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________________ प्रस्तावना (२) इसी तरह वाबिराज सरि ( सन् १०३५ ) ने पार्श्वनाथ चरित में धनजय और द्विसन्धान का निर्देश किया है अतः ये ११वीं सदी के बाद के नहीं है। (३) जाहण (१२वीं सदी) ने राजशेखर के नाम से सूक्तिमननावली में जो पा उद्धृप्त किया है, वह राजशेखर काव्यमीमांसाकार राजशेखर हैं। इनका उल्लेख सोमदेव (६० १६०) के यशस्तिलक धम्पू में पाया जाता है अतः राजशेखर का समय ई० १०वीं सबो सुनिश्चित है। राजशेखरके द्वारा प्रशंसित होने के कारण धनजय का समय १०वीं सदी के बाद का नहीं हो सकता। (४) उ•ि हीरालालजी ने षटल जागम प्रथम भाग की प्रस्तावना (9. ६२) में यह भूचित किया है कि जिनसेन के गुरु वीरसेन स्वामी ने धवला टीका (पृ० ३८७) में अनेफार्थ नाममाला फा निम्नलिखित लोक प्रमाणरूप में उपत किया है: "हेतावेवं प्रकारायः व्यवच्छेदे विपर्यये । प्रादुर्भावे सगातौ च इतिराज्दं विदुर्बुधाः ॥" यह श्लोक अनेकार्थ नाममाला का है। धवलाटीका वि० सं० ८७३ सन ८१६ में समाप्त हुई थी अतः धनञ्जय का समय ९वीं सदी के बाद नहीं हो सकता (५) धनजय ने अकलंक देव का उल्लेख 'प्रमाणमकलङ्कस्य' श्लोक में किया है । अकलंक का समय ई० ७वीं सदी निश्चित है, अतः धनञ्जय ७वीं सदी से पूर्व के नहीं हो सकते। संस्कृत साहित्य का संक्षिप्त इतिहास के लेखकद्वय ने धनञ्जय का समय ई० १२वां शतक का मध्य निर्धारित किया है। (५० १७४) उनने अपने इस मत फो पुष्टि के लिए डॉ० के० बी० पाठक महाशय का यह मत भी उद्धृत किया है कि--"धनजय ने द्विसन्धान महाकाव्य की रचना ई० ११२३ और ११४० के मध्य में की है"। पर उपरोक्त प्रमाणों के आधार से घनजय का समय ई० ८ वीं सदी का अन्त और नवीं का पूर्षि सिद्ध होता है। जल्लण को सूक्तिमुक्तावली में जो ई० १२वीं सदी को रचना है, राजशेखर के नाम से उद्धृत हिसन्धाने निपुणतां' इलोक कायमीमांसाकार राजशेखर का ही हो सकता है, न कि प्रबन्धकोश के कर्ता राजशेखर का । संस्कृत साहित्य के इतिहास के लेखकद्वय यह भ्रान्ति कर बैठे हैं, वे स्वयं जम्हण -को १२ वीं सदी का विहान लिखकर भी उसमें उद्धृत राजशेखर को १४वों सवी का जैन राजशेखर बताते हैं ! अतः धनञ्जय का समय उपक्त प्रमाणोंके आधार से ई० ८वीं का उत्तर भाग और नदी का पूर्व भाग प्रमाणित होता है। भाष्यकार अमरकीर्तिमहापण्डित अमरकोति ने नाममाला के भाष्य के अन्त में यह पुष्पिका वाक्य लिखा है :-- "इति महापण्डितश्रीमदमरकोतिना वियेन श्री ऐन्द्रवंशोत्पन्न शब्दवेधसा कृतायां धनञ्जयनाममालायां प्रथमकाण्र्ड व्याख्यातम्" इससे इतना हो ज्ञात होता है कि अभरकीति 'विद्य' उपाधि से विभूषित थे और वे सेन्द्रवंश (सेनवंशा) में उत्पन्न हुए थे। इन्होंने अपने को 'शब्दवेधा' उपाधि से अलजकृत किया है। मंगल इलोकों में पूज्यपाद अकलङ्क विधानन्दि और समन्तभद्र के साथ ही साथ एक कल्याण १. इसी के आधार से कल्पद्र कोश की प्रस्तावना ( P.xxxii ) में श्री रामावतार शर्मा ने भी भी धनन्जय का समय १२वीं सदी लिखा है।
SR No.090291
Book TitleNammala
Original Sutra AuthorDhananjay Mahakavi
AuthorShambhunath Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1950
Total Pages150
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size4 MB
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