे 1 लोभेन क्लिश्यति बाध्यते १४ कोनाशः । की वा वाचकानां नाशयति विनाशय तीति कीनाशः । कल्पते रक्षितुं न तु दातु कृपणः । लुभ्यति म लुब्धः । गृध्नाति गुप्नः । गृभ्तु | रेस्यपि स्यात् 1 लोमेन धीत शोभते ( दीयते क्षयति ) दीनः । दीड चये । कचित् हानः इति पठन्ति । लष कान्ती । श्रभिपूर्वः | अभिलषतात्येवंशालः अभिलाषुकः । “कमगमश्नवृत्रभूत्थालसपतपद मुक I १. का० उ० सू० ११५ । इति कुप्रत्ययः । २ भुधातोः शक्त्ययः किदित्यर्थः । भृश्यतीति भृशं वा । "शुभ्रंशु अधःपतने" । दिवादिः । इगुपधेति कः । भृशस्त्रान्तर्भावितण्यर्थः । ३. स्फुरतीति तू विग्रहो न्याय्यः, नत्वपादानकः तत्र घणि स्फोट इत्यापत्तेः । अत्रगुपधेति कः । ४. “खल सद्ध" । बाहुलकादुः । स्खलुशब्दो नानायें । तदुक्तम्- “निषेधवाक्यालङ्कारे जिज्ञासाऽनुनये खलु” | अम० को ० ३।३।२२५ । ५. "चित्र चित्रीकरणे ।" चित्रयतीति चित्रम् | पचाद्यच् । इत्यन्यत्र । ६. श्रा इति चर्यतेऽभिनीयते इति विग्रहोऽन्यत्र | "आश्चर्यमनित्ये " इति सुट् 1७. का० उ० सू० ४।२५। ८ चोद्यशब्द आश्चर्यार्थे | तदुक्तम्-"चोयन्तु मेर्ये प्रश्नेऽद्भुतेपि च अने० सं० २०३६२ । ६. का० सू० ३।२।११। १०. का०सू० ३।६।५ । ११. का०सू० ३१४/६५ १२. का०सू० ३१६६४४ । इतीनो लोपः । १३. का०सू० ३।४१४१ । अत्र राजादिवृत्तिः २९ १४. "क्लिशू विबाधने" | "क़िशेरीश्चोपधायाः कन् लोपश्र लो नाम् च" पा० उ० सू० ५/६६।२५. का ० सू० ४१ ४ ३४ । 1 Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाममाला कदर्थः । किम्पचानः । मितम्पचः । क्षुल्लः । क्षुल्लकः । क्लीचः । क्षुद्रः । वराकश्च । पाशनीतः सिती बद्धः सन्धानीतो नियन्त्रितः । नियमितः शृङ्खतिः पिनद्धः पाचितो रिपुः ॥ १७६ ॥ नत्र बद्धे । पाशं नीतः पारानीतः । सीयते स्म सितः । बध्यते स्म बखः । सन्धां प्रतिज्ञां नीतः प्रापितः सन्धानतः । नियन्त्रं संजातमस्य नियन्त्रितः । नियामो जातोऽस्य नियामितः । शृङ्खला ५ संजाताऽस्येति शृङ्गुलितः । तारकित। दिदर्शनादितच् । पिनयते स्म पिनखः । पाशः संजातोऽस्य पाशितः । कः रिपुः शत्रुः । कान्तं च कमनं कां कमनीयं मनोहरम् । अभिरामं र( रा ) मणीयं रम्यं सौम्यं च सुन्दरम् ॥ १७७ ॥ दश वरिष्ठे ( श्रतिसुन्दरे) । काम्यते कान्तम् । काम्यते कमनम् । कामयते इत्येवंशीलं १० कम्रम् । काम्यते कमनीयम् | ""तव्यानीयो" । मनोहरति मनोहरम् । मनोहारी । मनोरमम् | श्रभिरमणम् अभिरामम् । रमणस्थ (गाय) हितं रमणीयम् । रम्यते रम्यम् । सोमस्य भावः सौम्यम्' । सुन्दः सौत्रोऽयं सुन्दति सुष्टु नन्दयति इति निरुक्त्या सुन्दरम्' | चारु श्लक्ष्णं च रुचिरं प्रशस्तं हृद्यबन्धुरम् । दर्शनीयं मनोज्ञं ८५ १५ अष्टौ मनोज्ञे । चरन्ति नेत्राण्यत्र चारु । शिष्यते युज्यतेऽनेन लक्षणः । रोचते सर्वेभ्यो रुचिरम् । प्रशस्यते स्म प्रशस्तम् । हृदयस्य प्रियम् हृयम् । चित्तं बध्नाति धन्धुरम् । दृश्यते दर्शनीयम् । मनो जानातीति मनोज्ञम् । I चित्तपर्यायहारि च ॥ १७८ ॥ चित्तहारि | मनोहारि । इत्यादीनि मनोहरनामानि ज्ञातव्यानि । अवश्यायं तुषारं च प्रालेय तुहिन हिमम् । नीहारम् २० हि । अवश्यायते श्रवश्यायः । "दिहिलिहिश्लिंषिश्व सिव्यभ्यती श्याऽऽतां च " णप्रत्ययः । तुभ्यन्त्यनेन तुषारः । प्रलयादागतं प्रालेयम् । तोयत्ययति तुहिनम् । तुहिर् अर्दने । हिनोति वर्धते जलमनेन हिमम् । निह्रियते नीहारः । मिहिका । धूमिका । देश्याम् | २५ १: का० सू० ३७३९ । २. रमणाय हितमिति विग्रदो युक्तः । तस्मै तिमिति चतुष्यन्ताच्छः । मूले छन्दोभङ्गदोषवारणाय रमणीयमेव रामणीयम् इति त्वार्थिको ऽपि कार्य: । ३. सोमस्य भाव इति विमोऽयुक्तः । "प्रकृतिजन्यबोधे प्रकारीभूतो भावः" इति सिद्धान्तात् सौम्य इत्यस्य सोमत्वमित्यसेः । अतः सोमो देवताऽस्येति व्युत्पत्तिः, “सोमाट्यण्" । इति ट्यण् । श्रथवा सोम इव सोमः | ततश्चतुर्वर्णादित्वात्यय् इति रामाश्रमः । ४. सुष्टु द्रियते श्राद्रियते । दुधातोरम् । पृषोदरादित्वान्नुम् | सुष्ठु उनत्ति आद्रकरोति चित्तं वा । सुपूर्वकात् "उन्दी क्लेदने" उन्दधातोर्बाहुलकादरः । शकन्ध्वाfarareपररूपम् । इति रामाश्रमः । ५. नेत्रं मनो वेति शेषः । "शिल आलिङ्गने" । "श्लिषे रथोपधायाः " उ० सू० ३११९ । इति क्रमः । उपधाया अकारश्च ६ का० सू० ४३२ । ५८ । ७. प्रलीयन्ते पदार्था अत्रेति प्रलयो हिमाचलः । सस्मादागतं प्रालेयम् । अय् । कैकयमित्रयुप्रलयानां यादेरियः प० सू० ७|३२| इति यादेरियादेशः । Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमरकीर्तिविरषितभाध्योपेता तत्करं विद्धि मृगाङ्क रोहिणीपतिम् ॥ १७६ ।। तस्य करस्तत्करस्तम् । हिमशब्दारकरशब्द प्रयुज्यमाने चन्द्रनामानि भवन्ति । अवश्यायकर । तुषारकरः । प्रायकरः 1 हिनकरः। हिमकरः । नीहारकरः । मृगाङ्कः ! रोहिणीपतिः । अष्टौ नामानि विद्धि जानीहि । पुषागं सन्नरं प्राहुः द्वौ प्रधानपुरुषे । पुमाश्चासौ नागः श्रेषुः पुषागः । संश्चासी नरः समरः । पाहुः न वन्ति । तिलकं च विशेषकम् । ललाटिका ललामापि पूर्णवाहं तथा द्रुमम् ।।१८०॥ षट् तिलके । तिलकाकृतिः तिलकः । तिलतीति तिलकम् । विशिनष्टीति विशेषः । स्वाथै कः । १० विशेषकः । लल्यते ललाटम् । के प्रत्यये ललाटिका । लल्यते ललामा । पूर्ण वाहयतीति पूर्णवादः । __ट्रपति वृद्धिं गच्छति द्रुमः । तमालपत्रम् । चित्रकम् । अञ्जनं काजलं नागं गनणाटनमायाम् । षट् कन्जले | अज्यतेऽनेनेत्यजनम् । कषति नेत्रवरूप्यं कजलम् । न शोभाम् श्रगति गच्छति नागम् । गजति शोभया माद्यति गजम्। पाटलाया इदम् पाटनम् । ऋच्छति गच्छति १५ शोभाम् आरुणम् । ___ सालं परिधि वृक्षं च त्रयः प्राकारे। सरति गच्छति कालान्तरं सालः । परिधीयते वेश्यते अनेन परिधि: वृणोति नगरमाच्छादयति वृक्षम् । कुल्यां स्वीं सारणी विदुः ॥१८॥ त्रयः पानीयनिर्गमनमागें । कुले गृहे साधुः कुल्या। स्तुणाति वैरूप्यमाच्छिनत्ति स्त्री। सरत्यनया सारणी । तां विदुः कथयन्ति धनञ्जयकवयो भाष्यकर्तारोऽमरकीचार्याश्च । चारोऽवसः प्रणिधिनिगूढपुरुषश्चरः। पञ्च चारे । चरति शत्रुमण्डले बारः। अवसर्पति अवसर्पः। अासर्पश्च । प्रकर्षण १. अत्र तिलकविशेषके टीकोक्ततमालपत्रचित्रके च ललाकृततिलकाऽलङ्करणे । तदुक्तम् --"तिलफे तमालपत्रचित्रपुण्ड्रविशेषका :" । अभि. चि० ३।३१७ । ललारिका पत्रसमूहकृतललाटभूषणम् । तदुक्तम्-''पत्रपाश्या ललाटिका" अभि. चि० ३।३१९ । ललामा तु सीमन्ताने मारमणीभिरिव घार्यमाणं ररनादिकुलभूषणम् । तदुक्तम्- "पुरोन्यस्तं ललामकम्' अभि. चि. ३।३३६ । पूर्णवादमयोस्तु कोषान्तरे पाठी नीपलब्धः । २. पद कलले । इत्यविचारसहम् । प्रजनकबलों समानायौँ । नागराजपाटलारुणा श्रीवकपोलादिरञ्जकलोहितरङ्गविशेषवाचकाः । तदुक्तम्-भनेकार्थसहमहे-"नागो मलङ्गजे स पुन्नागे नागकेवरे" २०३४ । "पाटलन्तु कुसुमश्वेतरक्तयोः" १७०१ । "प्रणोऽनूरुसूर्ययोः । सन्ध्या रागे बुधे कुष्ठे निःशब्दाऽव्यक्तररागयोः" ३.१९८ । ३. अरुणमेव अरुणम् । ४. वृक्षशब्दस्य सालार्थे कोषान्तरसंवादो नोपलब्धः । ५. अब वापिति वक्तव्यम् । स्रोशब्दोऽत्र कुल्यासारण्योः स्त्रीलिजयोधकः, तत्पयायः। ६. पूर्वमुक्ते ऽपि सिंहावलोकनन्यायेन चारेऽर्थेऽन्पानपि शब्दान् समुच्चिनोति । ७. चरति शत्रुमण्डले चरः , चरेरच। ततः स्पार्थिकोऽण् । चर एव चारः । Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाममाखा नितरां गुप्तो घीयते प्रणिधिः। निगूढश्चासौ पुरुषः निगूलपुरुषः । चरतीति चरः । स्पशः । 'यथार्थवर्णः । मन्त्रशश्च । तद्वानुक्तः सहस्राक्षः तस्मात् पूर्वोक्तशब्दात् परं धान् इति प्रयुज्यमाने सहस्राक्षनामानि भवन्ति । निगूदपुरुषवान् । चरवान् इत्यादीनि ज्ञातव्यानि । सत्यार्थे सूनृतं ऋतम् ॥१८२॥ सत्यार्थे द्वौ । सु सुष्ट्र ऋतं सत्यं सूनृतम्। पृषोदरादित्वान्नाटागमः। अच्छति गच्छति जनः प्रत्ययमत्र ऋतम् । तथा चामरकोषे..-"सत्यं तध्यमृतं सम्यक् ।" निस्तलं चतुलं वृत्तम् ___ यो वतु से । निर्गतं तसं प्रतिष्ठाऽस्य निस्तलम् । अथया निर्गतं तलादधौभागानिस्तलम् । १० भूमौ न तिष्ठति वा । वर्तते भ्रमति यलम् । वृत्यते स्म वृत्तम् । सर्वे त्रिषु । स्थपुटं विषमोन्नतम् । विषमोन्नते स्थपुटम् । स्थापयत्यात्मनो विषमोन्नतत्वे स्थपुटम्। प्रायः क्लीये। दीर्घ प्रांशु द्वौ दीर्घ । दृणावि दीर्घम् । प्राश्नुते व्यानोतीति प्रांशु" । विशालं च बहुलं पृथुलं पृथु ॥१८३॥ चत्वारो विस्तीर्णे। विस्तार विशति विशालम् । बहून् लातीति बाहुलम । प्रयते वर्धते पृथुलम् । गुणमात्रयतेलः । पर्थते पृथुः। बृहत् । उहः । गुरुः । विस्तीर्णः | उल्बणं दारुणं तिग्मं घोरं तीब्रोग्रमुस्कटम् । सप्त घोरे । उल्वणत्युषणम् । पृषोदरादित्वात्पने लः । दारयति दारुणम् । तितिक्षतीति २० तिग्मम् । पुरति घोरम् । तीवन्ति तीवम्। तीव स्थौल्ये रक्। उच्यति उपम्' । उकल्यते उत्कटम् । प्रतिभयम् | भीमम् । भयानकम् । अाभीलम् । भीषणम् | भीष्मम् । भैरवम्।। शीतलं तिमिरं याथं मन्द विद्धि विलम्बितम् ॥ १८४ ॥ १. यथार्थं यथा अर्थ: प्रयोजनं वर्णो बातिः प्रसिद्धिर्वा यस्येति तदर्थः । २. श्रम को. १।७।२२। ३. वस्तुतस्तु प्रोशुदीर्घयोरर्थभेदः । दीर्घविस्तृतायतशब्दाः पर्यायाः। प्रांशुस्तुन्नतः। तदुक्तम्-- 'दीर्घमायतम्" अमल को० ३।१।७० । ४. "दु त्रिदारणे' । बाहुलकाद्धक । दृणाति हस्वावमिति दीर्घः । ५. प्रकृष्टा अंशवोऽस्येत्यपि । ६. “विश प्रवेशने । बाहुलकादालः । रामाश्रमस्तु-"वेः शालनकटचौ" इतिः पा० सूत्रेण विशब्दाच्छालप्रत्ययमाह । ७. उदणतीति उल्वणम् | पृषोदरादित्वादुदोल इति पाठोत्र युक्तः । “वण शन्दे" | अच् । उल्वणशब्दो वस्तुतः स्पष्टार्थकः, न तु दारुणार्थकः | स्पष्टो [वेजको भवति खलानाम् | अत उद्रे जकत्वसामान्यात्तथाह | ८. तितीक्षतांति क्षमार्थकत्वान न युक्तम् । "तिज निशाने" । निशानं तिक्ष्णीकरणम् । तेजयतीति तिग्मम् । मक्प्रत्ययः । ६. "धुर भीमार्थशब्दयोः" । घोरयतीति घोरम् । ग्यन्तादच् । १०. उच्यति कुघा सम्बध्यते उग्रम् । 'उच समवाये" | दिवादिः । "ऋजेन्द्र" इत्यादिना रक् गश्चान्तादेशः। Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14 अमरकीतिविरचितभाष्योपेता पञ्च कार्यविलम्बे (म्बिते)। शीतं लाति मन्दी भवति कार्ये शीतलम् । ताम्यति स्वकार्यमिच्छति तिमिरम्' । स्तिमितं स्थिमित या पाठः । यथा भवं याथम् । मन्यते मन्दम् । विलम्ब्यते स्म विलम्बितम् । विधि जानीहि । स्वभावः प्रकृतिः शीलं निसगों विश्वसो निजः । पञ्च स्वभावे निजे। स्वः स्वकीयो भावः स्वभावः। प्रकरणं प्रकृतिः 1 शोल्यते शीलयति ___ वा शीलम् । निसृत्यते निसर्गः । विश्वसितोति विश्वसः । विश्वासश्च । विश्वम्भः | योग्या गुणनिकाऽभ्यासः त्रयोऽभ्यासे | युज्यते योग्या । गुण्यते ऽहर्निशं गुणनिका । अभ्यसनमभ्यासः । स्यादभीक्ष्णं मूहुमहः ।। १८५ ॥ मुर्मुरिं वारं स्यात् भवेत् । अभीक्ष्णम् । अभीक्षणम् अभीक्ष्णम् । अभिमुखमीक्षते * वा अभीक्ष्णाम्" । नितराम् । मृषालीकं सुधा मोघम् । चत्वारोऽलीके । मृष्यते सहते नारकं दुःखमनेन मृषा | श्राद-तमम्पयम् ! अलति स्वस्वाङ्गा(स्वर्गा)निवारयति अलीकम् । मुञ्चति त्यति निमित्त मुधा | श्रादन्तमव्ययम् । मुह्यतेऽत्र चित्तं मोघम् । विफलं वितथं वृथा। निष्फलवचने त्रयः । विगतं फलं विफलम् । विगतं तथा सत्यं यस्मात् वितथम् । वृणोत्याच्छादयति गुणान् वृथा । अव्ययम् । विधुरं व्यसनं कष्टं कृच्छंगहनसुद्धरेत् ।। १८६ ॥ पञ्च कष्टे । फष्टेन विधुनोति शरीरं विधुरम् । व्यस्यते अनेन व्यसनम् । कष्यते २० (काति) कष्टम् । कृणोति छिनत्ति दुःखेन कृच्छ्रम्" । गाह्यते गहनम् । उद्धरेत् निस्तरेत् । समस्तं सकलं सर्वं कृत्स्नं विश्वं तथाऽखिलम् | घट् समस्ते । समस्यते एकीकरोति समस्तम् । समं प्रसते समग्रम् । समान कलयतीति ''सकलम् | सरति सर्वम् । कुन्तति वेष्टयति व्याप्नोति कृत्स्नम् । विशति विष्ठति सर्वत्र विश्वम् । नास्ति खिलं शून्यमस्याखिलम् । निखिलं च । १. "तिम आभावे"। तिम्यति पाद्रीभवति तिमिरः । विलम्बशीलो जनः सर्वदाऽ इव शीतः स्फूर्तिरहितश्च भवति। २. विश्वसशब्दस्य प्रकृत्यर्थे प्रमाणान्तरं नास्ति । एवं विश्वासो विधम्भोऽपि | विश्वसशब्दाऽन्वाख्यानमपि व्याकरणादस्पष्टम् । अतोऽत्र त्रिष्वपि मूलाटीक एवं प्रमाणम् । ३. योगे चित्तकाम्ये साध्वीति योग्या 'तत्र साधु"रिति यदन्यत्र । ४. गुण्यते गुणना। चुरादिणिजन्ताद् भावे "ण्यासअन्येति युच् । ततः स्वार्थे कः । गुरगनैव गुणनिका । ५. अभिक्षणौति अभीक्ष्याम् । "क्ष्णु तेजने" । बाहुलकाहभुः । अन्येषामपीति दीर्घः । इति रामाश्रमः । ६. अत्र भूषाऽलीकशब्दो वक्ष्यमाणा वितयशब्दश्चासत्यवाचकः । मुघामोषशब्दौ विफलवृथाशब्दो च वक्ष्यमाणी व्यर्थवाचका हति विधेको:न्यत्र । तदुतममरे-"मृषा मिथ्या च वितथे" ३।४।१५ । "अलीकं स्वप्रियेऽनने" ३।३।१२ । “मोघं निरर्थकम्" ३।१।८१ । व्यर्थके तु वृथा मुधा, ३।४।४ । “वितथं त्वनृतं वचः" १।८।२१ । इति । ७. कर्षति कृन्तति वेति क्षी० स्वा०। ८. समस्यते स्म समस्तम् । “अमु क्षेपणे"। कर्मणि कः । ६. सङ्गतमममस्य समयम् । १०. सह कलाभिर्वर्तते समलम् । Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नागमाना शकलं विकलं खण्डं शकं लेशं लवं विदुः ।। १८७ ॥ षट् खण्डे । शक्नोति काये शकलम् । शल्कं च । विगता कला यस्मात् तद् विकलम् । खण्ड्यते खण्डः । लिश्यते लेशः " । लिश विच्छ गतौ । “अकर्तरि च कारके संजायाम्। सैति शब्दं करोति लवः । विदुः कथयन्ति । अर्थम् । नेमः । सामि । असम्पूर्णम् । दलं च । मर्म कोषं च मर्मणि स्त्रियतेऽनेन मर्म । नान्तम् । क्रुध्यते कोषम् । १२ त्रयः (चत्वारः) सन्तते । सन्तम्यते स्म सन्ततम् । न आरतं श्रनारतम् । न जस्यतीत्येवंशी मजस्रम् | अन्यहम् । कन्यापतिर्वरः नन्दतु इति प्रयोजनीयम् । ८६ कलहं परिवादं छलं नयेत् । करेगा इन्त्यत्र फलहः । परिवदनं परिवादः | छलयती (त्यत्रे ) ति छलम् । शोणितं लोहितं रक्तं रुधिरं क्षतजासुजम् ॥ १८८ ॥ प रुधिरे | शोष्यते वर्यते देहोऽनेन शोणितम् । तालव्यः । रोहति देद्दे नायते लोहितम् । १० रजति र रक्तम् । कर्णाद्ध रुधिरम् । चताद् श्रणाजायते क्षतजम् । श्रस्वते क्षिप्यते असृक् । सन्ततानारताज स्रान्वहं कन्यापतिर्वरः । ५ उद्वाहः परिणयनं विवाहच निवेशनम् ।। १८६ ॥ १५ चस्वारी विवाहे । उद्रद्दनं उद्वाहः | परिणीयते परिणयनम् । विवाहाते विवाहः । निवेश्यते निवेशनम् । गर्ता च गह्वरम् । गर्तायां द्वौ । पतितं प्राणिनं गिरति गतो । गर्तः । गुहतीति गह्वरम् । शुषिरं विवरं रथं छिद्र म् चत्वारश्छि । शुष्यति जलमत्र "शुषिरम् । उपशुपीति रः । वित्रियते भूमध्यमनेन विवरम् । गतिवान यति हिनस्ति प्राणिनं वा रन्धम् । छिद्यते तत् छिद्रम् । कुहरम्। विलम्। नि- २० श्रम | रोकम् | भ्रम् | वा 1 शुषिः । श्वभ्रं रम्यं च पातालं नरकं यान्त्यमेधसः ॥ १६० ॥ 現 चत्वारो नरके ! दवयते वर्धतत्रोपरि चरतो शङ्का श्वभिर्भ्रान्तं वा श्वभ्रम् । रसाय भ रम्यम् । पतन्त्यस्मिन् पातालम् । नराः कायन्त्यत्र नरकः । नारकः । पुंसि । श्रमेधसः बुद्धिरहिताः १. "लिश अल्पीभावे" । दिवादिः । ततो बबूविधानमर्थानुरूपम् ।। २. का० सू० ४|५|४ | ३. लूयते छिद्यते लवः । ऋदोरम् | टीकोकविदस्तु न लवनाऽभिधायी । कोषशब्दः पेशीवाचको मेदिन्यां लग्यते । पेशीनां मर्मस्थानत्वमायुर्वेदे सम्भतम् । श्रत उपचारात् कोपरो मर्मेत्यभ्युन्नेयम् । तदुक्तम्- कोषोखी कुड्मले पात्र दिये। जातिकोऽर्थमुङ्घाते पेयां शब्दादिसम | पावर्ग ६ | ५. “तिमिरुधिमक्ष्मिन्दिचन्दिवधिरुचिशुषिभ्यः फिर" का ११२३ । सुषिरस्यास्तीति विग्रहे तु "उषसुषिमुष्कमधो रः" पा०सू० ५१२११०७ । इति रायपक्षे दन्त्यादिरयम् । उपसुपति पा० सूत्रे दन्त्य एव पाटः । क्षीरस्वाम्यपि दन्त्यमेव पपाठ । Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ० अमरकीर्तिविरचितभाष्योपेता सम्यदचारित्ररहिता यान्ति गच्छन्ति नरकम् । निरयः । दुर्गतिः । 4 ५० अदभ्रं भूरि भूयिष्ठं वंहिष्ठं बहुलं बहु । प्रचुरं नैकमानन्त्यं प्राज्यं प्राभूतपुष्कलम् ॥ १६९ ॥ द्वादश प्रभूते । न दभ्रमभ्रम् । भवति प्राचुर्यमत्र भूरि मुरि च । अतिशयेन भूयिष्ठम् । "बो' लोपो भू च वो" "इष्टस्य विट्चेति" भूरादेशो थिडागमश्च । श्रतिशयेन बहुली वष्ठिः। वति प्राचु बहुलम् । प्रचुरति प्रचुर | न एक नैकम् । अनन्तस्य भाव श्रानन्त्यम् । मान्यते प्रक वीयतेऽनेन वा प्राज्यम् । प्रावति स्म प्राभूतम् । प्रभूतं च । पुष्मति पुष्कलम् । पुष्कं च । पुरुजम् । पृष्टम् । वसंत सरनं च संवृतिः । तत्रज्ञश्चतुरो वीरस्त्यजेज्जन्माजयं जवम् ॥ १६२ ॥ अष्टौ संसारे । भवतीति भवः । भवतीति भावः । "वा ज्वलादिदुनीभुवो णः" । संसरति अस्मिन् संसारा । संस्त्रियते श्रस्मिन् संसरणम् । संसरणं संसृतिः । जनयतीति जन्म श्राजबतीति श्राजवम् | जवति चतुर्गत्यां भ्रमति (अत्र ) जयः । ऊर्जस्फूर्जस्वी तरस्वी तेजस्वी च मनस्यपि । चत्वार (पञ्च) स्तेबीयुक्त पुरुषे । ऊर्क ऊर्जा वास्त्यस्येति ऊर्जस्वी । स्फूजस्यास्तीति ५ स्फूर्जस्थी । तरी ऽस्यास्तीति तरस्यी । तेजोऽस्यास्तीति तेजस्वी । मनोऽस्यास्तीति मनस्वी भास्वरो भासुरः शूरः प्रवीरः सुभटो मतः ॥ १६३ ॥ पञ्च सुभटे | भासते इत्येवं शीला भास्वरः । मासुरः । "भिदि 'भासिभंजो घुर:" | शूरपति शूरः । शूर वीर विक्रान्तौ । प्रवीरयते प्रवीरः । सुष्टु भटः सुभटः विक्रान्तः । तनुत्रं धर्म कवचमावृतिर्वाणवारणम् । पञ्च कचत्रे । तनु ं शरीरं त्रायते रक्षति तनुत्रम् । वृणोत्यङ्गं वर्म । कच्यते बध्यते शरीरन 'अनेन कथयम् । श्रावरणमावृतिः । वाणानां वारणं निषेधनं वाणवारणम् । कूर्पासं कञ्चुकम् । कञ्चुके । करोति शोभां कूर्पासम् । कर्पासं च । कञ्च्यते बध्यते कञ्चुकः । छत्रमतिपत्रोष्णवारणम् ॥ १६४ ॥ त्रयश्छत्रे । वर्षात छादयतीति छत्रम् । त्रिषु । छत्रः छत्री । भातपात् त्रायते श्रातपत्रम् । उष्णस्य वारणम् उष्णवारणम् । नृपलक्ष्म । hi शिरोरुहं वालं कचं चिकुरमीइयेत् । पञ्च केशे । के मस्तके शेते केशः । शिरसि रोहति शिरोरुहः । वल्यते संक्रियते घालः । मस्तके चीयते कचति वा कचः । चीयते यत्नेन चिङ्गुरः । चिकुरा । मूर्धजः । शिरसिजः । १. पा० सू० ६०४/१५८ २. पा० ० ६४४१५६ । ३. प्रचारति मचुरम् | चुर स्तेये । चुरादीनां णिज्नैकल्पिकः । इगुपदेति कः । ग्रगतं चुरायाः प्रचुरमिति वा रामाश्रमः । ४. प्राज्यते काम्यते “श्रञ्ज व्यक्त्यादौ" अञ्जेः संज्ञायामिति क्यप् । यद्वा प्रवीयते "अज गतिक्षेपगायोः स्यम् । वोभावो नेति टीकाशयः । ५. का० सू० ४२ ५५ | इति णः । ६. “कपिपिखिमासीशस्थाप्रमदां च" का सू० ४/४/४७ | इति वरः । ७. का ० सू० ४४४१ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाममाखा निः । कुन्तलः । चूडापाशं च घम्मिन्लं कबरी केशबन्धनम् || १६५ ।। चत्वारः केशबन्धने । चुद सं चोदने । "चुरादेश्च २" छन् । नामिनी गुणः । चोदनं चूहा । "ऊन चूदीमृगयतिभ्य इनन्तेभ्यः संज्ञायाम्" अङ् प्रत्ययः । कातिलोपः । निपातनात् उपधाया ह्रस्वत्वम् | दस्य हृक्षम् | चूडायाः शिखायाः पाशः बन्धनं चूडापाशः । धम्मिः सौत्रः । धम्यन्ते केशा ५ वध्यन्ते धम्मिल्लः । ॐ मस्तकं वृणोति कमरो नदादित्वादीः । कबरी । इदन्तोऽपि करिः । श्रावन्तो वा कबरा । केशस्य बन्धनं केशबन्धनम् । वेणी | प्रवेणी | वीणा च ९१ उररीकृतमप्यूरीकृतमङ्गीकृतं तथा । योऽङ्गीकारे । ऊरीप्रभृतीनां कृला सह समासी वा भवति । तथाहि - ऊरी उररी अङ्गीकरणे विस्तारे च । आश्रुतम् । प्रतिज्ञातम् | उपगतम् । अस्तुकारो ऽभ्युपगमे r. श्रभ्युपगमे अङ्गीकारे अस्तुङ्कारः कथ्यते । म करोतीति (करणम् ) अस्तुङ्कारः" | "कर्मण्यण” अण् प्रत्ययः । अस्योपः वृद्धिः । व्यंजनम | ""सत्यागदास्तूनां कारे" । मकारागमः । सत्यङ्कारः पणार्पणे || १६६ ॥ सत्यापणे सत्यं करोतीति सत्यङ्काः । सौहार्द सौहृदं हार्द सौहृद्यं सख्यसौरभम् । मैत्री मैत्रेयिकाज सहाय्यं संगतं मतम् ॥ १६७ ॥ दश ( एकादश ) सख्ये । सुहृदां भावः सौहार्दम् । सौहृदम् । हार्दम् । सौहृद्यमेकमेव वाक्यम् । सख्युर्भावः सख्यम् । सुरस्येदं ( मेरिदं) सौरभम् । मित्रस्य भावो मैत्री मैत्रेयिकः । न जीर्यते श्रर्थम् । सहाजी (य्य) ते सहाय्यम् | संगमनम् सङ्गतम् । मैच्या नियुक्तो १० १. वृजिनशब्दो भङ्गुरवाची । तदुक्तम्- "वृजिनं भङ्गुरं भुग्ममरालं जिममूर्तिमत् अभि० चि० ३९३ । लक्षणया भङ्गुरकेशेऽपि वृजिनशब्दप्रयोगः । २. ६१० सू० ३/२/११ । ३. का० सू० ३।५/२ । ४. क०सू० ४/५/८२ । अत्र दुर्गवृत्तिः "ऊनचुदपोड गयतिभ्यइनन्तेभ्यो य प्राप्ते वचनम्" इत्येवंरूपा । ५. अस्तुकरण मस्तुङ्कारः । ६. का ० सू० ४ | ३ | १७ व्यञ्जनमस्वरं परव नयेत्" का ० सू० १११।२१८. का० सू० ४०१ २६ / ६. सत्यस्य करणं सत्यङ्कारः । भावे घञ् । कर्तृविमटीको वस्त्वयुः | १०. का० सू० ४१४३४ । ११. का० सू० २२६/४१ | वृत्तिः २७ । १५ २० क्षेमं कल्याणमुभयं श्रेयो भद्रं च मङ्गलम् । भावुकं भविकं भव्यं श्वोवसीयं शिवं तथा ।। १६८ ॥ दश (एकादश ) कल्याणे | क्षिणोति क्लेशान् क्षेमम् । कल्पते ज्ञायते कल्याणम् । कल्यं नीयजत्वमनिति वा कल्याणन् । प्रकृष्ट ं प्रशस्यं श्रेयस् । सान्तम् । भदते ह्रादते सुखीभवत्यनेन भद्रम् । मं पापं गालयतीति मङ्गलम् । भवनशीलं भावुकम्। "कमगमदनकृष भूस्थालत्र पतपदामुकञ् । मशस्ती २५ भवोऽस्यास्तीति भविकम् । पुण्यकृती भवितव्यं भवति भव्यम् । श्वः शोभनञ्च वसोयः श्वोवसीयः । श्वोवसीयसं च । — श्वसो ं `वसीयस्" । शीयते तनुक्रियते दुःखमनेन शिवम् । भाष्यविधाता भीमदमरकीर्ती शिवं भवतु | Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० अमरकीर्तिविरचितमायोपेता वक्ता बाचस्पतियंत्र श्रोता शक्रस्तथापि तौ। शब्दपारायणस्यान्तं न गतौ तत्र के वयम् ॥ १६ ॥ अस्य श्लोकस्य सुगमव्याख्या। तथापि किश्चित् कस्मैचित् प्रतिबोधाय सूचितम् । बोधयेत्कियतुतिज्ञो मार्गशः सह याति किम् ।। २०० ।। तथापि मया घनञ्जयकविना सूचितं कथितम् कस्मैचित् प्रतिबोधाय शानाय । उतितो बोधयेत् ज्ञापयेत् । माशः वि. सह या छवि, कपि हुन गएति । प्रमाणमकलङ्कस्य पूज्यपादस्य लक्षणम् । द्विःसन्धानकवेः काव्यं रत्नत्रयमपश्चिमम् ॥ २०१ ॥ एतद्रत्नत्रयमपश्चिम नवीनमपूर्व वर्तते । कवर्धनञ्जस्येयं सत्कवीनां शिरोमणेः । प्रमाणं नाममालेति श्लोकानां हि शतद्वयम् ।। २०२॥ धनञ्जयस्य कवैः सत्कवीनां शिरोमणेः इति अमुना प्रकारेण इयं नाममाला इलोकाना शतद्वयं २०० प्रमाणमस्ति। ब्रह्माणं समुपेत्य वेदनिनदव्याजात् तुषाराचल. स्थानस्थावरमीश्वरं सुरनदीव्याजात् तथा केशवम् । अप्यम्मोनिधिशायिनं जलनिधिध्वानोपदेशादही फूत्कुर्वन्ति धनञ्जयस्य च मिया शब्दाः समुत्पीडिताः ॥२०३।। अहो लोकाः धनञ्जयस्य च भिया कृत्वा शब्दाः समुत्पीडिताः सम्यक् प्रकारेण पीड़िताः २. फूत्कुर्वन्ति । किं कृत्वा पूर्व वेदनिनदव्याजात् मिषात् ब्रह्माणं समुपेस्य प्राप्य, ईश्वरं नुषाराचलस्थान स्थावर सुरनदीव्याजात् प्राप्य, केशवं श्रीविष्णु किं विशिष्ट अम्भोनि धिशायिनं जलनिधिध्वानीपदेशात् समुपेत्य सुगमोऽयं श्लोकः। इति महापण्डितश्रीमदभरकीर्तिना विद्यन श्रीसेन्द्रवंशोत्पन्नेन शब्दवेधसा कृतार्या धनञ्जयनाममालायां प्रथम काण्डं व्याख्यासम् Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद्धनञ्जयकविविरचिता अनेकार्थ नाममाला जिनेन्द्रं पूज्यपादं च चैलाचार्य शिवायनम् । अर्हन्तं शिरसा नत्वाऽनेकार्थ विवृणोम्यहम् ।। १ ॥ गम्भारं रुचिरं चित्रं विस्तीणीय प्रसाधकम् ॥ शाब्दं मनाक प्रवक्ष्यामि कवीनां हितकाम्यया ।। २॥ गम्भीरं रुचिरं मनोज्ञ चित्रं विस्तीर्थप्रसाधकम् | सुगमव्याख्या स्ति । अर्हत्पिनाकिनी शम्भू शम्भू इति द्विषचनान्तं पदम् । जिनावहत्तथागती। जिनी कथ्यते। वेदस्यों विवस्वन्तौ वेदश्च सूर्यश्च वेदसूर्यो विवस्यन्तौ सूर्यो कथ्यते । विष्णुरुद्रौ वृषार्केपी ।। ३ ।। विक्कुण्ठाविन्द्रगोविन्दौ अन्तौ शेषशाङ्गिणौ ।। शेत्रश्च धरणेद्रः, शाी च विष्णुः शेषशामिणौ । जीमूतौ तु करिक्रीडी पर्जन्यौ शक्रवारिदौ ॥ ४ ॥ वनमम्भसि कान्तारे अम्भसि कान्तारे बनम् । भुवनं विष्टपेऽगसि । सुगमव्याख्या। १. शं कल्याणं भवतीति शम्भुः । प्रत्ययः । केशवब्रह्मवाची च । तदुक्तम् - "शम्भुः स्याद् ब्रह्मशिवयोरहत्यपि च केशवे', । इति वि० लो० भा. व० ९। हमे च-''शम्भुमाईतोः शिव" । २१६ । इति च । २. विष्णु, यतिवृद्ध, जित्वर, इत्येतेष्वपि जिनः । तदुक्तम्-"जिनस्वर्हति बुद्धेऽतिवृदलित्वरयोस्त्रिषु' वि० लो ना० ब०८ । हैमे- "जिनोऽहबुद्ध विष्णुप्यु २२६९ । ३. "विवस्वान् देवसूर्ययोः" अने० स० ३३१७ । अत्र देवशब्दपाठात्प्रस्तुते:पि देवशब्द एव युक्तः । ४. अग्निश्च । तदुत्तम-"तृषाकपिर्धासुदेव शिवेऽग्नौ च" अने० सं० ४।२१६ । ५. अनवधिरप्यनन्तार्थः । "अनन्तः केशव शेषे पुमाननवधी त्रिषु" इति मेदिनी । ६. "जीमूतो वासवे म्बुदै । घोपकेनौ भतिकरे" इति. अने० सं० । ७. पर्जन्यो मेवर्जितेऽपि । तदुताम्--"पर्जन्यो मेघशब्देऽपि ध्वनदाबुदशक्रयोः" इति मेदिन्याम् । Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१ २० २५ ६४ अमरकीर्तिविरचित भाष्योपेता वृतं सर्पिषि पानीये विषं हालाहले जले || ५ | तन्पं दारेषु शय्यायां ज्योतिश्चक्षुषि तारके । घवले सुन्दरे रामो वामो वक्रे मनोहरे || ६ || नक्षत्रे मन्दिरे विष्ण्यम् देवेष्टि शब्दं करोत्यत्र जनो वियम् । नपुंसकम् । विशब्दे । वसने गगनेऽम्बरम् । वसने गगने अम्बरं वर्तते । श्रबं शब्दं राति ददातीति श्रम्वरम् । परिधौ पादपे सालः परिधौ पादपे सालो वर्तते । सां लक्ष्मों लावीति साखः । "साल: राजतरो वृक्षमात्रप्राकारयोरपि" प्रति ईमः । सिन्धुः स्रोतसि योषिति ॥ ७ ॥ स्रोतसि योषिति सिन्धुः । स्यन्दते सिन्धुः । सारसः शकुनी धूर्ते सरक्षि त गे भवः सारसः । कैन्ति जानन्त्यच केतनम् । तथा च भवते विस्तारं यानीति मयुखः । क्रियते अञ्जनः । "कृत्ये निमन्त्रणे चिह्ने मन्दिरे केतनं विदुः ।" मयूखः कीलके दी पततीति पतङ्गः । पल्लु गतौ । अञ्जनः कञ्जले नागे कलले लागे अञ्जनो वर्तते । अन्जू पक्तिंम्रक्षणकान्तिनु । धिमे अपने प्रकटी सारङ्गः पृषते गजे । सरतीति सारङ्गः । 5 केतनं दीधित जे | सरल: प्रगुणे वृक्षे ऋजुत्वात् सरलः । पतङ्गः शलभे खौ ॥ ८ ॥ पुन्नागः सन्नरे तरौ ॥ ६ ॥ ५ पुमचासौ नागः श्रेष्ठः। १. अनं० २२७ । २. धूर्तपक्षे तु अरसेन द्वेषेण सहितः सारस इति विवेक: । ३. गजोऽपि विक्रमेण जायते, कजली-पि विक्रमबलेन मयते । ४. सारं दृटङ्ग यस्त्वपि | सरतीत्यस्य स्थाने सारयतीति युक्तम् । ५. “पुन्नागस्तु सितोत्पले । जातीफले नरश्रेष्ठे पानागे द्रुमान्तरे। इति मेदिनी Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकार्थ-नाममाला पाञ्चजन्योऽनले शो पञ्चजने पाताले भवः पाश्चजन्यः । कम्युः शङ्ख मतङ्गजे। कम्युः सौत्रः कम्ब्यते वर्ण्यते कंबुः । अथ वा कल वर्णे उणादित्वादसमादेव नकारागमश्च | कस्वरो घुभवे घुम्ने शुभवे स्वर्णोद्भवे द्युम्ने सुवर्ण कारः । कुत्सितं स्वरति कस्वरः। स्यन्दनं शकटेऽम्बुनि ॥ १० ॥ म्यद ते स्यन्दनम्। अद्रिगिरिवनस्पत्योः गिरिश्च वनस्पतिश्च गिरवनामती तयोगिरिवर योः । अत्ति श्राकाशमित्यदिः । शिखरी तरुभूधयोः शिख-म ....तीति शिखरी। राजा चन्द्रमहीपत्योः। राजते इति राजा। द्विजो दशनविप्रयोः ॥ ११ ॥ द्विर्जातो शिमः। मोचामरस्त्रियो रम्भा ब्रह्मनिपि रमयतीति रम्भा। कदली ध्वजमोचयोः । केन वायुना दल्यते विदार्यते कदली। अशोकः सुमनस्तोंः न शोको यस्माद्यस्य वा अशोकः । सुमनाः सुरपुष्पयोः ।। १२ ।। मुरश्च पुष्पं च सुर युष्पे तयोः सुरपुष्पयोः । शोभन चित्तः सुमनाः । मुक्तारजतयोस्तारः तीर्यते तारः। __ भूरि भृयासुत्रर्णयोः । पुण्यवासु भवतीति भूरि । क्लीवे । ___ पानीयदुग्धयोः क्षीरम्" घर] अदने । सौत्रोऽयम । ५. पानन्यस्तु विष्णुशझे द्रुपान्तरे" इति मेदिनी । २. ''कम्बुः पुमान् गजे। वलये शङ्कशम्यूककन्धरामल के स्त्रियाम' इति वि० लो बा. ब०२ । ३. “स्यन्दनं प्रमावे नीरे स्यन्दन स्तिनिशे रथे' विली. ना. व. १५१ । ४. राजा प्रभौ च नृपती क्षत्रिये रजनीपतौ । पक्षे शक्ने च पुंसि स्यात्' इति मेदिनी । ५. धस्थतेऽद्यते क्षीरम् | "घस्ल अदने" । घसे: किच्चेति कीरः । Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५ S कालश्च त्रुत्यादिलक्षणाः । "स्वस्थे नरे सुखासीने यावत्रूपन्देत लोचनम् | तस्य त्रिंशत्तमो भागस्तुटिरित्यभिधीयते ॥" “सर्वस्य प्रयत्नेन चिप्तस्य पततोऽम्बरात् । द्वियचं यावदध्वानं कालः स (च) त्रुटि: स्मृतः ॥ * प्रकाश्च प्रकता उत्कृष्टता वा । कालश्च प्रकश्च कालप्रकर्षो तयोः कालप्रकर्ययोः काष्ठा १० कथ्यते । काशते भासते काष्ठा । शन्तोऽयम् । कोटिः संख्याप्रकर्षयोः | २५ पीयते पयः । कालकयोः काष्टा ३० श्रथवा- कुटनीति कोटिः । "किती पञ्चसहस्री किती लक्षा च कोटिरपि कियती । औदार्योग्नतमनसां रत्नवती वसुमती किती ॥” रन् संश्लेषयोः सन्धिः सन्धानं सन्धिः । अमरकीर्तिविरचितभाष्योपेता पयः सलिलदुग्धयोः ।। १३ ॥ "सन्धियनों सुरङ्गायां नाट्येऽङ्गे श्लेपभेदयोः" इति देमो' । सिन्धुर्न दसमुद्रयोः ॥ १४ ॥ स्यन्दते सिन्धुः । निषेधदुःखयोर्वाधा बन्ने] ( बाधनं ) बाधा | वाघ्र प्रतिघाते । व्यामुह्यते व्यामोहः । ६६ व्यामोहो मूर्खमौढ्ययोः । कौपीनाकारयोर्गुह्यम् गुहाते गुह्यम् | गुहू संवरो । “गुष्यमुपस्थे रहस्ये च" इति मी । कीलाल हविराम्भसोः ॥ १५ कीलां लातीति कीलालम्' । "कीलालं रुधिरे नीले" इति हेमी" | मूल्यसत्कारयोरर्थः I अर्धते पूज्यतेऽनेनेत्यर्थः । "" व्यखनाच" घञ् । दोषथत्वाद्दीर्धी न। "स्वक्वादीनां घः ॥ जात्यः श्रेष्ठकुलीनयोः । १. अने० स० २१२५७ | २. व्यामोहशब्दस्य मूर्खायें मूलं मृम्यम् । ३ ० ० २३५८ । ४. कीलां ज्वालामलति बारवति 1 व पर्यायादौ । इति जले विग्रहः । रुधिरार्थे तु टीकोकः । ५. अने ०३/६८३ | ६. ० ० ४/५११९ । ७. का ० सू० ४/६/५७५ । Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकार्थनाममाला श्रेष्ठकुलीनयोर्जात्यः । जात्यां भवो जात्यः । मेववत्सरयोरन्दः श्रवतीति अब्दः । कुन्दादयः 1 – “कुन्दवृन्दमन्दाब्दाः " | "अब्दः संवत्सरे मेघे मुस्तके तार्क्ष्यो इयगरुत्मतोः ।। १६ ।। गिरिभिद्यपि ।" वृक्षस्यात्पयं नादयः । पुंसि | स्तब्धतास्थूणयोः स्तम्भः स्तम्भु इति सोचो तु चर्चा | हरकीलकयोः स्थाणुः तिष्ठतीति स्थाणुः । चर्चा चिन्तावितर्कयोः । स्वैरः स्वच्छन्दमन्दयोः ॥ १७ ॥ स्वस्थ ईरः स्वैरः । स्त्रस्थात ऐतमीरेरियोरपि वक्तव्यम् । तथा चालङ्कारे— "स्वैरं विहरति स्वैरं शेते स्वैरं च जल्पति । भिक्षुरेकः सुखी लोके राजचौरभयोज्झितः || ” " स्वैरो मन्दे स्वतन्त्र च" इति हैमी' | शङ्कुः सङ्कीर्णविवरे पलालाग्नौ च कीलके । संख्यायाम् शंकायति कूषते वा शङ्कुः । काननोभूते वह्नौ दावो दवोऽपि च ॥ १८ ॥ कामनोद भूते वह्नौ दावो दवोऽपि च। दुनोतीति दवः । दायः । "वा ज्वलादिदुनीभुवो णः" । कीनाशः कृपणे भृत्ये कृतान्ते पिशिताशिनि । तथा पुण्यजनान् प्राहुः सज्जनान् राक्षसानपि ॥ १६ ॥ लोभेन मिलश्यते बाध्यते कीनाशः | तालव्यः । विरोचनो खौ चन्द्रे दनुमूनी हुताशने । 63 विरोचते इत्येवंशीलो विरोचनः । हंसो नारायणे ब्रध्ने यतावश्वे सितच्छदे ।। २० ॥ हन्तीति इंसः । सोमचन्द्रोऽमृतं सोमः सोमो राजा युगादिभूः । सोमः प्रतानिनी भेदः सोमपोऽगस्त्यदिग्पतिः ॥ २१ ॥ १. का० उ० ० ३।६४ इति दप्रत्ययः । २. अने० स० २ २२६ । ३. "स्वत्येरेरिणीरिषु" का०रू० पू० ३८ । ४. अने० ० २।४८२ । ५. शङ्कते ऽस्मात् शकुः । "शकि शङ्कायाम" औणादिक उः । ६. का० सू० ४४२/५५१ इति णप्रत्ययः "दुउपतापे" । የ። १५ २० ૨૬ ३० Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५. १० १५ २० त अमरकीर्तिविरचितभाष्योपंता अभिषवे । अनेन सर्वेषां साधनिका ज्ञातव्या । अजो विधिरजो विष्णुरजः शम्भुरजस्तमः | अजस्त्रैवार्षिको व्रीहिरजो रामपितामहः ।। २२ ॥ न जायते नोत्पद्यते श्रजः । शुद्धेऽनुपहते वह्नौ ब्राह्मणे सचिवोत्तमे । आपादेऽध्यात्मसंवित्तौ ब्रह्मचर्ये शुचिर्मतः || २३ || मतः कथितः । एतेष्वर्थेषु शुचिशब्दः । शोचति जनो देहलग्नेऽत्र शुचिः । तया च यशस्तिलकचग्गूला- "न स्त्रीभिः समयस्य सर्वेद्वन्द्वविवर्जितः । तं शुचि सर्वदा प्राहुः मारुतं च हुताशनमिति ॥ अर्थोऽभिधेयरैवस्तुप्रयोजननिवृत्तिषु । अर्धशब्दः परयते । अभिधेयश्च शब्दो वाचकः, शब्दमध्ये योऽसावर्थः स वान्यः अभिप्रेयश्च कथ्यते । राः सुवर्णम् । वस्तु - अस्यादिर्लोहितादिर्वा । गैरिकान्वितं ( दिकं च ) बस्तु | प्रयोजनं कार्यम् | निवृत्तिश्च मुक्तिः । तासु । गतौ । श्रते इत्यर्थः । भावः पदार्थचेष्टात्मसत्ताभिप्रायजन्मसु ।। २४ ।। एतेष्वर्थेषु भावः पठ्यते । भवतीति भावः । "वा' वलादिनीः ।" प्राय भूमोपमात नृत्यन्ननिवृत्तिषु । एतेष्वर्थेषु प्रायः शब्दः | अन्तः पदार्थ सामीप्यधर्मसत्त्वव्यतीतिषु ।। २५ ।। एतेष्वर्थेषु अन्तः । अक्षो द्यूते वरूथाङ्गे नयनादौ बिभीतके । द्यूते वरूथाने रथचकावयवे, नयनादौ विभीतके पूतनायाम् अक्षो वर्तते । सारः श्रेष्ठे वले चित्ते कोशे जलचरे स्थिरे ॥ २६ ॥ 1 श्रेष्ठे, चले, वित्ते, कोशे, क्रोशे वा पाठः । जलम्बरे, स्थिरे सारो वर्तते । सरस्यनेनेति सारः । " बलमत्स्ययोश्न" इति परसूत्रेण पञ् । स्वमते "अकर्तरि च कारके संज्ञायाम्" इति घञ् । "मारो मज्जस्थिरांशयोः, बले श्रेष्ठे "च" इति हैमी | वाचि वारि पशौ भूमौ दिशि लोम्नि रवौ दिवि । विशिखे दीधिती दृष्टावेकादशसु गौर्मतः || २७ || पूजां गच्छतीति गौः । गगेर्डोः | चन्द्रे सूर्ये यमे विष्णौ वासवे दर्दुरे हये । मृगेन्द्रे वानरे वायौ दशस्वपि इरिः स्मृतः ॥ २८ ॥ हरतीति हरिः । १. का ० सू० ४१२१५५ । २. प्रकृष्टमयनं प्रायः । "क्ष्ण गतौ" । एरच् । ३. "सर्तेः स्थिरव्याधिमत्स्यते " ३० श० ५१३११७ । ४. का० ० ४१५४ । ५. अने० स० २।४७८ । Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकार्ध-नाममाला पद्म करिकरप्रान्ते व्योग्नि खगफले गदे। दाधभाण्डमुखे तीर्थे जले पुष्करमट सु ॥ २६ ॥ पुष्णातीति पुष्करम् । शृङ्गारादौ कषायादो घृतादौ च विपे जले । निर्यासे पारदे रागे वीर्येऽपि रस इष्यते ॥ ३० ॥ शृङ्गारादौ "शृङ्गारहास्यकरुणारौद्रवीरभयानकाः । बीभत्साऽद्धतशान्ताश्च नव नाटय रसाः स्मृताः ।।" कषायादो-तिका लमधुकटुकषाये । घृतादा--दुग्धदधिवृततैललषोक्षुरसेषु । विमे जले, निर्यासे वृक्षरसविशेषे. पारदे रागे, पो ऽपि रस इष्यते । तीर्थ प्रवचने पात्रे लघ्याम्नाये विदांवरे । पुण्यारण्ये जलोत्तारे महासत्ये महामुनौ ॥ ३१ ॥ एतेभ्यर्थेषु तीर्थम्' । धातुः पञ्चसु लोहेषु शरीरस्य रमादिषु | पृथिव्यादिचतुल्के च स्वभाव प्रकतापि ॥ ३२ ॥ पञ्चन लोहेषु सुवर्णरजतताम्ररीतिकान्येषु । शरीरस्य रसादिषु रसासष्मांसभेदोऽस्थिमबशुकेषु । पृथिव्यादिचतुष्के च पृथिव्यतै जोनासु (वनस्पति) घु, स्वनाये, वातपित्तश्लेष्मादिषु एतेष्वर्येषु धातुः पठ्यते । दधातीत धातुः । प्रधानशृङ्गलाङ्गलभूषापुण्ड्रप्रभावना । ध्वजलक्ष्मतुरङ्गेषु ललामो नवसु स्मृतः ।। ३३ ।। एतेष्वर्थेषु *लसामः । ललामन् । आकृतावक्षरे रूपे ब्राह्मणादिषु जातिषु । माल्यानुलेपने चैव वर्णः षट्सु निगद्यते ॥ ३४ ॥ आकृती, अक्षरे, रूपे, बाहाणादिषु जातिघु. माल्यानुलेपने च वर्णो निगद्यते । अकारादावदात्तादो षड़जादी निस्वने स्वरः। एतेष्वनु स्वरः कथ्यते । अकारादौ-अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ, ऋ. ए. ऐ, ओ औ । उदात्तादौ- उच्चैकालमान उदात्तः," । 'नीचैरनुदात्तः" "समनृत्या स्वरितः" । पड्नादी “निषादर्पभगान्धारषड्जमध्यमधैवताः । __ पञ्चमश्चेत्यमी सप्त तन्त्रिकण्ट्रोत्थिताः स्वराः ।।" निस्वने शन्दे । सङ्घताचारसिद्धान्तकालेषु समयः स्मृतः ॥ ३५ ॥ समयते समयः। १. तरति तीर्यते वाऽनेन तीर्थभ । २. 'लड विलासे" । डलयोरभेदात् ललतीति ललामः । ३. "वर्ण शब्द' । वर्णयति वर्णते वा वर्ण: । घञ कर्मणि, अज्वा कर्तरि । ४. सारस्व० सू० २ । ५. अमः को श७१ । Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५ २८ २५ ३० १०० वर्तते । तन्व्यन्ते व्युत्पाद्यन्ते शब्दा अनेनेति तन्त्रम् । श्रप्रत्ययः 1 सच्चमोजसि सत्तायामुत्साह स्थेनि जन्तुषु ।। ३६ ।। एतेष्वर्थेषु सस्यम् । अमरकी र्तिविरचितभाष्योपेता धाने सिद्धान्ते सैन्येन्यौछ । रूपादौ तन्तुषु ज्यायामप्रधाने नये गुणः । ज्ञानचारित्रमोक्षात्मश्रुतिषु ब्रह्माम्बरा ।। ३७ ।। अवकाशे क्षणे वस्त्रे बहियोंगे व्यतिक्रमे । मध्येऽन्तःकरणे रन्ध्रे विशेषे रहितेऽन्तरम् ॥ ३८ ॥ गुणयतीति गुणः । वरा विशिष्टा । एतेष्वर्थेषु अन्तरः । तौ निदर्शने प्रश्ने श्रुतौ कण्ठसमीकृती । आनन्तर्येऽधिकारार्थे माङ्गल्ये चाथ इष्यते || ३६ || कम्यते । श्रथ एष्वर्थेषु | तावेवंप्रकारादौ व्यवच्छेदे विपर्यये । प्रादुर्भाव समाप्तौ च इतिशब्दः प्रकीर्तितः ॥ ४० ॥ प्रकीर्तितः कथितः इतिशब्दः एतेष्वर्थेषु । इण गतौ । इ । एति एवमादिकमर्थमिति । " इति " अमुषणि प्रभृतिभ्यो यण्वत्" इत्यनेनेतिप्रत्ययः । इति जातम् । प्रथ० बि | "अन्ययाच" सिलोपः धर्मो धनुष्य हिंसादावुत्पादादाचये नये । द्रव्य क्रियाश्रये वित्ते जीवादौ दारुकृते ॥ ४१ ॥ एतेष्वर्थेषु धर्मः । चरतीति धर्मः । मूर्तिमत्सु पदार्थेषु संसारिण्यपि पुद्गलः । एतेष्वर्थेषु पुद्गलः | अकर्म कर्मकर्मजातिभेदेषु वर्गणा ॥ ४२ ॥ ( कर्म-पुदुगलस्कन्धः ) कर्म-ज्ञानावरणादि, नोकर्म - शरीरादि । जातिर्गोत्रादि । एतेषु वर्गेयार ऐश्वर्यस्यासमग्रस्य वीर्यस्य यशसः श्रियः । arretarashataण्णां भग इति स्मृतः ॥ ४३ ॥ भजन्त्यस्मिनिति भगः | प्राहुः कैवल्यमान्त्ये विवि निर्ऋतावपि । १. कातन्त्रेऽस्य शुद्धं रूपं नोपलब्धम् । २. का० सू० २४/४ । ३. पूर्यन्ते पुनः पुनः सरपच में इति पुरः | गलन्ति विलीयन्ते गलाः । पुरश्व ते गलाश्च पुद्रलाः । पृषोदरादित्वाद्रस्य दः । ४. भज्यते सेव्यते धार्यते वा भगः । Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकार्थ-नाममाला १०१ केवलस्य भावः कैवल्यम् । लब्धिः केवलचोघादाविष्टाप्तौ नियतौ श्रियाम् ।। ४४ ॥ लम्भनं लब्धिः । अनेकान्ते च विद्यादौ स्यान्निपातः श्रुते क्वचित् । 'स्यात् भवेत् एतेष्यथेषु निपातः। भट्टारको धर्मचन्द्रस्तत्पट्टे धर्मभूषणः । तत्र देवेन्द्रकीर्तिः श्रीकुमुच्चन्द्रलतः परम् ।। १ ।। धर्मचन्द्रस्ततो ज्ञानसागरस्तत्पदेऽभवत् । तेन पुस्तकमेतद्धि दत्तं ( लोकहितेच्छया) ॥ २ ॥ धनजयनाममाला सटीका समाप्ता 20983 HARARI - -- SAUR -- - - - १. स्यात् इत्याकारको निपात एतेष्वर्थेषु इति सम्बन्धः । २. इतः परं मुद्रितपुस्तकेष्वधिक: पाठ उपलभ्यते, तद्यथा--'दर्शनादी मणी रत्नं भव्यः शस्ते प्रसेत्स्यति ॥४५॥ परमात्मा जिने सिद्धे पर. मेडयईदादिषु । सिद्धाः सिद्धनिषायामहरिसरभियामपि ॥४६।। मह सिमिति द्वावग्यई सिद्धाभिधायिनी । अहंदादीनपि पाहुः शरणोत्तमामङ्गलान् ॥४५॥ इति। ३. अत्राशुद्धिदीपाकित्रिपाठमेदः, सच शोषित इत्थरूपः संवृत्तः । Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकार्थ-निघण्टुः जयं पुष्करमजं च नागनासाग्रमेव च । कूल नभः समाख्यातं कूलं रोधः प्रचक्षते ॥३६॥ खं चानन्तमिति प्रोक्तमनन्तं च बले क्वचित् । विष्णुः क्यचिदनन्तः स्थान्नागश्चानन्त उच्यते ॥३७॥ प्रजापतिः स्मृतो राजा ब्रह्मा चापि प्रजापतिः । प्रजापतिः स्मृतः सत्ता क्षत्ता चचर उच्यते ॥३८॥ वामः पयोधरः प्रोक्तो वामः स्यादविणं हरः । वामश्च मदनः प्रोक्तो वामश्च प्रतिकूलके ॥३९॥ आगोपो गोपको ज्ञेयः क्वचिवागोपको ध्वजः । उरश्चाङ्कः समाख्यातः स्थानमः स्मृतस्तथा ॥४०॥ बासरस्तु स्मृतो नागो यासरो दिवसो मतः । विभावसुनिशा ज्ञेया गन्धवंञ्च चिन्मतः॥४१॥ शर्यो राप्रयः प्रोक्ता; शर्वर्यश्च स्त्रियो भताः । सान्द्र घनमिति प्रोक्तं स्निग्धं सान्द्रे निगद्यते ॥४२॥ स्वः स्वर्गस्य मतं नाम स्व; सुखं क्वचिदुच्यते । स्व आत्मा चव निर्दिष्टः स्वः प्रोक्तो गहमषिकः॥४३।। कश्चन्दोविशेषज्ञो मतः शास्त्रेपि ना ककुप् । ककुम्महील्हः प्रोक्तो ज्ञेयास्तु ककुभो विशः ५४४॥ सायं वेश्म समुद्दिष्ट क्षयं . रोगं प्रचक्षते । जलदस्तु प्लवो शेय: प्लयो ज्ञेयस्तयोडपः ॥४५।। प्रासादो मण्डपः प्रोक्तो विहारश्चापि कथ्यते। धन धनं विजानीयाद वन विपुलमुच्यते ॥ ४६॥ प्रयज्यते स कस्मिविचद् घनं सातवाद्ययोः । वरूयं स्यन्दनाग्रं स्यातुल्यं वेश्म उच्यते ॥४७॥ चमश्च वर्म सहसा प्रवदन्ति मनीषिणः । असराश्च सुरा ज्ञेयाः क्वचिदेवारयोऽसुराः ।।४८॥ नागाश्च विरदा ज्ञेयाः पन्नगावव क्वचिन्मताः । गन्धर्वश्च तथा वायुः क्वचित्स्याद् देवगायन: ॥४९॥ ताक्यों ह्यः समुद्दिष्टस्तावश्या विराम : साबरमले यांचा मित् गान् ॥५०॥ सुणी वनस्पतिः प्रोक्ता फ्यचिदाश्च कथ्यते । शिखरो वृक्ष उद्दिष्टः शिखरी पर्षतः स्मृतः ॥५१॥ द्विलो विप्रश्च दन्तश्च विज पक्षी निगझते । नौरो लिम्लचो ज्ञेयो वातश्चापि मलिम्लुचः ॥५२॥ आरमनं रस्तमुद्दिष्टं सुतः फामस्तथैव च । कोनाशो मृतको नेयः कोनाशश्चापि राक्षसः ॥५३।। कीनाशोऽग्निः कृतघ्नश्च कृपणो यम एव च । कीनाशः कर्षको शेयः कौनाशश्च वृकोदरः ।।५४॥ अववात प्रधानं स्याबवदातं च पाण्डुरम् । ज्योतिर्लोचनमुदिष्टं ज्योतिनक्षत्रमुच्यते ॥५५॥ ज्योतिश्च गदितो बलिः काव्येषु मुनिपुङ्गवः । प्रधानं सज्जनं शेयं प्रधानं श्वेलमुच्यते ॥५६॥ अब्दः संवत्सरो ज्ञेयो मेघश्चापि क्वचिन्मतः । बलाहका महामेघाः शिखरी च बलाहकः ॥५॥ तोय जलदं प्रास्तोयदं कथ्यते घृतम् । जीमूतश्च मतो नागो जीमूतः क्वचिदम्बुवः ।।५८॥ पौलस्त्यं तु मतं युद्धं पौलस्त्वं पहिलं विकुः । चिकुद्रजकाचैव प्रोक्तो नित्यं बुध रसः ।।५९॥ पर्जन्यं जलदं प्राहुः पर्जन्यं तु शतक्रतुः । शिलीमुखाः स्मृता बाणा भ्रमराश्च शिलीमुखाः ।।६०॥ लेखा सीमेति विज्ञेया लेखा चित्रकृतो मता। अम्बरीषं वचि भ्राष्ट्र पदचिदं निगद्यते ॥६॥ पुस्त्वं चापि मतं युद्ध पुत्व' पौरुषमुच्यते । चिट्ठांसो रिपवो जेया विसस्त्वसवो मताः ।।६२॥ मायात्रियोति विज्ञेया क्वचिन्माया तु सांवरी । मथु ताक्षीति विज्ञेया क्वचित्स्यान्मधु माक्षिकम् ॥६३सा मषु चाम्बु समास्यात सुरा च मधुसंज्ञका । खं रंमिति विज्ञेयं खं गृहं नभ एव च ॥६॥ खमिन्द्रियमिति ख्यातं वं च नक्षत्रमुच्यते । धार्तराष्ट्रा महाहंसा धृतराष्ट्रसुताः क्वचित् ।।६५॥ प्रभाकरो मतः सूर्यो वलिश्चापि प्रभाकरः । सितं शुक्लमिति ज्ञेयं सितं बद्धं प्रचक्षते ।।६६॥ असितं कृष्णमित्युक्तं मशितं भक्षितं स्मृतम् । वस्तु नकुलो ज्ञेयः पाण्डवो नकरलस्तथा ॥६७।। त्रिशकुमाहुाजारभूषिश्चापि तन्यते । समस्तु वायसो शेयो यमः प्रेताधिपस्तथा ॥६॥ लक्ष्मणं सारसं विद्यालथा दशरथात्मजम् । लक्ष्म चन्द्रस्य काहण्यं स्पाल्लक्षम्यः केतुः प्रकीर्तितः ॥६५॥ केतुश्चापि मतः काव्ये लक्ष्मेति मुनिपुङ्गवः । आरुणेयः स्मृतो दक्षो दकश्चाचेतसः क्वचित् ॥७॥ आशुकारी भवेदक्षः स्थावली तोमरः स्मृतः । आवित्यं च रवि विद्या वैत्यश्चाप्यवितेः सुगः ॥७॥ रोगो रसस्तथा रेणू रजो लोहितमुच्यते । स्कन्धो नितम्बसंजः स्यान्नितम्ब अधनं तटम् ॥७२॥ हेम वस्विति पिज्ञेयं वसु तेजो निगग्रते । सारन चातकं प्राहुः स्वर्णं चापि सितासिती ॥७३॥ रम्भाच कालीः प्राह रम्भा स्वीजना मता । ग्रााणो गिरिजाः प्रोक्ता मेधाश्चापि मनीषिभिः ।।७४|| Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकार्थ निघण्टुः वचित् ॥७५॥ निगद्यते । औषणं रसमृद्दिष्टमृतं सत्यमपि अक्ष आत्मेति विज्ञेयः केचिदाहुबिभीतकम् । ज्ञेयमिन्द्रियमक्षं च शाकटं कर्ष एव च ॥ ७६ ॥ अक्षं च पाशकं freावहारिकमेव च । पद्ममित्रियमित्युक्तं पद्मं तामरसं विदुः ॥७७॥ चैत्यमायतनं प्रोक्तं नीडमायतनं तथा । पुष्पं लोहितमुद्दिष्ट पुष्पं च कुसुमं तथा ॥ ७८ ॥ बाजी तुरङ्गमो ज्ञेयो बाजी श्येनो विहङ्गमः । वियन्द्र सिंहमण्डूकचन्द्रावित्यस्तु वानरान् ॥ ७९ ॥ शिवानिलान् हरोनिच्छन्ति कोविदाः । पुरुषध्वजलिङ्गेषु भूषण लक्ष्मषु ॥cont रामशेषावनीन्द्रेषु ललामं नवसु स्मृतम् । शुक्रा स्मृताऽक्षिदोषोना लवलो मजरो तथा ॥। ८ १११ वक्त्रः शुको ज्ञेयः कोकिला वचनप्रिया । पुलिनं जलविच्छेदः पङ्कजं स्यात्कुशेशयम् ॥८२॥ रतं पापमिति ज्ञेयं सत्वरं शोधमुच्यते । पिशङ्गं रोचनाभं स्यान्मेचकस्तिलको मतः ॥८३॥ antasaस्थितं चिह्नं विस्तिक मतम् । परिचर्य च कटक निकषस्तु कषो मतः ॥८४॥ मानारले पचिता मञ्जूष रागिणी स्मृता । दिनकृद्वाजिसिंहेषु केसरित्वं विधीयते ॥ ८५॥ arrest मधुरः शब्दः कल इत्यभिधीयते । अलातमुल्मुके ज्ञेय छेदो नाम भयङ्करः ॥८६॥ भावः शृङ्गारमाधुर्यं भावोऽवस्थाप्ररूपणम् । विलासः कामनो वोषस्तदेव ललितं मतम् ||८७३ | उत्तमाङ्गं बिना हूं कबन्धं चेति शस्यते । शिरसो वेष्टनं यर्द्ध तदुष्णोषं निगद्यते ॥८८॥ आइतं समवीर्घ स्थान्निविडं पीडितोन्नतम् । मण्डको भेकसंज्ञः स्यावर्षाभूश्चातको मतः ॥८९॥ faar frant ज्ञेया विशालं सबल मतम् । चर्मा शिपिविष्टः स्यात्कर्षकस्तु कृषीबलः ।। ९० ।। कन्याजातश्च कानीनो पण्डः क्लीव इति स्मृतः । उत्कृष्टः श्वसुरः स्यातां ग्लिष्टमभ्यक्तवाचकम् ॥ ९१ ॥ रखतो हस्तिदन्तः स्याद्दानं कटकसंज्ञितम् । तोदनं चा कुशं विद्यादालानं हस्तिबन्धनम् ॥१२॥ घनाघन इति ख्यातः शास्त्रेcaferator: । अपाचीनं मनोहं च बुद्धिर्ज्ञेया तु शेमुषी ।। ९३३ अस्तु पावशेयो नवी स्थास्फेनवाहिनी । अश्वारोहो मरुद्यानवानां हृदये ध्वनिः ॥ २४॥ आकन्द इति विज्ञेयः खुराइच शफसंज्ञिताः । आममासं भवेत्क्रव्यं पकक्षं पिशितमुच्यते ॥ १५ ॥ शुकं तु विरसं ज्ञेयं मृष्टं सरसमुच्यते । शङ्खजं शुक्तिजं चैव वाराहं तिमिमौक्तिकम् ॥९६॥ वंशादाशीविषान्नागाज्जीमूताच्च तथाष्टमम् । लोकतो दक्षिणो शेयो दक्षिणश्च तुरः स्मृतः ॥ ९७|| आफूर्त farmerटर्क गहने मतम् । आननं चाकुले नेत्रे चिकुरं घापि शस्यते ॥ ९८|| पापश्याम इति प्रोक्तो वस्तु कपिलो मतः । स्थविष्टं स्थावरे चैव दक्षिष्टं दूरमुच्यते ॥ ९९ ॥ परमेष्ठी मतः श्रेष्ठः प्रेम प्रियमुदाहृतम् । प्रकादश: स्त्रीगृहेरक्तः शैलूष इति संज्ञितः ॥ १०० ।। पदच्च संकारः स्यान्नापितस्यजयः स्मृतः । लावण्यमाधुर्य चित्रं च शुभकम्जम् ॥ १०१ ॥ रुपाश्रयश्चामयाः प्रोक्ताः पानीयं तु समुच्चयः । आधयस्तु स्मृताः प्राज्ञचित्तोत्पन्ना उपद्रवाः ।। १०२ ॥ रहो वेगः समाख्यातः सत्रं सवचरितं स्मृतम् । आलवालं स्मृतं सद्भिरयां वेगनिवारणम् ॥१०३॥ चटकः कलविङ्कः स्यातुल्यं सबुशमुच्यते । किलासं पाण्डुरं ज्ञेयं बोला प्रेङ्खति शस्यते ॥ १०४॥ विरं नगरं शेषं निलयं चापि मन्दिरम् । सहस्रनयनोऽगारिः प्रधनं युद्धमुच्यते ॥ १०५ ॥ पलाश हरितो वणों मेघको नीलपिञ्जरः । उक्षाणं वृषभं विद्याल्लुलायो महिषो मतः ॥१०६ ॥ उला या वसा हत् पृष्ठोहो गर्भिणी हि या व्याख्यातो मस्करी वेणुस्त्वचिसारः परिकीर्तितः ॥ १०७॥ हिलं कामं शमं चैव रोषमा हर्मनीषिणः । फलभोपचयो नागः कलुषं चाविलं मतम् ।। १०८ ॥ बृजिनं कुटिलं विद्यात्सम्राट् राजा च भूभुजौ । रत्नं व विजानीयात्त्रियामा क्षणवा मता ।। १०९ शेर्घ प्राशु विजानीयात् ह्रस्वं नीचकमुच्यते । भूरि प्रभूतमुद्दिष्टमभितः सर्ववाचकम् ।। ११० ॥ पवनचानिली ज्ञेयः पथनश्चाधमो जनः । प्रियवाक्यो भवेवार्यः स्नातश्च परिकीर्तितः ॥ १११ ॥ आबरच पटही व्यञ्जनं बोधनं मतम् । विवंची वल्लकी ख्याता शेणा चैव निगद्यते ।। ११२ ।। मालती सुमना शेया सुमना मुदितो जनः । वल्लरी मञ्जरी ख्याता प्रपाशाला प्रकीर्तिताः ॥ ११३ ॥ तु १०४ Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकार्थ निघण्टुः १०५ आयुर्निरुच्यते तोयं तेन जीवति पद्मकम् । तस्य पत्राक्षिमानेन रामो राजीवलोचनः ।। ११४ ।। उत्कृत्य कवचं देहावसुग्दग्धं च यत्पुरा । इन्द्राय वतवान्कर्णस्तेन वैकर्त्तनः स्मृतः ॥११५॥ drensचैव प्रचण्ड बुको नामानको मतः । स पाण्डवस्य उबरे तेन भीमो वृकोदरः ।। ११६ ॥ ॥ यस्य श्रुतिमुखा वाणी पुण्य श्लोकः स उच्यते । यः खेवी चानिवर्त्ती च युद्धशौण्डः स उच्यते ॥११७॥ महासंसर्गसङ्घातं महेष्वासं प्रचक्षते । स्वविक्रमंस्तापयेच्च परं यूयं तापयेत् ॥ ११८ ।। यूथं तापयेद्यस्तं विज्ञेयश्च स यूथपः । तस्मादपि च यो वर्थः स तु यूथपयूथपः ।। ११९ । । सिंहान्निवान्ल सॉवीरः स नृसिंह इति स्मृतः । ये हि स्पष्ट प्रवक्तारो मतास्ते व्यक्तवादिनः ।। १२० ।। यो यमित्थं च नाम्नाति स कीमादा इति स्मृतः । यो प्रबुद्धो ऽल्पबुद्धिश्च स तु मन्द इति स्मृतः ।। १२१ ॥ उपकारं तु यो हन्ति स कृतघ्न इति स्मृतः । हर्षे गर्ने सुखे खेघे व प्रतिभासते ॥ १२२ ॥ स्नेह भाग्यक्षये चैव मन्दवो निगद्यते । नातीत्य वर्तते यत्र तबध्यात्मं प्रचक्षते ॥ १२३ ॥ चेतसश्च समाधानं समाधिरिति गद्यते । सर्वक्लेश विनिर्मुक्तो स हि दान्त इति स्मृतः ॥ १२४॥ निर्ममो निरहङ्कारो विज्ञेयः छिन्नसंशयः । प्रदाता वेशकालज्ञः समाधिस्थः स उच्यते ।। १२५ ।। मुखरोऽरूपमतिस्तु सक्रोधश्चैव कीटकः । वृत्तिर्यत्र तु गृहयानां परोक्षे बहिः तत्क्रिया ।। १२६ ।। आहार व्यवहारेषु सा प्रीतिनिरुपस्करा । परस्परं स्वदारेषु सतां येषां प्रवर्तते ॥ १२७॥ विश्रम्भात्प्रणयाद्वापि सा प्रीतिनिरुपद्रवा । यशः ख्यातिरिति प्रोक्तं तद्योगात्प्राहरुच्यते ॥ १२८ ॥ कीर्तिपातियशोयगाव भगवन्निति चोच्यते । प्रियदानेषु यः शुद्धः स उदार इति स्मृतः ॥ १२९॥ रजस्वला तु या नारी सा चोदक्या प्रकीर्तिता । प्रोतिर्भावत्रिये स्वच्छर लिगित दिपु ? ॥१३०॥ तेजो रेतसि बीप्सी तपो हि स्याद् वृषार्थकः । योऽन्यजातो नो जोबः स शरारू इति स्मृतः ॥१३१॥ मियावृष्टिरहमानी मस्तिकः सः प्रकीतितः । कामः क्रोषश्च वं पूर्वे लोभोऽसत्यं च मध्यमे ।। १३२ ।। अन्त महाविषच यस्य यः स वः । अमु जारः कुण्डो मृते भर्त्तरि गोलकः ।। १३३ ।। अनयोर्यो ऽन्नमश्नाति स कुण्डाशी निगलते। भ्रूणस्त्री गर्भिणी बाला ब्राह्मणी बह्मजीविनी ॥। १३४४ परचित्तं यवीयान् योः ज्येष्ठपत्नी परामृशन् । यः पश्चिमश्च ज्येष्ठोऽपि परखितः स उच्यते ।। १३५०० पुष्पजं क्षोमनं चर्म्मकोशनं भ्रमं तथा । गुणजं च समुद्दिष्टं तब्भेश वस्त्र जातिषु । १३६ ।। विम्बारक्तधरा या स्त्री बिम्बोष्ठों तो विनिद्दिशेत् । या स्यात् संक्रीडनपरा ललना तो विनिद्दिशेत् ॥ १३७॥ दूकाण्डप्रतीकाशा कुंभौ यस्यास्तनू कुचौ । सर्वरूपविविमताङ्गी सा भवेद्वरवणो ॥१३८ लावण्ययुक्ता या नारी ललित। तां विनिद्दिशेत् । या मत्ता मतवज्ज्योतिः सा ज्ञेया मत्तकाशिनी । । १३९ ।। भूरिश्च भूरिमुद्दिष्टं अन्नं श्रव इति स्मृतम् । भूरिश्रवो दवातीह तस्माद् भूरिश्रवो हि सः ।। १४० ।। चतुष्णविशतिभुजो लोहितग्रीव एव च । निसर्गाद्दाराणात्कूराद्रवणात् रावणः स्मृतः ।। १४१ ॥ रोषणा या भवेधारी भामिनीं तां विनिद्दिशेत् । व्यशोभलक्षणं विद्याद्दधाना परिमण्डलम् ॥ १४२॥ ताभ्यामुपेता वनिता न्यग्रोधपरिमण्डला । तत्तुल्ये चाक्षिणी यस्याः सा स्त्री राजीवलोचना ॥१४३॥ वर्णप्रमाणनिर्धोषोऽछिन संपद्भिरन्वितः । राजीवमन्ये शंसन्ति स्निग्धवर्ष सितासितम् ॥ १४४॥* किचिदुत्तरतद्योगात्सीता राजीवलोचना | बलिभिर्यास्त्रिभिर्युक्ता शङ्खकण्ठी उदाहृता ॥ १४५ ॥ स्यन्दनाग्रमिवाग्रतः । वस्त्वेति तज्ज्ञेयं तस्यैवायं......।।१४६१३ जराकराकारं तं मर्मसंयुक्तं तत्तया लिनमुच्यते । ग्रहणं धारणे सामे वाहने धर्मसंयुता ।। १४७।। रमणे क्रोडने सङ्ग भार्या नाम प्रवर्तते । मूढतायां सविधायां सप्ताश्वस्त्वंशुमालिनि ।। १८८० विषमाक्षवरा एते ज्ञेयानं ते विसंस्थिताः । कोटरस्था इति ज्ञेयाः सम्र्पकोटखगावयः ॥११४९ ।। आतापलो यस्तु वृक्षाणामचिरोगमः । .... ।। १५० ।। सौकुमार्य किसलयं कोमलत्वं च तरस्मृतम् । शतानां च चतुर्हस्तं नत्वं तहिसंज्ञितम् ।। १५१।। * नोट — मूल प्रतिमें १४४ मे १४८ तक के पथोंपर उनके नम्बर नहीं पड़े हैं। १४ Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ अनेकार्थ-नाममाला कुम्भो वाहःप्रस्थः सम नस्व इति विधीयते । विपिन शून्यमित्युक्तं विपिन गहमेव च ॥१५॥ सक्म वर्ण च वार्म च दर्शनीवार्थवाचकः । सर्वार्थश्चाप्युवर्णश्च पानोमं शीतमुच्यते ॥१५॥ नीहारं शोतमित्युक्तं प्रदोषान्तो निशी यकः। ................................. । इति महाकविश्रीधनञ्जयकृते निघण्टुसमये शब्दसंकीणे अनेकार्थप्ररूपणो द्वितीयपरिच्छेदः ॥२॥ एकाक्षरी-कोषः विश्वाभिधानकोशानि प्रविलोक्य प्रभाष्यते । अमरेण फवीन्द्र णकाक्षरनाममालिका ॥१॥ अः कृष्णः आः स्वयंभूरिः काम ई श्रीररीश्यरः । ऊ रक्षणः ऋ ऋ जयो देवदानवमातरों ॥२॥ लवसूलाराही भवेदेविष्णुरंः शिवः । ओर्षेषा औरनंतः स्यादं ब्रह्म परमशः शिवः ॥३॥ को ब्रह्मात्मप्रकाशाः कः स्याद्वायुसमाग्निषु । के शोर्षे सुसुखे कुस्तु भूमौ शब्दे च किं पुन: ॥४॥ स्यात्क्षेपनिन्वयोः प्रश्न वितः च समिन्द्रिय । स्वर्ग व्योम्नि मुखे शून्ये सुखे संविदि खो रवौ ।।५।। गस्तु गातरि मंधचे गा गीतो गो विनायके । स्वर्गे विशि पशौ बजे भूमाविन्दौ जले गिरि ॥६॥ घस्तु सुघटोशे घा किंकिण्या च घुछनौ । ई मञ्जने को वृष भेजिने च नन्द्रचौरयोः ॥७॥ च:सूर्य कच्छपे छं तु निर्मले जस्तु जेतरि । विजये तेजसि वाचि पिशाच्यां जि: जवेऽपि च ॥८॥ सो नष्टे रवे था यो जो गायन घर्घरध्वनौ । पृथिव्यां करटे च हो ध्यमौ ठो महेश्वरे ॥९॥ शुन्ये बृहसूत्रनी चंद्रमंडले हे शिवे ध्वनी । सो भये निर्गुणे शब्ने ढक्कायां णस्तु निश्चये ॥१०॥ शाने तस्तस्करे क्रोड्युच्छयोस्ता पुनर्दया । यो भीयाणे महीधे व पत्यां दा वासूदानयोः ॥१२॥ बन्थे च धा गृहये केशो धातरि घीमतो । धुरकंचितामु नो नरे बन्धुबुद्धयोः ॥१२॥ मिस्तु नेतरि नः स्तुत्यां नौः सूर्ये पस्तु पातरि । पावने जलयाने च फो संभाजलफेनयोः ॥१३॥ भाः कांतो भूर्भुवः स्थाने भी ये मः शिव वियो । चंद्र शिरसि मा माने श्रीमानोरणेऽव्ययम् ।।१४॥ मुः पुसिषने यस्तु मातरिश्वनि यं यशः । यास्तु यातरि खट्वांगे याने लक्ष्म्यां च रो पुती ।।१५॥ तोत्रे वैश्वानरे कामे राः स्वर्ण जलदे प्वनौ। री भ्रमे भये सूर्य ल इंद्रे चलनेपि च ॥१६॥ लं तैले लीः पुनः श्लेषे लो भये वो महेश्वरे । यः पश्चिमदिशास्वामी व इवाय स्मरेऽप्ययम् ॥१४॥ शं शुभेशा तु शोभायां शो शयने शु निशाकरे। घः सिष्टे पुनगर्भ विमोशेषः परोक्षके ॥१८॥ सा सकायां हो निपाते च हस्ते दामणि शूलिनि । क्ष क्षेत्ररक्षसीत्युक्ता माला प्राकृरिसम्मता ॥१९॥ इति एकाक्षरी नाममाला समाप्ता ॥छ।। Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द अंश अंशुक रा अन् अहि अनुपार अक्ष अি अक्षौहिणी अखिल ञग अग्नि अग्निसूनः अन्न ज अग्रिम अज अङ्ग अज अङ्गना अङ्गराग अङ्गीकृत अनि अप्रिय अनल अन थजयं उष्ठ अ अटनी अटवी अत्यन्त raton www २३ ५१ い ६६ ५ १२ ६१ ४९ ४३ ८८ ५ ३३ 22 ३४ २१ ५७ ७५ ६६ १९ १४ ६५ ११ ५१ ५ ३६ ९१ अजय ८९ अतिरि ५१ अञ्जनात्मज ३३ ४० ४ ६ ८३ धनञ्जय - नाममाला गतशब्दान क्रमणिका श्लोक ४५ ११७ १०१ an १३० ११ २५ १२२ १३० ९६ ८६ १८७ ११ ६४ ६६ ४३ ११४ १५६ १३० १६५ ३८ ३० १११ १९७ १०३ ११ 6 ७२ १९७ १८९ १४६ ६ ३ ७९ १३ १५३ शब्द अत्यर्थ अदभ्र अदितिसुत अद्भुत अि अघम अधर अधिग अधोक्षज अध्वन् अनन्तर अनुकम्पा अनुक्रोश अनुग अनुनर अनुज्ञ अनुजा अनुजीविन् 136 ६९ अनन्तात्मन् ३६ अनन्यज ३९ अम्राट " अनल अनारत अगालच अनिमिष } अनिमेष 5 अनिल अनीक अनुरहस् अनेकप TH श्लोक | ८३ १० ३० अहम् अनोकह अन्त अनःकरण ८४ ४ ७३ ! ८१ ५० ५ ३७ ३३ ८९ ६७ ८ ३२ ४३ ५४ १४ २१ २१ १४ ८४ ४५ ܕ ५. ५ ४१ १७३ १९१ ! ५६ १७४ १५४ १६८ १०० १० ७५ १६२ १४१ ७३ ७७ १८ ६५ १८९ १३५ १७ ६२ ८६ ११० २९ ४२ ४३ २९ १७५ ८८ १३२ ११ १ ८१ शब्द अन्नक अन्तरिक्ष अन्य अन्त्य काश्यप अन्तेवासिन अन्यकार अका अव्ज अधि अन्वय अन्नवाय अन्यत्रु अन्वित अन्त्रीत अह्नग्य अप् अपचन अपत्य अपा अपारबार १३ अप्राश ८० अप्सरानाथ ३० १५ २.३ अभय अभियोग अभिराम अभि अभीक्ष्ण ਅਧਾ अभ्यास ७१ २८ ६३ ५८ ३ अभ्र ७२ ६३ अमर IP ७९ ७७ ני ७६ ५ १९ १९ ४९ अभिलाष ७७ अभिलापुर ८४ अभिसारिका १.३ ८८ १२ ९१ ૮૪ ८५ ५५ ६९ ६९ ८६ (८ { २८ まい श्लोक १४५ ५३ १२४ ११५ ४ १४८ १२४ १८९ १६१ १५७ १५ ३८ ३९ ९९ २५ १६६ ५९ ३१ ५१ २५ २०० १७४ १.७५ १११ १६० १७५ ३५ १८.५ १४१ १४१ १८५ १८ ५३ ५६ Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ घनम्जय-नाममाला पृष्ठ श्लोक प्रलोक शब्द अवरज पृष्ठ । : शन्द अमर्ष अमल अमा अमित्र अमृत अमृतोदभव ७७ RE२६ पृष्ठ श्लोक | शब्द आत्यन्तिक आदेश आनन अनन्त्य आनन्द १८२ . ४४ १२२ २५ १५ १७२ अबलग्न अवस बवसान अवगर्ष अवश्याय अविदर अनि अश्लील अश्त्र अष्ट्या .* - अपमा K अम्बर १९ ११७ आभरण आध आम्नाय आयुध चम्बु अम्त्रु जानन अम्बुधि अम्भस् १३७ आर्या अष्टापद अयस् 2 १३ असि अशित असुपति आलम्ध्वमुष आलय आलस्त्र आलो अरण्य अरण्यानीचर ७ अरम् अरविन्द अराति अरि १४ . १३२ १४८ ३७ NWCM Von: अमज १८८ । आलि * * * * * = " 6. GEECHNWW.GANA १६८ आधास ८३ । आवृति आशय आशा ११० সাহাগি । आश्चर्य Yaar Vा : अरुण अके ४९ आशु .. अजन १४३ आसन ११३ १३५ २६ अर्णव अर्णस् w अर्थ अर्भक अर्थ मन् * * * * अस्तुकार अस्त्र अहंयु १५० अहन अहन्लोक्ति ५४ अहि अहिल | अह्रो आ आकालिकी आकाश आवत आखण्य आगम आगार आचार्य आजि आजा आज्य १८६ आतन १४७ आतपत्र १५२ आनाम्र आत्मज आत्मभ ३६ आसन्दी आसन्न आसव आस्थानाधिपनि ५६ आस्पद आस्य आस्वनित अर्वन ६६ १३३ m अर्हत आलकानिलय १११ ४८ अलि २. १२२ । ६ ७१ अलिप्रभ अलीक अवदात अवद्य अवधि अवनि ३८ ११ २१,२२ इन्दिरा इन्दीवर ३९ इन्दु ७३ । इन्दुमोलि ३५ ६९ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शम इन्द्र इन्द्रजित् इन्द्रिय इभ इरा इला इष इष्ट इष्टा ईरित ईशान ईशित ईश्वर हामृग उप उद्गम उद्धीब उद्धत -- उद्धर उद्यम TE लोक ५ ३० ****** 2 a ६५ ४५ ६१ ३९ १८ १६ ५ ५ cil m ६५ ३५ ८३ उत् उच्चावच उम् उच्छ्रित उड उत्कट उत्कलिका १३ उत्तमाङ्ग ५२ उत्तराशापति ४८. उत्तानशय उत्पल उत्प्रेक्षा उत्सव उत्साह उदन्वन् उदर उदचित् ܕ 17 15 २५ ८३ ܕ ܕ १३ ५१ ६२ ४० RE १० | उद्योग १७ उह उठाहू उन्नत उपकण्ट उपत्यका उपमा उपमान ८१ ८१ १२८ १२९ ७६ १५८ । उल्का १५८ १५८ | उल्बण । उष्ट्र ८१ ८४ ८८ १२. ६ ७८ ३.३ ३३ १०४ १० . १० १० १२७ So १८४ २७ | १०४ ९६ उपल उपांशु उपेन्द्र उभय उमापति १५८ ४८ | उष्णवारण १८४ उस ها उरग उरीकृत उरल उर्वरा उर्वी ११ २२ ऋक्ष ६८ १३८ ५४ १०९ ऋत ex १७४ ऋषि २७ एकपत्नी १०२ १२३ एक पिङ्गल एकागारिक १६८ १७४ करीकृत ऊर्जस ऊर्जस्विन् शब्दानुक्रमणिका पूछ ८४ १६८ । एनस १६८ २० ८९ ०६ १३ Y ६५ : ८२ ८४ 15 ૩૭ ३५ ६४ ५.१ ५१ ऊ २ ९ 69 경북 多い २३ ए ३ ३ ९१ ov A 2 ऋ २३ २५ 3 ~ والے २ ૨૩ ४८ ८१ ६६ ४२ ऐक्षन ऐरावणापि ३० श्लोक | शब्द ऐक्ष्वाकु * ૩૪ ८० । १८९ १५८ २६ ९ : १३६ १३७ १७० १७५ ૩૪ २ २० १२८ १९६ १०२ ६ १९ १८४ ९१ १९४ ८५ १९६ ४६ १९३ ४८ १८२ ३ ३४ ९५ १६९ १३१ 1. ८३ ५९ ओम भोष्ट ओषधीश्व क कटिसूत्र कटीसूत्र कठिन कठोर कण कण्ठ कण्ठीरव कदन कदम्बक कद्रद कनक ककुर् कक्ष कक्षा 河 कञ्चुक ९० कटाक्ष ४९ कोट (कटी) ५१ ६० कनीयस् 'कन्दर्प कपर्दिन् कपालिन् कपि कपिध्वज कबरी कमन कमनीय कमल कन कर 鹗 ५७ करण ओ ६३ ६९ ५० २४ क ७ ३६ १२ ३२ t ६.5 ९० २५ " ३९ ५० ४५ ** ६९ ८० ૪૭ २१ ४२ ३५ ३५ ६ ७० ९१ ८५ ८५ १० ८५ २३ ५० ६५ १०६ श्लोक ११४ १२५ १४० ११० ४७ १५ ७३ १०४ ६१ १३ १३६ १९५ १९४ ९९. १०३ १२० १५५ ७८ १०० १९० ८७ १३९ १६६ ९३ ४३ ८३ ७० ७० १२ १४३ १९५ १७७ PI २० १७७ ४५ १०१ १२९ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० शब्द करभ करवाळक करागुलि करिन् करुण करेण क.केश कर्ण शूलिन् कर्दम कर्पूर कलड कलत्र गीत कलभ कलम कलेवर कल्माषी कल्याण कल्लोल वाच कष्ट कस्तूरी कस्वर पृष्ठ काञ्चन काञ्ची कापड कादम्बरी कानन कानीनजनक कान्त कान्ता कान्तार कान्तिमत् काम Lawye * * * * * * ૪૬ ** ५० ४५ ५४ ४५ ४४ कलह ८९ कलापिन् ६३ कलाभूत् २४ कलिल ६६ १९ ७३ ९१ १३ ७५ ४९ ७० ܐ ५९ ७३ १६ ५२ ८१ ९० መረ ५९ ४७ ४७ ६० ३९ ६. १ ६ २७ १८ ८५ १६ ६ २४ ३९ लोक ९१ ८५ १०१ ८८ ११० ८९ १५४ ९८ १४४ २० १०५ १६७ ८७ १८८ १२६ ૪૭ १३१ ļ ३९ १५० १९८ ११८ १५२ : ३२ कालशेय N काली २७ १९४ १८६ ११७ १२० १३ ५१ ३७ १७७ i ३३ १३ ४७ धनजय-नामभाला ७७ शब्द कामिल् कामिनी कामुक कामुकी काय कार्तस्वर कार्तिकेय काक कार्मुकल् किरीटिन ९५ | कि.:षण ९३ ११९ ७८ काल काश्यप काल काष्ठा काष्ठापाल काष्ठाम्बर किंवदन्ती किंकर किचन किंजल्क कितव किरण किरात कीचक शत्रु कीर्ति कीनाश कु कुपकुर कुक्षि कुंकुम कुच कुबेर कुब्ज ! कुमार पृष्ट १८ १४ १८ १५. १७ १९ ४७ ३४ ४० ७० ७१ ७२ ६२ ५३ ५८ ७५ ३२ ३२ ३२ * ૪ ७६ ७३ १ ७३ ८.९ २३ ७ ७० ६६ ७१ ३४ ૪ ३ ४६ ५१ १९ ५१ ४८ ७६ ३४ श्लोक | शब्द ३७ कुमुद ३० ૨૭ १ ३६ ३८ ९४ ૬૭ ७९ १४३ १४५ १४८ १२३ १५० ११५ १५५ ६१ ६१ ६१ ९२ १०२ ११७ | कुसुम कूपार कूपस कृच्छू कृतान्न कृतिन् १५४ कृत्स्न २९ कृपण १५.३ कृपा १५१ कृपाण १५२ कुंग १६: | कृशानु ४५ कृष्ण ૪ ૧૪૪ केकर १३१ | के किन् १४५ केतु १५३ | केवलिन् १७५ केश ६ १०२ ९५ १५८ ६७ कुमुदप्रय २४ कुमुदविप्रिय २७ ४५ कुम्भिन् कुम्भिनी कुरुशत्रु कुल कुलटा कुल्या कुवलय कुश कुशलिन् केशबन्धन केशरिन् केशव केशवाग्रज केशिन् कैरव पृष्ठ श्लोक ११ कोक कोकनद ३ ८४ ६३ १७ १६ ११ ७ ७९ ४० १२ ९० ረረ ३ ७१ ७९ ८८ ૪ ५४ ४३ ८५ ३३ ३९ ७२ ४९ ६३ ४३ ५८ ९० ९१ ४५ ३७ 130 ३६ ११ ६४ १० ******** * * * * * * * २२ ૪૫ ५१ ८८ દ १४५ १२४ ३५ ३२ २२ १५ १६४ ८० २५ १९४ १८३ ४ १४५ १६४ ૧૮૭ १७५ ११० ८५ ܕܕ ६५ 135 १८८ ९९ १२५ ८४ ११६ ?? . ९० کای १४२ 94 २२ १२७ २१ Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ट कोटि कोदण्डक शब्दानुक्रमणिका इलोक | शब्द श्लोक | शब्द खग मुरुस्थान गलिका खण्ड १८७ १५५ खन्कृत गईंचर १६४ . खरदण्ड गृध्न . कोप ६७ NT ~ " mor9 ~ १५५ ६६ १३२ १३२ ३२ गहिनी बनात नेचर १०९ खेद स्त्रेय धानि १३४ १६५ ६० Goo ११२ । गगन २८ २८ २४ गङ्गा १६२ ३८ ८८ १२ कोमल कोविद कोष कौटोयक कौतुक कौन्लेय कौमुदी कौरव्य कौलेयक कौशिक कौसुम क कृत कोड क्रोव माँच जौंव मेदिन क्षणे গা। क्षणरुचि क्षतज शपाकर श्वमा क्षाम अिनि क्षिपा चित्र शीर क्षीण क्षुण्ण सुरत क्षेम क्षोणी गज गणिका गन्धवाह १५७ . गभस्ति मरुद गरुत्मत् ७.७rmir गोष गोत्रशत्र गांधा गोपुर मोमण्डल गोमिनी गोलागूल गोविन्द गौतम गौर गौरी ग्रन्थ प्रहाधिप ग्रामगाईल ग्रीवा ११४ १२८ १४. १५० Anwu 3 . १ . m . २ . गर्ता गवित गल गव्या . . A " १८ घन गहन गहर घनसार घनाचन घष्टि गहरी १७४ घोर १८४ १६२ घोष गाण्डीविन् गिर गिरि गिरीश गीर्वाणेश ०/MOPa.. Trut স্নাঙ্গ १०२ चक्रधर ८२२ धमा गुण गणनिका चक्रवाक चक्रान १५३ चण्डी १२३ । चतुर गुणावलि .24 Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धनश्चय-नाममाला पृष्ट श्लोक शब्द पृष्ट इलोक शब्द नतुम ख चतुष्पात् चन्द्र चन्द्रमस् ३८ | तन पृष्ठ श्लोक शब्द ३६७२ । जननी जनपद २४ जनान्त जनि जनोदाहरण १८ ४८ २५ चमू १५३ तटी जटोच्छवास १३ तडिन तडिदधन्वा ३. नति ६९ ननय चमूर १४० १८२ चरण . जलद ६३ । जय जयन तनु वारस्यु १०३ ६३ १९४ तनुत्र तनूदरी . वलन चला चाटुकान जान तनूनपान . 'su " चाप ३ जातरूप १८२ | जातवेदस् १०८ । जानु चार चार चिकर चित्त १६७ : तपन तपनीय तपस्विन तम तमस तमारि ८१ जाया जादयी লিয়া W चित्र चिह्न ४३ ५५ जिन ८३ १३ १७२ २७ १८२ जिष्णु Y ११७ चिराय चीकृत चीर चुडावाश नेत चेल चाद्य चौर १२९ । तरंग तरंगिणी नरणि नरवारि तर स्विन् जिलाप जीमूत जोर्ण । 44 ८१ १५६ १३१ A १७३ १७९ जीवन जीत्रा ૮૨ ८२ तरकर तापस तामरग तारा तारुण्य २० १९४ न्या ज्यायस ज्येष्ठ ज्योति छत्र छनन १३८ छिद्र सायं १२८ ४९ इल १८४ १८८ तिमि तिमिर जगत् जगती REAK १४८ १८४ जघन सटिति अष १०३ झपकेतु १०२ । अषध्वज शङ्कृत १६६ ३८ तक लिमिरागि तीर जटर तोर्थ तीर्थकर ज जनक तीर्थकृत Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ पृष्ठ पृष्ठ श्लोक शब्द तीर्थ कर तोत्र ११६ शब्दानुक्रमणिका श्लोक । शब्द पृष्ठ श्लोक शब्द दशमीस्थ १०८ । दृष्टि १८४ । दगा १२४ | देव देवानांप्रिय दहन दामोदर देहिका ५६ तुक दस्य देह १९ ५२ दारक ४० । दैत्यारि ३२ दास १४४ १०१ दारा दारिका १३६ ३६ दोप तुरग तुरंगम तृरासाह. तुला तुलाकोटि तुल्य तुषार तुहिन तूर्ण तेजस् १८४ ३६ द्यति मणि २६ १७९ दासी दिक-दिश् दिक्पाल अर्थनी - ६१ । चुप २८ १२२ ४५ धिमाज दिन तेजस्विन् (२८ १३. my. तोक सोमर दिव-दिव (२८. द्रविण द्रव्य द्राक् ७८ १५ तोय १५७ १०९ दिवस दिवा दिव्य वाक्पति ५८ दीक्षित दीधिति * . * * इम द्रुहिण . तोष त्रिकत विदेश त्रिनेत्र त्रिपथगा त्रिपुरारि त्रिमार्गगा ज्यम्बक ३५ दीन ७ . ४६ . ३५ दीप्ति दीर्घ ० १८३ L द्वय द्वितय द्विप हिरद द्विरेफ विष द्विषत रित १३१ ग दष्ट्रिन् दशवाच्या दुर्जन . दुष्कान ष दण्ड ० दन्न पिन तूंत K दुहित दन्तबास दस्तिन ཝ ཝཱ ཙྩཱ ཡྻོ ཝཱ ཙྪཱ ཙྪཱ ཙྪཱ ཙྪཱ ཨཱ द्वती दून १७१ १५५ दयित दयिता इतिहदि धन धनंजय घनद अनदाय धनुष दरीभूत दया दर्शनीय धन्दन् देशनच्छद १७० १०८ घमनीषम Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ धनञ्जय-नाममाला पृष्ठ श्लोक श्लोक १५९ शब्द चम्मिल्ल घरणी धरा धरित्री ४० ५३ १६४ १५२ धर्मचक्रभृत् धर्मात्मज श्लोक । शब्द १९५ ननाद नन्दन नमस नभस्वत् नभ्राद नमुचित्र १४६ नयन नर नरक १७० मलिन नव १४ नव्य शब्द नित्य निदेश निपुण निबोध निभ निम्नमा नियन्त्रित नियामित नियोग निर्धान निब्यह ५८ ७१ १३८ २४ १२ धद २८ १७६ १७६ धवल ७४ १५४ १२ धातु धात्री धानुष्फ १३५ निलय निवसन घामन ६ १३३ १३२ नाग निवृत निवेशन धिषणा विण्य ८९ १८९ १३२ ११० निया मागरिक नागारि ४८ थी S धुनी निशाचर निशान्त DH .. बर्य निषाद ५२ १४८ धूर्जटि ३५ ११५ ११४ १६५ ७९ 10 निपादिन निष्णात निसर्ग निस्तल निग्नश १८५ १८३ नाथहरि नाथान्वय नाभिज नाम नारद नाराच नारावण नारी नासा निकट निकर ३९ नीच धूलि धूलि कुट्टिम घन धैर्य ध्वजा ध्वजिनी ध्वान्तारि १५८ 4 १६८ av १५८ - १४८ १२६ निकाय ६९ १४० नीचस् नीर नील नीलकण्ट ६२ नीलपिजरी नीललोहित ३५ नीलवसन ७० नीलाम्बजन्मन् ११ नीहार नूतन निकुरम्ब नक्तम् १४२ निकेतन निगढ पुरुष १३२ ८६ १८२ २२ निज ८८ नक्षत्र नग नित्रय नगरी मद मदी नितम्ब नदीश्वरी-नदीश्वर ३६ ७१ नितम्बिनी नदीष्ण ७९ १६४ | नितान्त १२ १५६ १०७ २८ : ८३ १७३ । Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द नृपऋतु नड 작 नेक नैयायिक न्यच् पक्षिन् प पंक्ति पद पटन पण्डित स्त्री पतङ्ग पतत्रिन् पलाका गति पतिवत्नी पतित्रता पोन पति पत्नी पद पदग पदानि पद्म पद्मनाभ पन्नग पयस् पयोधर परराग पुठ इलोक ५६ ११२ ---- ८० ४९ ६० mayor ५५ 日 5 प २९ १० ७३ ६१ १७ ( २६ ( २६ २९ ४३ ५ १७ १७ १६ पत्रिन् २६ पथिन् ७९ ४८ ४८ १४ ५१ ६६ ६८ · १४ ** १० ३७ ६८ १६८ १९ ७ ६२ १६.१ १११ १५८ ५४ २० १५२ १४० १६४ ९७ १११ ३६ ७८ १६१ ४६ ५४ ५४ ८४. १० ३४ ३४ ૩ २९ पाण्डु पाण्डर पाताल पायस पाद पादप पाप पाप्मन पार पारावार पारिषद्य पार्श्व पालाश ५१ १०२ पाली ७३ १५१ पावक ३२ 45 १०३ १३३ १३८ २२ | २० ७५ १२८ १५ १२२ शब्द परासु गरिखा परिचित परिणयन परिधि परिवाद परि परिषत् परुप पर्जन्य पर्वत पल पल्लक पवन शब्दानुक्रमणिका पवनपुत्र पवमान पवनसस पशु पांसु पाकशत्रु पाटल पाठीन पाणि ५४ १०८ ( ५४ ८५ ६७ १८६ ረ። १० ७५ " २९ ور ४ ३२ یا ४ २३ I -- w w m १५१ ५ ३३ ३२ ३३ 3 ७३ ३० 157 . ५० १०१ ७१ १४७ 139 १४०. ૮૬ १९ ६६ ६६ १३ १२ ५६ ४ & श्लोक शब्द पाशित पाशनीत पाषाण १८९ पितामह १३४ | पितृ १८१ गिन १८८ १० १५-२ १३ ३३ १३४ १०८ २० १५५ १८ ८. ५५ १६० ६२ ६३ ६२ ૬૪ १६३ १५१ ५८ 其他 १७ १५ ४५ १०३ ११ १३१ ११ 기 २६ २५ ९. १८९ २७ ६४ 1 पिनाकिन पिशित पिशुन | शंगी I पील पीत पुरवली पुटभेदन पुण्य प ुण्डरीक पुत्र पुनर्भू मस् पुर् पर पगण परी पुरु पुरुष पुरुषोनम पुरुहूत पुरोगति पुर्ण पुलिन्द पुलोमारि गुटकर करिन 跟 ८५ ८५ ८२ पुष्कल पुष्प ३६ १८ ८५ ३५ १७ १३ ४८ १८८ ग्रवर まい ' । पुरुधी- पुरन्धि १६ ७६ २०. ८१ ७३ ५६ ७ 32X322 १७ ६५ १९ ४८ ५७ १९ ३० ३० ૪૬ ६२ ५ 20 ११ ४५ ८८ ९.. ११५ श्लोक १७८ ૩૬ १७० ३२ ३८ १७६ ६८ ५५ १६८. १५.० ११३ १४५ ३५ ९३ १२९ २१ ३९ ३५ २८ १७ ५८ ३१ १५६ ܕ ܆ ११८ २८ ७४ ६० ९२ १२३ १४ ६० २१ ८९ १७३ १९४ ८० Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ शब्द पुष्पहेत घुग पूषन् पृतना पृथिवी पृथुरोमन् पृथुल पृथ पृथ्वी पृषत पेशल पेशि पोत पोत्रिन् पौरुष प्रकर प्रकृति प्रगल्भ प्रचर प्रचुर प्रजा प्रजापति प्रज्ञा प्रणयिनी प्रणिधि प्रतिरोधक प्रतीत प्रतोली प्रत्य ग्र प्रभञ्जन प्रभा प्रभु प्रमथाधिप प्र मद प्रमदा प्रवीण प्रवीर पृष्ट श्लोक ૪૨ ८३ ६९ १३९ २६ ४९ ४३ ८६ ३ ८ ८७ ८७ ३ ६४ ७५ २९ २० ४६ ८३ ६९ ८८ ७९ ७८ १० १९. ३७ ५७ ५५ १६ ૮૧ १८६ ८१ ६७ ७५ ३२ २३ ५ ३५ ५४ १६ -५४ ५ १७ १८३ 37 ५ १२७ १५५ ५५ ४० ९१ १७१ १४० १८५ ૬× १६२ १९१ ३९ ૩૪ ११४ ११० ३३ १६९ १८२ १६९ १०८ १३४ १५६ ६३ ४५ १० I ६८ १०९. ३३ १०९ ७९ ૧૬૪ ९० १९३ धनञ्जय नाममाला शब्द प्रवृत्ति प्रास्त प्रसन्ना प्रसव प्रसाधन प्रसून प्रस्तर प्रस्थ प्रसन्ना प्रांशु प्राकार प्राक्तन प्राचीन प्राज्य प्राज्ञ प्राभूत प्रायस् प्रारभ्य प्रालेय प्रावृषिक प्रासाद प्रिय प्रिया प्रियाम्बिका प्रीत प्रेमन् प्रेयस् प्रेयसी प्रेरित प्रेष्ठा प्रेष्य प्लवग फणिन् फलिन् पृष्ठ फल्गु फाल्गुन ७४ ८६ ६१ ४० ६० ४० ८२ १६ وار ६७ ७६ ३० १० ५५ १० ६२ ५२ ८५ ६३ ६७ १८ ( ૭૪ १६ २२ १८ ૩ १८ १६ ५२ १६ ७४ ६ फ ६४ ५ फलेग्राहिन् ५ ७५ ७० स्लोक | १५४ १.७८ १२१ ८० १७९ १२६ १३५ ३७ १५४ ३३ ४३ ३७ १६० ३७ ३३ ૦૪ ११८ ८० १७० ९ १२१ १८३ १३४ १५६ ५७ १५५ बहु ३३ १५४ १२ I १२८ ११ ११ १५५ १४३ शब्द फरीद . ! बद्ध बन्धकी १११ बहुल १९१ १२३ | बाण (वाण) १०४ बाणवारण बन्धु नम्बर वल बलमश्रु बलाहक बलसूदन वंहिष्ठ त्रध ध्न ब्रह्मन् बीहि भ भंग भट भन भर्तृ पृष्ठ भर्तुःस्वसा भर्मन् Yo 可 बाणसूदन ३७ बाणी (वाणी) ५४ बाल ९० बाला १५ बाहु 140 बाहुशिरस् ५० विसिनी ११ ५६ २६ ७३ ८१ ८५ १७ २१ ८५ ४३ دی ३० ८ ३७ १० ५ 69 ९० ३९ Mary ९. X = X ove २५ १३ ૪ [ ५३ ९१ '' २१ ४७ श्लोक ८० १७६ ३५ ४२ १७८ ८६ १४२ ५८ १८ ७५ १९१ १९५ १८३ १९७ ७८ १९४ ७५ १०४ १९५ ३१ १०१ " २३ ११२ ४१ ११० १६७ ४८ २७ २९ १०६ १५८ १० ४ च ९३ Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १.१७ श्लोक शव भरतान्वय १२९ भव मय भवन भविक १२६ १२५ मंभ १७२ मय भागीरथी 4 EFFFFF " * . भाग्य - M भानु w 22 मरुत्वत् v० १४ ५२ ८८ V भामा भामिनी भारती भार्या भाव भावुक १९२ २८ mr mmm UPN9 Donr ..rn Vx १८८ १५२ भास् शब्दानुक्रमणिका पृष्ठ इलोक ' शब्न पृष्ठ श्लोक | शब्द पृष्ठ ७१ १४८ । भ्रातृजानी २१ मन्यु भ्रातृश्य मंत्रपूतात्मन् ६५ म ६६ . १३२ मकरध्वज मम्न वन् २८ ९१ १९८ मयूर मकरन्द १५१ १९८ मराल मरीचि मंगल मरुत मद्मवत् मंजीरक मरुत् ६४ मंडल मंडलान ४३ मस्त्यूष मणिन मरुस्मय १.४ मसंगज मतालम्ब मद मत्स्य मयं मत्तवारण मर्म मथित १२३ मलिन मदन मल्लिका मदिरा मलीमम मद्य १२० महति मद्यप महत् महावीर मथुवारा महाव मधुव्रत ४२ महिला गधुसूदन महिषी मध्यमपाण्डव ७० १४३ मनस् ४१ महेश्वर मनस्विन् महोत्यल ( ३८ ७६ मनस्विनी मांस मनीषा मातंग मनुज मनुष्य मारिदवन् ३२ मनोज्ञ मातुलानी २२ मनोहर मातृ मानव 1८७ १८४ मानिन् मन्दाकिनी ३६ मानिनी १५७ मन्दिर मानुग ४२ ८२ । मन्मथ ३९ vm o भासुर भास्कर भास्वर १२० भिक्ष : 20: ra r , मधु MYyr r ० भीरु भुज भुजंगम भुवन ३२ १२८ ११३ मही Mr ३८ भूमि भूमिधर भूमिष्ठ भरि भूषण भुग भूतक भुत्प भुशम् 28:25४१६४ १७८ M vm Mur m N 4. १६८ ७१ भो भ्रमर * ३७ । मार Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धनञ्जय-नाममाला शब्द प्रम श्लोक श्लोक । शब्द मैत्री मंसिक १६२ २९ ४७ ७८ पृष्ठ श्लोक | शब्द ९१ १९७ । रक्षस् १९७ रजत १२. सनी १८६ रजस् । ४ रण रत्नाकर मार्ग मार्गण मातगड माला माल्य मिलंगम मित्र र ११९ m " मौण्ड्य मीक्निक मौर्वी मित्रयुक् ३७ मिहिर मीन यज्ञारि यति रन्न रमण रमणी रमणीय रम्य मीनाकर वन्त मुख यम त्रि मुग्ध मुग्धा मुक्ता रश्मि यमजनक यमल यमुनाजनक यशस् यातुधान २७ __५१ | रसना यस्थ मधा मुनि सात रहस् रहस्य राग १७५ मुरसूदन मुहुः मक मूर्ख मूद मुति भूर्द्धन याथ यादम् युक्त राजन् ७१ युग ४८ यगल राजयक्ष्मन् राजराज राजसूय रात्रिचर रात्रिजागर ११२ युग्म मृग युन रामा मृगनाभिजा मुगांक मृगन्द्र युधिष्टिर युवति योगिन १७८ मृत योम्बा मोषा रुचिर हचि मृत्यु मदु मृषा रुच्य योषित् यौवन यावनिक मेखला १२३ रुधिर १८८ रु १७२ २८ १७ मेघपथ मेदिनी मेघावी रूपाजीवा रूप्य २४ रक्त १८८ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द रेणु रेवतीदमित रं रोधस् रोपण रोहिणीपति रोहिताश्व लक्ष्मन् लक्ष्मी लक्ष्मीपति लबु लंजिका लता लतान्त लपन लध ललना लब लांगल लांच्छन लब्भ लब्चक लेलिहान लेज़ लोक लोह लोहित लोहिनी वक्ता वक्त्र वक्षस् वक्षोज वचन वनस वज्र वज्रिन् पृष्ठ ७३ ७० ક १३ ३९ ८६ ३३ ल ७२ ३८ ३८ ८३ १७ ११ ४० ४९. ५४ १४ ८९ ७० 19 * ૮ 49 श्लोक | शब्द १५१ वत्म १४२ ९५ २६ ७८ १.३९ ६५ ४१ ५१ १५२ ५१ ५२ ५२ ९ ३० ७६ १०८ २० १९७ १४२ ७२ १५२ ८४ १७५ १४ १२८ १७२ ३६ २३ ८० ९८ १८७ ११३ ८२ १७७ ७२ १४९ ८९ १८८ ७३ १५० ९२ *E* चवन वधू वन वनस्पति वनिता वनेचर वह्नि वपुस् यत्र नयस शब्दानुक्रमणिका नयस्त्रा वर् वरटा बराह वरूथिनी वर्ग वर्ण " वल्लभ बल्लभा वल्लरी Wang The ९८ बल्ली १०२ वसति १०२ वसु 208 वसुधा १०४ वसुन्धरा १९ वसुमती ५७ चस्तु 骂 श्लोक शब्द ८१ १६७ वस्त्य ९८ | वस्त्र वाग्मिन् ३० * + x + m ४९ १४ ६ ७ ५ १४ ६ ३३ १९ ६७ २९ ६२ २० १८ ८९ ६८ ४६ ४ ३ ६ ३ ३४ वर्तुल वल्मँन् वर्द्धमान वर्मन् वर्षीय ५७ बहिण (बहिण ) ६३ बलक्ष ७१ २ ራ ७८ ५७ ९० (बलीमुख) ६ १८ १६ ११ ११ ६६ ४७ ३ ३ ३ ४७ १३ | वाचू १५ ११ ३० १३ ६४ ३८ १३४ ५४ १२४ ४१ ३७ १८९ १७ ९१ ८६ १२५ १५३ ३ १८३ १६२ ११५ १९४ ११४ १२६ १४७ १२ ३७ ३३ २३ २३ १२३ ९५ ६ ६ ५ ९.५ वानस्पति वाजिन् वाल i वातायन वानर ६ बाण ( बाण } ३९ वाणवारण ५० वाणसदन ३७ वाणी (ब्राणी ) ५२ वामलोचना १५ ३२ वायु नाक्य वायुपुत्र बार् वार्ता वारण वारली वारि वारिवि वारिराशि वारुणी वाहन वासर वासव ਯੂਥ ६६ १९ ५५ ५२ ९२ २७ ३२ ६७ वामस् वासुदेव वाह वाहिनी वि | विकल विक्रम विचक्षण विट विपिन् विडोजस् ७१ ७ ७४ ४५ ૪ G ૭ १२ P १२ ६१ ६३ २६ ३० ५९ ૩૭ وات ४३ २९ ८९ ૮૪ ५५ १८ ५ ३० ११६ श्लोक १३३ ११७ १११ १०४ १९९ ५२ ६२ १३५ १२ ७८ 2 १९४ ७५. १०४ ३१ ૨ १४५ १५ १५४ ८८ ૨૭ १५ २३ २६ १२१ १२४ ५० ५९ ११७ ७६ 5 ५२ ८६ ५४ १८७ ××× १११ ३७ ११ ५९ Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धनञ्जय-नाममाला शब्द पृष्ट पृष्ठ श्लोक पृष्ठ श्लोक वितथ १८५ ___४८ GAM ३३ वित्त विदग्ध विद्यमान विद्युत वित ६५ १२९ वंशारिण वंश्रवण श्वानर वंग व्यतिकर व्यपदेश व्यसन व्याघ्र व्याज व्याध ३८ ૬૮ E. १३८ १८६ विधातृ ८८ श्लोक ! हाद विश्वरूप विश्वस विश्वम्भरा विष विषक्षय ਗਿr विषय विष्किर विष्टा विष्टर विष्णु १२७ विस्मय १३७ विहायस वीचि वीतराग ४६ वीर KG . विधि विधिपूत्र विधु विधुर विमतात्मज विमान्य विपिन विफल १८६ ८४ १३४ वज ना २८ ७८ १६२ व्रतती (अनति) ११ २ ८८ वतिन an विभायम ३ १३९ ११५ १२७ बुक वात व्योमन् २८ ५३ विभु वृकोदर Ad० विनम वृक्ष १८३ जिन ६६ २५ वृत्त १६० शकल १३९ | शकुनि शकुनीश्नर १३८ शकुन्ति शकृत्किरि शक्तिमत् वृत्तान्त वृत्रहने GAR ७२ १६७ १६० ८८ वृक्षा वृषन १८६ बियत वियोग विरंचिन् विरह विरूपाक्ष विरोचन विलम्बित विलेपन विलोचन विवर विवाह ५० ५७ पात्र १८४ १९९ १४४ ११८ वृषभ वृषभध्वज वृषभेश्वर वृषसेन वृषाकपि वहित ७० ११४ १९२ ६९ शवनन्दन ११७ । शंकर १४ शंपा ६६ । शंभु १०५ : शंभूविघ्नकर ४३ १७२ शतक्रतु शतपत्र १३२ । गतमन्यु विशद १४८ शट १७३ vm .XI वेधस् 420 OMGM tuda.. ___ बेला विशाख विशारद 'विशारिन विशाल विशालाक्ष विशिख विश्व धेश्मन शत्रु वेश्या वैजयन्ती वैनतेय वरिन् १७ ४३ सकटी शबरी शब्दभेदिन ८८ १८१ २२ ४४ ७० Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दानुक्रमणिका शब्द पृष्ठ श्लोक । शब्द चार शिव १९१ १९० श्रुति १३३ K शरण शरम शरवणोदभव ३४ शरीर शीघ्र शीघ्रगामुक ६७ शीतल १७६ | थोणि( श्रोणी )५१ धोणीबिब १८४ श्रोतस् १२० । श्रोता १७१ | श्रोत्र १८५ ৰ ६५ । शीथु शीर्ण ६१ ८२ शर्वरी पार्वरीकर am PWDMA ९८ १७८ शक्तिज १४ शुक्ल १४७ १९० शवर शशिन शशिप्रभ शश्वत् १४७ शुचि शुदा-ड शुडाल शुनासीर श्यम्र ८९ श्वसन श्वेत श्वतवाजिन ७० इवोवमीय ९१ 20333 शास्त्र ५७ १४३ १९८ १९० | शुषिर शूकर ए . शस्त्रजीविन १४ शाखिन शातकुम्भ ८२ शान्त सारंगी-सारंगी ७३ शाङ्गिन् ३७ AN । शूर १५० लिन् खलिक खलित गिन षड्दशन षडक्षीण षण्मुख पाष्टिक ६ षोडन् १६७ ८१ VY ११० संयत शेम्षी शैल ४ संयमिन् शालि शासन शास्त्र शिवरिन् ४ शिखिन् १९ शिखिवाहन ३४ शिउिन शिपिविष्ट ३५ संयुग शैलधर शोणित शोणी १ १२६ शौंड शिरस १६१ शौंडीर शौरि शौर्य স্বাম श्येत श्येनी श्रव श्रवण 5७७AWAmoun शिरोघर शिरोरुह शिला शिलीमुख १० शिलीमुखासन ४. शिलोच्चम ४ शिलोद्भव ४७ संशित १८८ । संसरण १५० संसार १२० । संसति १६८ संस्कृत ७५ । संस्तुत संस्थित संहमन संहित सकल सक्त सखी सख्य १६. १८७ १२२ | श्री Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ धनञ्जय-नाममाला श्लोक पृष्ट श्लोक शब्द श्लोक २७ शब्द सगोत्र संऋन्दन संगत संग्राम संघ संघात सजाति सप्ताचिषु सप्ति सभोचित सभ्य सलिल सवयम् सवर्ण ८७ १४० १४. ११२ ११२ १३६ ६६७ सम १६९ ६ १४० १४३ समज समर समवर्तिन समवायिक संचर १४५ ४२ २१ संज्ञा १६५ १६१ सहचरी १८९ । समवेत १५:७ : समस्त १८७ १३९ ११८ ३४ सवित (२७ सवित्री सत्यसाचिन् ७० सह सहकारिन् २१ सहकृत्वन् २० सहसा सहाय सहस्रपात् सहस्राक्ष सहित साकम् सागर साधन साधीयस् १२९ १८२ ममाज समालम्भ समिति समीगर्भ १४० ० १९७ m संतत सतत सती सत्कृत सत्य सत्यकार सत्रा सदन सदवचिस सदा सदागति सदुचित सदृश सइश सहरु सदमन .ro रामीप tr समीरण समुदय ११२ v २६ समुद्र समूह १९ १३९ साघु ८७ साधुवाद १५३ साध्वी १६१ - १३५ १३६ १३२ १३६ २० ० सधर्म १६२ ० सानु सानुमत् सामज साम्प्रतम् । सारमेव मार्द्ध ४१ सम्पराय सम्पक्त सम्फली सम्भृत सम्बन्ध सरणि सरसीरुह सरस्वत् सरस्वती सरित संरूप सरोज . सची सनातन सनाभि ० तर ४६ १२५ ४२ hी १०४ ८ सन्तति साल २६१ ७२ १० HR-3 १४८ १२५ १५४ १३६ २० १२८ १२२ माहस साहाय्य REET d सर्प सर्पिष् -सन्तमस सन्तान सन्देश सन्धानीत सन्निधि सम्मति सपत्न सपदि मित १४१ राघ १८७ सिद्धान्त ५८ ११५ सिन्धु ₹४ ४४ सर्वज्ञ सर्वदा सर्वल्लभा ७७ सिन्धर १७ ३६ ! सिंह Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२३ शब्दानुक्रमणिका पृष्ट श्लोक | शब्द पृष्ट श्लोक | शब्द १०६ सौहद ९१ १९७ । स्वाहापत्ति सौहृद्य १९७ ' स्वैरिणी पृष्ठ श्लोक ३३ Our ३ है व m शब्द सीत्कृत सीमन सीमन्तिनी मीर सुकृत सुचिरंतन W १४ w १४२ १०२ १२१ स्तन स्तनधय নির २० ० १५६ हेस इंसवाह हंसी हंहो हन्तोक्ति ६४ १२७ र सुत EF EXxx., १४७ स्तब्ध १८१ ११० ६ १६७ ह्य ५२ सुधासूति सुनाशीर मुनिमौक सुन्दर सुन्दरी स्तम्बकरि स्तम्बरम स्तेन ८८ 15377378558523546328575; १७७ - स्त्री - १२२ सुपर्ण सुभद्र स्थपुट स्थविर १६ ९० सुमन ८. स्थाणु ६८ हरिण हरिणी स्थान १३३ १५० ' स्नेह ६१ सुरा सुवर्ण ७ १४९ सुष्ट १७३ स्पर्शा स्पष्ट स्फीत्कृत स्फुट हरित् हरित हरिद्राभ हरिनाहन १४९ G००० , ५७ १७३ स्मर स्मत १८२ orror १०८ १११ स्पद Y स्यन्दन १७२ । हल हलि ११९ हव्यवाह ज ६० हस्त सुहृत सूत्रामन सून सूनृत सुरि सूर्य सूर्प कारि सेना सेनानी सेनानीपिल सेन्द्र सैन्य सौदर्य सोमवंश सौदामिनी सौव ७३ २४ ६८ स्रबन्ती १२ स्रोतस्विनी स्रोतस्विनीपति १२ स्त्र ૨૪ हस्तशाग्वा हस्तिन् हाटक भ ४७ १९७ २ स्वभाव हाला १४६ स्वर ११८ १८ स्वर्ग स्वर्ण सौम्य सौरभ स्वान्त हिमवस्सुता ३६ हिरण्य हिरण्यकशिपुसूदन ३७ हिरण्यगर्भ ३६ हिरयपरेतस् ३३ सोरि सौहार्द स्वामिन Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धनञ्जय-नाममाला शब्द श्लोक । शब्द पृष्ठ श्लोक हृद्य श्लोक | शब्द १७८ । हेमन् हेरिक ६५ हुतादा हुताशन हूंकृत हृषीक हृषीकेश १०५ १२२ १०५ है यंगवीन अनेकार्थनाममालास्थशब्दानुक्रमणिका __ पृष्ठ श्लोक ! शब्द ___ पृष्ठ श्लोक | शब्द दाव कैवल्य कोटि क्षीर श्लोक १८ ४१ अज द्विज असन गण ५ T अद्रि धातु . धिष्ण्व अनन्त अन्त अन्तर पतंग अम्बर चर्चा अर्च अर्थ पयस् पर्जन्य पाञ्चजन्य पुद्गल जात्य अशोक जिन X NAWी पुनाग जीमूत ज्योतिष ९४ ९८ प्राय-प्रायस् बाधा । ब्रह्मवाच कदली तंत्र १०० तत्प तार भग कस्वर वाष्ठा कीनाश कीलाल केतम साक्ष्य तीर्थ भाव दन Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ट मनग्न भाष्यस्थशब्दानुक्रमणिका लोक शब्द पृष्ठ श्लोक | शब्द विनम्वत् सारंग विष सारस साल ११ वैकुण्ठ ९३ ४ . म्यामोह सुमनस् वृषाकपि राजन् राम सोम श शम्भु स्तंभ शिखरिन स्थाणु लब्धि ललाम । ९९ गुत्रि स्पन्दन स्यात वन वर्गणा ९६ १९ स्वर १४ ! ३५ | सत्त्व १०० ४२ सन्धि समय ६ सरल ९७२० सार रस्वर वर्ण याम विरोचन शब्द पृष्ट अंश अंशुमान् अंशुमाली नाममालाभाष्यस्थशब्दानामकारादिसूची पृष्ठ पंक्ति | शब्द पृष्ठ पंक्ति शब्द अचिरांशु अन्धरिपू २१ । अच्युत अन्धतमस २१ अण्डज २८ । अपथी अनिमात्र अपसर्ग अतिवेल १८ : अपांपित ६ ! अत्रिनेत्रनमूत २४ अधिष्ठान ८ अब्ज अनन्त १५ अब्द २१ अनन्ता ६ . अब्धिजा अनश्यर ७७ अभिक २४ | अनिमिष अभिल्या अनीक अभिजन ६ अनीकिनी ४४ २० । अभिनव अग २५ अफल अग्नि अयधन्वन अप्रिय अङ्गज अङ्गुर अङ्गरी अबला ३० Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ शब्द अभिमन्थ अभियाति अभिसारिका अम्बभूत् जयन अरण्यश्वा अरण्यानी अरिष्ट अभीक अभीशु अप अभ्यागम अमुक अमूर्त ८ अमृतनिर्गम २५ अमृताशन अम्बा अचिमान् अदेनि अशुभ अश्मन् अष्ठीवान् असती असम्पूर्ण पृष्ठ २३ असहन अभुत अस्रप २३ अस्वप्न ब्रति ૨૭ १८ अर्थ अर्भक अलंकार अवतमम अवदान ३४ अवयव १९ अविनश्वर '७७ अविनीता १७ अव्यय ८८ २३ इन ४५ १८ १८ ९ ७८ ६४ ६ ६२ ३४ २७ ८९ २० ६० ७२ ६६ ረ ५१ १७ ८९. २२ २३ २० २० २६ पंक्ति ३ t १७ १९ १८ 4 २ २० ४ २ १४ २३ १३ १२ १४ २३ १८ १५ २५ ४ २ ११ १२ १५. १६ ११ १७ १६ १० १ २२ ૭ ४ शब्द आ आच्छादन आत्मीय आदित्य धनञ्जय - नाममाला आधार आवर्त आप्त आप्तरूप आभील आमिष आयत आयोधन बारात् आरोह आशीत्रिप आशुग आश्रयाश आश्रुत आसन्न आसव आस्कन्दन आहार्य इथून इचिकिल इत्वरी इन्दिन्दिर इन्दु इन्द्रावरज ई ईशान २ र २८ उत्कर्ष १३ उदक २२ उपय पृष्ठ आ ३८ ५१ २१ २६ 20 ६२ ८ २१ 부동 ८७ २२ ७६ ४५ ६९ ५१ ६५ ३३ ३४ २१ 06. ६१ ४५ ४ १३ १० १७ ४२ २४ ३८ chur ३८ ३६ उ ५४ ረ ७६ पंक्ति । ܕ: १२ १० १९ १२ 6) ५ १० 인 ܐ २१ १८ १ २६ २, を ८ १६ ܩ १ १५ १ ܘ ना १० १७ २४ १५ २२ २ * Y १८ शब्द उदधि उदन्त उदन्वान् उद्धन उत्रस्य उपकण्ठ उपगत उपवृति उपमा उपलब्धि उपहूर उपाधि उरसिज उ उषर्बुध ऊर्मि ऋक्थ ऋक्षेग ऋभु ऋश्य ॠष्टि ऋष्य एकपदी एकान्त ऐरावती पृष्ठ १३ ६८ १३ ५४ ६२ ६९ ९१ २३ ६८ Few = 3 * ५५ ८४ ६८ ५. १ ३४ ऊ 15 १३ 哦 ४८ २८ ३० ६४ ४३ ६४ ए ७८८ ८४ ६४ 第 ककुद्मती ५.१ कङ्कपत्र ३९ कछ १३ कञ्चुकी ६५ कटिसूत्र ६० कटीर ५१ पंक्ति २ २० ०४ २ २४ १३ २३ १० १९ ८ 4 १८ १८ ܕܐ १८ १५ १३ 92 2 2 ७ २५ १७ २३ १२ १८ १७ ३१ १९ 2 2 -११ Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द कड कादम्ब कदर्यं कनिष्ठ कन्धरा कन्याङ्ग कपट कवन्ध कमल कमा कमिता कम्बल कर्णजन कामज कर्पट कर्बुर कर्मसाक्षी कषु कलत्र कलम्ब कलाश्रीत कलाप कहक करमष कल्य कल्याण कवि " कश्य काकोदर काञ्चीपद कान्ता कापिशायन कामध्वंसी कार्पेदिक 73 पंक्ति ५१ ८५ २१ : ५० ५२ ६८ ८ VN ८ ३८ १८ ६५ ८१ १० ५९ २९ ४७ २६ १२ ५१ ३९ ४७ ५३ ६० = ६६ ६१ ४७ ५६ ६९ ६५ ५१ १६ ६१ ३६ ८० कालसार ६४ ४५ कालिग कालिन्दीकर्षण ७० १९ २१ १२ १ १५ ११ ! ዳ १८ ८ ४ २१ १९ २१ २१ १२ १२ ረ १५ २२ ११ १८ २० १९ १४ १९ ९ j २ भाध्यस्थ शब्दानुक्रमणिका शब्द पृष्ठ पंक्ति .-. कालिन्दीसोदर ७१ काव्यपनन्दन ६५ ४ काश्यपी किण्व किम्पचान किर किरि किमि कीनाक ! कीलाल कीश कुज कुट कुण्डली कुध कुन्तल ८ ६ ६ ६ ६५ ४ ६.१ कुमुदविवल्लभ २७ कुम्भीनस ६५ कुरंग ६४ कुरंगम कुल कुल्या कुहक कुहर कूच कूट कल १० १६ १५ २ कूलप १६ कृतकर्मा कृतसुख क्रुत हस्त कृती { ૬. ८५ ૪૬ ४६ ११ २२ कृष्णसार केतु ७१ ६४ ६७ १२ ८० ८१ با ६८ १३ १२ १८ १ ५६ १६ कृत्तिवासा ३६ ४ कृपीटयोनि ३४ २ कृष्टि ५६ १७ कृष्णव ३४ १६ ६४ ११ २३ ७९ ३९ ७९ ११ १६ 3 १० १ १६ १५ J 2 २७ २८ ११ ८ १५ S ve १ ३० ي ३ ૨૩ १७ २ ११ २ २१ १० १८ १० २० २० २० १५ २ १६ The 2 ov १७ १९ शब्द कैतव कैरवविप्रिय कोल कोविद कौणप कौतिक ऋतुपुरुष क्रव्याद लीन क्षणिका क्षितिधर क्षीर श्रीद क्षुद्र क्षुल्ल क्षुल्लक क्षेत्र क्षेत्रज्ञ खभ नरु खजूर १३ क्षीरोदना ३८ गत्वदारिका गन्धर्व गन्धोत्तमा वरिष्ठ गर्भपोत गाङ्गेय पृष्ठ ६८ ३७ ४६ ५६ २९ ८० गार्द्धपक्ष गिरिक गिरिश गीर्वाण गुटिका गुरु E २९ २७ ९ ४ ८ १८२ ८५ t ረዳ ८५ १६ १९ ७९ ख २६ ३९ ४३ ग १८ २७ ६१ ६२ २० ३५ ४.७ ३९ ४:७ 4 ३० ४७ ८७ १२७ पंक्ति १८ ८ १५ २ २८ २ १८ २८ १ २० ३० २ २१ २१ १ ? १ १५ १६ २० २१ २१ १९ ६ २४ १५ १७ २ ४ १५ २१ १५ ३ १३ ११ १८ Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धनञ्जय-नाममाला शब्द पृष्ठ R पृष्ठ पंक्ति । चन्द्रहाम पंक्ति । शब्द जयात्रुक गुल्मिनी ENT. चपला ज्ञाति ज्योति गृहपात् गुहा गोकर्ण गोकुल डिम्भ - गोत्र भला चामीकर चिङ्गर चिकित्स चित्रक चित्रकाय चित्रपुङ्ख चित्रभानु .. . गोत्रभिद् २६ मोपति तटिनी तटी तडित्वान तनया नन्य सप्तकी तमाल तमस्विनी Mara.. ... गोष्ठ . चीवर गीर . गौरीपुत्र ग्रावन् पावा ग्रोवी जगच्चक्षु जगत्कर्ता जगप्राण जबन तमालपत्र तमिर तमिमा . धन v vivitie घनरस घस्र समोन तरक्ष घृणि जना निदान जन्य जम्बाल जम्बनद जयन्त जयन्ती NODur-r तरस ता " घृत घृतोद घोटक प्रोणा .." +0.06 तार . WN . 000 तारका नारकारि तारापण .. र चक जरन् जलचर जलमुच जलराशि २५ । जलशयन .. ताक्ष्य चकवाल - s arA .14 RIP IRN -.. तिग्मांशु . २६ तिमिररिपु २६ तीर तुण्ड २ । तुन्व ' सोनिधि १५ । अथीतन .. - जना जवाह चक्री चक्षुःश्रवा चञ्चरीक चञ्चला चटुला चन्द्रकी चन्द्रवसु चन्द्रसंज्ञ जालक . जालिक जिघांसु जिन . . जिष्णु New D प . ५१ ' जिह्मग जीर्ण त्रिकस्थानक त्रिदश " Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७ भाष्यस्थ शब्दानुक्रमणिका दीर्घ दीर्घजङ्घ दीपृष्ठ दुर्गति धूमिका १९ / घृष्णि २ । ध्रुव ७७ न त्रिदशदीधिका ३६ त्रिदिव विपथा ७८ त्रिपुरान्तक ३६ त्रिप्रवरा त्रियामा त्रिका २७ विविष्टपसद् ३० त्रिसंचरा त्रिसरणि विनीता दुर्वर्ण २५ - ૨૮ ७८ १४ दुश्च्यवन दुकश्रुति देवता दैवत दोषग्राही दोषज्ञ नक्तमुना नखरायुध नलिनी नाक नागान्तका नालीक नासिका निःशलाक निकाय नि करम्ब निखिल ८० ५१ त्र्यध्वा ८४ PK ८८ निगम दुणा दक दक्ष दक्षाध्वरध्वंसक ३६ दक्षिणापति ७१ दण्उधर दण्डाहत दध्युद दन्तावल दन्दशूक दमुना दमूना दयिता दीकर Nm१० द्वादशात्मा द्विजराज द्विजिह्व द्विरसन द्वीपवती द्वीपी द्वेषण नितराम् निरय निर्जर निर्झरिणी नियंथन निवह निशीयिनी २५ নিগ্নীঘিৰীনাথ ২৪ निषट्टर नूल नुपलक्ष्म दशमीस्थ नेम दस्यु धनञ्जय धरणिधर धर्मराज धर्षणी ७१ दाक्षायणीरमण २५ दाण्डाजिनका ८० नेस्ना नकर्षय नकसेय नंत धव २३ । धाम धाराधर ३८ न्य ४६ धीर दाशाह दासेरक दिगम्बर दिनकर दिनमणि दिवस्पति धूपक धुमध्वज चूमयोनि २६ पर पङ्कज पञ्चशास्त्र पन्चानन Prem धूमल Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० पत्रेषु पट पटी पट्टसूत्र पताकिनी पति पदय पदवी गदाङ्गद पदिक पद्ग पद्धति पन्नगाशन पद्मवासा पद्मर पदूमी पद्या पय シ एजंन्व पर्यवस्थात पलाशी पल्ल पत्तनाशन पशु पशुपनि पांशुला पक ३९ ५९ पाकशासन पानीय पार्वतीनन्दन पिचण्ड 200 200 ६१ ४४ १८ १४ ७८ ५.३ ૪ १४ ७८८ ६५ पयोधर पर २३ परमेश्वर ३६ परमेष्टी ३७ परास्वन्दी ८२ परिपन्थी २३ परिप्लुता ६१ परिषज्ज १० परिष्कार ६० ३१ २३ ६ ३८ ३८ ४५ ७८ ६२ ९ 6.6: ६५ ८० ३६ १७ २० ३१ ८ ३५ ५१ १२ १६ २१ १२ १३ १३ १ २० १९ ३० १२ पुञ्ज १४ पुटकिनी ३० पुण्डरीक ३० पुत्री पुद्गल २१ १६ ૧૨ १३ १२ २ ३ १० ४ २ १५ १२ ११ २६ 1 २ ५ १४ ३ १५ ३ १७ २ २७ ४ ४ १० पिण्ड धनञ्जय नाममाला पितृपति गीतकारा पीति पीयूष पीलु रुचि पुर पुरन्ध्री गुरुज पुलक पुरुष पुड़क पुष्करः पुष्ट पुण्पलिट् पुग पूर्वज पूर्वदिम्पति पृथुक पदाकु पुटिन पृषदस्व पृषत्क पोत प्रकट प्रकार प्रकाश प्रकोष्ट प्रख्य प्रग्रह प्रचलाकी ays www १९ ७१ २७ ६२ २५ ४५ ६३ ११ ४६ २० १९ १९ ૬૭ १५ ९० ८२ * ૪ ९० ८ २८ ९० ४२ ६३ २१ ३१ २० ६५ २३ ३३ ३९ ५९ ८४ ६८ ६८ ૮૪ ५० ६८ २३ ६४ १६ ११ । प्रतन १३ १५ १३ १ १६ * २२ ७ १४ ૬ १६ २ २८ ف ९ ७ ३ १४ ७ ९ १२ १८ २६ २ १ १९ ८ २१ १३ ८ ५ १६ ८ १९ प्रच्छन्न ३ प्रतानिनी प्रतिकिट्ट प्रतिज्ञात प्रतिपक्ष प्रतिभय प्रतिभा प्रतिम प्रतिमोषक प्रतीक प्रतीपदशिनी प्रत्न प्रत्यनीक प्रदह प्रद्युम्न प्रयोत प्रद्योतन प्रधन प्रपति प्रबुद्ध प्रभाकर प्रमदा प्रसस्त्रघ्न प्रवयाः प्रविदारण प्रवृत्ति प्रवेणी प्रांशु प्रेतपति प्लवङ्गम ८४ ७६ ११ ६६ फल फल क ९१ २३ ८७ ५५ ६८ ८२ १९ १६ aut w m ६८ ९१ ७६ प्राणविनाथ १८ प्रादेयांशु २५ प्रावर ५९ प्रावार ५१ प्रीति ५४ ८ प्रेक्षा ७६ २३ ३९ ३९ २३ २६ ४५ १३ ५६ २६ १५ ७० ६३ ४५ ५५ फ ६ ६ ५१ १८ ४ २७ १० १० २ २२ ૭ ८ ५ १ r २ ११ ११ १९ १९ १ १० ܀ २ २१ ११ ४ १ २० ७ १८ २० १ १३ १३ २३ 19 ११ १५ २३ १९ Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यस्थशब्दानुक्रमणिका भुवन भूचढ़ाय ३६ mr भूतधात्री भूतेश भैरष भोक्ता ३८ माघव माधवक माध्वीक मानसौकम माया मायावी मायी मितम्पच वद्धभ मिक बद्धर वच बल बल सूदन बहिज्योति बहुल बाद्धिश जाणासन N भोगी ३४ भ्रूण 4 मिष मिहिका 17 २ माल मजुकेश मण्डन मण्डल मति मतिमान मिहिर १ बालिश याहुलेय बुक्कण मत्स्य मधु बृहत् बद्भानु ब्रह्मचारी मुकुन्द मुदिर सूर्तिज मूर्घज भगदंश मृगरिपु मुगाङ्क मृगारि मृणालिनी मृदुल मधुकर मधुसन मनसिज मनीसी मन्त्रज्ञ मन्या मयूख मरालवाह बागी भग भग मुद्रीक मेघपुष्प भयानक भग মলা भर्भरी मेधा १८ १९ . मसतर्मन् मोषक r ९ यथार्थवर्ण 3vrror Mr. Our XxIxur ययु भल्लि भषण भसल भानुमान भास्कर भास्वान् ४२ मलिम्लच मस्तक | महातेजस् महाबल महाविल महारजत महासेन महिला महीरुह महेला याज्य यातयाम या मिनी यूय भीम भीषण भीष्म मा भीष्मसू रजनीकर रत्नगर्भा रत्नवनी भुजङ्क भुक् ६५ माणवक 6 Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ धनञ्जय-नाममाला रथाङ्गपाणि ३८ रमणी वरयिता वरला पराक वरिष्ठ वणिनी P रमा रवण रश्मि रसा राक्षस रागसून राजसर्प वर्तनी अर्षीयान वर्म वहण বা वसति जिल विदाय विवसन विवस्वान बिबिक्त विशारद विशिस्त्र ਵਿਸ २८ विश्वकप विश्वास विष्टर १९ . विष्टरश्रवाः ३८ विष्णुपद विष्णुपदी बिष्ण रथ विष्वक्सेन विसर विसार राजा रात्रि राशि रिश्य KVSK वसु वस्त्र ४७ वस्न रुम्म समि हस्य वह्निरेता वातप्रमी वामदेव वामनेत्रा वारिद रोक विस्तीर्ण रोचि रोधोबका Wwr वार्ता रोप वीणा वीतहोत नीति रोहिणीवल्लभ २४ वीरुत्र वासयी वासिता वास्तोष्पति त्रिकर विकिर विकर्तन विक्रान्त वृजिन वृत्तान लक्ष्य लव वर्ण लक्षणोद सहरी 05 Om वारि विग्रह (५६ लेख ३० ३१ लेड् वह वृद्ध वृद्धधवाः वृन्दारक वृषाकपि वृषात म वक्षोह वजधर देणी विजन विधा विधेय विपटिचत् विपुला विबुध विभव विभा विभावरी १६ । विरोक बटु - वनमाली यनौत्रस् वैकुण्ठ वैजयन्त वैवस्वत व्यक्त - ___ २५ २५ वपा बयसी -- २० व्यञ्जक Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याल ब्यू ह व्योमकोश व्रज भ्रात शकली शक्तिपाणि शतपुलि शतह्रदा शतानन्द शबल शम शमन दाम्बर शम्भु शय हारी शल्की शशध्वज शश शशिशेखर शाखामृग शातकुम्भ शाश्रव शाद शाल शालाक शाव शाश्वत शाश्वतिक शिक्षित शिखावल शिखिनी शिरसिज श शीर्ष ६५ ६३ ३६ श ६२ ma ११ ८ ३५ ३७ ९ وات ६४ ५० ७१ ६४ ५० २५ ८ १३ २५ ३६ ६ ४:५ २३ १० ११ ६ ४७ २० ३६ ३ ३८ १५ ७७ ७१ ७९ ૬૪ (५३ ( ६० ९० १ १३ ३ ११ २७ २० ५२ २८ १० २० १० १७ १९ ११ १७ २५ २९ २ १ १५ १५ २ १० २७ ५ २ ११ ११ २० ३ १३ १९ २१ भाष्यस्य शब्दानुक्रमणिका शुक्लापाङ्ग शुचि शुण्डा शुपि शूर शेक शेवलिनी शैल श्याम कण्ठ श्राद्धदेव श्रीकष्ट श्रीनन्दन श्रीपति श्रीवत्साङ्क श्लोक श्वभ्र दवेत तच्छद श्वेतरोचि पटूचरण पडड्रिल संख्य संख्या संख्यावान् संगर संवित्ति संवेग संव्यान संस्त्याय संस्फोट सखा सगर्भ ६४ ३४ ६१ ८९ २६ सञ्चय २ सत्र १. सदातन २३ १२ ४ प ६४ ७१ ३६ ३९ ३८ ३८ ૩૪ स ८९. ૪૭ ६३ २५ ४२ ४२ ४५ ५५ ५६ ४५ ५५ ८३ ४५ २१ २१ सङ्कल्पजन्मा ३९ ५९ ६७ E ६ .७७ ३ १५ १५ २२ २० २० ११ ३० 급 ११ ३ i ११ : १३ १३ १३ २२ १९ १३ १ ६ ९ १ ८ ३ इ ८ ܕ १३ १३ २ २ २ ११ ११ २३ ११ स देश सन् सनातन रानाभेय सनी सनिकट सन्निभ सपिण्ड सप्ताश्व सभासद सभास्तार समय समर्याद | समवाय समाध्या समानोदर समानोदर्य । समिति समीक समीर समदय समुद्राय समुद्रकान्ता समुद्भनवनीत समूह सम्म सम्मित् सरस्वती सरिद्वरा समृ सर्पशन सर्व सहा सर्वज सर्वतोमुख सलि सविता ६९. ४६ ( ३८ ७.७ २१ ६९ ७० ६८ २१ २६ ५६ ५६ ३ ६९. ६३ ७४ २१ ܐ ܕ ४५ ४५ ३३ ६३ ४५ ६३ y my my १२ اب ६३ ४५ ४५ १२ ३६ 2 ६५ ६४ ४ ३६ ८ ८० २६ सहचरा १६ १६ सहचरी सहधर्मचारिणी १६ १३३ २३ २ १५ १० १० २३ १ ८ १० २१ ७ 6. ૬૪ २३ १२ १३ १० ? २ १ ८ १२ २ १२ १२ २ ११ ३ २ ११ ११ १ ३ ६. ३ ४ १४ १९ १५ १५ १५ Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ सहन्न किरण सहाय १४ सागराम्बरा ४ सामाजिक ५६ सामि सायक सार सारन सारसन सार्थ सिंह सिवनी सिचय सित सितान सितेतरगति सीता सुकुमार सुचरिता सुधामूर्ति २६ सुधी सुपर्ण केतु सुग ८९ ३९ ४८ ६४ ६० ६२ ४६ ५१ ५९ ४७ ६० ३४ ३८ ७५ १७ २५ ५६ ३८ ३० सुमनस् ३० सुरज्येष्ठ ३७ सुरनिम्नगा ३६ १९ ३० ६ ७ ४ २१ ६ १७ १९ १२ ४ २ १२ १९ ५ १५ २२ १४ धनञ्जयन्नाममासा सुरव २८ सुरसरित् ३६ सुरोद सूर सेक्ता सेवक सोदर स्क्रन्म स्तनयित्नु स्लन्य स्तोम स्थविर स्थानीय स्थिरा स्निग्ध स्पर्शन स्पश ९ स्पुख २ । स्रष्टा २ १४ १४ १२ १० ११ स्रोतस् स्वजन स्वयम्भू स्वराट् स्त्र कस् umut १३ २६ १४ २१ ५० ९ ६२ ६३ ३७ ४९ ४ २१ ३३ ८७ ६२ ३६ १२ २१ ३७ ३१ ३० स्वादुरसा ६१ १५ | स्वाद १३ १० स्वापतेय ४८ ३ स्वैरिणी *Z ܘܐ २० ३० १८ १० २१ १२ १३ १३ १० ८ 13 २ ८ १ ७ ४ ११ १० १० २६ १२ १५ 1 हंस हंसक हरि हरिण हरिदश्व हरिप्रिया हरिमान् हरिय हर्यक्ष हविः हव्य हारहुर हिमवालुक हिरण्य हृच्छय हेषण हैंषा हादिनी ह् wyw २६ ७३ २६ ३३ a ७१ ७२ २६ ३८ ३१ ३१ ४६ ६२ ६ ६१ ६० ४८ ३९ ५२ ५२ ( ९ १२ ५२ 13 ६ १७ २१ १४ २० ८ ११ ९ २१ २१ २७ २६ ४ ७ २३ १६ १२ २६ २६ २० ११ २६ Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यौगिकशब्दानुक्रमणिका अग्निपर्यायसूनः सेनानी ६६ 'जित्यापर्यायकरः बलः १४२ मनुष्यपयोगपतिः नृपः १४ पघपर्यायजयी जिनः १३१ झषाद्या दिः ध्वजायन्तस्मरः ८४ । मयूरपीयपतिः गुहः १२६ अदितिशब्दातरं सतपर्याव- तामरसपर्यायवती विसिनी २३ मेषपयायपथः आकाशः ५३ प्रयोगे देवनामानि ५६ | दिनपर्यायवारः सूर्यः ५० । राषिपर्यायच रः राक्षसः ५५ आकाशपर्यामगः खगः ५४ | देवपर्यायपति इन्द्रः ५७ ।। | लक्ष्मीपर्यायपतिः हरिः ७६ आकाशपर्यायचरः लेबरः ५४ । देहावभवः मतः ३९ वायुपर्यायपयः आकाशः ५३ उडपर्यायपति: चन्द्र: ४८ युपर्यायधुनी गंगा ७१ . वायर्यायचर: मस्स्यः कालादिनामतः परं पालप्रयोग धनपर्यायदा वक; कुबेरः ९६ वापं यायनिः अम्बधिः १६ जप्रयोगे अम्बरप्रयोगे च धीनामयजितः मूर्खः १६६ । वार्ययोद्भवं पयम् १६ दिग्पाल नामानि ६१ नागपययिारिः मगेन्द्रः ९० वित्तपर्यायपनिः कुबेर १६ कावपर्यायरहितः मन्मथः ७ निशापायकरः चन्द्रः ४८ विधिपर्यायपुरः नारदः ५३ काम कपर्यायकोटि: अटनी ७९ पम्नगपर्यायरी गरुडः विपिनपर्यायवरः वनेचरः । किरणयाचिभ्यः पूर्व शीतशब्द- परिषत्पर्यायज कमलम् २० विष्ट पपर्यायपतिः त्रिनः ११३ प्रयोगे चन्द्रनामानि, यथा- पवनपर्यायान: भीमः ६६ शम्पापर्यायपतिः अम्बुदः १९ ___ शीतकिरणः ४६ पवनपर्यायपुत्रः हनुमान् ६३. शलभम्यादिधरः हरिः ७६ किरणशब्देभ्यः पूर्वम् उष्णशब्द- पवनवाचिसखा अग्निः ६४ रोनानीपर्यायपिता डरः ६८ प्रयोगे सूर्यनामानि , यथापुष्पपर्यायशरः स्मरः ८० ' स्रोतस्विनीपर्यायपतिः__उष्णकिरणः ४६ पुष्पपर्यायास्त्रः स्मरः ८० अब्धिः कृष्णपर्यायपुत्रः मन्मथः ७७ प्रस्थपर्यायवान् गिरिः स्वर्गपर्यायपतिः इन्द्रः ५७ गानदीवरः सिन्धुः ७१ ।। भूमिपर्यायधरः शल: स्वगंपर्यायवःस: त्रिदशः ५७ चित्तपर्यायहारि मनोहरम् १०८ | भूमिपर्यायपतिः नृपः ७ ' स्वातपर्यायोद्भवः मा र २१ जालपर्यायप्रियः राक्षसः ५५ । भमिप यापरहः वृक्षः ७ हिमपर्याचकरः चन्द्रः १७९ ur Fr - - - - - Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकार्थनिघण्टुगतशब्दानामकरादिसूची m इडा ० कि १०४ १०४ ७६,७७ १०५ केसरिन् १०४ कोकिला १०४ कोटरस्थ कोमल १०२ कौशिक १०२ १०५ শাহি १०४ कव्य उक्षन् उदक्या उदार उष्णीष उत्रा १०५ १०४. WWWS क्षत्ता ८८ क्षय १०७ : सर १०२ ऋ स अदिति अध्यात्म अध्यूढा अनन्त अनिमिष अपाचीन अब्द अमृत अम्बर अम्बरीष ऋत १०४ १०३ १०२ १०२ औषण गो गोलक १३३ क ग्रावाण अर्क (१०२ क कूप कवन्ध कम्बु अलात अयदात १०४ १०२ घनाघन अश्वारे कर At AWK असित घस १०४ १०२ २३ असुर १०३ चटक १०४ आ कर्षक ४८ | कल बलभ कलुष कानीन किलास कीटक १०४ १०४ १०८ चम ४८ ९८ । १०४ १०४ १०४ १०४ १०४ आकृत आबाद आगोप आडम्बर आत्मज आदित्य आधि आयतन आर्य कीनाश १०२ कीलाल १०२ जीमूत ज्योति कुण्ड १३३ ७८ कुण्डाशी १०५ १०४ १११ कूल १०४ कृतघ्न कुष्ण आलान आहत १०४ १०४ १०२ १०२ तपस _२२ । तमोनु द १६ | सायं केतु Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकार्थनित्रानुशदानुक्रमणिका १.४ १०५ १०४ १०४ १२ भाव १०० १०२ १२ १ ' भार्या १२ भाव १ भाकर भुवन १९ भूस्थिव १३५ तुल्य तृणी जा तोदन तोयद त्रियामा विशङ्क १०२ १०५ १०४ १०३ १०४ १०२ १०५ १०९ १०४ ६८ १०४ ८४ ८४ | पण्ड पतजा ५१ पदकृत् पद्म पय परचित परमेष्ठी परिचर्य पर्जन्य पलाश ७०-७१ । पवन पानीय पाप पाञ्चजन्य पिशङ्ग ११० पिशित पुण्यश्लोक पुलिन १०३ १०३ १०४ १०४ १०४ दक्ष दक्षिण दविष्ठ दान दान्त दी दुश्चर्मन् दोला द्विज १०४ १०४ १०४ १०२ १०४ मण्डूक १०४ ८९ मनकाशिनी १०५ १३९ मधु १०३ ६३. ६४ मन्धिन मन्द १०५ १२१,१२३ मन्दिर १०४ । मयूख मलिालुच १०३ मस्कार १०४ महेष्वास १०५ ११८ माया १०५ १२४ ३ १०४ १०४ मष्ट १०२ घनञ्जय গালা मेचक मिलष्ट पुष्प ९ । पुस्त्व ६५ पृष्ठोही पौलस्त्म प्रजापति १०४ ८३,१०६ १०४ विाय १०३ प्रधान १०५ P०.०० ALANK यम युद्धशौण्ड १०५ यूथा यूथपयूथए १०५ १०३ रहस् १०४ १०३ निकष जस नल्न प्रपा नाग प्रभाकर नापित प्रासाद नास्तिक १०५ १३२ प्लव १०४ नितम्ब निरुपद्रका १०५ फेनवाहिनी १२८ निरुपस्करा १०५ १२७ निविड १०४ बभ्रु नुसिंह १०५ १२० : बीभत्स न्यग्रोध परिमण्डला १०५ १४३ ७२ रत रदन १०४ ८९ १०४ रम्मा राजन राजीवलोचन १०५ राजीवलोचना १०५ १४२ । सम ११४ १४३ भगवन् पण १०४ ८२ । भामिनी १०५ Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३ रावण रोहिणेय लक्ष्म लक्ष्मण ललना ललाम ललिता लवली लाय ण्य लुलाम लेखा वश्र्वक्त्र वन्ध्या दरवर्णिनी वराह् वरूथ वर्षाभू बलाहक वल्लरी बग़ा १०५ १४.१ १०२ ३१ वसु वाजी वाम वालेय अ १०३ ६९.७० १०३ ६९ १०५ १३७ १०४ ८१ १०५ १३९ १०४ ८१ १०४ १०१ १०४ १०६ १०३ ६१ व ૪ ८२ १०७ १३८ ३३, ३४ ४७ ८९ ५७ ११३ १०७ १८ ७३ १०४. १०५ १०२ १०३ ૦૪ १०३ १०४ १०४ ( १०२ | १०३ १०४ १०३ १०३ वासर १०३ विद्वान् १०३ बिपी १०४ विपिन १०६ . ७९ ३९ ५० ४१ ६२ ११३ १५२ धनञ्जय नाममाला विभावसु विम्बष्ठी विरोचन विलास विशाल विष वृकोदर वृजिन वृष धूपा १०५ १०४ १०२ १०२ हत् १०४ वैकर्तन १०५ व्यक्तित्रादिन् १०५ व्यञ्जन १०४ व्याधि १०४ शङ्क शकटी ( १०२ १०३ १०५ १०६ १०४ १०४ १३२ शम्भु शरारू शरीरज शरी शत्र शिखरिन् शिखिन् शिव शिवा शिलीमुख शीत शुक्रा शुचिकृत् ሪ ४१ १३७ te श १०२ १४ १०५ ૪૫ १०२ १३ १०५ १०२ १०३ १०२ १०३ १०२ १०२ १०४ १०३ १०६ १०४ १०३ 20983 s ९० २४ ११६ १०९ ३० ३१ १०७ ११५ १२० ११२ १०२ १३१ ३५ ४२ २३ ५१ ५ • शक शेमुषी शेष शैलूष षड्वदे सवर सत्र सत्वर सदन सम सप्तप सप्ताश्च समाधि सम्राद सान्द्र सारंग रास सित समाधिस्थ १०५ १०४ सुमना स्थविष्ठ स्यन्दन स्वर् २० १० ६० १५३ ८१ हिल ५९ ह्रस्व ૪ १०४ १०२ १०४ प १०५ स १०२ हंस हरि हिमाराति १०४ १०४ १०२ १०२ १०३ १०३ १०२ १०३ १०४ १०४ १०२ १०३ ह्र १०२ १०२ १०५ १४८ १०५ १२४ १२५ १०९ ४२ ७३ 13 १०४ १०२ १०४ ९६ ९३ ३२ १०४ १०० १३३ २७, २८ १०३ ८३ २६ २७ १७ ६६ ६१३ ९९ २१ ૪ m ८० . १०८ ११० Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उधृतवाक्यानामकारादिसूची अङ्घनाच्च तदेषगां५७ | णमो अरहताणं १ | भर्ता रांगर एव मृत्यु बसनि १५ अतिप्रलापभावेन ६१ | तत्तु हयगायीनं यद् ६१ मान्यत्वादाप्तविद्यानां अनशनावमौदर्यवृत्ति- २ | तत्संदेहे गने ताभ्यां ५८ मदन्ति मिधीभवन्ति असूययागग्य निशाम्य या ३३ | दुज्नण सुहिनउ होउ यः पापपाशनाशाय २ आत्मनि मोशे ज्ञाने ५२,५८ दुर्जनानां विनोदाय य उत्पन्न : पुनाति वंशं १९ आपो नारा इति प्रोक्ताः ३७ । दियोस्नि पुराण यत्सतिम हितं न वर्ण सहित ५९ आयुः पीयूषकुण्डैः स्मृत्ति- ६२ | न कुं पृथिवीं पिपति रेषणात् क्लेशराशीनाम् । आहुनेत्रोत्थमनः सुत- २४ ! नक्षत्रमृक्ष में तारा २५ लक्ष्मीकौस्तुभपारिजातकसुरा६१ उड्डीय वान्छितं यान्ति १४ नक्षवे याक्षिमध्येच वरं क्षिप्त: पाणिः २२ एको रथो गजबको ४५ नभन्तु नभसा सार्थ बांगमो गदेन्द्रादी ऐश्वर्यस्य समग्रस्य नवमे प्राणसन्देहो वार्ज वाजस्तु पक्षेऽपि २७ कपिर्व राहः श्रेष्ठश्च नासाकण्ठमुरस्ताल बाहो मुग्यं धनो बाहो २७ काश्यमित्युच्यते तेजः ५७ । निषद्वरस्तु जाम्बाल वृषाकपिर्वासदेदे ३४ वियती पञ्चसहस्त्री ९६ , निषादर्षभगान्धार श्यामा रात्रिस्तु विद श्यामा २५ कुमारकाले आमलकी- ५५ । पञ्चमै दह्यते गात्रम् षड्ज मयूरा नवते ५३ कोकिलानां स्वरो रूपं ५५ । पञ्चाचाररतो नित्यं | सत्यं दूरे विहरति सम १४ क्वचित्तवृत्तिःक्वचिदप्र यत्तिः ६. पनं शकटगम्यं सन्धिर्योनी सुरङ्गाया ९६ गिरिकन्दरदुर्गेषु ३२ पतत्रिपत्रिपतग सर्षपस्य प्रयत्नेन गोसवे सुरभि हन्यात् ५६ पत्यारित्रगुणैः सर्वः स व्याख्याति न शास्त्रम् ३ गौः स्वर्गः सप्रकृष्टात्मा ५८ पुण्डरीक सिताम्बुजम् १० स्वरथे नरे सुखासीने पुष्पसाधारण काले स्थान भूत्यं भवेद् चतुःषष्टिकलाभिज्ञा प्रथमे जायते चिन्ता हावो मुविकार: स्यात् १७ • चत्वारः पुरुवंशजा प्रशस्या न नमस्थापि जातमात्रोऽअ भगवान् ३१ / प्रायश्चित्तविनययावृत्त्य २ | हिरण्यगर्भमभवत् भाष्यगता ग्रन्था ग्रन्थकाराश्च अकलङ्क: द्विसन्धानकाव्यम् ३३ १ । विद्यानन्दी अनेकार्थध्वनिमजरी द्विसन्धानभाष्यम् ६१ १० । शब्दभेदः नाममाला ७२ २० । शाश्वतः पद्मनन्दिशास्त्रम् श्रीभोजः अमरकोषः पुज्यपादः समन्तभद्र : १ १ बृहत्प्रतिक्रमण भाष्यम् ५८ १५ मूक्तिमुक्तावली २२ १८ अमरसिंहः भरतनाटकम् ५३ २२ सोमनीतिः १८१९,२४.२७ २४ अमरसिंहनाममाला २९ ६ महापुराणम् ५८ ३.९ अमरसिंहभाष्यम् १९ १२ । यशःकीर्ति २२ १५ । हलायुषभाष्यम्आशाधरमहाभिषेक: ६२ १ १४ २१ । हैमः कल्याणकीतिः १ २ । २५ । हमनाममाला क्षीरस्वामी १५ । हैमी ९६१७, २९,२७ डाल्लणिका २९ ६ । यशस्तिलकचम्पूकाव्यम् ९८ ८ । हेमीनाममाला ३४ १२ गौगौ: कामदुधा भारतम् ५३ १० महापुराणम १५७ २२,२३ २६ हलायुधः इन्द्रनन्दिनी तिशास्त्रम् ५५ २३ यशस्तिलकम्, ९४१० Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सङ्केतविवरण अ० वि० अभिधानचिन्तामणि | का• सु० कातन्त्रसूत्र यशलि. आ. क. यशस्तिलक अनेका० सं० अनेकार्थसङ्ग्रह क्षी० भा० क्षीरस्वाभिभाष्य आश्वास कल्प अम० को अमरकोश क्षी० स्वा० क्षीरस्वामी वि. को का० विश्वलोधनकोश अम० को भी भा० अमर- / जन समु० जनपदसमुद्देश कान्तवर्ग कोश क्षीरस्वामी भाष्य | जं. सू० जनेन्द्रसूत्र / वि. लो० विश्वलोचन कोश अमर अमरकोश ता सूतत्त्वार्थसूत्र | श च शब्दार्णवचन्द्रिका अ० सं० अनेकाधसंग्रह नीतिसा. नीतिसार उ० सू उणादि सूत्र / नी वा समु० सू० नीति वाक्या.| श० च 0 म शब्दार्गवचन्द्रिका कल्प० को० कल्पद्रुकोश यामृत समुद्देश सूक्ति मान पर निनादिनिका ! कारिका शाकटायन कारिका का० स० कातन्त्र उणादि पा० उ. पाणिनि उणादि / शा. सू० शाकटापन मूत्र का रू. उ. वातन्त्र रूपमाला पान गणसू० पाणिनि गणसूत्र / सर० क * सरस्वतीकण्ठाभरण उत्तरार्ध पात० भाष्य पातजलमहाभाष्य | सार समा० सू० सारस्वत का० रू० पू० कातन्त्र रूपमाला पा.सू. पाणिनिसूत्र पूर्वार्ध समास मूत्र मो० उ० भोजउपादि का रू० पू० सू० कातन्त्ररूप- | मे० को वा०व० मेदिनीकोश / 20 च• हेमचन्द्र माला पूर्विसूत्र | बान्तवर्ग . हे० श० हेमशन्दान शासन शुद्धिपत्रम् पृष्ठ प० अशुद्धयः शुद्धयः ' पृष्ठ प० / अशुद्धयः शुद्धयः 7 14 सरं शरं | 65 9 विषाशयः विषक्षयः 53 2 स्तमितं स्तनितं | 69 2 निकुरो निकरी 54 21 मुक्तोषा- मुत्तोषा- '71 21 श्वेतो श्येतो