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________________ नाममाला उसीके कारण यह बन्धनबद्ध होकर भी विद्वभोग्य अवश्य बनी रही। संस्कृत को लोकभाषा का पब या सबकी बोली होने का सौभाग्य नहीं मिल सका । इस भाषा सम्बन्धो धर्माधर्म बिचार ने संस्कृत के कोशागार को भी सीमित कर दिया। भाषा के एकाधिकारियों ने तो यहां तक कह डाला है कि अपभ्रंश या अन्य लोकभाषा के शब्दों में वाचक शक्ति ही नहीं है। यष्टि का अपभ्रंश लट्ठी या लाठी है। ये लट्ठो या लाठी शन में पानकशक्ति स्वीकार नहीं करना चाहते। इनका कहना है कि शचफशक्ति तो 'यष्टि' शम्द में ही है । लट्ठी या लाठी शाब्द सुनकर जो श्रोता को लाठी पदार्थ का ज्ञान होता है उसकी विधि इस प्रकार है-प्रथम ही श्रोता लाठी शब्द को सुनकर संस्कृत 'यष्टि' शब्द का स्मरण करता है और फिर उस 'यष्टि' शब्द से पदार्थबोध होता है। अर्थात् ऐसे श्रोता को जिसने स्वप्न में भी 'यष्टि' शब्द नहीं सुना उसे भी लाठी शब्द से पदार्थ बोध के लिए संस्कृत 'यष्टि' शब्द का स्मरण आवश्यक है। इस भाषाधारित वर्गप्रभुत्व से संस्कृत भाषा एक विशिष्ट वर्ग को भाषा बन कर रह गई। पा० महाभाष्य के पस्पशा माह्निक में लिखा है कि--"तस्माद् ब्राह्मणेन न म्लेच्छित , नापभाषित , म्लेच्छो ह वा एष अपशब्दः ।' अर्थात् ब्राह्मण को न तो म्लेच्छ शब्दों का व्यवहार करना चाहिए और न अपभ्रंश का हो। अपशब्ब म्लेच्छ है। अपशब्द का विवरण भी वहीं यह दिया है--"यदि तावच्छब्दोपदेशः क्रियते, गौरित्येतस्मिनुपदिष्ट गम्यत एतद् गाच्यादयोऽपशब्दा इनि ।' अर्थात्-गौ शन्न है और गावी गया आदि अपशब्द हैं । यद्यपि भाषा को संस्कृत रखने के लिए व्याकरण का संस्कार आवश्यक है तभी यह एक अपने निश्चित रूप में रह सकती है. लिंग और वचन का अनुशासन भी इसीलिए आवश्यक होता है, परन्तु उसके उच्चारण में किसी जाति विशेष का या वर्ग विशेष का अधिकार मानने से उसको व्यापकता तो एक हो जाती है । नाटकों में स्त्रो, शूद्रों तथा दासों से प्राकृत भाषा का बुलवाया जाना उक्त रूढ़ि का हो साक्षी है। इतना ही नहीं, धर्मक्षेत्र में साथ शब्द अर्थात संस्कृत पाउच का उच्चारण ही पुण्य माना गया। इसका यह सहज परिणाम था कि धर्म का ठेका भी भाषा प्रभुत्व के द्वारा एक वर्ग विशेष को मिला । हुआ भी यही । धर्म का अधिकार और उससे आर्थिक सम्बन्ध एक धर्म का हो गया। इस सम्बन्ध में मौलिक क्रान्ति महाश्रमण महावीर और बुद्ध ने को । उनने भाषा के इस कल्पित बन्धन को तोड़ कर जनभाषा में धर्म का उपदेश दिया और स्त्री शूद्र तथा पामर से पामर व्यक्तियों के लिए धर्म का क्षेत्र पोला। धर्म के उच्च पब के लिए जाति का कोई बन्धन बनने स्वीकार नहीं किया। इस भाषाकान्ति से प्राकृत भाषाओं का विकास हुआ। यह नहीं है कि प्राकृत भाषाएं, व्याकरण और लिंगानुशासन से मुक्त हों। उनके अपने व्याकरण हैं, अपने नियम है, जिनके अनुसार वे पल्लवित पुष्पित और फलित होती रही है। ___ महावीर और बुद्ध के काल से लेफर ईसा को तीसरी सदी तक प्राकृत भाषाओं को गति मिलती रही। अशोक के शिलालेख प्राकृत भाषा में उपलब्ध होते है। पासनादेश प्राकृत भाषा में चलते रहे हैं। पुनः संस्कृत युग में इन भाषाओं की गति मन्द पड़ी। इस युग में जैन और बौद्ध आचार्यों ने भी ग्रन्थरचना संस्कृत में ही की । यही कारण है कि दोनों के विपुल साहित्य से संस्कृत का कोशागार भरा हुआ है। वार्शनिक क्षेत्र में उथल पुथल तो नागार्जुन दिग्नाग समन्तभद्र सिद्धसेन अफलंक आदि के ग्रन्थों से ही मनी । तात्पर्य यह कि श्रमण परम्परा ने मध्यकाल में संस्कृत भाषा के विकास में भी अपना महत्त्वपूर्ण योगवान किया ।
SR No.090291
Book TitleNammala
Original Sutra AuthorDhananjay Mahakavi
AuthorShambhunath Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1950
Total Pages150
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size4 MB
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