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प्रन्थकार इन तीन अमरकीति में प्रस्तुत ग्रस्य के रचयिता छक्कथ्मोवएस के रचयिता नहीं हो सकते क्योंकि उनका काल वि० १२४७ के आसपास है. जब कि माममाला के भाष्य (१० ६२) में आशाभर के महाभिषेक से उद्धरण दिया है। आशाधर ने अपना अनगारधर्मामृत वि० १३०० में समाप्त किया था। अतः प्रथम अमरकीति इस ग्रन्थ के रचयिता नहीं हो सकते।
इस से यह निष्कर्ष निकलता है कि प्रस्तुत ग्रन्थ के भाष्यकर्ता अमरकोति वि० १३०० अर्थात ईसवोय १२४३ तेरहवीं सदी के पहिले के विद्वान तो नहीं हैं । इन्होंने भाष्य में भोज (१श्वों सबी) इन्द्रनन्धि (१०वीं सदी) पद्मनन्धि (१२वीं सदी) सोमप्रभ (१२वो स्दी) हेमचन्द (१२-१३ई सदी) आदि के ग्रन्थों से भी नामोल्ले पूर्वक अवतरण लिए है। शेष को अमरकोति पृथक व्यक्ति सो है ही। द्वितीय अमरकीति को प्रशंसा में बिजयपुर के शिलालेख में निम्नलिहित पध मिलते हैं -
"शिष्यस्तस्य गुरोरासीदतर्गलतपोनिधिः। श्रीमानमरकीर्यो देशिकानेसरः शमी। निजपक्षपुटकबाट घटयित्वानलरोधतो हृदये।
अविचलितबोधदीपं तममरकीति' भजे तमोहरणम् ।।" अर्थात्-अमरकीति महातारको वातार सधी सारे मामले थे। इस वर्णन से ज्ञात होता है कि ये अमरकीति शास्त्रकार की अपेक्षा घोगी और तपस्वी ही विशेष रूप से ये । नाममाला भाग्य में जिस प्रकार की यशोसिसा पकती है वह एक योगी और तपस्वी में नहीं हो सकती। अतः मेरे विचार से द्वितीय अमरकीर्ति भी प्रस्तुत प्रन्थ के रचयिता नहीं है।
तृतीय अमरकीति के वर्णन में 'शास्त्रकोविद विशेषण उनके पाण्डित्य का निर्देश कर रहा है। अतः हमारे प्रकृत ग्रन्यकार दशभक्त्यादि महाशास्त्र के रचयिता वर्धमान के समकालीन, विद्यानन्द के पुत्र विशालकीति के सधर्मा अमरकीति है। ये सन् १४५० के आसपास अर्थात् पाहवीं सदी के विद्वान थे। इस समय का साधक एक प्रमाण यह भी हो सकता है कि हनने कल्याणकीति को नमस्कार किया है। कल्याणकीति का एक जिनयज्ञफलोषय अन्य मिलता है। उसकी प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि ये भट्टारक ललितफोति के शिष्य थे। कल्याणकीर्ति ने जेट सुदी ५ शक संवत् १३५० में जिनयक्षफलोदय समाप्त किया था । अर्थात् सन् १४२८ में यह अन्य समाप्त हुआ था । यदि यही कल्याणकीति अमरकीति के द्वारा स्मृत हुए है, तो मानना होगा कि अमरकीति पन्द्रहवीं सदो के विद्वान् हैं। आभार
इस ग्रन्थ के सम्पादक ५० शम्भुनाथजी त्रिपाठी व्याकरणाचार्य सासतीयं अनेक स्त्रों के गंभीर विद्वान् है । वर्षों तक उनने जैन विद्यालय इन्दौर में साहित्य और स्याकरण का अध्यापन कराया है। थे जैन परम्परा से पूरी तरह परिचित हैं। उनके जैसे अगाध ज्ञानी निरहङ्कारी और विद्याजीवी विज्ञान विरल है। उनके तलस्पर्शी गंभोर पाण्डित्य का निदर्शक यह संस्करण है। ज्ञानपीठ इस अन्य के सम्पादक के रूप में उन्हें पाकर गौरवान्वित है।
डॉ० पी० एल० बैध ने इस ग्रन्थ का प्राक्कथन लिखकर हमें उपकृत किया है। पं० हरगोबिन्दजी शास्त्री व्याकरणाचार्य ने अनेकार्थ निघण्टु का सम्पादन किया है। पं. महादेव चतुर्वेदी ने सम्पादन परिशिष्टनिर्माण और प्रूफ संशोधन में पूरा योग दिया है। पं० प्रजनन्दनजी मिश्र ध्याकरणाचार्य ने भी प्रेस कापी आदि में पूरा सहयोग दिया है। गुलाबचन्द्रजी व्याकरणाचार्य एम० ए०
१ देखो प्रशस्ति संग्रह पृ० १६ ।