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THE FREE INDOLOGICAL
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-The TFIC Team.
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अच्युतग्रन्थमालायाः ( ख ) विभागे चतुर्दशं प्रसूनम्
श्रीमत्सुरेश्वराचार्यवर्यविरचिता नैष्कर्म्यसिद्धिः
श्री जो० म० गोयनका-संस्कृतमहाविद्यालय-धर्मशास्त्रराजशास्त्राध्यापकेन धर्मशास्त्राचार्येण वेदान्तादिदर्शननिष्णातेन राजशास्त्रशास्त्रिणा श्री
पं. प्रेमवल्लभत्रिपाठिशास्त्रिणा नेत भाषानुवादेन समेता
अच्युतग्रन्थमाला-श्रीविश्वनाथपुस्तकालयाध्यक्षेण साहित्याचार्य
पं० श्रीश्रीकृष्णपन्तशास्त्रिणा सम्पादिता rhane 4781
Tel. Camount NAVAHUD rueLICATIONS
831. Re ", HYDE TITETTSWW. अच्युतग्रन्थमाला-कार्यालयः,
काशी।
प्रथमावृत्ति: १०००]
संवत् २००७
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प्रकाशक
श्रेष्ठिप्रवर श्रीगौरीशङ्कर गोयनका अच्युतग्रन्थमाला - कार्यालय, काशी
मुद्रक
अच्युत - मुद्रणालय, काशी
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प्राकथन
श्रीहरिः
औत्पत्तिकी शक्तिरशेषवस्तुप्रकाशने कार्यवशेन यस्याः। विज्ञायते विश्वविवर्तहेतोर्नमामि तां वाचमचिन्त्यशक्तिम् ।। यदीयसम्पर्कमवाप्य केवलं वयं कृतार्थी निरवद्यकीर्तयः ।
जगत्सु ते तारितशिष्यपङ्क्तयो जयन्ति देवेश्वरपादरेणवः ।। इस संसारमें प्राणिमात्रकी प्रवृत्तियोंका मुख्य उद्देश्य समस्त दुःखोंकी निवृत्ति और परम सुखकी प्राप्ति ही है। इसीलिए जीव सुखकी प्राप्ति और दुःखकी निवृत्ति के लिए यथाशक्ति प्रयत्न करते हैं। मनुष्य चाहता है मैं सदा सुखी रहूँ, कभी भी दुःख न पाऊँ । इसी उद्देश्यकी पूर्तिके लिए वह अथक प्रयत्न करता है । स्त्री, पुत्र, धन आदि की प्राप्तिके लिए भी प्रयत्न इसी उद्देश्यकी पूर्तिके लिए किया जाता है । मन्दबुद्धि पुरुष केवल तात्कालिक सुखकी प्राप्तिसे ही सन्तुष्ट हो जाते हैं। इसी कारण वे आपातरम्य विषयोंमें मुग्ध होकर उनकी प्राप्तिके लिए अनेक कष्ट उठाते हैं, अनेकानेक कर्म करते हैं। शुभाशुभ कर्मके अनुसार ही प्राणी ऊँच, नीच शरीरोंको ग्रहण करते रहते हैं
. नद्यां कीटा इवावर्तात् आवर्तान्तरमाशु ते।
व्रजन्तो जन्मनो जन्म लभन्ते नैव निवृतिम् ।। जैसे नदीके आवर्तमें पड़े हुए कीट विवश होकर एक आवर्तसे दूसरे आवर्तमें चले जाते हैं, कभी भी सुख नहीं पाते वैसे ही अविद्यावशवर्ती जीव एक शरीरसे दूसरे शरीरमें भ्रमण करते हुए संसारमें कभी भी सुख नहीं पाते। क्योंकि सुख-प्राप्तिकी कामनासे किये गए शुभाशुभ कर्मोंसे प्रेरित हुआ यह जीव प्रारब्धानुसार जिन जिन योनियोंको धारण करता है, उन सभी योनियोंमें प्रिय-वियोग और अप्रिय-समागमसे उत्पन्न
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त
( २ ) होनेवाले शोक और मोहकी आगमें प्राणी सदा झुलसता रहता है, सुख और शान्तिका लेश भी वहाँ उसे नहीं मिलता।
संसारमें लौकिक कारणोंमें समानता होनेपर भी कार्यमें बड़ा भेद (वैचित्र्य ) देखा जाता है। एक ही माता-पितासे उत्पन्न हुए तथा समानरूपसे पालित-पोषित बालकोंमें भिन्नता देखी जाती है। कोई बुद्धिमान्, कोई मूर्ख, कोई सुखी, कोई दुःखी, कोई धनवान्, कोई निर्धन एवं कोई स्वस्थ, कोई रोगी देखनेमें आते हैं। सूक्ष्म दृष्टिसे विचार करनेपर इस वैचित्र्यका लौकिक कारण हमें कुछ भी नहीं प्रतीत होता। इसलिए व्याकरणके महाभाष्यकार श्रीपतञ्जलिमुनिने कहा है
'समानमीहमानानामधीयानां केचिदर्थैर्युज्यन्ते , नापरे, तत्र किं कर्तुं शक्यतेऽस्माभिः।'
अर्थात् समान परिश्रमसे अध्ययन करनेवाले छात्रोंमें कोई-कोई पण्डित होते हैं, कोई-कोई नहीं होते, इसमें हम क्या करें, क्योंकि हम समान रूपसे पढ़ानेसे अधिक और क्या कर सकते हैं ? ___ इसीसे मानना पड़ता है कि इस विचित्रताका कारण कर्म है । उसीके अनुसार जीव ऊँच, नीच योनियों में प्राप्त होकर सुख, दुःख आदि विभिन्नविभिन्न भोगों का अनुभव करता है। विषयी पुरुषको संसारमें सुखके अनुभवकी बेलामें जो वस्तु सुखरूप प्रतीत होती है, सूक्ष्म विचार करनेपर वास्तवमें वह भी दुःखरूप ही है। कारण सुख-भोगके समय सुखके साधनोंमें राग और दुःखके कारणोंमें द्वेष चित्तमें वना ही रहता है। इन्द्रियोंकी विषयों में जो स्वाभाविक प्रवृत्ति होती है, इसी आसक्तिको राग कहते हैं
और अभीष्ट पदार्थमें बाधा डालनेवाले व्यक्तिके प्रति चित्तमें जो प्रतिकूल वृत्ति होती है, उसको द्वेष कहते हैं। राग-द्वेष के कारण ही सुखके अनुभवसे सुखके संस्कार और दुःखके अनुभवसे दु:खके संस्कार उत्पन्न होते रहते हैं, जिनसे कि जन्म-परम्परा बनी रहती है। क्योंकि इन राग-द्वेष
और उनके संस्कारोंसे ही प्रेरित होकर प्राणी पुण्यपापात्मक अनेकानेक प्रवृत्तियोंमें फँसकर शोक, मोह, आदिसे जन्म, जरा, मरणरूप दुःख परम्पराओंके
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गर्तमें पड़ते हैं । इसीसे विवेकी पुरुषकी दृष्टिमें सांसारिक सुख भी परिणाममें नीरस होनेके कारण दुःखरूप ही है। इसीलिए योगसूत्रमें कहा गया है'परिणामतापसंस्कारदुःखैर्गुणवृत्तिविरोधाच दुःखमेव सर्वविवेकिनः। (यो०सू०२-१५) ____ अविवेकी पुरुष अविद्यापरवश होकर दुःखके कारणभूत देहादिमें अहन्ता और ममता करता हुआ त्रिविध दुःखोंसे सन्तप्त होकर जन्म-मरणपरम्परारूप संसारमें भटकता रहता है। अतः संसार महान् दुःखरूप है।
और वास्तवमें यदि देखा जाय तो जीवको उस सच्चे सुख और सच्ची शान्तिकी ओर ले जानेमें कारण भी यह दुःख ही है । क्योंकि- इस संसार में यदि दुःख न होता और दुःखके रहनेपर भी यदि वह हेय न होता, अर्थात् यदि वह सुखके समान प्रिय होता, अथवा प्रिय न होनेपर भी यदि उसकी निवृत्ति नहीं हो सकती यानी दुःख यदि नित्य होता अथवा अनित्य होनेपर भी यदि उसकी निवृत्तिका कोई उपाय ही नहीं होता, या शास्त्रसे प्रतिपाद्य उपाय उसका निवर्तक न होता, अथवा शास्त्रप्रतिपाद्य उपायसे अन्य कोई सरल उपाय उसका निवर्तक होता, तो फिर कोई भी पुरुष सद्गुरुकी शरणमें जाकर वेदान्त वाक्योंका श्रवण ( अद्वैत ब्रह्ममें तात्पर्य-निर्णयरूप श्रवण ) नहीं करता, चित्तकी शुद्धिके लिए नित्यनैमित्तिक कर्मोंका अनुष्ठान एवं चित्तकी एकाग्रताके लिए भगवान्की उपासना भी नहीं करता । परन्तु ऐसी बात नहीं है। दुःख हैं और वे एक-दो ही नहीं, अनन्त हैं। वे सब तीन विभागोंमें विभक्त हैं—आध्यात्मिक, आधिभौतिक और आधिदैविक । आध्यात्मिक दुःख शारीरिक और मानसिक भेदसे दो प्रकारके हैं । ज्वर, शूल, शिरोवेदना आदि रोग शारीरिक दुःख और काम, क्रोध, लोभ आदि मानसिक दुःख हैं। ये सब शरीरके भीतरी निमित्तोंसे उत्पन्न होनेके कारण आध्यात्मिक कहलाते हैं। सर्प, वृश्चिक, व्याघ्र, चौर आदि प्राणियोंके द्वारा उत्पन्न होनेवाले दुःख आधिभौतिक कहलाते हैं एवं अमि, जल, विजली आदिसे जो अतिवृष्टि अनावृष्टि आदि दुःख उत्पन्न होते हैं, वे आधिदैविक कहे जाते हैं।
इन दुःखोंसे मुक्त होनेके लिए ही पुरुष वेदान्त शास्त्रका श्रवण,
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४ )
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( मनन और निदिध्यासन करता है। क्योंकि शास्त्र - प्रतिपादित उपाय से ( अर्थात् श्रवण, मनन और निदिध्यासन द्वारा होनेवाले आत्मसाक्षात्कार से) अन्य कोई भी उपाय इन दुःखोंका निवर्तक नहीं है । इसलिए प्रत्येक पुरुषको शास्त्रकी जिज्ञासा होती है । क्योंकि समस्त दुःखोंकी निवृत्ति और परमआनन्दकी प्राप्ति ही परम पुरुषार्थ है ।
यहाँ पर कुछ लोग, अर्थ और कामको ही पुरुषार्थ माननेवाले, कहते हैं कि आप्त वैद्योंसे उपदिष्ट औषधोपचार एवं सुमनोहर वनिता, गन्ध, माल्य, नृत्य, गीत आदि विषयोंके सेवनसे जब आध्यात्मिक ( शारीरिक और मानसिक) दुःखोंकी निवृत्ति हो जाती है तथा नीतिशास्त्र के ज्ञान और निर्वाध प्रदेशमें निवास करनेसे आधिभौतिक दुःखोंकी भी निवृत्ति हो सकती है एवं मणि, मन्त्र, औषधि सेवन आदि उपायोंसे आधिदैविक दुःख भी निवृत्त हो ही सकता है । इस प्रकार लौकिक सरल उपायोंसे ही जब समस्त दुःखों की निवृत्ति हो सकती है, तब फिर अनेक जन्मोंके आयास से साध्य होनेवाले शास्त्रप्रतिपादित आत्म-साक्षात्काररूप उपाय में कौन पुरुष प्रवृत्त होगा ?
इसका उत्तर यह है कि आयुर्वेदोक्त औषधोपचार आदिसे ज्वर आदि शारीरिक रोगोंकी एकदम निवृत्ति हो जांय और अवश्य निवृत्ति हो जाय यह बात नहीं है । क्योंकि वैद्यों द्वारा निर्दिष्ट औषधिका उपचार करनेपर भी वे सर्वथा नहीं निवृत्त होते, एकबार निवृत्त हो जानेपर भी पुनः उत्पन्न हो जाते हैं । इसी प्रकार मनोज्ञ वनिता आदिके सेवन से काम, आदिकी निवृत्ति नहीं होती; प्रत्युत उसकी और अधिक अभिवृद्धि होती है। इस रीति से तो शारीरिक और मानसिक दुःखोंसे छुटकारा पाना बिलकुल ही असंभव है। यही बात आधिभौतिक और आधिदैविक दुःखोंके विषय में भी समझ लेनी चाहिए । सारांश यह है कि लौकिक उपायोंसे दुःख नहीं निवृत्त हो सकते। यदि कहीं निवृत्त हो भी जाते हैं तो फिर उत्पन्न हो जाते हैं। इसलिए इन दुःखोंकी आत्यन्तिकं और ऐकान्तिक निवृत्तिके लिए अध्यात्मशास्त्रकी जिज्ञासा अवश्य करनी चाहिए |
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इसपर मीमांसक लोगों का कहना है कि – “लौकिक उपायों से दुःखोंकी आत्यन्तिक निवृत्ति भले ही न हो, परन्तु अग्निहोत्र, दर्शपौर्णमास, ज्योतिष्टोम आदि वैदिक कर्म-कलापसे स्वर्गकी प्राप्ति होनेपर अवश्य ही दुःखोंकी निवृत्ति हो सकती है । तो फिर क्यों अध्यात्मशास्त्रकी जिज्ञासा की जाय ? अर्थात् वह व्यर्थ है । क्योंकि उनके ( मीमांसकों के मत में धर्म, अर्थ और काम, ये तीन ही पुरुषार्थ हैं । इसलिए वे कहते हैं कि मोक्ष न चतुर्थ पुरुषार्थ है और न आत्मसाक्षात्कार उसका उपाय है । एवं उसका प्रतिपादन करनेवाला वेदान्त शास्त्र भी कोई स्वतन्त्र शास्त्र नहीं है किन्तु वह अर्थवाद के समान कर्मकाण्डका ही एक अङ्ग है ।"
होता ।
निवृत्ति
परन्तु विचार करने पर यह भी मत उचित नहीं प्रतीत कारण यह कोई निश्चय नहीं है कि वैदिक उपायोंसे दुःखकी हो ही जाय । संभव है कि यागमें अङ्ग-वैकल्य हो जानेसे उसका फल स्वर्ग न मिल सके और उसका फल जो स्वर्ग है, वह नित्य ही है, ऐसा भी नहीं कह सकते । क्योंकि 'तद्यथेह कर्मचितो लोकः क्षीयते एवमेवात्र पुण्यचितो लोकः क्षीयते ।' ( जैसे इस लोकमें कर्मसे जन्य कृषि आदि फल नष्ट हो जाता है, वैसे ही परलोकमें पुण्य से जन्य स्वर्गफल भी नष्ट हो जाता है | ) इत्यादि श्रुतियों और ' क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति, इत्यादि स्मृतियोंसे प्रतीत होता है कि स्वर्गादि सुख भी अनित्य एवं सातिशय ही है । इसलिए वैदिक उपायोंसे भी लौकिक उपायों ( भक्ष्य, भोज्य, पेय, औषधोपचार आदि ) के समान ही दुःखकी आत्यन्तिक निवृत्ति नहीं हो सकती है । यहाँ तक कि कर्म और उपासना द्वारा प्राप्त हुए दिव्य लोकोंमें दिव्य-सुखका उपभोग प्राप्त करके भी अद्वैत ब्रह्मरूप स्वाश्रय के साथ सायुज्यकी उत्कृष्ट इच्छा बनी ही रहती है । इससे स्पष्ट हो जाता है कि प्रकृति - प्राकृत नामरूपात्मक प्रपञ्चके अन्तर्गत चाहे जितनी भी उन्नति एवं सुख-सामग्री प्राप्त हो, परन्तु द्वैत एवं दुःखरूप होने के कारण वह सब अनन्तसुख और शान्तिके सम्पादन में नहीं समर्थ हो सकती । इसलिए सूक्ष्मतश्वके विवेचकों का कहना है कि
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दुःखोंकी आत्यन्तिक निवृत्तिरूप मोक्ष तो केवल एक वेदान्तशास्त्रके श्रवण, मनन और निदिध्यासनसे होनेवाले आत्मसाक्षात्कारसे ही होता है।
इस प्रकार त्रिविध दुःखोंसे सन्तप्त प्राणी जब लौकिक और वैदिक दोनों उपायोंसे उस परम सुख और परम विश्रान्तिको नहीं प्राप्त होता, तब लौकिक एवं वैदिक अनेक विधि साधनोंके अनुष्ठानसे खिन्न हुए उस सच्चे सुख, सच्ची शान्तिके जिज्ञासुको एकमात्र श्रुतिकी ही शरण लेनी पड़ती है । श्रुति, माता-पितासे भी कोटिगुण अधिक जीवका हित चाहनेवाली भगवती श्रुति, पुत्रवत्सला जननीके समान समस्त दुःखोंकी निवृत्ति एवं परम सुखकी प्राप्तिका जो एकमात्र उपाय बतलाती है, उसको कहते हैं-आत्मदर्शन, आत्मज्ञान अर्थात् आत्माका साक्षात्कार ।
'आत्मा वा अरे द्रष्टव्यः श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यः ।' 'तमेव विदित्वातिमृत्युमेति नाऽन्यः पन्था विद्यतेऽयनाय ।'
'तद्विज्ञानार्थ स गुरुमेवाभिगच्छेत् ।' इत्यादि, - इसी श्रुति द्वारा निर्दिष्ट अतिगहन आत्म-दर्शनका स्पष्ट रीतिसे प्रतिपादन करनेके लिए गौतम आदि तत्त्वदर्शी मुनियोंने ततत् अधिकारियोंकी रुचि और प्रवृत्ति के अनुसार न्याय, वैशेषिक आदि छ: दर्शनोंकी रचना की है। इसीलिए आत्म-दर्शनके प्रतिपादक उन वेदान्तादि दर्शनोंको भी लक्षणा द्वारा 'दर्शन' कहा जाता है। जैसे कि उपनिषद् शब्दका मुख्य अर्थ है-अध्यात्मविद्या । तत्प्रतिपादक ग्रन्थोंमें भी लक्षणावृत्तिके द्वारा उपनिषद् शब्दका प्रयोग होता है। अथवा वेदान्तादि निबन्धोंमें दर्शन शब्दका प्रयोग करणत्वेन-साधनत्वेन-किया गया गया है। इसलिए 'दृश्यते अनेन इति दर्शनम्' जिसके द्वारा आत्माका दर्शन ( साक्षास्कार ) हो, वह वेदान्त आदि निबन्ध भी दर्शन शब्दसे कहा जाता है । क्योंकि श्रुतिने आत्म-दर्शनके लिए जिन श्रवण, मनन और निदिध्यासनरूप तीन साधनोंका निर्देश किया है, उनमेंसे द्वितीय साधन तर्कात्मक मननमें अपेक्षित उपपत्तिके प्रतिपादक वेदान्तादि निवन्ध भी परम्परासे आत्म-साक्षा
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त्कार करने में साधन हैं । इसलिए वेदान्त आदि निबन्धों को भी दर्शन कहते हैं ।
दर्शन अर्थात् आस्तिक दर्शन ६ हैं । न्याय दर्शन, वैशेषिक दर्शन, सायदर्शन, योगदर्शन, मीमांसा दर्शन और वेदान्त दर्शन । इन दर्शनोंके रचयिता गौतम, कणाद, कपिल, पतञ्जलि, जैमिनि और व्यास, ये सभी महर्षि तत्वदर्शी थे । वेदके सिद्धान्तके सूक्ष्म रहस्यको ऋतम्भरा प्रज्ञाके द्वारा सब ठीक ठीक जानते थे । इसी कारण इन प्रत्येक महर्षिके परमार्थ तत्त्व जाननेमें लेशमात्र भी विप्रत्तिप्रति ( संशय ) नहीं है । किन्तु परमार्थ तत्त्वको लेकर व्यवहारकी रक्षा तथा लोकसंग्रह हो नहीं सकता है । इसलिए महर्षियोंने अधिकारियोंके भेद से भिन्न-भिन्न कक्षाओंके अनुसार भिन्न-भिन्न प्रस्थानों का ( अलग-अलग दर्शनों का ) निर्माण करके उन में परम गम्भीर आत्मतत्त्वका विवेचन करते हुए तत् तत् सिद्धान्तोंका प्रतिपादन किया है। प्रायः सभी दार्शनिकोंके मतमें मोक्ष नित्य-सुख या दुःख निवृत्ति रूप है । सांख्य, योग, वेदान्त आदि शास्त्र धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष, इन चारोंको पुरुषार्थ मानते हैं, अर्थात् इनके मत में चार पुरुषार्थ हैं। इनमें से लौकिक सुखको काम कहते हैं । वह दो प्रकारका है दिव्य ( अर्थात् स्वर्गसुख) और अदिव्य ( भूलोक सुख ), वह दोनों ही प्रकारका सुख उपेय ( साध्य ) है । अर्थ और काम उसके साधन हैं । इनमें मोक्ष ही परम पुरुषार्थ है । वही मनुष्य जीवनका मुख्य उद्देश्य है । इसीलिए योगवासिष्ठ में कहा गया है
बुद्ध्यैव पौरुषफलं पुरुषत्वमेतद् आत्मप्रयत्नपरतैव सदैव कार्या 1
नेया ततः सफलतां परमामथासौ
सच्छास्त्रसाधुजन पण्डितसेवनेन ॥ ( यो० वा०, मु० प्र० ) मोक्षकी सिद्धिके लिए धर्म भी उपादेय है । धर्म की सिद्धिके लिए अर्थ भी उपादेय है । एवं 'शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्' इस नियमके अनुसार शरीरका साधन होनेसे काम भी उपादेय ही है । जैसा कि श्रीमद्भागवतमें कहा है
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धर्मस्य ह्यापवर्ग्यस्य नार्थे ऽर्थायोपकल्पते । नार्थस्य धर्मैकान्तस्य कामो लाभाय हि स्मृतः ॥ कामस्य नेन्द्रियप्रीतिर्लाभो जीवेत यावता । जीवस्य तत्त्वजिज्ञासा नाथ यश्चेह कर्मभिः ।। ( १-२-६-१० ) (धर्म अपवर्ग — मोक्ष --- के लिए कर्तव्य है, न कि धनके लिए | धन सञ्चय धर्मके लिए कर्तव्य है, न कि विषय-सुखके लिए | विषय - सेवन जीवनके लिए ही है, इन्द्रियोंकी परितृप्तिके लिए नहीं, अर्थात् उतना ही विषय सेवन किया जाय जितनेसे अपने जीवनका निर्वाह हो जाय और जीवन भी तत्त्वकी जिज्ञासा - आत्मसाक्षात्कार - के लिए है, नश्वर सांसारिक सुखके सञ्चय के लिए नहीं अर्थात् जीवित रहनेका फल यह नहीं है कि अनेक प्रकारके कर्मों के चक्कर में पड़कर क्षणभङ्गुर सांसारिक सुखकी प्राप्तिमें ही समस्त आयु बरबाद की जाय ? क्योंकि जीवनका परम लाभ तो वास्तविक तत्वको जानना ही है ।) यही बात समस्त दर्शनों में भिन्न-भिन्न रीति से प्रतिपादित की गई है ।
सब दर्शनों में प्रधान दर्शन हैं - वेदान्त दर्शन । वही सम्यग्दर्शन, वैदिक दर्शन, आत्मदर्शन इत्यादि शब्दों से कहा गया है। इससे अन्य सभी आस्तिक दर्शनों का तात्पर्य इसीमें है अर्थात् अन्य सभी दर्शन वेदान्तद्वारा निर्दिष्ट अद्वैत तत्त्वकी प्रतिपत्ति में ही सहायक हैं । इसलिए सच्चे सुख, सच्ची शान्तिके. जिज्ञासुको उसका ठीक ठीक बोध करानेमें वेदान्तशास्त्र ही समर्थ होता है । क्योंकि वह आत्म-विषयक समस्त विप्रतिपत्तियों का निराकरण करके, जिज्ञासुके हृदयसे अज्ञानको निवृत्त करके, सत्य अपरोक्ष आत्मतत्त्व प्रकाशित कर देता है । आत्माका अपरोक्षज्ञान होनेपर ही यह जीव अनादि जन्म-मरण की परम्परारूप संसार-चक्र से मुक्त होता है ।
यद्यपि जीव नित्य है, वास्तवमें उसके जन्म-मरण नहीं होते । तथापि वह अपने कर्मों के अनुसार नवीन शरीरोंका ग्रहण और प्राचीन शरीरोंका त्याग करता रहता है । इस शरीर के ग्रहण और त्यागको ही जन्म तथा मरण
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कहते हैं । वास्तव में जीवका जन्म-मरण नहीं होता । क्योंकि वास्तवमें वह ईश्वर ही है । उपाधिके द्वारा भिन्नसा प्रतीत होता है ।
यथा ह्ययं ज्योतिरात्मा विवस्वान् अपो भिन्ना बहुधैकोऽनुगच्छन् । उपाधिना क्रियते भिन्नरूपो देवः क्षेत्रेष्वेवमजोऽयमात्मा ॥
( जैसे एक ही ज्योतिरूप सूर्य भिन्न-भिन्न जलों में प्रतिबिम्बित होकर अनेकरूप हो जाता है, वैसे ही प्रकाशस्वरूप एक ही परमात्मा अविद्या और स्थूल सूक्ष्म शरीरोंमें प्रतिविम्बित होकर अनेक ( जीव ) स्वरूप हो जाता है | )
एक एव हि भूतात्मा भूते भूते व्यवस्थितः । एकधा बहुधा चैव दृश्यते जलचंन्द्रवत् ॥
(जैसे आकाशमें एकरूप से विद्यमान चन्द्रमा जलमें (प्रतिविम्बित होकर ) अनेकरूपसे दीखता है । वैसे ही एक ही परमात्मा तत्तत् शरीरों में प्रतिविम्बित होकर अनेकरूप दीखता है | )
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इससे प्रतीत होता है कि जीव परमेश्वरका प्रतिबिम्ब है । परमेश्वर एक है । अविद्या और स्थूल सूक्ष्म शरीरोंके भेदसे उसके प्रतिबिम्ब अनेक हैं । 'मम मुखं दर्पणे दृश्यते' 'आकाशस्थः सूर्यो जले भासते' इत्यादि अनुभवसे भी प्रतीत होता है कि भेदके भासनेपर भी बिम्ब और प्रतिबिम्ब वास्तव में एक ही है । अतः ब्रह्म और जीव भी एक ही है, भेद-प्रतीति भ्रमसे होती है ।
जैसे परमार्थ ब्रह्म सत्, चित् आनन्दरूप निर्विशेष है, वैसे ही उसके साथ ऐक्य होनेसे जीव भी सत्, चित् आनन्दरूप निर्विशेष ही है । तथापि जैसे माया (विद्या) उपाधि से ब्रह्म सर्वज्ञता, अन्तर्यामिता भूतानुकम्पिता आदि कल्याण गुण - गणका भाजन होता है, वैसे ही अविद्या उपाधिके वश जीव अल्पज्ञ, दुःखित्व आदि अशुभ गुणोंसे युक्त हो जाता है
मायाबिम्बो वशीकृत्य तां स्यात्सर्वज्ञ ईश्वरः । श्रविद्यावशगस्त्वन्यः तद्वैचित्र्यादनेकधा ॥
'भोक्ता भोग्यं प्रेरितारं च मत्वा सर्वे प्रोक्तं त्रिविधं ब्रह्म एतत् ' ( श्वे० १-१२ )
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( भोक्ता - जीव, भोग्य - शब्दादि विषय और प्रेरिता - परमात्मा, ये तीनों विचार-दृष्टि से ब्रह्म ही हैं ।)
इन वचनोंके अनुसार सम्पूर्ण द्वैत जब मिथ्या ही भासता है, परमार्थमें है ही नहीं । तब जीवमें कर्तृत्व भोक्तृत्व, सुखित्व, दुःखित्व आदि भी मिथ्या ही है, अध्यस्त है, अर्थात् अज्ञानसे कल्पित है, परमार्थमें नहीं है । जीवका वास्तविक स्वरूप सर्वाधिष्ठान ब्रह्म ही है, उससे भिन्न नहीं । इस प्रकारके ब्रह्मात्मैक्य ज्ञान से अर्थात् स्वाश्रयभूत परिपूर्ण परब्रह्मके साथ जीवके अभेदज्ञानसे ही सायुज्य मुक्तिरूप कैवल्य होता है । यही जीवकी कृतकृत्यता है, यही परम पुरुषार्थंकी सिद्धि है। इस आत्मज्ञानके जानने में मनुष्यमात्र ही नहीं, किन्तु इन्द्रादि देवता भी अधिकारी हैं । इसलिए इन्द्रादि देवता लोगोंने भी आत्मतत्वकी जिज्ञासा से ब्रह्मा के पास जाकर ब्रह्मचर्यपूर्वक तत्त्वज्ञानका सम्पादन किया । अतएव परम शान्ति और विश्रान्तिके अभिलाषी पुरुषको आत्मतत्त्वके ज्ञानके लिए गुरुपरम्परासे अध्यात्मशास्त्रका ( वेदान्तशास्त्रका ) अध्ययन करना नितान्त आवश्यक है । अस्तु,
इस आत्मतत्त्वका विशद विवेचन यद्यपि समस्त वेदों, • उपनिषदों में पर्याप्त है । इस कारण [ वेदोंके अनादि होनेसे ही ] यह अद्वैतवाद यद्यपि संसार में अनादि कालसे ही विद्यमान है, तथापि युगके ह्रासके अनुसार मनुष्यकी ज्ञानशक्तिका ह्रास होता देखकर अज्ञानके वशवर्ती जीवोंके कल्याण की कामनासे द्वैपायन भगवान् वेदव्यासजीने चार अध्यायोंमें उत्तर-मीमांसा - ( ब्रह्मसूत्र अर्थात् वेदान्तदर्शन ) की रचना करके उसमें समस्त वेदोंके अतिगूढ़ रहस्य आत्मतत्व के स्वरूपका स्पष्ट निरूपण कर दिया है । तथापि कालचक्रके प्रभावसे जब इस कलिकालमें सद्धर्मका, वैदिक धर्मका, प्रचार और अनुष्ठान लुप्त-सा हो गया था और आत्मतत्त्वके स्वरूपका ज्ञान भी प्राय: कुछ इने-गिने उच्चकोटिके महापुरुषोंमें ही सीमित रह गया था; तब वैदिक धर्मके प्रभावके मन्द पड़ जानेसे जन समाज प्रायः श्रुतिसम्मत विशुद्ध अद्वैत ब्रह्मवादको भूलकर अवैदिक
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प्रान्त सम्प्रदायों द्वारा प्रचारित धर्मोको ग्रहण करने लग गया था, तब उस अज्ञानप्रधान समयमें साक्षात् परमात्माकी ज्ञानशक्तिने ही श्रीशङ्कराचार्य रूपमें प्रकट होकर देशव्यापक अज्ञानरूप अन्धकारको दूर करके भारतके एक कोनेसे दूसरे कोने तक वैदिक धर्म-कर्मका एकछत्र साम्राज्य स्थापित किया। ___ भगवान् शंकराचार्यने प्रस्थानत्रय ( उपनिषद्, ब्रह्मसूत्र एवं गीता ) पर प्रसन्न गम्भीर भाष्यकी रचना करके दृढ़तापूर्वक अवैदिक दार्शनिकोंके युक्तिजालका खण्डन करके शास्त्र तथा युक्तिके बलसे वेदानुमत, निर्विशेष अद्वैत सिद्धान्तका प्रतिपादन किया। उन्होंने प्रातिभासिक, व्यावहारिक एवं पारमार्थिक भेदसे, सत्ताभेदकी कल्पना करके समस्त दर्शनोंके सिद्धान्तोंका सामञ्जस्य करके सकलसिद्धांतोंके समन्वयका मार्ग भी खोल दिया । केवल इतना ही नहीं, अद्वैत सिद्धांतका अपरोक्षतया साक्षात्कार करके जगत्में उसके प्रचारके लिए तत्-तत् देश और कालके अनुसार . मठादिस्थापनके द्वारा जगत्में ज्ञानोपदेशका भी स्थायी प्रबन्ध किया। क्योंकि यह अद्वैतसिद्धांत ही सारे संसारके लिए परमशान्ति प्रदान करनेवाला है । अस्तु, ___ आचार्यशङ्करकी लोकोत्तर विद्वत्ता और प्रतिभापर मुग्ध होकर बड़े-बड़े विद्वान् उनके शिष्य बन गए । उनमें चार शिष्य उनके प्रधान शिष्योंमें हुए । सुरेश्वराचार्य, पद्मपादाचार्य त्रोटकाचार्य, और हस्तामलकाचार्य । __ प्रस्तुत पुस्तकके रचयिता श्रीसुरेश्वराचार्य अपने गुरुके समान ही अलौकिक पुरुष थे। इनकी रचनाओं से इनकी असाधारण विद्वत्ता तथा असामान्य प्रतिभाका पर्याप्त परिचय मिलता है । सुरेश्वराचार्यके गृहस्थाश्रमका नाम 'मण्डनमिश्र' था। मंडनमिश्र ही संन्यास ग्रहणके बाद सुरेश्वराचार्य कहलाए, इस सत्य विषयमें भ्रान्त इतिहास लिखनेवाले कुछ पाश्चात्य पण्डितों एवं उनके अनुयायी कुछ भारतीय विद्वानोंको भी 'मण्डनमिश्र भिन्न थे और सुरेश्वराचार्य भिन्न थे ऐसी प्रान्त धारणा आजकल हो गई है। वास्तवमें यह निर्मूल है। इस विषयमें हमारे माननीय, मीमांसा एवं वेदान्तशास्त्रके मार्मिक विद्वान् पंडित श्रीसुब्रह्मण्यशास्त्रीजी महोदय (प्रोफेसर . विश्वविद्यालय, काशी) ने बहुत कुछ अन्वेषण करके बहुत सामग्री प्राप्त की
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है । उसीका कुछ सारांश इसमें हम दे रहे हैं। आशा है कि इसके अवलोकनसे पाठकोंका समाधान हो जायगा। अस्तु ____ मण्डनमिश्र जगत्प्रसिद्ध मीमांसक कुमारिलभट्टके शिष्य थे तथा मीमांसा एवं कर्मकाण्डके अलौकिक पण्डित थे। गृहस्थाश्रममें उन्होंने 'विधिविवेक' आदि मीमांसाके कई ग्रन्थ लिखे । वेदान्तके विषयमें प्रसिद्ध 'ब्रह्मसिद्धि' नामक ग्रन्थ भी उन्होंने अपने पूर्वाश्रममें ही लिखा था। बादमें भगवान् शङ्कराचार्य के साथ शास्त्रार्थमें पराजित हो जानेपर, आचार्य शङ्करके सम्पर्कमें आकर उन्होंने अपने विचारोंको परिवर्तित कर दिया । उन्होंने आचार्यके विशेष सम्पर्कमें रहकर अद्वैत वेदान्तके विषयमें अलौकिक अद्भुत पाण्डित्य सम्पादन किया। वेदान्तके विषयमें उनकी ऐसी अलौकिक प्रतिभासे मुग्ध होकर आचार्यने ब्रह्मसूत्रपर अपने शारीरक भाष्यमें वृत्ति लिखने के लिए इनको ही नितान्त उपयुक्त समझकर इनसे उस कार्यके लिए कहा । परन्तु आचार्यकी शिष्यमण्डलीने इस बातका विरोध किया। क्योंकि ये गृहस्थाश्रममें एक कट्टर मीमांसक थे। उस अवस्थामें इनका आग्रह कर्मकाण्डपर बहुत ही अधिक था। इसीसे आचार्यकी शिप्यमंडलीको ऐसी शङ्का हो गई थी कि कर्मकांडके संस्कारोंकी वासनासे कहीं आचार्यके भाष्यको भी ये कर्मपरक ही न सिद्ध कर दें ? इसीकारण शिष्यमण्डलीने उक्त वातका विरोध किया । यद्यपि आचार्य उनको वैसा नहीं समझते थे, वे सुरेश्वरके आशयको भली भाँति जानते थे, तथापि शिष्योंके सन्तोषार्थ आचार्यने फिर उन्हें वेदान्तविषयपर स्वतन्त्र ग्रन्थ तथा वार्तिक लिखनेका आदेश दिया । गुरुकी आज्ञा मानकर सुरेश्वराचार्यजीने शारीरक भाष्यपर वृत्ति नहीं लिखी, किन्तु उपनिषद्भाष्यपर वार्तिक तथा यह ग्रन्थ लिखकर अद्वैत वेदान्तको पुष्ट तथा लोकप्रिय बनाया। तैत्तिरीयभाष्यवार्तिक, बृहदारण्यभाष्यवार्तिक, दक्षिणामूर्तिस्तोत्रवार्तिक, पञ्चीकरणवार्तिक, काशीमरणमोक्षविचार, नैष्कर्म्यसिद्धि प्रभृति ग्रन्थ इनकी विख्यात रचनाएँ हैं।
इन विशाल वार्तिकोंकी रचनाके अनन्तर उन्होंने प्रस्तुत ग्रन्थ 'नैष्कर्म्यसिद्धि' को लिखकर इसको आचार्यके सम्मुख उपस्थित किया । वेदान्तके
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( १३ . . ) इस अनुपम प्रकरण ग्रन्थको देखकर भगवान् शङ्कराचार्य उनकी विद्वत्तापर बहुत प्रसन्न और मुग्ध हुए। क्योंकि इस ग्रन्थमें उन्होंने आत्मविषयक समस्त विप्रतिपत्तियोंका युक्तिपूर्वक निराकरण करते हुए इस में वेदान्तदर्शनके मार्मिक रहस्यको गागरमें सागर जैसा भर दिया है। जिससे केवल एक इस पुस्तकका अनुशीलन करनेसे ही जिज्ञासुकी जिज्ञासा निवृत्त हो सकती है, अर्थात् प्रस्तुत पुस्तकका मनन करनेसे फिर आत्मज्ञानके विषयमें कोई भी संशय अवशिष्ट नहीं रह सकता । ग्रन्थके आरम्भमें ही ग्रन्थकारने जीवोंके समस्त दुखों का स्पष्ट निदान करके उनकी निवृत्तिका उपाय बतलाते हुए सांसारिक जीवोंको अखण्ड सुख और शान्तिका सन्देश दे दिया है। वे कहते हैं
_ 'आब्रह्मस्तम्बपर्यन्तैः सर्वप्राणिभिः सर्वप्रकारस्यापि दुःखस्य स्वरसत एव जिहासितत्वात् तन्निवृत्यर्था प्रवृत्तिरस्ति स्वरसत एव ।
दुःखस्य च देहोपादानैकहेतुत्वात्, देहस्य च पूर्वोपचितधर्माऽधर्ममूलत्वादनुच्छित्तिः। तयोश्च विहितप्रतिषिद्धकर्ममूलत्वादनिवृत्तिः, कर्मणश्च रागद्वेषास्पदत्वाद्रागद्वेषयोश्च शोभनाशोभनाध्यासनिबन्धनत्वादध्यासस्य चाऽबिचारितसिद्धवस्तुनिमित्तत्त्वाद् द्वैतस्य च शुक्तिकारजतवत्सर्वस्यापि स्वतःसिद्धाऽद्वितीयात्मानवबोधमात्रोपादानत्वादन्यावृत्तिरतः सर्वानर्थहेतुरात्माऽनवबोध एव ।' - (ब्रह्मासे लेकर छोटेसे-छोटे तृणपर्यन्त अर्थात् कीट पतङ्गपर्यन्त सब प्राणियोंको सब प्रकारके दुःखोंको छोड़नेकी इच्छा स्वाभाविक ही रहती है, इसलिए उनको दूर करनेके निमित्त (प्राणियोंकी) चेष्टा भी स्वयमेव होती हैं।
देहधारण करना ही दुःखका एकमात्र कारण है और देह पूर्वजन्ममें सञ्चित धर्माऽधर्मसे उत्पन्न होता है, अतएव उनके उच्छेद हुए बिना, धर्म
और अधर्मके निवृत्त हुए बिना, देहका उच्छेद नहीं हो सकता है । और जबतक विहित एवं प्रतिषिद्ध कर्मोंका आचरण होता रहता है, तब तक धाऽधर्मकी भी निवृत्ति नहीं हो सकती है । कर्म राग-द्वेषमूलक हैं । रागद्वेष विषयोंमें सुन्दरता और असुन्दरताबुद्धिरूप मिथ्याश्रमसे उत्पन्न होते हैं। मिथ्याघ्रान्ति जिसकी सत्ता विचार न करने से ही है ऐसे द्वैतवस्तुके कारण हुआ करती है और समस्त द्वैतका उपादान कारण, शुक्तिमें
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रजतभ्रमके समान, स्वयम्प्रकाश अद्वितीय आत्माका अज्ञान ही है। इसलिए परम्परासे सब अनर्थोंका मूल कारण आत्माका अज्ञान ही है। अतएव उसकी निवृत्ति हुए बिना पूर्वोक्त दुःखादिसे छुटकारा नहीं हो सकता है।)
'सुखस्य चाऽनागमापायिनोऽपरतन्त्रस्यात्मस्वभावत्वात्तस्याऽनवबोधःपिधानमतस्तस्योच्छित्तावशेषपुरुषार्थपरिसमाप्तिः । अज्ञाननिवृत्तेश्च सम्यग्ज्ञानस्वरूपलाभमात्रहेतुत्वात्तदुपादानम् अशेषाऽनर्थहेत्वात्माऽनवबोधविषयस्य चाऽनागमिकप्रत्यक्षादिलौकिकप्रमाणाविषयत्वाद्वेदान्तागमवाक्यादेव सम्यग्ज्ञानम्। अतोऽरोषवेदान्तसारसंग्रहप्रकरणमिदमारभ्यते ।'
( पूर्वोक्त अज्ञान केवल अनर्थोका ही कारण है ऐसा नहीं, किन्तु उत्पत्ति और नाशसे रहित तथा कभी पराधीन न होनेवाला जो निर्विशेष आत्मस्वरूप सुख है, उसका भी वह आवरण करनेवाला है। इसलिए उसके नाश होनेसे ही सम्पूर्ण पुरुषार्थकी परिसमाप्ति अर्थात् कृतकृत्यता की प्राप्ति होती है। सम्यगज्ञानरूप आत्मसाक्षात्कार तत्त्वज्ञान ) ही अज्ञानके नाशका एकमात्र कारण है। अतएव उसके अधिकारीको अन्य उपायोंका परित्याग करके उसका ( तत्त्वज्ञानका ) सम्पादन करना चाहिए। •समस्त अनर्थों के उत्पादक आत्मस्वरूपाज्ञानके विषयका- आत्माका---- साक्षात्कार अशास्त्रीय प्रत्यक्षादि लौकिक प्रमाणों द्वारा न हो सकने के कारण केवल एक वेदान्तशास्त्रके वाक्योंसे ही होता है। इसलिए समस्त वेदान्तके सारका सङ्ग्रह करके यह प्रकरण प्रारम्भ किया जाता है।) अस्तु,
' प्रस्तुत पुस्तक ग्रन्थकारका सर्वोत्तम ग्रन्थ है। इसमें कई उद्धरण 'उपदेश-साहस्री' से उद्धृत किए हैं। इसमें ३६ कारिकाएँ बृहदारण्यवार्तिककी हैं । इसमें ग्रन्थकारने मुक्तिका साधन ज्ञान है, या कर्म है, अथवा दोनोंका समुच्चय है, इस विषयका युक्तियुक्त समाधान करते हुए तीन प्रकारके समुच्चयवादका खण्डन किया है । और चार प्रकारसे अन्वयव्यतिरेक बतलाकर बड़े ही सरल और स्पष्ट रीतिसे जीव और ब्रह्मकी एकताका प्रतिपादन करते हुए अद्वैत सिद्धान्तको निःसन्दिग्ध सिद्ध किया है। और प्रस्तुत पुस्तकका नाम भी अन्वर्थक रक्खा गया है इसका अर्थ है-'निर्गतं
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( १५ ) कर्म यस्मात् सः निष्कर्मा, निष्कमणो भावः नैष्कर्म्यम्, तस्य सिद्धिः निश्चयः, अर्थात् सर्वकर्मसंन्यासपूर्वक ब्रह्मात्मावबोध । अथवा-निष्कर्म ब्रह्म, तद्विषयं विचारपरिनिष्पन्नं ज्ञानं नैष्कयं तद्रूपां सिद्धिम्, अर्थात् विचारजनित ब्रह्मविषयक ज्ञानकी सिद्धि । अस्तु, ... वेदान्तके प्रसिद्ध अनुपम ग्रन्थ संक्षेपशारीरक' के रचयिता श्री सर्वज्ञात्म मुनि इन्हीं सुरेश्वराचार्यजीके शिष्य थे। उन्होंने अपने ग्रन्थके प्रारंभमें ही आचार्य सुरेश्वरके चरणकमलोंकी वन्दना की है । प्रकृत ग्रन्थ तथा संक्षेपशारीरकके अनुशीलनसे तो. ऐसा प्रतीत होता है कि सर्वज्ञात्म मुनिको प्रस्तुत ग्रन्थपर बहुत अधिक प्रेम रहा होगा और इसमें प्रतिपादित विषयको ही उन्होंने सुमनोहर पद्योंमें बद्ध करके 'संक्षेप-शारीरक' ग्रन्थ लिखा। क्योंकि संक्षेपशारीरकमें कई अंश इसीका छायानुवाद है।
इस ग्रन्थपर मूलके अभिप्रायको स्पष्ट करनेवाली म० म० पं० श्री ज्ञानोत्तम मिश्र विरचित संस्कृत टीका है । प्रस्तुत अनुवाद उसीके आधारपर किया है । इसके अतिरिक्त श्रीज्ञानामृत विरचित 'विद्यासुरभि' नामकी दूसरी टीका तथा श्रीचित्सुखाचार्य विरचित 'भावतत्त्वप्रकाशिका' नामकी एक तीसरी टीका भी इसपर है।
- प्रस्तुत . ग्रन्थका यथार्थ अनुवाद करना तो गुरुपरम्परासे वेदान्त शास्त्रका ज्ञान सम्पादन किये हुए पुरुष धौरेयोंका ही काम था; मुझ सदृश अल्पज्ञ और अल्पमतिके लिए तो यह एक उपहासकी बात है। तथापि निष्कारणकरुण भगवान् शङ्कर एवं प्रातः स्मरणीय सद्गुरुकी परम अनुकम्पासे प्रेरित होकर स्वान्तःसुखाय प्रवृत्त होनेपर जैसा भी हो सका है, 'तत्कुरुष्व मदर्पणम्' के अनुसार वह सब उन्हींकी सेवामें समर्पित है । श्रीरस्तु।
गोयनका संस्कृत महाविद्यालय, काशी ।
भाद्र कृष्ण १३ सं० २००७
विनीतप्रेमवल्लभ त्रिपाठी
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वक्तारमासाद्य यमेव नित्या
सरस्वती स्वार्थसमन्विताऽऽसीत् । निरस्तदुस्तर्ककलङ्कपङ्का
नमामि तं शङ्करमचिंताधिम् ॥
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मण्डन मिश्र ही सुरेश्वराचार्य हैं
मण्डनमिश्रजीके बारेमें पाश्चात्य और भारतीय विद्वानोंमें बड़ा मतभेद है । पाश्चात्य विद्वान् लोग भाषाविज्ञानके आधारसे कुछ इतिहास के बलसे कुछ ऐसे एक सिद्धान्तको मानकर उसीका समर्थन करनेके लिए कटिबद्ध हो जाते हैं, यह बात सर्वानुभवसिद्ध है । ये लोग मण्डनमिश्र और सुरेश्वराचार्यजी, इन दोनों को एक नहीं मानते, किन्तु अलग-अलग मानते हैं। इसका पहला व्याख्याता मैसूर यूनीवर्सीटीके दर्शनका प्रधानाध्यापक है। उसने मंडन मिश्र और सुरेश्वराचार्यजी के ग्रन्थोंको आपाततः देखकर कुछ भाषाके भेदसें, कुछ प्रतिपाद्य विषय के भेद से मण्डन और सुरेश्वर, इन दोनों को भिन्नभिन्न सिद्ध किया है । उसमें पहला कारण यह है कि "भगवान् शङ्कराचार्य अद्वैत सम्प्रदाय के प्रवर्तक हैं। उन्होंने जीवन्मुक्तिको सिद्ध किया है । यह बात शाङ्करभाष्यादिमें प्रसिद्ध है । यदि मण्डनमिश्र उनके शिष्य होते तो वे उस सिद्धान्तका खण्डन कैसे करते ? मण्डन मिश्रजीने ब्रह्मसिद्धि में जीवन्मुक्तिका खंडन किया है । दूसरा कारण यह है कि अविद्याका आश्रय और विषय ब्रह्म है, यह शङ्कराचार्यजीका सिद्धान्त है और ब्रह्मसिद्धि में मण्डन मिश्रजीने अविद्याका विषय ब्रह्मको मानकर आश्रय जीवको माना है । इसी सिद्धान्तको भामतीकार श्रीवाचस्पतिजीने भी अपनाया है । यह बात वेदान्तियोंमें प्रसिद्ध है:
1
'वाचस्पतिर्मण्डनपृष्ठसेवी ।' इत्यादि
इसी प्रकार कई श्रुतियोंके व्याख्यानमें मण्डन और सुरेश्वराचार्य - जीमें अन्तर दीख पड़ता है ।" इत्यादि इत्यादि आभास हेतुओं को देखकर अंग्रेजी भाषा में इस विषयको लिखा है । जिससे संस्कृत के विद्वान् लोग इसे न जानें, इसके ऊपर कुछ न कह सकें ।
इसीको आधारकरके महामहोपाध्याय पं० कुप्पुस्वामी शास्त्रीजीने भी ब्रह्मसिद्धिकी भूमिका में यथाशक्ति उसी मतका समर्थन किया है। इसी
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बातको 'लकीरके फकीर' इस कहावतके अनुसार प्रायः सभी अंग्रेजीके शिक्षित मानते आ रहे हैं। पंडित बलदेव उपाध्यायजी एम० ए०, साहित्याचार्य (प्रोफेसर बनारस हिन्दू-यूनीवर्सीटी ) महोदयने भी इसी आधारको सामने रख कर अपनी 'शङ्कराचार्य' नामक पुस्तकमें मण्डनमिश्र और सुरेश्वराचार्यजीको भिन्न-भिन्न सिद्ध करनेका प्रयत्न किया है। यह सब संस्कृतभाषाका विशिष्ट अध्ययन न होना, किसी सम्प्रदायपरम्परासे अध्ययन न करना तथा केवल अपनी बुद्धिसे ग्रन्थ लगा लेनेका ही फल है।
यदि किसी देशके या किसी व्यक्तिके विषयमें हमें इतिहास लिखना है तो उस देशकी, उस समाजकी, स्थितिको देख अथवा सुनकर ही उस बातको सिद्ध करना चाहिए, अपने मनसे नहीं। इस बातको पाश्चात्य
और भारतीय सभी विद्वान् लोग मानते हैं। ऋषि-महर्षियोंकी जन्मभूमि समस्त भूमण्डलके आदर्श भारतवर्षमें जबसे मण्डनमिश्र हो गए हैं, तबसे आज तकका संस्कृत विद्वत्समाज, यहाँकी जनता, भगवान् शङ्कराचार्यजीसे चलाया मठाम्नाय एवं तत्-तत् समयमें रचे गए विद्वानोंके शङ्करदिग्विजयादि काव्य, इस बातको निर्विवाद पुष्ट करते हैं कि मण्डनमिश्र ही शङ्कराचार्यजीसे शास्त्रार्थ करके पराजित होनेके बाद उनके शिष्य बन कर सुरेश्वराचार्य नामसे प्रसिद्ध हुए । अस्तु, ___पाश्चात्य विद्वानोंने भारतीय सभ्यता और संस्कृतिपर यहाँकी जनताकी अनास्था और अरुचि होनेके लिए ऐसा ऐसा उत्पात मचा रखा है। उन लोगोंने संस्कृतके विद्वानोंको एक प्रकारसे अनपढ़ सिद्ध करनेके लिए प्रयत्न किए हैं और कर रहे हैं। परन्तु यह अनुचित है। संस्कृत विद्वानोंको आधुनिक वैज्ञानिक जगत्में प्रक्रियात्मक ज्ञान न होनेपर भी आजकलके विज्ञान-शास्त्रियों और दार्शनिकोंसे वे कई गुने बढ़े-चढ़े हैं, यह बात सर्वविदित है ? ' जैसे आज विज्ञान-जगत्में श्रीजगदीशवसुको बड़ा मानते हैं । उन्होंने सारे जीवनको लगा कर स्थावरों में भी. प्राणशक्ति है, इस बातको अमे
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(a)
रिकामें किसी विज्ञानशास्त्रियोंके अधिवेशनमें इन्जक्शन द्वारा सिद्ध करके दिखलाया है । तबसे वैदेशिक विद्वान् भी स्थावरोंमें भी प्राणशक्ति है, यह मानने लगे हैं । परन्तु हमारे यहां तो मनुजीने, पहलेसे ही, जब कि आजका विज्ञान गर्भमें भी नहीं आया था, लिख रखा है कि
'अन्तःसंज्ञा भवन्त्येते सुखदुःखसमन्विताः ।'
इस विषय में अधिक कहना पिष्टपेषण है । प्रकृत विषय में हमें कहना यह है कि हमने जहां तक इनके ग्रन्थोंका अध्ययन और मनन किया है, इससे स्पष्ट यही प्रतीत होता है कि पूर्वोक्त कारण सब हेत्वाभास हैं । एक विद्वान् बाल्यावस्था में किसी विषय को लेकर ग्रन्थ लिखता है । पीछे पठन-पाठन और विचारसे ज्ञानगरिमा होती है, तब उस समय पहले जो कुछ लिखा है, वह उसीको गलत मालूम पड़ता है । 'तत्त्वपक्षपातो हि धियां स्वभाव ः ' ऐसा प्राचीनोंका कथन है ।
जैसे मीमांसा में शाबर भाष्यपर दो व्याख्याता बड़े बड़े हो गए हैं । कुमारिलभट्ट और प्रभाकर मिश्र । प्रभाकर मिश्र बड़े यौतिक और प्रतिभाशाली थे, इस विषयको कहना उनके ग्रन्थोंका परिशीलन करनेवालोंके सामने भगवान् सूर्यको दीपदर्शन कराना है । उन्होंने शाबर भाष्य के ऊपर शब्द-सामर्थ्य तथा अर्थ- सामर्थ्य को लेकर दो प्रकारका व्याख्यान किया है। उन दोनों का नाम है - ( १ ) विवरण और (२) निबन्ध । जो विवरण आजकल बृहती नामसे प्रसिद्ध है । इस अभिप्रायको श्रीरामानुजाचार्यजी प्रभाकर मतानुसारी 'तन्त्ररहस्य' नामक ग्रन्थमें लिखे हैं ।
'आलोच्य शब्दबलमर्थबलं श्रुतीनां
Mangi व्यरचयद् बृहतीं च लध्वीम् ।' इत्यादि ।
इन ग्रन्थोंमें बहुत सिद्धन्तोंमें अन्तर है । इसका विवेचन हम दूसरे समयमें करेंगे | इससे यह नहीं सिद्ध होता है कि प्रभाकर मिश्र दो थे । ज्ञानपरिपाकके भेदसे प्रतिपाद्य विषयोंमें भेद होता है, यह सर्वानुभव सिद्ध है । अप्पय्य दीक्षितजीको सभी जानते हैं । उन्होंने 'नयनमुखमालिका, इत्यादि तीन ग्रन्थ लिखे हैं । उनमेंसे एकमें अद्वैत सिद्धान्तका समर्थन,
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दूसरेमें विशिष्टाद्वैत सम्प्रदायका समर्थन और तीसरेमें मध्वमतका समर्थन किया है । बादमें फिर इनका खंडन भी किया है। क्या इससे अप्पय्यदीक्षित अनेक सिद्ध होते हैं ? 'व्याख्या बुद्धिबलापेक्षा' यह कहावत है। अतः यह सब कहनेका अभिप्राय यह है कि अवस्थाके भेदसे मनुष्यका ज्ञान विकसित होता है और सङ्गके द्वारा भी सिद्धान्तमें परिवर्तन होता है। यद्यपि मण्डनमिश्रजी गृहस्थाश्रममें कर्मकाण्डके समर्थक और ज्ञानकाण्डके कट्टर विरोधी थे। परन्तु जब शङ्कराचार्यजीसे शास्त्रार्थ हुआ तभीसे शङ्कराचार्यजीके सिद्धान्तोंसे प्रभावित होकर वे उनके शिष्य बने, उनके अनुयायी और उनके सिद्धान्तोंके समर्थक हो गए।
यह भी देखा जाता है कि हर एक विद्वान् किसी आचार्यके मतका अनुसरण करते हुए अपने अभिमत पक्षका भी ग्रन्थमें सन्निवेश कर देता है ? तावता वह अन्य सिद्धान्तका हो गया, यह नहीं कह सकते ! इसलिए उपर्युक्त प्रमाणोंसे यही सिद्ध होता है कि मिथिलावासी-मण्डनमिश्र ही संन्यास ग्रहण करनेके अनन्तर सुरेश्वराचार्य कहलाने लगे और शृंगेरीमठमें पहले आचार्य हुए। उनकी समाधि भी शृङ्गेरी मठमें अब तक विद्यमान है।
जैसे भारतवासी सब भारतके रहनेवाले नहीं, किन्तु बाहरसे आए हुए हैं, ऐसा वैदेशिक (पाश्चात्य) विद्वाज एवं तदनुयायी यहांके कुछ विद्वान् लिखते और कहते हैं। तथापि हम लोग बाहरके नहीं, यहीके हैं, यह हमारा दृढ़ विश्वास है। ____ अतः मण्डनमिश्र ही सुरेश्वराचार्य हैं, दूसरे नहीं। इस बातको जनताके सामने रखते हुए इस विषयका मैं उपसंहार करता हूँ। इसके विषयमें हमारे पास बहुतसी सामग्री है। किसी अवसर पर निबन्धके रूपमें उसको प्रकाशित करेंगे।
"-वेदान्तमीमांसाचार्य श्री पं० सुब्रह्मण्यशास्त्री
(प्रो० सं० वि०, काशी हिन्दूयूनीवर्सीटी).
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श्लोक
१ ४
विषय-सूची विषय
अधिकारीका उपपादन आत्माका अज्ञान ही सब अनर्थों का मुख्य कारण है, यह कथनं प्रस्तुत प्रकरणका विषयोपन्यास ... ...
प्रकरणसे प्रतिपाद्य चार विषयों का (अनर्थ, अनर्थहेतु, पुरुषार्थ और पुरुषार्थहेतुका ) प्रतिपादन
... ... ज्ञान ही मोक्षका साधन है, कर्म नहीं, यह प्रतिपादन ...
प्रतिज्ञात विषयकी पुष्टि के लिए पूर्वपक्ष-(ज्ञानको स्वीकार करते हुए ) कर्म ही मोक्षका साधन है, यह कथन ... ...
केवल ज्ञान विधिप्राप्त नहीं, यह प्रतिपादन ... ...
(ज्ञानको मुक्तिका साधन माननेपर भी) केवल ज्ञान मुक्तिका साधन नहीं, कर्मसमुच्चित ज्ञान ही मुक्तिका साधन है, यह कथन
पूर्वपक्षका खण्डन- ... ... ...
चारों प्रकारके कर्मफलसे मुक्ति नहीं ( मुक्ति चारों प्रकारके कर्मका फल नहीं है ) यह कथन
केवल आत्म-ज्ञानसे ही मुक्ति होती है, यह निरूपण ...
ज्ञान (कर्मके समान अविद्याजन्य होनेपर भी) अज्ञानका निवर्तक कैसे हो सकता है, इस शङ्काका निराकरण- ... ...
कर्म मुक्तिमें किस प्रकार उपयोगी है, यह प्रतिपादन . ... कर्मानुष्ठानसे चित्तशुद्धि द्वारा वैराग्य ... बैराग्योत्तर सर्वकर्मसंन्यासका अधिकार ... इस तरह कर्म मुक्तिमें उपयोगी है यो उपसंहार मुक्ति कर्मसे साध्य नहीं है, यह कथन कम और ज्ञानके समसमुच्चयका खण्डन ...
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विषय
( २ )
लोक ६६
ज्ञान और कर्म के समुच्चयाभावमें अन्य कारणोंका निर्देश भेदाभेदवादीके मत में भी ज्ञान - कर्म के समुच्चयका असंभव कथन ६८ कर्मवादियोंकी उक्तियोंका क्रमशः खण्डन
८०
विधिबोधित न होने के कारण वेदान्त वाक्योंका प्रामाण्य नहीं
हो सकता, इस शङ्काका खण्डन
नहीं
स्वतः सिद्ध आत्मवस्तु में अविश्वास नहीं हो सकता
आत्मामें कर्तृत्व नहीं है
आत्मा में भोक्तृत्व नहीं है
देहाभिमानी पुरुषका ही कर्ममें अधिकार है, अभेददर्शीका
ज्ञानसे ही मुक्ति होती है, इसका उपसंहार
द्वितीय अध्याय
उत्थानिका (वक्यमाण अध्यायका तात्पर्य)
त्वंपदार्थका प्रतिपादन
वाक्यके बिना ब्रह्मज्ञान नहीं हो सकता है, यह प्रतिपादन
देह आत्मा नहीं, यह कथन
भट्ट मीमांसक मतका निराकरण
बौद्ध मतका निराकरण
sent निवृत्ति अद्वैतभावकी सिद्धि
लक्ष वस्तुके स्वरूपका कथन
बुद्धि ही परिणामिनी है, आत्मा नहीं
आत्मा ही समस्त बुद्धियों का साक्षी है
आत्मा कूटस्थ - अविकारी है
...
...
...
युक्तियों द्वारा बुद्धिका परिणामित्व और आत्माकी कूटस्थता वेदान्त सिद्धांत पर अविश्वास असंभव
सांख्य-सिद्धांत से वेदान्त-सिद्धांत की भिन्नता
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६.७
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विषय
( ३ )
आत्मा और अनात्माका इतरेतराध्यास तत्त्वदर्शनसे विद्याकी निवृत्ति इतरेतराध्यासके फलका उपसंहार जड़वस्तु का मिथ्यात्व
प्रपञ्चके मिथ्यात्व का उपसंहार
विद्याका फल और अध्याय का उपसंहार तृतीय अध्याय
इस अध्याय की पूर्वाध्याय से सङ्गति, वाक्य से अज्ञानकी निवृत्ति, वाक्यके व्याख्यानका उपक्रम, पद, पदार्थ और प्रत्यगात्माका सामानाधिकरण्य, विशेषण विशेष्यता और लक्ष्य लक्षण सम्बन्ध ज्ञानसाधनविषयिणी प्रवृत्ति विधिप्रयुक्त है।
सांख्योंकी शंका और उसका समाधान
उपायान्तर से कैवल्यपक्षका निराकरण
लक्ष्यलक्षणकी व्याख्या
'परिणामी (अहंकार) और कूटस्थ ( आत्मा ) का लक्षण ज्ञान के कारण ही अहंकार और आमाका सम्बन्ध है, वास्तविक नहीं, यह प्रतिपादन
प्रतिबन्धकी निवृत्ति होने पर ही वाक्य द्वारा आत्मज्ञान होता है। वाक्य अन्वयव्यतिरेक द्वारा आत्माका प्रतिपादन करता है, इसकी पुष्टि के लिए श्रुतिका उदाहरण तत्त्वमस्यादि वाक्य में प्रत्यक्षादि विरोध नहीं है, इसका उपसंहार अतीन्द्रिय पदार्थ में अभिधाश्रति ( तत्त्वमस्यादि वाक्य ) का प्रामाण्य प्रतिपादन
...
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...
उक्त युक्तियों द्वारा आत्माके प्रमाणान्तरागोचरत्वका निराकरण पूर्वाध्यायोक्त (आत्मज्ञानोपयोगी ) अन्वयव्यतिरेकका पुनः संक्षेप से वर्णन
साङ्ख्यमतका उत्थापन और उसका समाधान
...
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३६
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४७
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५७
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विषय
श्लोक त्वंपदार्थ तत्पदार्थ कैसे हो सकता है, इसका समाधान ... तत् और त्वं पदकी अखण्ड-एकरसार्थनिष्ठता ...
त्वंपद में प्रतीत अहंकार और तत्पद में प्रतीत परोक्षताकी हेयता
तदर्थ त्वमर्थसे अभिन्न होकर अविद्यासे उत्पन्न द्वितीयताका निराकरण कैसे करता है, ऐसी शङ्का और समाधान
तत्-त्वंपद के लक्षणा द्वारा अखंड-आत्माके बोधनमें प्रत्यक्षादिका अविरोध ... ... ... ...
'तत्त्वमसि' आदि वाक्य उपासनापरक नहीं हैं दृष्टान्त द्वारा वाक्य और प्रत्यक्षका परस्सर अविरोध शब्दादि प्रमाणोंका स्वतःप्रामाण्य उपासना और कर्मफल स्थायी नहीं है ... अहंवृत्तिसे आत्मा लक्षित होता है शब्द गौणीवृत्तिसे आत्माका बोध कराता है, मुख्यसे नहीं १०२-१०४
शब्द अपने अर्थसे सम्बन्धित हुए बिना कैसे उसका बोध करा सकता है इसमें दृष्टान्त- ... ... ... १०५
___ आत्मा अज्ञान और ज्ञानका आश्रय होनेसे विकारी नहीं है
... ... ... ... १०७ श्रुति और आचार्य द्वारा आत्मबोध होनेमें शङ्का-समाधान आत्मामें अज्ञान स्थिर नहीं है
११० अविद्याकी धृष्टता . ... ...
आत्मामें किसी प्रकार भी अविद्याकी संभावना नहीं है।
( अन्वय व्यतिरेक रूप ) अनुमानसे युक्त वाक्य द्वारा अविद्याकी निवृत्ति ...
११३ अज्ञाननिद्रामें प्रसुप्त जीवको श्रुति ही जगा सकती है ... वाक्यसे अन्य प्रमाण द्वारा आत्मज्ञान असंभव वेदन्तोंके उपासनापरक होनेमें शङ्कासमाधान
१०८
११५
११७
....
१२३
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१२६
विषय
श्लोक प्रसंख्यान विधिके अस्वीकारमें दोषकी आशङ्का और उसका समाधान ... ... ... ...
चतुर्थ अध्याय पुनरुक्तिका परिहार ... आत्मासे ही अनात्माकी सिद्धि देहेन्द्रियादिमें आत्मसंशय वाक्य द्वारा ही आत्माका ज्ञान होता है, यह कथन वाक्यार्थज्ञानमें क्रमका निरूपण स्वयंप्रकाशका साक्षात्कार न होने में कारण .. भौतिकी दृष्टिसे आत्मज्ञान असंभव विवेकका आधार बुद्धि प्रत्यक्षादिसे अगम्य ब्रह्मका परिज्ञान केवल अतिप्रमाणसे ... उक्त-विषयमें आचार्यकी उक्ति।
... ... १६ उपदेश साहस्रीका पूर्वपक्ष और उत्तर ... ... २० अन्वय-व्यतिरेक द्वारा पद-पदार्थके ज्ञानमें आचार्यकी सम्मति वाक्यकी एकत्वप्रतिपादकतामें आचार्यकी सम्मति प्रकारान्तरसे आचार्योक्त अन्वय-व्यतिरेक प्रकृत विषयकी पुष्टिमें आचार्यकी उक्ति
.... ३१ विवेकीको आत्मज्ञान होता है, इस विषय में आचार्यकी उक्तिका प्रामाण्य
ज्ञानके साधन श्रुति आचार्यादि आत्मासे अभिन्न हैं, यह कथन ३७-३७ ब्रह्मज्ञान प्रपञ्चसे भिन्न है, या अभिन्न, इसका निर्णय ... पूर्वोक्त विषयमें कारण निर्देश अविद्याकी निवृत्तिके लिए वाक्यकी आवश्यकताका प्रतिपादन पूर्वोक्तविषयकी पुष्टिमें उदाहरण तुरीयपदकी प्राप्ति कब होती है, यह कथन उपदेशसाहस्रीका उदाहरण . . . ."
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नैष्कर्म्यसिद्धिः प्राब्रह्मस्तम्बपर्यन्तः सर्वप्राणिभिः सर्वप्रकारस्यापि दुःखस्य स्वरसत एव जिहासितत्वात् तन्निवृत्त्यर्था' प्रवृत्तिरस्ति स्वरसत एव ।
ब्रह्मासे लेकर छोटेसे-छोटे तृणपर्यन्त अर्थात कीटपतङ्ग पर्यन्त सब प्राणियों में सब प्रकारके दुःखोंको छोड़नेकी इच्छा स्वभावतः ही रहती है, इसलिए उनको दूर करने के निमित्त ( प्राणियोंकी ) चेटा भी स्वयमेव होती है।
दुःखस्य च देहोपादानैकहेतुत्वात् , देहस्य च पूर्वोपचितधर्माऽधर्ममूलत्वादनुच्छित्तिः। तयोश्च विहितप्रतिपिद्धकर्ममूलत्वादनिवृत्तिः, कर्मणश्च रागद्वेषास्पदत्वाद्रागद्वेषयोश्च शोभनाशोभनाध्यासनिबन्धनत्वादध्यासस्य चारुविचारितसिद्धद्वैतवस्तुनिमित्तत्त्वात् , द्वैतस्य च शुक्तिकारजतादिवत्सर्वस्यापि स्वतःसिद्धाद्वितीयात्मा'नवबोधमात्रोपादानत्वादव्यावृत्तिरतः सर्वानर्थहेतुरात्माऽनवबोध एव ।
देह धारण करना ही दुःखका एकमात्र कारण है और देह पूर्वजन्ममें सञ्चित धर्माधर्मसे उत्पन्न होता है, अतएव उनका उच्छेद हुए बिना, धर्म और अधर्म के निवृत्त हुए बिना, देहका उच्छेद नहीं हो सकता। और जबतक विहित एवं प्रतिषिद्ध काँका याचरण होता रहता है, तबतक धर्म और अधर्मकी भी निवृत्ति नहीं हो सकती। कर्म राग-द्वेषमूलक हैं । राग-द्वेष विषयोंमें सुन्दरता और असुन्दरता बुद्धिरूप मिथ्याभ्रमसे उत्पन्न होते हैं। मिथ्याभ्रान्ति जिसकी सत्ता विचार न करनेसे ही है ऐसे द्वैतवस्तु के कारण हुअा करती है और समस्त द्वैतका उपादान कारण, शुक्तिमें रजतभ्रमके समान, स्वयम्प्रकाश अद्वितीय आत्माका अज्ञान ही है। इसलिए परम्परासे सब अनर्थीका
१ यहाँ ग्रन्थकारने 'तन्निवृत्यर्थी प्रवृत्तिरस्ति स्वरसत एव' इससे यह सूचित किया है कि समस्त दुःखोंकी निवृत्ति चाहनेवाला पुरुप इसका अधिकारी है। 'दुखस्य' इत्यादिसे 'अशेष पुरुषार्थ परिसमाप्तिः' इत्यन्त ग्रन्थके द्वारा यह सूचित किया है किदुःखकी प्रात्यन्तिक निवृत्ति ही इसका प्रयोजन है और वह आत्मज्ञानसे व्यतिरिक्त अन्य साधनोंसे असाध्य है।
२ यहाँ “यात्मनः विषयभूतस्य, अात्मनि श्राश्रयभूते" ऐसा अर्थ करना चाहिए । क्योंकि अविद्याका अाश्रय और विषय शुद्ध चैतन्य ही है, जैसा कि संक्षेपशारीरकमें कहा गया है
अाश्रयत्वविषयत्वभागिनी निर्विभागचितिरेव केवला । पूर्वसिद्धतमसो हि पश्चिमो नाश्रयो भवति नापि गोचरः ।। . और इस अध्यायके ७३ श्लोकमें भी यह बात कही गई है।
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भाषानुवादसहिता
मूल कारण ग्रात्माका ज्ञान ही है । अतएव उसकी निवृत्ति हुए बिना पूर्वोक्त दुःखादिसे छुटकारा नहीं हो सकता ।
सुखस्य चाsनागमापायिनोऽपरतन्त्रस्यात्मस्वभावत्वात्तस्याऽनवबोधः पि 'धानमतस्तस्योच्छतावशेष पुरुषार्थ परिसमाप्तिः । अज्ञाननिवृत्तेश्व सम्यग्ज्ञानस्वरूपलाभमात्र हेतुत्वात्तदुपादानम् श्रशेषाऽनर्थ हेत्वात्माऽनवबोधविषयस्य चाsनागमिक प्रत्यक्षादिलौकिकप्रमाणाविषयत्वाद दान्तागमवाक्यादेव सम्यग्ज्ञानम् । अतोऽशेपवेदान्तसारसंग्रह प्रकरणमिदमारभ्यते ।
पूर्वोक्त ज्ञान केवल अनथका ही कारण है, ऐसा ही नहीं, किन्तु उत्पत्ति और नारा से रहित तथा कभी पराधीन न होनेवाला जो ग्रात्मस्वरूप सुख है, उसका भी वह आवरण करदेनेवाला है । इसलिए उसका नाश होनेसे ही सम्पूर्ण पुरुषार्थकी परिसमाप्ति अर्थात् कृतकृत्यता प्राप्त होती है । सम्यग् ज्ञानरूप ग्रात्मसाक्षात्कार ( तत्त्वज्ञान ) ही अज्ञान के नाशका एकमात्र कारण है । अतएव उसके अधिकारीको अन्य उपायोंका परित्याग करके उसका ( तत्त्वज्ञानका ) सम्पादन करना चाहिए। समस्त अनर्थों के उत्पादक ग्रात्मस्वरूपाज्ञान के विषयका - आत्माका - पाक्षात्कार शास्त्रीय प्रत्यक्षादि लौकिक प्रमाणों द्वारा न हो सकने के कारण केवल एक वेदान्तशास्त्रके वाक्योसे ही होता है । एतदर्थ समस्त वेदान्त के सारका संग्रह करके यह प्रकरण प्रारम्भ किया जाता है । तत्राऽभिलषितार्थप्रचयाय प्रकरणार्थ सूत्रणाय चायमाद्यः श्लोकः
3
उसमें अभिलत्रित अर्थ --- ( शिष्यपरम्परा द्वारा शिष्ट पुरुषों में ) प्रकरण के प्रचार एवं प्रकरणार्थका विषय और प्रयोजनका --संक्षेप से सूचन करने के लिए इष्टदेवता नमस्काररूप मङ्गलाचरण इस प्रथम श्लोक से करते हैं-
खाऽनिलाऽग्न्यव्धरित्र्यन्तं सक्फणीवोद्गतं यतः । ध्वान्तच्छिदे नमस्तस्मै हरये बुद्धिसाक्षिणे " ॥ १ ॥
१ तस्य सुखात्मनोऽनवबोधः पिधानमावरणम् सुखाप्रतीत्या विपरीतप्रतीतिहेतुः । २ शास्त्रैकदेशसम्बद्धं शास्त्रकार्यान्तरे स्थितम् ।
आहुः प्रकरणं नाम ग्रन्थभेदं विपश्चितः ॥
अर्थात् — जो शास्त्र के एकदेश से सम्बन्धित हो और शास्त्र के कामन्तिर में
स्थित हो, ऐसे ग्रन्थभेदको विद्वान् लोग प्रकरण कहते हैं ।
३ ' प्रकरणार्थ संसूचनाय' ऐसा भी पाठ है ।
४ 'ध्वान्तच्छिदे' इसके द्वारा ग्रज्ञाननिवृत्तिरूप प्रयोजन कहा गया है ।
५ 'हरये बुद्धिसाक्षिणे' इस सामानाधिकरण्यसे प्रत्यगात्मा (जीव ) और परमात्मा
( ब्रह्म ) का एकत्वरूप विषय घोषित किया गया है।
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नैष्कर्म्यसिद्धिः ___माला में सर्पको भाँति जिसमें आकाश, वायु, तेज, जल और पृथिवी पादिरूप जगत्का प्रतिभास ( अज्ञानसे ) हुअा है तथा जो अज्ञानरूप अन्धकारको दूर करनेवाला और बुद्धिका साक्षी है, उस परमात्माको नमस्क र है ॥ १ ॥ ___ स्वसम्प्रदायस्य चोदितप्रमाणपूर्वकत्वज्ञापनाय विशिष्टगुणसङ्कीनिपूर्विका गुरोर्नमस्कारस्क्रिया।
सद्विद्योपदेशरूप अपने सम्प्रदायको पूर्वोक्त शास्त्रमूलक बतलानेके लिए प्राचार्य (भगवान् श्रीशङ्कराचार्यके ) उत्कृष्टगुणोंका कीर्तन करते हुए उनको प्रणाम करते हैं
अलव्ध्वाऽतिशयं यस्माद् व्यावृत्तास्तमबादयः।
गरीयसे नमस्तस्मा अविद्याग्रन्थिभेदिने ॥२॥ जिस गुरुवरके अतिरिक्त कहीं भी उत्कर्षताको न पाकर तमप ग्रादि उत्कर्षवाचक शब्द ( अन्यत्र कहीं स्थान न मिलनेसे ) केवल उन्हीं में रहते हैं । और जो शिष्योंकी अविद्या-ग्रन्थिके भेदन करनेमें अतीव समर्थ एवं सबसे श्रेष्ठ हैं उन श्रीगुरुवर ( भगवान् श्रीशङ्कराचार्य ) को हमारा प्रणाम है।
नमस्कारनिमित्तस्वाशयाविष्करणार्थः' - जिस अभिप्रायसे गुरुको प्रमाण किया, उसे प्रकाशित करनेके लिए अग्रिम श्लोकसे कहते हैं
वेदान्तोदरसंगूढं संसारोत्सारि वस्तुगम् ।
ज्ञानं व्याकृतमप्यन्यैर्वक्ष्ये गुर्वनुशिक्षया ॥ ३ ॥ जो ( ज्ञान ) वेदान्तशास्त्रोंके अन्दर अत्यन्त गूढ़ है, जिसको स्थूलबुद्धिवाले लोग नहीं जान सकते और जो अधिष्ठानभूत ब्रह्मको विषय करके सम्पूर्ण संसारका बाधकर देता है, उस विज्ञानका वर्णन यद्यपि अन्य विद्वानोंने अनेक प्रकारसे किया है, तथापि श्रीगुरुकी आज्ञाका पालन करने के लिए मैं उसका स्पष्ट रूपसे वर्णन करता हूँ॥३॥
किंविषयं प्रकरणमिति चेत्तदुपन्यासःइस प्रकरणमें किस विषयका प्रतिपादन किया जायगा ? इस बातका वर्णन अग्रिम श्लोकसे करते हैं
१ 'स्वाशयाविष्करणार्थम्' भी पाठ है।
२ ज्ञानम्-ज्ञायते अनेन इति ज्ञानम्-प्रकरणम् 'ज्ञानं वक्ष्ये' इत्यत्र वाक्यप्रयोगानुकूलव्यापारो वचधातोरर्थः । जनकत्वं द्वितीयार्थः । ततोऽन्वयः।
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भावानुवादसहिता
यसिद्धा विदमः सिद्धिर्यदसिद्धौ न किञ्चन ।
Arora कनिष्ठस्य याथात्म्यं वक्ष्यते स्फुटम् ॥ ४ ॥ जिस चैतन्यरूप ब्रह्मके अन्तःकरण आदिमें प्रतिबिम्बित होनेसे इदम् पदार्थप्रमाता, प्रमाण, प्रमेय श्रादि जड़ जगत्की सिद्धि ( स्फुरण ) होती है और जिसके प्रतिबिम्बित न होनेसे सिद्धि नहीं होती, उस ब्रह्मतत्त्वका यथार्थ स्वरूप इस ग्रन्थ में स्पष्ट रीति से वर्णन किया जाता है ॥ ४ ॥
विवक्षित प्रकरणार्थ प्ररोचनायानुक्त दुरुक्ताप्रामाण्य कारणशङ्काव्धुदासेन स्वगुरोः प्रामाण्यवर्णनम् -
इस प्रकरण में प्रतिपाद्य विषयपर मुमुक्षुओं की श्रद्धा उत्पन्न करानेके लिए "यह विपय गुरुजीने नहीं कहा, या कहा भी हो तो यह सुन्दर कथन नहीं है, इसलिए अप्रमाण है ।" इत्यादि शङ्कात्रको दूर करते हुए उक्त विषयमें अपने गुरुका प्रामाण्य वर्णन करते हैं
२
笑
गुरुक्तो वेदराद्धान्तस्तत्र नो वम्यशक्तितः । सहस्रकिरणव्याप्ते खद्योतः किं प्रकाशयेत् ॥ ५ ॥
3
श्रीगुरुने जिस वेद सिद्धान्तका वर्णन किया है, उस पर मैं कह ही क्या सकता हूँ, क्योंकि उनके प्रतिपादित विषयों में कुछ अधिक कहनेकी शक्ति मुझमें है नहीं । भला भगवान् सूर्य अपनी प्रखर किरणोंसे जिस देशको प्रकाशित कर रहे हों, वहाँ बेचारा खद्योत किसको प्रकाशित कर सकता है ॥ ५ ॥
गुरुणैव वेदार्थस्य परिसमापितत्वात्प्रकरणोत्क्तौ ख्यात्याद्यप्रामाएयकारणाशङ्केति चेत्तद्व्युदासार्थमुपन्यासः -
जब गुरुजीने ही समस्त वेदार्थका व्याख्यान भलीभाँति कर दिया है, तब इस नूतन ग्रन्थकी रचना से ग्रापका अभिप्राय ज्ञात होता है लोगों में प्रतिष्ठा अथवा धन आदि प्राप्त करने का है, यदि आप इसी इच्छासे ग्रन्थका निर्माण करते हैं तो यह प्रामाणिक है, इत्यादि शङ्कायका निरास करनेके लिए अग्रिम लोकसे कहते हैं --
न ख्यातिलाभ पूजार्थं ग्रन्थोऽस्माभिरुदीर्यते । स्वबोधपरिशुद्धयर्थं ब्रह्मविनिकषाश्मसु ॥ ६ ॥
१ यस्य सद्रस्यात्मनः सिद्धौ सत्तास्फूर्तिरूपेण सत्रे घटादेर्दृश्यस्यापि सत्वेन व्यवहारः । यदसिद्धौ न किंचन । अभ्यस्तस्याधिष्ठान सत्तातिरिक्तसत्ताऽनङ्गीकारात् ।
२ प्रत्यग्धर्मैकनिष्ठस्य = जीवस्य ।
३ सहस्रकिरणव्याप्ते 'आकाशे' इति शेषः ।
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नैष्कर्म्यसिद्धिः
कीर्ति, धन या सत्कार प्राप्ति के लिए हम इस ग्रन्थका निर्माण नहीं करते । किन्तु जैसे सुवर्णकार सुवर्णकी परीक्षा के लिए उसे कसौटीपर घिसता है, वैसे ही श्रीगुरु कृपासे हमें जो ज्ञान प्राप्त हुआ है, उसमें अभी कुछ भ्रान्तिरूप मलका सम्पर्क तो नहीं है ? इसकी परीक्षा के लिए ब्रह्मवेचायों के सामने अपने ज्ञानको उपस्थित करनेके निमित्त यह प्रयत्न किया जाता है । क्योंकि वे लोग ज्ञानरूप स्वर्णकी परीक्षा करनेमें कमौटी के समान है ॥६॥ अनर्थाऽनर्थहेतुपुरुषार्थतद्धेतुप्रकरणार्थं संग्रहज्ञापनायोपन्यासः ---
1
* अनर्थ, अनर्थका कारण, पुरुषार्थ और पुरुषार्थका कारण, इन चार विषयका वर्णन इस ग्रन्थ में किया जायगा । इस बातको सूचित करने के लिए संक्षेपसे उन विषयोंका स्वरूप वर्णन करते हैं-
ऐकात्म्याsप्रतिपत्तिर्या स्वात्मानुभवसंश्रया । साऽविद्या संसृतेर्बीजं तन्नाशो मुक्तिरात्मनः ॥ ७ ॥ 'आत्मा एक अद्वितीय है' ऐसा न जानकर 'यह नाना एवं सुख दुःखादि द्वन्द्वांस युक्त. है' ऐसा विपरीत समझना ही जिसका स्वरूप है और ज्ञानस्वरूप ग्रात्मा ही केवल जिसका श्रय है, वही विद्या समस्त संसारकी जननी है उसीका नाश श्रात्माकी मुक्ति है || || पुरुषार्थहेतोरवशिष्टत्वात्तदभिव्याहारः
पूर्वोक्त चार विषयों में तीनका कथन हो चुका अवशिष्ट पुरुषार्थ हेतु तत्त्वज्ञानका वर्णन करते हैं—
वेदावसान वाक्योत्थसम्यग्ज्ञानाशुशुक्षणिः |
दन्दहीत्यात्मनो मोहं न कर्माऽप्रतिकूलतः ॥ ८ ॥
वेदान्तवाक्यांस उत्पन्न हुआ तत्त्वज्ञानरूप अनि ग्रात्मा के श्राश्रित ज्ञानको एकदम भस्म कर देता है । परन्तु विरोधी न होनेके कारण कर्म उसका ( अज्ञानका ) नाश नहीं कर सकता ॥ ८ ॥
प्रतिज्ञातार्थसंशुद्धयर्थं पूर्वपक्षोक्तिः । तत्र ज्ञानमभ्युपगम्य तावदु
पन्यास:
* अनर्थ संसार, अनर्थका कारण - श्रविद्या, पुरुषार्थ - विद्याका नाशरूप मोक्ष, पुरुषार्थका कारण - तत्त्वज्ञान |
१ 'मुक्तिस्तन्नाश श्रात्मनः भी पाठ है ।
२ ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात् कुरुते तथा ।
३ दन्दहीति = समूलघातं हन्ति, ऐकान्तिकात्यन्तिकोच्छेदं करोतीति यावत् । ४ 'विमृश्य पक्षप्रतिपक्षाभ्यामर्थावधारणं निर्णयः, इस न्यायसे ज्ञान ही मुक्तिका साधन है, कर्म नहीं, इस प्रतिज्ञात विपयकी दृढ़ता के लिए पूर्वपक्ष किया गया है ।
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भाषानुवादसहिता
( पूर्व श्लोक में प्रतिज्ञा की गई कि ज्ञान ही मुक्तिका साधन है, कर्म नहीं ) । अब इस प्रतिज्ञात अर्थकी दृढ़ता के लिए पूर्वपक्ष किया जाता है। यहां पर प्रथम कर्मवादी लोग ब्रह्मज्ञानको स्वीकार करके भी मुक्तिप्राप्ति में उसे अनावश्यक कहते हुए कर्म ही को मुक्तिका साधन सिद्ध करते हैं
मुक्तेः क्रियाभिः सिद्धत्वाज्ज्ञानं तत्र करोति किम् ।
कथं चेच्छृणु तत्सर्वं प्रणिधाय मनो यथा ॥ ९ ॥
केवल कर्मों से ही मोक्ष सिद्ध हो सकता है, तो फिर मोक्षकी प्राप्तिमें ज्ञानकी क्या आवश्यकता है ? यदि अनित्य कर्म मोक्षकी सिद्धि कैसे कर सकता है ? ऐसी शङ्का हो तो उस प्रकारको सावधान होकर एकाग्रचित्तसे सुनिए ? ॥ ६ ॥
कुर्वतः क्रियाः कोम्या निषिद्धास्त्यजतस्तथा । नित्यं नैमित्तिकं कर्म विधिवच्चानुतिष्ठतः ॥ १० ॥
។
जो पुरुष काम्य कर्मों को न करते, निषिद्ध कर्मों को सर्वथा त्यागते नित्य नैमित्तिक कर्मोंका विधिपूर्वक अनुष्ठान करता है, वह ( स्वरूप स्थिति के प्रतिबन्धक सम्पूर्ण कर्मों का नाश होने के कारण ) स्वस्वरूप में स्थितिरूप मोक्षको ( ज्ञानकी सहायता के बिना ही ) प्राप्त होता है ।
किमतो भवति ?
शङ्का - इस प्रकार काम्य कर्मों के न करने तथा निषिद्ध कर्मोंका त्याग करनेसे क्या होता है ?
काम्यकर्मफलं तस्मादवादीमं न ढौकते ।
निषिद्धस्य निरस्तत्वान्नारकीं नैत्यधोगतिम् ॥ ११ ॥
उत्तर - काम्य कर्मोके न करनेसे देवादिभाव और निषिद्ध कर्मके त्याग से नरक सम्बन्धिनी अधोगति उस पुरुषको नहीं प्राप्त होती ॥ ११ ॥
देहारम्भकयोa धर्माधर्म्मयोर्ज्ञानिना सह कर्मिणः समानौ चोद्यपरिहारौ ।
जिन धर्माधर्मोने वर्तमान देहको उत्पन्न किया है, उनके विषय में तो ज्ञानवादियों के साथ कर्मवादियोंका शङ्का समाधान एक समान ही है । क्योंकि—
वर्तमानमिदं याभ्यां शरीरं सुखदुःखदम् ।
आरब्धं पुण्यपापाभ्यां भोगादेव तयोः क्षयः ।। १२ ॥
१ मुक्तिर्भवतीति शेषः ।
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नैष्कर्म्यसिद्धि:
जिन पुण्य और सुख और दुःख देनेवाला यह शरीर उत्पन्न किया है, उनका तो भोगने से ही क्षय होता है (ज्ञानवादी भी इसी सिद्धान्तपर श्रारूढ़ हैं ) ||१२|| काम्य-प्रतिनिषिद्धकर्मफलत्वात्संसारस्य तन्निरासेनैवाऽशेषाऽनर्थनिरासस्य सिद्धत्वात् किं नित्यानुष्ठानेनेति चेत्, तन्न; तदकरणादध्यानर्थक्यप्रसक्तः ।
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शङ्का - यह संसार काम्य तथा निषिद्ध कर्मोंका ही फल है, अतएव उनकी निवृत्तिसे ही सबकी निवृत्ति होगी । फिर नित्य कर्मों के अनुष्ठानसे क्या प्रयोजन है ? उत्तर- ऐसी शङ्का मत कीजिए । क्योंकि नित्यकर्म कि न करनेसे भी अनर्थका कारण 'पाप उत्पन्न होता है ।
नित्यानुष्ठानतश्चैनं प्रत्यवायो न संस्पृशेत् ।
अनादृत्यात्मविज्ञानमतः कर्माणि संश्रयेत् ॥ १३ ॥
अतएव नित्यकर्मो का श्राचरण करनेसे अधिकारी पुरुषको ( नित्यकमोंके न करने से उत्पन्न होनेवाला ) पाप नहीं लगता । इसलिए ( मोक्षप्राप्ति के लिए ) ग्रात्मज्ञानका श्रादर न करके कमौका ही ग्राश्रय लेना चाहिए || १३ ||
अभ्युपेत्यैवमुच्यते न तु यथावस्थितात्मवस्तुविषयं ज्ञानमस्ति, तत्प्रतिपादकप्रमाणाभावात् ।
*
।
यहां तक तो कर्मवादियोंने ब्रह्मज्ञानको स्वीकार करके ही उसको मुक्ति-प्राप्ति में अनावश्यक सिद्ध किया । अब वे लोग कहते हैं कि 'वास्तव में स्वत: सिद्ध श्रात्मवस्तुका ज्ञान कोई चीज़ ही नहीं है, क्योंकि उसकी सिद्धिमें कोई प्रमाण नहीं मिलता । जैसे किया यह विद्यन्ते श्रुतयः स्मृतिभिः सह । विदधत्युरुयत्नेन कर्मातो भूरिसाधनम् ॥ १४ ॥
जितनी श्रुति और स्मृतियाँ हैं वे सभी बड़ी तत्पर होकर कर्मका विधान करती हैं, इसलिए कर्म ही मोक्ष प्राप्तिका पर्याप्त साधन है ।
स्यात्प्रमाणासम्भवो भवदपराधादिति चेत्, तन्नः यतः
वेदान्त वाक्य तो "ज्ञान ही मुक्तिका साधन है, ऐसा प्रतिपादन करते हैं, परन्तु
१ 'अकुर्वन् विहतं कर्म निन्दितं च समाचरन् । प्रपक्तश्चेन्द्रियायें प्रायश्चित्तीयते नरः ॥' (म० स्मृ० ) ।
२ 'तमेव विदित्वाऽतिमृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय' इस श्रुति के अनुसार । ३ यावन्त्यः, भी पाठ है
1
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भाषानुवादसहिता श्राप उन वाक्योंका तात्पर्य न समझ कर ही ज्ञानमें प्रमाणांका अभाव बतलाते हो" ऐसी शङ्का यदि कीजिए, तो वह ठीक नहीं । क्योंकि--
यत्नतो वीक्षमाणोऽपि विधि ज्ञानस्य न क्वचित् ।
श्रुतौ स्मृतौ वा पश्यामि विश्वासो नान्यतोऽस्ति नः ॥१५॥ बड़े प्रयत्नपूर्वक अन्वेषण करनेपर भी श्रतियों और स्मृतियों में [ मुक्ति-प्राप्तिके लिए] जानका विधान हमें कहीं दृष्टिगोचर नहीं होता। और श्रुति-स्मृतियोंको छोड़कर अन्यत्र तो हम लोगोंको कहीं विश्वास है नहीं । ' स्यात्प्रवृत्तिरन्तरेणाऽपि विधि लोकवदिति चेत्, तन्नः यतः
यदि ऐमा शङ्का हो कि "जैसे भोजनादि कृत्योंमें शास्त्रीय विधि के विना रागसे ही, सर्वसाधारणकी प्रवृत्ति होती है। वैसे ही ज्ञानसे अज्ञान की निवृत्ति अनुनव-सिद्ध है । तब शास्त्रीय विधिके न होनेपर भी उसमें प्रवृत्ति हो सकती है तो यह भी उचित नहीं, क्योंकि [ यदि अज्ञाननिवृत्तिरूप मोक्ष दृष्ट फल होता, तब तो यह शङ्का उचित थी, परन्तु वह तो देहपातके अनन्तर होनेवाले कर्मफलके समान अष्टरूप है। अतएव गाम्नविधानके बिना ज्ञान उसका साधन नहीं माना जा सकता।]
अन्तरेण विधि मोहाद्यः कुर्यात्साम्परायिकम् ।
न स्यात्तदुपकाराय भम्मनीव हुतं हविः ॥ १६ ॥ शास्त्रविधान के बिना ही मोहवश यदि कोई अदृष्टार्थक-पारलौकिक कर्म करना है, तो उसका वह कृत्य भम्ममें दी हुई आहुतिके समान निरर्थक है ।। १६ ।।।
अभ्युपगतप्रामाण्यवेदार्थविज्जैमिन्यनुशासनाच्च । पूर्वोक्त मन्तव्य केवल युक्तियांसे ही सिद्ध होता है, ऐसी बात नहीं, किन्तु सम्पूर्ण ग्रास्तिक लोग जिनको प्रामाणिक मानते हैं और जो सभी वेदार्थ-ज्ञानाओंमें श्रेष्ठ है, वह महर्षि जैमिनि भी यही कहते हैं।
आम्नायस्य क्रियार्थत्वादानर्थक्यमितोऽन्यथा ।
इति माटोपमाहोचैर्वेद विज्जैमिनिः म्वयम् ॥ १७ ॥ “सम्पूर्ण वेद कमों का प्रतिपादन करते हैं। इसलिए जो वेदभाग इससे विपरीत है, वह निरर्थक है। इस प्रकार वदोंके तात्पर्य का जाननेवाले मर्पि जैमिनिजीने भी अपने "आम्नायम्य क्रियार्थत्वादानर्थक्यमतदर्थानां तस्मादनित्यमुच्यते" (मी०सू०१।२।१) इस सूत्रमें बड़े प्रयत्नपूर्वक समस्त वेदको कर्मका ही विधायक माना है ।। १७ ॥
मन्त्रवणाच्च । वेदके मन्त्र से भी यही बात सिद्ध होती है।
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नैष्कर्म्यसिद्धिः "कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतं समाः ।"
इति मन्त्रोऽपि निःशेषं कर्माण्यायुरवासृजत् ।। १८ ॥ "कर्म करता हुअा ही साधक अपनी आयु व्यतीत करनेकी इच्छा करे" इस प्रकार अध्यात्म-प्रकरण में पठित यह वेदमन्त्र भी सम्पूर्ण प्रायुको कर्म करने में ही नियुक्त करता है ॥ १८ ॥
ज्ञानिनश्च वस्तुनि वाक्यप्रामाण्याभ्युपगमाद् वाक्यस्य च क्रियापदप्रधानत्वात्ततश्चाभिप्रतज्ञानाभाव:----
ज्ञानवादियोंके मतमें भी ब्रह्मरूप सिद्ध वन्तुमें वाक्य ही प्रमाण है और वाक्य क्रियापदके बिना लोकमें अर्थका बोधक नहीं दीव पड़ता। इसलिए वाक्यमें क्रियापदको ही प्रधान मानना चाहिए । यदि वह प्रधान है तो वह क्रियाका ही प्रतिपादक है । इस प्रकार वाक्यका सम्बन्ध क्रियामे न रखकर उससे केवल जो ब्रह्मज्ञान अभिप्रेत है, वह कैसे हो सकता है ? क्योंकि
विरहय्य क्रियां नैव संहन्यन्ते पदान्यपि ।
न समस्त्यपदं वाक्यं यत्स्याज्ज्ञानविधायकम् ॥ १९ ॥
श्रोताओं को तत्तत् वस्तुओंका पृथक २ अपने अपने स्वरूपसे ज्ञान दूसरे प्रमाणांसे ही सिद्ध है, इसलिए इस प्रकारके ज्ञानको उत्पन्न कराने के लिए पदोंका प्रयोग करना निरर्थक होगा । अतएव जो अज्ञात है, उसीको समझाने के लिए पदोंका परस्पर सम्बन्ध किया जाता है, ऐसा मानना पड़ेगा और सत्र कारकांका परस्पर सम्बन्ध क्रियाके बिना सिद्ध नहीं होता। इस कारण क्रियाका ही बोध कराने में सब शब्दोंकी सामर्थ्य है । अतएवा
क्रियापदके बिना अन्य पदांका भी परम्पर सम्बन्ध नहीं हो सकता और ऐसा कोई भी वाक्य नहीं है जो पदेांके बिना ज्ञानका विधायक हो। ( ज्ञानका विधान तो क्या, पदोंके मिले बिना वह अपने स्वरूपको ही नहीं प्रात हो सकता। ) ॥ १६ ॥
ज्ञानाऽभ्युपगमेऽपि न दोपः, यतःज्ञानको मोक्षका साधन मान भी लिया जाय, तो भी कोई दोष नहीं है, क्योंकि
कर्मणोऽङ्गाङ्गिभावेन स्वप्रधानतयाऽथवा ।
सम्बन्धस्येह संसिद्धर्ज्ञाने सत्यप्यदोषतः ॥ २० ॥ ज्ञानको चाहे कर्मका अङ्ग मानो अथवा स्वतन्त्र मानो, दोनों ही प्रकारसे ज्ञान और कर्म मिलकर मोक्षके साधन हैं, केवल ज्ञान नहीं । इस प्रकार ज्ञानका कर्मके साथ अङ्गाजीभाव या समुच्चयरूप सम्बन्ध सिद्ध ही है ।
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है.
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भावानुवादसहिता यस्माज्ज्ञानाऽभ्युपगमाऽनभ्युपगमेऽपि न ज्ञानान्मुक्तिः
ज्ञानको मुक्तिका साधन मानिये या न मानिये, दोनों ही पक्षों में केवल ज्ञानसे मुक्ति नहीं होती, यह सिद्ध हुअा।
अतः सर्वाश्रमाणां हि वाङ्मनाकाबकर्मभिः ।
म्बनुष्ठितैर्यथाशक्ति मुक्तिः स्यानाऽन्यसाधनात् ।। २१ ।। इसलिए सभी आश्रमवाले पुरुषोंको मन, वचन, और शरीर द्वारा यथाशक्ति भली-भाँति कोंके आचरणसे ही मुक्ति प्राप्त हो सकती है, अन्य किसी साधनसे नहीं ।
[यहाँ तक ज्ञान और कर्म के समुच्चयको मोक्षका साधन माननेवालों की ओर से पूर्वपक्ष किया गया है । अब ]
असदर्थप्रलापोऽयमिति दूपणसम्भावनायाऽऽह
उपर्युक्त पूर्वपक्षमें दोष दिखलानेके लिए उसको 'वह व्यर्थ प्रलाप है, ऐसा कहते हैं
इति हृष्टधियां वाचः स्वप्रज्ञाध्मातचेतसाम् ।
घुष्यन्ते यज्ञशालासु धूमानवधियां किल ।। २२ ॥ 'कवल कर्मानुष्ठानसे ही हम लोगोंको स्वर्ग और मोक्षकी प्राप्ति हो जाएगी' इस प्रकारकी अाशायो से जिनकी बुद्धि प्रफुल्लित हो रही है, जिनका अन्तःकरण युक्ति एवं शास्त्रसे विरुद्ध अपनी ही कपोलकल्पनाओं से परिपूरित है, और जिनकी दृष्टि धुंएसे विकृत हुई है, अर्थात् यथार्थ वस्तुको सम्यक नहीं ग्रहण कर सकती है, ऐसे कर्मवादी लोगोंकी पूर्वोक्त बातें प्रायः यज्ञशालाओं में सुनाई देती हैं ॥ २२ ॥ . दूषणोपक्रमावधिज्ञापनायाऽऽह
पूर्वोक्त कर्मवादियों के पूर्वपक्षमें कहाँतक और किस किस प्रकारसे दोष दिग्वलाए जाएँगे, यह कहते हैं
अत्राऽभिदध्महे दोषान्क्रमशो न्याय हितैः ।
वचोभिः पूर्वपक्षोक्तिघातिभिर्नाऽतिसम्भ्रमात् ॥२३॥ अब 'केवल कर्म ही मुक्तिका साधन है, इस पूर्वपक्षकी प्रक्रियाका निराकरण करनेमें समर्थ तथा युक्तिपूर्ण वचनो के द्वारा ( असत् उत्तरका स्पर्श न करते ) क्रमशः दोपांका निरूपण करते हैं ॥ २३ ॥
चतुर्विधस्याऽपि कर्मकार्यस्य मुक्तावसंभवान्न मुक्तः कर्मकार्यत्वम्
उत्पत्ति, प्राप्ति, विकार और संस्कार इन चार प्रकारके कर्म-फलोंमेंसे मुक्ति कोई भी फल नहीं हो सकती, क्योंकि स्वरूपस्थितिरूप मुक्ति नित्यसिद्ध होनेके कारण अात्मरूप है । अतएव मुक्ति कम-साध्य नहीं हो सकती। और--
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नैष्कर्म्यसिद्धिः अज्ञानहानमात्रत्वान्मुक्तः कम न माधनम् । कर्माऽपमार्टि नाऽज्ञानं तमसीवोत्थितं तमः ॥ २४ ॥
अज्ञान निवृत्ति ही मुक्तिका स्वरूप है। इसलिए भी कर्म उसका साधन नहीं हो सकता । यदि कहिये कि "अज्ञानकी निवृत्ति कमसे क्यों नहीं होती ?' सो यह ठीक नहीं हैं। क्योंकि जैसे अन्धकारमें उत्पन्न हुए रज्जु-सर्प के भ्रमको अन्धकार नहीं दूरं कर सकता, वैसे ही अज्ञानोत्पन्न कर्म मी अज्ञानका नाश करने में असमर्थ है ।। २४ ।।
कर्मकार्यत्वाऽभ्युपगमेऽपि दोष एव-- मोक्षको कर्मका कार्य मान भी लिया जाय, तब भी अनेक दोष अाते हैं
एकेन वा भवेन्मुक्तिर्यदि वा सर्वकर्मभिः ।।
प्रत्येकं चेद् वृथाऽन्यानि सर्वभ्योऽप्येककर्मता ।। २५ ।। क्या एक कर्मका फल मोक्ष है या सम्पूर्ण कर्मोंका ? यदि एक कर्मका फल मोक्ष है, तब तो अन्य सब कर्म व्यर्थ हो जाएंगे और यदि सब कर्म मिल कर मोक्ष जनक हैं, नाना कर्मों के नाना फल जो श्रुतियांम कहे हैं, वे सब असङ्गत हो जाएँगे || २५ ।।
इसपर यदि कोई शङ्का करे कि " नित्य नैमित्तिक कर्मों का कोई फल अनिमें नहीं बतलाया है, इसलिए उन कर्मोकों फलकी अाकाङ्क्षा है । मोक्ष भी एक फल है। उसको भी साधनकी ग्राकाङ्क्षा है। इस प्रकार परस्परकी आकाइनास कम और मोक्षका साथ्य-साधनभाव परिशंषानुमानस सहजम सिद्ध होता है । तथा अन्य भी ऐसे बहुतसे कर्म हैं, जिनका फल कुछ भी नहीं बतलाया है । उनका मी मोक्षमें ही विनियोग हो जायगा।".तो यह भी ठीक नहीं है । क्योंकि ]
सर्वप्रकारस्याऽपि कर्मणः उत्पत्तित एव विशिष्टसाध्याभिसम्बन्धान पारिशेष्यसिद्धिः।
[विधिवाक्य इष्टसाधन काँका प्रतिपादन करते हैं, इष्ट साध्य पदार्थ को कहते हैं, परन्तु मोक्ष तो साध्य नहीं है । "अग्निहोत्रं जुहोति" (अग्निहोत्र करे ) इत्यादि विधिवाक्योंसे ही अग्निहोत्रादि किसी इष्टके साधन है, ऐसा सिद्ध हो जाता है और जिन विश्वजित् प्रादि कर्मोंका कोई फल विविवाक्यों में श्रुत नहीं है, उनका भी स्वर्ग ही फल है, ऐसा निर्णय महर्षि जैमिनिजीने किया है। इस कारण सब प्रकारके कर्माका उत्पत्ति-अपने अपने विधिवाक्यों-से ही किसी न किसी विशिष्ट साध्य फलके साथ अङ्गाङ्गीभावरूप सम्बन्ध पाया जाता है । अतएव परस्पराकाङ्क्षा न होनेके कारण परिशेषानुमानसे कर्म मोक्षका साधन नहीं सिद्ध हो सकता।
दुरितक्षपणार्थत्वान्न नित्यं स्याद्विमुक्तये । ‘स्वर्गादिफलसम्बन्धात् काम्यं कर्म तथैव न ॥ २६ ॥
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भावानुवादसहिता
१३
और ग्रापके (मीमांसकके) मतके अनुसार भी नित्यकर्मो का फल पापनाश और काम्य कर्मो का फल स्वर्गादि है । तब दोनों प्रकार के कर्म मोक्षके साधन कैसे हो सकते हैं ? ।। २६ ।।
प्रमाणासम्भवात्र
और मातृका साधन कर्म है, इस विषय में कोई प्रामण भी नहीं है । साध्यसाधनभावोऽयं वचनात्पारलौकिकः ।
नापं मोदं कर्म श्रुत्रात्कथञ्चन ॥। २७ ॥
साधनका परलोक में होनेवाले अर्थात् ग्ररूप फलके साथ ग्रङ्गाङ्गी भाव श्रुतिवचनों से सिद्ध होता है । परन्तु ऐसा कोई वचन श्रुति या स्मृति में हमने कहीं नहीं सुना, जिसमें कि कर्म मोका साधन है, ऐसा वर्णन किया हो ॥ २७ ॥ अभ्युपगताभ्युपमाच्च श्वश्रू निर्गच्छक्तिवत् भवतो निष्प्रयोजनः
प्रलापः ।
पूर्व में जो आपने निषिद्ध तथा काम्य कमका त्याग करना एवं नित्य कमांका निष्फल होना कहा है, इतना प्रपञ्च करके भी ग्रन्तमें आपको हमारा ही सिद्धान्त स्वीकार करना है । सुतराम् श्रापका यह सब कथन ऐसा ही निष्प्रयोजन प्रताप है जैसे कि कोई सास अपनी बहूकी किसी भिक्षुक से "यहाँ कुछ नहीं मिलेगा।" यह कहते सुनकर उससे कहे कि "तेरा घरमें क्या अधिकार हैं जो तू इस भिक्षुकसे कहती है कि यहाँ कुछ नहीं मिलेगा ? इस प्रकार का कलह कर पुनः उस भिक्षुकसे ( वह भी ) यही कहे कि " जाओ यहाँ कुछ नहीं मिलेगा ।" क्योंकि
निषिद्धकाम्ययोस्त्यागस्त्वयाऽपीष्टो मया यथा ।
नित्यस्याऽफलवत्त्वाच न मोक्षः कर्मसाधनः ॥ २८ ॥
निषिद्ध र काम्य कमका त्याग जैसे आपको इष्ट है, हम भी उसको वैसे ही मानते हैं, और नित्य कर्मों का फल कुछ नहीं है । इसलिए कर्म मोक्षका साधन नहीं हो
सकता ॥ २८ ॥
एवं तावन्मुक्तः क्रियाभिः सिद्धत्वादिति निरस्तोऽयं पक्षोऽथाऽधुना सर्वकर्मप्रवृत्तिहेतु निरूपणेन यथावस्थितात्मवस्तुविषय केवलज्ञानमात्रादेव सकल संसाराऽनथंनिवृत्तिरितीमं पक्षं द्रढयितुकाम आह
इस प्रकार 'कर्मसे ही मुक्ति सिद्ध है' इस पक्षका खण्डन हो चुका । अब आगे इसके अनन्तर सब प्रकार के कर्मोंमें प्रवृत्ति के कारणका विचार करते हुए 'नित्यसिद्ध आत्मवस्तुके ज्ञानसे ही सकल संसारके अनथकी निवृत्ति हो सकती है' इस पक्षको दृढ़ करनेके लिए कहते हैं ।
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नैष्कर्म्यसिद्धिः इह चेदं परीक्ष्यते- किं यथा प्रतिपिद्धेषु यादृच्छिकेषु च कममु स्वाभाविकम्वाशयोत्थनिमित्तवशादेवेदं हितमिदमहितमिति [विशेपान] परिकल्प्य मृगतृष्णिकोदकपिपासुरिव लौकिकप्रमाण सिद्धान्येव च साधनान्युपादाय इष्टप्राप्तयेऽहितनिवृत्तये च स्वयमेव प्रवर्तते निवतते च तथैवाऽदृष्टार्थेषु काम्येपु निन्येषु च कर्मसु, किंवाऽन्यदेव तत्र प्रवृतिनिमित्तमिति ।
यहाँ इस बातका भी विचार किया जाता है कि जैस निषिद्ध और या (स्वेच्छामात्रसे होनेवाले भोजनादि ) कमि शास्त्रविधान के बिना ही स्वाभाविक मिथ्याज्ञानसे उत्पन्न हुए रागद्वेषादिरूप प्रवृत्ति और निवृत्ति के कारणों से या हितकर है और यह अहितकर है। ऐसी कल्पना करके----मृगतृप्याक जलको पान करनेकी अभिलाषा करनेवाले मनुष्यके समान-लौकिक प्रमाण से सिद्ध माधनों की ग्रहणकर सुख प्राप्ति और दुःखनिवृत्तिके लिए यह पुरुष अपने ग्राप ही प्रवृत्त और निवृत्त होता है। क्या वैसे ही अदृष्टार्थ काम्य और नित्य कर्मों में भी प्रवृत्त और निवा होता है ? या उनमें प्रवृत्तिका कारण कोई दूसरा ही है ? ।
किश्चाऽतो यद्येवम् ? शृणु, यदि तावत् यथावस्थित वस्तुसम्यग्ज्ञानं प्रमाणभूतमागमिकं लौकिक वा प्रवृत्तिनिमित्तमिति निश्चयों निवृत्तिशास्त्रं च नाभ्युपगम्यते तदा हताः कर्मत्यागिनो भ्रान्तिविज्ञानमात्रावष्टम्भात् अलौकिकप्रमाणोपात्तकर्मानुष्ठानत्यागित्वाच्च । अथ मृगतृष्णिकोदकपिपासुप्रवृत्तिनिमित्तवदयथावस्तुभ्रान्तिविज्ञानमेव सर्वप्रवृत्तिनिमित्तं तदा वर्द्धमहे वयं हताःस्थ यूयमिति ।
शङ्का-यदि काम्य और नित्यकर्मोंमें भी मिथ्याज्ञानसे उत्पन्न रागद्वेषादि ही प्रवृत्तिके निमित्त हो अथवा अन्य कोई हो, इससे अापका क्या प्रयोजन सिद्ध होगा?
समाधान- [पूर्वोक्त विचारसे हमारा यह प्रयोजन यह है कि-] यदि वस्तु के अनुरूप होने के कारण जो अत्यन्त प्रामाणिक है, ऐसा वैदिक अथवा लौकिक यथार्थज्ञान ही कोंमें प्रवृत्तिका कारण है, ऐसा आपका निश्चय है। और निवृत्तिशास्त्र अर्थात् कर्मसंन्यास-विधायक शास्त्रको--आजीवन अग्निहोत्रादिकाँका विधान करनेवाले 'यावजीवमनिहोत्रं जुहोति' (.जबतक आयु हो, तब तक अमिहोत्र करे) शास्त्रसे विरुद्ध होनेके कारण कर्मोंमें~-अनधिकारी अन्धे, लूले, लँगड़े आदि लोगोंके लिए मानकर उसे सर्वसाधारण के लिए न माना जाय, तब तो कर्मत्यागियों को बड़ी स्वार्थहानि हुई। क्यों कि उनका सिद्धान्त भ्रान्तिमूलक टहर गया और वैदिक प्रमाणांसे
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भाषानुवादसहिता
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प्रतिपादित कमका अनुष्ठान भी उन्होंने छोड़ दिया ? और यदि मृगतृष्णिका जलके अभिलाषी मनुष्यकी प्रवृत्तिके समान यथार्थ ( जैसी वस्तु है उसके विपरीत होनेवाला ) भ्रान्तिज्ञान ही इन सत्र कर्मोंमें प्रवृत्तिका कारण है, तब हम लोगों का सिद्धान्त यथार्थ - ज्ञानमूलक और कर्मवादी लोगों का सिद्धान्त मिथ्याज्ञानमूलक सिद्ध होनेसे हम लोगों की विजय और यापकी हानि होगी ?
हितं सम्प्रसतां मोहादहितं च जिहासताम् । 'उपायान्प्राप्तिहानार्थान् शास्त्रं भासयते ऽर्कवत् ।। २९ ।।
शास्त्र हितकी प्राप्ति और हितका परित्याग करनेकी इच्छा करनेवाले ज्ञानके वशवर्ती लोगों को उनकी इच्छा के अनुसार प्रकाशमय सूर्य के समान मुखप्राप्ति और दुःखनिवृत्तिके उपायों को बतलाता है || २६ ॥ [ यहाँ यह बात
विचारने योग्य है कि सुपुप्तिदशामें विषयसम्बन्धी सुखके न रहनेपर भी उठने पर मैं अब तक सुखसे सोया' इस प्रकार के अनुभवसे ग्रात्माकी सुखरूपता अनुभव से सिद्ध है । सब प्राणियों का सत्र वस्तुओं से अपनी आत्मा अधिक प्रेम देखा जाता है और अधिक प्रेम सुखरूपमें होता है । इस प्रकार अनुमान प्रमाण से भी श्रात्माकी सुखरूपता निश्चित है। श्रुतियों में भी ग्रात्माकी नित्य निरतिशयानन्दरूपताका बार बार वर्णन किया है और श्रुतियोंसे ही उस आत्माकी कूटस्थता, ग्रसङ्गता और साक्षिता भी सिद्ध है । अतएव स्वभावसे ही सब प्रकार के दुःखो का आत्माम भाव है । इसलिए पूर्ववर्णित निरतिशय सुखस्वरूप आत्माके ग्रज्ञान से ही सुखप्राप्ति और दुःखनिवृत्तिकी इच्छा हुआ करती है । न कि शास्त्र मनुष्यों को "तुम लोग कर्त्ता और भोक्ता हो, तुम्हारे लिए कुछ वस्तु ग्रहण करने योग्य और कुछ वस्तु त्यागने योग्य हैं । इसलिए तुम्हें ग्रहण करने योग्यों का ग्रहण और त्यागने योग्य वस्तु के परित्यागकी इच्छा करनी चाहिए। और तुम लोग वर्ण, आश्रम, दशा (अवस्था) दिसे युक्त हो ।" ऐसा उपदेश देकर इस प्रकार उनमें कर्तृत्वादि धर्मोका नवीनतया उत्पादन करता है। बल्कि अपने आप ही विपरीत का अपने ऊपर आरोप करके अपने आप ही ग्रहण या त्याग करने योग्य वस्तुत्रों के ग्रहण और त्यागके उपायों को हूँढनेवाले मनुष्यों के लिए तत् तत् फलों के साथ तत् तत् कर्मोंके श्रङ्गाङ्गी भावका प्रतिपादन करता है । उनकी प्रवृत्ति और निवृत्तिका विधान करनेमें शास्त्र प्रवृत्त नहीं है किन्तु उदासीन है । ]
एवं तावत्प्रत्यक्षानुमानागमप्रमाणावष्टम्भादेवाऽऽत्मनो निरतिशयसुख हिताव्यतिरेक सिद्धरहितस्य च षष्ठ गोचरवत् स्वत एवाऽनभिसम्ब न्धात् । एवं स्वाभाव्यात्मानवबोधमात्रादेव हितं मे स्यादहितं मे मा भू
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tosर्म्यसिद्धिः
दिति मिथ्याज्ञानं तूपरशुक्तिकानवबोधोत्थ मिथ्याज्ञानवत्प्रवृत्तिनिमित्तमित्यवधारितम् । शास्त्र च न पदार्थशक्त्याधानकृदित्यस्यैवोत्तरत्र पञ्च आरभ्यते ।
इस प्रकार प्रत्यक्ष अनुमान तथा आगम इन तीन प्रमाणोंके बलसे ही आत्माकी न्यूनाधिक्यरहित सुखरूपता सिद्ध है और दुःखका सम्बन्ध -- अनुपलब्धि प्रमाणके विषय— भावके समान --न होने के कारण स्वभावसिद्ध दुःखसम्बन्धसे रहिन सुस्वरूप ग्रात्मवस्तु के ज्ञानसे 'मुझे सुख हो, दुःख न हो, ऐसा मिथ्याज्ञान ही मरुस्थल और शुक्तिमें उनके न जाननेसे उत्पन्न हुए ( जल और रजतरूप ) मिथ्याज्ञानके समानप्रवृत्ति और निवृत्तिका कारण है । शास्त्र किसी पदार्थ में नवीन शक्ति उत्पन्न नहीं करता किन्तु वह वस्तु की वर्तमान शक्तिको प्रकाशित करता है, यह निर्धारित किया गया । आगे इसी बात का विस्तार किया जाता है-
न परीप्सां जिहासां वा पुंसः शास्त्र' करोति हि । निजे एव तु ते यस्मात् पश्वादावपि दर्शनात् ॥
३० ॥
शास्त्र पुरुषोंकी किसी वस्तुमें इच्छा अथवा अरुचि उत्पन्न नहीं करता । किन्तु अपने स्वाभाविक अज्ञानवश ही वे हुआ करती हैं। क्योंकि शास्त्रीय ज्ञानके बिना भी पशु यादिमें इच्छा और द्वेष स्वभावतः देखे जाते हैं ॥ ३० ॥
उक्तं तावदनबुद्धवस्तुयाथात्म्य एव विधिप्रतिषेधशास्त्र ष्वधिक्रियत इति । अथाधुना विषयस्वभावानुरोधेन प्रवृत्त्यसंभवं वक्तुकाम आहजिस पुरुष को पने स्वरूपका ज्ञान है, वही विधि-निषेध शास्त्र में अधिकारी होता है, यह पहिले कहा जा चुका है । अत्र तत्त्वज्ञानके विषयभूत आत्मा के स्वरूपका विचार करने से भी कर्म में प्रवृत्ति नहीं हो सकती है, यह बात कहते हैंलिप्सतेऽज्ञानतो लब्धं कण्ठे चामीकरं यथा ।
वर्जितं च स्वतो भ्रान्त्या छायायामात्मनो यथा ॥ ३१ ॥ भयान्मोहावनद्धात्मा रक्षःपरिजिहीर्षति । यच्चापरिहृतं वस्तु तथाऽलब्धं च लिप्सते ॥ ३२ ॥
यह मनुष्य अज्ञानके कारण जो पहले से ही प्राप्त है, उसको भूले हुए कराट के हारके समान, प्राप्त करनेकी तथा भय या मोहसे अभिभूतमनवाला होकर ( भ्रान्ति से ) अपनी छाया में कल्पित राक्षसके समान, जो वस्तु कदापि नहीं प्राप्त है, उसको दूर करनेकी चेष्टा करता है । और जो वास्तव में अपनेसे अपरिहृत - चोर, व्याघ्र आदि हैं एवं अलब्ध-वित्तादि पदार्थ हैं उनका परित्याग एवं ग्रहण करनेकी इच्छा करता है || ३१-३२||
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भाषानुवादसहिता
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[ इस श्लोक में ग्रन्थकारने लोकप्रवृत्तिके चार भेद बतलाए हैं । १ ) जो वस्तु स्वयं ही प्राप्त है, अज्ञानवश उसकी प्राप्ति के लिए। जैसे कि भूले हुए कण्ठके हारकी प्राप्तिके लिए (२) जो वस्तु कदापि प्राप्त नहीं है, भ्रमवश उसको छोड़नेके लिए । जैसे कि भय के कारण अपनी छाया में कल्पित भूतकी निवृत्तिके लिए ( ३ ) जो वास्तवमें छोड़ने योग्य वस्तु है, उसके छोड़ने के लिए। जैसे कि पैर में लपटे हुए सर्प आदि को दूर करनेके लिए । और (४) जो यथार्थ में प्राप्त है उस वस्तुकी प्राप्ति के लिए। जैसे कि ग्रामादिकी प्राप्ति के लिए लोकमें प्रवृत्ति देखी जाती है । ] तत्रैतेषु चतुर्षु विषयेषु प्राप्तये परिहाराय च विभज्य न्यायः प्रदश्यते । अब इन चार विषयों में प्राप्ति और परिहार के लिए पृथक्-पृथक् युक्तिपूर्वक उपाय दिखलाया जाता है
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प्राप्तव्यपरिहार्येषु ज्ञात्वोपायान् श्रतेः पृथक् ।
कृत्वाऽथ प्राप्नुयात्प्राप्यं तथाऽनिष्टं जहात्यपि ॥ ३३ ॥
प्राप्त करने योग्य स्वर्गादि पदार्थो की प्राप्ति और त्यागने योग्य नरकादि पदार्थों के परिहार के लिए समर्थ तत् तत् उपयोंको शास्त्र द्वारा पृथक्-पृथक् जानकर ( अधिकारी ) पुरुष ( विधिपूर्वक अनुष्ठान करके उससे उत्पन्न हुए दृष्टसे ) इष्ट वस्तुकी प्राप्ति और निष्टका परित्याग करता है ॥ ३३ ॥
प्रधावशिष्टयोः स्वभावतः
वर्जितावाप्तयोबधाद्धानप्राप्ती न कर्मणा ।
मोहमात्रान्तरायत्वात् क्रियया ते न सिद्ध्यतः || ३४ ॥
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और बाँकी बचे हुए स्वाभाविक नित्यप्राप्त सुख और नित्यनिवृत्त दुःख, इन दोनों प्रकारके पदार्थोंकी प्राप्ति और निवृत्ति ज्ञानसे ही होती है । क्योंकि उनकी प्राप्ति और निवृत्ति में प्रतिबन्धक केवल अज्ञान हो है, इस कारण वे दोनों क्रिया द्वारा प्राप्त और निवृत्त नहीं हो सकते || ३४ ॥
कस्मात्पुनरात्मवस्तुयाथात्म्यावबोधमात्रादेवाभिलषितनिरतिशयसुखप्राप्ति- निःशेष- दुःखनिवृत्ती भवतः, न तु कर्मणेति ? उच्यते
किस कारण ऐसा कहा जाता है कि श्रात्मवस्तुके यथार्थज्ञानमात्रसे ही अभिलषित, निरतिशय ( तारतम्यरहित ) सुखकी प्राप्ति और निःशेष दुःखकी समूल निवृत्ति होती है, कर्म से नहीं ? इस शङ्काका समाधान करते हैं
कर्माज्ञानसमुत्थत्वान्नाऽलं
मोहापनुत्तये । सम्यग्ज्ञानं विरोध्यस्य तमिस्रस्यांऽशुमानिव ।। ३५ ।।
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नैष्कर्म्यसिद्धिः अज्ञानसे उत्पन्न होनेके कारण कर्म उसकी (अज्ञानकी) निवृत्ति करनेमें समर्थ नहीं है और तत्त्वज्ञान मिथ्याऽज्ञानका विरोधी है, इसलिए वह, अन्धकारको सूर्यके समान, मिथ्या-अज्ञानको नष्ट करने में समर्थ है ॥ ३५ ॥
। नन्वात्मज्ञानमप्यविद्योपादानं न हि शास्त्रशिष्याचार्याधनुपादायाऽऽत्मज्ञानमात्मानं लभत इति ।
__ शङ्का-आत्मज्ञानका उपादान कारण भी तो अविद्या ही है। क्योंकि शास्त्र, शिष्य और गुरु इत्यादि अज्ञानसे माने हुए वस्तुओंके बिना तो वह उत्पन्न ही नहीं होता। (जब वह स्वयं अज्ञानसे उत्पन्न हुआ है तब वह भी अज्ञानको कैसे नष्ट कर सकता है ?)
नैष दोषः । यत आत्मज्ञानं हि स्वतःसिद्धपरमार्थात्मवस्तुमात्राऽऽश्रयादेवाविद्यातदुत्पन्नकारकग्रामप्रध्वंसि, स्वात्मोत्पत्तावेव शास्त्राद्यपेक्षते नोत्पन्नमविद्यानिवृत्तौ । कर्म पुनः स्वात्मोत्पत्तावुत्पन्नं च । नहि क्रिया कारकनिःस्पृहा कल्पकोटिव्यवहितफलदानाय स्वात्मानं बिभर्ति, साध्यमानमात्ररूपत्वात्तस्याः । न च क्रियाऽऽत्मज्ञानवत् स्वात्मप्रतिलम्भकाल एव स्वर्गादिफलेन कर्तारं सम्बध्नाति । आत्मज्ञानं पुनः पुरुषार्थसिद्धौ नोत्पद्यमानस्वरूपव्यतिरेकेणान्यद्रूपान्तरं । साधनान्तरं वापेक्षते । कुत एतद्यतः। .
उत्तर-यह कोई दोष नहीं है। क्योंकि आत्मज्ञान स्वयंप्रकाश, वास्तवमें सत् रूप आत्मवस्तुको विषय करता हुआ उसीके बलसे अविद्या और उससे उत्पन्न हुई कारणसामग्रीको नष्ट करता है और केवल अपनी उत्पत्ति के लिए ही शास्त्रादिकी अपेक्षा करता है। उत्पन्न होनेपर अविद्याको नष्ट करने के लिए वह किसी दूसरेकी अपेक्षा नहीं करता। परन्तु कर्म तो अपनी उत्पत्तिके लिए और उत्पन्न होनेपर फल देनेके लिए भी अविद्याकी अपेक्षा करता है। कोई भी क्रिया अपने कारणकी (अविद्याका) अपेक्षा न रखती हुई करोड़ों कल्पोंके अनन्तर उत्पन्न होनेवाले फलको देनेके लिए अपने आत्माको-स्वरूपको-धारण नहीं कर सकती । क्योंकि क्रियाका स्वरूप सर्वदा ही परतन्त्र तथा साध्यमात्र ही है और वह आत्म-ज्ञानके समान उत्पन्न होते हो कर्ताको अपने द्वारा उत्पन्न होनेवाले स्वर्गादि फलोंसे संयुक्त नहीं करती; परन्तु आत्मज्ञान तो अज्ञाननिवृत्तिरूप मोक्षका सम्पादन करनेके लिए अपनी उत्पत्तिके अतिरिक्त अभ्यास या कर्म, किसीकी भी अपेक्षा नहीं करता।
[ शङ्का-द्वैतज्ञान अनादि कालसे चला आता है और उसके संस्कार भी अनादि
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भाषानुवादसहिता
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काल से हैं और तत्त्वज्ञान तो अभी उत्पन्न हुआ है, इसलिए वह अनादि काल से प्रवृत्त मिथ्या ज्ञानसे दब जायगा । अतः उसको अपनी स्थिति के लिए अभ्यासकी अपेक्षा अवश्य होनी चाहिए, परन्तु क्या कारण है जो वह अभ्यासकी अपेक्षा नहीं करता ? समाधान - ]
बलवद्धि प्रमाणोत्थसम्यग्ज्ञानं न बाध्यते ।
आकाङ्क्षते न चाऽप्यन्यद्बाधनं प्रति साधनम् || ३६ |
यह तत्त्वज्ञान प्रमाणसे उत्पन्न होनेके कारण प्रबल है, इसलिए मिथ्याज्ञानसे बाधित नहीं होता और प्रबल होनेके कारण ही वह मिथ्याज्ञानके संस्कारोंको नष्ट करने में किसी दूसरे सहायककी अपेक्षा भी नहीं करता || ३६ ॥
स्वपक्षस्य हेत्ववष्टम्भेन समर्थितत्वान्निराशङ्कमुपसंह्रियते ।
प्रबल प्रमाणोंसे अपने पक्षका समर्थन करके अत्र निःशङ्क होकर अग्रिम श्लोकसे उपसंहार किया जाता है
तस्मादुःखोदधेर्हेतोरज्ञानस्याऽपनुत्तये ।
सम्यग्ज्ञानं सुपर्याप्तं क्रिया चेनोक्तहेतुतः || ३७ ॥
पूर्वोक्त करणोंसे दु.ख- समुद्र के कारण अज्ञानको दूर करने के लिए तत्त्वज्ञान ही समर्थ है, पूर्वोक्त दोषोंके कारण कर्म नहीं ॥ ३७ ॥
ननु बलवदपि सम्यग्ज्ञानं सदप्रमाणोत्थेनाऽसम्यग्ज्ञानेन बाध्यमानमुपलभामहे । यत उत्पन्नपरमार्थबोधस्याऽपि कर्तृत्वभोक्तृत्वरागद्वेषाद्यनवबोधोत्थप्रत्यया आविर्भवन्ति । न ह्यबाधिते सम्यग्ज्ञाने तद्विरुद्धानां प्रत्ययानां सम्भवोऽस्ति ।
प्रमाण से उत्पन्न हुए मिथ्याज्ञानसे सांसारिक पुरुषोंके समान ज्ञानसे
शङ्का - तत्त्वज्ञान अत्यन्त प्रबल होनेपर भी बाधित होते देखा जाता है । क्योंकि तत्त्वज्ञानीको भी उत्पन्न कर्तृत्व, भोक्तृत्व, राग, द्वेष इत्यादि भावनाएँ उत्पन्न होती हैं। बिना तत्त्वज्ञानके बाधित हुए तो उसके विरुद्ध यह सब मिथ्याज्ञान हो ही नहीं सकते ? ( इसलिए तत्त्वज्ञान का मिथ्याज्ञानसे बाध अवश्य होता है ? )
नैतदेवम् । कुतः -
बाधितत्वादविद्याया विद्यां सा नैव बाधते ।
तद्वासना निमित्तत्वं यान्ति विद्यास्मृतेर्भुवम् ॥ ३८ ॥
समाधान- ( आपके कथनानुसार ) तत्त्वज्ञान मिथ्याज्ञानसे बाधित नहीं होता । क्योंकि तत्त्वज्ञान से अविद्या बाधित अर्थात् नष्ट हो जाती है, इसलिए वह उसका
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नैष्कर्यसिद्धिः बाध नहीं कर सकती, प्रत्युत तत्त्वज्ञानके संस्कारोंसे बारम्बार उसीका स्मरण निश्चयरूपसे होता रहता है। इससे यदि कभी द्वैतका स्मरण हो भी जाय तो भी मिथ्याअज्ञान तत्वज्ञानका बाध नहीं कर सकता ॥ ३८॥
"कर्माऽज्ञानसमुत्थत्वादि"-त्युक्तो हेतुस्तस्य च समर्थनं पूर्वमेवाऽभिहितं-“हितं सम्प्रप्सतामि"-त्यादिना । तदभ्युच्चयार्थमविद्यान्वयेन च संसारान्वयं प्रदर्शयिष्यामीत्यत आह
___ "कर्म अज्ञानको नहीं नष्ट कर सकता” इस प्रतिज्ञाकी पुष्टि के लिए 'कर्माऽज्ञानसमुत्थत्वात्. इस ( ३५ वें) श्लोकमें हेतुका वर्णन किया और उसका समर्थन भी ‘हितं सम्प्रेप्सताम्' (२८) इत्यादि श्लोकोंसे पूर्व ही कर दिया। अब 'कर्म मिथ्याअज्ञानको उत्पन्न करता हुआ फिर भी कर्ममें ही प्रवृत्त करता है। इस कारणसे भी कम मिथ्याऽज्ञानका नाशक नहीं हो सकता' यह दूसरी युक्ति अग्रिम श्लोकसे दिखलाते हैं
ब्राह्मण्याद्यात्मके देहे लात्वा नाऽऽत्मेति भावनाम् ।
श्रुतेः किङ्करतामेति वामनःकायकर्मभिः ॥ ३९ ॥ यह पुरुष वर्ण, अाश्रम, आयु, अवस्था इत्यादिसे युक्त देहमें 'यही अात्मा है' ऐसा आरोप करके वाणी, मन तथा शरीर द्वारा कर्म करता हुआ वेदशास्त्रोंका किङ्कर बन जाता है ॥ ३९ ॥
यस्मात्कर्माऽज्ञानसमुत्थमेव, तस्मात्तद्वयावृत्तौ निवर्तत इत्युच्यते ।
क्योकि कर्म अज्ञानसे ही उत्पन्न हुअा है, इस कारण अज्ञानकी निवृत्तिसे ही वह निवृत्त होता है, यह कहते हैं
दग्धाखिलाऽधिकारश्चेद् ब्रह्मज्ञानाग्निना मुनिः ।
वर्तमानः श्रुतेमूनि नैव स्याद्वेदकिङ्करः ॥ ४० ॥
ब्रह्मज्ञानरूप अग्निसे जिस पुरुषका कर्मप्रवाह दग्ध हो गया है, ऐसा मननशील महात्मा तो वेदशास्त्रों के मस्तकपर प्रारूढ होता हुआ फिर उनका किङ्कर-दास-नहीं रह सकता ॥ ४० ॥
अथेतरो घनतराऽविद्यापटलसंवीतान्तःकरणोऽङ्गीकृतक त्वाद्यशेषकर्माधिकारकारणो विधिप्रतिषेधचोदनासंदंशोपदष्टः कर्मसु प्रवर्तमानः
और ब्रह्मज्ञानीसे भिन्न-अन्य संसारी पुरुष, जिसका कि अन्त:करण गाढ़ अकि. द्यारूप अन्धकारसे आच्छादित है, जिसने कर्मप्रवाह के प्रधान कारण 'मैं कर्ता हूँ', 'मैं भोक्ता हूँ' इत्यादि अभिमानोंको अङ्गीकार किया है और जो 'यह करना चाहिए' 'यह नहीं करना चाहिए' इत्यादि विधि और निषेधरूप सँड़सीसे जकड़ा हुआ कर्मों में प्रवृत्त हो रहा है, वह
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भाषानुवादसहिता
शुभैराप्नोति देवत्वं निषिद्धैर्नारिकीं गतिम् ।
उभाभ्यां पुण्यपापाभ्यां मानुष्यं लभतेऽवशः ॥ ४१ ॥
शुभ कर्मों से देवादिभाव, अशुभ कर्म से नरक गति और शुभाशुभ - मिश्रितकर्मों से मनुष्य शरीरको विवश होकर प्राप्त होता है ।
स्तम्बपर्यन्ते घोरे दुःखोदधौ घटीयन्त्रवदारोहावरोहन्यायेनाऽधममध्यमोत्तम सुख दुःखमाह विद्युच्चपलसम्शतदायिनीर्विचित्रयोनीश्चण्डोत्पिञ्ज्ञ्जलकश्वसनवेगाभिहताम्भोनिधि-मध्यवर्तिशुष्कालाबुवच्छु
२१
भाशुभव्यामिश्रकर्म वायुसमीरितः
ब्रह्मासे लेकर तृणपर्यन्त भयङ्कर दुःखरूप संसारसमुद्र में, जिस प्रकार कुएँ में चलते हुए रहटके छोटे छोटे घड़े कभी ऊपर और कभी नीचे जाते हैं; इसी प्रकार विजली की चमक के समान क्षणिक सुख, दुःख और मोहको उत्पन्न करनेवाली, नाना प्रकारकी विचित्र अधम, मध्यम और उत्तम योनियोंको ग्रहण करता हुआ, प्रचण्ड एवं झकोर डालनेवाले वायुके वेगसे चपेटा हुआ, समुद्र में पड़े हुए सूखे तुंबे के समान- शुभ, अशुभ एवं सम्मिलित कर्मरूप वायुसे इतस्ततः प्ररित होकर इतस्ततः भटकता हुआचङ्क्रम्यमाणोऽयमविद्याकामकर्मभिः ।
एवं
पाशितो जायते कामी म्रियते चाऽसुखावृतः ॥ ४२ ॥
विद्या, पूर्ववासना तथा पुण्यपाप रूप कर्मसे बाँधा ( फाँसा ) हुआ कामी
पुरुष सुख-दु:खोंसे घेरा हुआ जन्म लेता और मरता रहता है ॥ ४२ ॥ दरविधानाय प्रमाणोपन्यासः
यथोक्तं
पूर्वोक्त विषयमें जिज्ञासुयोंका अधिक दर उत्पन्न करनेके लिए अग्रिम श्लोक द्वारा उसमें प्रमाण देते हैं
।
श्रुतिश्चेमं जगादार्थ कामस्य विनिवृत्तये । संसृतिर्यस्मात्तनाशोऽज्ञानहानतः ॥ ४३ ॥
तन्मूला
श्रुति भी कामनाओं के परित्याग करनेके लिए इसी अर्थ - विषय - का वर्णन करती है । "क्योंकि यह सारा संसार अज्ञानका कार्य है, अतः ज्ञानका नाश होनेसे यह नष्ट होता है" ।
का त्वसौ श्रुतिरिति चेत् ?
शङ्का - वह श्रुति कौनसी है ? -
"यदा सर्वे प्रमुच्यन्त" " इतिन्वि " ति च वाजिनः । कामबन्धनमेवेदं व्यासोऽप्याह पदे पदे ॥ ४४ ॥
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नैष्कर्म्यसिद्धिः
उत्तर --
- " यदा सर्वे प्रमुच्यन्ते कामा येऽस्य हृदि स्थिताः ।" यह तथा " इति नु कामयमान” इत्यादि वृहदारण्यक - श्रुति 'कामनाओं के छूट जानेपर यह पुरुष ब्रह्मको प्राप्त हो जाता है' इसी सिद्धान्तका प्रतिपादन करती है और भगवान् श्रीव्यास भी जहाँहाँ यही बात कहते हैं ॥ ४४ ॥
एवं संसारपन्था व्याख्यातः । अथेदानीं तद्वद्यावृत्तये कर्माण्यारादुपकारकत्वेन यथा मोक्षहेतुतां प्रतिपद्यन्ते तथाऽभिधीयते ।
यह संसार के कारणका, व्याख्यान किया गया। इसके अनन्तर श्रम उससे छुटकारा पाने के लिए 'कर्म किस प्रकार परम्परासे मोक्ष के साधक हो सकते हैं यह प्रतिपादन किया जाता है
२२
तस्यैवं दुःखतप्तस्य कथञ्चित् पुण्यशीलनात् । नित्येहाक्षालितधियो वैराग्यं जायते हृदि ।। ४५ ।।
इस प्रकार दुःख से सन्तप्त मनुष्यके हृदय में, किसी प्रकार पुण्यशील हो जानेम नित्यकर्मानुष्ठानके प्रभावसे चित्तकी शुद्धि होनेसे वैराग्य उत्पन्न हो जाता है || ४५ ॥ कीवैराग्यमुत्पद्यत इति, उच्यते
किस प्रकारका वैराग्य उत्पन्न होता है, यह अग्रिम श्लोकसे कहते हैं
नरकाद्भीर्यथाऽस्याऽभूत्तथा काम्यफलादपि । यथार्थदर्शनात्तस्मान्नित्यं कर्म चिकीर्षति ॥ ४६ ॥
जिस प्रकार इस साधक पुरुषको नरकसे भय हुआ करता था, उसी प्रकार काम्यकर्मों के फल से भी "यह अनित्य है और तारतम्यसे युक्त है" इस प्रकारके यथार्थ ज्ञानसे, उसको भय होता है। इसलिए फिर वह ( काम्यकर्मोंको छोड़कर ) केवल नित्यकर्म करनेकी इच्छा करता है ॥ ४६ ॥
एवं नित्यनैमित्तिककर्मानुष्ठानेन -
शुद्धयमानं तु
तच्चित्तमीश्वरार्पितकर्मभिः |
वैराग्यं ब्रह्मलोकादौ व्यनक्त्यथ सुनिर्मलम् ॥ ४७ ॥
इस प्रकार नित्य और नैमित्तिक कर्मोंको ईश्वरार्पण करनेसे चित्त शुद्धिक द्वारा ब्रह्मलोक पर्यन्त समस्त अनात्म वस्तु अतीव निर्मल – विशुद्ध-वैराग्य हो जाता है ॥ ४७ ॥
यस्माद्र जस्तमोमलोपसंसृष्टमेव चित्तं कामवडिशेनाऽऽकृष्य विषय दुरन्तसूनास्थानेषु निः क्षिप्यते, तस्मान्नित्यनैमित्तिक कर्मानुष्ठानपरिमार्जनेनापविद्धरजस्तमोमलं प्रसन्नमनाकुलं सम्मार्जितस्फटिकशिला
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भाषानुवादसहिता . कल्पं बाह्यविषयहेतुकेन च रागद्वेषात्मकेनाऽतिग्रहबडिशेनाऽनाकृष्यमाणं निधूताशेषकल्मषं प्रत्यङ्मात्रप्रवणं चित्तदर्पणमवतिष्ठतेऽत इदमभिधीयत
क्योंकि रजोगुण और तमोगुणके मलसे मलिन हुअा चित्त ही, काँटेमें लगे आटेसे आकृष्ट हुई मछलीके समान, कामनाओंसे खिंचकर शब्द, स्पर्शादि विषयरूप हिंसाके स्थानों में फेंका जाता है । इसलिए जब नित्य तथा नैमित्तिक कर्मों के अनुष्ठानरूप मार्जनसे रजोगुण और तमोगुणके मलसे रहित हो जानेके कारण प्रसन्न, प्रशान्त एवं धोई हुई स्फटिक शिलाके समान अतीव स्वच्छ, बाह्य विषयोंमें उत्पन्न हुए रागद्वेषरूप महान् बन्धनकारी बडिशां (बंसी) द्वारा नहीं खींचा जाता हुअा तथा समस्त पाप से रहित और केवल एक आत्माकी अोर ही झुका हुआ चित्तरूप दर्पण स्थिर हो जाता है; तब यह कहा जाता है कि
व्युत्थिताशेष कामेभ्यो यदा धीरवतिष्ठते ।
तदैव प्रत्यगात्मानं स्वयमेवाऽऽविविक्षति ॥ ४८ ।। जिस समय बुद्धि समस्त कामनाओंसे हटकर शुद्ध और स्थिर हो जाती है, उस समय वह अपने आप ही आत्माकी ओर प्रविष्ट होने लगती है ॥ ४८ ॥
अतः परमवसिताधिकाराणि कर्माणि प्रत्यक्प्रवणतासूनौ कृतसम्पत्तिकानि चरितार्थानि सन्ति
बुद्धि शुद्ध होने के अनन्तर कर्मोका सब कृत्य समाप्त हो जाता है। इसलिए वे बुद्धि को आत्माकी ओर आकर्षण करके (झुका करके ) अर्थात् उन्हें अपने सब कार्य सौंपकर कृतार्थ हो जाते हैं
प्रत्यक्प्रवणतां बुद्धः कर्माण्युत्पाद्य शुद्धितः ।
कृतार्थान्यस्तमायान्ति प्रावृडन्ते घना इव ॥ ४९ ।।
(इस प्रकार) कर्म बुद्धिको शुद्ध करके उसे आत्माकी ओर लगाके कृतार्थ होकर वर्षा ऋतुके अन्तमें मेघोंके समान अस्त हो जाते हैं ॥ ४६ ॥
यतो नित्यकर्मानुष्ठानस्यैष महिमातस्मान्मुमुक्षुभिः कार्यमात्मज्ञानाभिलाषिभिः ।
नित्यं नैमित्तिकं कर्म सदैवाऽऽत्मविशुद्धये ॥ ५० ॥
क्योंकि यह बुद्धिका शुद्ध होना आदि सब नित्य कर्मके अनुष्ठानकी ही महिमा है, इसलिए अात्मज्ञानके अभिलाषी मुमुक्षुओंको अपने अन्तःकरएकी शुद्धिके लिए नित्य और नैमित्तिक कर्माका अनुष्ठान सर्वदा ही करना चाहिए ॥ ५० ॥
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नैष्कर्म्यसिद्धिः यथोक्तेऽर्थे सर्वज्ञवचनं प्रमाणम् । कहे हुए विषयमें सर्वज्ञ भगवान् श्रीकृष्ण के वचनको प्रमाणरूपसे उद्धृत करते हैं
आरुरुक्षोमनेयोगं कर्म कारणमुच्यते । योगारूढस्य तस्यैव शमः करणमुच्यते ॥ ५१ ॥
जो तत्त्वज्ञान के साधन ध्यानयोगको प्राप्त करनेकी इच्छा तो करता है, पर उसका अनुष्ठान करने में समर्थ नहीं है ऐसे साधकके लिए कर्म साधन है और योगानुष्ठानमें समर्थ उसी योगीके लिए शम (संन्यास योग) अर्थात् कमेंका त्याग ही साधन है ॥५१॥
नित्यनैमित्तिककर्मानुष्ठानाद्धर्मोत्पत्तिः, धर्मोत्पत्तेः पापहानिः ततश्चित्तशुद्धिःततः संसारयाथात्म्यावबोधः, ततो वैराग्यम् , ततो मुमुक्षुत्वम्, ततस्तदुपायपयेषणम्, ततः सर्वकर्मतत्साधनसंन्यासः, ततो योगाभ्यासः, ततचित्तस्य प्रत्यप्रवणता, ततस्तत्वमस्यादिवाक्यार्थपरिज्ञानम् ,ततोऽविद्योच्छेदः, ततश्च स्वात्मन्येवाऽवस्थानम् । ब्रह्मैव सन् ब्रह्माप्येति', 'विमुक्तश्च विमुच्यते" इति ।
पारम्पर्येण कमैवं स्यादविद्यानिवृत्तये ।
ज्ञानवन्नाविरोधित्वात्कर्माऽविद्यां निरस्यति ॥५२॥ नित्य और नैमित्तिक कर्मों के अनुष्ठानसे धर्मोत्पत्ति, धर्मात्पत्ति से पापोंका नाश, पापनाशसे चित्तकी शुद्धि, चित्तशुद्धिसे संसारके वास्तविकरूपका बोध, संसारके यथार्थ स्वरूपके ज्ञानसे संसारसे वैराग्य, वैराग्यसे मुक्ति प्राप्त करनेकी (संसार-बन्धनोंसे छूटनेकी) इच्छा, मुक्तिप्राप्ति की इच्छासे उसके उपायका अन्वेषण, उससे सम्पूर्ण कर्म और उनके साधनोंका परित्याग, तदनन्तर योगाभ्यास, योगाभ्याससे चित्तकी प्रत्यक्प्रवणता अर्थात् चित्तका यात्माकी ही अोर लगना, उससे 'तत्त्वमसि' ( वही तू है ) इत्यादि वाक्यांके अर्थभूत शुद्धब्रह्मका साक्षात्कार, साक्षात्कारसे अविद्याकी निवृत्ति और और अविद्याकी निवृत्तिसे केवल अात्मस्वरूपसे परमात्मामें स्थिति होती है। जैसा कि अति प्रतिपादन करती है"ज्ञान होनेके पूर्व भी ब्रह्मरूपमें स्थित अात्मा ब्रह्म ही को प्राप्त हो जाता है ।" "और मुक्त हुआ ही ज्ञान होनेपर मुक्त हो जाता है।" इस प्रकार कर्म परम्परासे अविद्याके नाशमें कारण हो सकता है। परन्तु ज्ञानके समान अविद्याका विरोधी न होनेके कारण अज्ञानकी निवृत्तिका साक्षात्कारण वह नहीं हो सकता ॥ ५२ ॥
न च कर्मणः कार्यमण्वपि मुक्तौ सम्भाव्यते, नापि मुक्तौ यत्सम्भवति तत्कर्माऽपेक्षते । तदुच्यते
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भाषानुवादसहिता
२५
कर्मका प्रयोजन अणुमात्र भी मुक्ति में सम्भावित नहीं है और जो मुक्ति में सम्भावित है 'स्वरूपमें स्थित होना' वह कर्म की अपेक्षा नहीं रखता। इसलिए यह कहा जाता है - उत्पाद्यमाण्यं संस्कार्यं विकार्य च क्रियाफलम् ।
नैवं मुक्तिर्यतस्तस्मात्कर्म तस्या न साधनम् ॥ ५३ ॥
मुक्ति उत्पाद्य, प्राप्य, संस्कार्य और विकार्य, ऐसे चार प्रकारके कर्म-फलों में से कोई भी नहीं हो सकती । इसलिए कर्म उसका साधन नहीं हो सकता ॥ ५३ ॥
एवं तावत् केवलं कर्म साचादविद्यापनुत्तये न पर्याप्तमिति प्रपञ्चितम् मुक्तौ च मुमुक्षुज्ञानतद्विपयस्वाभाव्यानुरोधेन सर्वप्रकारस्यापि कर्मणोऽसंभव उक्तो 'हितं सम्प्रप्सतामि' त्यादिना । यादृशवाऽऽरादुपकारकत्वेन ज्ञानोत्पत्तौ कर्मणां समुचयः संभवति तथा प्रतिपादितम् | अविघोच्छित्तौ तु लब्धात्मस्वभावस्याऽऽत्मज्ञानस्यैवाऽसाधारणं साधकतमत्वं नाsन्यस्य प्रधानभूतस्य गुणभूतस्य वेत्येतदधुनोच्यते ।
इस प्रकार केवल कर्म साक्षात् सम्बन्ध से विद्याका नाश करनेके लिए समर्थ नहीं है, यह विस्तारपूर्वक निरूपण किया गया । नित्य कर्म-फल से विरक्त होना मुमुक्षुका स्वभाव है, प्रमाण एवं वस्तुके परतन्त्र होने के कारण अविद्याको निवृत्त करना ज्ञानका स्वभाव है और कूटस्थ होनेके कारण साध्य न होना यह ज्ञानके विषय - आत्माका स्वभाव है । इन कारणोंसे मुक्ति में किसी प्रकारके भी कर्मका कारण ( साधन) होना असंभव है, यह “हितं सम्प्रेप्सताम्” (२८) इत्यादि श्लोकांसे प्रतिपादन किया गया । और परम्परासम्बन्धसे ज्ञानोत्पत्ति में उपकारक होनेके कारण कर्मका ज्ञानके साथ समुच्चय जिस प्रकार हो सकता है, वह भी प्रतिपादन कहा किया गया । परन्तु श्रविद्याकी निवृत्ति करने में तो अपने स्वरूपको प्राप्त हुया दृढ़ ग्रात्मज्ञान ही प्रधान कारण है, उसका कोई दूसरा प्रधान या गौण भावसे सहायक नहीं है, इस बातका निरूपण अत्र आगे किया जाता है। . तत्र ज्ञानं गुणभूतं तावदहेतुरित्येतदाह
उसमें से प्रथम मुक्ति-प्राप्ति में ज्ञान गौणतावसे और कर्म प्रधानभाव से साधन है, इस पक्ष का निरास करते हुए कहते हैं---
सन्निपत्य न च ज्ञानं कर्माज्ञानं निरस्यति ।
साध्यसाधनभावत्वादेककालोनवस्थितेः ॥ ५४ ॥
ज्ञान कर्मका अङ्ग होकर विद्याकी निवृत्ति नहीं कर सकता, क्योंकि कर्म अन्तःकरण शुद्धि द्वारा ज्ञानका साधन है, इसलिए : साध्यभूत ज्ञानके साथ उसकी एककाल में स्थिति न होनेसे ज्ञान और कर्मका अङ्गाङ्गी भाव हो नहीं सकता || ५४ ॥
४
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नैष्कर्म्यसिद्धिः समप्रधानयोरप्यसम्भव एव
कर्म और ज्ञान दोनोंका समप्रधानभाव (अर्थात् मोक्ष-सिद्धिमें कर्म और ज्ञान दोनोंकी तुल्यबलता ) भी नहीं हो सकता, क्योंकि
बाध्यबाधकभावाच्च पञ्चास्योरणयोरिव ।
एकदेशानवस्थानान्न समुच्चयता तयोः ॥ ५५ ॥ जिस प्रकार सिंह और मेषका ( मेड़का) परस्पर विरोध होनेके कारण एक स्थानपर रहना असम्भव है। वैसे ही ज्ञान और कर्मका बाध्यवाधक भाव (अर्थात् ज्ञान कर्मका बाधक और कर्म ज्ञानसे बाध्य ) होने के कारण, ये दोनों एक ही समय एक पुरुष में रह ही नहीं सकते, इसलिए समप्रधानभाव भी नहीं हो सकता ॥ ५५ ॥
कुतो बाध्यबाधकभावः, यस्मात् शङ्का-इन दोनोंका-कर्म और ज्ञानका बाध्य-बाधकभाव क्यों है ?
अयथावस्त्वविद्या स्याद्विद्या तस्या विरोधिनी ।
समुच्चयस्तयोरेवं रविशावरयोरिव ॥ ५६ ॥ समाधान-चूंकि अज्ञान मिथ्यावस्तुविषयक है और ज्ञान उसका विरोधी है ! इसलिए सूर्य और अन्धकारके समान इन दोनोंका समुच्चय हो नहीं सकता ॥ ५६ ।।
तस्मादकारकब्रह्मात्मनि परिसमाप्तावबोधस्याऽशेषकर्मचेदना नाम चोद्यस्वाभाव्यात्कुण्ठिता, कथम् ताभिधीयते
____ कर्ता, कर्म तथा करण आदि कारकोंके लक्षणोंसे रहित अर्थात् जो वास्तव में किसीका का, कर्म या करण आदि नहीं हो सकता ऐसे ब्रह्म वस्तुका ज्ञानके द्वारा जिसने साक्षात्कार कर लिया है, उस पुरुषको कर्ममें प्रवृत्त करानेमें सम्पूर्ण विधिनिषेध शास्त्र कुण्ठित-स्वभाव हो जाते हैं । इसका कारण क्या है ? यह दृष्टान्त द्वारा बतलाते हैं
बृहस्पतिसवे यद्वत् क्षत्रियो न प्रवर्तते ।
ब्राह्मणत्वाद्यहंमानी विप्रो वा क्षात्रकर्मणि ॥ ५७ ॥ जैसे क्षत्रियत्वका अभिमान रखनेवाले पुरुषकी ब्राह्मण के लिए विहित बृहस्पतिसव नामक यागमें प्रवृत्ति नहीं होती और ब्राह्मणत्वका अभिमान रखनेवाले की प्रवृत्ति भी क्षत्रियोचित-राजसू यादि-कर्ममें नहीं होती ॥ ५७ ॥
यथाऽयं दृष्टान्त एवं दार्टान्तिकोऽपीत्याहजैसा यह दृष्टान्त है, वैसा ही दाष्टीन्तिक भी है, यह कहते हैं
विदेहो वीतसन्देहो नेतिनेत्यवशेषितः । देहाधनात्मक तद्वत् तक्रियां वीक्षतेऽपि न ।। ५८ ॥
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भाषानुवादसहिता इसी प्रकार, जिस पुरुषका देहाभिमान तथा सम्पूर्ण सन्देह नष्ट हो गये हैं, जो 'नेति नेति' इत्यादि श्रुति-वाक्यों द्वारा अनात्म वस्तुओंका बाध करके केवल आत्मस्वरूपमें स्थित है, वह (निरभिमान एवं निःसन्दिग्ध ) पुरुष अनात्माकी-देहादि कोक्रियाओंको देखता तक नहीं है ॥ ५८ ॥
तस्याऽर्थस्याऽऽविष्करणार्थमुदाहरणम्
देहादिमें मिथ्याभिमानवालेकी ही प्रवृत्ति होती है, अभिमान-रहितकी नहीं । इस विपयको दृष्टान्त द्वारा समझाते हैं
मृत्स्नेमके यथेभत्वं शिशुरध्यस्य बल्गति ।
अध्यस्याऽऽत्मनि देहादीन् मूढस्तद्वद्विचेष्टते ॥ ५९ ।। जैसे मिट्टीके हाथीमें (खिलौनेमें ) यह हाथी है, ऐसा आरोप करके बालक क्रीडा करता है ऐसे ही अज्ञानी पुरुष अनात्म देहादि वस्तुओंका आत्मामें अारोप . कर नाना प्रकारकी चेष्टाएँ करता है ॥ ५९ ॥
न च वयं ज्ञानकर्मणोः सर्वत्रैव समुच्चयं प्रत्याचक्ष्महे, यत्र प्रयोज्यप्रयोजकभावो ज्ञानकर्मणोस्तत्र नाऽम्मत्पित्राऽपि शक्यते निवारयितुम् । तत्र विभागप्रदर्शनायोदाहरणं प्रदश्यते
हम सर्वत्र ही ज्ञान और कर्मके समुच्चयका खण्डन नहीं करते, क्योंकि जहाँपर उनका अङ्गाङ्गी भाव है, वहाँ हमारे पिताजी भी उनके समुच्चयका वारण नहीं कर सकते ? किस जगहपर ज्ञान और कर्मका अङ्गाझी भाव है ? इसका निरूपण करने के लिए उदाहरण दिखलाते हैं
स्थाणुं चोरधियाऽऽलाय भीतो यद्वत्पलायते ।
बुद्धयादिभिस्तथाऽऽत्मानं भ्रान्तोऽध्यारोप्य चेष्टते ॥६॥ जैसे मनुष्य स्थाणुको-वृक्षके दूँठको-चोर समझकर भयसे भागने लगता है । वैसे ही भ्रान्त पुरुष आत्माको देहेन्द्रियरूप समझकर कर्म करता है। [ऐसे स्थलोंमें ज्ञान ( देहादिमें आत्मज्ञान होनेसे ) कर्मोंमें प्रवृत्तिका निमित्त होनेके कारण कर्मका अङ्ग है ] ॥ ६० ॥
एवं यत्र यत्र ज्ञानकर्मणोः प्रयोज्यप्रयोजकमावस्तत्र तत्र सर्वत्राऽयं न्यायः । यत्र तु न समकालं नाऽपि क्रमेणोपद्यते समुच्चयः स विषय उच्यते।
इस प्रकार जहाँ जहाँ ज्ञान और कर्मका अङ्गाङ्गी भाव है वहाँ सर्वत्र यही न्याय
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२८
नैष्कर्म्यसिद्धिः
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समझ लेना चाहिए । और जहाँ ज्ञान एवं कर्मका एक ही समय अथवा क्रमसे भी समुच्चय नहीं हो सकता, उस विषयको अब कहते हैं ।
स्थाणोः सतच्चविज्ञानं यथा नाऽङ्गं पलायने । आत्मनस्तत्त्वविज्ञानं तद्वनाङ्ग क्रियाविधौ ॥
जैसे यह चोर नहीं, किन्तु वृक्ष ठूंठ है, इस प्रकार से सूखे वृक्षका भागने में कारण नहीं होता। वैसे ही श्रात्माका तत्त्वज्ञान ( मैं कर्ता, हूँ, इस प्रकारका ज्ञान ) कर्म करनेमें निमित्त नहीं हो सकता ॥ ६१ ॥
यस्माद्गुणस्यैतत्स्वाभाव्यम् - यद्धि यस्याऽनुरोधेन
तत्तस्य गुणभूतं स्यान्न प्रधानाद् गुणो यतः || ६२ ॥
स्वभावमनुवर्तते ।
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६१ ॥
कर्म-प्रकरणाकाङ्क्षि ज्ञानं कर्म- गुणो यद्धि प्रकरणे यस्य तत्तदङ्ग क्योंकि कर्मप्रकरण में यदि ज्ञानका विधान किया अङ्ग हो सकता क्योंकि जो जिसके प्रकरण में विहित है
शास्त्र में माना गया है ॥ ६३ ॥
यथार्थज्ञान
भोक्ता - ब्रह्म
क्योंकि गुणका ( प्रधानका ) यह भाव है कि जो जिसके अनुरोधसे
जिसके स्वभावका अनुगमन करता है, वह पदार्थ उसका गुणभूत कहलाता है । और जो प्रधानका अनुगमन नहीं करता बल्कि उसका विरोधी है, वह उसका गुण (अङ्ग ) नहीं कहलाता ॥ ६२ ॥
यस्मात्
भवेत् । प्रचक्षते ॥ ६३ ॥
गया होता तो वह कर्मका
वह उसका ग्रङ्ग मीमांसा
यत्त्वविद्या
निहन्ति नः ।
स्वरूप लाभमात्रेण न तदङ्गं प्रधानं वा ज्ञानं स्यात्कर्मणः क्वचित् ॥ ६४ ॥
जो (ज्ञान) उत्पन्न होते ही हमारी विद्याको समूल नष्ट कर देता है वह ज्ञान कर्मका अङ्ग अथवा प्रधान नहीं हो सकता है ॥ ६४ ॥
समुच्चयवादिनाऽप्यवश्यमेव तदभ्युपगन्तव्यम् । यस्मात् -
आत्मज्ञानका कर्मके साथ समुच्चय माननेवालेको भी प्रमाणसे उत्पन्न होने के कारण ज्ञानको ज्ञानका नाशंक अवश्य ही मानना पड़ेगा। क्योंकि-
अज्ञानमनिराकुर्वज्ज्ञानमेव
न सिध्यति । विपन्नकारक ग्राम ज्ञानं कर्म न ढौकते ॥ ६५ ॥
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भाषानुवादसहिता अज्ञानको निवृत्त किये बिना तो वह ज्ञान ही नहीं कहला सकता । और यदि उसको अज्ञानका नाशक मानिये तो जिसने अज्ञानसे उत्पन्न सम्पूर्ण कारकों का नाश कर दिया है वह ( ज्ञान ) फिर कर्मका स्पर्श ही कैसे कर सकता है ।। ६५ ॥
इदं चाऽपरं कारणं ज्ञानकर्मणोः समुच्चयनिवर्हि
हेतुस्वरूपकार्याणि प्रकाशतमसोरिव !
विरोधिनि ततो नाऽस्ति साङ्गत्यं ज्ञानकर्मणोः ।। ६६ ।।
ज्ञान और कर्मका समुच्चय न होनेमें यह एक और भी कारण है कि ज्ञानके कारण, स्वरूप और फल कर्मके कारण, स्वरूप और फलसे--अन्धकारके कारण
आदिसे प्रकाशके कारण आदिके समानः-सर्वथा परस्पर विरोधी होते हैं । इसलिए उनका-ज्ञान और कर्मका-सहभाव किसी प्रकार भी नहीं हो सकता ॥६६॥
एवमुपसंहृते केचित्स्वसम्प्रदायमलावष्टम्भादाहुः-यदेतद्वेदान्तवाक्यादब्रह्मेति विज्ञानं समुत्पद्यते, तन्नैव स्वोत्पत्तिमात्रेणाज्ञानं निरस्यति । किंतर्हि ? अहन्यहनि द्राधीयसा कालेनोपासीनस्य सतो भावनोपचयानिःशेषमज्ञानमपगच्छति, "देवो भूत्वा देवानप्येति" इति श्रुतेः। अपरे तु वक्ते-वेदान्तवाक्यजनितमहं ब्रह्मेति विज्ञानं संसर्गात्मकत्वादात्मवस्तुयाथात्म्यावगायव न भवति, किं तर्हि ? एतदेव गङ्गास्रोतोवत्सततमभ्यस्यतोऽन्यदेवाऽवाक्यार्थात्मकं विज्ञानान्तरमुत्पयते तदेवाऽशेषाऽज्ञानतिमिरोत्सारीति विज्ञाय प्रज्ञां कुर्वीत ब्राह्मणः' इति श्रुतेः । इत्यस्य पक्षद्वयस्य निवृत्तये इदमभिधीयते ।
"ज्ञान उत्पन्न होते ही कर्मका नाशक होता है, इसलिए कर्म के साथ उसका समुच्चय कदापि नहीं हो सकता' यह सिद्धान्त स्थिर हुआ।] इसपर कोई लोग अपने साम्प्रदायिक बलके सहारेसे यह कहते हैं कि "यह जो वेदान्त वाक्योंसे 'अहं ब्रह्म' (मैं ब्रह्म हूँ ) ऐसा ज्ञान होता है, वह उत्पन्न होते ही अविद्याकी निवृत्ति नहीं करता किन्तु दीर्घकालपर्यन्त प्रतिदिन उसका निदिध्यासन करनेसे उसके संस्कार दृढ़ होते हैं तब वह अज्ञानको नष्ट करता है। क्योकि "स्वयं देव बनकर देवोंको प्राप्त होता है” यह श्रुति शुद्ध भावनाओंकी वृद्धि होनेसे फिर देहपतनके बाद देवभावको प्राप्त होना प्रतिपादन करती है।'
और दूसरे लोग इसपर यह कहते हैं कि वेदान्त-वाक्यांसे उत्पन्न हुया 'अहं ब्रह्म' यह ज्ञान विशेषण और विशेष्यके सम्बन्धको विषय करनेवाला होनेके कारण (अर्थात् इसमें 'मैं' इस पदसे विशेष्यरूपसे जीवात्मा और 'ब्रह्म' इस पदसे विशेषणरूपसे
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नैष्कर्म्यसिद्धिः ब्रह्मके सम्बन्धका विषय करनेवाला ज्ञान होता है, इसलिए अात्मवस्तुके यथार्थ स्वरूपको वह विषय ही नहीं कर सकता। किन्तु इसी ज्ञानका निरन्तर गङ्गाप्रवाहके समान अभ्यास करते करते ऐसा एक ज्ञान ( जिसमें विशेषण, विशेष्य और उनका सम्बन्ध, इन तीनों पदार्थोंको भान नहीं होता ) उदय होता है । वही सम्पूर्ण अज्ञानान्धकारको दूर करता है । क्योंकि "विज्ञाय"-इस प्रथम शब्दसे विशिष्ट ज्ञानको प्राप्त कर पश्चात् -'प्रज्ञां कुर्वीत'-निर्विकल्प ज्ञानका सम्पादन करे, ऐसा यह श्रुति प्रतिपादन करती है।"
इन दोनों पक्षोंका खण्डन करनेके लिए अग्रिम प्रकरणका प्रारम्भ किया जाता है--
.. सकृत्प्रवृत्त्या मृद्नाति क्रियाकारकरूपभृत् ।
अज्ञानमागमज्ञानं साङ्गत्यं नाऽस्त्यतोऽनयोः ।। ६७ ॥ वेदान्तवाक्योंसे उत्पन्न हुअा ब्रह्मज्ञान उत्पन्न होते ही क्रिया, कारक आदि द्वैतके उत्पादक अज्ञानको नष्ट कर देता है। इस कारणसे इन दोनोंका सम्बन्ध कदापि नहीं हो सकता ॥ ६७ ॥
एवं तावदनानात्वे ब्रह्मणि ज्ञानकर्मणोः समुच्चयो निराकृतः । अथाऽधुना पक्षान्तराभ्युपगमेनाऽपि प्रत्यवस्थाने पूर्ववदनाश्वासो यथा अथाऽभिधीयते
इस प्रकार एक अद्वितीय अखण्ड ब्रह्मको मानकर ज्ञान और कर्मक समुच्चयका निराकरण किया। अब इसके अनन्तर यदि कोई जीवात्माका ब्रह्मा के साथ भेदाऽभेदवाद मानकर भी उसकी प्राप्ति के लिए ज्ञान-कर्मका समुच्चय सिद्ध करे तो भी पूर्ववत् ही दोष आते हैं, यह कहा जाता है
अनुत्सारितनानात्वं ब्रह्म यस्याऽपि वादिनः ।
तन्मतेनाऽपि दुःसाध्यो ज्ञानकर्मसमुच्चयः ॥ ६८ ॥ जिस वादीके मतमें जीवसे ब्रह्म पृथक् भी है और अभिन्न भी है, उसके भतमें भी उसकी प्राप्ति के लिए ज्ञान कर्मका समुच्चय होना कठिन है ॥ ६८ ॥
तस्य विभागोक्तिषणविभागप्रज्ञप्तयेभेदवादियोंके मतोंमें पृथक्-पृथक् दूषण दिखानेके लिए उनका मत कितने प्रकार का है, यह बतलाते हैं
ब्रह्मात्मा वा भवेत्तस्य यदि वाऽनात्मरूपकम् ।
आत्मानाप्तिभवेन्मोहादितरस्याऽप्यनात्मनः ॥६९॥ उन वादियोंके मतमें ब्रह्म आत्मरूप हैं, किवा आत्मभिन्न-अनात्मरूप है ?
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भाषानुवादसहिता
३१ यदि अात्मरूप ही है, तब तो उसकी अप्राप्ति अज्ञानसे ही माननी पड़ेगी और यदि ब्रह्म जीवात्मासे भिन्न ही है, तो वास्तवमें अनात्मा होनेसे सर्वदा उसकी अप्राप्ति ही रहेगी; फिर वहाँ ज्ञान या कर्मसे क्या प्रयोजन है ?
तत्र यदि वास्तवेनैव वृत्तेन ब्रह्मप्राप्तमात्मस्वाभाव्यात्केवलमासुरमोहपिधानमात्रमेवाऽनाप्तिनिमित्तं तस्मिन्पक्षे
यदि ब्रह्म अात्मरूप होने के कारण वास्तवमें प्राप्त ही है, तब तो केवल अज्ञानका, जो अासुर मोह कहलाता है, आवरणमात्र ही ब्रह्मकी अप्राप्तिमें कारण होगा। सो उस पक्षमें
मोहापिधानभङ्गाय नैव कर्माणि कारणम् ।
ज्ञानेनैव फलवाप्तेस्तत्र कर्म निरर्थकम् ॥ ७० ॥ मोहावरणका नाश करनेके लिए कर्म कारण नहीं बन सकता, क्योंकि ज्ञानसे ही उसकी (मोहकी निवृत्ति) हो जायगी। वहाँ कर्म निरर्थक ही होगा ॥ ७० ॥
अनात्मरूपके तु ब्रह्मणि न कर्म साधनभावं प्रतिपद्यते नाऽपि ज्ञानं कर्मसमुच्चितमसमुचितं वा, यस्मादन्यस्य स्वत एव साधकस्य ब्रह्मणोऽप्यन्यत्वं स्वत एव सिद्धम् । तत्रैवम्
और यदि ब्रह्म आत्मासे भिन्न है तो भी ( मोहकी निवृत्तिमें ) कर्म साधन नहीं हो सकता और न कमसहित अथवा केवल ज्ञान ही साधन हो सकता है, क्योंकि ब्रह्मप्राप्ति के लिए साधनोंका अनुष्ठान करनेवाले पुरुषको-ब्रह्मसे स्वत एव भिन्न होनेके कारण-ब्रह्मकी प्राप्ति नहीं हो सकेगी। यदि कहो कि जीवका ब्रह्म के साथ है तो वास्तवमें भेद ही, परन्तु उस भेदको ही नष्ट करनेके लिए प्रयत्न करते हैं ? [ तो यह नहीं हो सकता, क्योंकि-]
अन्यस्याऽन्यात्मताप्राप्तौ न क्वचिद्धेतुसम्भवः । . .. तस्मिन्सत्यपि नाऽनष्टः परात्मानं प्रपद्यते ॥ ७१ ॥
अन्यका अन्यके साथ अभेद कर देनेके लिए कहीं भी कोई हेतु नहीं देखा गया है। यदि अन्यरूप होनेवाला विद्यमान रहे तो वह विरुद्ध होनेके कारण अन्यका रूप नहीं बन सकता। यदि वह नष्ट हो जाय तो अन्यरूप कौन होगा ? क्योंकि वह तो रहा हो नहीं जो दूसरेका रूप बन जाय ।। ७१ ॥
अपरस्मिंस्तु पक्षे न विधिःपरमात्मानुकूलेन ज्ञानाभ्यासेन दुःखिनः । द्वैतिनोऽपि विमुच्येरन् न परात्मविरोधिना ॥ ७२ ॥
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३२
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नैष्कयसिद्धिः जिनके सिद्धान्तमें जीवात्माका ब्रह्मके साथ भेदाभेद (अर्थात् सत्त्व, चैतन्य, विभुत्व आदि साधर्म्यसे अभेद और अल्पज्ञत्व, कर्मफलभोक्तत्व प्रादि वैधयंसे भेद) माना जाता है, उनको भी केवल अद्वैतज्ञानसे मोक्ष न मानकर "मैं ब्रह्मरूप हूँ" इस
आत्मरूपताके अनुकूल भावनाकी (जिसको उपासना कहते हैं ) मोक्षकी प्राप्ति के लिए विधि माननी पड़ेगी। इस अात्मस्वभावानुकूल 'मैं ब्रह्म हूँ' इस प्रकारकी भावनासे बेचारे दुःखी द्वैतवादी लोग भी मुक्त हो जायँगे । परन्तु अात्मस्वरूपके विरुद्ध काँसे नहीं ॥ २॥
इतरस्मिस्तु पक्षे विधेरेवाऽनवकाशत्वम् । कथम् ?
और जिस मतमें जीव और ब्रह्मका सर्वथा अभेद ही है, उस पक्षमें तो उपासना-विधि के लिए भी अवकाश नहीं है। क्योंकि---
समस्तव्यस्तभूतस्य ब्रह्मण्येवाऽवतिष्ठतः ।
बत कर्माणि को हेतुः सर्वानन्यत्वदर्शिनः ॥ ७३ ॥ __ जो समस्त कर्म करनेवाले में से पृथक् हो गया है, अथवा जो समष्टि-व्यष्टिरूप हा है तथा जो केवल ब्रह्म में ही स्थित है, उस-सब पदाथोंके साथ अभेदको जाननेवाले-~-पुरुषको श्राप ही कहिए, कर्ममें कौन प्रवृत्त कर सकता है ? ।। ७३ ।।
. सर्वकर्मनिमित्तसंभवाऽसंभवाभ्यां सर्वधर्मसङ्करश्च प्राप्नोति । यस्मात्
अभेदपक्षमें ब्रह्मज्ञानीकी कर्ममें प्रवृत्ति मान ली जाय तो. उसकी प्रवृत्तिमें काका सङ्कर हो जाएगा। क्योंकि
सर्वजात्यादिमत्त्वेऽस्य नितरां हेत्वसम्भवः ।
विशेषं हयनुपादाय कर्म नैव प्रवर्तते ।। ७५ ॥
ब्रह्मज्ञानी पुरुष तो सर्वात्मक ब्रह्म के साथ एकीभूत होने के कारण सभी जातियोंसे युक्त हुआ है। इस कारण ब्राह्मण, क्षत्रिय या वैश्य, इनमें से किसी एकके ही कर्ममें इसकी प्रवृत्ति होनेका कोई कारण नहीं है । और बिना 'मैं ब्रह्मण हूँ, या 'क्षत्रिय हूँ इत्यादि विशेषके समझे कर्ममें प्रवृत्ति नहीं हो सकती और उसको यह विशेष ज्ञान रहता नहीं। इस कारण उसकी किसी कर्ममें प्रवृत्ति नहीं होती ॥ ७४ ॥
स्याद्विधिरध्यात्माभिमानादिति चेन्नैवम् । यस्मात्--
न चाध्यात्माऽभिमानोऽपि विदुषोऽस्त्यासुरत्वतः ।
विदुषोऽप्यासुरश्चेत्स्यानिष्फलं ब्रह्मदर्शनम् ॥ ७५ ॥ शङ्कायद्यपि ब्रह्मज्ञानीका सर्वात्मक ब्रह्म के साथ अभेद है, तथापि ब्राहाण,
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· भाषानुवादसहिता क्षत्रिय, वैश्य आदि जातियोंसे युक्त शरीरका अभिमान होने के कारण 'मैं ब्राह्मण हूँ। इत्यादि विशेष भावको प्रात होकर ब्राह्मणादि जात्युचित कर्मों में प्रवृत्ति होनी चाहिए ? समाधान-यह ठीक नहीं; क्योंकि ब्रह्मज्ञानीको ग्रासुर मोह न होने के कारण देहादिमें ममत्वबुद्धि ही नहीं है । यदि ब्रह्मज्ञानीको भी आसुर मोह माना जाय, तब उसका ब्रह्मज्ञान निष्फल हो जायगा ।। ७५ ॥
___ अज्ञानकार्यत्वाच्च न समकालं नापि क्रमेण ज्ञान-कर्मणोर्वस्त्व- . वस्तुतन्त्रत्वात् सङ्गतिरस्तीत्येवं निराकृतोऽपि काशं कुशं वाऽवलम्ब्याऽऽह ।
कर्म अज्ञानका कार्य है और ज्ञान उसका नाशक है। इसलिए कर्म और ज्ञानका एककाल में सम्बन्ध नहीं हो सकता और न क्रमसे हो सकता है, क्योंकि ज्ञान वस्तुके अधीन होता है। कर्मका. यथावत् वस्तुके अधीन होनेका कोई नियम नहीं है । इस प्रकार पूर्वप्रकरणमें ज्ञान और कर्मके सहभावका निराकरण करनेपर भी वादी काशकुशावलम्बन न्यायसे फिर शङ्का करता है
अथाऽध्यात्मं पुनर्यायादाश्रितो मूढतां भवेत् ।
स करोत्येव कर्माणि को ह्यज्ञं विनिवारयेत् ।। ७६ ।। यदि तत्त्वज्ञानीको भी शरीर, इन्द्रियादिमें अभिमान होता है ऐसा मान लीजिए तो यह ठीक नहीं । क्योंकि जिसको देहादिम अभिमान रहेगा, वह तत्त्वज्ञानी ही नहीं, किन्तु अज्ञानी ही कहलाएगा। फिर अज्ञ तो कर्मोंका आचरण करता ही है, उसको (कर्मोंसे) हटा ही कौन सकता है ? ॥ ७६॥
सिद्धत्वाचन साध्यम, यतः
सामान्येतररूपाभ्यां कर्मात्मैवाऽस्य योगिनः ।
निःश्वासोच्छासवत्तस्मान्न नियोगमपेक्षते ।। ७७ ॥ ब्रह्मज्ञानीके लिए आप जो कर्म कर्तव्य मानते हैं, उसके विधान करनेकी श्रावश्यकता नहीं, उसके लिए कर्म तो स्वयं ही सिद्ध हैं। इसमें कारण यह है कि ब्रह्मज्ञानी ब्रह्मस्वरूप हो जाता है, संसार में जो कुछ भी सामान्य और. विशेषरूप वस्तु है, वह सब ब्रह्मसे अभिन्न है। कर्म भी सामान्य-विशेषमें अन्तर्भूत होने के कारण ब्रह्मस्वरूप है, इसलिए ब्रह्मज्ञानीसे भिन्न नहीं है । अतएव श्वास-प्रश्वासके समान स्वतः सिद्ध होनेके कारण वह (कर्म) कृतिका विषय नहीं है और न किसी विधि-विशेषकी अपेक्षा करता है ।। ७७ ।।
अस्तु तर्हि भिन्नाभिन्नात्मकं ब्रह्म । तथा च सति ज्ञानकर्मणी सम्भवतो भेदाभेदविषयत्वात्तयोः। तत्र तावदयं पक्ष एव न सम्भवति । किं कारणम् ? न हि भिन्नोऽयमित्यभेदबुद्धिमनिराकृत्य भेद
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नैष्कर्म्यसिद्धिः
बुद्धिः पदार्थ मालिङ्गते । एवं धनभ्युपगमे भिन्नाभिन्नपदार्थयोरलौकिकन्वं प्रसज्येत । अथ निष्प्रमाणकमप्याश्रीयते, तदप्युभयपक्षाभ्युपगमादपक्षे दु:ख ब्रह्म स्यादित्यत श्राह -
शङ्का - अच्छा, यदि अभेदपक्षमें दोष आते हैं, तो ब्रह्मको जीवसे भिन्न और अभिन्न, दोनों ही प्रकार से मान लिया जाय ? ऐसा मान लेनेसे ज्ञान और कर्म - दोनों की ही व्यवस्था हो जाएगी, क्योंकि भेद-बुद्धिसे कर्मानुष्ठान और अभेदबुद्धिसे 'मैं ब्रह्म हूँ' इस प्रकारका ज्ञानभीं सङ्गत हो जाएगा ?
समाधान- यह तो पक्ष ही नहीं बन सकता, क्योंकि यह उससे भिन्न है, इस प्रकारकी बुद्धि एक ही पदार्थ में, यह उससे भिन्न नहीं है, इस प्रकारकी बुद्धिका निराकरण किए बिना नहीं उत्पन्न हो सकती । यदि यह न माना जाय तो ये दोनों पदार्थ लोकमें अप्रसिद्ध हो जाएँगे । यदि प्रमाणसे रहित होनेपर भी भेदाभेदपक्षका अवलम्बन करते ही हो, तो भेद पक्ष में ब्रह्म के दुःखी होने का दोष आएगा। इसी बात को कहते हैंभिन्नाभिन्नं विशेषैवेद्दुःखि स्याद् ब्रह्म ते ध्रुवम् । } शेषदुःखिता चेत्स्यादहो प्रज्ञाऽऽत्मवादिनाम् ॥ ७८ ॥
सामान्य और विशेषरूपसे वर्तमान सब वस्तुयोंके साथ यदि ब्रह्मको अभिन्न मानो तो सम्पूर्ण वस्तु दुःखमय हैं, इसलिए निश्चय ही ब्रह्म दुःखमय हो जाएगा। क्योंकि सम्पूर्ण जीवोंका ब्रह्मके साथ भेद हो जाएगा इससे जीवोंका सम्पूर्ण दुःख भी ब्रह्म में आ जाएगा । ऐसा माननेसे तो जो ज्ञानी लोग ब्रह्मको प्राप्त होंगे वे दुःखमय ब्रह्मको प्राप्त होने के कारण संसारियों से भी निकृष्ट हो जाएँगे । यदि ऐसा ही आपको स्वीकार है। तो बलिहारी है आपको बुद्धिकी, जो कि महान् दुःखको पुरुषार्थ समझ रही है ! ॥ ७८ ॥ तस्मात्सम्यगेवाऽभिहितं न ज्ञानकर्मणोः समुच्चय इत्युपसंहियते
इसलिए यह बहुत ठीक कहा गया है कि - ( मुक्तिप्रासिकेलिए ) ज्ञान और कर्मका समुच्चय नहीं हो सकता । इसका उपसंहार ( अग्रिम - श्लोक से ) करते हैं
तमोऽङ्गत्वं यथा भानोरग्नेः शीताङ्गता यथा । वारिणश्रोष्णता यद्वज्ज्ञानस्यैवं क्रियाङ्गता ।। ७९ ॥
जिस प्रकार सूर्यको अन्धकारका श्रमिको शीतका और जलको उष्णताका अङ्ग मानना सर्वथा अज्ञपन है, इसी प्रकार ज्ञानको कर्मका अङ्ग मानना भी सर्वथा ज्ञपन है । अर्थात् जैसे सूर्य, अग्नि और जल अन्धकार, शीत और उष्णताके नाशक होनेके कारण उनके श्रृङ्ग नहीं हो सकते, वैसे ही ज्ञान भी कर्मका नाशक होनेके कारण उसका नहीं हो सकता ॥ ७६ ॥
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भाषानुवादसहिता यथोक्तोपपत्तिवलेनैव पूर्वपक्षस्योत्सारितत्वाद् वक्तव्यं नाऽवशेषितमित्यतः प्रतिपत्तिकर्मवत्पूर्वपक्षपरिहाराय यत्किञ्चिद्वक्तव्यमित्यत इदमभिधीयते।
___ मुक्ति-प्राप्तिका एकमात्र साधन ज्ञान ही है, यह सिद्ध होनेसे केवल कर्म अथवा ज्ञानकर्मका समुच्चय मुक्तिका साधन नहीं हो सकता, यह बात स्वत एव सिद्ध हो गयी। अब इस विषयमें कहना अवशिष्ट नहीं है । तथापि पूर्वपक्षीने कर्मको मुक्तिका साधन सिद्ध करनेमें जो युक्तियाँ दी हैं, उनका खण्डन जब तक न किया जाय तब तक पराधीन बुद्धिवाले लोगोंको सन्तोष नहीं होगा इसलिए प्रतिपत्ति कमसे ( अर्थात् जिस वस्तुसे काय हो चुका वह फिर निरर्थक हो जाती है उसका त्याग स्वयमेव हो जाता है, परन्तु उसको विधिपूर्वक किसी स्थल-विशेषपर प्रक्षिप्त कर देना (रख देना) अच्छा होता है, इस प्रकारसे ) पूर्वपक्षीको सम्पूर्ण युक्तियोंका परिहार करनेके लिए कुछ कहना बाकी है। उसके लिए यह प्रकरण प्रारम्भ किया जाता है
- मुक्तः क्रियाभिः सिद्धत्वादित्यायनुचितं बहु । ___ यदभाणि तदन्याय्यं यथा तदधुनोच्यते ।। ८० ॥
काम्य तथा निषिद्ध कर्मोंके त्यागपूर्वक नित्य कर्मोंका अनुष्ठान करनेसे मुक्तिप्राप्ति हो जाती है, फिर उसके लिए ज्ञान की क्या आवश्यकता है ? इत्यादि पूर्वपक्षीका कथन जिस प्रकार अयुक्त है, वह अब कहते हैं । ८० ॥
योऽयं काम्यानां प्रतिषिद्धानां च त्यागः प्रतिज्ञायते सा प्रतिज्ञा तावन्न शक्यतेऽनुष्ठातुंम् । किं कारणम् ? कर्मणो हि निवृत्तात्मनो द्वाभ्यां प्रकाराभ्यां निवृत्तिः सम्भवति । प्रारब्धफलस्योपभोगेनाऽनारब्धफलस्याऽशुभस्य प्रायश्चितैरिति । तृतीयोऽपि त्यागप्रकारोऽकत्मिावयोधात्, स त्वात्मज्ञानाऽनभ्युपगमाद् भवता नाऽभ्युपगम्यते। तत्र यान्यनुपभुक्तफलान्यनारब्धफलानि तानीश्वरेणापि केनचिदपि न शक्यन्ते परित्यक्तम् । अथाऽऽरब्धफलानि त्यज्यन्ते तान्यपि न शक्यन्ते त्यक्तम् । किं कारणम् ? अनिवृत्तेः। अनिवृतं हि चिकीर्षितं कर्म शक्यते त्यक्तुम् , प्रवृत्तिनिवृत्ती प्रति कर्तुः स्वातन्त्र्यात् । निवृत्ते तु कर्मणि तदसम्भवाद् दुरनुष्ठेयः प्रतिज्ञातार्थः। अशक्यप्रतिज्ञानाच्च । न शक्यते प्रतिज्ञातुं यावज्जीवं काम्यानि प्रतिषिद्धानि च कर्माणि न करिष्यामीति सुनिपुणानामप्यपराधदर्शनात् प्रमाणाभावाच । न च प्रमाणमस्ति मोक्षकामो
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नैष्कयसिद्धिः नित्यनैमित्तिके कर्मणी कुर्यात्काम्चप्रतिषिद्धे च वर्जयेद् आरब्धले चोपभोगेन क्षपयेदिति । अानन्त्याच्च । न चोपचितानां कर्मणामियत्ताऽस्ति, संसारस्याऽनादित्वात् । न च काम्यैः प्रतिषिद्वैर्वा तेषां निवृत्तिरस्ति । शुद्धयशुद्धिसाम्ये सत्यविरोधादित्यत आह___यह जो काम्य और प्रतिषिद्ध कर्मके त्यागकी प्रतिज्ञा की जाती है, उसका पालन नहीं हो सकता, क्योंकि, जो कर्म हो चुके उनकी निवृत्ति दो ही प्रकारसे की जा सकती है। (१) जिन शुभाशुभ कर्मोंने फल देना प्रारम्भ कर दिया है, उनकी निवृत्ति उपभोगसे और (२) जिन्होंने फल देना प्रारम्भ नहीं किया है, ऐसे अशुभ कर्मोकी (निवृत्ति) प्रायश्चित्तसे । और हाँ, एक तीसरा प्रकार भी- मैं अकर्ता हूँ, अभोक्ता हूँ' इस प्रकार का ज्ञान भी किए हुए कर्मोकी निवृत्तिका कारण है। परन्तु उसको तो अात्मज्ञानको न माननेवाले श्राप ( कर्मवादी लोग ) मानते ही नहीं हो। उनमें से जिनका फल भोगा नहीं गया है और जिन्होंने फल देना प्रारम्भ नहीं किया है, उनका नाश तो बिना भोगे ईश्वर अथवा और कोई भी नहीं कर सकता । और जिन्होंने फल देना प्रारम्भ कर दिया है उनका भी नाश नहीं हो सकता, क्योंकि किए हुए कर्मीका नाश मानने में तुम्हारेकर्मवादियोंके-मतमें दोष आएगा। और जो कर्म अभी किया नहीं गया है; किन्तु जिसके करनेकी इच्छामात्र की गई है, उस कर्मका त्याग हो सकता है। क्योंकि अपनी प्रवृत्तिके रोक लेनेमें कर्ताको स्वतन्त्रता है। परन्तु जब कर्म कर लिया तव तो उसकी निवृत्ति होना सर्वथा असम्भव है। इसलिए आपकी प्रतिज्ञाका पालन होना कठिन है, कठिन क्या सर्वथा अशक्य है। कोई भी यह प्रतिज्ञा नहीं कर सकता कि मैं जब तक जीऊँगा तब तक काम्य या प्रतिषिद्ध कर्म नहीं करूँगा । क्योंकि बड़े-बड़े सुनिपुण-कर्तव्यपरायणोंसे भी सूक्ष्म अपराध हो जाते हैं और इसमें कोई प्रमाण भी नहीं मिल सकता। ऐसा कोई मी शास्त्रका प्रमाण नहीं है जो यह कहता हो कि “मोक्षकी इच्छावाला नित्य नैमित्तिक कर्म करे, काम्य और निषिद्ध कर्मको छोड़ दे और जिन्होंने फल देना प्रारम्भ कर दिया है, उन्हें भोग कर समाप्त कर दे।” कर्म अनन्त हैं। संसार अनादि होनेके कारण किये हुए, कर्मोका कोई अन्त नहीं है और न काम्य एवं प्रतिषिद्ध कर्मोंसे उनकी निवृत्ति हो सकती है। क्योंकि दोनोंमें शुद्धि तथा अशुद्धि बराबर होनेके कारण विरोध नहीं है। यही बात अग्रिम श्लोकसे कहते हैं
न कृत्स्नकाम्यसन्त्यागोऽनन्तत्वात्कर्तुमिष्यते । . निषिद्धकर्मणश्चेत्तु व्यतीतानन्तजन्मसु ॥८१॥
जन्म-जन्मान्तरोंमें अनुष्ठित सम्पूर्ण काम्य अथवा निषिद्ध कर्मोंका त्याग उनके अनन्त होनेके कारण सम्भव नहीं हो सकता ॥ ८१ ॥
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भाषानुवादसहिता
स्यान्मतं व्यतीतानन्तजन्मोपात्तानां कर्मणाम्art नित्येन तेषां चेत्प्रायश्चित्तैर्यथैनसः । निष्फलत्वान्न नित्येन काम्यादेविनिवारणम् ॥ ८२ ॥
यदि कहो कि व्यतीत अनेक जन्मोंमें किये हुए कर्मों का इस जन्म के नित्यकर्मानुष्ठानसे, प्रायश्चित्तसे पापनिवृत्ति के समान, नाश हो जाएगा ? तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि तुम्हारे मत में नित्यकर्म निष्फल हैं, इसलिए काम्य कर्मों की निवृत्ति करना उनका फल नहीं हो सकता ॥ ८२ ॥
प्रमाणाभावाच्च, कथम् ? -
पापापनुत्तये वाक्यात्प्रायश्चित्तं यथा तथा ।
ते काम्यानार्थं नित्यं कर्म न वाक्यतः || ८३ ॥
३७
और नित्यकर्म के अनुष्ठानसे काम्यकमों की निवृत्ति होती है, इसमें कोई प्रमाण भी नहीं है, क्योंकि जैसे प्रायश्चित्तसे पाप निवृत्त होता है, इस विषय में शास्त्र के वाक्य प्रमाण हैं उसी प्रकार नित्यक्रम के अनुष्ठान काम्यकमों की निवृत्ति होती है, इस विषय में कोई वाक्य प्रमाण नहीं है ॥ ८३ ॥
अथापि स्यात्यैरेव काम्यानां पूर्वजन्मोपचितानां क्षयो भविष्यतीति । तन्न । यतः
यदि यह कहो कि वर्तमान जन्म में किये हुए काम्य कर्मों से ही पूर्वजन्ममें किये काम्य कमका क्षय हो जायगा, तो यह भी युक्त नहीं | क्योंकि
पाप्मनां पाप्मभिर्नास्ति यथैवेह निराक्रिया ।
काम्यैरपि तथैवाऽस्तु काम्यानामविरोधतः ॥ ८४ ॥
जैसे पापोंसे पापों की निवृत्ति नहीं हो सकती, इसी प्रकार विरोध न होने के कारण काय कमसे काम्यकर्मों की निवृत्ति भी नहीं हो सकती || ८४ ॥
एवं तावन्मुक्तः क्रियाभिः सिद्धत्वादिति निराकृतम् । अथाss
रमज्ञानस्य सद्भावे प्रमाणाऽसम्भव उक्तस्तत्परिहारायाऽऽह—
इस प्रकार "मुक्ति क्रियाओं से ही सिद्ध है, उसके लिए ज्ञानको क्या श्रावश्यकता है ?” इस पक्षका निराकरण किया गया। अब ग्रात्मज्ञान के अस्तित्वमें पूर्वपक्षीने जो प्रमाणों का अभाव बताया था, उसका प्रतिकार करनेके लिए कहते हैं
श्रुतयः स्मृतिभिः साकमानन्त्यात्कामिनामिह । विदधत्युरुयत्नेन कर्मातो भूरिकामदम् ॥ ८५ ॥
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३८
नैष्कर्म्यसिद्धिः जगत्में कामी पुरुषांको संख्या अत्यन्त अधिक है। इस कारण समस्त श्रति और स्मृतियाँ इच्छित फल देने में समर्थ अनेक कमीका विधान करती हैं। [ इससे यह नहीं सिद्ध होता कि अात्मज्ञान नहीं है अथवा वह मोक्षका मुख्य साधन नहीं है । इसलिए वादीका यह कहना कि "श्रात्मवस्तुविषयक ज्ञानका प्रतिपादक कोई प्रमाण नहीं मिलता” सर्वथा असङ्गत है ] ॥ ८५ ॥
न च बाहुल्यं प्रामाण्ये कारणभावं प्रतिपद्यते । अत आह
यदि कोई शङ्का करे कि 'जिस विषयके प्रतिपादक वाक्य अधिक होंगे वे ही प्रमाण माने जाएँगे। जो अल्प हैं वह प्रमाण नहीं माने जा सकते। सुतरां कर्मविधायक वाक्य अधिक हैं और ज्ञान विधायक वेदान्त वाक्य अत्यन्त ही अल्प हैं, अतः अनन्त कर्म विधायक वाक्योंके बलसे थोडेसे ज्ञानविधायक वेदान्तवाक्यों का तात्पर्य मी कर्ममें ही मानना चाहिए। स्वतन्त्र अात्माका प्रतिपादन करने में नहीं ।' ला यह कथन उचित नहीं है, क्योंकि
प्रामाण्याय न बाहुल्यं न ह्यकत्र प्रमाणताम् ।
वस्तुन्यटन्ति मानानि त्वेकत्रैकस्य मानता ।। ८६ ॥ . वेदान्तवाक्योंका प्रामाण्य स्वतःसिद्ध होनेके कारण उनको अपने विषयका सिद्धि के लिये दूसरे अनुमोदक प्रमाणकी आवश्यकता नहीं है। यह कोई नियम नहीं है कि किसी एक निपयके प्रतिपादक वाक्य जबतक दूसरे वाक्य अनुमोदक न हो, प्रमाण है। नहीं हो सकते। और कर्मकाण्ड में भी तो एक-एक कर्ममें एक-एक बाक्यको ही प्रमाण मान लिया जाता है। कर्म अनेक हैं, इसलिए उनके प्रतिपादक वाक्य भी अनेक ही होने चाहिए। परन्तु यात्मा तो एकरूप है। अतएव अल्पसंख्यावाले भी वेदान्तवाक्य उसके (आत्माके ) ज्ञानके प्रतिपादन में अधिक होंगे || ८६ ॥
यत्तक्तं 'यत्नतो वीक्षमाणोऽपीति' तत्राऽपि भवत एवाऽपराधः कस्मात ! यतः
और पहले जो यह कहा था "यत्नसे देखनेपर भी वेदान्त-वाक्यों में आत्मज्ञानका विधान नहीं मिलता, इसलिए वेदान्त वाक्य आत्मज्ञानमें प्रमाण नहीं हैं ?” इसमें भी आपका ही अपराध है । क्योंकि--
'परीक्ष्य लोकान्' इत्याया आत्मज्ञान-विधायिनीः ।
नैष्कर्म्यप्रवणाः साध्वीः श्रुतीः किं न शृणोषि ताः ॥ ८७ ।।
"कसे सम्पादित भोग्य-विषयोंको अनित्य समझकर” इत्यादि कर्मफलको अनित्य और हेय बतलानेवाली, आत्मज्ञानके लिए प्राचार्य के समीप गमनका विधान करनेवाली और मोक्षका मार्ग बतलानेवाली पवित्र श्रुतियोंको क्या आप नहीं सुनते ?
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भाषानुवादसहिता ननु 'आत्मेत्येवोपासीत' 'आत्मा वा अरे द्रष्टव्यः' इत्यपूर्वविधिश्रुतेः पुरुषस्याऽऽत्मदर्शनक्रियायां नियोगोऽवसीयत इति । नैवम् । अपुरुषतन्त्रत्वाद्वस्तुयाथात्म्यज्ञानस्य सकलानर्थवीजात्मानवबोधोत्सारिणो मुक्तिहेतोरिति, विध्यभ्युपगमेऽपि नाऽपूर्वविधिरयम् । यत आह
___ शङ्का-'अात्मेत्येवोपासीत' 'श्रात्मा वा अरे द्रष्टव्यः' इत्यादि अपूर्वविधिश्रुतियोंसे “यह समस्त संसार आत्मा ही है, ऐसी उपासना करो" "अात्माका दर्शन करना चाहिए" इस प्रकार पुरुष के लिए प्रात्मदर्शनरूप क्रियाकी विधि पाई जाती है। तब आप कैसे कहते हैं कि 'वेदान्तवाक्य क्रियापूरक नहीं हैं।' __उत्तर-यह शङ्का उचित नहीं है, क्यो कि, विधि उसी विषयमें हो सकती है जिसके करने, न करने और अन्यथा (विपरीत) करने में पुरुष स्वतन्त्र हो । जैसे कि "(अग्निहोत्रं जुहुयात्स्वर्गकामः ) स्वर्गकी इच्छावाला पुरुष अग्निहोत्र द्वारा स्वर्गको प्राप्त करे।" इस विधिमें अग्निहोत्र करना पुरुषके अधीन है, वह चाहे उसे करे, या न करे अथवा विपरीत करे । परन्तु समस्त अनयोंके बीजांका नाशक और मुक्तिका हेतु तत्वज्ञान तो पुरुषके अधीन नहीं है, किन्तु प्रमाण और प्रमेयके अधीन है | जैसे भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी के दिन चन्द्रदर्शनका निषेध होनेपर भी चन्द्रका, चक्षुके साथ सम्बन्ध होनेपर, ज्ञान हो ही जाता है। किसीसे रुकता नहीं है। ] अतएव उसमें विधिकी अपेक्षा नहीं है । यदि विधि मानी भी जाय तो अपूर्व विधि नहीं मान सकते। यह बात अग्रिम श्लोकसे कहते है---
अपूर्व, नियम और परिसङ्ख्या, इन भेदांसे विधि तीन प्रकारकी है। (१) अपूर्वविधि-जिससे ऐसी कोई बात विधान की जाय, जो किसी दूसरे प्रकारसे प्राप्त न हो। जैसे—'अग्निहोत्रं जुहुयात्स्वर्गकामः' इस श्रतिसे स्वर्गाभिलाषियोंको अग्निहोत्र द्वारा स्वर्ग प्राप्त करना बतलाया है। बिना इस वाक्यके स्वर्गाभिलाषी लोग अग्निहोत्रमें प्रवृत्त नहीं हो सकते थे। इस वाक्यने स्वर्गाभिलाषियोंके लिए स्वर्गका एक नूतन साधन का विधान किया, इसलिए स्वर्गप्राप्ति के लिए यह अग्निहोत्रकी विधि 'अपूर्वविधि' है। (२) नियमविधि-जिससे, किसी कृत्यके दो प्रकार प्राप्त हो तो ( उनमेंसे ) एकका निषेध करके एकका विधान किया जाता है। जैसे-'नीहीनवहन्ति' यहाँ धानोंका तुषरहित करना प्रयोजन है। वह नख-विदलनादिसे (नाखूनोंसे ) भी हो सकता है। परन्तु इस विधिसे नियम किया जाता है कि अवहनन (उलूखलमें कूटने) से ही धानोंको तुषरहित करना नखांसे नहीं। (३) परिसङ्खथा विधि-जिससे दो वस्तु प्राप्त हों तो एकका सर्वथा निषेध करना और दूसरेका विधान भी न करना। जैसे-'पञ्च पञ्चनखा भक्ष्याः ' इस विधिसे शशादिके भक्षणका विधान नहीं किया गया है ।
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नैष्कर्म्यसिद्धिः नियमः परिसङ्ख्या वा विध्यर्थोऽत्र भवेद्यतः ।
अनात्माऽदर्शनेनैव परात्मानमुपास्महे ॥ ८८॥
यहाँपर यदि विधि हो सकती है, तो नियम या परिसङ्घयाविधि हो सकती है । क्योंकि अनात्म वन्तु जिस प्रकार ध्यानमें न आवे उस प्रकार हम परमात्माकी उपासना करते हैं ।।८८॥
यच्चोक्तं 'विश्वासो नान्यतोऽस्ति नः' इति, तदपि निद्रातुरचेतसा त्वया स्वप्नायमानेन प्रलपितम् । किं कारणम् ? न हि वयं प्रमाणबलेनैकात्म्यं प्रतिपद्यामहे । तस्य स्वत एवाऽनुभवमात्रात्मकत्वात् । अत एव सर्वप्रमाणावतारासम्भवं वक्ष्यति। प्रमाणव्यवस्थायाश्चाऽनुभवमात्राश्रयत्वात् । अत आह
और जो आपने 'विश्वासो नाऽन्यतोऽस्ति नः' इत्यादि प्रकारणमें श्रुतिस्मृतिसे अन्य प्रमाणोंपर हमें विश्वास नहीं है, इत्यादि कहा, वह भी आपने ऊँघते ऊँघते स्वप्न देखते हुए प्रलाप किया है । (अर्थात् वह सब आपने हमारे सिद्धान्तको न समझकर ही कहा है।)
शङ्का-क्या कारण ?
उत्तर-हम लोग प्रमाणके बलसे, जीव-ब्रह्माकी एकताका स्थापन नहीं करते । क्योंकि वह तो स्वयं अनुभवरूप ही है। इसीलिए हम आगे जीव-ब्रह्मकी एकताके विषयमें कहेगें कि जीव-ब्रह्मकी एकता किसी प्रमाणका प्रमेय नहीं। और जब प्रमाणांकी सिद्धि ही अनुभवके अधीन है तो अनुभवरूप जीव-ब्रह्मकी एकताके साधक प्रमाण हो ही कैसे सकते हैं, इसलिए कहते हैं
वाक्यैकगम्यं यद् वस्तु नाऽन्यम्मानत्र विश्वसेत् ।
नाऽप्रमेये स्वतःसिद्धेऽविश्वासः कथमात्मनि ।। ८ ।। जो वस्तु केवल वाक्यमात्रसे ही जानी जा सकती हो उसके विषयमें तो मनुष्यको और किसी प्रकारसे विश्वास नहीं करना चाहिए । परन्तु जो स्वतः सिद्धतया समस्त प्रमाणोंका अविषय है, ऐसे आत्माके विषयमें मनुष्य कैसे विश्वास रहित हो सकता है ? ॥८६ ।।
।' यदप्युक्तमन्तरेण विधिमिति, तदप्यबुद्धिपूर्वकमिव नः प्रतिभाति । यस्मात् कालान्तरफलदायिषु कर्मस्वेतद् घटते आत्मलाभकाल एव फलदायिनि त्वात्मज्ञाने नैतत्समञ्जसमित्याह
और जो आपने यह कहा था कि, "जो बिना शास्त्र विधान के परलोकमें फलदेनेवाले कर्मोको करता है, तो वे उसको फलदायक नहीं होते। इसी प्रकार ब्रह्मज्ञान
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भाषानुवादसहिता
४१ भी परलोकमें ही फलदायक है, सो वह भी विधि के बिना नहीं माना जा सकता।" यह भी बिना विचारे ही कहा जान पड़ता है। क्योंकि चिरकाल बीतनेपर फल देनेवाले कर्मों में यह नियम हो सकता है। परन्तु उत्पन्न होते ही फल देनेवाले आत्मज्ञानके विषयमें यह कदापि नहीं हो सकता । यही बात अग्रिम श्लोकसे कहते हैं
ज्ञानात्फले ह्यवाप्तेऽस्मिन् प्रत्यक्ष भवघातिनि ।
उपकाराय तन्नेति तन्न्याय्यं भाति नो बचः ॥ ९० ॥ जब ज्ञानसे समस्त संसारको नष्ट करनेवाला कैवल्यरूप फल प्रत्यक्षमें होते देखा जाता है, तो फिर अापका यह कथन कि 'विधिके बिना आत्मज्ञान फलदायक नहीं होगा' प्रत्यक्ष विरुद्ध होनेके कारण सर्वथा असङ्गत है ॥ ६० ॥
यदपि जैमिनीयं वचनमुद्घाटयसि तदपि तद्विवक्षापरिजानादेवोद्भाव्यते । किं कारणम् ? यतो न जैमिनेरयमभिप्राय
आम्नायः सर्व एव क्रियार्थ इति । यदि ह्ययमभिप्रायोऽभविष्यदथाऽतो ब्रह्मजिज्ञासा, जन्माद्यस्य यतः, इत्येवमादिब्रह्मवस्तुस्वरूपमात्रयाथात्म्यप्रकाशनपरं गम्भीरन्यायसंहब्धं सर्ववेदान्तार्थमीमांसनं श्रीमच्छारीरक नाऽसूत्रयिप्यत् । अस्त्रयच्च । तस्माज्जैमिनेरेवाऽयमभिप्रायो गम्यते यथैव विधिवाक्यानां स्वार्थमात्रे प्रामाण्यमेवमैकात्म्यवाक्यानामप्यनधिगतवस्तुपरिच्छेद-साम्यादिति । अत इदमभिधीयते ।
और जो आप जैमिनिजीके वचनका प्रमाण देते हो वह भी उनके वचनके अाशयको न समझ कर ही। क्योंकि जैमिनिका यह अभिप्राय ही नहीं है कि सम्पूर्ण वेद कर्मके ही प्रतिपादक हैं। यदि उनका यही अभिप्राय होता तो 'साधनचतुष्टय सम्पन्न अधिकारी पुरुषको ब्रह्मकी जिज्ञासा करनी चाहिए' और 'जिससे जगत्की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय होते हैं वह ब्रह्म है' इत्यादि ब्रह्मवस्तुके यथार्थस्वरूपको प्रकाशित करने में उपयोगी, गम्भीर-युक्तियोंसे परिपूर्ण तथा समस्त वेदान्तवाक्योंकी मीमांसा करनेवाले शारीरकसूत्रकी रचना महर्षि व्यास न करते । परन्तु रचना तो की है । इसलिए महर्षि जैमिनिजीका यही अभिप्राय प्रतीत होता है कि जैसे विधिवाक्योंका उनके बोधित किए हुए अर्थमें प्रामाण्य है, इसी प्रकार जीव-ब्रह्मकी एकताके
१-न न्याय्यं भाति नो वचः, ऐसा भी पाठ है। २-उद्घाटयते, ऐसा भी पाठ है। ३-असूत्रयच्च तत्, भी पाठ है । भगवान् बादरायण इति शेषः । ४-परिच्छेदसामर्थ्यात्, भी पाठ है।
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नैष्कर्म्यसिद्धिः बोधक वेदान्त वाक्य भी उक्त ऐकात्म्यमें प्रमाण हैं। क्योंकि अज्ञात वस्तुका ज्ञापन कराना दोनोंमें समान ही है । इसलिए यह कहते हैं
अधिचोदन'मानायस्तस्यैव स्याक्रियार्थता ।
तत्वमस्यादिवाक्यानां ब्रूत कर्मार्थता कथम् ।। ९१ ॥ विधि-प्रकरण में पढ़े हुए निष्फल अर्थवादादि वाक्य ही ( विधिके अनुरोधसे ) क्रियापरक होते हैं। परन्तु 'तत्त्वमसि' श्रादि वाक्य, जब कि वे विधिके प्रकरण में नहीं हैं और सार्थक हैं, किस प्रकार क्रियापरक हो सकते हैं, यह अाप ही कहिए ? ।। ६१ ॥
अपि च, एकात्म्यपक्ष इवाऽदृष्टार्थकर्मसु भवत्पक्षेऽपि प्रवृत्तिदुलक्ष्या । यतः ।
स्वर्ग यियासुर्जुहुयादग्निहोत्रं यथाविधि ।
देहाव्युत्थापितस्यैवं कर्तुत्वं जैमिनेः कथम् ।। ९२ ॥
और आपके पक्षमें भी तो जीवब्रह्मकी एकता के समान ही अदृष्ट फलवाले कमें में प्रवृत्ति होनी कठिन है। क्योंकि "स्वर्गको जाने की इच्छा करनेवाला पुरुप यथाविधि अग्निहोत्रका अनुष्ठान करे" इस विधिके द्वारा देहसे भिन्न ज्ञात हुए अात्मामें जैमिनिजीके मतमें कर्तृत्व किस प्रकार सिद्ध हो सकता है ? क्योंकि देहादिसे अतिरिक्त निरवयव आत्मामें क्रियाके न होनेसे कर्तृत्व नहीं है। तथा प्रयत्न भी अन्तःकरणका धर्म होनेसे अात्माका गुण नहीं है ॥६२ ॥
. न च प्रत्याख्याताशेषशरीरादिकर्मसाधनस्त्रमावस्याऽऽत्ममात्रस्य कमस्वधिकारः । यस्मात्
सर्वप्रमाणासम्भाव्यो ह्यवृत्त्येकसाधनः । .
युष्मदर्थमनादित्सुजैमिनिः प्रयत कथम् ।। ९३ ।। समस्त शरीरादि साधनोंका त्याग कर देना ही जिसका स्वभाव है । अतएव जिसमें किसी धर्मका समावेश नहीं है। क्योंकि, जो सच प्रमाणोंका अगोचर, अहंकारवृत्तिमें अभिव्यक्त होनेवाला तथा अहंकारादि अनात्म वस्तुओंसे असंस्पृष्ट है; वह जैमिनिजीके शरीरमें रहनेवाला अात्मा विधिसे कैसे प्रेरित हो सकता है ? ॥ ६३ ॥
प्रवृत्तिकारणाभावाच । यस्मात् । -
१-अधिचोदनं य आम्नायः, भी पाठ है। २-अहंवृत्त्यैकसाधनः, भी पाठ है।
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भाषानुवादसहिता
सुखदुःखादिभियोग श्रात्मनो नाऽहमेक्ष्यते' | पराक्त्वात्प्रत्यगात्मत्वाज्जैमिनिः प्रयेते कथम् ॥ ९४ ॥
और प्रवृत्तिका कारण प्रयोजन भी नहीं है । क्योंकि सुखदुःखादिका श्रात्मा से कोई सम्बन्ध नहीं है । उसमें जिन सुखदुःखादिकी प्रतीति हो रही है, वे तो सब ग्रन्तःकरणसे ही ज्ञात होते हैं । और सुखदुःखादि सब बाह्य है तथा आत्मा प्रत्यकूरूप है, अर्थात् सुखदुःखादि दृश्योंका द्रष्टा है । इस कारण से भी जैमिनिके शरीर में रहनेवाले आत्माकी प्रवृत्ति नहीं बन सकती ॥ ६४ ॥
४३
किश्व
न तावद्योग एवाऽस्ति शरीरेणाऽऽत्मनः सदा । विषयैर्दूरतो नास्ति स्वर्गादौ स्यात्कथं सुखम् ।। ९५ ।।
और भी सुनिए ! श्रात्माका शरीर के साथ सम्बन्ध किसी अवस्था में जब नहीं है,
तब विषयों के साथ तो सुतरां नहीं है । फिर स्वर्गादि स्थानों में आत्माके सुखका सम्बन्ध किस प्रकार प्राप्त हो सकता है ? ॥ ६५ ॥
यस्मादन्यथा नोपपद्यते ।
नराभिमानिनं तस्मात् कारकाद्यात्मदर्शिनम् ।
मन्त्र आहोर कृत्य कुर्वन्निति न निर्द्वयम् ।। ९६ ।।
1
चूँकि 'कुर्वन्नेवेह कर्माणि' यह मन्त्र और किसी प्रकारसे भी सङ्गत नहीं हो सकता, इसलिए जिनको मनुष्यत्वका अभिमान है तथा जो अपने आपको कर्त्ता भोक्ता आदि समझते हैं, उनके लिए ही उक्त मन्त्र समस्त श्रायुपर्यन्त कर्म करनेकी याज्ञा देता है । जो अद्वितीय ब्रह्मको प्राप्त हो गये हैं उनके लिए नहीं ॥ ६६ ॥ चोक्तं 'विरहय्य' इति, तदपि न सम्यगेव । तथाऽपि तु न या काचित्क्रिया यत्र व चाध्याहरणीया, किन्तु या यत्राऽभिप्रतसम्बन्धं वटयितुं शक्नोति याकाङ्क्षां च वाक्यस्य पूरयति सैवाऽध्याहरणीया । एवं विशिष्टा च क्रियाऽस्माभिरभ्युपगतैव । सा तूपादित्सितवाक्यार्थाविरोधिन्येव नाऽभूतार्थप्रादुर्भावफलेति । षड्भावविकाररहितात्मवस्तुनो निर्धूताशेषद्वैतानर्थस्याऽपराधीनप्रकाशस्य विजिज्ञापयिषितत्वादस्यस्मीत्यादिक्रियापदं स्वमहिमसिद्धार्थप्रतिपादनसमर्थमभ्युपगन्तव्यं नहि विपरीतार्थप्रतिपादनमिति ।
१ - नाहमेष्यते,
भी पाठ है I
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नैष्कर्म्यसिद्धिः धावेदिति न दानार्थे पदं यद्वत्प्रयुज्यते ।
एधीत्यादि तथा नेच्छेत् स्वतः सिद्धार्थवाचिनि ।। ९७ ॥ .. और जो पहले आपने यह कहा था कि 'क्रियापद के बिना कोई वाक्य ही नहीं बन सकता, इसलिए वेदान्तवाक्य भी क्रियाके प्रतिपादक है, यह भी ठीक नहीं। क्योंकि ( यद्यपि वाक्य क्रियापदके बिना अपना स्वरूप लाभ नहीं कर सकता, तथापि ) चाहे जहाँ, चाहे जिस किसी क्रियाका अध्याहार नहीं करना चाहिए। किन्तु जो क्रिया जहाँ ईप्सित अर्थके सम्बन्धको संघटित कर सकती हो, उसीका अध्याहार करना उचित है। ऐसी क्रियाको तो हम भी स्वीकार करते ही हैं। और वह क्रिया ईप्सित वाक्यार्थके अनुकूल है तथा मिथ्या अर्थकी साधिका भी नहीं है । यहाँ भी उत्पत्ति, वृद्धि, स्थिति, परिणति, क्षय और नाश-इन छः प्रकार के विकारोंसे रहित, द्वैतबुद्धिरूप अनर्थसे श्रात्यन्त पृथक् तथा स्वयम्प्रकाश आत्मरूप वस्तुका प्रतिपादन करना अभीष्ट है। इसलिए 'असि' (है), 'अस्मि' (हूँ) इत्यादि अपने माहात्म्यसे ही सिद्ध अर्थका प्रतिपादन करनेवाले क्रियापदोंका अध्याहार करना चाहिए । विरुद्धअर्थका प्रतिपादन करनेवालोंका नहीं। जिस प्रकार 'दानरूप' अर्थ में 'धावत्-दौड़े', इस क्रियाका प्रयोग नहीं किया जा सकता है, इसी प्रकार स्वतःसिद्ध तथा वृद्धयादि विकारोंसे रहित अात्मवस्तुके प्रतिपादक वाक्यों में 'एधि'-बढ़ो, इत्यादि विकार-प्रतिपादक क्रियाओं का प्रयोग नहीं होता ॥ ६७ ॥
न च यथोक्तवस्तुवृत्तप्रतिपादनव्यतिरेकेण तत्त्वमस्यादिवाक्यं' वाक्यार्थान्तरं वक्तीति शक्यमध्यवसितुमित्याह
'तत्त्वमसि' इत्यादि वेदान्तवाक्य पूर्वोक्त स्वतःसिद्ध, उत्पत्ति क्षयसे रहित प्रात्मस्वरूप वस्तुका प्रतिपादन नहीं करते । किन्तु "तदहमस्मि-वह मैं हूँ, ऐसी उपासना करे" ऐसी उपासना विधिका प्रतिपादन करते हैं, यह कहना भी युक्त नहीं है, यह बात कहते हैं
तत्त्वमस्यादिवाक्यानां स्वतःसिद्धार्थबोधनात् ।
अर्थान्तरं न संद्रष्टुं शक्यते त्रिदशैरपि ।। ९८ ।। 'तत्त्वमसि' इत्यादि वेदान्तवाक्योंका, स्वतःसिद्ध अात्मवस्तुका बोध कराने के अतिरिक्त और कोई अर्थ देवता लोग भी नहीं कर सकते ॥१८॥
यस्मादेवम्
अतः सर्वाश्रमाणां तु वाङ्मनःकायकर्मभिः । • स्वनुष्ठितैन मुक्तिःस्याज्ज्ञानादेव हि सा यतः ।। ९९ ॥ १-तत्त्वमसि वाक्यं, भी पाठ है। २-वाक्यमर्थान्तरं वक्ति, भी पाठ है।
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भाषानुवादसहिता जब कि 'तत्त्वमसि' इत्यादि ब्रह्मज्ञान-प्रतिपादक वाक्योंका अर्थ ब्रह्मज्ञान-प्रतिपादन करने के अतिरिक्त और कुछ नहीं हो सकता है । अतः सभी आश्रमवालोंकी मुक्ति वाणी, मन और शरीर द्वारा किए हुऐ कर्मोंसे नहीं हो सकती, क्योंकि वह तो केवल ज्ञानसे ही होती है ।। ६९ ॥
तस्माच कारणादेतदप्युपपन्नम्इस कारणसे भी यही उपपन्न (सिद्ध) हुआ कि
स्वमनोरथसङ्क्लप्त-प्रज्ञाध्मातधियामतः !
श्रोत्रियेष्वेव वाचस्ताः शोभन्ते नाऽऽत्मवेदिषु ॥ १०॥ अपने मनोरथोसे कल्पित किये बनावटी विचारोंसे जिनकी बुद्धि परिपूर्ण है, ऐसे लोगोंकी, पीछे कही हुई ये सब बाने याज्ञिक लोगोसे ही शोभा पाती हैं, ब्रह्मज्ञानियों में नहीं ।। १००॥ इति श्रीमच्छङ्करभगवत्पूज्यपादशिष्यश्रीसुरेश्वराचार्यकृतनैष्कर्म्यसिद्धौ भाषानुवादसहिते
प्रथमोऽध्यायः समाप्तः।
अथ द्वितीयोऽध्यायः
--*:-- प्रत्यक्षादीनामनेवंविषयत्वात् तेषां स्वारम्भकविषयोपनिपातित्वात् । अात्मनश्चाऽशेषप्रमेयवेलक्षण्यात् सर्वानथैकहेत्वज्ञानापनोदिज्ञानदिवाकरोदयहेतुत्वं वस्तुमात्रयाथात्म्यप्रकाशनपटीयसस्तत्त्वमस्यादेवचस एवेति वह्वीभिरुपपत्तिमिः प्रदर्शितम् । अतस्तदर्थाप्रतिपनौ यत्कारणं तदपनयनाय द्वितीयोऽध्याय आरभ्यते ।
प्रत्यक्ष (चक्षु) आदि प्रमाण अपने अपने कारण शब्दादिगुणयुक्त श्राकाशादिसे उत्पन्न होने के कारण शब्दादि विपयों को ही ग्रहण करते हैं । और आत्मा आकाशादिके समान नहीं है, किन्तु समस्त प्रमेय पदार्थोंसे वह विलक्षण ही है। इसलिए समस्त अनथों के एकमात्र कारण अज्ञानका समूलोच्छेदन करनेवाले ज्ञानरूप सूर्योदयका कारण एवं वस्तुमात्रके स्वरूपको प्रकाशित करनेमें समर्थ 'तत्त्वमसि' इत्यादि वदान्त वाक्य ही है, इस बातको बहुत सी युक्तियोंसे सिद्ध किया। अब उसके अर्थको-आत्माको---न जाननेमें जो कारण हैं, उनको दूर करनेके लिए द्वितीय अध्यायका प्रारम्भ किया जाता है।
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नष्कस्यसिद्धिः श्रावितो वेत्ति वाक्यार्थं न चेत्तत्त्वमसीत्यतः ।
त्वं पदार्थानभिज्ञत्वादतस्तत्प्रक्रियोच्यते ॥ १ ॥ 'त्वं' पदके अर्थका ज्ञान न होने के कारण सुनानेपर भी 'तत्त्वमसि' इत्यादि वान्यांका अर्थ समझमें नहीं आता। इसलिए 'त्वं' पदके अर्थ का प्रतिपादन करते हैं ॥१॥
बोऽयमहं ब्रह्मेति वाममार्थस्तत्त्रातिनिधिदेवेति प्रत्यक्षादीनामनेवंविषयत्वात्, इत्यवादिष, तस्य विशुद्ध्यर्थमनैकान्तिकत्वं पूर्वपक्षत्वेनोपस्थाप्यते।
यह जो मैं ब्रह्म हूँ' इस प्रकारका ज्ञान है, वह बाय से ही उत्पन्न होता है । क्योकि चक्षु आदि-प्रत्यक्षादि-प्रमाण उसका विषय नहीं कर सकते, ऐसा पहला कहा गया है। अब उसकी पुटि (परीक्षा) करने के लिए पाक्यक बिना जान उत्पन्न हो सकता है, इसलिए वाक्य नियनरूपसे शान उत्पन्न नहीं करा' इस प्रकार का पूर्वपक्ष उपस्थापित करते हैं।
कृत्स्नानात्मनिवृत्तौ च कश्चिदानोति निनिन् ।
श्रुतवाक्यस्मृतेश्चाऽन्यः स्मार्यते च वचोऽपरः ।। २ ।। - कोई शुद्धमति महात्मा तो सम्पूर्ण अनात्मवस्तुओंकी निवृत्तिहोने पर, भेक उपाधिके न रहनेसे, वाक्योपदेशके बिना ही एकतारूप मोक्षको प्राप्त होते है और कोई सुने हुए वाक्योंका स्मरण कर के, और कई लोग प्राचार्या पागा द्वारा मारा कराए जानेपर 'मैं ब्रह्म हूँ' इस प्रकार समझकर, मुक्त होने है। (इगतान उदाहर. णोंमें से प्रथम उदाहरणमें तो ज्ञान होनेके लिए वाक्य की काई अावश्यकता ही नहीं है और अन्य दो उदाहरणोंमें भी वाक्यके स्मरण या स्मारकी ही आवश्यकता है, वाक्य की नहीं । इससे यह जान पड़ता है कि वाक्य ज्ञानोत्पत्तिका नियत कारण नहीं है ) ॥२॥
एतत्प्रसङ्गन श्रोत्रन्तरोपन्यासमुभयत्रापि सम्भावनायाऽऽह
वाक्यके विना भी ज्ञान उत्पन्न होता है, यह कहा । अब इसी प्रसङ्ग वाक्य नियतरूपसे ज्ञान उत्पन्न नहीं करता, यह दिखाने के लिए दूसरे प्रकार के श्रीगायों का उदाहरण देकर कहीं कहीं वाक्यसे भी ज्ञान उत्पन्न होता है, यह कहते हैं----
वाक्यश्रवणमात्राच पिशाचकवदाप्न यात् ।
त्रिषु यादृच्छिकी सिद्धिः स्मार्यमाणे तु निश्चिता ॥३॥ जब श्रीकृष्ण अर्जुनको ज्ञानोपदेश दे रहे थे, तब वे वाक्य किसी पिशाचने भी सुन लिए । उसको उन वाक्योंके श्रवणमात्रसे ही ज्ञान हो गया। इस प्रकार
१-उत्थाप्यते, पाठ भी है । २-स्मर्यमाणे, भी पाठ है।
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भाषानुवादसहिता
किसीको वाक्य के श्रवण मात्र से ही ज्ञान प्राप्त हो जाता है । इन कई प्रकारसे ज्ञान करनेबालोंमेंसे स्वयमेत्र अनात्मवस्तुकी निवृत्तिसे जिनको ज्ञान उत्पन्न हुआ है, ऐसे विराट् और वाक्य के स्मरण से ज्ञान प्राप्त करनेवाले भृगु एवं वाक्यश्रवणमात्रसे ज्ञान प्राप्त करने - वाला पिशाच - इन तीनोंकी सिद्धि यादृच्छिक अर्थात् अनिश्चित है । परन्तु गुरुने जिसको वाक्यार्थका स्मरण कराया है ऐसे श्वेतकेतुकी सिद्धि निश्चित है । ( इसलिए ब्रह्मज्ञान उत्पन्न करनेमें 'तत्त्वमसि' इत्यादि वेदान्तवाक्य निश्चित कारण नहीं है, किन्तु मुने हुए वाक्यका स्मरण कराया जाना ही निश्चित कारण है | ) || ३ ||
नाsयमनैकान्तिक हेतुर्यतः
सर्वोऽयं महिमा ज्ञेयो वाक्यस्यैव यथोदितः । वाक्यार्थं न ते वाक्यात्कचिज्जानाति तचतः ॥ ४ ॥
---
४७
[ इस शङ्का समाधान के लिए सिद्धान्तका प्रतिपादन करते हैं- ] ब्रह्मज्ञानोत्पत्तिमें वेदान्तवाक्य अनिश्चित हेतु नहीं हैं, क्योंकि पूर्वोक्त यह सत्र माहात्म्य वाक्यका ही जानना चाहिए। इसमें कारण यह है कि कोई भी वाक्य के बिना वाक्यार्थको यथार्थरूपसे नहीं जान सकता । ॥ ४ ॥
वाक्यं च प्रतिपादनाय प्रवृत्तं सत्प्रतिपादयत्येव, सर्वप्रमाणानामप्येवंवृत्तत्वात् ।
१
और यह भी नहीं कहा जा सकता कि अनुमोदक कोई दूसरा प्रमाण नहीं है, इस लिए वाक्य स्वार्थका निश्चय नहीं कर सकता, क्योंकि अपने विषयोंका अवबोधन कराके लिए प्रवृत्त हुए प्रमाण विना अनुमोदक प्रमाणके भी अपने विषयोंका निश्चय कराते हुए देखे जाते हैं ।
[ और यदि यह प्रश्न किया जाय कि हम "अनुमोदक प्रमाणान्तर नहीं है इस ' लिए वाक्य प्रतिपादन नहीं कर सकता" ऐसा नहीं कहते, किन्तु जीत्र ब्रह्मकी एकतारूप अर्थ प्रमाणान्तरों से विरुद्ध है । इसलिए वाक्य प्रमाण नहीं बन सकते ? तो इस शङ्काका परिहार करते हैं--]
नाऽहंग्राह्ये न तद्धीने न प्रत्यङ् नाऽपि दु:खिनि । विरोधः सदसीत्यस्माद् वाक्याभिज्ञस्य जायते ।। ५ ॥
प्रत्यक्षादि प्रमाणोंके जो विषय हैं उनके साथ तो ब्रह्मका भेदश्रुति प्रतिपादन नहीं करती, तत्र विरोध कहाँसे उपस्थित होगा ? जैसे—मैं मनुष्य हूँ, इस प्रकार
१ - एवं प्रवृत्तत्वात् भी पाठ है ।
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नैष्कर्म्यसिद्धिः
प्रत्यत्र के विषय शरीर में विरोध बुद्धि नहीं हो सकती । क्योंकि वह त्वं पदका लक्ष्य ही
I
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नहीं है । इसलिए उसका तत्पदके साथ अभेद नहीं बनता तो न बने, उससे कोई विरोध नहीं । तथा 'मैं' खसे देखता हूँ, कानसे सुनता हूँ, इस प्रकार जिन इन्द्रियों में यह विषय ग्रहण करनेके साधन मात्र हैं, ऐसा अनुभव हो रहा है, उनसे "मैं" इस ज्ञानके विषय होनेपर भी कोई विरोध नहीं। क्योंकि उन इन्द्रियोंके साथ 'तत्' पदार्थ की एकता नहीं मानते हैं । इसी प्रकार शुद्ध 'त्वग्' पद लक्ष्य-ग्रामाका 'तत्' पर लक्ष्य – ब्रह्म के साथ एकत्व होने में कोई आपत्ति नहीं है । और सुखदुःखविशिष्ट श्रन्तःकरणसे युक्त जीवके साथ तत्पदलक्ष्य ब्रह्मका एकत्व नहीं माना गया है । इस प्रकार 'तत्त्वमसि' इत्यादि वेदान्तवाक्यका तात्पर्य जाननेवाले पुरुषको 'मैं' इस प्रत्ययसे ग्राह्य शरीर, इस प्रत्यय के विषय न होनेवाले इन्द्रियादि, प्रत्यगात्मा और सुखदुःखादि विष्टि अन्तःकरण, इन चारों पदार्थोंमें विरोव बुद्धि नहीं होती || ५ || नाsविरक्तस्य संसाराभिविवत्सा ततो भवेत ।
४८
न चाऽनिवृत्ततृष्णस्य पुरुषस्य
मुमुक्षुता ।। ६ ।।
जो पुरुष संसारसे विरक्त नहीं है, उसे संसारसे निवृत्त होनेकी इच्छा नहीं होती और जिसकी तृष्णा शान्त नहीं हुई है, उसको मोक्ष की इच्छा भी नहीं होती || ६ ॥ [ यहाँपर यह शङ्का होती है कि 'यदि वाक्य अपना अर्थ प्रतिपादन करने के लिए दूसरे प्रमाण अपेक्षा नहीं करता और प्रमाणान्तरका विरोध भी नहीं है, तो फिर वाक्यका श्रवण करते ही सभीको क्यों नहीं ज्ञान उत्पन्न होता ? इसका उत्तर 'जो ब्रह्मज्ञान के साधन वैराग्य यादिसे युक्त हैं, उन्हीं को ज्ञान उत्पन्न होता है' इस प्रकार से मि श्लोकसे देते हैं । ]
न चामुतोरस्तीह
गुरुपादोपसर्पणम् । न विना गुरुसम्बन्धं वाक्यस्य श्रवणं भवेत् ॥ ७ ॥
जो मुमुक्षु नहीं है, वह पुरुष गुरुचरणोंके समीप नहीं पहुँचता और बिना गुरुचरणोंके समीप पहुँचे वेदान्त वाक्यका श्रवण नहीं होता है ॥ ७ ॥
तथा पदपदार्थों च न स्तो वाक्यमृते क्वचित् । अन्वयव्यतिरेकौ च तावृते स्तां किमाश्रयौ ॥ ८ ॥
और वाक्यके बिना पद-पदार्थ कहीं नहीं रह सकते हैं एवं पदपदार्थों के बिना अन्वय और व्यतिरेक भी किसके सहारे रह सकेंगे ॥ ८ ॥
अन्वयव्यतिरेकाभ्यां विना वाक्यार्थबोधनम् | न स्यात्तेन १ – नाशो नाज्ञानस्योपजायते, ऐसा तथा 'ज्ञानप्रहाणं नोपपद्यते, भी पाठ है ।
विना ध्वंसो' नाऽज्ञानस्योपपद्यते ॥ ९ ॥
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.
पादसाहता
भाषानुवादसहिता अन्वय-व्यतिरेकके बिना वाक्यार्थका ज्ञान नहीं हो सकता और वाक्यार्थशानके विना अज्ञानका नाश नहीं हो सकता है ॥ ६ ॥
विनाज्ञानप्रहाणेन पुरुषार्थः सुदुर्लभः ।
तस्माद्यथोक्तसिद्धयर्थं परो ग्रन्थोऽवतार्यते ॥ १० ॥ विना अज्ञानको निवृत्ति हुए पुरुषार्थका लाभ अत्यन्त दुर्लभ है। इसलिए पूर्वोक्त प्रयोजनकी सिद्धि के लिए, अन्वय-व्यतिरेकसे त्वं पदार्थका स्पष्टीकरण करनेके लिए, अग्रिम ग्रन्थका प्रारम्भ करते हैं ॥ १० ॥
. वर्चस्क' त्वन्नकार्यत्वाद्यथानाऽत्मेति गम्यते ।
तद्भागः सेन्द्रियो देहस्तद्वकिमिति नेक्ष्यते ॥ ११ ॥
जैसे शरीरका मल अन्नका परिणाम होनेके कारण स्पष्ट ही अनात्मा है। वैसे ही इन्द्रियोंके सहित शरीर भी अन्नका ही परिणाम होनेके कारण अनात्मा है, ऐसा क्यों नहीं अनुमानसे निश्चय करते ? ॥ ११ ॥
आद्यन्तयोरनात्मत्वे प्रसिद्ध मध्ये कः प्रतिबन्धः।।
जब आदि और अन्तमें अनात्मपन प्रसिद्ध है, तो मध्यमें उसे अनात्मा मानने में क्या रुकावट है ?
प्रागनात्मैव जग्धं सदात्मतामेत्यविद्यया ।
स्रगालेपनवदेहं तस्मात्पश्येद्विरक्तधीः ॥ १२ ॥
भक्षण के पहले अन्न अनात्मा है, खा लेनेपर अविद्याके कारण वह अात्मा प्रतीत होने लगता है। इसलिए विवेकी पुरुषको माला, चन्दन इत्यादि वस्तुओंके समान ही देहको भी ( अनात्मा) समझना चाहिए ॥ १२ ॥
अथैवमपि मद्वचनं नाऽऽद्रियसे स्वयमेवैतस्माच्छरीरादशुचिराशेनिराशो भविष्यसि । .
. इतना कहनेपर भी यदि आप मेरे वचनपर श्रद्धा नहीं करते तो स्वयं ही इस अपवित्रताकी खान शरीरसे निराश" हो जाओगे।
१.-वर्चस्कमन्नकार्यत्वात्, भी पाठ मिलता है।
२-नेच्यते - नानुमीयते, देहेन्द्रियादि नात्मरूपम् , अन्नकार्यत्वात् , पुरीषवत्, . इति प्रयोगः ।
३-मध्येऽपि कः प्रतिबन्धः, भी पाठ है। ४-विविक्तधीः, भी पाठ है। . --वियुक्त, अर्थात् उसमें अभिमान शून्य ।।
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tosसद्धिः
।
मन्यसे तावदस्मीति यावदस्मान्न नीयसे । खभिः क्रोडीकृते देहे नैवं त्वमभिस्यसे ॥ १३ ॥
तभीतक श्राप इस शरीर में हंबुद्धि कर सको हैं जबतक कि इससे निकलते नहीं । जहाँ आप इस शरीर से निकले तभी इसपर कुत्ते आक्रमण करेंगे और फिर आपका
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इसपर किञ्चिन्मात्र भी ग्रमिमान न रह जायगा ॥ १३ ॥
शिर आक्रम्य पादेन भर्त्सयत्यपरान् शुनः ।
साधारणं देहं कस्मात्स कोऽसि तत्र भोः ॥ १४ ॥
जिस शरीरपर आप इस समय बड़ा अभिमान करते हो, उसी शरीरके शिरपर पैर रखकर, आपके त्याग देने के पश्चात्, कुत्ता अभिमान करेगा और दूसरे कुत्ते जो उसको लेना चाहेंगे उनकों झिड़केगा । अरे मित्र ! ऐसे साधारण शरीर में क्यों फँस 1 रहे हो ? ॥ १४ ॥
श्रुतिप्रतिपः दितोऽयमर्थोऽनात्मा बुद्धयादिर्देहान्त इतीदमाह । बुद्धिसे लेकर देह पर्यन्त सत्र वस्तु अनात्मा है, यह बात श्रुति से भी सिद्ध है । यह अग्रिम श्लोकसे कहते हैं
बुसत्रीहिपलालांशैजमेकं त्रिधा यथा । बुद्धिमांस पुरीषांशैरनं तद्वदवस्थितम् ॥ १५ ॥
जैसे एक ही बीज भूसी, चावल और पलाल इन तीन अंशों में परिणत होता
है । वैसे ही खाया हुआ अन्न बुद्ध ( मन ); मांस और मल इन तीन रोमें परिणत
1
होता है || १५ ||
यथोक्तार्थप्रतिपत्तौ सत्यां न रागद्वेषाभ्यां विक्रियते विपश्चि दित्यस्यार्थस्य प्रतिपत्तये दृष्टान्तः ।
पूर्वोक्त अर्थको यथावत् जान लेनेपर अर्थात् देहादिमें श्रात्मत्वाभिमान की निवृत्ति हो जानेसे आत्मत्वरूपका ज्ञान होनेपर विद्वान् पुरुष रागद्वेपसे अभिभूत नहीं होता । इस बात को स्पष्ट करनेके लिए दृष्टान्त देते हैं
वर्च के सम्परित्यक्ते दोषतश्चाऽवधारिते । यदि दोषं वदेत्तस्मै किं तत्रोच्चरितुर्भवेत् ॥ १६ ॥ तद्वत् सूक्ष्मे तथा रथूले देहे त्यक्ते विवेकतः । यदि द्वशेषं वदेत्ताभ्यां किं तत्र विदुषो भवेत् ॥ १७ ॥
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भाषानुवादसहिता जिस मलको वास्तव में दोषयुक्त समझकर त्याग दिया है, उसको यदि कोई दोष देने लगे ( उसकी निन्दा करने लगे), तो क्या वह दोष मलत्याग करनेवाले को लगेगा ? इसी प्रकार जिसने विवेकसे स्थूल और सूक्ष्म शरीरका त्याग कर दिया है, उससे अभिमान हटा लिया है, उस विद्वान् के शरीरमें यदि कोई मनुष्य दोष निकाले तो इससे विद्वान्का क्या विगड़ता है ।। १६-१७ ॥
___ एतावदेव ह्यहं ब्रह्माऽस्मीति बाक्यर्थाप्रतिपत्तौ कारणं यदुत' बुद्ध्यादौ देहान्ते ह्यहं ममेति निःसन्धिवन्धनो ग्रहस्तद्वयतिरेके हि न कुतश्चिद्विभज्यत एकल एव प्रत्यगात्मन्यवतिष्ठत इत्याह ।
'मैं ब्रह्म हूँ' इस ज्ञानके उत्पन्न होनेमें रुकावट केवल यही है कि बुद्धिसे लेकर देह पर्यन्त वस्तुओंमें 'मैं और मेरा' इस प्रकारका निःसन्धि-निरन्तर अर्थात् जिसमें बाधक ज्ञान बीचमें नहीं है ऐसा, प्राग्रह (निश्चय ) होना। इस अहं मम अभिमानके निवृत्त होनेसे फिर वह पुरुष किसी पदार्थ से भी अपनेको पृथक् नहीं समझता, किन्तु अद्वितीय प्रत्यगात्मामें ही उसकी स्थिति होती है। यह बात कहते हैं
रिपो बन्धौ स्वदेहे च समैकात्म्यं प्रपश्यतः ।
विवेकिनः२ कुतः कोपः स्वदेहावयवेष्विव ॥ १८ ॥ शत्रु, मित्र और अपने देहमें सम एक आत्माको देखनेवाले विवेकी पुरुषको कोप कैसे होगा ? जैसे कि अपने देहके अङ्गोंका अपने ही देहके अङ्गोंसे सङ्घर्ष (अभिघात ) होनेसे किसीको भी क्रोध नहीं उत्पन्न होता है ॥ १८ ॥
इतश्चाऽनात्मा देहादिः। और देहादिके अनात्मा होने में यह भी कारण है कि
घटादिवच दृश्यत्वातैरेव करणेदृशेः।।
स्वप्ने चाऽनन्वयाज्ज्ञयो देहोऽनात्मेति सूरिभिः ॥ १९ ॥ देह घटादिके समान दृश्य है (यदि वह आत्मरूप होता तो दृश्य नहीं होता।) और पदार्थोंका अालोचन करने के लिए जीवात्माके साधनरूप इन्द्रियोंके साथ शरीरका सम्बन्ध सब कालमें नहीं रहता, इससे इन्द्रियाँ भी यात्मरूप नहीं हैं। यदि वे आत्मरूप होती तो सब कालमें विषयोंका ग्रहण करतीं। परन्तु स्वप्नावस्थामें देखा जाता है कि बिना इन्द्रियोंकी सहायताके विषयोंका ग्रहण होता है। इससे विद्वानोंको निश्चय कर लेना चाहिए कि देह और इन्द्रियाँ आत्मा नहीं हैं, ( किन्तु जाग्रत् अवस्थामें . विषयोंका ग्रहण करने के लिए आत्माके साधनमात्र हैं ।)॥ १६ ॥
9-यदुक्तबुद्ध्यादौ, ऐसा भी पाठ है। २-विवेकिनः पुनः कोपः, भी पाठ है ।
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ર
नैष्कर्म्यसिद्धिः
देहादिकार्य करण' - सङ्घातव्यतिरेकाव्यतिरेकदर्शिनः
एव विरुद्ध कार्यमुपलभ्यते ।
प्रत्यक्षत
देहेन्द्रियादि कार्यकरण सङ्घातसे अपनेको भिन्न समझनेवालों और अभिन्न समझने वालों के कार्य भी प्रत्यक्ष से ही विरुद्ध देखे जाते हैं ।
चतुर्भिरुह्यते यत्तत्सर्वशक्त्या शरीरकम् । तूलायते तदेवाऽहंधियाऽऽघातमचेतसाम् ॥ २० ॥
जिस शरीरपर हंबुद्धिके न रहने पर [ मरनेके अनन्तर ] चार आदमी उसे बड़ी कठिनता से उठा सकते हैं, उसी शरीरको, निर्बुद्धि लोग 'मैं यह देह ही हूँ' ऐसा समझते हुए, तूलके समान लिए फिरते हैं ( स्वदेह और परदेह इनमें कोई भेद नहीं है, केवल बुद्धिमात्र से ही खदेहका भार हम लोगोंको नहीं होता। इससे सिद्ध हुआ कि देह श्रात्मा नहीं है । ) ॥ २० ॥
प्रसिद्धत्वात्प्रकरणार्थोपसंहारायाऽऽह ।
चार्वाकको छोड़कर बाँकी सन वादियों के मत में स्थूल देहसे आत्माका भेद सिद्ध ही है । इसलिए प्रकरणाथका उपसंहार करते हैं
1
स्थूलं युक्त्या निरस्यैवं नभसो नीलतामिव ।
देहं सूक्ष्मं निराकुर्यादतो युक्तिभिरात्मनः ॥ २१ ॥ जिस प्रकार का नीलिमाका सर्वथा अभाव है, इसी प्रकार स्थूल शरीर में
भी श्रात्मना सर्वथा अभाव है। ऐसा निश्चय करके ( तदनन्तर ) युक्तियों के द्वारा सूक्ष्म देहमें भी श्रात्मपनका निराकरण करना चाहिए ॥ २१ ॥
कथं देहं सूक्ष्मं निराकुर्यादिति ? उच्यते ।
सूक्ष्म देहसे आत्मबुद्धिका निराकरण किस प्रकारसे करना चाहिए, यह कहते हैं-अहंममत्वयत्नेच्छा नाऽऽत्मधर्माः कृशत्ववत् । कर्मत्वेनोपलभ्यत्वादपायित्वाच्च
वस्त्रवत् ।। २२ ।।
जिस प्रकार कृशता, स्थूलता आदि स्थून शरीरके धर्म हैं, आत्मा नहीं । इसी प्रकार अहङ्कार, ममता, यत्न, इच्छा आदि भी सूक्ष्म शरीर के धर्म हैं, ग्रात्मा के नहीं, क्योंकि ये सब वस्त्रादिकी भाँति आत्मा के दृश्य हैं और ग्रागमापायी हैं ॥ २३ ॥
वैधर्म्य दृष्टान्तः
१ -- कार्य कारण, ऐसा भी पाठ मिलता है ।
२ - धियाध्यातम्, और 'श्रमेधसाम्' भी पाठ मिलता है ।
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भाषानुवादसहिता
५.३
यदि श्रहङ्कार आदि श्रात्मा के धर्म होते तो वे उसके दृश्य न होते। जो जिसका धर्म होता है वह उसका दृश्य नहीं होता । इस विषय में (एक) दृष्टान्त देते हैं-नोणिमानं दहत्यग्निः स्वरूपत्वाद्यथा ज्वलन् । तथैवात्माऽऽत्मनो विद्यादहं नैवाऽविशेषतः ॥ २३ ॥
जैसे जलता हुआ न अपनी स्वरूपभूत उपगताको, उसका ही स्वरूप होने के कारण, नहीं जला सकता है। वैसे ही यदि श्रहङ्कार ग्रादि ग्रात्मत्वरूप या ग्रात्मा के धर्म होते, तो आत्मासे वे प्रकाशित न होते । प्रकाशित तो वे होते हैं। इससे सिद्ध है कि वे अनात्मा हैं || २३ ॥
एकस्याऽऽत्मनः कर्मकर्तृभावः सर्वथा नोपपद्यते इति श्रुत्वा मीमांसकः प्रत्यवतिष्ठते । श्रप्रत्ययग्राह्यत्वाद् ग्राहक' आत्मेति । तन्निवृत्त्यर्थमाह ।
आत्मा 'अहं' इस कारण कर्ता है ।
एक हौ आत्मामें कर्मकर्तृभाव सर्वथा नहीं बन सकता। इस बात को सुनकर मीमांसक लोग शङ्का करते हैं कि - 'एक ही ज्ञानका विषय होने के कारण कर्म है और इसका प्रकाशक होने के इस प्रकार एक ही आत्मामें कर्मकर्तृभाव यथावत् हो सकता है।' इस शङ्काको निवृत्ति के लिए कहते हैंकर्मको हि यो भावो नाऽसौ तत्कर्तृ को यतः । स्याद् द्रष्टृकर्मकः ।। २४ ।।
घटप्रत्ययवत्तरमान्नाऽहं
जिस क्रियाका जो कर्ता है, वह उसीका कर्म नहीं होना । जैसे घटके ज्ञानमें घट कर्म है, अर्थात् विषय है, तो वह उसके ज्ञानमें कर्ता नहीं हो सकता है । वैसे ही 'अहम्' यह ज्ञान श्रात्म-विषयक नहीं होता । क्योंकि उसमें वह कर्ता है ॥ २४ ॥
1
अत्राऽऽह, प्रत्यक्षेणाऽऽत्मनः कर्मकर्तृत्वाभ्युपगमे तत्पादोपजीविनाअनुमानेन प्रत्यक्षोत्सारणमयुक्तमिति चोद्यम् । तन्निराकरणाय प्रत्यचोपन्यासः ।
इस पर कोई लोग कहते हैं कि 'प्रत्यक्ष प्रमाणसे जत्र श्रात्मामें कर्मत्व और कर्तृव दोनों सिद्ध हैं, फिर आप प्रत्यज्ञके अनुयायी अनुमानसे प्रत्यक्षका बाध कैसे कर सकते हो' ? इस शङ्काका समाधान करने के लिए कहते हैं -
१ - ग्राह्यग्राहक ऐसा पाठ भी है ।
२ - मतः,
भी पाठ है 1
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नैष्कर्म्यसिद्धिः यत्र यो दृश्यते द्रष्टा तस्यैवाऽसौ गुणो न तु ।
द्रष्ट्रस्थो' दृश्यतां यस्मान्नैवेयादृष्टवोधवत् ॥ २५ ॥ जिस अन्तःकरणमें जो 'अहम्' (मैं) यह ज्ञान साक्षीसे भासित होता है, वह ज्ञान उसी अन्तःकरणका धर्म (परिमाण ) है, साक्षीका नहीं। यदि ऐसा न होता तो द्रष्टाके स्वरूपभूत ज्ञानके समान, वह भी साक्षीसे प्रकाशित नहीं होता ॥ २५ ॥
प्रत्यक्षेणैव भवदभिमतस्य प्रत्यक्षस्याऽऽभासीकृतत्वात्सुस्थमेवाऽनुमानम् । अतस्तदेव प्रक्रियते । तत्र च विकल्पदूषणाभिधानम् ।
प्रत्यक्षसे ही अापका अभीष्ट है । प्रत्यक्ष दोषयुक्त सिद्ध हो गया है और पूर्वोक्त अनुमान दोष रहित स्थित है। इसलिए पुनः उसीका खण्डन करते हैं। वहाँपर दो कोटियाँ करके दोप दिखलाते हैं
नाऽऽत्मना न तदंशेन गुणः स्वस्थोऽवगम्यते ।
अभिन्नत्वात्समत्वाच निरंशत्वादकर्मतः ।। २६ ।। अात्मा अपने गुणको स्वयं अथवा अपने ग्रंशसे ग्रहण नहीं कर सकता। क्योंकि वह किसीसे भिन्न नहीं है, सर्वत्र सम है, उसका कोई अंश नहीं है और वह कभी किसीका कर्म नहीं होता ॥ २६ ।।
न युगपन्नाऽपि क्रमेणोभयथा चैकस्य धर्मिणो ग्राह्यग्राहकत्वमुपपद्यत इति प्रतिपादनाय आह
एक ही धर्मी में ग्राह्यत्व और ग्राहकत्व न एक कालमें और न क्रमसे ही रह सकते हैं, इस बातका प्रतिपादन करनेके लिए कहते हैं
द्रष्टत्वेनोपयुक्तत्वात्तदैव स्यान्न दृश्यता । ' कालान्तरे चेद् दृश्यत्वं न ह्यद्रष्टकमिष्यते ॥ २७ ॥
जिस कालमें आत्मा द्रष्टा है, उसी काल में तो वह दृश्य हो ही नहीं सकता । यदि यह कहा जाय कि कालान्तरमें दृश्य हो जायगा, यह भी ठीक नहीं। क्योंकि उस समय में द्रष्टा कोई नहीं होगा, तब फिर दृश्य किसका ? क्योंकि दृश्य तो द्रष्टाके बिना होता ही नहीं ।। २७ ॥
१-द्रष्ट्रस्थं दृश्यतां, ऐसा भी पाठ मिलता है। २-प्रत्यक्षेणाभिमतस्य, ऐसा भी पाठ है । ३-विकल्प्य दूषणाभिधानम्, भी पाठ है।
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भाषानुवादसहिता सन्तु काममनात्मधर्मा ममत्वादयोऽप्युक्तन्यायबलात्,' अनात्मतयैव च तेषु व्यवहारात् । अहंरूपस्य तु प्रत्यगात्मसम्बन्धितयैव' प्रसिद्धः, अहं ब्रह्मास्मीति श्रुतेश्चानात्मधर्मत्वमयुक्त मिति चेत्, तन्न ।
__शङ्का-अस्तु, ममता, प्रयत्न, इच्छा अादि धर्म उक्त युक्तियों के बलसे चाहे अनात्माके धर्म सिद्ध हो जाएँ। क्योंकि उनमें व्यवहार भी अनात्माके समान ही होता है। परन्तु अहङ्कार तो आत्मरूपसे ही प्रसिद्व है और 'अहं ब्रह्मास्मि' इस श्रुतिमें भी 'अहम्' इस शब्दसे प्रात्माका ही ग्रहण प्रतीत होता है। इसलिए अहंकारको अनात्मा कहना अयुक्त है । समाधान
अहंधर्मस्त्वभिन्नश्चेदहंब्रह्मेति वाक्यतः ।
गौरोऽहमिन्यनैकान्तो वाक्यं तद्वयपनेत तत् ॥ २८ ॥ ___ यदि 'अहं ब्रह्मास्मि' (मैं ब्रह्म हूँ) इस वाक्यसे अहंकार और ब्रह्मका अभेद बोधित होता है तो मैं गौर ( गोरा ) हूँ' इस वाक्यसे भी गौरवर्ण के साथ अात्माका अभेद हो जायगा ? क्योंकि 'मैं गौर (गोरा ) हूँ' यह वाक्य भी लोकमें प्रयुक्त होता है। परन्तु गौर वर्णका आत्माके साथ अभेद तो नहीं होता है । इसलिए 'मैं ब्रह्म हूँ' इससे भी अहङ्कार और ब्रह्मका अभेद नहीं बोधित होता, किन्तु अहङ्कारका बोध होता है । अर्थात् 'अहं ब्रह्माऽस्मि' इस वाक्यका यह अर्थ होता है कि 'मैं अहङ्कार नहीं, किन्तु ब्रह्म हूँ॥२८॥
कथं वाक्यं तव्यपनेर तदिति उच्यते
'अहं ब्रह्म.ऽस्मि' यह वाक्य किस प्रकार अहङ्कारका बाधक होता है, यह बत. लाते हैं
योऽयं स्थाणुः पुमानेषः पुंधिया स्थाणुधीरिव ।
ब्रह्माऽस्मीतिधियाऽशेषामहं बुद्धिं निवर्तये ।। २९ ॥ जैसे पुरुषमें भ्रमसे उत्पन्न हुई स्थाणु बुद्धि 'यह पुरुष है' इस प्रकारके ज्ञानसे बाधित हो जाती है । वैसे ही 'मैं अहङ्कार हूँ' इस बुद्धिको 'मैं अहङ्कार नहीं, किन्तु ब्रह्म हूँ' इस बुद्धसे निवृत्त करना चाहिए || २६ ||
___ अहंपरिच्छेदव्यावृत्तौ न किञ्चिदव्यावृतं द्वैतजातमवशिष्यते, द्वितीयसम्बन्धस्य तन्मूलत्वादत आह--
१-यथोक्तन्यायबलात्, भी पाठ है । २-प्रत्यगात्मतयैव, भी पाठ है। ३-निवारयेत् । ऐसा तथा 'अशेषा ह्यहबुद्विवियते, भी पाठ है।
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नैष्कर्म्यसिद्धिः । 'अहम्' इस प्रकार के ज्ञानसे, अहंबुद्धिसे अर्थात् अहं कारसे होनेवाले भेदग्रहकी निवृत्ति होनेपर कोई भी द्वैत निवृत्त होनेके लिए अवशिष्ट नहीं रहता। क्योंकि द्वतके सम्बन्धका मूल कारण यह अहंबुद्धि हो है। यह बात कहते हैं
निवृत्तायामहंबुद्धौ ममधीः प्रविलीयते ।
अहंबीजा हि सा सिद्ध चत्तमोऽभावे कुतः फणी ॥ ३० ॥
अहं बुद्धि ही ममताका क्षेत्र है। इसलिए अहङ्कारके निवृत्त हो जानेपर ममता भी लय हो जाती है। क्योंकि जब रज्जुमें सर्पका भ्रम होनेका बीज-अन्धकारही नहीं रहा, तो फिर उसमें सर्पका भ्रम हो ही कैसे सकता है ॥ ३० ॥
विवक्षितदृष्टान्तांशज्ञापनाय दृष्टान्तव्याख्याउक्त दृष्टान्त के विवक्षित ग्रंशको जनाने के लिए दृष्टान्तकी व्याख्या करते हैं
तमोभिभूतचित्तो हि रज्ज्वां पश्यति रोषणम् ।
भ्रान्त्याभ्रान्त्या विना तस्मानोरगं स्रजि वीचते ॥ ३१ ॥ अज्ञानसे आच्छादित चित्तवाला मनुष्य भ्रान्तिसे रज्जुमें सर्पको देखता है और जब भ्रान्ति नहीं रहती, तब वह मनुप्य रज्जु अथवा मालामें सर्पको नहीं देखता ॥ ३१ ॥
अनन्वयाच नाऽऽत्मधर्मोऽहङ्कारः। - अात्माके साथ अनुगत न होनेके कारण भी अहङ्कार श्रात्माका धर्म नहीं हो सकता।
आत्मनश्चेदहं धर्मो यायान्मुक्तिसुषुप्तयोः ।
यतो नाऽन्वेति- तेनाऽयमन्यदीयो भवेदहम् ।। ३२ ॥ यदि अहङ्कार प्रात्माका धर्म होता तो वह मुक्ति और सुघुति अवस्थामें भी आत्माके साथ अनुगत रहता। परन्तु मुक्ति और सुषुतिमें वह आत्माके साथ अनुगत नहीं पाया जाता । इसलिए अहङ्कार किसी औरका ही धर्म है, अात्माका नहीं ॥ ३२ ॥
प्रात्मधर्मत्वाभ्युपगमेऽपरिहायदोपप्रसक्तिश्च ।
और अहङ्कारको प्रात्माका धर्म माननेपर और भी अनेक अपरिहार्य दोष या जाएँगे।
१-संसिध्येत्, ऐसा भी पाठ है।
२-अर्थात् जैसे मालामें सर्पकी प्रतीति भ्रान्तिसे होती है वैसे ही प्रात्मामें अहंकारकी प्रतीति अविद्यासे होती है। विद्याकी निवृत्ति होनेपर उससे उत्पन्न अहंवृत्ति भी निवृत्त हो जाती है, तब केवल ब्रह्माकार चितवृत्ति स्थित हो जाती है।
३-मुक्तसुषुप्तबोः, भी पाठ है।
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५७
भाषानुवादसहिता यद्यात्मधर्मोऽहङ्कारो नित्यत्वं तस्य बोधवत् ।
नित्यत्वे मोक्षशास्त्राणां वैययं प्राप्नुयात् ध्रुवम् ॥ ३३॥
मदि अहङ्कारको आत्माका धर्म माना जाय तो उसको, ज्ञानके समान, नित्य मानना पड़ेगा। यदि उसको नित्य हो मान लिया जाय तो मोक्ष शास्त्र सब व्यर्थ हो जाएँगे ॥ ३३ ॥
स्यात्परिहारः स्वाभाविकधमन्त्राभ्युपगमेऽप्याम्रादिफलवदिति चेत् ? तन्न।
हाँ, यदि कहो कि अहङ्कारको यात्माका स्वाभाविक धर्म माननेपर भी कोई दोष नहीं आता । जैसे अाम्रफलका हरितवर्ण स्वाभाविक होनेपर भी, वह नष्ट हो जाता है, इसी प्रकार अहङ्कार आत्माका स्वाभाविक धर्म होनेपर भी नष्ट हो जाएगा ? तो यह भी ठीक नहीं । क्योंकि
अाम्रादेः परिणामित्वाद् गुणहानिर्गुणान्तरैः ।
अविकारि तु तद् ब्रह्म न हि द्रष्टुरिति श्रुतेः ॥ ३४ ॥ अाम्रादि फल परिणामी है, इसलिए उसमें गुणान्तरोंके उदित होनेसे पूर्वगुणोंकी हानि हो सकती है, परन्तु यह ब्रह्म तो सर्वथा विकार-रहित है। जैसा कि 'नहि द्रष्टुदृष्टर्विपरिलोपो विद्यते' इत्यादि अतियोंमें वर्णन किया गया है ॥ ३४ ॥
अहङ्कारस्याऽऽगमापायित्वात्तद्धर्मिणश्चाऽनित्यत्वं प्राप्नोति ।
आगमापायिनिष्ठत्वादनित्यत्वमियादृशिः ।
उपयन्नपयन्" धर्मो विकरोति हि धर्मिणम् ।। ३५ ।। अहङ्कार उत्पत्ति और नाशसे युक्त है। इसलिए उसको यदि अात्माका धर्म मानोगे तो आत्मा भी उत्पत्ति और नाशयुक्त होनेसे अनित्य हो जाएगा। क्योंकि धर्म उत्पन्न या नष्ट होता हुआ अपने धर्मीको विकारी बना देता है, यह नियम है ॥३५॥
अस्त्वनित्यत्वं कमुपालभेमहि, प्रमाणोपपन्नत्वादिति चेत् तन्न ।
शङ्का-अहङ्कारको आत्माका, धर्म माननेसे यदि अात्मामें अनित्यत्व दोष ग्राजाता है, तो आवे, किसे उपालम्भ दिया जाय ? प्रमाणोंसे ऐसा ही सिद्ध है।
१-नित्यत्वमित्यस्य प्राप्नुयादित्यत्र सम्बन्धः। २–बोधशास्त्राणां, ऐसा भी पाठ है । ३-गुणान्तरे, भी पाठ है।। ४-इयाद्दशेः, ऐसा भी पाठ है। ५-उपयन् = प्रादुर्भवन् , अपयन् = तिरोभवन् ।
m
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नैष्कर्म्यसिद्धिः समाधान-ऐसा कहना ठीक नहीं । क्योंकि--
सदाऽविलुप्तसाक्षित्वं स्वतः सिद्धं न पार्यते ।
अपह्नोतुं . घटस्येव कुशाग्रीयधियात्मनः ॥ ३६ ॥ कुशाग्रके समान सूक्ष्म बुद्धिवाले पुरुष स्वत: सिद्ध, सदा अलुत द्रदत्वरूप श्रात्माके साक्षित्वको, घटादिके समान, छिपा नहीं सकते हैं ॥ ३६ ।।
एतस्माच्च हेतोरहङ्कारस्याऽनात्मधर्मत्वमवसीयताम् ।
यतो राद्धिः प्रमाणानां स कथं तैः प्रसिद्धयति ।। ३७ ।।
और इस कारणसे भी अहङ्कारको यात्मासे भिन्नका (अनात्माका) धर्म समझना चाहिए कि अहङ्कारका घटादिके समान प्रमाणांसे ग्रहण किया जाता है। यदि कहो कि अात्माका भी तो प्रमाणोंसे ही ग्रहण किया जाता है, इसलिए वह भी अनात्मा हो जायगा, तो यह ठीक नहीं। क्योंकि जिससे समस्त प्रमाणोंकी सिद्धि होती है, वह यात्मा प्रमाणोंसे कैसे सिद्ध किया जा सकता है ? ॥ ३७ ॥
धर्मिणश्च विरुद्धत्वान्न दृश्यगुणसङ्गतिः ।
मारुतान्दोलितज्वालं शैत्यं नाऽग्नि सिसृप्सति ॥ ३८ ॥ धर्म (अहंकार) और धर्मी (आत्मा) दोनों परस्पर विरुद्ध हैं, इसलिए भी उनका सम्बन्ध नहीं हो सकता है। जैसे वायुसे प्रज्वलित अमिको शीतका स्पर्श नहीं हो सकता है । वैसे ही दृश्यके गुणोंके साथ धर्मी अात्माको विरोध होनेके कारण उनका (दृश्यके गुणोंका ) उससे (आत्मासे ) सम्बन्ध नहीं हो सकता है ।
तस्माद् विस्रब्धमुपगम्यताम् । द्रष्ट्रत्वं दृश्यता चैव नैकस्मिन्नेकदा क्वचित् ।
दृश्यदृश्यो न च द्रष्टा द्रष्टुर्दर्शी दृशिर्न च ॥ ३९ ।। इसलिए निःशङ्क होकर मान लीजिए कि .
द्रष्टत्व और दृश्यत्व कभी भी, कहीं भी एक समय एकमें नहीं रहते। तथा द्रष्टा दृश्योंका दृश्य और दृश्य द्रष्टाका द्रष्टा कदापि नहीं होता ॥ ३६॥
१-एवं धर्मधर्मिणोः, ऐसा पाठ भी है।
२-'सिसृक्ष्यति, और सिसृप्स्यति, ऐसा भी पाठ है।' सिसृप्सति = उपगच्छति, सम्बध्यत इति यावत् ।
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भाषानुवादसहिता
सर्वव्यवहारलोपश्च प्राप्नोति । यस्मात् - द्रष्टाऽपि यदि दृश्याया आत्मेयात्कर्मतां धियः | यौगपद्यमदृश्यत्वं वैयर्थ्यं चाऽऽप्नुयाच्छ्रुतिः ॥ ४० ॥
यदि द्रष्टा में दृश्यस्व माना जाय, तब सब व्यवहारोंका लोप प्राप्त होगा । क्योंकि यदि द्रष्टा होकर भी आत्मा दृश्यभूत बुद्धिका प्रकाश्य बनेगा तो बुद्धि और आत्मा दोनोंको ही एक ही समयमें द्रष्टृत्व और दृश्यल एवं (दोनों ही द्रष्टा होनेके कारण ) दोनोंको अदृश्यस्व भी प्राप्त होगा । और फिर " न हि द्रष्टुर्द्रष्टेर्विपरिलोपो विद्यतेऽविनाशित्वात्'–अविनाशी होनेके कारण द्रष्टा श्रात्माकी दृष्टिका कभी लोप नहीं होता । " यह श्रुति भी व्यर्थ हो जायगी ॥ ४० ॥
कुतः । यस्मात् ।
नाऽलुप्तद्रष्टेर्दृश्यत्वं दृश्यत्वे द्रष्टृता कुतः । स्याच्चेद्दृगेकं निर्दृश्यं' जगद्वा स्यादसाक्षिकम् । ४१ ।।
शङ्का - आत्मा क्यों दृश्य नहीं बन सकता ? उत्तर-
५९
घटादि पदार्थोंके समान दृष्टिका लोप हुए बिना तो दृश्यत्व नहीं बन सकता और जो दृश्य हो गया वह फिर द्रष्टा कैसे हो सकता है ? यदि दृश्य होनेपर भी उसका द्रष्टा होना माना जाय तो यह सम्पूर्ण जगत् द्रष्टारूप हो जानेसे दृश्यशून्य केवल द्रष्टा ही शेष रहेगा और यदि द्रष्टाका दृश्य होना माना जाय तो सारा जगत् द्रष्टासे शून्य हो जायगा ॥ ४१ ॥
उक्त युक्ति द्रढीकर्तुमागमोदाहरणोपन्यासःमन्यद्दृशेः सर्वं नेति नेतीति वाऽसकृत् ।
वदन्ती निर्गुणं ब्रह्म कथं श्रुतिरुपेक्ष्यते ।। ४२ ।। महाभूतान्यहङ्कार इत्येतत्क्षेत्रमुच्यते ।
न दृशेद्वैतयोगोऽस्ति विश्वेश्वरमतादपि ॥ ४३ ॥
3
पूर्वोक्त युक्तिको दृढ़ करनेके लिए श्रुतिके प्रमाणोंको उद्धृत करते हैं'अतोऽन्यदार्तम्' (द्रष्टा के अतिरिक्त सब वस्तु मिथ्या हैं ) तथा 'नेति नेति'
( यह जो कुछ दृश्यमान है, वह आत्मा नहीं है ) इत्यादि निर्गुण ब्रह्मको प्रतिपादन
१ – स्याच्चेहगेका निर्दृश्या, ऐसा भी पाठ है ।
२ – उक्तयुक्तिद्रढिम्ने, ऐसा भी पाठान्तर है ।
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३ – द्वैतभोगोऽस्ति, भी पाठ है ।
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नैष्कर्म्यसिद्धिः करनेवाली श्रुतियोंकी कैसे उपेक्षाकी जाय ? ॥ ४२ ॥ “महाभूत और अहंकार, ये सब क्षेत्र कहलाते हैं ।" इस प्रकार भगवान् श्रीकृष्ण के मतसे भी द्रष्टाका द्वैतसे कोई सम्बन्ध नहीं है, यही सिद्ध होता है ।। ४३ ॥
अधुना प्रकृतार्थोपसंहारः।
अब (अनात्म वस्तुके क्षेत्ररूप होने के कारण विकारयुक्त सिद्ध होनेपर) अहङ्कारादि द्वैतप्रपञ्च सब अनात्मरूप तथा मिथ्या है, इस प्रकृत अर्थका उपसंहार करते हैं
एवमेतद्धिरुग्ज्ञेयं मिथ्यासिद्धमनात्मकम् ।
मोहमूलं सुदुर्बोधं द्वैतं युक्तिभिरात्मनः ॥ ४४ ॥ इस प्रकार मिथ्या भ्रमसे सिद्ध, अज्ञानमूलक श्रात्मस्वभावसे रहित होनेके कारण प्रमाण एवं युक्तियोंसे विरुद्ध द्वैतको पूर्ववर्णित युक्तियों के द्वारा आत्मासे पृथक् जानना चाहिए ॥ ४ ॥
कुतो मिथ्यासिद्धत्वं द्वैतस्येति चेत् ? न पृथङ् नात्मना सिद्धिरात्मनोऽन्यस्य वस्तुनः ।
आत्मवत्कल्पितस्तस्मादहङ्कारादिरात्मनि ।। ४५ ।। शङ्का-किस कारण से द्वैत मिथ्या है ?
समाधान-अात्मासे व्यतिरिक्त द्वैतवस्तुकी सिद्धि प्रात्मासे पृथकपसे अथवा अभेद रूपसे नहीं हो सकती है । इसलिए अात्माम अहङ्कार आदि कल्पित हैं ॥ ४५ ॥
तस्मादज्ञानविजम्भितमेतत्
दृश्याः शब्दादयः कप्ता द्रष्ट च ब्रह्म निर्गुणम् ।
अहं तदुभयं बिभ्रद् भ्रान्तिमात्मनि यच्छति ।। ४३ ॥ इसलिए यह सब अज्ञानका प्रभाव है कि
जो शब्दादि विषय दृश्य बनाए गये हैं और निर्गुण ब्रह्म उनका द्रष्टा बनाया गया है, यह सब वास्तवमें अहङ्कार ही इन दोनोरूपोंको धारण करके अात्मामें द्रष्टत्वादिकी भ्रान्ति उत्पन्न करता है ॥ ४६॥
तत एवेयमभिन्नस्याऽत्मनो भेदबुद्धिः। । 'दृगेका सर्वभूतेषु भाति दृश्यैरनेकवत् ।
जलभाजनमेदेन मयूखस्रग्विमेदवत् ॥ ४७ ॥ इस अहङ्कारके ही कारण एक अभिन्न आत्मामें ( यह सुखी है, दुःखी है, मूर्ख है, पण्डित है, इत्यादि ) भेदबुद्धि उत्पन्न हुई है ।
सब प्राणियोंमें एक ही व्यापक अात्मा दृश्यभेदोसे ---जल-पात्रमें प्रतिबिम्बित सूर्य
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भाषानुवादसहिता जिस प्रकार एक होनेपर भी अनेक-सा प्रतीत होता है इसी प्रकार ---अनेकसा प्रतीत होता है ॥ ४७ ॥
यथोक्तार्थस्य प्रतिपत्तये दृष्टान्त:---- मित्रोदासीनशत्रुत्वं यथैकस्याऽन्यकल्पनात् । अभिन्नस्य चितेस्तद्वद् भेदोऽन्तःकरणाश्रयः ।। ४ ।। अपहारो' यथा भानोः सर्वतो जलपात्रकैः ।
तक्रियाकृतिदेशाप्तिस्तथा बुद्धिभिरात्मनः ॥ ४९ ।। पूर्वोक्त भावको स्पष्ट करनेके लिए दृष्टान्त दिया जाता है
जैसे एक ही मनुष्वमें दूसरोंकी कल्पनासे मित्र, शत्रु, उदासीन आदि भेद हो जाते हैं। वैसे ही एक यात्मामें अन्तःकरणोंके भिन्न होनेसे सुखी, दुःखी इत्यादि नाना भेद हो गए हैं ॥ ४६ ॥
और जैसे अनेक जलपात्र एक ही सूर्यको प्रतिबिम्ब रूपतया अनेक रूपसे ग्रहण करते हैं वैसे ही अनेक अन्तःकरण एक ही आत्माको अपने अपने ध्यानादि क्रिया, आकार, धर्म, आधारभूत हृदयादि देश, इत्यादि नानारूपोंसे ग्रहण करते हैं ॥ ४६ ॥
न च विरुद्धधर्माणामेकत्राऽनुपपत्तिः। किं कारणम् ?
कल्पितानामवस्तुत्वात्स्यादेकत्राऽपि सम्भवः ।
कमनीया शुचिः स्वाद्वीत्येकस्यामिव योषिति ॥ ५० ॥
और यह भी शङ्का नहीं करनी चाहिए कि एक ही आत्मामें सुख, दुःख, राग, द्वष इत्यादि विरुद्ध धर्म कैसे रह सकेंगे? क्योंकि कल्पित पदार्थ वास्तवमें होते नहीं। इसलिए वे परस्पर विरुद्ध होनेपर भी एक स्थानमें रह सकते हैं । जैसे कि एक ही स्त्रीके शरीरमें कामियों के लिए कमनीयत्व, संन्यासियोंके लिए अशुचित्व और कुत्तोंके लिए स्वादुत्व, ये परस्पर विरुद्ध धर्म रहते हैं ॥५०॥
न चाऽयं क्रियाकारकफलात्मक आभास ईषदपि परमार्थवस्तु स्पृशति, तस्य मोहमात्रोपादानत्वात् ।
अभूताभिनिवेशेन स्त्रात्मानं वञ्चयत्ययम् ।
असत्यपि द्वितीयेऽथ सोमशर्मपिता यथा ॥ ५१ ।। ५-अपहारः = प्रतिबिम्बरूपेण ग्रहणम् । २-यही पञ्चदशी में भी कहा है
भार्या स्नुपा ननान्देति याता मातत्यनेकधा । प्रतियोगिधिया योपिद भिद्यते न स्वरूपतः ॥
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नैष्कर्म्यसिद्धिः
और यह क्रिया, कारण एवं फलरूप मिथ्याभास केवल मोहसे ही उत्पन्न होने के कारण परमार्थ वस्तुको लेशमात्र भी स्पर्श नहीं कर सकता ।
द्वैत प्रपञ्चके न होनेपर भी मिथ्याभिनिवेशसे ही यह लोक 'मैं सुखी हूँ मैं दुःखी हूँ, इस प्रकार अपने आपको ऐसे वञ्चित कर रहा है। जैसे कि मनोरथसे कल्पित सोमशर्मा पुत्रका कल्पित पिता ( कोई मनुष्य ) ॥ ५१ ॥ वस्तुयाथात्म्यानवबोधपटलावनद्धाक्षः सन् ।
सुभ्रः सुनासा सुमुखी सुनेत्रा चारुहासिनी । कल्पनामात्र सम्मोहाद्रामेत्यालिङ्गतेऽशुचिम् ॥ ५२ ॥
वस्तुके यथार्थं स्वरूपके अज्ञानरूप अन्धकारसे याच्छादित नेत्र होकर - कल्पनामात्र से बावला ( पागल ) होता हुया यह पुरुष अत्यन्त पवित्र स्त्रीशरीरको सुन्दर भौंह, सुन्दरनासिका, सुमनोहरमुख, सुन्दर नेत्र और मनोहर हास्यवाली समझकर उससे आलिङ्गन करता है ॥ ५२ ॥
सर्वस्याऽनर्थजातस्य जिहासितस्य मूलमहङ्कार एव तस्याऽऽत्मानात्मोपरागात । न तु परमार्थत आत्मनोऽविद्यया तत्कार्येण वा सम्बन्धोऽभूदस्ति भविष्यति वा । तस्याऽपरिलुप्तदृष्टिस्वाभाव्यात् ।
सर्वथा त्यागने योग्य इस सारे अनर्थसमूहका मूल अहङ्कार ही है । क्योंकि उसका और अनात्मा दोनोंके साथ सम्बन्ध है । परन्तु वास्तव में तो ग्रात्माका सम्बन्ध
६२
* कोई अत्यन्त दरिद्र ह्वाशी ब्रह्मचारी भिक्षा माँगता हुआ किसी दुर्भिक्षके समय एकपात्र में सत्तू की धूलि लेकर किसी पर्वतमें वृक्षकी छाया में सोता हुया मनोरथ करने लगा कि मैं इस सत्तूसे कई गौ खरीदकर उन्हें खूब परिपुष्ट करूँगा । फिर वे २३ वर्ष में कई बछड़े उत्पन्न करेंगी। तब मैं उन वृपभोंसे खूब हल जीतकर खेत में बहुतसा अन्न पैदाकर धान्यसे बहुत सम्पन्न हो जाऊँगा । फिर बहुतसे दास-दासियांस युक्त एक अतीव सुन्दर महल बनाऊँगा । उसे देखकर फिर कोई योग्य व्यक्ति अपनी योग्य कन्याका मेरे साथ ब्याह कर देगा । तब मैं यथायोग्य गृहस्थ सम्बन्धी उत्तमोत्तम सुखोंका अनुभव करते हुए वंशका विस्तार करनेवाला पुत्र उत्पन्न करूँगा- -उसका नाम रखूँगा – 'सोमशर्मा' | पीछे कुटुम्ब सौख्यकी अनुभव वेलामें कार्यवश रोते हुए बच्चेको छोड़कर अपना कार्य करनेवाली अपनी स्त्रीको मैं पुत्रनिमित्तक कोपावेश में श्राकर खूब पीहूँगा ।" ऐसा सोचते हुए उस ब्रह्मचारीने कोपावेशमें आकर ज्यों ही अपना हाथ जोरसे उस मृण्मय भिक्षापात्र में मारा, त्योंही उस भिक्षापात्र के दो टुकड़े हो गये और सत्तू सब मट्टीमें मिल गया। तब वह पीछे हाय, मैं नष्ट हो गया । श्ररे, अत्र क्या करूँ ? हाय, मेरा भाग्य बड़ा मन्द है ? ऐसा कहता हुआ खूब पश्चात्ताप करने लगा ।
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भाषानुवादसहिता
६३
अविद्या अथवा उसके कार्योंसे न कभी हुआ, न है और न होगा। क्योंकि वह अविनाशी -
ज्ञान स्वरूप है ।
दृश्यानुरक्तं तद्द्द्रष्ड्ड दृश्यं द्रष्ट्रनुरञ्जितम् ।
योभयं रक्तं तन्नाशेऽद्वैतमात्मनः ॥ ५३ ॥
शब्दादि दृश्य विषयोंसे सम्बद्ध होकर अन्तःकरण उनका द्रष्टा होता है और अन्त:करण द्रष्टा ग्रनुरञ्जित (संमिलित ) होकर चैतन्यका दृश्य अर्थात् उससे भासित होता है । इस प्रकार ग्रहङ्कारसे द्रष्टा और दृश्य दोनोंका सम्बन्ध है । इसलिए अहङ्कारका नाश होनेसे आत्माकी श्रद्वैतावस्था ( अपने आप ) सिद्ध होती है ॥ ५३ ॥
te केचिचोदयन्ति योऽयमन्वयव्यतिरेकाभ्यामनात्मतयोत्सारितोऽहङ्कारो वाक्यार्थप्रतिपत्तये, सोऽयं विपरीतार्थः संवृत्तो यस्मादहं ब्रह्मास्मीति ब्रह्माहंपदार्थयोः सामानाधिकरण्यश्रवणात् श्रनात्मार्थेन सामानाधिकरण्यं प्राप्नोति । वक्तव्या च प्रत्यगात्मनि वृत्तिः, सोच्यते प्रसिद्धलक्षणा गुणवृत्तिभिः ।
इसपर कोई लोग यह शङ्का करते हैं कि जो यह ग्रन्वयव्यतिरेक द्वारा 'तत्त्वमसि' इत्यादि वाक्योंके अर्थज्ञानके लिए ग्रहङ्कारको अनात्मा ठहराकर उसे पृथक् कर दिया है, सो यह विपरीत हो गया है । क्योंकि 'अहं ब्रह्मास्मि' इस श्रुतिमें ब्रह्म और ग्रहकारका भेद प्रतिपादन किया है, परन्तु आत्मा के साथ तो अनात्माका अभेद नहीं हो सकता है । इसलिए ग्रहं शब्दकी प्रत्यगात्मा में वृत्ति कहनी चाहिए । अर्थात् श्रहंशब्द आत्माका किस वृत्ति ( शक्ति अथवा लक्षणा ) से बोधक होता है, यह बतलाना चाहिए | वही कहते हैं - अहं शब्द मुख्य - वृत्ति ( शक्ति ), लक्षणा - वृत्ति और गौणी - वृत्ति आत्माका बोधक है ।
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प्रथम लक्षणावृत्तिसे शब्द किस प्रकार आत्माका वाचक है, यह बतलाते हैंनाऽज्ञासिषमिति प्राह सुषुप्तादुत्थितोऽपि हि ।
योदाहादिवत्तेन लक्षणं परमात्मनः ॥ ५४ ॥
मनुष्य सोकर उठने पर मैं इतनी देर तक कुछ नहीं जानता था, ऐसा कहता है । ऐसे स्थलों में अहङ्कार - रहित केवल ग्रात्मामें भी ग्रह शब्दका प्रयोग होता है । इसलिए जिस प्रकार 'लोहा जलाता है' इत्यादि प्रयोग - स्थलोंमें लोहे में जलाना न बन मकने के कारण, लोहा इस शब्दका अनितप्त लोहा, ऐसा अर्थ लक्षणावृत्ति से किया जाता है । इसी प्रकार 'ग्रहं ब्रह्मास्मि' यहाँ भी दृश्यभूत अहङ्कारकी कभी निर्गुण ब्रह्मसे
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नैष्कर्म्यसिद्धिः एकता नहीं हो सकती है, इसलिए यहाँ अजहल्लक्षणा द्वारा 'अहं' शब्द प्रत्यगात्माका बोधक है ॥ ५४॥ [अब गौणीवृत्तिसे 'अहं' शब्द आत्माका बोधक होता है, यह दिखलाते हैं
प्रत्यक्त्वादतिसूक्ष्मत्वादात्मदृष्टयनुशीलनात् ।
अतो वृत्तीविहायाऽन्या ह्यहवृत्त्योपलक्ष्यते ॥ ५५ ॥ . अहङ्कारसे अतिरिक्त और जितने भी अनात्म पदार्थ हैं, उन सभीसे अहङ्कार ही अान्तर ( आत्माका अधिक समीपवर्ती ) है और अात्माके समान अति सूक्ष्म है एवं उसमें आत्मदृष्टिका अनुशीलन अनादिकालसे होता आया है। इन सब कारणोंसे अहङ्कार और आत्माका साम्य होनसे-जिस प्रकार तिलोंके तैलसे समानता होने के कारण सरसों आदिसे निकले हुए तैलका भी गौणीवृत्ति द्वारा तैल शब्दसे ग्रहण होता है। इसी प्रकार---अन्य वृत्तियोंको छोड़कर गौणीवृत्ति द्वारा अहं शब्दसे अात्माका ग्रहण होता है ॥ ५५ ॥
[ अब मुख्य वृत्तिसे अहं शब्द अन्तःकरण विशिष्ट अात्माका वाचक है, इसलिए शुद्ध आत्माका भी वाचक है। क्योंकि विशिष्ट में विशेषण और विशेष्य दोनों होते हैं। यह कहते हैं
आत्मना चाऽविनाभावमन्यथा विलयं व्रजेत् । .
न तु पक्षान्तरं यायादतश्चाऽहंधियोच्यते ॥ ५६॥ . अहङ्कार अपने स्थितिकालमें आत्माके बिना अस्तित्व नहीं रख सकता है। अन्यथा आत्माके बिना उसका विलय ही हो जायगा। इसके अतिरिक्त और कोई गति नहीं हो सकती। जहाँ अहंकार है वहाँ आत्मा है उसको छोड़कर उसकी स्थिति नहीं है। इसलिए, अहं शब्द शक्ति द्वारा ही प्रात्माका बोधक होता है ॥ ५६ ॥
कीहक् पुनर्वस्तु लक्ष्यम् ? नामादिभ्यः परो भूमा निष्कलोऽकारकोऽक्रियः ।
स एवाऽऽत्मवतामात्मा स्वतः सिद्धः स एव नः॥ ५७॥ प्रश्न-उस लक्ष्य प्रात्माका (ब्रह्मका) कैसा स्वरूप है ?
उत्तर-छान्दोग्य उपनिषद् में कथित नामसे लेकर प्राणपर्यन्त सब पदार्थोसे परे. 'व्यापक, विभागसे ( भेदसे ) रहित, जो किसीका साधन नहीं है और जो स्वयं क्रियासे शून्य है, वही सब आत्मवादियोंके मतमें आत्मा है।
प्रभ-उक्त विशेषण युक्त ब्रह्म आपके मतमें लक्ष्य रहे, परन्तु अन्य प्रमाणोंसे सिद्ध हुए बिना वास्तवमें वह लक्ष्य हो कैसे सकता है। . (१) तैल-शब्द अभिधा-शक्तिसे तिलोंसे निकले हुए तेलका ही बाचक है।
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भाषानुवादसहिता
६५.
उत्तर -- हमारे मतमं ब्रह्म स्वत: एव सिद्ध है । उसको अपनी सिद्धि के लिए प्रमाणान्तरोंकी आवश्यकता ही नहीं है ॥ ५७ ॥
अज्ञानोत्यबुद्धयादिकर्तृत्वोपाधिमात्मानं परिगृह्यैवाऽन्वयव्यतिरेकाभ्यामहं सुखी दुःखी चेत्यहङ्कारादेरनात्मधर्मत्वमुक्तम् । केवलात्माम्युपगमेऽशक्यत्वात् फलाभावाच्च । अथेदानीमविद्यापरिकल्पितं साक्षित्वमाश्रित्य कर्तृत्वाशेषपरिणामप्रतिषेवायाऽऽह |
- अज्ञान से उत्पन्न बुद्धयादिरून कर्तृत्व, भोक्तृत्व उपाधियोंसे युक्त श्रात्माको लेकर ही अन्वय और व्यतिरे से 'मैं सुखी हूँ' 'मैं दुःखी हूँ इस प्रकारके अहङ्कारादिको धर्म बतलाया । क्योंकि विद्या से कल्पित रूपको त्याग कर केवल श्रात्मा मननेपर अन्वय और व्यतिरेक व्यवहार नहीं हो सकते हैं और उनसे कुछ प्रयोजन भी नहीं है । इसके अनन्तर विद्यासे कल्पित साक्षित्रको लेकर कर्तृत्वादि समस्त परिणामों का निषेध करनेके लिए कहते हैं
एष
सर्वधियां नृत्तमविलुतैकदर्शनः । वीक्षतेऽवीक्षमाणोऽपि निमिषत्तद्ध्रुवोऽध्रुवम् ॥ ५८ ॥
यह परिणामी, अद्वितीय तथा नित्य ज्ञानस्वरूप आत्मा स्वयं दृष्टिका विषय न होता हुआ भी जड़रूप बुद्धि आदि के नृत्य को देखता है ॥ ५८ ॥
ननु सर्वसिद्धान्तानामपि स्वदृष्टयपेक्षयोपपन्नत्वादितरेतरदृष्टयपेक्षया च दुःस्थितसिद्विकत्वान्नैकत्राऽपि विश्वासं पश्यामो न च सर्वतार्किकैरदूषितं समर्थितं सर्वतार्किको पद्रवापसर्पणाय वर्त्म संभावयामः । उच्यते । विश्रब्धैः सम्भाव्यतामनुभवमात्रशरणत्वात्सर्व तार्किक प्रस्था नानाम् । तदभिधीयते ।
शङ्का - सभी शास्त्रकारोंके सिद्धान्त अपनी-अपनी दृष्टि सङ्गत और विपक्षी लोगों की दृष्टि में परस्पर विरुद्ध होनेके कारण हमें किसी एक सिद्धान्तपर विश्वास नहीं होता और ( ऐसा कोई भी विषय नहीं है जिसका समस्त तार्किकांने खण्डन या मण्डन नहीं किया हो। इसलिए ) ऐसा कोई मार्ग नहीं दीख पड़ता जिससे समस्त तार्किकका उपद्रव ( वादविवाद ) शान्त हो जाय ?
समाधान- इस बातको निःशङ्क होकर मान लीजिए कि आत्मा स्वयम्प्रकाश, अकर्ता तथा भोक्ता है । क्योंकि समस्त दर्शनोंका एकमात्र शरण अनुभव ही है । यही (ग्रिमश्लोक ) कही जाती है
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नैष्कर्म्यसिद्धिः इमं प्राश्निकमुद्दिश्य तर्कज्वरभृशातुराः ।
स्वाच्छिरस्कवचोजालेर्मोहयन्तीतरेतरम् ॥ ५९ ॥ इसी अनुभवरूपी मध्यस्थको उद्देश्य करके तकरूप ज्वरसे अत्यन्त आर्त हुए वादी लोंग 'स्वात्' शब्द जिनके अन्तमें है ऐसे 'एतस्यात्' 'अमुकत्वात्' इत्यादि वाग्जालोंसे एक दूसरेको मोहित करते हैं ॥ ५६ ॥
अत्रापि चोदयन्ति । अनुभवात्मनोऽपि विक्रियाभ्युपगमेडनम्धुपगमेऽपि दोष एव । यस्मादाह ।
इसपर भी कोई लोग यह शङ्का करते हैं कि उस अनुभवरूप आत्माको विकारयुक्त अथवा तद्रहित चाहे जैसा मानो, दोनों प्रकारसे दोष अाता है। क्योंकि
वर्षातपाभ्यां कि योनिश्चर्मण्यस्ति' तयोः फलम् । चर्मोपमश्चेत्सो नित्यः खतुल्यश्चेदसत्समः ॥६० ॥ बुद्धिजन्मनि पुंसश्च विकृतिर्यद्यनित्यता । अथाऽविकृतिरेवाऽयं प्रमातेति न युज्यते ।। ६१ ।।
वृष्टि अथवा धूपसे आकाशमें तो कोई विकार नहीं हो सकता, किन्तु उनका ( वृष्टि और धूपका.) फल त्वचा में ही प्रतीत होता है । सो यदि आत्मा चर्मके समान विकारवाला है, तब तो अनित्य है और यदि आकाशके समान निर्विकार है, तब वह अभावरूप हो जायगा ॥ ६०॥
नाना बुद्धियोंके उत्पन्न होनेसे प्रास्मामें यदि विकार माना जाय तब वह अनिस्य हो जायगा और यदि उसे निर्विकार माना जाय तब वह प्रमाता नहीं बन सकता ॥ ६१ ।।
अस्य परिहारः। इस शङ्काका परिहार कहते हैं
ऊर्ध्व गच्छति धूमे खं भिद्यते विन्न भिद्यते । न भियते चेत्स्थास्नुवं भिद्यते चेद्भिदाऽस्य का ।। ६२ ।।
धूएँ के ऊपरको उठनेसे आकाश विदीर्ण होता है या नहीं ? यदि नहीं विदीर्ण होता है, तो धुश्रा ऊपरको जा नहीं सकता और यदि विदीर्ण होता है तो आकाशमें क्या विकार हो सकता है ? ( अर्थात् जैसे धूमकी गतिसे आकांश विकृत नहीं होता है, वैसे ही बुद्धियोंका प्रमाता होनेपर भी आत्मामें विकार नहीं हो सकता है ! ) ॥ ६२ ॥
१-चर्मण्येव, ऐसा भी पाठ है। २-अथाविकृत एवायं, पाठ भी है।
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भाषानुवादसहिता
इत्येतत्प्रतिपत्यर्थमाह ।
उक्त दृष्टान्तको समानेके लिए कहते हैं---
अविक्रियस्य भोक्त्वं स्यादहं बुद्धिविभ्रमात् । नौयानविभ्रमाद्यद्वन्नगेषु गतिकल्पनम् || ६३ ॥
जिस प्रकार चलती हुई नौकापर बैठे हुए मनुष्योंको नदीके तीरपर स्थित वृक्ष आदि भ्रान्ति से चलते हुए जान पड़ते हैं । इसी प्रकार विकाररहित आत्मा में भोक्तृत्व त्र्यादि विकार अहं बुद्धिसे उत्पन्न हुई भ्रान्तिसे होते हैं ॥ ६३ ॥ यथोक्तार्थाविष्करणाय दृष्टान्तान्तरोपादानम् ।
पूर्वोक्त अर्थको स्फुट करने के लिए एक और दृष्टान्त देते हैं ।
यथा जात्यमणेः शुभ्रा ज्वलन्नी निश्चला शिखा । सन्निध्यसन्निधानेषु घटादीनामविक्रिया ॥ ६४ ॥
जिस प्रकार उत्तम मणिकी प्रकाशमान, निश्चल प्रभा प्रकाश्य घटादि पदार्थोंके समीप होने और न होनेपर भी विकारवाली नहीं होती ॥ ६४ ॥ यमत्रांशी विवक्षित इति ज्ञापनायाऽऽह |
इस दृान्तका कौन सा अंग दाष्टन्तिक में विवक्षित है यह बतलाने के लिए कहते हैं
यवस्था व्यनक्तीति तदवस्थैव सा पुनः ।
भएयते न व्यनक्तीति घटादीनामसन्निधौ' ।। ६५ ।।
जिस स्वरूपसे वह मणिकी प्रभा घटादि पदार्थोंके समीप होनेपर उनकी प्रकाशिका कहलाती है, उसी स्वरूपसे उनके समीप न होनेपर उनकी अप्रकाशिका कहलाती है || ६५||
तत्र च-
सर्वधीव्यञ्जकस्तद्वत्परमात्मा सन्निध्यसन्निधानेषु
इसी प्रकार जिस ज्ञानस्वरूपसे यह ग्रात्मप्रदीप ( आत्मारूपी दीपक ) बुद्धिकी वृत्तियों का, उनसे सन्निधान होनेपर, प्रकाशक है, उसी रूपमें उनके सन्निहित न होने से उनका प्रकाशक है। प्रकाशक अवस्था में वह विकारी और प्रकाशक अवस्थामें असत्रूप अर्थात् वह नहीं है ऐसा, नहीं होता ॥ ६६ ॥
१ - श्रमन्निधेः, ऐसा भी पाठ
प्रदीपकः । धीवृत्तीनामविक्रियः ॥ ६६ ॥
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नेकसिद्धिः न प्रकाशक्रिया काचिदस्य स्वात्मनि विद्यते । ।
उपचारात् क्रिया साऽस्य यः प्रकाश्यस्य सन्निधिः ।। ६७ ॥ इस अात्मामें बुयादिको प्रकाशित करनेवाली कोई क्रिया नहीं है। केवल प्रकाश्य विषयोंका सान्निध्य ही उपचारमें इसकी क्रिया (इस शब्दसे ) कहा जाता है। __ मैवं शतिष्ठाः सायराद्धान्तोऽयमिति । यतः,.
यथा विशुद्ध आकाशे महसैवाऽभ्रमण्डलम् । ..
भूत्वा विलीयते तद्वदात्मनीहाऽखिलं जगत् ।। ६८ ॥ ऐसी शङ्का मत कीजिए कि 'यह तो तुमने साङ्क्षय के सिद्धान्तको स्वीकार कर लिया है ? क्योंकि जैसे विशुद्ध अाकाशमें एकाएक मेवकी काली काली घटाएँ उत्पन्न हो होकर विलीन होती रहती हैं, इसी प्रकार अात्मा यह सपूर्ण जगत् उत्पन्न और विलीन होता रहता है. ॥ ६८॥ · तम्मादेष कूटस्थो, न द्वैतं मनागपि स्पृशति । यतः।
शब्दाद्याकारनिर्भासाः क्षणप्रध्वंसिनीदृशा । ..... नित्योऽक्रमहगात्मैको व्याप्नोतीव धियोऽनिशम् ।। ६९ ॥
इस कारण यह निर्विकार अात्मा द्वैतसे किञ्चिन्मात्र भी सम्बद्ध नहीं होता। . क्योंकि यह नित्य; एक और सर्वदा प्रकाशक आत्मा अपने स्वरूपभूत चैतन्यसे, मानो
शब्दादि, विषयोंके अाकारोंको धारण करनेवाली और प्रतिक्षण नष्ट होनेवाली बुद्धिवृत्तियों को, व्याप्त कर रहा है, ऐसा प्रतीत होता है । ६९ ॥
...६८ और ६६ इन दोनों श्लोकोंमें ग्रन्थकारने जगन्मिथ्यात्व और ऐकात्म्य दिखलाकर साङ्खयवादियोंके जगत्सत्यत्ववाद और नानात्मवादसे, अपनी ६८ वें श्लोककी अनुक्रमणिकामें की हुई प्रतिज्ञाके अनुसार, वैलक्षण्य टिग्वाया है, यह जानना चाहिए। : .
. .. . . एवञ्च सति बुद्धः परिणामित्वं युक्तम् । ..' अतीतानागतेहत्यान् युगपत्सवेगोचरान्। . . . . . वेत्त्यात्मवन्न धीर्यस्मात्तेनेयं परिणामिनी ॥ ७० ॥
इसलिए बुद्धिको परिणामिनी मानना युक्त है। भूत, भविष्यत् और वर्तमान, इन सब पदार्थोको, आरमाके समान, बुद्धि एक काल में ही नहीं जान सकती। इस कारण वह परिणामिनी है ।। ७० ॥
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भाषानुवादसहिता
ततश्चैतत्सिद्धम् -
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पश्यन्यश्यतीं बुद्धिमशृण्वन् शृण्वतीं तथा । निर्मलोsविक्रियो ऽनिच्छन्निच्छन्तीं वाऽप्यलुक् ॥७१॥ द्विषन्तोमद्विषन्नात्मा कुप्यन्तीं चाsध्यकोपनः । निर्दुःखो दुःखिनीं चैत्र निःसुखः सुखिनीमपि ।। ७२ ।। मुद्यमानो मुह्यन्तीं कल्पयन्तीमकल्पयन् । स्मरन्तीमस्मरंचैव शयानामस्वपन् मुहुः ॥ ७३ ॥ सर्वाकारां निराकारः स्वार्थो स्वार्था निरिङ्गतः । निस्त्रि काल स्त्रि कालग्यां कूटस्थः क्षणभंगुराम् ॥ ७४ ॥ निरपेक्षच सापेक्षां पराचीं सावधिं निर्गतेयत्तः सर्वदेहेषु पश्यति ॥ ७५ ॥
प्रत्यगद्वयः ।
इससे यह सिद्ध हुआ कि,
देखना, सुनना, चाहना, द्वेष करना, कुपित होना, दुःखी होना, सुखी होना, मोहित होना, कल्पना करना, स्मरण करना, सोना इत्यादि विकारोंसे रहित, निरपेक्ष, विषयोंसे विरुद्ध, सर्वदा स्वयंप्रकाश, निर्मल, स्वार्थ, कूटस्थ तथा क्रियाओं से रहित यह आत्मा देखती, सुनती, चाहती, द्वेषकरती, कुपित होती, दुःखी होती, सुखी होती, मोहित होती, कल्पना करती, स्मरण करती, बार-बार सोती, और नाना आकारोंमें परिणित होती हुईं, क्षणभंगुरा, अपेक्षा करनेवाली विषयों में लित होनेवाली और सावधिक ( परिच्छिन्न) बुद्धि, को सब देहों में देखता है । ७१-७२-७३-७४-७५ ॥
एतस्माच कारणादयमर्थो व्यवसीयताम्
दुःखी यदि भवेदात्मा कः साक्षी दुःखिनो भवेत् । दुःखिनः साक्षिताऽयुक्ता साक्षिणो दुःखिता तथा ।। ७६ ।।
इस कारण से यह निश्चय कर लेना चाहिए कि
'यदि आत्मा दुःखी (दुःख आदि परिणामयुक्त ) है तो उसका साक्षी कौन होगा ? क्योंकि जो दुःखी है, वह साक्षी कैसे हो सकता है और जो साक्षी है वह दुःखी नहीं हो सकता है ॥ ७६ ॥
१ – निर्यत्त्रोऽविक्रियः, ऐसा भी पाठ है।
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नैष्कासिद्धिः पूर्वस्यैव व्याख्यानार्थमाह। नर्ते स्याद्विक्रियां दुःखी साक्षिता का विकारिणः ।
धीविक्रियासहस्राणां' माझ्यतोऽहमविक्रियः ।। ७७ ।। पूर्वोक्त विषयके ही व्याख्यानके लिए कहते हैं--
विकार हुए बिना दुःखी नहीं हो सकता है और जो विकारी है वह साक्षा नहीं हो मकता है । इसलिए अनेक बुद्धि-विकारीका साक्षी अहं-शका लक्ष्य प्रात्मा विकार रहित है ।। ७७ ॥
एवं सर्वस्मिन् व्यभिचारिण्यात्मवस्न्वेवाऽव्यभिचारीत्यनुभवतो व्यवस्थापनायाऽऽह ।
इस प्रकार जब सब पदार्थों का मिथ्या होना सिद्ध हुअा, तब ( इतर सब पदाकि व्यभिचारो होनेसे ) केवल एक आत्मा ही अव्यभिचारी है अर्थात् उसका कभी अभाव नहीं होता। इस बातको अनुभवसे सिद्ध करनेके लिए कहते हैं
प्रमाणतन्निभेष्वस्या नोच्छिनिर्मम संविदः । मत्तोऽन्यद्रूपमाभाति यत्तत्स्यात्क्षणभङ्गि हि ॥ ७८ ।। उत्पतिस्थितिभङ्गषु कुम्भस्य वियतो यथा ।
नोत्पत्तिस्थितिनाशाः स्युर्बुद्वेरेवं ममाऽपि न ॥ ७९ ॥
बुद्धि-परिणामरूप प्रमाण अथवा प्रमाणाभास नष्ट होते रहें, परन्तु ज्ञान-स्वरूप अामाका कभी अभाव नहीं होता है और प्रामासे अन्य जितने पदार्थ जान विषय होते हैं वे सब क्षणभंगुर हैं ॥ ७८ ॥ .
जैसे घटकी उत्पत्ति, स्थिति और नाशसे आकाशकी उत्पत्ति, स्थिति और नाश नहीं होते, इसी प्रकार बुद्धिकी उत्पत्ति, स्थिति और नाशीसे प्रात्मा उनसे सम्बद्ध नहीं होता ।। ७६ ॥ ..सुखदुःखतत्सम्बन्धानां च प्रत्यक्षवान श्रद्धामात्रमाद्यमेतत् ।
सुखदुःखादिसम्बरां यथा दण्डेन दण्डिनम् ।
राधको वीक्षते बुद्धि साक्षी तद्वदसंहतः ॥८० ॥ बुद्धि प्रत्यक्ष ही सुखदुःखादिसे युक्त देखी जाती है। इसलिए यह बात केवल श्रद्धामात्रसे ग्रहण करने योग्य नहीं है।
3.-धीविक्रियासहस्रस्य, भी पाठान्तर है। २-मिथ्यारूप । ३---सत्य । ४-समापि च, और 'ममापि नो' भी पाठ है।
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भाषानुवादसहिता __ जैसे दण्डी पुरुषको लक्षणरूप दण्डसे पहचान लेते हैं। वैसे ही सुखदुःखादिसे युक्त बुद्धिको, उनसे असंस्पृष्ट माक्षी भली प्रकार देखता है, अतएव उसके धर्मोका सम्बन्ध उसमें नहीं है । ८० ॥
एतस्माच्च हेतोधियः' परिणामित्वं युक्तम् । येनैवाऽस्या भवेद्योगः सुखकुम्भादिना धियः ।
तं विदन्ती तदैवाऽन्यं वेत्ति नाश्तो विकारिणी ।। ८१ ।। इस कारणसे भी बुद्धिको परिणामी कहना ठीक है कि,
सुख-दुःख अथवा घटपटादि जिन-जिन विषयोंसे बुद्धिका सम्बन्ध होता है (अर्थात् बुद्धि जिन जिन श्राकारोंको प्राप्त होती है) उन्हीं विषयोंको वह ग्रहण करती है। जिनसे उसका मम्बन्ध नहीं होता है, उनको वह ग्रहण नहीं करती । इसलिए वह विकारिणी है ।।८।।
अस्याश्च क्षणभङ्गुरत्वे स्वयमेवाऽऽन्मा साती। न हि कूटस्थावबोधमन्तरेण बुद्व रेवाऽऽविर्भावतिरोभावादिसिद्धिरस्ति ।
. परिणामिधियां वृत्तं नित्याक्रमहगात्मना । . .. . षड्भावविक्रियामेति व्याप्तं खेनाऽङ्करो यथा ।। ८२ ॥
- इस बुद्धि की क्षणभङ्गरतांका साक्षी स्वयं आत्मा ही है। क्योंकि नित्यसिद्ध साक्षीरूप ज्ञानके बिना बुद्धिके उत्पत्ति और विनाश प्रतीत नहीं हो सकते।
जैसे श्राकाशसे व्याप्त होकर ही अङ्कर उत्पत्ति, अस्तित्व, वृद्धि, स्थिति, क्षय और नाशको प्राप्त होता है। इसी प्रकार परिणामी बुद्धि भी आत्मासे व्याप्त होकर ही उत्पत्ति आदि छः विकारोंका अनुभव करती है । ८२ ॥
‘सत आत्मनश्वाऽविकारित्वे युक्तिः, सत् रूप अात्माके अविकारी होनेमें युक्ति देते हैंस्मृतिस्वमाऽवबोधेषु न कश्चित्प्रत्ययो धियः ।. .
दृशाऽव्याप्तोऽस्त्यतो नित्यमविकारी स्वयंशिः ।। ८३ ॥
स्मरण के समय, जाग्रत् एवं स्वप्नावस्थामें कोई भी बुद्धि की वृत्ति ऐसी नहीं होती जो अात्मासे व्याप्त नहीं है । इसलि र अात्मा नित्य अविकारी और स्वयं प्रकाश हैं ||३||
एवं तावत्पराभ्युपगतप्रक्रियाप्रस्थानेन निरस्ताशेषविकारकात्म्यं प्रतिपादितमुपपत्तिभिः। अथाऽधुना श्रौती प्रक्रियामवलम्ब्योच्यते।
१-बुद्धः परिणामित्त्वं, इस प्रकारका पाठ भी है। २-कूटस्थावरोधमन्तरेण, पाठ भी है।
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नैष्कर्मासिद्धिः • इस प्रकार वादियोंके मतमें मानी हुई प्रक्रियाको मानकर युक्तियोंके द्वारा सम्पूर्ण विकारोंसे रहित एक ही आत्मा है, ऐसा निरूपण किया। अब श्रुतिके अनुकूल प्रक्रियाका अवलम्बन करके उसी बातका निरूपण करते हैं
अस्तु वा परिणामोऽस्य दृशेः कूटस्थरूपतः ।
कल्पितोऽपि मृङ्गवाऽसौ दण्डम्येवाऽप्सु वक्रता ॥ ८४ ।। अथवा यदि अात्मामें परिणाम मान भी लिया जाय तो भी वह कल्पित होने के कारण मिथ्या है ऐसा मानना पड़ेगा। क्योंकि श्रुतिने उसको कूटस्थ कहा है। (चैतन्यके प्रतिबिम्बसे वृत्तियों में भी जब एकाकारता प्रतीत होती है, तब फिर शुद्ध श्रात्मामें भेद कहाँसे हो सकेगा) इसलिए वह जल में दण्डकी वक्रताके समान आत्मामें कल्पित है ॥ ८४ ॥
षट्सु भावविकारेपु निषिद्ध ष्वेवमात्मनि ।
दोषः कश्चिदिहासक्तं न शक्यस्तार्किकश्वभिः ॥ ८५ ॥
इस प्रकार अात्मामें उत्पत्ति, वृद्धि, इत्यादि छ: विकारोंका निषेध कर देनेपर फिर तार्किक लोग कोई भी दोप नहीं निकाल सकते ! ॥ ८५ ॥
प्रकृतमेवोपादाय बुद्धेः परिणामित्वमात्मनश्च कूटस्थत्वं युक्तिभिरुच्यते।
पूर्वोक्त श्रौत प्रक्रियाको लेकर ही बुद्धिकी परिणमिता और आत्माकी कूटस्थताको युक्तियोंसे सिद्ध करते हैं
प्रत्यर्थं तु विभिद्यन्ते बुद्धयो विषयोन्मुखाः ।।
न भिदाऽवगतेस्तद्वत्सर्वास्ताश्चिनिभा यतः ॥ ८६ ॥ बुद्धियाँ जिस प्रकार प्रत्येक विषयमें भिन्न-भिन्न प्रकारकी होती हैं, इस प्रकार चैतन्यमें भेद नहीं है। क्योंकि वे सब बुद्धि-वृत्तियाँ भी चिदाकार हैं । चैतन्यके प्रतिबिम्बसे वृत्तयों में भी जब एकाकारता प्रतीत होती है, तब शुद्ध अात्मामें भेद कहाँसे हो सकेगा ? स्वतः उसमें कोई भेद प्रतीत नहीं होता। केवल उपाधिमे से ही भेद प्रतीत होता है ।। ८६॥
स्वसम्बद्धार्थ एव । साऽवशेषपरिच्छेदिन्यत एव न कृत्स्नवित् ।
नो चेत्परिण मेद्वद्धिः सर्वज्ञा साऽऽत्मवद्भवेत् ॥ ८७ ॥ १-सम्बन्धार्थ एव, पाठ भी मिलता है । उच्यते, इति शेषः । २-स्वाश्मवद भवेन , भी पाठ है।
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भाषानुवाद सहिता
बुद्धिका उसके परिणामोंके साथ सम्बन्ध प्रतिपादन करते हैं
बुद्धि परिणामिनी है, इसलिए वह कतिपय हो पदार्थोंको जान सकती है, सबको नहीं। यदि वह परिणामिनी न होती तो आत्मा के समान सर्वज्ञ हो जाती ॥ ८७ ॥
तोऽवगतेरेकत्वात् ।
इसलिए ज्ञानरूप चैतन्य के अद्वितीय होने के कारण ।
चण्डालबुद्धेर्यद् द्रष्ट तदेव ब्रह्मबुद्धि । तदुभयोज्योतिर्भास्यभेदादनेकवत् ॥ ८८ ॥
एकं
चाण्डाल बुद्धिका जो द्रष्टा है वही ब्रह्मबुद्धिका भी द्रष्टा है, उन दोनों बुद्धियों का प्रकाशक एक ही है । केवल भास्य के भेदसे अनेक-सा प्रतीत होता है ॥ ८८ ॥
कस्मात् ?
अवस्था देशकालादिभेदो नास्त्यनयोर्यतः । तस्माज्जगद्धियां वृत्तं ज्योतिरेकं 'सदेक्षते ॥ ८९ ॥
प्रश्न - यह कैसे ? उत्तर - अवस्था, देश और काल इत्यादि भेद चाण्डाल बुद्धि साक्षी और ब्रह्मबुद्धिके साक्षी, इन दोनोंमें नहीं है । इसलिए सारे जगत् की बुद्धियोंको देखनेवाला एक ही प्रकाशस्वरूप आत्मा है ।
सर्वदेहेष्वात्मैकत्वे प्रतिबुद्धपरमार्थतश्वस्यापि अप्रतिबुद्धदेहसम्बन्धादशेषदुःखसम्बन्ध इति चेत् । तन्न -
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शङ्का —— यदि सम्पूर्ण देहों में श्रात्मा एक ही है, तब जिसने परमार्थवस्तुभूत . आत्माका साक्षात्कार कर लिया है, उसको भी अज्ञ लोगोंके शरीरोंके साथ सम्बन्ध होनेके कारण समस्त दुःखोंका सम्बन्ध हो जाएगा ?
समाधान - ऐसी शङ्का ठीक नहीं है। क्योंकि
बोधात्प्रागपि दुःखित्वं नान्यदेहोत्थमस्ति नः ।
बोधादूर्ध्वं कुतस्तत्स्याद्यत्र स्वगतमप्यसत्२ ।। ९० ।।
जब कि ज्ञानके उत्पन्न होनेसे पहले भी अन्य देहांसे उत्पन्न हुआ दुःख हमें नहीं था, तब ज्ञान उत्पन्न होने पर वह कैसे हो सकता है ? जब कि स्वयं अपने शरीर के दुःखका भी अपने में सम्बन्ध नहीं रहता ॥ ९० ॥
१ - सदीक्षते, ऐसा भी पाठ है ।
२– प्राक्तनमप्यसत्,
है
१०
भी पाठ
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नैष्कर्म्यसिद्धिः न चेयं स्वमनीषिकेति ग्राह्यम् । कुतः । श्रुत्यवष्टम्भात् । शब्दायाकारनिर्भासा हानोपादानधर्मिणी ।
भास्येत्याह श्रतिदृष्टि'मात्मनोऽपरिणामिनः ॥ ९१ ।। ___ यह केवल हमारी कल्पनामात्र ही नहीं है। किन्तु श्रुति भी इस बातको प्रति. पादन करती है।
शब्दादि विषयों के अाकारको धारण कर तद्रूपसे प्रकाशित होनेवाली तथा किसी विषयका ग्रहण और किसी का त्याग करती हुई बुद्धि अपरिणामी आत्मवस्तुके द्वारा प्रकाशित होती है, न कि अात्मा उस बुद्धिसे प्रकाशित होता है। ऐसा श्रुतिने प्रतिपादन किया है ।।११।।
का त्वसौ श्रुतिः ? दृष्टेष्टारमात्मानं न पश्येदृश्ययाऽनया' ।
विज्ञातारमरे केन विजानीयाद्धियां पतिम् ॥ ९२ ॥ प्रश्न-वह श्रुति कौन सी है ?
उत्तर-'नदृष्टेष्टारं पश्येत्'--"बुद्धि की वृत्तियोंके द्रष्टा आत्माको इस बुद्धिका दृश्य मत समझो।” 'विज्ञातारमरे केन विजानीयात्'--"बुद्धि के साक्षी-आत्माको किस साधन से जान सकते हैं ।” इत्यादि श्रुति इस विषयमें प्रमाण हैं ॥ ९२ ॥
यस्मात्सर्वप्रमाणोपपन्नोऽयमर्थस्तस्मादतोऽन्यथावादिनो जात्यन्धा इवाऽनुकम्पनीया इत्याह ।
बुद्धि परिणामिनी है और आत्मा कूटस्थ एवं नित्य है, यह बात सर्व प्रमाणोंसे सिद्ध है । इसलिए इसके विरुद्ध बोलनेवाले लोग जन्मान्धोंकी तरह कृपापात्र हैं, यह बात कहते हैं।
तदेतदद्वयं ब्रह्म निर्विकारं कुबुद्विभिः ।
जात्यन्धगजदृष्टय व कोटिशः परिकल्प्यते ।। ९३ ॥ . उसी (प्रसिद्ध ) निर्विकार अद्वितीय ब्रह्मको मूर्ख लोगोंने-जैसे कई जन्मान्ध लोग एक ही हाथीकी कई प्रकारसे कल्पना कर लेते हैं, इसी प्रकार-अनेक कल्पनाओंसे अनेकरूप बना रक्खा है ॥ ९३ ॥
प्रमाणोपपन्नस्यार्थस्याऽसम्भावनातदनुकम्पनीयत्वसिद्धिस्तदेतदाह।
प्रमाणोंसे सिद्ध अर्थ के ऊपर भी विश्वास न करके वे लोग असम्भावना करते हैं, इसलिए कृपाके योग्य हैं, यह सिद्ध हुआ। इसी बातको कहते हैं।
१-दृष्टिरात्मनो, भी पाठ है ।। २-दृश्यमानया, भी पाठ है । * सालबुद्विवृत्तिप्रकाशकम् ।
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भाषानुवादसहिता यद् यद् विशेषणं दृष्टं नात्मनस्तदनन्वयात् ।
खस्य कुम्भादिवत्तस्मादात्मा स्यानिर्विशेषणः ॥ ९४ ॥
जो जो विशेषण दीख पड़ता है वह वह आत्मामें अन्वित नहीं होता है । क्योंकि आत्माका उन विशेषणोंके साथ, आकाशका घटादिके समान, कोई सम्बन्ध नहीं है । इसलिए आत्मा सत्र विशेषणोंसे रहित है ॥ ६४ ॥
अतश्चात्मनो भेदासंस्पर्शी भेदस्य मिथ्यास्वाभाव्यादत आह ।
इसलिए भी आत्मामें भेदका सम्बन्ध नहीं है। क्योंकि भेदका स्वरूप मिथ्या है । इसी बातको कहते हैं
अवगत्यात्मनो यस्मादागमापायि कुम्भवत् । साहिङ्कारमिदं विश्वं तस्मात्तत्स्यात्कचादिवत् ।। ९५ ॥
चूँकि अहङ्कार सहित यह सम्पूर्ण जगत् ज्ञान स्वरूप आत्मासे ही उत्पत्ति और विनाशको प्राप्त हो रहा है, इसी कारण घटादिके समान आत्मासे भिन्न है, अतएव केशोएड्रक अादिभ्रमके समान मिथ्या है ।। ६५ ॥
सर्वस्यैवाऽनुमानव्यापारस्य फलमियदेव यद्विवेकग्रहणम् तदुच्यते ।
पूर्वोक्त सब अनुमान करने का फल यही है कि-तत्त्वज्ञान का उत्पन्न होना । यही अब आगे कहते हैं -
बुद्धेरनात्मधर्मत्वमनुमानात्प्रसिद्धयति ।
आत्मनोऽप्यद्वितीयत्वमात्मत्वादेव सिद्धयति ।। ९६ ॥ बुद्धि अनात्माका धर्म है, यह बात अनुमानसे सिद्ध होती है और आत्माकी अद्वितीयता भी उसके स्वभावसे ही सिद्ध है ।। ६६ ॥
__ यद्यप्ययं ग्रहीतग्रहणग्राह्यगृहीतितत्फलात्मक आब्रह्मस्तम्बपर्यन्तः संसारोऽन्वयव्यतिरेकाभ्यामनात्मतया निर्माल्यवदपविद्धस्तथापि तु नैवासौ स्वतःसिद्धात्मव्यतिरिक्तानात्मप्रकृतिपदार्थव्यपाश्रयः साङ्ख्यानामिव, किन्तर्हि ? स्वतःसिद्धानुदिताऽनस्तमितकूटस्थात्मप्रज्ञानमात्र
-खे अक्षिदोषेण केशसदृशं किञ्चित् दृश्यते तत्केशोण्डूकम्-नेत्रदोष केकारण आकाशमें केशके सदृश जो प्रतीत होता है, उसको केशोएड्रक कहते हैं।
२-अनुमानव्यायामस्य, भी पाठ है।
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नैष्कर्म्यसिद्धिः शरीरप्रतिबिम्बिताऽविचारितसिद्धात्माऽनवबोधाश्रय एव । तदुपादानत्वात्तस्येतीममर्थ निवेक्तुकाम आह ।
यद्यपि यह ज्ञाता, ज्ञानसाधन; विषय और ज्ञान तथा उससे उत्पन्न होनेवाला फल, एतदरूप ब्रह्मासे लेकर कीट पतङ्ग पर्यन्त समस्त संसार अंन्वय व्यतिरेकसे अनात्मा होनेके कारण निर्माल्य ( सारहीनवस्तु ) के समान दूर हटा दिया। तथापि वह साङ्खयवादियोंके समान स्वतःसिद्ध आत्मासे भिन्न प्रकृति आदि किसी अनात्मपद,थं के आश्रित नहीं है। किन्तु स्वतः सिद्ध, सदा उदित, निरन्तर प्रकाशयुक, कूटस्थ तथा ज्ञानस्वरूप प्रात्मामें प्रतिबिम्बित अविवेकसे सिद्ध आत्मस्वरूपांज्ञान ही इस समस्त संसारका आश्रय है। क्योंकि अात्मस्वरूपका अज्ञान ही इसका उपादान कारण है। इसी बातको स्पष्ट करने की इच्छासे आगे कहते हैं
ऋते ज्ञानं न सन्त्यर्था अस्ति ज्ञानमृतेऽपि तान् ।
एवं · धियो हिरुग्ज्योतिर्विविच्यादनुमानतः ।। ९७ ॥
जैसे ज्ञान के बिना विषय ( पदार्थ ) प्रकाशित नहीं होते, परन्तु ज्ञान उनके बिना भी प्रकाशमान है। इसी प्रकार अात्माके बिना बुद्धियाँ नहीं रहतीं। पर आत्मा बुद्धियोंके न रहने पर भी है, ऐसे अनुमान द्वारा विवेकसे आत्माको बुद्धिसे पृथक देखना चाहिए ॥ ९७ ॥
यस्मात्प्रमाणप्रमेयव्यवहार आत्मानवबोधाश्रय एव, तस्मासिद्धमात्मनोऽप्रमेयत्वम् । नैव हि कार्य स्वकारणमतिलवयाऽन्यत्राऽकारके आस्पदमुपनिबध्नात्यत आह ।
चूँकि प्रमाण, प्रमेय इत्यादि सर्व व्यवहार आत्माके न जाननेसे ही उत्पन्न हुश्रा है। इसलिए अात्मा किसी प्रमाण का विषय नहीं है, यह सिद्ध हुआ और कार्य कभी भी अपने कारएको उल्लङ्घन करके दूसरे स्थानमें अपनी स्थिति नहीं करता। इसलिए कहते हैं
व्यवधीयन्त एवामी बुद्धिदेहघटादयः ।
आत्मत्वादात्मनः केन व्यवधानं मनागपि ॥ ९८॥ .
बुद्धिकी सिद्धि में प्रात्म-प्रतिबिम्बकी अपेक्षा है तथा देह-सिद्धिमें बुद्धि और इन्द्रियोंकी भी अपेक्षा है। बाह्य घटादि पदार्थों की सिद्धिमें तो देश, कालादिकी भी अपेक्षा है । अतएव देह, इन्द्रिय, बुद्धि इत्यादि प्रमेय हैं । श्रास्मा तो समस्त वस्तुओंका स्वरूप है। अतएव उसमें किसी वस्तुका व्यवधान किंचिन्मात्र भी नहीं है। इसलिए वह अप्रमेय है ॥१८॥
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भाषानुवादसहिता स्वयमनवगमात्मकत्वादनवगमात्मकत्वं च मोहमात्रोपादानत्वात् ।
प्रमाणमन्तरेणैषां बुद्धयादीनामसिद्धता।
अनुभूतिफलार्थत्वा दात्मज्ञः किमपेक्षते ॥ ९९ ॥
बुद्धयादि पदार्थ स्वयं अज्ञानरूप अर्थात् जड़ हैं। क्योंकि उनका उपादान कारण मोहमात्र ही है। इसलिए भी उनको इतरकी अपेक्षा होनेसे उनकी अप्रकाशरूपता सिद्ध होती है। बुद्धि आदिकी सिद्धि बिना प्रमाणेांके नहीं होती। क्योंकि स्वयं वे अनुभव. रूप फलसे युक्त नहीं हैं । अतएव उनको प्रमाणादिकी अपेक्षा है।
शङ्का-अात्मा भी तो उपनिषदोंके प्रमाणोंके बिना सिद्ध नहीं होता ?
समाधान--प्रात्मा ज्ञानस्वरूप है, इसलिए उसको अज्ञाननिवृत्तिसे अतिरिक्त और किसीकी भी अपेक्षा नहीं है ॥ ९९ ॥
वक्ष्यमाणेतरेतराध्याससिद्धयर्थमुक्तव्यतिरेकानुवादः। घटबुद्धेर्घटाचार्थाद् द्रष्टुर्यद्वद्विभिन्नता ।
अहंबुद्धेरहंगम्याद् दुःखिनश्च तथा दृशेः ॥ १०० ॥
आगे जिसका प्रतिपादन करेंगे उस आत्म-अनात्माके परस्पर अध्यासको सिद्ध करने के लिए पूर्वोक्त अनात्मासे (अात्माके) भेदका अनुवाद किया जाता है
घटज्ञान और घटस्वरूप अर्थ, इन दोनोसे जिस प्रकार द्रष्टा भिन्न है, इसी प्रकार 'अहम्'-'मैं'-इस प्रकारका ज्ञान और उसके विषय दुःखादियुक्त पदार्थसे आत्मा भिन्न है ।। १०० ॥
एवमेतयोरात्मानात्मनोः स्वतः परतः सिद्धयोलौकिकरज्जुसध्यारोपवदविद्योपाश्रय एवेतरेतराध्यारोप इत्येतदाह ।
___ इस प्रकार जो यह स्वत: सिद्ध और परतः सिद्ध आत्मा और अनात्मा, ऐसे दो पदार्थ हैं, इनका एकका दूसरे अध्यास लौकिक रज्जुमें सर्प के अध्यासके समान है। . यही बात कहते हैं
अभ्रयानं यथा मोहाच्छशभृत्यध्यवस्यते ।
सुखित्वादीन् धियो धर्मास्तद्वदात्मनि मन्यते ॥ १०१॥ . जैसे कोई मे?की गमनादि क्रियाको मोहब्रश चन्द्रमामें समझ लेता है। इसी प्रकार सुखदुःखादि बुद्धि के धर्मोको अज्ञानो अात्मामें समझ लेता है ।। १०१॥ ।
१-फलार्थित्वात् , भी पाठ है। २-दुःखित्वादीन् , पाठान्तर है।
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नैष्कयसिद्धिः दग्धृत्वं च यथा बढेरयसो भन्यते बुधीः ।
चैतन्यं तद्वदात्मीयं मोहात्कर्तरि मन्यते ॥ १०२॥ जैसे मूर्खपुरुष अग्निके धर्म-जलानेको लोहे में समझ लेता है। वैसे ही आत्मा के चैतन्यको मूर्खतावश बुद्धिका चैतन्य समझ लेता है ।। १०२ ।।
सर्व एवाऽयमात्मानात्मविभागः प्रत्यक्षादिप्रमाणवर्त्मन्यनुपातितोऽविद्योत्सङ्गवत्येव न परमात्मव्यपाश्रयः । अस्याश्चाऽविद्यायाः सर्वाऽनर्थहेतोः कुतो निवृत्तिरिति चेत्तदाह ।
प्रत्यक्षादि प्रमाणोंसे सिद्ध यह सब अात्मा और अनात्मा, इस प्रकारका द्वैत प्रपञ्च अविद्याके ही आश्रय है। परमात्माके आश्रय नहीं । इसलिए समस्त अनर्थोकी जननी इस अविद्याकी निवृत्ति किससे होती है ? इस प्रश्न का उत्तर देते हैं
दुःखराशेर्विचित्रस्य सेयं भ्रान्तिश्चिरन्तनी ।
मूलं संसारवृक्षस्य तनावस्तत्त्वदर्शनात् ।। १०३ ॥
इस दुःखराशिरूप विचित्र संसार वृक्षका बीज यही अनादिकाल से चली आती हुई भ्रान्ति है । उसका सर्वथा नाश तत्त्वज्ञानसे होता है ॥ १०३ ॥
तद् बाधस्तत्त्वदर्शनादिति कुतः सम्भाव्यते, इति चेदत आह । आगोपालाऽविपालपंडितमियमेव प्रसिद्धिः।
अप्रमोत्थं प्रमोत्थेन ज्ञानं ज्ञानेन बाध्यते ।
अहिरज्ज्वादिवद् बाधो देहायात्ममतिस्तथा ॥ १०४ ॥ शङ्का-उस भ्रान्तिका नाश तत्त्वज्ञानसे होता है, यह कैसे सम्भावित है ?
समाधान-गोपाल और अजापालोंसे लेकर पण्डितों तक यह बात प्रसिद्ध है कि भ्रान्तिसे उत्पन्न मिथ्याज्ञान प्रमाणसे उत्पन्न यथार्थानसे बाधित होता है। जैसे रज्जुमें भ्रान्तिसे उत्पन्न सर्पका भ्रम रज्जुके यथार्थज्ञानसे निवृत्त हो जाता है। वैसे हो देहादिमें उत्पन्न आत्मबुद्धिका नाश भी प्रात्मज्ञानसे होता है ।। १०४ ।। .. लौकिकप्रमेयवैलक्षण्यादात्मनो नेहानधिगताधिगमः प्रमाणफलम् ।
अविद्यानाशमानं तु फलमित्युपचर्यते
नाऽज्ञातज्ञापनं . न्याय्यमवगत्येकरूपतः ॥ १०५ ।। __ लोकप्रसिद्ध जानने योग्य विषयोंसे आत्मा विलक्षण है, इसलिए इस श्रात्माको
१-मस्यते, ऐसा तथा 'अन्धधीः, ऐसा भी पाठ है।
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भाषानुवादसहिता प्रकाशित करना यह प्रमाण का फल नहीं हो सकता। किन्तु अविद्याका नाशमात्र ही यहाँ गौणरीत्या प्रमाणका फल व्यवहृत होता है । अज्ञात आत्माका प्रकाशित होना यह मानना युक्तियुक्त नहीं है । क्योंकि प्रात्मा सर्वदा ज्ञानरूप है अतएव उसमें प्रावरणका सम्भव ही नहीं है ॥ १०५ ।।
यस्मादात्माऽनवबोधमात्रोपादानाः प्रमात्रादयस्तस्मात् । न विदन्त्यात्मनः सत्तां द्रष्ट्रदर्शनगोचराः।।
न चान्योऽन्यमतोऽमीप ज्ञेयत्वं भिन्नसाधनम् ॥१०६।।
क्योंकि आत्माके अज्ञानमात्रसे ही यह प्रमाता, प्रमाण प्रमेय इत्यादि द्वैत है इसलिए द्रष्टा (प्रमाता ), दर्शन ( ज्ञान ) और गोचर ( विषय ) अर्थात् बुद्धिकी वृत्ति ये अपनी सत्ताको नहीं जानते और न ये परस्पर ही एक दूसरे को जानते हैं। क्योंकि वे जड़ हैं, इस कारण से इनका प्रकाश किसी दूसरेके द्वारा होता है ॥ १०६ ॥
द्रष्टादेरसाधारणस्वरूपज्ञापनायाह ।। द्रष्टा, दर्शन और विषयका असाधारण स्वरूप बतलाने के लिए कहते हैंबाह्य आकारवान् ग्राह्यो ग्रहणं निश्चयादिमत् ।
अन्वय्यहमिति ज्ञेयः साक्षी वात्मा ध्रुवः सदा ।। १०७॥
ग्रहण करने योग्य अपनेसे भिन्न तथा आकारयुक्त पदार्थोंको विषय कहते हैं । निश्चय, संशय इत्यादि वृत्तियों को ग्रहण कहते हैं। मैं सुनता हूँ' 'मैं निश्चय करता हूँ। 'मैं स्मरण करता हूँ' इस प्रकार निश्चयादि वृत्तियोंमें जो एक 'अहम्'--'मैं' अनुगत भासमान होता है, वह द्रष्टा है । और जो इन तीनोके भावाभावीका साधक, सुषुप्ति और मोक्षादि अवस्थाओं में अनुगत, कूटस्थ तथा निस्य है, वह आत्मा साक्षी कहलाता है ॥ १०७ ॥
सर्वकारकक्रियाविभागात्मकसंसारशून्य आत्मेति कारकक्रियाफलविभागसाक्षित्वादात्मनस्तदाह । .
ग्राहकग्रहणग्राह्यविभागे योऽविभागवान् । हानोपादानयोः साक्षी हानोपादानवर्जितः ॥ १०८ ॥
आत्मा कारक, किया और फल इत्यादि सर्व प्रकारके द्वैतका साक्षी हैं। इस कथनसे आत्मा सब प्रकारके क्रिया, कारक अादि द्वैतोंसे शून्य है, यह सिद्ध हो गया। इसी बात को कहते हैं
ग्राहक, ग्रहण और विषय इन तीनोंके विभक्त होनेपर भी जिसका स्फुरणस्वरूपसे कभी विभाग नहीं होता तथा जो स्वयं भावाऽभावोंसे रहित होता हुआ ग्राहक आदिके भावाभावों का साक्षी है (वह आत्मा है । ) ।। १.८॥
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नैष्कर्म्यसिद्धिः ग्राहकादि निष्ठेव ग्राहकादिभावाभावविभागसिद्धिः कस्मान्नेति चेत्तदाह ।
स्वसाधनं स्वयं नष्टो न नाशं वेत्यभावतः ।
अतएव न चाऽन्येषामतोऽसौ भिन्नसाक्षिकः ॥ १०९ ॥
शङ्का-पूर्वोक्त ग्राह्य, ग्रहण तथा ग्राहक इत्यादि पदार्थोकी सत्ता या असत्ताकी सिद्धि इन्हींसे क्यों नहीं हो सकती ? .
उत्तर-ग्राहकादि पदार्थ प्रमाण रूप न होनेसे अपनी सत्ताको ग्रहण नहीं कर सकते तथा नष्ट हो जानेपर असत् हैं । इसलिए वे अपने असत्त्वका (अभावका) भी ग्रहण नहीं कर सकते। इसीलिए औरों को भी सिद्धि इनसे नहीं हो सकती, अतएव इनका प्रकाशक-साक्षी कोई और ही है ॥ १०६ ॥
ग्राहकादेरन्यसाक्षिपूर्वकत्वसिद्धेः . स्वसाक्षिणोऽप्यन्यसाक्षिपूर्वकत्वादनवस्थेति चेत्तन्न । साक्षिणो व्यतिरिक्तहेत्वनपेक्षत्वात् । अत आह ।
__शङ्का ग्राहकादिकी सिद्धि यदि किसी अन्य साक्षीसे होती है, तो अपने साक्षीको सिद्धि भी किसी दूसरे साक्षीको माननी पड़ेगी। इस प्रकारसे अनवस्था दोष आता है ?
उतर-साक्षीको अपनी सिद्धि के लिए किसी दूसरे कारणकी अपेक्षा नहीं है। इसलिए कहते हैं
धीवन्नापेक्षते सिद्घिमात्माऽन्यस्मादविक्रियः । निरपेक्षमपेक्ष्यैव सिद्धयत्यन्ये न तु स्वयम् ॥ ११० ॥
अात्मा अविकारी है, अतएव बुद्धि के समान अपने प्रकाशके लिए वह दूसरे की अपेक्षा नहीं रखता । क्योंकि अन्य सब पदार्थ प्रात्मासे प्रकाश्य हैं; इसलिए वे अात्माके प्रकाशक नहीं हो सकते ? ॥ ११० ॥
यतो ग्राहकादिष्वात्मभावोऽविद्यानिबन्धन एव । तस्मात् । । अन्वयव्यतिरेकाभ्यां विभज्यानात्मनः स्वयम् । उत्पत्तिस्थितिनाशेषु योऽवगत्यैव वर्तते। .
जगतोऽविकारयाऽवेहि तमस्मीति न नश्वरम् ॥ १११॥ ग्राहक, ग्रहण और ग्राह्यमें आत्मभाव अविद्यामूलक ही है। इसलिए-अन्वय और व्यतिरेकके द्वारा स्वयं अनात्माको पृथक् करके जो जगत्की उत्पत्ति, स्थिति और
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भाषानुवादसहिता
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नाश इन सब अवस्थाओं में विकार रहित एवं अनुभवरूपसे वर्तमान है, उसीको अपना स्वरूप समझो और जो नष्ट होनेवाले ममता श्रादि हैं, उन्हें अपना स्वरूप मत समझो ॥ १११ ॥
स्वतः सिद्धाऽऽत्मचैतन्य प्रतिविम्बिताऽविचारितसिद्धिकाssमानवबोधोत्थेतरेतरस्वभावापेक्ष सिद्धत्वात्स्वतश्चाऽसिद्धेरनात्मनो द्वैते
न्द्रजालस्य
न स्वयं स्वस्य नानात्वं नाऽवगत्यात्मना यतः । नोभाभ्यामध्यतः सिद्धमद्वैतं द्वैतबाधया' ।। ११२ ।। अपनी सिद्धिके लिए दूसरे प्रमाणों की अपेक्षा न करनेवाले चैतन्यस्वरूप श्रात्मा के प्रतिबिम्बित होने से प्रकाशमान तथा अविवेकावस्था में ही प्रतीत होनेवाले श्रतएव श्रात्माके अज्ञान से ही उत्पन्न और ग्रापसमें एक दूसरेकी अपेक्षा रखकर सिद्ध होनेवाले, स्वयं सिद्ध न होनेवाले इस द्वतरूप इन्द्रजालका -नानात्व न तो अपने ही से वास्तव में सिद्ध है, क्योंकि यह स्वयं जड़ है । और न चैतन्य आत्मा द्वारा इसकी वास्तवि क सिद्धि हो सकती है; क्योंकि जड़ और चेतनकी एकता नहीं है । इस प्रकार जत्र द्वत प्रपञ्च दोनों प्रकार से बाधित है, तब सुतरां द्वैत सिद्ध हुआ ॥ ११२ ॥ यथोक्तार्थद्रढिम्ने श्रुत्युदाहरणोपन्यासः ।
पूर्वोक्त अर्थको दृढ़ कने के लिए श्रुतिवाक्योंको उद्धृत करते हैंनित्यावगतिरूपत्वात् कारकादिर्न चाऽऽत्मनः । अस्थूलं नेति नेतीति न जायत इति श्रुतिः ॥ आत्मा नित्य ज्ञानस्वरूप है । इसलिए उसमें कारक आदि द्व ैत नहीं है । इस बातको "यह श्रात्मा स्थूल नहीं है" "यह नामरूपात्मक पदार्थ आत्मा नहीं है" "यह श्रात्मा उत्पन्न नहीं होता" इत्यादि श्रुतियाँ पुष्ट करती हैं ॥ ११३ ॥
११३ ॥
सर्वस्यास्य ग्राहकादे द्वैतप्रपञ्चस्यात्मानवबोधमात्रोपादानस्य
स्वयं से मशक्यत्वात् आत्मसिद्धेश्वानुपादेयत्वात्आत्मनश्वेन्निवार्यते
बुद्धिदेहघटादयः ।
षष्टगोचरकल्पास्ते विज्ञेयाः परमार्थतः ।। ११४ ॥
सम्पूर्ण बुद्धि आदि द्वत प्रपञ्च, जोकि आत्मा के अज्ञानसे ही भासमान होता है, स्वयं अपने से जड़ होने के कारण सिद्ध नहीं हो सकता और आत्माकी सिद्धिका इसकी
१ - द्वैतभाषया, ऐसा भी पाठ है ।
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नैष्कर्म्यसिद्धिः
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सिद्धिमें उपयोग नहीं है क्योंकि वह चेतन है । उसका उसके साथ कोई सम्बन्ध नहीं है । इसलिए बुद्धि आदि पदार्थोंको आत्मा के स्वरूप में प्रवेशित न करके, उससे पृथक् देखने से, ये सब वास्तव में सद्रूप ही प्रतीत होने लगते हैं ॥ ११४ ॥
कुतो न्यायवलादेवं निश्चितं प्रतीयते ? यस्मात् । नित्यां संविदमाश्रित्य स्वतः सिद्धामविक्रियाम् । सिद्धायन्ते धियो बोधास्ताँचा 'ssश्रित्य घटादयः ॥ ११५ ॥
शङ्का - किस युक्ति के बल से यह निश्चित जाना जाता है ? समाधान - जिस कारण - स्वयम्प्रकाश, निर्विकार तथा नित्य ज्ञानस्वरूप श्रात्मा को ही आश्रय करके बुद्धिकी वृत्तियाँ सिद्ध होती हैं और उनसे ये घटादि पदार्थ सिद्ध होते हैं । ॥ ११५ ॥
यस्मान्न कयाचिदपि युक्त्यात्मनः कारकत्वं क्रियात्वं फलत्त्व - वोपपद्यते । तस्मादात्मवस्तुयाथात्म्या नवबोध मात्रोपादानत्वान्नभसीव रजो घूमतुषार नीहारनीलत्वाद्याभासो यथोक्तात्मनि सर्वोऽयं क्रियाकारकफलात्मक संसारोऽहं ममत्वयत्नेच्छादिमिध्याध्यास एवेति सिद्धम् । इमर्थमाह ।
चूँकि किसी युक्ति से भी श्रात्मा में क्रिया, कारण, फल इत्यादि भेद सिद्ध नहीं होता, इस कारण श्रात्मत्रस्तु के यथार्थ स्वरूपको न जाननेमात्र से ही यह उत्पन्न हुआ है । इसलिए आकाश में रज, धूम, तुषार और नीलता इत्यादि भ्रान्ति के समान यह सब क्रिया, कारक और फल रूप संसार अहङ्कार, ममता, यत्न और इच्छा आदिका मिथ्याध्यास ही है, यह सिद्ध हुआ । इसी बात को कहते हैं
२
अहं मिथ्याभिशापेन दुःख्यात्मा तद्बुभुत्सया । इतः श्रुतिं तथा नेतीत्युक्तः कैवल्य मास्थितः ।। ११६ ।। मिथ्याभिमानसे दुःखको आरोपित कर दुःखसे छूटने की इच्छा से यह आत्मा (करुणामयी जननी के समान भगवती) श्रुतिकी शरण में गया । तब 'नेति नेति' इत्यादि श्रुतिद्वारा भ्रान्ति जब निवृत्त हुई, तत्र स्वस्थ होकर कैवल्यरून मोक्षको प्राप्त होता
॥ ११६ ॥
१ - ताश्चाश्रित्य ऐसा पाठ भी है । २ - तमुत्सया, के स्थान में कहीं कहीं तच्छुत्सया' ऐसा भी पाठ हैं ।
३ – ह्येकल श्राश्रितः, भी पाठान्तर है ।
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भाषानुवादसहिता तस्याऽस्य मुमुक्षोः श्रौताद्वचसः स्वमनिमित्तोत्सारितनिद्रस्येवेयं निश्चितार्था प्रमा जायते ।
नाऽहं न च ममाऽऽत्मत्वात्सर्वदानात्मवर्जितः । भानाविव तमोध्यासोऽपह्नवश्व तथा मयि ।। ११७ ॥
उस (पूर्वोक्त) मुमुक्षुको अतिवाक्योंसे स्वप्नके कारण रूप निद्रासे रहित पुरुषके समान निश्चयात्मक यह ज्ञान होता है कि
मैं अहङ्कार नहीं हूँ और मेरा कोई नहीं है। मैं केवल आत्मस्वरूप हूँ। इसलिए सर्वदा अनात्मासे अस्पृष्ट हूँ। जिस प्रकार सूर्य में अन्धकारकी भ्रान्ति होना और उसका नाश होना, दोनों ही मिथ्या हैं। इसी प्रकार मुझमें बन्ध और मोक्ष दोनों ही मिथ्या है ।। ११७॥
सोऽयमेवं प्रतिपन्नस्वभावमात्मानं प्रतिपन्नोऽनुक्रोशति । यत्र त्वस्वेति साटोपं कृत्स्नद्वैतनिपेधिनीम् । प्रोत्सारयन्तीं संसारमन्यौष श्रुतिं न किम् ॥ ११८ ॥
इस प्रकार वह ब्रह्मज्ञानी सच्चिदानन्दस्वरूप आत्माको पाकर पाश्चात्ताप करता है कि, श्राहा-"जिस अवस्थामें ज्ञानी पुरुषकी दृष्टि से सम्पूर्ण प्रपञ्च अात्मस्वरूपमें लीन हो जाता है उस अवस्थामें किस कारण से, किस वस्तुको देखे, कोई वस्तु ही पृथक् न रही!" इस प्रकार बलपूर्वक समस्त संसारका निषेध करनेवाली श्रुतियोंको मैंने क्या (पहले ) नहीं सुना था ? ॥ ११८ ॥
इत्योमित्यवबुद्धात्मा निष्कलोऽकारकोऽक्रियः ।
विरक्त इव बुद्ध्यादेरेकात्मत्वमुपेयिवान् ॥ ११९ ॥
इस प्रकार वह ब्रह्मज्ञानी प्रणवके अर्थ अात्मस्वरूपको जानकर अज्ञान तथा कारक श्रादि द्वतसे रहित होकर बुद्ध्यादिसे विरक्त हो अात्मस्वरूपमें स्थित हो जाता है ॥ ११६ ॥ इति श्रीमत्सुरेश्वराचार्यविरचितायां नैष्कर्म्यसिद्धौ सम्बन्धाख्यायां
द्वितीयोऽध्यायः
१-संसारं मय्यश्रौषम्, भी पाठभेद है। १-इत्योमित्येव बुद्धात्मा, ऐसा और निष्फलोऽकारकः, ऐसा पाठ भी है।
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नैष्कर्म्यसिद्धिः अथ नैष्कर्म्यसिधौ तृतीयोऽध्यायः सर्वोऽयं प्रमितिप्रमाणप्रमेयप्रमातृत्वलक्षण आब्रह्मस्तम्बपर्यन्तो मिथ्याध्यास एवेति बहुश उपपत्तिभिरभिहितम् । आत्मा च जन्मादिषड्भाव-विकारवर्जितः कूटस्थबोधः एवेति स्फुटीकृतम् । तयोश्च मिथ्याध्यासकूटस्थात्मनो ऽन्तरेणाऽज्ञान सम्बन्धोऽन्यत्र चोदनापरिप्रापितात् यथा-'इयमेव ऋगग्निः साम' इति । तच्चाऽज्ञानं स्वात्ममात्रनिमित्तं न सम्भवति इति कस्यचित् कस्मिंश्चिद् विषये भवतीत्यभ्युपगन्तव्यम् । इह च पदार्थद्वयं निर्धारितमात्माऽनात्मा च । तत्राऽनात्मनस्तावन्नाऽज्ञानेनाऽभिसम्बन्धः तस्य हि स्वरूपमेवाऽज्ञानम् । न हि स्वतोऽज्ञानस्याज्ञानं घटते, सम्भवदप्यज्ञानस्वभावेऽज्ञानं कमतिशयं जनयेत् ? न च तत्र ज्ञानप्राप्तिरस्ति, येन तत्प्रतिषेधात्मकमज्ञानं स्यात् । अनात्मनश्चाऽज्ञानप्रसूतत्वात् । न हि पूर्वसिद्धं सत्ततो लब्धा
मलाभस्य सेत्स्यत आश्रयस्याऽऽश्रयि सम्भवति । तदनपेक्षितस्य च तस्य निःस्वभावत्वात् । एतेभ्य एव हेतुभ्यो नाऽनात्मविषयमज्ञानं सम्भवतीति ग्राह्यम् ।
यह समस्त प्रमा ( यथार्थज्ञान ) प्रमाण ( यथार्थज्ञानका साधन ), प्रमेय और प्रमाता ( जाननेवाला ) इत्यादिरूप, ब्रह्मासे लेकर क्षुद्र कीट पर्यन्त, संसार मिथ्यारूर ही है, इस बातको अनेक युक्तियों के द्वारा कहा। और आत्मा छः प्रकार के भाव विकारोसे रहित, कूटस्थ ज्ञानरूप ही है, यह भी स्पष्ट कर दिया। और यह भी कह दिया है किमिथ्याभ्रान्तिरूप संसार और कूटस्थ आत्मा, इन दोनोंका सम्बन्ध अज्ञान के बिना नहीं है। हाँ, जहाँपर श्रुतिने उपासना के लिए अभेदका प्रतिपादन किया है। जैसे- इयमेव ऋक अग्नि: साम' यहाँ पर पृथवीमें ऋक् दृष्टि और अग्नि में सामकी दृष्टि करने के लिए ही पृथिवीमें ऋकका और अग्निमें सामका अभेद न होनेपर भी अभेद दिखलाया है, ऐसे स्थलों में अज्ञानके बिना भी सम्न्ध हो। परन्तु इन स्थलोको छोड़कर अन्यत्र तो अज्ञानके बिना कभी भी सम्बन्ध नहीं होता, यह सिद्धान्त है। किन्तु उस अज्ञानकी
-उपपत्तिभिरभिरहितम् , भी पाठ है। २-संबन्धः, ऐसा पाठ है । ३-तत्प्रतिषेध्यात्मक, पाठ भी है । ४-संभवतीति प्राप्तम, भी पाठ है।
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भाषानुवादसहिता
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भी सत्ता अपने आप ही हो नहीं सकती। इसलिए किसी पुरुषका किसी विषय में अज्ञान होता है, क्योंकि आश्रय और विषयके बिना उसका निरूपण ही नहीं होता, ऐसा मानना चाहिए । इस शास्त्र में दो ही पदार्थ माने गये हैं आत्मा और अनात्मा । उनमें अनात्मज्ञानका विषय और श्राश्रय नहीं हो सकता क्योंकि अनात्माका स्वरूप ही अज्ञान है उसको और ज्ञान क्या होगा ? स्वत: अज्ञान ग्रज्ञानसे श्रावृत है, ऐसी बात कभी भी नहीं घटती । कदाचित् श्रज्ञानपर अज्ञान मान भी लें तो उससे लाभ क्या ? अज्ञानमें
ज्ञानसे कोई विशेष तो होनेवाला नहीं है । यदि अज्ञान में ज्ञानकी प्राप्ति होती, तो भी उसके प्रतिषेधके लिए अज्ञान में अज्ञान मान भी लिया जाता, सो भी नहीं । और अनात्मा अज्ञानसे उत्पन्न हुआ है, फिर अज्ञानका श्राश्रय अनात्मा कैसे हो सकता है ? यह बात कभी भी मानी नहीं जा सकती कि पूर्व से सिद्ध जो वस्तु है, वह उससे ही स्वरूप सत्ताको प्राप्त होनेवाले और प्रतीत होनेवाले पदार्थका आश्रय करके रह सकती है । इन्हीं कारणों से अनात्मा अज्ञानका विषय है, यह भी नहीं कह सकते ।
एवं तावन्नानात्मनोऽज्ञानित्वं नाऽपि तद्विषयमज्ञानम् । पारिशेsयादात्मन एवाऽस्त्वज्ञानं तस्याऽज्ञोऽस्मीत्यनुभवदर्शनात् । 'सोऽहं भगवो मन्त्रविदेवास्मि नाऽऽत्मवित्' इति श्रुतेः । न चाऽऽत्मनोऽज्ञानस्वरूपता, तस्य चैतन्यमात्र स्वाभाव्यात् । अतिशयश्च सम्भवति ज्ञानपरिलोपो' ज्ञानप्राप्तेश्च सम्भवस्तस्य ज्ञानकारित्वात् । न चाऽज्ञानकार्यत्वं, कूटस्थात्मस्वाभाव्यात् । अज्ञानानपेक्षस्य च आत्मनः स्वत एव स्वरूपसिद्धेर्युक्तमात्मन एवाऽज्ञत्वम् । किंविषयं पुनस्तदात्मनोऽज्ञानम् ? आत्मविषयमिति ब्रूमः ।
इस प्रकार अनात्मा ज्ञानका आश्रय और विषय जत्र नहीं हो सकता । फिर, बचा आत्मा । इसलिए यह मान लेना पड़ता है कि उसमें ( आत्मा में ) अज्ञान है क्योंकि आत्माको ही 'मैं ज्ञ हूँ' इस प्रकार अज्ञान का अनुभव हो रहा है । जैसा कि श्रुतिमैं भी वर्णन किया है – 'हे भगवन् ! मैं मन्त्रों को ही जानता हूँ आनाको नहीं ।" और आत्मा नामाकी भाँति अज्ञानस्वरूप भी नहीं है क्योंकि वह चैतन्य-स्वरूप है 1 इसी कारण उसमें अज्ञान माननेसे विशेष अर्थात् विलक्षणता भी बन सकती है— ज्ञान से ग्रात्मस्वरूप ज्ञानका श्रावरण होकर विपरीत रूपसे आत्माका स्फुरण तथा उस आवरण और विपरीत स्फुरण को नष्ट करनेवाले ज्ञानकी प्राप्ति भी हो सकती है । क्योंकि आत्मा विद्या से उत्पन्न ग्रन्तःकरणादि वृत्तिमें प्रतिबिम्बित होकर वृत्ति
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१ – विचारलोपोऽज्ञानप्राप्तेः, भी पाठ है ।
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नैष्कम्यसिद्धिः प्रतिबिम्बित चैतन्यरूप ज्ञानको उत्पन्न करता है। और वह आत्मा अज्ञानका कार्य भी नहीं है । क्योकि वह कूटस्थ एवं नित्य है, अज्ञानकी अपेक्षाके बिना ही श्रात्माकी स्वतःसिद्धि है। इसलिए अात्मामें ही अज्ञानको मानना उचित है।
शङ्का-वह आत्माका अज्ञान किसको विषय करता है ? समाधान-हमारा सिद्धान्त है कि अज्ञान अात्माको ही विषय करता है ।
नन्वात्मनोऽपिज्ञानस्वरूपत्वादनन्यत्वाच्च ज्ञानप्रकृतित्वादिभ्यो हेतुभ्यो नैवाऽज्ञानं घटते ? घटत एव । कथम् ? अज्ञानमात्रनिमित्तत्वात्तद्विभागस्य, सात्मतेव रज्ज्वाः। तस्मात्तदपनुत्तौ द्वैतानर्थाभावः । तदपनोदश्च वाक्यादेव तत्पदार्थाभिज्ञस्य । अतो वाक्यव्याख्यानायाऽध्याय आरभ्यते ।
शङ्का-प्रात्मा ज्ञानस्वरूप और अद्वितीय है । इसलिए भेद ही जब नहीं है, तब वह किसीका आधार नहीं हो सकता । अतएव याज्ञानका भी आश्रय कैसे हो सकता है और प्रास्मामें अज्ञानके विरोधी ज्ञानको उत्पन्न करने की शक्ति भी है। इन कारणांसे आत्मामें अज्ञान नहीं हो सकता है ?
उत्तर-आत्मा अज्ञानका प्राश्रय हो सकता है। क्योंकि वास्तव में वह अद्वितीय अर्थात् भेदशून्य होने पर भी, रज्जुमें अज्ञानसे कल्पित सर्पकी भाँति, कल्पित भेद होनेके कारण अज्ञानका आश्रय है। अतएव इस अज्ञान की निवृत्ति होनेसे द्व तरूप अनर्थका नाश होता है। और अज्ञानका नाश महावाक्य के द्वारा उसके पद-पदार्थके ज्ञाताको होता है । इसलिए अब बाक्यका व्याख्यान करने के लिए. (तृतीय) अध्यायका प्रारम्भ किया जाता है। . तत्र यथोक्तेन प्रकारेण तत्त्वमस्यादिवाक्योपनिविष्टपदपदार्थयोः कृतान्वयव्यतिरेकः ।।
यदा ना तत्त्वमस्यादेब्रह्माऽस्मीत्यवगच्छति ।
प्रध्वस्ताऽहंममो नैति तदा गीर्मनसोः सृतिम् ॥ १ ॥
पूर्वोक्त प्रकारसे 'तत्त्वमसि-वह तू है' इत्यादि वाक्योंमें प्रविष्ट पद तथा उनके अर्थोका अन्वय व्यतिरेकसे ज्ञान प्राप्त किया हुआ-पुरुष तत्त्वमस्यादि वाक्योंसे 'मैं ब्रह्म हूँ' ऐसा निश्चय जब कर लेता है, तब उसका अहङ्कार और ममकार नष्ट हो जाता है, फिर वह वाणी और मनके रचे सब व्यवहारोंसे अतीत (मुक्त) हो जाता है ॥ १ ॥
३--उपनिविष्टपदार्थयोः, भी पाठान्तर है।
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भाषानुवादसहिता यदैव तदर्थ त्वमर्थेऽति तदैवावाक्यार्थतां प्रतिपद्यते गीर्मनसोः सृतिं न प्रतिपद्यत इति, कुत एतदध्यव मीयते ? यस्मात् । .. . तत्पदं प्रकृतार्थ स्यात्वं पदं प्रत्यगात्मनि ।
नीलोत्पलवदेताभ्यां दुःख्यनात्मत्ववारणे ॥ २॥ .
शङ्का-जिज्ञासु पुरुष जब तत्पदके अर्थको त्वं पदके अर्थ के साथ अभेदरूपसे जान लेता है, तब वह वाणी और मनके रचे व्यवहारोंसे अतीत हो जाता है, इसमें प्रमाण क्या है ?
उत्तर-प्रमाण यह है कि-'तत्त्वमसि' इस वाक्यमें तत्पद अद्वितीय ब्रह्मका और त्वम्पद प्रत्यगात्माका बोधक है, अतएव 'यह. नील कमल है' ऐसा कहनेसे कमलमें नीलका भेद और नोलका कमल के साथ असम्बन्ध जैसे निवृत्त हो जाता है । इसमें देश, काल तथा साधनोंकी अपेक्षा नहीं है। वैसे ही 'तत्वमसि' इस वाक्यसे प्रत्यगात्मामें दुःखित्वादि तथा परमात्मामें अनात्मवादिकी निवृत्ति होकर शुद्ध अात्मतत्त्वका बोध होता है ॥ २ ॥
एवं कृतान्वयव्यतिरेको वाक्यादेवाऽवाकार्य प्रतिपद्यत इत्युक्तम् । अतस्तद्व्याख्यानाय सूत्रोपन्यासः ।
सामानाधिकरण्यश्च विशेषणविशेष्यता। लक्ष्यलक्षणसम्बन्धः पदार्थप्रत्यगात्मनाम् ।। ३ ।।
इस प्रकार जिसने अन्वय-व्यतिरेक के द्वारा विवेकज्ञानका सम्पादन किया है वह वाक्यसे ही वाक्य द्वारा अवाच्य-अखण्ड 'अद्वितीय' ब्रह्मरूप अर्थको जान लेता है, यह प्रतिपादन किया । इसलिए अब वाक्यसे ज्ञान किस प्रकार होता है, इसका प्रतिपादन करने के लिए अग्रिम सूत्र (श्लोक) का उपन्यास करते हैं
तत्त्वमसि' आदि महावाक्य तीन प्रकारके सम्बन्धोंसे अखण्ड वस्तुका ज्ञान कराते हूँ-उनमें (१) पहला सम्बन्ध है-पदोंका परस्पर सामानाधिकरण्य* (२) दुसरा सम्बन्ध है-विशेषण विशेष्यभाव ( अर्थात् तत् पदका अर्थ ब्रह्म और त्वं पदका अर्थ जीव, इन दोनोंका परस्पर (ब्रह्मका ) विशेषण रूपसे और (-जीवका) विशेष्यरूपसे बोध होना), और (३) तीसरा सम्बन्ध है-लक्ष्य लक्षण (अर्थात् तत्पनार्थ सर्वज्ञत्वादि रूप ब्रह्मधर्म और स्वंपदार्थ अल्पज्ञत्वादिरूप जीवधर्मको त्यागकर शुद्ध, अखण्ड, चिन्मात्रका लक्षणासे बोध होना ) ॥३॥
* सामानाधिकरण्य उसे कहते है जहाँ दोनों पद एक ही विभक्तिसे युक्त होकर एक अर्थका प्रतिपादन करते हैं ।
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नैष्कर्म्यसिद्धिः अस्मिन्सूत्रे उपन्यस्ते कश्चिचोदयति-योऽयं वाक्यार्थप्रतिपत्ती पूर्वाध्यायेनान्वयव्यतिरेकलक्षणो न्यायः सर्वकर्मसंन्यासपूर्वकोऽभिहितः किमयं विधिपरिप्रापितः, किं वा स्वरसत एवाऽत्र पुमान् प्रवर्तत इति ? किञ्चाऽतः ? शृणु। यद्यात्मवस्तुसाक्षात्करणाय विधिप्रापितोऽयं न्यायस्तदाऽवश्यमात्मवस्तुसाक्षात्करणाय व्यावृत्तशुभाशुभकर्मराशिरेकाग्रमना अन्वयव्यतिरेकाभ्यां यथोक्ताभ्यामात्मदर्शनं करोति । अपरिसमाप्याऽऽत्मदर्शनं ततः प्रच्यवमान आरूढपतितो भवति । यदि पुनर्यदृच्छातः प्रवर्तते तदा न कश्चिद्दोष इति । विधिपरिप्रापित इति ब्रूमः यत आह ।
पूर्वपक्ष-इस प्रकार सूत्ररूप श्लोकसे उक्तविषयका प्रतिपादन करनेपर कोई कहता है कि 'यह जो पूर्व अध्यायमें वाक्यर्थ ज्ञानके लिए सर्वकर्म त्यागरूप संन्यासपूर्बक अन्वयव्यतिरेकरूप न्यायका प्रतिपादन किया, क्या वह विधिसे प्राप्त है ? किं वा स्वभावसे ही अर्थात् स्वयं ही पुरुष इस विषय में प्रवृत्त होता है ? यदि कहो कि इस प्रश्नका क्या प्रयोजन सिद्ध हो सकता है ? सो सुनिए, यदि आत्मवस्तु साक्षाकार-करनेके लिए अन्बय व्यतिरेकरूप युक्तियोंका विचार करना विधिसे प्राप्त है, ऐसा कहो ! तब तो जिसने अात्मवस्तु के दर्शन के लिए सर्व कर्मों का त्याग किया है और मनको एकाग्र किया है, अवश्य ही वह जिज्ञासु पुरुष अन्वय व्यतिरेक द्वारा आत्मदर्शन कर सकता है। क्योंकि अात्मसाक्षात्काररूप फल-सिद्धि तक अनुष्ठान न करे तो (आत्मदर्शनको प्राप्त न होकर ) उससे भ्रष्ट होनेसे प्रारूढपतित हो जाता है । यदि यहच्छासे ही इन युक्तियोंका विचार करने में पुरुष प्रवृत्त होता है, ऐसा कहो तब कोई दोष नहीं है।
इस शङ्काका तात्पर्य यह है कि-अज्ञाननिवृत्तिरूप फल अदृष्ट नहीं, किन्तु प्रत्यक्ष है । अतएव उसका साधन जो ज्ञान है वह भी स्वयं विधान करने योग्य नहीं है और ज्ञान के साधन श्रवणादि भी अन्वय व्यतिरेकसे ही-स्वयमेव सिद्ध हैं । फिर विधि के न रहने पर जिसको ज्ञानकी इच्छा होगी, वह स्वयं श्रवणादिमें प्रवृत्त हो जायगा । अतएव शास्त्रीय विशिष्टाधिकारी कोई न रहा और यह बात भी शास्त्र प्रसिद्ध है कि वेद अधिकारीको ज्ञान उत्पन्न करता है । यहाँ विधि न होनेसे कोई शास्त्रीय अधिकारी न रहा. तब तत्त्वमस्यादि वाक्य किसको बोध करायेंगे । सुतराम् उसके व्याख्यान करने के लिए सूत्ररूप श्लोकका कहना व्यर्थ है ?
सिद्धान्त-विचार करनेपर प्रवृत्ति विधि प्रयुक्त ही है । क्योंकि
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भाषानुवादसहिता शमादिसाधनः पश्येदात्मन्यात्मानमञ्जसा । अन्वयव्यतिरेकाभ्यां त्यक्त्वा युष्मदशेषतः ॥ ४॥ युष्मदर्थे' परित्यक्ते पूर्वोक्तैहेतुभिः श्रुतिः।
वीक्षापन्नस्य कोऽस्मीति तत्त्वमित्याह सौहृदात् ॥५॥ "अन्वय व्यतिरेकसे अनात्माका परित्याग करके शान्त, दान्त, उपरत, तितिक्षु, समाधानयुक्त तथा श्रद्धायुक्त होकर आत्माको देखे ।" इस अतिमें ज्ञानका विधान नहीं किया है। किन्तु जो देखे वह शान्त, दान्त होकर देखे, इस प्रकार ज्ञानसाधनके विघा. नमें ही इस वाक्यका पर्यवसान होने के कारण तथा श्रवण आदि दृष्ट उपाय होनेपर भी नियम विधिके होने में कोई बाधा न होनेसे शास्त्रीय विशिष्ट अधिकारी मिल गया। इसलिए पूर्वाध्यायमें कथित अन्वय-व्यतिरेक हेतुओंके द्वारा अनात्म वस्तुका परित्याग करनेपर अद्वितीय आत्मवस्तु के अज्ञानसे आच्छादित होने के कारण 'मैं कौन हूँ' ऐसी जिज्ञासा जिस पुरुषको हुई है, उसको श्रुति माताके समान बड़े प्रमसे अज्ञान दूर करने के लिए 'तू वही ब्रह्म है' ऐसा उपदेश करती है ॥ ४-५ ॥
अत्राऽपि चोदयन्ति साङ्ख्याः-शरीरेन्द्रियमनोबुद्धिष्वनात्मस्वात्मेति निःसन्धिवन्धनं मिथ्याज्ञानमज्ञानं तन्निवन्धनोद्यात्मनोनेकानर्थसम्बन्धस्तस्य चाऽन्वयव्यतिरेकाभ्यामेव निरस्त्वानिर्विषयं तत्त्वमस्यांदिवाक्यं प्राप्तम् । तस्माद् वाक्यस्य चैष महिमा योऽयमात्मा. नात्मनोविभाग इति, तन्निकरणायेदमुच्यते।
इसपर भी साङ्ख्यवादी लोग ऐसी शङ्का करते हैं कि-"शरीर, इन्द्रिय, मन, बुद्धिरूप अनात्माओं में, यह आत्मा है, इस प्रकार बिलकुल भेदका तिरोधान होकर जो ऐक्यका ज्ञान है वही मिथ्याज्ञान अज्ञान है। ( इससे अतिरिक्त एक अनादि अज्ञान है, इसमें कोई प्रमाण नहीं है । ) इसी मिथ्याज्ञानरूप अज्ञानसे आत्मामें अनेक अनर्थोंकी उत्पत्ति हुई है। इस मिथ्याज्ञानकी निवृत्ति अन्वयव्यतिरेकसे ही जब सिद्ध है, फिर तत्वमस्यादि वाक्यकी क्या आवश्यकता है ? अतएव वह वाक्य निर्विषय ही प्राप्त हुआ ? इसलिए कहना चाहिए कि वाक्यका यही माहात्म्य अर्थात् प्रयोजन है कि "आत्मा और अनात्माका विभाग करना; इसके सिवाय और कुछ नहीं ?" इस अाशङ्काका निराकरण करने के लिए इस अग्रिम प्रकरणका प्रारम्भ करते हैं -
१ युष्मद्यथ । २ अनेकार्थसम्बन्धः।
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नैष्कर्म्यसिद्धिः भेदसंविदिदं ज्ञानं भेदाभावश्च साक्षिणि ।
कार्यमेतदविद्याया ज्ञात्मना त्याजयेद्वचः ॥ ६॥ जो यह श्रात्मा और अनात्माका विवेकज्ञान है, वह भेद निश्चयका फल है। श्रुतियाँसे साक्षिचैतन्यमें भेदका अभाव सुना जाता है । इसलिए यह विवेकज्ञान भेदशून्य वस्तुमें होनेसे अविद्याका कार्य अर्थात् भ्रान्तिरूप है, अतएव वह वाक्य-जन्य नहीं है। किन्तु वाक्य अखण्ड अद्वितीय चैतन्यका ज्ञान उत्पन्न करके कार्यसहित इस अज्ञानको दूर कर देता है ॥ ६॥
___'ज्ञात्मना त्याजयेद् वचः' इत्युपश्रुत्याह कश्चित्-मिथ्याज्ञानव्यतिरेकेणात्मानवबोधस्याऽभावात्कि वाक्येन निवर्त्यते ? अज्ञानं हि नाम ज्ञानाभावः तस्य चाऽवस्तुस्वाभाव्यात् कुतः संसारकारणत्वम् ? न ह्यसतः सज्जन्मेष्यते-'कुतस्तु खलु सोम्यैवं स्यादिति कथमसतः सजायते' इति श्रुतेरिति । अत्रोच्यते
'तत्त्वमसि' वाक्य अद्वितीय बोधाकार वृत्तिद्वारा ब्रह्मरूपताको प्राप्त कराकर अविद्याकी निवृत्ति करते हैं; इस बातको सुनकर कोई वादी शङ्का करते हैं कि मिथ्याज्ञानरूप भ्रान्तिज्ञानसे अतिरिक्त तथा ज्ञानाभावसे अतिरिक्त भावरूप अज्ञान नामक पदार्थ ही नहीं है। फिर वाक्यके द्वारा किसकी निवृत्ति की जाय ? अज्ञान कहनेसे ज्ञानका अभाव बोधित होता है, इसलिए अज्ञान अभावरूप है। अभाव तो कोई चीज़ नहीं है। फिर वह संसारका कारण किस प्रकार हो सकता है ? क्योंकि अभावसे कभी भावकी उत्पत्ति नहीं होती। श्रति भी कहती है कि-हे प्रियदर्शन ! भला यह बात किस प्रमाणसे सिद्ध हो सकती है असत्से सत् कैसे हो सकता है ? इस शङ्काके समाधानके लिए कहते हैं
अभावके ज्ञानमें, उसके प्रतियोगीका ज्ञान ( जिसका अभाव हो उसको प्रतियोगी कहते हैं उसका ज्ञान ) और धर्मीका ज्ञान ( जहाँपर अभावका ज्ञान हो उसको धर्मों कहते हैं उसका ज्ञान) आवश्यक है। धर्मी और प्रतियोगीके ज्ञानके बिना अभावका ज्ञान कभी नहीं होता। जब ऐसा नियम है तब विचार करना चाहिये कि अज्ञान यदि ज्ञानाभावरूप हो तो सोकर उठनेके बाद प्राणिमात्रको इस प्रकार स्मरण होता है कि"मैं अबतक कुछ भी नहीं जानता था ।” यदि यह ज्ञानाभावका ही स्मरण है, तो स्मरण अनुभवके बिना नहीं होता, इसलिए सुषुप्ति दशामें ज्ञानाऽभावका अनुभव हुआ है,ऐसा कहना पड़ेगा, किन्तु यह बात उपपन्न नहीं होती । कारण, अभावके ज्ञान में धर्मी और प्रतियोगीके ज्ञानकी आवश्यकता है। यदि उस समय धर्मी और प्रतियोगीका ज्ञान हो तब सुषुप्ति ही नहीं होगी और ज्ञानाभाव भी नहीं होगा । क्योंकि धर्मी और प्रतियोगीका
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भाषानुवादसहिता ज्ञान है, इसलिए सुषुप्तिमें ज्ञानाभावका अनुभव नहीं हो सकता । सुतराम् उठनेके बाद स्मरण भी नहीं हो सकता। इसलिए उत्थानानन्तर "मैं अब तक कुछ भी नहीं जानता था ऐसा जो ज्ञान होता है वह सुषुप्ति कालमें ज्ञ नाभावका अनुमानरूप है, यह भी नहीं कह सकते, क्योंकि अनुमानमें कोई हेतु नहीं है। यदि कहो कि स्मरण न होना यही हेतु हो सकता है यदि सुषुप्तिकाल में कोई भी ज्ञान होता तो हमको अवश्य उसका स्मरण होता। स्मरण नहीं होता है, इसलिए सुषुप्ति कालमें कोई ज्ञान नहीं है, ऐसा अनुमान कर सकते हैं। यह भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा कोई नियम नहीं है कि ज्ञान होनेसे ही उसका स्मरण कालान्तरमें जरूर हो। ऐसा बहुत देखा जाता है कि बाल्यावस्था में बहुत-सी बातोंका ज्ञान हुआ है, परन्तु वृद्धावस्थामें उन सबका स्मरण नहीं होता । अतएव उत्थानानन्तर स्मरण नहीं होता। इसलिए उस समय ज्ञान नहीं था, ऐसा अनुमान नहीं कर सकते। अत: जिस कारण स्मरण होता है उसी कारणसे सुषुप्ति दशामें भावरूप अज्ञानका साक्षीरूप अनुभव है, ऐसा कहना चाहिए। इसीसे भावरूप अज्ञान सिद्ध हुआ । क्योंकि जिस कारण धर्मी और प्रतियोगीके ज्ञान होनेके पूर्व सभी पदार्थ अज्ञात रहता है । यदि सभी पदार्थ अज्ञानके विषय है, ऐसा कहिये ? तो पहले जो कहा था कि आत्मा ही अज्ञानका विषय हैं, यह बात गयी ? इस शङ्काको दूर करनेके लिए कहते हैं
अज्ञात. एव सर्वोऽर्थः प्राग्यतो बुद्धिजन्मनः।
एकेनैव सता संश्च' सन्नज्ञातो भवेत्ततः ॥ ७ ॥
नामरूपात्मक सारा प्रपञ्च प्रलयकालके सदृश, सुषुप्तिमें अज्ञातसद्प-वस्तुमात्ररूपसे प्रलीन होता है । फिर प्रबोध समयमें उद्भूत होता है। यह वेदान्तका सिद्धान्त है । क्योंकि-श्रुतियों में सुषुप्तिमें प्रलय और जाग्रत्में सृष्टिका कथन किया है। द्वैतमात्र शुक्तिमें रजतके सदृश कल्पित है, इसलिए अपने अधिष्ठान-सद्रूप ब्रह्मसे पृथकरूपमें उसकी स्थिति भी नहीं हो सकती है। अतएंव सुषुप्तिकालमें एक ही सद्रूप ब्रह्मसे समस्त वस्तुओंकी सत्ता है। वही सद्प (ब्रह्म) अनादि अज्ञानका विषय है, उससे भिन्न वस्तुमात्र अज्ञानसे कल्पित होनेके कारण अज्ञानका विषय नहीं हो सकता | इसलिए सत्पदार्थ ही सुषुप्ति में अज्ञात है, अतएव आत्मा ही अज्ञान का विषय है, यह सिद्धान्त. त्यक्त नहीं हुआ।
[अथवा प्रकारान्तरसे इस श्लोककी व्याख्या हो सकती है-1 -
जाग्रत् अवस्थामें भी सभी पदार्थ ज्ञान होने के पहले अज्ञात रहते हैं, इस बातक. सभी स्वीकार करते हैं। क्योंकि यदि पहले वस्तुका शान रहे तो पीछेसे तद्विषयक ज्ञान नहीं हो सकता है । जिस समय ज्ञान नहीं है, उस समय वस्तुका व्यवहार नहीं हो सकता।
१ सत्ता सत्त्वम् ।
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नैष्कर्म्यसिद्धिः सामान्याकारसे ज्ञान होनेपर भी अज्ञाताकारकी ज्ञातता नहीं हो सकती और अज्ञात श्राकारका अनुवाद भी नहीं हो सकता । इसलिए ज्ञानाऽभावसे विलक्षण भावरूप अज्ञानसे वह श्रावृत है, ऐसा कहना चाहिए। यदि सभी पदार्थ अज्ञात हों, तब प्रमाणके बिना अज्ञानकी निवृत्ति नहीं हो सकती। इसलिए आत्माके सदृश उनको भी प्रमेयत्व प्राप्त हुआ । इस आशङ्काकी निवृत्ति के लिए कहते हैं कि समस्त विशेषों में अनुगतरूपसे रहनेवाला सत्पदार्थ ही अज्ञात होनेके कारण प्रमेय है। न कि अन्य पदार्थ । इसलिए यह सिद्ध हुआ कि सत्य पदार्थ ही अज्ञात है ॥ ७ ॥
___ 'सन्नज्ञातो भवेत्ततः' इत्युक्तमधस्तनेन श्लोकेन । कौऽसौ सन्नज्ञातः ? इत्यपेक्षायां तत्स्वरूपप्रतिपादनायाऽऽह--
सद्प वस्तु ही अज्ञानका विषय है, यह पहले श्लोकसे कहा । वह सत्पदार्थ क्या है,जो कि अज्ञानका विषय होता है ? ऐसी ग्राशङ्का होनेपर उसका स्वरूप बतलाने के लिए कहते हैं
प्रमित्सायां य आभाति स्वयं मातृप्रमाणयोः । स्वमहिम्ना च यः सिद्धः सोऽज्ञातार्थोऽवसीयताम् ॥ ८ ॥ जिस समय किसी पदार्थको जाननेकी इच्छा होती है उस समय जो प्रमाता और प्रमाणोंके स्फुरणरूपसे स्फुरण समयमें प्रकाशमान होता है जब जाननेकी इच्छा नहीं होती उस समय उसके अभाव को प्रकाशित करता हुआ सुषुप्ति कालमें स्वरूपसे ही प्रकाशित होता है । वही सद्रप (आत्मा) अज्ञानका विषय है, ऐसा जानिए ॥८॥
___अत्र केचिदाहुः 'यत्किञ्चिदिह' वाक्यं लौकिक वैदिकं वा तत्सर्व संसर्गात्मकमेव वाक्यार्थ गमयति । अतस्तत्त्वमस्यादिवाक्येभ्यः संसर्गात्मकमहं ब्रह्मेति विज्ञाय तावन्निदिध्यासीत यावदवाक्यार्थात्मकः प्रत्यगात्मकः प्रत्यगात्मविषयोऽहं ब्रह्मेति समभिजायते तस्मादेवं विज्ञानात्कैवल्पमाप्नोति' इति । तन्निराकरणायेदमुच्यते-- .
___ इसपर कोई लोग ऐसा कहते हैं कि जगत् में लौकिक अथवा वैदिक जितने प्रकारके वाक्य होते हैं, वे सभी संसर्गरूप वाक्यार्थको ही बोधित करते हैं। इसलिए 'तत्त्वमसि' इत्यादि वाक्योंसे संसर्ग रूपसे (अर्थात् दोनों पदार्थोके परस्पर भेदसे ) प्रथम ब्रह्मको जानकर पश्चात् तब तक निदिध्यासन करे जब तक वाक्यार्थरूप न होनेवाला अखण्ड प्रत्यगात्मरूप प्रत्यगात्माको ही विषय करनेवाला-'मैं ब्रह्मरूप हूँ' ऐसा ज्ञान
१ यावत्किञ्चित् । २ समभिज्ञायते।
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भाषानुवादसहिता उत्पन्न हो । इस ज्ञानसे ही कैवल्य होता है ।" इस मतका निराकरण करनेके लिए यह कहते हैं
सामानाधिकरण्यादेर्घटेतरखयोरिव ।
व्यावृत्तेः स्यादवाक्यार्थः साक्षान्नस्तत्त्वमर्थयोः ॥ ९ ॥
यद्यपि यह नील कमल है, इत्यादि प्रयोगोंमें सामानाधिकरण्य और विशेषणविशेष्य भावसे संसर्गात्मक (नील और कमलका) नीलरूपवाला कमल है, ऐसा ज्ञान होता है । तथापि घटाकाश महाकाश है इत्यादि लौकिक वाक्योंमें घटविशिष्ट आकाश
और महाकाश इन दोनोंका परस्पर जो विरोध है उसको दूर करने के लिए लक्षणा द्वारा घटाकाशका परिच्छिन्नत्व और महाकाशका महत्त्वरूप धर्म हटाकर केवल आकाशस्वरूप मात्रका ही बोध जैसे उत्पन्न होता हुआ दीख पढ़ता है वैसे ही 'तत्वमसि' इत्यादि वाक्योंमें भी पदोंका परस्पर सामानाधिकरण्य' और विशेषण-विशेष्यभाव होनेके कारण सम्बन्ध प्राप्त होनेपर भी विरोध परिहारके लिए त्वंपदार्थके दुःखित्वादि धर्म और तत्पदार्थ के परोक्षत्वादि धमोंकी लक्षणा द्वारा व्यावृत्ति (निराकरण) कर देनेसे अखण्ड एकरस ब्रह्म वस्तुका बोध होता है, इसलिए पूर्वोक्त निदिध्यासनको अपेक्षा नहीं है ॥६॥
विशेष्ययोः सामर्थ्योक्तिः
एक पदसे कहीं भी वाक्य नहीं बनता, इसलिए वाक्यकी आवश्यकता हो तो अनेक पदोंका ग्रहण करना चाहिये इसपर भी सभी पद एकही अर्थ के बोधक हों तो पौनरुत्त्य दोष होगा। अतएव अपुनरुक्तार्थक पदोंका अखण्ड अर्थमें पर्यवसान नहीं बनता ; इसलिए संसर्गको ही वाक्यार्थ मानना पड़ेगा। फिर-अखण्डार्थका बोध कैसे हो सकता है ? ऐसा आक्षेप यदि कोई करे, तो उसको दूर करने के लिए
निर्दुःखित्वं त्वमर्थस्य तदर्थेन विशेषणम् ।
प्रत्यक्ता च तदर्थस्य त्वंपदेनाऽस्य सन्निधेः ॥१०॥
तत्पदार्थ के साथ अभेद होनेसे त्वंपदार्थ के दुःखित्वादि धर्म दूर हो जाते हैं । ऐसे ही त्वंपदार्थ के सन्निधानसे तत्पदार्थके भी परोक्षत्वादि धर्म निवृत्त हो जाते हैं ॥१०॥
उक्तं सामानाधिकरण्यं विशेषणविशेष्यभावश्च संक्षेपतः । अथ लक्ष्यलक्षणव्याख्यानायाऽऽह
१ एक विभक्तिसे युक्त होकर एक अर्थका प्रतिपादन करना ।
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नैष्कर्म्यसिद्धिः कूटस्थबोधप्रत्यक्त्वमनिमित्त सदात्मनः । बोद्धृताहन्तयोर्हेतुस्ताभ्यां तेनोपलक्ष्यते ॥ ११ ॥
सामानाधिकरण्य और विशेषण विशेष्य भावका संक्षेपसे व्याख्यान कर दिया। अब लक्ष्य लक्षण भाव रूप तृतीय सम्बन्धका व्याख्यान करनेके लिए कहते हैं
श्रास्माकी लक्ष्यभूत कूटस्थज्ञानरूपता तथा प्रत्यग्रूपता सर्वकालमें स्वाभाविक है । स्वभावसे बोधरहित जहरूप बुद्धि में बोद्धत्व और अहन्ताका वही हेतु है । इसलिए बुद्धिनिष्ठ बोद्धृत्व और अहन्तासे अात्मा लक्षित होता है । इस प्रकारसे त्वंपदका वाच्यार्थ जो बुद्धि-विशिष्ट चैतन्य है वह लक्षण और शुद्ध आत्मा लक्ष्य सिद्ध हुश्रा ॥ ११ ॥
बुद्धेः कूटस्थबोधप्रत्यक्त्वनिमिचे बोद्धृता प्रत्यक्त्वे ये असाधारणे तयोविशेषवचनम्
वोद्धृता कर्तृता बुद्धेः कर्मता स्यादहन्तया ।
तयोरैक्यं तथा बुद्धौ पूर्वयोरेवमात्मनि ॥ १२ ॥
बुद्धिनिष्ट बोद्धत्व और प्रत्यक्त्व यदि शुद्ध चैतन्यनिष्ठ बोद्धृत्व और प्रत्यक्त्वका निमित्त हो, तब दोनोंका कुछ विशेष कहना चाहिए । नहीं तो दोनोंका हेतुहेतुमद्भाव नहीं हो सकेगा। इसलिए बुद्धि और चैतन्य, दोनोंमें जो बोद्धृत्व प्रत्यक्व है उनका वैलक्षण्य कहते हैं
बुद्धि में जो बोद्धृत्व है, वह विविध विषयाकारोंसे युक्त ज्ञानरूप परिणामका कर्तृत्वरूप ही है। प्रात्माके सदृश कूटस्थ ज्ञानरूप नहीं है। वैसे ही बुद्धिका प्रत्यक्स्व भी यही है जो अहंरूप अर्थात् शबलरूपसे चैतत्यका कर्म अर्थात् भास्य होना । न कि अात्माके समान प्रत्यक्त्व है कतिपय देह, इन्द्रिय, विषय इत्यादिकोंकी अपेक्षासे बुद्धिको प्रत्यक्ध है, किन्तु बुद्धिमें होनेवाले बोद्धृत्व और प्रत्यक्त्वका जैसा परस्पर अभेद है, वैसा ही आत्मनिष्ठ बोद्धत्त्व और प्रत्यक्त्वका भेद नहीं है किन्तु भिन्नके समान प्रतीत होनेपर भी वस्तुतः एक ही है ॥ १२ ॥
. . यथा बुद्धौ पूर्वयोरेवमात्मनीत्यतिदेशेन बुद्धिसाधर्म्यविधानानानात्वप्रसक्तौ तदपवादार्थमाह. . धर्मर्मित्वभेदोऽस्याः सोऽपि नैवाऽऽत्मनो यतः।
. प्रत्यग्ज्योतिरतोऽभिन्नं भेदहेतोरसम्भवात् ॥ १३ ॥
जैसे बुद्धिके बोद्धस्व और प्रत्यक्त्वका परस्पर भेद नहीं है। ऐसे ही आत्मनिष्ठ कूटस्थ मोध और प्रत्यक्त्वका भेद नहीं, ऐसा बुद्धि के साथ आत्माका सादृश्य दिखलाया।
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भाषानुवादसहिता
९५ उसको सुनकर यदि किसीको ऐसी शङ्का हो कि अामा धर्मी है ये दोनों धर्म हैं। अतएव भेद तो रहा ही । तो इस शङ्काको निवृत्त करनेके लिए कहते हैं
बुद्धि में धर्मधर्मिभावरूपसे भेद हो सकेगा। परन्तु आत्मामें उस प्रकारका भी भेद नहीं है। क्योंकि भेद होने में कोई प्रमाण नहीं, इसलिए कूटस्थ ज्ञान और प्रत्यक्ष रूप आत्मा है; ये दोनों धर्म हैं। श्रात्मा उनका आश्रय है। इस प्रकार भेद नहीं है ॥ १३ ॥
भेदहेत्वसम्भवं दर्शयन्नाहन कस्याश्चिदवस्थायां बोधप्रत्यक्त्वयोर्मिंदा
व्यभिचारोऽथवा दृष्टो यथाऽहं तद्विदो सदा ॥ १४ ॥
भेदके कारणकी कोई सम्भावना नहीं हो सकती । इस बातको दिखलाते हुए कहते हैं कि किसी भी अवस्थामें बोध और प्रत्यक्पता, इन दोनोंका भेद नहीं दीखता । अथवा परस्पर व्यभिचार भी नहीं दृष्ट होता । जैसे-अहंकार और समीक्षाका. परस्पर एक जड़ दूसरा चेतन होनेके कारण भाष्य भासक भावरूपसे भेद है। किंवासुषुप्तिमें साक्षी विद्यमान होनेपर भी अहङ्कार नहीं है, ऐसे बोध और प्रत्यक्त्वका किसी प्रकार भेद नहीं है ॥ १४ ॥
___ यस्मादज्ञानोपादानाया एव बुद्धे दो न आत्मनस्तस्मादेतसिद्धम्
कूटस्थबोधतोऽद्वैतं साक्षात्वं प्रत्यगात्मनः । • कूटस्थबोधाद् बोद्धी धीः स्वतो हीयं विनश्वरी ॥ १५ ॥
जिस कारण अज्ञानसे उत्पन्न बुद्धिका ही भेद है, आत्माका नहीं । इस कारण यह सिद्ध हुआ कि
आत्माका कूटस्थ ज्ञान ही स्वरूप है। अतएव समस्त बुद्धियोंमें परस्पर भेद होनेपर भी इसकी एकता ही है। तथा सर्वत्र प्रत्यक्षरूपता ही है। परोक्षरूपता नहीं है। किन्तु बुद्धिमें जो द्रष्टत्व प्रतीत होता है वह अात्माके ही सम्बन्धसे है। क्योंकि स्वयं बुद्धि अनित्य है ॥ १५ ॥
अथाऽधुना प्रकृतस्यैव परिणामिनः कूटस्थस्य च लक्षणमुच्यते
विशेष कश्चिदाश्रित्य यत्स्वरूपं प्रतीयते । प्रत्यभिज्ञाप्रमाणेन परिणामी स देहवत् ॥ १६ ॥
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९६
नैष्कर्म्यसिद्धिः सामान्याच विशेषाच स्वमहिम्नैव यो भवेत् ।
व्युत्थायाऽप्यविकारी स्यात्कुम्भाकाशादिवत्तु नः ॥१७॥
यहाँ तक के ग्रन्थसे परिणामी अहंकारसे कूटस्थ आत्मा कैसे लक्षित होता है, इस बात को दिखलाया, अब इन दोनों का लक्षण कहते हैं
मैं घटको जानता हूँ, पटको जानता हूँ, सुखी हूँ, दुःखी हूँ, इस प्रकार विशेषका आश्रय करके जिसका स्वरूप प्रतीत होता है अर्थात् बाल्य यौवनादि अवस्थाका भेद जैसा है, वैसा अहङ्कारका भी अवस्थाभेद है। तो भी जो मैं पहले सुखी था, वही मैं इस समय दुःखी हूँ, इस प्रकार प्रत्यभिज्ञाके बलसे एकसा प्रतीत होता है, देहकी भाँति वह परिणामी है ॥ १६॥
जो सामान्य और विशेषको आश्रय न कर उनसे पृथकरूप होकर स्वप्रकाश रूपसे ही प्रतीत होता है, वह कूटस्थ कहलाता है। जैसे घटाकाश, मटाकाश इत्यादि प्रकारसे उपाधियुक्त रूपसे भासमान होनेपर भी श्राकाश घयादि उपाधिगत विकारोंसे विकृत नहीं होता, किन्तु इनसे पृथकरूपसे रहकर कूटस्थ ही रहता है। वैसे ही आत्मा विकारको प्राप्त न होकर कूटस्थ ही रहता है ॥ १७॥
आत्मनो बुद्धेश्च बोधप्रत्यगात्मत्वमभिहितं तयोरसाधारणलक्षणाभिधानार्थमाह
बुद्धेर्यत्प्रत्यगात्मत्वं तत्स्यादेहाधुपाश्रयात् ।
आत्मनस्तु स्वरूपं तन्नभसः सुपिता यथा ॥ १८ ॥ बोद्धृत्वं तद्वदेवाऽस्याः प्रत्ययोत्पत्तिहेतुतः।
आत्मनस्तु स्वरूपं तत्तिष्ठन्तीव महीभृतः ।। १९ ।।
इस प्रकार लक्ष्य लक्षणरूप आत्मा और बुद्धि, इन दोनोंकी बोधरूपता तथा प्रत्यगात्मरूपताका वर्णन किया। अब इन दोनों रूपोंका असाधारण लक्षण कहते हैं
बुद्धिमें जो प्रत्यकरूपत्व प्रतीत होता है वह देहादिकी अपेक्षासे प्रतीत होता है । आत्माकी जो प्रत्यक्रूपता है वह किसी अन्य की अपेक्षासे नहीं है किन्तु वह आत्माका स्वाभाविक स्वरूप है जैसे आकाराका पोलापन स्वाभाविक है ॥ १८॥
___ ऐसे ही बुद्धि में जो बोद्धृत्व है, वह भी तत्तद्विषयाकारसे परिणत बुद्धिवृत्तिरूप बोधकर्तृत्वरूप है । क्योंकि जब बुद्धिका विषयाकारसे परिणाम होकर वृचिमें चैतन्यका प्रतिबिम्ब पड़ता है, उसी समय बुद्धि में बोद्धृत्व व्यवहार होता है नहीं तो नहीं। किन्तु आत्माका बोद्धृत्व वैसा नहीं है, किन्तु स्वाभाविक है। जैसे चञ्चल पदार्थों में गति निवृत्ति जब होती है तब ये खड़े हैं, इस प्रकार 'स्था' धातु का प्रयोग होता है।
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भाषानुवादसहिता परन्तु जो स्वभावसे ही गति-क्रिया-शून्य पर्वतादि हैं, उनमें स्वभावसिद्ध अचलत्वकी दृष्टिसे ही 'स्था' धातुका प्रयोग होता है ॥ १६ ॥
__ तयोः कूटस्थपरिणामिनोरात्माऽनवबोध एव सम्बन्धहेतुर्नपुनर्वास्तवः कश्चिदपि सम्बन्ध उपपद्यत इत्याह
सम्यक्संशयमिथ्यात्वै/रेवेयं विभज्यते ।
हालोपादानताऽमीषां मोहादध्यस्यते दृशौ ॥ २० ॥ ऐसे कूटस्थ और परिणामी आत्मा और अहङ्कारका परस्पर सम्बन्ध करानेवाला अज्ञान ही है और कोई दूसरा वास्तविक अर्थात् सत्य पदार्थ नहीं है। इस बातको कहते हैं
तत्त्वज्ञान, संशय और भ्रान्ति इत्यादि धर्मोंसे बुद्धि ही युक्त है। अतएव इन धर्मोंको सत्ता या असत्ता अज्ञानवश साक्षीमें आरोपित होती है। इसलिए साक्षी में कोई विशेष धर्म नहीं है ॥ २० ॥
कुतः कूटस्थात्मसिद्धिरिति चेत्, यतः
न हानं हानमात्रेण नोदयोऽपीयता यतः ।
तसिद्धिः स्यात्तु तद्धीने हानादानविधर्मिणि' ॥२१॥ बुद्धि सम्बन्ध के बिना अात्मामें बोद्धृत्व नहीं दीख पड़ना, इसलिए आत्माकी कूटस्थता कैसे सिद्ध होगी ? इस शङ्काको दूर करते हैं
बुद्धि और उसकी वृचि, .इनका हान अर्थात् अभाव वह केवल अपनेसे ही सिद्ध नहीं हो सकता, तथा इनका उदय यानी सद्भाव भी उसीसे सिद्ध नहीं हो सकता, क्योंकि वे जड़ हैं। अतएव हानोपादान रहित साक्षीमें अध्यस्त होनेसे ही हो सकता है । इसलिए कूटस्थ साक्षी मानना चाहिए, जिससे इनकी सिद्धि होवे ।। २१ ॥
एवम्
आगमापायिहेतुभ्यां धूत्वा सर्वाननात्मनः ।
ततस्तत्त्वमसीत्येतद्धन्त्यस्मदि' निजं तमः ॥ २२ ॥ इस प्रकार-'तत्त्वमसि' यह वाक्य अन्वय और व्यतिरेकसे आत्मा और
१ हानादानविधर्मके, हानादानविधर्मिणम्, हानोपादानधर्मके, ऐसा ऐसा पाठ भेद भी उपलब्ध होता है।
२ भागमापायहेतुभ्याम्, ऐसा भी पाठ है। ३ यस्मादिद्ध निजं तमः, पाठ भी है।
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नैष्कर्म्यसिद्धिः अनात्मा, दोनोंके विवेकज्ञानको उत्पन्नकर पश्चात् सकल संसारको प्रलय करनेवाले श्रास्माश्रित अज्ञानको नष्ट कर देता है ॥ २२ ॥
इत्यादि पुनः पुनरुच्यते ग्रन्थलाधवाद् बुद्धिलाघवं प्रयोजकमिति । तत्र यद्यपि तत्त्वमस्यादिवाक्यादुपादित्सिताऽद्वितीयात्मार्थवत्पारोक्ष्यसद्वितीयोऽर्थः प्रतीयते । तथापि तु नैवासावर्थः श्रुत्या तात्पर्येण प्रतिपिपादयिषितः प्रागप्येतस्य प्रतीतत्वादितीममर्थमाह
__ 'यदा ना तत्त्वमस्यादेर्शात्मना त्याजयेद्वचः' इत्यादि ग्रन्थके द्वारा पहले अनेक बार इसका प्रतिपादन किया, इसलिए पुनरुक्ति क्यों करते हो ? ऐसी शङ्का यदि कोई करे तो उसका समाधान यह है कि आत्मवस्तु अत्यन्त सूक्ष्म होनेसे बुदाधिमें स्थिर नहीं होती। इसका विस्तृतरूपसे प्रथम ही यदि प्रतिपादन करने लग जायँ तो उसका धारण नहीं होगा। अल्पग्रन्थसे अनेक बार कहनेसे समझने में सौकर्य होता है। इसलिए ग्रन्थलाघवकी अपेक्षासे बुद्धि में लावव अर्थात् सौकर्य होगा। इस अभिप्रायसे कथितका ही पुन: कथन किया जाता है । यद्यपि तत्त्वमत्यादि वाक्यसे ग्रहण करने के लिए अभीष्ट अद्वितीय आत्मरूप अर्थके सदृश परोक्षता और सद्वितीयताका प्रतिपादन अति तात्पर्य से नहीं करना चाहती। क्योंकि वाक्य श्रवणके पहले ही सबको यह बात मालूम है । अतएव ज्ञात वस्तुको वाक्य पुनः क्यों प्रतिपादन करेगा? उसका प्रतिपादन करनेसे कोई फल भी नहीं है। इस बातको स्पष्ट करनेके लिए कहते हैं
तदित्येतत्पदं लोके बह्वर्थप्रतिपादकम् ।
अपरित्यज्य पारोक्ष्यमभिधानोत्थमेव तत् ।। २३ ॥ 'लोकमें' तत् पद देशकालव्यवधाननिमित्तक परोक्षत्वका परित्याग न करके अनेक अर्थोका बोधन करता है, ऐसा प्रतीत होता हैं । तथापि शब्दसे वह परोक्षत्व अनिघाशक्तिके द्वारा आपातरूपसे प्रतीतमात्र होता है। वस्तु से उसका स्पर्श नहीं है। तथा उसका प्रतिपादन करना अतिको इष्ट भी नहीं है ॥ २३ ॥
त्वमित्यपि पदं तद्वत् साक्षान्मात्रार्थवाचि तु । संसारितामसन्त्यज्य साऽपि स्यादभिधानजा ॥ २४ ॥
तथा त्वंपद भी पहलेसे ही ज्ञात, जो संसारित्व है, उसका परित्याग न करके ही नित्य अपरोक्ष वस्तु का बोधक है। इसलिए वह संसारिता भी आपातदृष्टिसे शब्दके द्वारा भासमान होती है। वस्तुसे उसका सम्बन्ध नहीं है ॥ २४ ॥
विरुद्धोद्देशनत्वाच्च पारोक्ष्यदुःखित्वयोरविवक्षितत्वमित्याहउद्दिश्यमानं वाक्यस्थं नोद्देशनगुणान्वितम् । आकाङक्षितपदार्थेन संसर्ग प्रतिपद्यते ॥ २५ ॥
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भाषानुवादसहिता
९९
तत् स्वं पदार्थका निर्देश भी विरुद्ध है, इसलिए परोक्षत्व, दुःखित्व यहाँ विवक्षित नहीं है, यह कहते हैं-
'तत्वमसि' - वाक्य में उद्दिश्यमानत्वं पदार्थात्मक वस्तु उद्देश्य दशामें प्रतीत होनेवाले संसारित्व गुण से युक्त होकर विधेय जो सकल संसार रहित वस्तु है उसके साथ सम्बन्धको प्राप्त नहीं हो सकती। ऐसे ही तत्पदार्थ भी उद्देश हो तो उस समय भी वह परोक्षत्वादिविरुद्ध गुणीसे युक्त होकर नित्य अपरोक्ष प्रत्यगात्मा के साथ अन्वित नहीं हो सकता इसलिए दोनो जगह विरुद्ध धर्मोकी अविवक्षा है || २५ ||
यत एतदेवमतोऽनुपादित्सितयोरपि तत्त्वमर्थयोर्विशेषणविशेष्यभावो भेद ' रहित संसर्गवाक्यार्थ लक्षणयैवेति उपसंहारःतदो विशेषणार्थत्वं विशेष्यत्वं त्वमस्तथा । लक्ष्यलक्षणसम्बन्धस्तयोः स्यात्प्रत्यगात्मना ॥ २६ ॥
क्योंकि विरुद्ध धर्मोकी विवक्षा यहाँ नहीं है, इसीलिए अनुप | दित्सित अर्थात् विवक्षित भी त्वंपदार्थ और तत्पदार्थका विशेषण विशेष माच भेद न रहने के कारण संसर्ग किंवा विशिष्टरूप वाक्यार्थसे भिन्न खण्डरूप वाक्यार्थ में ही लक्षणाद्वारा पर्यवसित होता है । ऐसा उपसंहार करते हैं
तत्पदार्थ विशेषण है और त्वंपदार्थ विशेष्य है । क्योंकि वह सामान्यरूपसे प्रसिद्ध है, और उसीमें ब्रह्मत्वज्ञान से अनर्थनिवृत्तिपूर्वक पुरुषार्थ सिद्ध होनेवाला है । इन दोनों में विरोधस्फूर्ति हो तो दोनों पदार्थोंसे लक्ष्यलक्षणभाव सम्बन्ध से शुद्ध अखण्ड आमाका ज्ञान होता है ॥ २६ ॥
कथं पुनरविवक्षितविरुद्ध निरस्यमानस्य लक्षणार्थत्वम् ? लक्षणं सर्पवद्रज्ज्वाः प्रतीचः स्यादहं तथा ।
धेनैव वाक्यार्थं वेत्ति सोऽपि तदाश्रयात् ॥ २७ ॥
शङ्का-अहङ्कारद्वारा शुद्ध आत्मा कैसे लक्षित हो सकता है ? क्योंकि जहाँपर लक्षणा होती है, जैसे- 'गङ्गायां घोष:' इत्यादि स्थलों में । वहाँ गङ्गाशब्दसे तीर लक्षित होता है । परन्तु गङ्गा शब्दका वाच्यार्थ जो जलप्रवाह है वह अविवक्षित नहीं होता । कारणगङ्गातीरका बोधन करनेके निमित्त उसकी आवश्यकता होती है। ऐसे ही यहाँपर वाच्यार्थ का लक्ष्यार्थसे विरोध भी नहीं है, एवं वाच्यार्थ जो जलप्रवाह है उसका लक्ष्यार्थ तीरके साथ सम्बन्ध भी है । प्रकृत स्थल में तो सर्वथा उलटा है । जैसे श्रहङ्कार पुरुषार्थ होनेसे विवक्षित है और मिथ्या होनेसे शुद्ध श्रात्मासे अत्यन्त विरोध भी है । ऐसे शुद्ध लक्ष्य पदार्थ के ज्ञानसे बाधित भी होता है तब यह लक्षक कैसे हो सकता है ?
1
१ भेदसंसर्गरहितावाक्यार्थ, भी पाठ है ।
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१००
नैष्कर्म्यसिद्धिः समाधान-जो यह सर्प है, वह रज्जु है। ऐसे प्रयोगमें सर्पस्वरूप असत्य होनेसे विवक्षित नहीं है। अतएव रज्जुसे उस सर्पका वास्तव सम्बन्ध भी नहीं है। और रज्जुके ज्ञानसे वह सर्प बाधित भी होता है। ऐसा होनेपर भी वह मिथ्यासर्प स्वाधिष्ठानभूत रज्जुका लक्षक जैसे होता है ? क्योंकि प्रतिभासमान सर्पाकारका अनुवाद किये बिना अप्रकाशमान रज्जुके आकारका ज्ञान शब्दसे नहीं हो सकता। वैसे ही अहङ्कार अविवक्षित, सम्बन्धरहित और बाधित है । तथापि शुद्ध आत्मामें अध्यक्त होकर उसका लक्षक हो सकेगा। भ्रान्तिसे अहं इस रूपसे गृहीत आत्माका उसके अनुवादके बिना तात्त्विकरूपसे वाक्य द्वारा उसका प्रतिपादन नहीं हो सकता। अतएव जैसे रज्जुके ज्ञानसे सर्पको बाधित कर ही 'जो सप है वह रज्जु है, इस वाक्यसे अर्थ बोध होता है। वैसे ही 'मैं ब्रह्म हूँ' इस वाक्यसे अर्थज्ञान अहङ्कारका बाध होनेपर ही होगा। इसलिए 'ब्रह्म पद और 'अहम्' पद, इन दोनोंमें भिन्नार्थत्वको शङ्का नहीं करनी चाहिए ॥ २७ ॥
इयश्चाऽवाक्यार्थप्रतिपत्तिरन्वयव्यतिरेकाभिज्ञस्यैव । यस्मातयावद्यावनिरस्याऽयं . देहादीन्प्रत्यगञ्चति ।
तावत्तावत्तदर्थोऽपि त्वमर्थं प्रविविक्षति ॥ २८ ॥
यह पूर्वोक्त अखण्डार्थका ज्ञान अन्वय और व्यतिरेकको जाननेवालेको ही हो सकता है। क्योंकि
ज्यों ज्यों यह मुमुक्षु देहसे लेकर मायापर्यन्त अनात्म पदार्थोको, जो कि आत्मबुद्धिसे गृहीत हैं, निरास करता है, त्यो त्यों तत्पदार्थ भी त्वंपदार्थके साथ अभेद ज्ञान होनेसे एक रूप अखण्ड प्रकाशित होता है। क्योंकि विरोधी जो परिच्छेदाभिमान है वह निवृत्त हो जाता है ॥ २८॥
कस्मात्पुनः कारणादेहाधनात्मत्वप्रतिपत्तावेवात्मा तदर्थमात्मत्वेनाभिलिङ्गते, न वियर्यय इति ? उच्यते-प्रत्यगात्माऽनवबोधस्याऽनात्मस्वाभाव्यात्तदभिनिवृत्तश्चाऽयं बुद्धयादिदेहान्तस्तस्मिन्नात्मत्वमविद्याकृतमेवात्मत्वमिवाऽनात्मत्वपि साविद्यस्यैव । यतो निरविद्यो विद्वानवाक्यार्थरूप एव केवलोऽवशिष्यते । तस्मादुच्यते- .
देहादिव्यवधानत्वात्तदर्थ स्वयंमप्यतः । पारोक्ष्येणैव जानाति साक्षात्वं तदनात्मनः ॥ २९ ॥
शङ्का-देहादिमें अनात्मत्वका निश्चय होनेपर ही प्रत्यगात्मा तत्पदार्थमें अभिन्नरूपसे मिलता है । निश्चय न हुआ तो नहीं । इसका क्या कारण है ?
१ इयं च वाक्यार्थप्रतिपत्तिः, ऐसा भी पाठ भेद है।
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भाषानुवादसहिता समाधान-प्रत्यगात्माका अनवबोध (अज्ञान) जड़ स्वरूप, दृश्य एवं ज्ञानसे निवृत्त होने वाला है, इसलिए उसकी अनात्मरूपता स्वभाविक ही है। बुद्धिसे लेकर देहपर्यन्त पदार्थ उसी अज्ञानके कार्य हैं; अतएव उनका भी अनात्मत्व सिद्ध ही है। क्योंकि वे शुद्ध ब्रह्मके कार्य नहीं हैं । तथा प्रात्मा चिद्रूप, कूटस्थ, स्वयम्प्रकाशरूप होनेसे ब्रह्मरूप है। उसमें किसीकी अपेक्षा नहीं है । परन्तु जब देहादिसे आत्मबुद्धि निवृत्त हो, तभी वह स्वाभाविक भी ब्रह्मरूपता आविर्भूत होती है। ऐसा होनेपर भी यह शङ्का होती है कि अनात्म पदार्थों को स्वरूपसे स्थिति है इसलिए प्रात्यन्तिक अनर्थं निवृत्ति कैसे होगी? इस शङ्काको दूर करनेके लिए यह कहा जाता है कि-देहादिपदार्थोकी अत्मिरूपता जैसे अज्ञान निमित्तक है, वैसे उनका अनात्मपन भी अज्ञान निमित्तक ही है। इसलिए अविद्या नष्ट हो जाय तो फिर अनर्थकी सम्भावना नहीं है। क्योंकि-अविद्यासे रहित आत्मज्ञानवान् पुरुष अखण्ड ब्रह्मरूप होकर केवल एक ही अवशिष्ट रहता है । इसलिए यह कहा जाता है कि- .
देहादिरूप व्यवधान होनेके कारण स्वस्वरूप होनेपर भी तत्पदार्थ ब्रह्मको परोक्षरूपसेही जानता है, अर्थात् अपनेसे भिन्नरूपसे जानता है। जब देहादिको अनात्माका निश्चय अन्वय-व्यतिरेकसे हो जाता है तब तत्पदार्थ अपरोक्ष हो जाता है ॥ २६ ॥
यथोक्तार्थप्रतिपत्तिसौकर्याय दृष्टान्तोपादानम्प्रत्यगुद्भूतपित्तस्य यथा बाह्यार्थपीतता।
चैतन्यं प्रत्यगात्मीयं बहिर्वदृश्यते तथा ॥३०॥ पूर्वोक्तअर्थको सुगमताके साथ जाननेके लिए दृष्टान्तका उपादान करते हैं
जैसे पित्त अपने शरीरके भीतर ही एक देशमें अर्थात् चक्षुमें उत्पन्न होता है। परन्तु बाह्य शङ्खादि पदार्थों के साथ सम्बन्ध होनेसे शङ्खादिमें ही पीतिमाँ हैं, ऐसा मालूम पड़ता है। ऐसे ही प्रत्यगात्मा ब्रह्मरूप है, ब्रह्मसे भिन्न नहीं है। परन्तु अनात्मभूत अव्याकृतादि पदार्थों के साथ सम्बन्ध होनेसे वह ब्रह्म जीवको परोक्ष-जैसा प्रतीत होता है ॥ ३०॥
यस्मादेवमतो विशुद्धमवसीयताम्पदान्युद्धृत्य वाक्येभ्यो ह्यन्वयव्यतिरेकतः ।
पदाल्लोकतो बुद्ध्वा वेत्ति वाक्यार्थमञ्जसा ॥४१॥
तत्वमस्यादि वाक्यका अखण्डामें पर्यवसान होनेके कारण किसी प्रकारका विरोध नहीं है। अतएव निःशङ्क होकर पूर्वोक्त अर्थका निश्चय कर लेना चाहिए
१ विस्तब्धमवसीयताम् । ऐसा भी पाठ है। २ पदार्थ लोकतो, भी पाठ है ।
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नैष्कर्म्यसिद्धिः भिन्न भिन्न प्रयोगों में पदोंका अावाप और उद्वाप ( अर्थात् किसी नये पदकों उस वाक्यमें जोड़ना, और जो है उसको उसमें से निकालना) तथा अन्वय-व्यतिरेकसे वृद्ध व्यवहार द्वारा पदार्थों को समझकर वाक्य के तात्पर्यके अनुसार वाक्यार्थका ज्ञान होता है ॥ ३१ ॥
कुतः पुनः सामान्यमात्रवृत्तः पदस्य वाक्यार्थप्रतिपत्तिहेतुत्वमिति ? वाढम् ।
सामान्यं हि पदं ब्रूते विशेषो वाक्यकर्तृकः ।।
श्रुत्यादिप्रतिबद्धं सद्विशेषार्थं भवेत्पदम् ।। ३२ ॥ __ शङ्का- सामान्य अर्थात् जातिमात्रका बोधक जो शब्द है, उससे विशेषरूप वाक्यार्थकी प्रतीति कैसे हो सकती है ? क्योंकि शब्दोंकी शक्ति तो दूसरेमें ही और बोध दूसरेका हो, ऐसा कहीं देखनेमें नहीं आया ?
उत्तर-हाँ, शब्द अर्थात् पदमात्र यद्यपि सामान्यका ही वाचक है, तो भी विशेषकी प्रतीति वाक्यके तात्पर्यबलसे होती है। अतएव श्रत्यादिसे सङ्कचित होकर पद भी विशेषार्थक होता है ॥ ३२ ॥
अन्वयव्यतिरेकपुरस्सरं वाक्यमेव सामानाधिकरण्यादिनाऽविद्या पटलप्रध्वंसद्वारेण मुमुक्षु स्वाराज्येऽभिषेचयति न त्वन्वयव्यतिरेकमात्रसाध्योऽयमर्थ इत्याह
बुद्धयादीनामनात्मत्वं लिङ्गादपि च सिद्धयति । निवृत्तिस्तावता नेती त्यतो वाक्यं समाश्रयेत् ॥ ३३ ॥
अन्वय व्यतिरेक पूर्वक वाक्य ही सामानाधिकरण्यादि द्वारा अविद्याके आवरणको नष्टकर मुमुक्षुको स्वाराज्यपदमें अभिषिक्त करता है, केवल अन्वयव्यतिरेक मात्रसे यह साध्य नहीं है, यह बात कहते हैं
बुद्धयादिका अनात्मपन युक्तिसे भी सिद्ध होता है। परन्तु उनके कारणीभूत अज्ञानकी निवृत्ति पुरस्सर इनकी निवृत्ति युक्तिमात्रसे सिद्ध नहीं होती । क्योंकि युक्ति स्वयं प्रमाण नहीं है। अतएव युक्तिसे अज्ञानकी निवृत्ति नहीं हो सकती । इसलिए प्रमाणभूत वाक्यका ही पालम्बन करना चाहिए ॥ ३३॥
न केवलमनुमानमात्रशरणोऽभिलषितमर्थ न प्राप्नोतीत्यनर्थ च प्राप्नोतीत्याहं
१ अविद्यामल, भी पाठ है। २ नैतीत्यतः 'भो पाठ है।
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भाषानुवादसहिता
अनादृत्य श्रुतिं मोहादतो बौद्धास्तमस्विनः । निरात्मत्वमनुमानैकचक्षुषः ॥ ३४ ॥
श्रपेदिरे
जो अनुमानको ही शरण माननेवाला है, वह केवल अपनी इष्ट सिद्धि से ही वञ्चित रहता है, यही नहीं । किन्तु — अनर्थको भी प्राप्त होता है। इसी बात को कहते हैंअनुमानमात्रको हो प्रमाण मानने से तमोगुण प्रधान बौद्ध लोग मोहसे श्रुतिका अनादर करके निरात्मवादी बने और शून्य हो गये ॥ ३४ ॥
न चाडनादरे कारणमस्ति
यस्मात्सर्वत्रैवाऽनादरनिमित्त प्रमाणस्य प्रमाणान्तर प्रतिपन्नप्रतिपादनं वा विपरीत प्रतिपादनं वासंशयित - प्रतिपादनं वा न वा प्रतिपादनमिति न चैतेषामन्यतमदपि कारणमस्ति । यत आहमानान्तरानवष्टब्धं
१०३
निर्दुःख्यात्मानमञ्जसा ।
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बोधयन्ती श्रुतिः केन न प्रमाणमितीर्यते ॥ ३५ ॥ श्रुति के अनादर में कोई कारण भी नहीं है । क्योंकि सर्वत्र प्रमाण के अनादर में यही कारण होता है कि जो बात प्रमाणान्तरसे ज्ञात हो उसको प्रकाशित करना, अथवा प्रमाणान्तरसे जो बात विरुद्ध हो उसको कहना, या जिस बातका प्रतिपादन करना है, उसको सन्दिग्धरूपसे प्रतिपादन करना, किंवा प्रतिपादन न करना, इन चार कारणों से प्रकृत विषय में कोई भी नहीं है । इसलिए कहते हैं
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आत्मा प्रमाणान्तरसे ज्ञात नहीं है, अथवा प्रमाणान्तरसे विरुद्ध भो नहीं है । अथवा उसका श्रुतिसे सन्दिग्ध ज्ञान होता है, यह भी नहीं और श्रुति से उसका बोध ही नहीं होता, यह बात भी नहीं है तब उसको दु:खरहित, नित्य श्रानन्दरूपसे अनायास प्रतिपादन करनेवाली श्रुति प्रमाण नहीं है, ऐसी बात किसके मुख से निकलेगी ? || ३५ ॥
न च संशयितव्य 'मवगमयति । यतः -- सर्वसंशयहेतो हि निरस्ते कथमात्मनि ।
जायेत संशयो वाक्यादनुमानेन युष्मदि ॥ ३६ ॥
और वेदसे आत्माका बोध संशयात्मक भी नहीं होता । क्योंकि5- समस्त संशयांका कारण अहङ्कार प्रभृति अनात्मवर्ग अनुमानके द्वारा जब श्रात्मासे निरस्त हो गया है, तब वाक्य से संशय कैसे हो सकता है ? || ३६ ||
१ अन्यतरत्, भी पाठ है ।
२ संशयितं, ऐसा और 'अवगमं प्रति, ऐसा भी पाठ है 1
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नैष्कर्म्यसिद्धिः
अपि च
यत्र स्यात्संशयो नाऽसौ ज्ञेय आत्मेति पंडितैः । संशयप्राप्तिरात्मनोऽवगतित्वतः ॥ ३७ ॥
न यतः
और भी इस बात को कहते हैं
-
जहाँ पर संशय हो उसको पण्डितलोगोंने श्रात्मरूपसे नहीं समझना चाहिए । क्योंकि आत्मामें किसी प्रकार सामान्य- विशेष भाव नहीं है । स्वयंप्रकाश होने से सर्वदा वह अपरोक्ष ही है । अत एव उसमें संशय होनेकी गुञ्जाइश ही नहीं है, श्रात्मा ज्ञानस्वरूप होने से समस्त संशयको नष्ट करनेवाला है । श्रारोपित दृश्यविशिष्टरूपसे संशयका विषय हो तो भी विशिष्टरूप से वह आत्मा ही नहीं है और केवल जो आत्मा है, उसमें कदापि संशय नहीं हो सकता || ३७ ॥
अनaataar तु दूरोत्सारितमेव । यत आहबोध्ये 'प्यनुभवो यस्य न कथञ्चन जायते । तं कथं बोधयेच्छास्त्रं लोष्टं नरसमाकृतिम् ॥ ३८ ॥
श्रुति श्रात्माका प्रतिपादन करती ही नहीं, यह बात शङ्कास्पद ही नहीं है । क्योंकि – जो वस्तु जानने योग्य है उस वस्तुका भी अनुभव जिसको नहीं होता, उस मनुष्याकार मिट्टी के ढेलेको, निरे जड़को, शास्त्र किस प्रकारसे बोध करा सकेगा ! ||३८|| वाक्यमेववाक्यार्थरूपमात्मानं
अन्वयव्यतिरेकपुरस्सरं प्रतिपादयतीत्यस्य पक्षस्य द्रढिने श्रुत्युदाहरणमुपन्यस्यति — जिघ्राणीममहं गन्धमिति यो वेच्यविक्रियः ।
स आत्मा तत्परं ज्योतिः शिरसीदं वचः श्रुतेः ॥ ३९ ॥ अन्वयव्यतिरेकसे वाक्य ही अखण्ड श्रात्माका प्रतिपादन करता है, इस पक्ष की दृढ़ता के लिए श्रुतिका उदाहरण देते हैं
'मैं इस को ग्रहण करूँ' ऐसा जो किसी प्रकारके विकारको प्राप्त न होकर जानता है, वही स्वप्रकाश आत्मा है, ऐसा उपनिषद् का कथन है || ३९ ||
यथा 'तत्सत्य स आत्मा 'तत्त्वमसि' इत्यस्य शेषत्वेनान्वयव्यतिरेकश्रुतिर्यथा 'य एषोऽक्षिणि पुरुषो दृश्यते' इत्याद्या, 'अथ यो वेदेदं जिघ्राणि' इत्यन्ता । तथा 'अहं ब्रह्मास्मि' इत्यस्य शेषः । अहमः प्रत्यगात्माऽर्थो निरस्ताऽशेषयुष्मदः । बम्भणीति श्रुतियय्या योऽयमित्यादिनाऽसकृत् ॥४०॥
१ बोधेऽपि, ऐसा भी पाठ है । २ श्रवयव्यतिरेकसचिवं, भी पाठ है ।
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भाषानुवादसहिता जैसे छान्दोग्य उपनिषद में 'वही सत्य है' 'वही आत्मा है। वहीं ता है। इस वाक्य की अङ्गभूत अन्वय-व्यतिरेकबोधक यह श्रुति है। जैसे-'जो या भेत्रों में पुरुष देख पड़ता है। यहाँसे लेकर 'अनन्तर जो ऐसा जानता है, मैं इसको जात्रा करूं' यहाँतक। वैसे ही वृहदारण्यक उपनिषद्में भी 'मैं ब्रह्म हूँ' इस वाक्यकी शेषभूत 'योऽयं विज्ञानमयः' इत्यादि श्रुति 'अहं ब्रह्माऽस्मि' इस महावाक्यके अहं पदका अर्थ सम्पूर्ण अनात्मासे रहित, अहङ्कारका साक्षी, लक्ष्यभूत प्रत्यगात्मा है, ऐसा युक्तिपूर्वक बार-बार प्रतिपादन करती है ।। ४० ॥
___ कथं पुनरयमर्थोऽवसीयते 'अहं व्याजेनात्रात्मार्थो बुबोधयिपिन इति । यतः
एष आत्मा स्वयज्योती रविसोमाग्निवाक्षु सः। इतेधस्तं दृगेवास्ते भासयश्चित्तचेष्टितम् ।। ४१ ॥
शङ्का-किस युक्तिसे यह सिद्ध होता है कि 'अहम्' शब्द वाच्यार्थका परित्याग करके लक्षणासे कूटस्थ आत्माका बोधन करता है, ऐसा श्रुतिको अभिमत है ?
__समाधान—चूँकि सूर्य, चन्द्रमा, अग्नि, वाणी इत्यादि प्रकाशक पदार्थों के अस्त हो जानेपर भी स्वप्नावस्थामें सब प्रकारके चित्त-व्यापारको जो प्रकाशित करता है, वह स्वयं-प्रकाश आत्मा है, ऐसा श्रुतिने प्रतिपादन किया है ।। ४१ ॥
निणेनेक्ति च पृष्टो मुनिः
आत्मनैवेत्युपश्रुत्य कोऽयमात्मेत्युदीरिते । वुद्धेः परं स्वतो मुक्तमात्मानं मुनिरभ्यधात् ।। ४२ ॥
श्रात्मप्रकाशसे ही समस्त व्यवहार होता है, इसको सुनकर शिष्यने जब प्रश्न किया कि आत्मा शब्द तो कोश-पञ्चकमें भी प्रयुक्त होनेसे साधारण है । अतएव आत्मशब्दका मुख्य अर्थ क्या है ? इसपर श्रीयाज्ञवल्क्य मुनिने पुनः पुनः निर्णय करके बतलाया कि बुद्धिसे परे नित्यमुक्त जो वस्तु है, वही आत्मशब्दका अर्थ है ॥ ४२ ॥
यस्माचात्मावाऽहंव्याजेन पत्यङमात्रो जिग्राहयिषितस्तस्मादहंवृत्तिः स्वरूपस्य विलयेनैव 'बाक्यार्थाऽवगमाय कारणत्वं प्रतिपयत इतीममर्थमाह
अहंवृत्त्यैव तद्ब्रह्म यस्मादेषोऽवगच्छति ।
तत्स्वरूपलयेनातः कारणं स्यादहंकृतिः ।। ४३ ॥ १ विलयेनैवावाक्यार्थम्, ऐसा पाठ भी है। २ मत्स्वरूप, ऐसा भी पाठ है ।
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नैष्कर्म्यसिद्धिः चूंकि यहाँपर अहङ्कारके व्याजसे शुद्ध प्रत्यगात्माका ग्रहण कराना इष्ट है। इस कारण अहंवृत्ति भी अपने स्वरूपके विलय द्वारा ही वास्यार्थ के ज्ञानमें कारण होती है, इस बातको कहते हैं क्योंकि, यह मुमुक्षु 'मैं ब्रह्म हूँ' इस प्रकार अहङ्कार से ही ब्रह्मको जानता है । इस कारण अहङ्कार स्वरूपके बाध द्वारा ही अहङ्कार वाक्यार्थ-ज्ञानमें कारण है ॥ ४३॥
- अत एव च यः प्रतिज्ञातोऽर्थों 'नाऽहंग्राह्ये न तद्धीने इत्यादिः स युक्तिभिरुपपादित इति कृत्वोपसंह्रियते
इसलिए जो प्रतिज्ञा की गयी थी कि "अहङ्कारसे ग्राह्य जो आत्मा है, अथवा उससे रहित जो विशुद्ध आत्मा है, इन दोनोंमें विरोध नहीं है" इत्यादिउसका युक्तियोंसे उपादन किया गया, इसलिए अब उपसंहार करते हैं
गृहीताऽहंपदार्थश्चेत्कस्माज्ञो न प्रपद्यते । प्रत्यक्षादिविरोधाच्चेत्प्रतीच्युक्तिने युष्मदि ॥ ४४ ॥
यदि 'अहम्' पदार्थका ज्ञान हुआ है तो फिर क्यों विद्वान् पुरुष 'अहं ब्रह्मास्मि' वाक्यके अर्थको नहीं ग्रहण करता ? यदि कहो कि प्रत्यक्षादि प्रमाणोंके साथ विरोध होनेसे नहीं जानता, सो यह ठीक नहीं। क्योंकि 'तत्त्वमस्यादि' वाक्योंसे जो अभेदका कथन किया है, वह उपाधि-विशिष्टोंका नहीं किया है, किन्तु शुद्ध प्रात्माका किया है। प्रत्यक्षादि तो उपाधि-विशिष्ट का बोधन करनेवाले हैं, न कि शुद्ध श्रात्माका। इसलिए . दोनोंका विषय भिन्न होनेसे कोई विरोध नहीं है ॥ ४४ ॥
पूर्वस्यैव श्लोकार्थस्य विस्पष्टतामाह-- पराञ्च्येव तु सर्वाणि प्रत्यक्षादीनि नात्मनि ।
प्रतीच्येव प्रवृत्तं तत्सदसीति वचोऽञ्जसा ॥ ४५ ॥ पूर्वोक्त श्लोकके अर्थको ही स्पष्ट करते हैं
प्रत्यक्षादि प्रमाण पराक् अर्थात् जड़ वस्तुको ही विषय करनेवाले हैं, प्रत्यकात्माको विषय नहीं कर सकते । इसी कारणसे 'तत्त्वमसि' इत्यादि वाक्य अनायाससे शुद्ध अात्माका अभेद प्रतिपादन कर सकते हैं ॥ ४५ ॥
. तस्मात्प्रमातृप्रमाणप्रमेयेभ्यो हीयमानोपादीयमानेभ्योऽन्वयव्यतिरेकाभ्यां मुञ्जषीकावदशेषबुद्धिविक्रियासाक्षितयाऽऽत्मानं निष्कध्य तत्त्वमस्यादिवाक्येभ्योऽपूर्वादिलक्षणमात्मानं विजानीयात् । तदेतदाह---
१ पूर्वस्यैव पदार्थस्य, ऐसा और 'विस्पष्टार्थमाह, ऐसा भी पाठ है। २ मुझेषीकादिवत्, ऐसा पाठ भी है।
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भाषानुवादसहिता
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चूँकि शोधित तत्-त्वम् पदार्थ के ज्ञानमें प्रमाणान्तरसे विरोध नहीं है, इसलिए हीयमान अर्थात् त्यागने योग्य और उपादीयमान अर्थात् ग्रहण करने योग्य प्रमाता, प्रमाण और प्रमेय अन्वयव्यतिरेक द्वारा, जिस प्रकार मुज ( मूँज ) नामक तृणसे उसके भीतर रहनेवाले सूक्ष्म तृणको बड़ी सावधानीसे पृथक् करते हैं, उसी प्रकार आत्माको सम्पूर्ण बुद्धि-विकारोंका यह साक्षी है, इस रूपसे पृथकू जानकर तत्त्वमस्यादि वाक्यों से, अज्ञात सच्चिदानन्दरूप आत्माको जानना चाहिए । इसी बात को कहते हैं
अहं दुःख सुखी चेति येनाऽयं प्रत्ययो ध्रुवः ।
अवगत्यन्त आभाति स म आत्मेति वाक्यधीः ॥ ४६ ॥
'मैं दु:खी हूँ, सुखी हूँ' इत्यादि ज्ञान अध्रुव अर्थात् क्षणिक हैं । इन सत्र वृत्तियों तथा इनकी प्रमितियोंका भी प्रकाश जिससे होता है, वही मेरा श्रात्मा है, ऐसी बुद्धि वाक्यके द्वारा होती है ॥ ४६ ॥
प्रमाणान्तराऽनवष्टब्धं निरस्ताऽशेषकार्यकारणात्मकद्वैतप्रपञ्च सत्यज्ञानानन्दलक्षणमात्मानं तत्त्वमस्यहं ब्रह्मास्मीत्यादिवाक्यं संशयित - मिथ्याज्ञानाऽज्ञानप्रध्वंसमुखेन साक्षादपरोक्षात्करतलन्यस्ताऽमलकवत्प्रतिपादयत्येवेत्यसकृदभिहितम् ।
तत्र केचिदाहुः- तत्त्वमस्यादिवाक्यैर्यथाव स्थित 'वस्तुयाथात्म्यान्वाख्याननिष्ठैर्न यथोक्तोऽर्थः प्रतिपत्तुं शक्यतेऽभिधाश्रुतित्वात्तेषाम् । न हि लोकेऽभिधाश्रुतेः प्रमाणान्तरनिरपेक्षाया नद्यास्तीरे फलानि सन्तीत्यादिकायाः प्रामाण्यमभ्युपगतम् । अतो नियोगमुखेनैवाभिधाश्रुतेः प्रामाण्यं युक्तं प्रमाणान्तरनिरपेक्षत्वान्नियोगस्य । अस्य परिहारार्थमशेषप्रत्यक्षादिप्रमेयत्व निराकरणद्वारेणाऽ`तीन्द्रियार्थविषयत्वाद - · भिधाश्रुतेः प्रामाण्यं सुप्तपुरुषप्रबोधकवाक्यस्येव वक्तव्यमित्ययमारम्भःप्रमाणान्तर से अज्ञात, कार्यकारणात्मक द्वैतप्रपञ्चसे रहित, अखण्ड, सत्य ज्ञान, आनन्द स्वरूप श्रात्माका - सन्देह, मिथ्याज्ञान, भ्रान्ति, तथा अज्ञानका नाश करके प्रत्यक्षरूप से हस्तस्थित आमलक ( आँवले ) के सदृश - प्रत्यक्षात्मक ज्ञान तत्त्वमस्यादि वाक्य से उत्पन्न होता है । इस बातका अनेक बार प्रतिपादन किया । इसपर कोई ऐसा कहते हैं कि “सिद्धार्थं वस्तुपर अर्थात् जो वस्तु जैसी है उसका यथार्थरूपसे बोध
१ याथात्म्यव्याख्यान, ऐसा भी पाठ है । २ श्रनिन्द्रियार्थविषयत्वात्, ऐसा पाठ भी है।
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नैष्कर्म्यसिद्धिः करनेमें तत्पर जो तत्त्वमस्यादि वाक्य हैं, इनसे पूर्वोक्त अखण्ड अात्मस्वरूपका ज्ञान होता है, ऐसा जो कहते हो, वह ठीक नहीं। क्योंकि ये सब वाक्य अभिधायक श्रतिरूप हैं, विधायक श्रतिरूप लिङ्ग आदि प्रत्ययोंसे युक्त नहीं हैं । लोकमें कहीं भी अभिधायक अतिको, यदि मूलभूत प्रमाणान्तर न रहे, तो प्रमाण नहीं माना जा सकता । जैसेनदीके तीरमें पाँच फल हैं, इस वाक्यको प्रमाण तभी माना जायगा, जब किसीने अन्य प्रमाणसे नदीके तीरमें पाँच फल हैं, इस बात को जानकर पीछेसे इस वाक्यका प्रयोग किया हो, नहीं तो नहीं । इसलिए अभिधायक श्रुतिका विधायक श्रुतिके साथ एकवाक्यतासे ही प्रामाण्य हो सकता है । क्योंकि विधिप्रत्यय के अर्थको प्रमाणान्तरकी अपेक्षा नहीं है। अतएव वेदान्तवाक्य भी जब विधिपरक होंगे, तभी प्रमाण हो सकते हैं, नहीं तो नहीं।" इस आक्षेपको हटानेके लिए यह कहा जाता है कि यह आत्मा वेदान्तसे इतर सम्पूर्ण प्रत्यक्षादि प्रमाणोंका विषय ही नहीं होता । जब वह इतर प्रमाणोंका विषय नहीं होता, तब विधि-प्रत्यय रहित अभिधायक श्रुतिरूप वेदान्तवाक्यका अतीन्द्रिय वस्तुका बोधन करनेमें, सुप्त पुरुषको जाग्रत् करने के लिए प्रयुक्त वाक्यकी भाँति, सामर्थ्य है और प्रामाण्य भी है, इस बातको कहने के लिए अग्रिम ग्रन्थका प्रारम्भ होता है
नित्यावगतिरूपत्वादन्यमानानपेक्षणात् । शब्दादिगुणहीनत्वात्संशयानवतारतः ॥४७॥ तृष्णानिष्ठीवनै त्मा प्रत्यक्षायैः प्रमीयते ।
प्रत्यगात्मत्वहेतोश्च स्वार्थत्वादप्रेमयतः ।। ४८॥
यह आत्मा प्रत्यक्षादि प्रमाणोंसे गृहीत नहीं होता। इसका कारण यह है कि ग्राहककी प्रवृत्ति होनेके अनन्तर पुरुषको जब देखनेकी इच्छा होती है, तब प्रत्यक्षादिको प्रवृत्ति होती है। अतएव वे तृष्णाके कार्य हैं, उनसे सर्वावभासक आत्मा कैसे प्रकाशित हो सकता है और जो ज्ञानरूप नहीं है उसी वस्तुको प्रकाशित होनेके लिए प्रमाणान्तरकी अपेक्षा होती है। प्रात्मा तो कूटस्थ और प्रकाशरूप है, अतएव उसको प्रमाणान्तरकी अपेक्षा क्यों होगी ? और प्रत्यगात्मरूप होनेके कारण किसीसे उसका व्यवधान भी नहीं है । स्वार्थ होनेके कारण वह अन्यसे उपभोग्य नहीं है और अविषय होनेसे प्रमेय होनेके योग्य भी नहीं है । और श्रोत्रादि-प्रवृत्तिके विषय जो शब्दादि गुण हैं, उनसे रहित होनेसे वह किसी प्रकार सन्देहका भी विषय नहीं होता, इसी कारण वह अनुमान प्रादि प्रमाणोंका विषय भी नहीं होता ॥ ४७,४८॥
श्रुतिरपीममर्थ निर्वदतिदिक्षितपरिच्छिन्नपराग्रूपादिसंश्रयात् । विपरीतमतो दृष्टया स्वतो बुद्ध न पश्यति ॥ ४९ ॥
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भाषानुवादसहिता न्यायसिद्धमतो वक्ति दृष्टेन्रष्टारमात्मनः ।
न पश्येत्प्रत्यगात्मानं प्रमाणं श्रुतिरादरात् ॥ ५० ॥ श्रुति भी इसी अर्थका प्रतिपादन करती है
प्रत्यक्षादि दृष्टि दृश्य, परिच्छिन्न, जड़स्वरूप रूपादिको विषय करनेवाली है। अत एव अदृश्य, अपरिच्छिन्न, चेतन, स्वयम्प्रकाश अात्माको वह कैसे ग्रहण कर सकती है॥ ४६॥
इसीलिए युक्तिसिद्ध इस अर्थको प्रमाणभूत श्रुति बड़े अादरके साथ कहती है कि जो अनित्यभूत दृश्य-दृष्टिका भी प्रकाशक, साक्षी तथा आत्माका भी आत्मा है उसको अनित्य दृष्टिसे जाननेका प्रयत्न न करो। ॥ ५० ॥
अनुमानाऽविषयत्वेऽन्यदपि कारणमुच्यतेप्रत्यक्षस्य पराक्त्वान्न सम्बन्धग्रहणं यतः ।
आत्मनोऽतोऽनुमित्यास्यानुभवो न कथञ्चन ॥५१॥ आत्मा अनुमानका विषय नहीं होता, इस विषयमें और भी कारण बतलाते हैं
क्योंकि प्रत्यक्ष प्रमाण जड़ वस्तुको विषय करता है, इस कारण वह इससे विपरीत स्वयं-प्रकाश श्रात्माको ग्रहण नहीं कर सकता। अनुमान करने के पूर्व, अनुमानसे जिसकी सिद्धि करनी है, उसके साथ किसी वस्तुका ग्यासिज्ञान आवश्यक है, वह प्रत्यक्षसे होता है । अात्मा जब प्रत्यक्षका विषय नहीं है, तब व्यासिज्ञान किस प्रकारसे होगा ? व्याप्तिज्ञान न होनेसे अनुमान भी नहीं बन सकता। इसलिए अनुमानसे आत्माका अनुभव किसी प्रकारसे भी नहीं हो सकता ? ॥ ५१ ॥
एवमयं प्रमातृप्रमाणप्रमेयव्यवहारः सर्वे एव पराचीनविषय एव न प्रतीचीनमात्मानमवगाहयितुमलम् । एवं च सत्यनेनैव यथोक्तोऽर्थोऽनुमातुं शक्यत इत्याह
प्रमाणव्यवहारोऽयं सर्व एव पराग्यतः।
सुविचार्याऽप्यतोऽनेन युष्मद्येव दिदृक्षते ॥५२॥
इस प्रकार प्रमाता, प्रमाण, प्रमेय इत्यादि सभी व्यवहार जड़ वस्तुको ही विषय करनेवाले हैं, प्रत्यगात्माको विषय करनेमें समर्थ नहीं हैं। इसलिए इसीसे इस बातका (उक्तविषयका) अनुमान किया जा सकता है, यह कहते हैं
क्योंकि प्रमाण आदि समस्त व्यवहार जड़ वस्तुको ही विषय करता है, इस कारण
१ अवसातुं शक्यते, और 'अवसितुं शक्यते, पाठ भी मिलता है।
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. नैष्कम्यसिद्धिः अच्छी तरहसे विचार करके भी यही निश्चित होता है कि प्रत्यक्षादि प्रमाणसे अनात्माका ही ग्रहण होता है ॥ ५२ ॥
यस्माल्लौकिक्रप्रत्यक्षादिप्रमाणाऽनधिगम्योऽहंब्रह्मास्मीति वाक्यार्थस्तस्मात्---
अन्चयव्यतिरेकाम्यां निरस्याऽऽप्राणतो यतेः ।
वीक्षापन्नस्य कोऽस्मीति 'तदसीति श्रुतिर्जगौ ।। ५३ ॥ . चूँकि लौकिक प्रत्यक्षादि प्रमाणोंसे 'अहं ब्रह्माऽस्मि' इत्यादि महावाक्य द्वारा प्रतिपादित अखण्ड ब्रह्मज्ञान नहीं होता। अतएव-अन्वय-व्यतिरेकसे देहसे लेकर प्राणपर्यन्त सकल अनात्माओंका निरास करके 'मैं कौन हूँ' ऐसी जिज्ञासा जिस पुरुषको हुई है, उस पुरुषको श्रुतिने उस शुद्ध स्वरूपके प्रतिपादन करनेके लिए 'तत्त्वमसि' इत्यादि महावाक्यका उपदेश दिया है ॥ ५३ ॥
सोऽयमन्वयव्यतिरेकन्याय एतावानेव, यदवसानो वाक्यार्थस्तदभिज्ञस्य 'अहं ब्रह्माऽस्मीति' आविर्भवति । द्रष्ट्रदृश्यविभागेनागमापायिसाक्षिविभागेन च श्रुत्यभ्युपगमतः सङ्क्षिप्योच्यते. दृश्यत्वाद्धटवद्देहो देहवच्चेन्द्रियाण्यपि ।
मनश्चेन्द्रियवज्ज्ञेयं । मनोवनिश्चयादिमत् ॥ ५४ ॥
पूर्वोक्त अन्वय-व्यतिरेककी सीमा यही है कि जब 'अहं ब्रह्मास्मि' इस वाक्यका अर्थ असम्भावना और विपरीतभावनाके निराससे प्रत्यक्षरूपसे आविर्भूत हो । इसी अन्वय व्यतिरेक न्यायको श्रुति के अनुसार द्रष्टा, दृश्य और उत्पत्ति विनाशवान् वस्तु एवं उसका साक्षी, इस विभागसे संक्षेपसे वर्णन करते हैं
देह दृश्य होनेके कारण घटादिके समान अनात्मा है। देहकी भाँति इन्द्रियों और इन्द्रियोंके तुल्य मनको भी समझना चाहिए और मनके तुल्य निश्चयादि वृत्तिवाला अन्तःकरण भी अनात्मा है, ऐसा जानना चाहिए ॥ ५४ ॥
तथा सकलकार्यकारणागमापायि विभागसाक्षित्वेनाऽपिप्रागसद्याति पश्चात्सत् सच यायादसत्तथा । अनात्माभिजनं तत्स्याद्विपरीतः स्वयं दृशिः ॥ ५५ ॥
१ सदसीति, ऐसा पाठ भी है। २ आगमापाय०, ऐसा भी पाठ है। ३ तस्माद्विपरीतस्त्वयं दृशिः, ऐसा पाठ भी है।
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- भाषानुवादसहिता
१११ . ऐसे ही समस्त कार्य, कारण तथा उत्पत्ति-विनाशवान् कल्पित प्रपञ्च का साक्षिरूप आत्मा है
जो उत्पत्तिके पहले नहीं था, असद्रूप था, वही बादमें सद्रूप होता है। ऐसे ही जो वर्तमान समयमें सत् है, वहीं नाशके अनन्तर असत् हो जाता है। ऐसी जो जो वस्तु है वह सब अनात्मा ही है। आत्मा तो स्वप्रकाश है। अतएव अनात्माओंसे विपरीत, कूटस्थ, नित्य है ॥ ५५ ॥
तत्र घटादीनां दृश्यानामनात्मत्वं द्रष्ट्रात्मपूर्वकं प्रत्यक्षेणैव' प्रमाणेनोपलभ्यानात्मनश्चाऽसाधारणान्धर्मानवधार्य तैदृश्यत्वाऽऽगमापायादिभिधमः शरीरेन्द्रियमनोनिश्चयादिवृत्तीरनात्मतया व्युदस्याऽहंवृत्तिमतोऽपि दृश्यत्वाविशेषाद् द्रष्टपूर्वकत्वमवसीयते । तदेतदाह
घटादि दृश्य पदार्थों के अनात्मपनको तथा इनका द्रष्टा श्रात्मा इनसे पृथक् है, इस बातको प्रत्यक्ष प्रमाणसे ही देखकर अनात्माके असाधारण धोंको निश्चय करके उन दृश्यत्व आगमापायित्व प्रादि धर्मोंसे शरीर, इन्द्रिय, मन और निश्चयादिवृत्तियोंको आत्मासे पृथक् समझकर, अहङ्कारवृत्तिमान् अहङ्कारके भी दृश्य होने के कारण इसका द्रष्टा इससे . अतिरिक्त कोई अन्य है, ऐसा अनुमानसे सिद्ध कर सकते हैं । वही कहते हैं
घटादयो यथा लिङ्गं स्युः परम्परयाऽहमः ।
दृश्यत्वादहमप्येवं लिङ्गं स्याद् द्रष्टुरात्मनः ॥ ५६॥ जैसे घटादि विषय हैं, इसलिए वे देहादि विशिष्ट द्रष्टाके ज्ञापक होते हैं। तथा ऐसे ही देह भी इन्द्रिय-विशिष्ट द्रष्टाका, इन्द्रियाँ भी मनोविशिष्ट द्रष्टाका, मन भी बुद्धिविशिष्ट द्रष्टाका और बुद्धि भी अहङ्कारविशिष्ट द्रष्टाका, जैसे ज्ञापक होते हैं। ऐसे ही अहङ्कार भी दृश्य होने के कारण स्वव्यतिरिक्त द्रष्टाका ज्ञापक है ॥ ५६ ॥
ननु द्रष्टदर्शनदृश्यानां 'जाग्रत्स्वमसुषुप्तेष्वागमापायदर्शनाउत्साक्षिकौ तेषामागमापायौस आगमापायविभागरहित' आत्मा । यथा यन्निबन्धनौ जगतः प्रकाशाप्रकाशौ स प्रकाशाऽप्रकाशविभागरहितः सूर्य इति । यदा चैवं तदा वाक्यावगम्यस्यार्थस्याऽनुदितानस्तमितविज्ञानमात्रस्वभावस्याऽनुमानेनैव प्रतिपन्नत्वात्पुनरपि वाक्यस्य निर्विषयत्वप्रसङ्गः। नैष दोषः। लिङ्गव्यवधानेन तत्प्रतिपत्तेः। ननु
प्रत्यक्त्वेनैव, ऐसा भी पाठ मिलता है। २ आगमापायरहितः, भी पाठ है। .
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११२
नैष्कर्म्यसिद्धिः . साक्षादपरोक्षादात्मस्वभावेनानात्मनो हानोपादानयोः सम्बन्धग्रहणाकमतिशयं वाक्यं कुर्यात् । मैवं वोचः-लिङ्गाधीनत्वात्तत्प्रतिपत्तेः । न हि लिङ्गव्यवधानेनात्मप्रतिपत्तिः साक्षात्प्रतिपत्तिर्भवति 'यमेवैष वृणुते तेन लभ्यस्तस्यैष आत्मा विवृणुते' इति श्रुतेः । अत आह
शङ्का-द्रष्टा, दर्शन और दृश्य इन तीनोंका जाग्रत् , स्वप्न और सुषुष्टि इन अवस्थाओंमें उत्पत्ति और विनाश दीख पड़ता है। इनका यह उत्पत्ति और विनाश जिसको साक्षी मानकर होता है, वह श्रात्मा उत्पत्ति नाशसे रहित है। जैसे जगत्का प्रकाश और अप्रकाश जिसके द्वारा होता है वह सूर्य प्रकाश और अप्रकाश इन अवस्थाओं से रहित, सर्वदा एकरूप है । जब ऐसी बात सिद्ध है, तब वेदान्त वाक्यसे जिस उत्पत्ति विनाश रहित ज्ञानमात्ररूप आत्माका रूप सम्पादन करना है, उसका बोध तो अनुमानसे ही सिद्ध हो गया। फिर वेदान्तवाक्यकी आवश्यकता न होनेसे वे अप्रमाण हो जायँगे ?
समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि अनुमानसे जो ज्ञान उत्पन्न होता है वह परोक्षरूपसे वस्तुका बोधक है, अपरोक्षरूपसे नहीं। अतएव प्रत्यक्षरूपसे ग्रहण होनेके लिए वाक्यकी अपेक्षा है।
शङ्का-द्रष्टा, दर्शन, दृश्य इन तीनोंकी उत्पत्ति और विनाशका साक्षात प्रत्यक्षरूप साक्षीके साथ साक्ष्य-साक्षिभावरूप सम्बन्ध गृहीत है। अतएव ये साक्ष्य हैं तो इनका कोई साक्षी भी होना चाहिए। इस प्रकार अनुमानसे भी साक्षीका प्रत्यक्षरूपसे भी ग्रहण हो सकता है, फिर प्रत्यक्ष ज्ञानके लिए वाक्य की क्या आवश्यकता है?
___ समाधान-ऐसा मत कहिए । क्योंकि दृष्टान्त और दान्तिकमें रहनेवाला जो साधारण धर्म है, उसीको अनुमानसे सिद्धि होती है, ऐसा मानना चाहिए। नहीं तो अनुमानका उच्छेद ही हो जायगा। इसलिए यह मानना पड़ेगा कि अनुमानसे अात्माकी जो प्रतीति होगी वह सामान्यरूपसे ही होगी, विशेषरूपसे नहीं। अतएव प्रत्यक्षात्मक हानेके लिए वेदान्तवाक्यकी अपेक्षा है। लिङ्गाधीन होनेवाली प्रतीति प्रत्यक्ष प्रतीति नहीं हो सकती; इसलिए श्रुति कहती है कि “यह साधक मुमुक्षु जिस निर्विशेष अात्माको निरन्तर तन्निष्ठ होकर भजता है, उसको यह आत्मा प्राप्त हो सकता है। इसलिए कहते हैं
लिङ्गमस्तित्वनिष्ठत्वान्न स्याद्वाक्यार्थबोधकम् ।
सदसद्वयु त्थिात्माऽयमतो वाक्यात्प्रतीयते ॥ ५७ ॥
अनुमानसे इतनामात्र सिद्ध हो सकता है कि कोई एक आत्मा पदार्थ है । किन्तु वह सत् है, अथवा असत् है, इत्यादि विकल्पोंसे रहित शुद्ध, बुद्ध आत्मा है; इस
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भाषानुवादसहिता
११३ प्रकार विशेषरूपसे बोध अनुमानसे नहीं होता। अतएव वेदान्तवाक्यसे ही उसका पूर्व बोध होता है ।। ५७ ॥
ननु यदि व्यावृत्तसदसद्विकल्पजालं वस्त्वभीष्टं वाक्याद् भवतस्तथापि तूत्सार्यते बाक्यविषया तृष्णा । यस्मादन्तरेणापि वाक्यश्रवणं निरस्ताशेषविकल्पमागोपालाविपालपन्डितं सुषुप्ते वस्तु सिद्धमतो नार्थों वाक्यश्रवणेन ? नैतदेवम् । किं कारणम् ? सर्वानर्थवीजस्यात्मानवबोधस्य सुषुप्ते सम्भवात् । यदि हि सुषुप्तेऽज्ञानं नाऽभविष्यदन्तरेणापि वेदान्तवाक्यश्रवणमनननिदिध्यासनान्यहं ब्रह्माऽस्मीत्यध्यवसायात्सर्वप्राणभृत्तामपि स्वरसत एव सुषुप्तप्रतिपत्तेः सकलसंसारोच्छित्तिप्रसङ्गः न च कैवल्यात्पुनरुत्थानं न्याय्यमनिर्मोक्षप्रसङ्गात् । न चाऽन्य एव सुषुप्तोऽन्य' एवोत्थित इति शक्यं वक्तुं नाद्राक्षमहं सुषुप्तेऽन्यत्किञ्चिदपीत्युत्थितस्य प्रत्यभिज्ञादर्शनात् । तस्मादवश्यं सुषुप्तेऽज्ञानमभ्युपगन्तव्यम् । ननु यदि तत्राऽज्ञानमभविष्यद्रागद्वेषघटाज्ञानादिवत्प्रत्यक्षमभविष्यत् । यथेह लोके घटं न जानामीत्यज्ञानमव्यवहितं प्रत्यक्षम् । अत्रोच्यते । न । अभिव्यञ्जकाभावात् । कथमभिव्यञ्जकाभाव इति चेच्छणु
शङ्का-यदि यह आपको अभीष्ट हो कि सदसद्-विकल्पजालसे रहित शुद्ध, बुद्ध वस्तुका वेदान्तवाक्योंसे बोध होता है; तथापि हमारी श्रद्धा वेदान्तवाक्यसे हटती जाती है। क्योंकि वाक्यके बिना भी, सम्पूर्ण विकल्पोंसे रहित ब्रह्म का ज्ञान, पण्डितोंसे लेकर गोपाल और मेषपाल पर्यन्त (ग्वालेगडरियों तक ) सभीको सुषुप्ति दशामें होता ही है । फिर वेदान्तवाक्यकी क्या आवश्यकता है ?
समाधान-ऐसा कहना उचित नहीं। क्योंकि सुषुप्ति समयमें सम्पूर्ण उपद्रवोंका मूलभूत अज्ञान बना रहता है। यदि सुषुप्तिमें अज्ञान न होता, तब तो वेदान्तवाक्योंके श्रवण, मनन और निदिध्यासनके बिना भी 'मैं ब्रह्म हूँ' ऐसे निश्चयसे समस्त प्राणियोंको स्वभावसे ही प्रतिदिन सुषुप्ति होनेके कारण सकल संसारका उच्छेद होनेसे कैवल्यकी-- मोक्षको-प्राप्ति हो जाती और जहाँ एकबार मोक्ष हो गया फिर उसका उत्थान ( जागना) नहीं हो सकता है क्योंकि यदि कैवल्यसे भी पुनरुत्थान हो सकता तब तो फिर मोक्ष ही नहीं हो सकता। यदि कोई ऐसा कहे कि 'जिसको सुषुप्ति हुई है, वह तो
१ सुसोऽन्यः, भी पाठ है।
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११४
नैoर्म्यसिद्धिः
मुक्त ही हुआ है जिसको प्रबोध हुआ है, वह दूसरा ही है ।' सो यह भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि निद्रासे उठे हुए पुरुषको ऐसी प्रत्यभिज्ञा होती है कि मैंने सुषुप्ति कालमें किसी अन्य वस्तुको नहीं देखा । इसलिए शयन करनेवाला और प्रबुद्ध एक हो व्यक्ति है; ऐसा मानना चाहिए । जब ऐसा सिद्ध हुआ। तब अवश्य ही सुषुप्ति में अज्ञान भी मानना चाहिए । इसपर यदि कोई कहे कि यदि सुषुप्ति में अज्ञान होता तो वह रागद्वेष और घटादि पदार्थों के अज्ञानकी भाँति प्रत्यक्ष होता । जैसे जाग्रत् में 'मैं घटको नहीं जानता' इस प्रकार अज्ञानका प्रत्यक्ष होता है।' तो यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि उस समय जो अज्ञानादिकी प्रतीति नहीं होती उसमें कारण यह है कि उस समय उनका अभिव्यञ्जक नहीं है । यदि कहिए कि अभिव्यञ्जकका प्रभाव कैसे हुआ ? तो सुनिए
बाह्यां वृत्तिमनुत्पाद्य व्यक्तिः स्यान्नाऽहमो यथा । asन्तःकरणं तद्वत् ध्वान्तस्य व्यक्तिराञ्जसी ॥ ५८ ॥ जैसे बाह्य वृत्तिका उत्पादन किए बिना अहङ्कारको अभिव्यक्ति नहीं होती, वैसे ही बिना अन्तःकरण के अज्ञानकी प्रतीति स्पष्टरूपसे नहीं हो सकती ॥ ५८ ॥
कश्चिदतिक्रान्तं प्रतिस्मृत्य 'दृश्यत्वादहमप्येवं लिंङ्ग स्याद्रष्टुरात्मनः' इति निर्मुक्तिकमभिहितमित्याह । किं कारणम् ? अहं तज्ज्ञात्रोर्विवेकाऽप्रसिद्धेः । यथेह घटदेवदत्तयोर्ग्राह्यग्राहकत्वेन स्फुटतरो विभागः प्रसिद्धो लोके न तथेहाऽहङ्कारतज्ज्ञात्रोर्विभागोऽस्तीति । तस्माद साध्वेतदभिहितमिति । अत्रोच्यते
दादाहकतैकत्र यथा ज्ञेयज्ञात कतैवं
स्याद्वह्रिदारुणोः । स्यादहंज्ञात्रोः परस्परम् ।। ५९ ।
दोनोंमें भेद प्रतीत नहीं
कोई वादी पहले कही हुई बातों को भूलकर कहता है कि "इस प्रकार दृश्यत्व तुल्य होनेसे अहङ्कार भी द्रष्टा आत्माका ज्ञापक है" यह बात जो पहले कही गयी है, वह युक्तिशून्य है । कारण अहङ्कार और उसके द्रष्टा साक्षी, इन होता । जैसे इस लोक में घटादि पदार्थोंका, जो कि दृश्य हैं, उनसे उनका द्रष्टा जो देवदत्त है, इन दोनोंका परस्पर भेद प्रसिद्ध है । वैसे ही अहङ्कार और साक्षीका विवेक प्रसिद्ध नहीं है ? इसका उत्तर देते हैं
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जैसे दाह्यत्व और दाहकत्व एक ही जगह, वह्नि और काठ में मालूम पड़ता है है, ऐसे ही अहङ्कार और साक्षीका परस्पर ज्ञातृज्ञेयभाव एकत्र मालूम पड़ता है । इस कथनका तात्पर्य यह है कि यद्यपि मैं देखता हूँ, सुनता हूँ, इत्यादि प्रतीतिमें
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भाषानुवादसहिता ग्राह्यत्व और ग्राहकत्व दोनों एकत्र हैं, ऐसा मालूम पड़ता है। परन्तु अन्य स्थलोंमें प्रत्येकका भिन्न-भिन्न स्थलोंमें अवस्थान देख पड़ता है। जैसे आत्माका अन्तःकरणके बिना भी सुषुप्तिमें द्रष्टत्व है । अतएव सुखदुःखादिरूप विविधज्ञान विषय धर्मोंसे युक्त अहङ्कारका घटादि जड़ पदार्थोंके सदृश द्रष्टत्व नहीं हो सकता, इसलिए ग्राह्यत्व ही उसमें है जो कि ग्राहकत्व भी देख पढ़ता है। वह अहङ्कार और आत्माके परस्पराध्याससे आत्मनिष्ठ ग्राहकत्व अर्थात् द्रष्टत्व अहङ्कारमें भासमान होता है। जैसे केवल वह्निमें ही दाहकता है, परन्तु वह्निके संयोगसे काष्ठमें भी उसका व्यवहार होता है, इसलिए ग्राहकका ज्ञापक अहङ्कार है, ऐसा कहने में कोई दोष नहीं है । ५९ ॥
एवं तावदविद्योत्थस्यान्तःकरणस्य बाह्यविषयनिमित्तरूपाऽवच्छेदायाऽहंवृत्तिाप्रियते । तयाऽवच्छिन्नं सत्कूटस्थप्रत्यगात्मोपादानावबोधरूपस्या व्यवधानतया विषयभावं प्रतिपद्यत इति । तत्र तयोर्तात्रहन्तारूपयोरवभासकावभास्यत्वसम्बन्धव्यतिरेकेण नाऽन्यत्सम्बन्धान्तरमुपपद्यते। अहन्तारूपं त्वात्मसात्कृत्वाऽहंकञ्च्चुकं परिधायोपकार्यत्वोपकारकत्वक्षमः सन् बाह्यविषयेणोपकारिणाऽपकारिणा वाऽऽत्मात्मीयं सम्बन्ध प्रतिपद्यते । तदभिधीयते ।
इस प्रकार अविद्यासे उत्पन्न अन्तःकरणका बाह्य शब्दादि विषय प्रयुक्त जो वृत्तिज्ञानरूप परिणाम है उसको जाननेके लिए 'मैं इस प्रकार अहंवृत्ति होती है, उससे युक्त होकर वही अन्तःकरण कूटस्थ प्रत्यगास्म निमित्तक जो अहङ्कारवृत्तिविशिष्ट अन्तःकरणप्रतिबिम्बित चैतन्याभ्यास है उसका, अव्यवधानसे, विषय होता है । यहाँपर ज्ञाता और अहङ्कार इन दोनोंका भास्य भासक भाव सम्बन्धको छोड़कर और कोई सम्बन्ध उपपन्न नहीं होता। इसीलिए घटादिके सदृश आत्मीयरूपसे प्रतीति नहीं होती। प्रत्यगात्माने अहङ्कारात्मक अन्तःकरणको अपने में मिलाकर अहंरूप परिच्छेदको भी अपने ऊपर आरोपित कर लिया है, इसी कारण वह घटाद्य पकार और अपकारका विषय होता है। इसी कारण घटादि विषयोंके साथ आत्मीयरूपसे सम्बन्धको प्रास होता है। इस कारण स्वस्वामिभावरूप सम्बन्धान्तर विद्यमान है, इसलिए घटादिमें मदीयधुद्धिविषयता है। वही कहते हैं
'अनवबोधरूपस्य, भी पाठ है। २ अहंकर्तृक परिधाय, ऐसा और 'परिधाोपकार्यात्वापकार्यत्व०, ऐसा पाठ
३ बाह्यविषयोपकारिणा, भी पाठ है ।
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नैष्कर्म्यसिद्धिः इदं ज्ञानं भवेज्ज्ञातुर्ममज्ञानं तथाऽहमः ।
अज्ञानोपाधिनेदं स्याद्विक्रियाऽतोऽहमो मम ॥ ६० ॥
ज्ञाता साक्षीको इस प्रकारका ज्ञान साक्षात् अपनेसे भास्य अहंवृत्तिविशिष्ट अन्तःकरणमें होता है । वही साक्षी अहङ्कारके साथ एकताको अध्याससे जब प्राप्त होता है, तब घटादिमें 'यह मेरा है' इस प्रकारका ज्ञान उपकार्यापकारकभावरूप सम्बन्धसे होता है । अज्ञानोपाधिक चैतन्याभ्याससे इदं इत्याकारक ज्ञान होता है, उसके बाद बाह्यउपकारादि सम्बन्धसे अहंपदार्थको 'मम' इस प्रकारका विकार होता है ॥ ६०॥ - एकस्यैव ज्ञातुरन्तर्बाह्यनिमित्तभेदाद्विभिन्नेऽपि विषय इदं ममेति ज्ञानं द्वैरूप्यं जायत इत्युक्तम् । अत्रोपक्रियमाणापक्रियमाणस्यैव ज्ञातुर्विषये मम प्रत्ययो भवति, विपर्यये चेदंप्रत्यय इति कथमवगम्यते ? अवगम्यतामन्वयव्यतिरेकाभ्याम् । तत्कथमित्याह
अनुपक्रियमाणत्वान्न ज्ञातुः स्यादहं मम ।
घटादिवदिदं तु स्यान्मोहमात्रव्यपाश्रयात् ॥ ६१ ।।
अन्तर्निमित्त चैतन्याभास, बाह्यनिमित्त उपकारादि विषयज्ञान परिणामके भेदसे भिन्न-भिन्न विषय अन्तःकरण और घटादिमें 'इदम्' और 'मम' ऐसा ज्ञानद्वय होता है, ऐसा कहा गया। इसपर यह शङ्का होती है कि-"अहंकारोपाधिक ज्ञाताको घटादिविषयमें स्वामिभाव रूप सम्बन्धसे 'मम' ऐसा ज्ञान होता है और अज्ञानमात्रोपाधिकका अन्तःकरण में 'इदम्' ऐसा ज्ञान होता है, यह कैसे जाना जाता है ?" इसका समाधान यह है कि-अन्वय व्यतिरेकसे ! वह कैसे, सो बतलाते हैं
ज्ञाता साक्षी अहङ्कारसे उपकृत या अपकृत नहीं होता, इसलिए अहंकार घटादि. के सदृश 'मम' ऐसे ज्ञानका विषय नहीं होता। मोहमात्र ही अालम्बन जिस चिदा भास का है, उसके सम्बन्धसे 'इदं' इस रूपसे अवमास्य होता है। उपकारकत्वादि शून्य अहंकारमें साक्षीका 'इदं' इत्याकारक प्रत्यय देख पड़ता है, इसलिए एतादृश घटादिमें 'इदम्' इत्याकारक ज्ञान ही होगा। उपकारकत्वादि धर्म युक्तमें 'मम' ऐसा ज्ञान होगा, यह देखना चाहिए ॥ ६१ ॥
मोहतत्कार्याश्रयत्वाज्ज्ञातृत्वविक्रिययोः पूर्वत्रेदंममज्ञानान्वयः प्रदर्शितः । अथाऽधुना तद्वयतिरेकेण व्यतिरेकप्रदर्शनार्थमाह
१ अज्ञानोपाधिनैवं स्यात्, भो पाठ है। २ भेदाभिन्ने, भो पाठं है। ३ ज्ञानरूप्यम्, भी पाठ है। .
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भाषानुवादसहिता
विक्रियाऽज्ञानशून्यत्वान्नेदं न च ममाऽऽत्मनः । उत्थितस्य सतोऽज्ञानं नाऽहमज्ञासिषं यतः ॥ ६२ ॥
११७
आत्मामें अज्ञानरूप उपाधिके निमित्त ग्रहंकारसाक्षिता है और अज्ञानकार्य परिणामी श्रन्तःकरण के सम्बन्धसे परिणामित्वादि होता है। इस कारण अज्ञान और उसके कार्य अन्तःकरणादि उपाधियोंसे आत्माको अहंकार और घटादिमें यथाक्रम से 'इदम् ' और 'मम' ऐसा ज्ञान होता है । इस प्रकार अन्वय दिखलाया । अव अज्ञान तत्कार्यके न होने से पूर्वोक्त ज्ञानद्वय नहीं होता, ऐसा व्यतिरेक दिखलाने के लिए कहते हैंसुषुति समय में शब्दादि श्राकारसे परिणाम होना, इस प्रकारका विकार या अज्ञान 'नहीं है, इसलिए उस समय 'इदम्' या 'मम' इस प्रकारका ज्ञान नहीं होता, क्योंकि उत्थित होनेपर मैं अब तक कुछ नहीं जानता था, ऐसी स्मृति होती है ॥ ६२ ॥
आत्मानात्मविवेकस्येय त्ताप्रदर्शनार्थमाहवाक्यप्रत्यक्षमानाभ्यामियानर्थः प्रतीयते । अनर्थकृत्तमोहानिर्वाक्यादेव
सदात्मनः || ६३ ॥
श्रात्मा और अनात्मा विवेककी अवधि दिखाने के लिए कहते हैं‘त्वम्' पदार्थ शोधक वाक्य और अन्वयव्यतिरेक से उत्पन्न श्रात्मानात्मविवेकानुभव रूप प्रत्यक्ष, इन दो प्रमाणोंसे सम्पूर्ण अनात्मासे पृथक् शुद्ध आत्माका अनुभव होता है । तब 'तत्त्वमसि' इत्यादि वाक्योंकी कोई आवश्यकता ही नहीं है, ऐसी शङ्का मत कीजिए ? क्योंकि समस्त अनर्थके मूलभूत श्रात्मा के अज्ञानकी निवृत्ति सदा महावाक्यसे ही होती है । दूसरे प्रमाणोंसे नहीं सकती || ६३ ||
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द्वितीयाध्यायादौ श्रोतृचतुष्टयमुपन्यस्तम् । तत्र कृत्स्नानात्मनिवृत्तौ सत्यां यः प्रत्यगात्मन्यवाक्यार्थतां प्रतिपद्यते, सः क्षपिताशेषान्तरायहेतुरिति न तं प्रति वक्तव्यं किञ्चिदप्यवशिष्यते । योऽपि वाक्यश्रवणमात्रादेव प्रतिपद्यते तस्याऽप्यतीन्द्रियशक्तिमत्वान्न किञ्चिदप्यपेक्षितव्यमस्ति । यच श्राविततत्त्वमस्यादिवाक्यः स्वयमेवाऽन्वयव्यतिरेकौ कृत्वा तदवसान एव वाक्यार्थ प्रतिपद्यतेऽसावपि यथार्थं प्रतिपन्न इति पूर्ववदेवोपेक्षितव्यः । यः पुनरन्वयव्यतिरेकौ कारयित्वा - ऽपि पुनः पुनर्वाक्यं श्राव्यते यथाभूतार्थप्रतिपत्तये तस्य कृतान्वयव्यतिरेकस्य सतः कथं वाक्यं श्राव्यत इति । उच्यते
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नैष्कर्म्यसिद्धिः
नवसङ्ख्याहृतज्ञानो दशमो
विभ्रमाद्यथा ।
न वेत्ति दशमोऽस्मीति वीक्षमाणोऽपि तान्नव ॥ ६४ ॥
द्वितीयाध्याय के प्रारम्भमें चार प्रकार के श्रोताओं का वर्णन किया गया। उनमें जिसको सम्पूर्ण अनारमाकी निवृत्ति होकरं स्वस्वरूप शुद्ध ब्रह्मका साक्षात्कार हुआ है वह तो सम्पूर्ण प्रतिबन्धकोंकी निवृत्ति होनेसे शुध हुआ ही है । इसलिए उनके विषयमें कुछ वक्तव्य श्रवशिष्ट नहीं है और जो कि वाक्य श्रवण मात्र से ही स्वस्वरूपको जान सकता है, उसको अतीन्द्रियपदार्थों के समझने की शक्ति स्वतः ही है, इसलिए उसको भी कुछ कहना श्रवशिष्ट नहीं है । ऐसे ही जिसने प्राचार्य के मुख से 'तत्त्वमसि' इत्यादि वाक्योंका अच्छी तरह से अर्थं श्रवण करके स्वयमेव अन्वय व्यतिरेक पूर्वक यथोचित मनन करके अन्त में साक्षात्कारको प्राप्त किया है वह भी ठीक ही समझा है, इसलिए पूर्ववत् उपेक्षणीय है । परन्तु जिसको अन्वयव्यतिरेकके द्वारा पुनः पुनः ज्ञान कराकर, यथार्थ ज्ञान होने के लिए, वाक्यका श्रवण कराया जाता है, उस पुरुषको श्रन्वयव्यतिरेकके अनन्तर किस चाल से वाक्यका श्रवण कराया जाता है, यह कहते है -
जैसे [ दस आदमी किसी कामके लिए इकट्ठे होकर ग्रामसे अरण्य में गये । वहाँसे लौटने पर विचार करने लगे कि हमलोग जितने गये थे, सब प्राये कि नहीं ? तब उस समय ] गणना करने में प्रवृत्त हुआ पुरुष अपनेसे अतिरिक्त नौ आदमियों को देखता हुआ भी नवसङ्ख्यासे भ्रान्ति में पड़कर 'दसवाँ तू है ?' इस वाक्यके श्रवण के बिना अपनेको 'मैं दशम हूँ' ऐसा नहीं जानता ॥ ६४ ॥
अथ दृष्टान्तगतमर्थ दार्शन्तिकार्थे समर्पयिष्यन्नाह - अपविद्धयोऽप्येवं तत्त्वमस्यादिना विना | वेति नै कलमात्मानं नाऽन्वेष्यं चाऽत्र कारणम् ।। ६५ ।।
दृष्टान्त के प्रतिपादनसे सिद्ध अर्थको दाष्टान्तिक में समर्पित करते हुये कहते हैं— ऐसे ही संसारी पुरुष वस्तुत: शुद्ध बुद्ध ब्रह्मरूप होनेपर भी अज्ञान से अपने
" स्वरूप को भूल कर बिना 'तत्त्वमसि' इस वाक्यके श्रवरण किये 'मैं वही परब्रह्म हूँ' ऐसा
नहीं जानता । स्वयंप्रकाश आस्मा में अज्ञान कहाँ से आया, ऐसी शङ्का मत कीजिये १ क्योंकि वह अनिर्वचनीय है । इसलिए उसके कारण के अन्वेषण में मत लगिये ! ॥ ६५ ॥
नाऽन्वेष्यं
चात्रकारणमित्युक्तं तत्कस्मादिति चोदिते
प्रत्याह । अन्वेषणाऽसहिष्णुत्वात् । तत्कथमित्याह - सेयं भ्रान्तिर्निरालम्बा सर्वन्यायविरोधिनी । सहते न विचारं सा तमो यद्वद् दिवाकरम् ॥ ६६ ॥
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भाषानुवादसहिता 'इसमें कारणका अन्वेषण मत करो।' ऐसा कहा गया। इसपर यदि कोई प्रश्न करे कि क्यों नहीं करें ? तो इसका उत्तर यह है कि वह अशान ( भ्रान्ति ) अन्वेषणको सहन नहीं कर सकता। सो कैसे ? यह बतलाते हैं--
जो यह आत्मस्वरूपकी विस्मृतिसे विपरीत भ्रान्ति हुई है, वह लोकसिद्ध पदा. के सदृश कारणवाली नहीं है। अतएव उचित अालम्बनसे रहित है। समस्त युक्तियोंसे विरुद्ध है। इसलिए जैसे अन्धकार सूर्यको नहीं सह सकता, उसी प्रकार यह भी विचारको सहन नहीं कर सकती [अर्थात् विचार करनेपर वह एकदम ही निवृत्त हो जाती है । ] ॥ ६६ ॥
तस्याः खल्वस्या अविद्याया भ्रान्तेः सम्यग्ज्ञानोत्पत्तिद्वारेण निवृत्तिः।
बुभुत्सोच्छेदिनी चाऽस्य सदसीत्यादिना दृढम् । प्रतीचि प्रतिपत्तिः स्यानासौमानान्तराद् भवेत् ॥ ६७ ॥
पूर्वोक्त इस अविद्यारूप भ्रान्तिकी निवृत्ति तत्त्वज्ञानका उदय होने से ही होती है, अन्य किसी साधनसे नहीं। और सर्वविध संशयोंको दूर करनेवाला-'तू वही है' इस प्रकारका दृढ़ तत्त्वज्ञान 'तत्वमसि' इत्यादि वेदान्तवाक्योंसे ही हो सकता है, प्रमाणान्तरसे नहीं ॥ ६७ ॥
कथं पुनर्वाक्यं प्रतिपादयत्येवेति चेत्, दृष्टान्तोक्तिःजिज्ञासोदेशमं यद्वन्नवातिक्रम्य ताम्यतः। त्वमेव दशमोऽसीति कुर्यादेवं प्रमां वचः ॥ ६८ ॥
जो ज्ञान प्रमाणान्तरसे नहीं हो सकता, उसको वाक्य कैसे उत्पन्न कर सकता है, ऐसा यदि कहो तो, इसमें दृष्टान्त देते हैं
जैसे, नौ आदमियोंसे अतिरिक्त दशवेको ढूँढने में परेशान हुए पुरुषको 'दसवाँ तू है' यह वाक्य यथार्थ ज्ञानका उत्पन्न करदेता है, वैसे ही 'तत्त्वमसि' इत्यादि वाक्य जिज्ञासुपुरुषको यथार्थ ज्ञान करा देता है । ॥ ६८ ॥
सा च तत्त्वमस्यादिवाक्यश्रवणजा प्रमोत्पन्नत्वादेव । न च नैवमिति प्रत्ययान्तरं जायते । तदेतद् दृष्टान्तेन प्रतिपादयति
दशमोऽसीति वाक्योत्था न धीरस्य विहन्यते ।
आदिमध्यावसानेषु न नवस्वस्य संशयः॥ ६९ ॥ १डा, ऐसा पाठ भी है।
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१२०
नैष्कर्म्यसिद्धि:
एवं तच्चमसीत्यस्माद् द्वैतनुत्प्रत्यगात्मनि । सम्यग्ज्ञातत्वमर्थस्य जायेतैव प्रमा दृढा' ॥ ७० ॥
'तत्त्वमसि' इत्यादि वेदान्तवाक्यके श्रवण से होनेवाला ज्ञान यथार्थ हो है । क्योंकि वह समस्त तप्रत्ययों को बाधित करके उत्पन्न हुआ है और उसके उदय होने के श्रनन्तरं उसका बाधक ज्ञानान्तर ( दूसरा ज्ञान ) उत्पन्न होता हुआ नहीं दिखाई पड़ता । इसी बातका दृष्टान्त द्वारा प्रतिपादन करते हैं-
'मैं दशम हूँ' इस ज्ञानके उत्पन्न होनेके पूर्व, अथवा उस समय में, या उत्तरकालमें गणना करनेवाले पुरुषको नौ प्रादमियों के विषय में संशय न होनेसे 'दशम तू है' इस वाक्यसे 'मैं दशम हूँ !' इस प्रकारका ज्ञान जैसे दृढ़ हो जाता है । वैसे ही जिस पुरुषकों 'त्वम्' पदार्थका ज्ञान भली प्रकारसे हुआ है, उसको 'तत्वमसि' इत्यादि वाक्यसे, समस्त द्वैतको बाधित करनेवाला, प्रत्यगात्माका यथार्थज्ञान दृढ़ होता ही है ॥ ६६७० ॥
प्रत्यागात्मनि प्रमोपजायत इत्युक्तम् । तत्र चोद्यते । किं यथा घटादिप्रमेयविषया प्रमा कर्तादिकारकमेदाऽनपह्नवेन जायते तथैव उताsशेषकारक ग्रामोपमर्दन कर्तुः प्रत्यगात्मनीति, उच्यते-
प्रत्यक्ताऽस्य स्वतोरूपं निष्क्रियाकारकाफलम् । अद्वितीयं तदिद्धा धीः प्रत्यगात्मेव लक्ष्यते ॥ ७१ ॥
प्रत्यगात्माका यथार्थज्ञान होता है, यह बात कही गई इसपर ऐसी शङ्का होती है कि जैसे घटादि पदार्थोंका यथार्थ ज्ञान कर्त्ता, करण, कर्म इत्यादि पदार्थोंके भेदको बाधित न करता हुआ उत्पन्न होता है । आत्मज्ञान भी वैसे ही उत्पन्न होता है अथवा सम्पूर्ण द्व ैतको बाधित करके उत्पन्न होता है ? इसका उत्तर देते हैं ---
इस श्रात्माका जो प्रत्यक्त्व अर्थात् चैतन्य सर्वान्तर-स्वरूप है, वही निष्क्रिय, कारक और फल, अद्वितीय आत्माका वास्तविक स्वरूप है । इससे इतर जो है, वह सब विद्या आरोपित है । जत्र आत्माका वास्तव में ऐसा स्वरूप है, तब उसका जो ज्ञान है वह भी आत्मस्वरूपसे व्यास होकर वैसा ही होता है, अर्थात् आत्मज्ञान समस्त प्रमाता, प्रमाण, प्रमेय, प्रमा, इत्यादि द्वत प्रपञ्चका नाश करके ही उदय होता है ॥ ७१ ॥
१ जायते वै प्रमा डढा, ऐसा पाठ भी है ।
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भाषानुवादलहिता
यस्मादेवम्-
विपश्चितोऽप्यस्वस्यामात्मभावं वितन्वते । 'दवीयः स्विन्द्रियार्थेषु क्षीयते ह्युत्तरोत्तरम् ।। ७२ ।।
जब कि ऐसा है अर्थात् चिदाभास द्वारा चैतन्यके साथ तादात्म्य होनेसे हो बुद्ध्यादिमें प्रत्यक्त्व है, स्वाभाविक नहीं । इसी कारण विद्वान् लोग भी व्यवहार कालमें उसी बुद्धि में श्रात्मवकी आन्तिमें पड़ते हैं । इसीसे बुद्धिमें चैतन्याभासानुविद्धत्व है, यह प्रतीत होता है और बुद्धिसे दूर रहनेवाले शरीरादि बाह्य पदार्थों में उत्तरोत्तर श्रात्मभ्रान्तिकी विरलता देख पड़ती है । [ इसलिए भी बुद्धिमें चैतन्याभास अनुविद्ध है, यह जाना जाता है । ]
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आह । यदि वाक्यमेव यथाभूतार्थावबोधकमथ कस्य हेतोरविद्योत्थापितस्य कर्तृत्वादेरुपदेश इत्युक्ते प्रतिविधीयतेभ्रान्तिप्रसिद्ध्याऽनूद्यार्थं तत्तत्त्वं भ्रान्तिबाधया । अयं नेत्युपदिश्येत तथैवं तत्त्वमित्यपि ॥ ७३ ॥ इसपर कोई शङ्का करता है कि यदि 'तत्त्वमसि' इत्यादि वाक्य ही श्रात्माके यथार्थं स्वरूपको बोधन करता है, तो फिर श्रुति किस कारण से अविद्या प्रयुक्त कर्तृत्वादिधर्मो उपदेश करती है ? इसका उत्तर देते हैं
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यह क्या स्थाणु है, किंवा पुरुष है, इस प्रकारका सन्देह, अथवा यह पुरुष ही है, ऐसा विपरीत : निश्चय जिस विषयमें हुआ है, वहाँपर भ्रान्तियुक्त पुरुष - प्रसिद्धिका -अनुवाद करके 'जो यह पुरुष देख पड़ता है, वह स्थाणु है, पुरुष नहीं ।' इस प्रकार श्रारोपित पुरुषाकारको बाध करके पुरोवर्ती वस्तुके स्वरूपका जैसे उपदेश दिया जाता है। वैसे हो अविद्यासे आरोपित कर्तृत्व, भोक्तृत्वादिका अनुवाद करके, उस आरोपित रूपका ICTE करके जीवका यथार्थ स्वरूप बोधन किया जाता है ॥ ७३ ॥
इममर्थ दृष्टान्तेन बुद्धावारोपयति
स्थाणुः स्थाणुरितीवोक्तिर्न नृबुद्धिं निरस्यति । अनुवादात्तथैवोक्तिभ्रान्ति पुंसो न
इसी बातको व्यतिरेक दृष्टान्तसे बुद्धिमें श्रारूढ़ कराते हैं
जैसे आरोपित पुरुषाकारका अनुवाद न करनेसे विरोध प्रतीत न होनेके कारण
१ दवीयसेन्द्रि०, ऐसा पांठ भी है ।
२ यथैवं, ऐसा पाठ भी है ।
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बाधते ॥ ७४ ॥
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नैष्कभ्यसिद्धि 'यह स्थाणु है। 'स्थाणु है' केवल ऐसी उक्ति पुरुष बुद्धिको नहीं निवृत्त कर सकती। वैसे ही 'वह तू है। केवल इतना ही कहनेपर, यदि विरुद्धाकारका अनुवाद न किया जाय तो, संसारित्वका निराकरण भी स्पष्ट नहीं होगा ॥ ७४ ॥
यस्माच्छोत्प्रसिद्धानुवाद्येव त्वमिति पदं तस्मादुद्दिश्यमानस्थत्वात् दुःखित्वादेरविवक्षितत्वमेव । विधीयमानत्वे हि सति विरोधप्रसङ्गो न तु विधीयमानानूद्यमानयोरिति । स्वप्रधानयोहिँ पदयोर्विरोधाशङ्कासामान्यालिङ्गितत्वात्तयोर्न विपर्यये । .
अनालिङ्गितसामान्यौ न जिहासितवादिनौ । व्युत्थितौ तत्त्वमौ तस्मादन्योन्याभिसमीक्षणौ ॥७५॥ .
[ यदि कोई ऐसी शङ्का करे कि 'संसार जिसमें प्रत्यक्षसे अनुभूयमान है उस जीवकी असंसारी ब्रह्मके साथ एकता कैसे होगी ? तो उसका यह उत्तर है कि ब्रह्मरूपता विधान करनेके लिए केवल 'स्वम्' पदार्थका अनुवादमात्र कर रहे हैं, विधान नहीं करते।
.. चूँकि विधान नहीं है, केवल श्रोतृप्रसिद्धिका अनुवाद ही त्वं पदसे किया है. इस कारण उद्दिश्यमान त्वम् पदार्थ में रहनेवाला दुःखित्वादिरूप संसार विवक्षित नहीं है। यदि वह विधीयमान होता, तब विरोध प्रसङ्ग होता। विधीयमान और अनूद्यमानका तो. कोई विरोध नहीं है। यदि दोनों पद स्वप्रधान हों तब विरोधकी शङ्का होती है। क्योंकि जैसे गौ अश्व है, इत्यादि प्रयोगों में गोपद-वाच्य तथा अश्वपद-वाच्य गोत्व एवं अश्वन्व सामान्यका परित्याग न होनेसे दोनों पदोंका एकार्थबोधकस्वरूप सामान्याधिकरण विरुद्ध होता है। दोनों ही अपने-अपने सामान्य धर्मोंसे युक्त हैं । जहाँ इसका वैपरीत्य है अर्थात् एक अप्रधान ( अङ्गरूप ) और दूसरा प्रधानरूप (अङ्गी) है, वहाँ विरोध नहीं होता, इसी बातको कहते हैं
__ जिन्होंने सामान्य अर्थात् दुःखित्व, अदुःखित, परोक्षत्व, अपरोक्षत्वरूप धर्मोंका परित्याग किया है अर्थात् जिनमें ये अविवक्षित हैं, उन 'तत् त्वम्' पदार्थों का कोई विरोध नहीं है। वे दोनों पद अखण्ड अद्वितीय वाक्यार्थ में तात्पर्य होने के कारण जिहासित अर्थात् परित्याग करनेके लिए इष्ट जो परोक्षत्व, सद्वितीयत्व और परिच्छिन्नस्वादि हैं उनका बोध नहीं करते। क्योंकि वे परस्परंके अनुरोवसे अपने अपने वाच्यार्थसामान्यरूपसे व्युत्थित हैं अर्थात् परस्पर विरुद्ध अंशको परित्याग करके अविरुद्ध अंशमात्रमें व्यवस्थित हैं। अतएव कोई विरोध नहीं है ॥ ७५ ॥
अन्योन्याभिसमीक्षणात् । ऐसा पाठ भी है।
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भाषानुवादसहिता
१२५
अपास्तसामान्यार्थत्वादनुवादस्थत्वाद्विधीयमानेन च सह विरोधादुःखित्वादेरस्तु कामं जिहासितार्थयोरसंसर्गे यथोपन्यस्तदोषविरहात्तत्वमर्थयोः संसर्गोऽस्तु नीलोत्पलवदिति चेन्नैवमप्युपपद्यते । तस्मात् —
तदर्थयोस्तु निष्टात्माद्वयपारोक्ष्यवर्जितः
1
नाऽद्वितीयं विनाऽऽत्मानं नात्मा नित्यदृशा विना ॥ ७६ ॥
शङ्का - परोक्षस्त्र, सद्वितीयत्वरूप वाच्यार्थ सामान्य है, इस कारण परित्यक्त है और दुःखिस्वादि श्रनूद्यमान त्वंपदार्थ में रहनेवाला एवं विधीयमान तत् पदार्थ के साथ विरुध है । इसलिए दोनों वाच्यार्थीका सम्बन्ध न होनेपर भी 'नील कमल के समान' दोनों लक्ष्यार्थीका परस्पर सम्बन्ध ही वाक्यार्थ क्यों नहीं होता ?
समाधान- यह भी उपपन्न ( युक्त) नहीं। क्योंकि, जो तत्पदार्थ और स्वम्पदार्थ लक्षणभूत हैं, उनका पर्यवसानत्वरूप जो आत्मा है वह द्वत तथा परोक्षता से रहित, केवल खण्डस्वरूप है । तत्र नील और उत्पलके सहरा भेद प्रतीत न होनेपर 'संसर्ग' वाक्यार्थ कैसे हो सकता है । श्रद्वितीय तत्पदलक्ष्य ब्रह्म प्रत्यगात्मा के बिना स्वरूपको प्राप्त नहीं होता । वैसा होनेसे द्वितीय ही नहीं होगा । ऐसे ही स्वपदलक्ष्य श्रात्मा भी तत्पदलक्ष्य नित्य-सिद्ध चैतन्यज्योति के बिना स्वरूपको प्राप्त नहीं होता । वैसा होनेसे निष्यं श्रपरोक्ष चित् रूपता नहीं बनती। इस प्रकार जब भेद प्रतीत नहीं होता, श्रतएव तत्त्वम् पदकी खण्डार्थता है ॥ ७६ ॥
.
अत्राह । किमिह जिहासितं किं वोपादित्सितमिति ? उच्यते । प्रत्यगात्मार्था' विधायिनस्त्वं पदादुभयं प्रतीयतेऽहं दुःखी प्रत्यगात्मा च । तत्र च प्रत्यगात्मनोऽहं दुःखीत्यनेनाभिसम्बन्ध आत्मयाथात्म्यानवबोधहेतुक एव । अतोऽहमर्थोऽनर्थोपसृष्टत्वादज्ञानोत्थत्वाच्च हेय इति प्रत्यक्षतोवसीयते । तदर्थे किं हेयं किं वोपादेयमिति नावधियते । तत इदमभिधीयते ।
पारोक्ष्यं यत्तदर्थे स्यात्तद्धेय महमर्थवत्
प्रतीचे वाऽहमभेदः पारोक्ष्येणात्मनोऽपि मे ॥७७॥
इसपर कोई शङ्का करते हैं कि 'जब स्वम्पद शुद्ध आमाका प्रतिपादक है, इसमें स्यागने योग्य तथा ग्रहण करने योग्य अंश कौनसे हैं ? इसका उत्तर देते
१ अर्थविधायिनः । ऐसा पाठ भी है।
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१२४
नैष्कर्म्यसिद्धिः
हैं कि त्वं पद केवल शुद्ध आत्माका ही प्रतिपादक नहीं है, किन्तु प्रत्यगात्मप्रतिपादक त्वं पदसे दोनों प्रतीत होते हैं -- दु:खित्वादि धर्मविशिष्ट श्रहङ्कार और प्रत्यगात्मा । इसपर भी कोई कहता है कि - "यदि त्वं पदसे दोनोंकी प्रतीति होती है तब दोनों ही उपादेय होने चाहिए, क्यों इनमेंसे एकको उपादेय और दूसरेको हेय बतलाते हो ? यदि किसीको हेय बनाना हो चाहिए, ऐसा हो आग्रह हो, तब आत्मांशको ही हेय और दुःखस्वांशको हो उपादेय क्यों नहीं मानते हो ?” इसका उत्तर यह है कि शुद्ध श्रात्माको दुःखित्वादि विशिष्ट श्रहङ्कारसे जो सम्बन्ध हुआ है वह श्रात्मस्वरूप के यथार्थ ज्ञान न होनेसे, केवल अज्ञानसे, ही हुआ है । अतएव अहङ्कार ही अनर्थका कारण है और अज्ञान से उत्पन्न होनेसे असत्य भी है । इसलिए वही हेय है, ऐसा प्रत्यक्ष से जाना जाता है । किन्तु तत्पदार्थ में कौन ग्रंश हेय है और कौन अंश उपादेय है, यह अभी तक नहीं 'जाना। इसलिए उसका निर्णय करनेके लिए यह कहते हैं----
1
तत्पदार्थ में जो परोक्षता है वह अहङ्कारकी तरह त्यागने योग्य है । क्योंकि जैसे प्रत्यगात्मा के साथ श्रहङ्कारका भेद अज्ञानसे ही हुआ है, वैसे ही साक्षीस्वरूप परमात्मा का भी परोक्षता के साथ अभेद अज्ञानकृत ही है, अतएव परोक्षत्वांश हेय है ॥ ७७ ॥
कथं पुनस्तदर्थोऽद्वितीयलक्षणः प्रत्यगात्मोपाश्रयं सद्वितीयत्वं दुःखित्वं निरन्वयमपनुदतीति ? उच्यते । न चैतयोनिवर्तक निवर्त्य भावं वयं ब्रूमः । कथं तर्हि ? त्वमर्थे प्रत्यगात्मनि प्रागनवबुद्धाद्वितीयता सानेनाsaatध्यते । अतोऽनवबोधनिरासेन तदुत्थस्य सद्वितीयत्वस्य त्वमर्थ - स्थस्य परोक्षत्वस्य च तदर्थस्थस्य निरसनान्न वैयधिकरण्यादिचोद्यस्यासरोऽस्तीति । तदिदमभिधीयते-
तत्त्वमर्थेन संपृक्तो' नानात्वं विनिवर्तयेत् ।
नाsपरित्यक्तपारोक्ष्यं त्वं तदर्थ सिसृप्सति ॥ ७८ ॥
शङ्का -- तत्पदार्थ के साथ अभेद होनेसे त्वंपदार्थ में वर्तमान दुःखित्वादि धर्म हेय है, ऐसा आपने बतलाया । परन्तु यह ठीक नहीं है । क्योंकि, तत्पद त्वंपदार्थका श्रवबोधक न होनेसे त्वंपदार्थ में श्रारोपित संसारका निवर्त्तक नहीं हो सकता । क्योंकि ऐसा कहीं देखने में नहीं आता कि शुक्ति के ज्ञानसे रज्जुमें सर्पभ्रम नष्ट हो जाता हो। और यदि 'तत्' पद मी 'स्वम्' पदार्थका अवबोधक है, ऐसा कहा जाय, तब पौनरुक्तय, बुद्धिसङ्कर, पदान्तर- वैयर्थ्य, इत्यादि दोष उपस्थित होंगे ?
१ संपृक्तौ, ऐसा पाठ भी है ।
२ नापरित्यज्य, ऐसा पाठ भी है ।
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भाषानुवादसहिता
१२५
समाधान — हम खंपद और तत्पद अथवा इनके जो अर्थ हैं, उनका साक्षात् निवर्त्यनिवर्त्तक भाव है, ऐसा नहीं कहते, किन्तु त्वंपदार्थ में तत् शब्दसे श्रद्वितीय ब्रह्मरूपता का विधान करने से उसका ज्ञान निवृत्त हो जाता है । इसलिए ज्ञान के निराससे अज्ञानजनित त्वंपदार्थनिष्ठ सद्वितीयत्व तथा तत्पदार्थनिंष्ठ परोक्षत्वका निरास होता है । अतएव पूर्वोक्त दोषकी आशङ्का नहीं करनी चाहिए । इन्हीं सब बातों का प्रतिपादन करते हैं
तत्पदार्थ संपदार्थ के साथ अभेदसे मिलनेपर त्वंपदार्थके नानात्वको निवृत्त कर देता है । ऐसे ही त्वंपदार्थ भी तत्पदार्थ के परोक्षत्वरूप विरुद्ध धर्मका निवर्त्तन किये बिना तत्पदार्थ के साथ अभिन्न नहीं होता । इसीलिए स्वपदार्थ के अभेदसे तत्पदार्थ की परोक्षता निवृत्त हो जाती है ॥ ७८ ॥
कस्मात्पुनः कारणात्तदर्थोऽद्वितीयलक्षणस्त्वमर्थेन प्रत्यगा मना 'पृथगर्थः सन्नविद्योत्थं सद्वितीयत्वं निहन्तीति । उच्यते । विरोधात् । तदुच्यते
संसारिताऽद्वितीयेन पारोक्ष्यं चात्मना सह । प्रासङ्गिकं विरुद्धत्वात्तत्त्वंभ्यां बाधनं तयोः ॥ ७९ ॥
शङ्का - 'तत्वमसि' आदि वाक्यका जीव ब्रह्म के एकत्व प्रतिपादनमें ही तात्पर्य हैदुःखित्वादि निवृत्त में नहीं है । यदि दुःखित्वादि निवृत्ति में भी तात्पर्य माना जाय, तब वाक्यभेद हो जायगा दो तार्य होनेसे वाक्यभेद दोष शास्त्रकारोंने माना है श्रतएव यह जो कहते हो कि अद्वितीय तत्पदार्थ त्वंपदार्थ - प्रत्यगात्मा साक्षी से श्रभेदको प्राप्त होकर श्रविद्या-जनित सद्वितीयत्वका निवर्त्तक होता है, यह बात ठीक नहीं है ?
1
समाधान -- तत्वमसि, इत्यादि वाक्यका तात्पर्य विषय जो जीव और ब्रह्म का ऐक्य है, उसके साथ विरोध होने के कारण दुःखित्वादिकी भी निवृत्ति हो जाती है। वही कहते हैं
अद्वितीयत्व के साथ संसारित्व विरुद्ध है तथा अपरोक्ष श्रात्मा के साथ परोक्षत्व. विरुद्ध है । इस प्रकारसे दोनोंका प्रतिपाद्य अद्वितीयत्व और प्रत्यक्त्वके साथ विरोध. रहने से ऐक्यपरक तत्पद और संपदसे दोनोंका बाध स्वभावतः हो जाता है अर्थात् अपने आप विरुद्ध धर्मोकी निवृत्ति हो जाती है ॥ ७६ ॥
तत्त्वमर्थयोस्तु बाधकत्वेऽन्यदपि कारणमुच्यते-
१ पृथगर्थः, ऐसा पाठ भी है
1,
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१२६
नैष्कयैसिद्धिः
अज्ञात पुरुषार्थत्वाच्छ्रौतत्वात्तत्त्वमर्थयोः स्वमर्थ परित्यज्य बाधको 'स्तां विरुद्वयोः ॥ ८० ॥
संसारित्व और परोक्षत्वरूप धर्मोंका विरोध होने के कारण यदि तत् स्वं पदार्थ से बाघ होता है, फिर विरोध समान होनेसे विपरीत ही क्यों नहीं होता अर्थात् तत् स्वं पदार्थका ही बाघ क्यों नहीं होता ? इस श्राशङ्का को दूर करनेके लिए तत् स्वम् पदार्थ ही बाधक होते हैं, इस विषय में और भी कारण बतलाते हैं-
तत् पदार्थ और स्वम् पदार्थका ऐक्य प्रमाणान्तर से अज्ञात है तथा ज्ञात होनेसे मुक्तिरूप फलको देता है, इसलिए वह श्रुतिके तात्पर्यका विषय है । परोक्षत्व तथा संसारिश्व पूर्वोक्त प्रकारसे ज्ञात अथवा पुरुषार्थरूप नहीं है, इसलिए श्रुतिका उनके ara तार्य नहीं है । इसीलिए तत्त्वं पदार्थ ही अपना विशेषण विशेष्यभावरूप अर्थका परित्याग न करके विरोधीभूत परोक्षत्व, दुःखित्वादिके बाधक होते हैं ॥ ८० ॥
एवं तावद्यथोपक्रान्तेन प्रक्रियावर्त्मना न प्रत्यक्षादिप्रमाणान्तरैर्विरोधगन्धोऽपि सम्भाव्यते । यदा पुनः सर्वप्रकारेणाऽपि यतमाना नैवेमं वाक्यार्थ सम्भावयामः प्रत्यक्षादिप्रमाणान्तरविरोधत एव । तस्मिन्नपि पक्ष उच्यते
प्रत्यक्षादिविरुद्ध चेद्वाक्यमर्थं वदेत्कचित् ।
स्यात्तु तद् दृष्टिविध्यर्थं योषाऽग्निवदसंशयम् ।। ८१ ।। इस प्रकार पूर्वी प्रकिया के मार्ग से प्रत्यक्षादि प्रमाणान्तरसे विरोधका लेश भी सम्भावित नहीं होता । यदि प्रत्यक्षादि प्रमाणान्तरसे विरोध है, ऐसा ही मान कर सब प्रकारसे यत्न करनेपर भी प्रखण्ड वाक्यार्थकी सम्भवना नहीं ही हो सकती, ऐसा ही आपका हठ हो तो उस प्रक्ष में भी कोई क्षति नहीं है । यह कहते है -
यदि वाक्य कहीं पर प्रत्यक्षादि विरुव अर्थका प्रतिपादन करे, तब वह वाक्य निःसंशय उपासना विधानार्थ होगा । जैसे कि 'स्त्री अग्नि है' यह वाक्य स्त्रां में अग्निं. बुद्धिका विधान करने के लिए है। क्योंकि यह वाक्य प्रत्यक्षादि प्रमाणोंसे विरुदूध है । ऐसा प्रकृत मान लेने से 'तत्त्वमसि' इत्यादि वाक्य की वस्तुनिष्ठता का परित्याग करके दृष्टि के विधान के लिए यह वाक्य है, ऐसा मानना पड़ेगा ॥ ८१ ॥
यदा तु तत्त्वमस्यादिवाक्यं सर्वप्रकारेणापि विचार्यमाणं न क्रियां कटाक्षेणाऽपि वीक्षते, तदा प्रसङ्ख्यानादिव्यापारो दुःसम्भाव्य इति । तदुच्यते
१ बाधकौ स्तः, ऐसा पाठ भी है।
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भाषानुवादसहिता
१२७ वस्त्वेकनिष्ठ वाक्यं चेन तस्य स्याक्रियार्थता । वस्तुनो ह्येकरूपत्वाद्विकल्पस्याप्यसम्भवः ॥ ८२ ॥
जब कि उपक्रम, उपसंहारादि षडविध तात्पर्य-निर्णायक लिङ्गसे विचार करके प्रयत्नसे देखनेपर भी तत्वमस्यादि वाक्य क्रियापर है, ऐसी सम्भावना तक नहीं होती, तब यह वाक्य उपासना-विधिपरक है, यह कहना अत्यन्त असम्भावित है, वही कहते हैं
वाक्य यदि केवल वस्तुपरक है, तब वस्तु, जो जीव-ब्रह्मका ऐस्य है, वह कूटस्थ होनेसे क्रियासाध्य नहीं हो सकता। क्योंकि कूटस्थ होनेसे ही वह नित्यसिद्ध है। और वह उपासनादि क्रियासाध्य है, ऐसा विकल्प भी नहीं हो सकता। अतएव यह वास्य प्रसङ्ख्यानका अर्थात् उपासनाका विधायक नहीं है ॥२॥
भिन्नविषयत्वाच न प्रमाणान्तरविरोधः । कथम् । उच्यते-- .
अपूर्वाधिगमं कुर्वत् प्रमाणं स्यान्न चेन तत् । .. न विरोधस्ततो युक्तो विभिन्नार्थावबोधिनोः ॥ ८३ ॥
[प्रमाणान्तरके साथ विरोध है, ऐसा मान लेनेपर भी उसका परिहार कहा, अब यह कहते हैं कि-1 दोनोंका ( वाक्य और प्रत्यक्षका) विषय भिन्न-भिन्न है, इसलिए भी प्रमाणान्तरके साथ विरोध नहीं है । क्यों नहीं है ? यह बतलाते हैं
अन्य प्रमाणसे अज्ञात 'अर्थको कहनेवाला ही प्रमाण । प्रमाण माना जाता है । यदि प्रमाण अज्ञात अर्थका बोध न करके ज्ञात अर्थका ही बोध करे तब वह अनुवादककी तरह प्रमाण नहीं हो सकेगा। इसलिए प्रत्यक्ष और वाक्य इन दोनों प्रमाणोंका विषय परस्पर भिन्न ही है, ऐसा मानना चाहिए । तब भिन्न-भिन्न अर्थोका बोध करानेवालोंका परस्पर विरोध कैसे होगा ? अर्थात् विरोध नहीं हो सकता ॥ ८३ ॥
य एवमपि भिन्नविषयाणां विरोधं वक्ति सोऽत्रापि विरोध ब्रूयात्
नाऽयं शब्दः कुतो यस्माद्रूपं पश्यामि चक्षुषा । इति यद्वत्तथैवाऽयं विरोधोऽक्षजवाक्ययोः ॥ ८४ ।।
जो इस प्रकार भी ( इतना समझनेपर भी) भिन्न-विषयवाले प्रत्यक्ष और वाक्य इन दोनोंका परस्पर विरोध है, ऐसा कहता है वह वादो तो ऐसे स्थलोंमें भी विरोध कह सकता है, जैसे कि-'यह शब्द नहीं है। क्योंकि मैं चक्षुसे रूपको देखता हूँ' अर्थात् ऐसे स्थलमें रूप-ग्राहक चक्षु एवं शब्द-ग्राहक श्रोत्रमें जैसे विरोध नहीं हो सकता। ऐसे ही प्रकृत स्थल में भी विरोध नहीं है ॥८४ ॥
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नैष्कर्म्यसिद्धिः
प्रामाणानां सतां न विरोधः श्रोत्रादीनामिव भिन्नविषयत्वात् । ययोश्चाऽभिन्नविषयत्वं तयोराखुनकुलयोरिव प्रतिनियत एव वाध्य - वाधकभावः स्तात् । अतस्तदुच्यते
प्रत्यक्ष चेन्न शाब्दं स्याच्छाब्दं चेदक्षजं कथम् । प्रत्यक्षाभासः प्रत्यक्षे ह्यागमाभास आगमे ॥ ८५ ॥
१२८
शङ्का —-कहीं प्रत्यक्ष अनुमानसे बाधित होता है । जैसे --'सैवेयं ज्वाला' यहाँपर
ज्वालाका ऐक्य प्रत्यक्ष अनुमानसे बाधित होता है। ऐसे ही 'न हिंस्यात्सर्वा भूतानि' यह
:
वाक्य 'अग्नीषोमीयं पशुमालमेत' इस वाक्यसे बाधित होता है । तत्र प्रमाणका विरोध नहीं है, यह बात कैसे कह सकते हैं ?
I
।
समाधान-जहाँ दोनों प्रमाण एक ही विषयमें भिन्नरूपताका बोध कराते हैं, वहाँपर उनका बाध्य बाधकभाव होनेपर भी दोनों प्रमाण नहीं, किन्तु एक ही प्रमाण है । जो बाधित हुआ है वह प्रमाण है जहाँ दोनों प्रमाण हैं वहाँ उनका विरोध ही नहीं है । क्योंकि श्रोत्रादिके समान दोनों के विषय हो भिन्न हैं । और जहाँ दोनोंका विषय एक है वहाँ चूहा और नकुलके समान बाध्य बाधक भाव व्यवस्थित है, विपरीत " नहीं होता । यह कहते हैं
।
जो वस्तुत: प्रत्यक्ष प्रमाण से सिद्ध है, वह शब्द प्रमाण से बाधित भी नहीं होगा किंवा बोधित भी नहीं होगा । इसलिए वह शब्द - प्रमाणक नहीं है है वह प्रत्यक्ष से बाधित भी नहीं होता किंवा बोधित भी नहीं होता
1
। जो शब्दप्रमाणक
। इसलिए प्रमाणका
।
कोई विरोध नहीं है । जिनमें बाध्य बाधकभाव रहता है, उन दोनोंमें एक ही प्रमाण . है, दूसरा प्रमाण है जैसे- 'यह शुक्ति है, ऐसा प्रत्यक्ष प्रमाण मानने पर 'यह रजत है' ऐसा प्रत्यक्ष ज्ञान प्रमाण होता है। ऐसे ही एक विषय में शब्द प्रमाण मान लिया गया तो वहाँ उसका विरोधी दूसरा शब्द प्रमाणाभास हो जाता है । इस प्रकारसे आगम और प्रत्यक्ष तथा प्रत्यक्ष और अनुमानका बाध्य बाधकभाव प्रसिद्ध है, अन्य प्रकार से नहीं ॥ ८५ ॥
न च प्रतिज्ञाहेतुदृष्टान्तन्याय इह सम्भवति शब्दादीनां प्रत्येकं प्रमाणत्वात् । अत आह—
स्वमहिम्ना प्रमाणानि कुर्वन्त्यर्थावबोधनम् । इतरेतरसाचिव्ये प्रामाण्यं नेष्यते स्वतः || ८६ ॥
यदि कोई कहे कि 'जैसे प्रतिज्ञा, हेतु और दृष्टान्त, ये परस्पर सापेक्ष, रहकर हौ बोध कराते हैं। वैसे ही प्रत्यक्ष और अनुमान में भी परस्परापेक्षा से ही बोधकता
די.
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भाषानुवादसहिता
૨
होनी चाहिए ?' तो यह कहना ठीक नहीं। क्योंकि प्रतिज्ञा आदि प्रमाणके अवयव हैं, इसलिए वहाँ परस्पर एक दूसरे की अपेक्षा रहती है । प्रत्यक्षादि तो स्वत: प्रमाण हैं, इसलिए उन्हें परस्परकी अपेक्षा नहीं है । यदि उनमें परस्परकी अपेक्षा से प्रामाण्य हो तब उनका स्वतः प्रामाण्य नष्ट हो जायगा ॥ ८६ ॥
प्रत्यक्षादिप्रमाणै
न च सुखदुःखादिसम्बन्धोऽवगत्यात्मनः गृह्यते, येन विरोधः प्रत्यक्षादिप्रमाणैरुद्भाव्यते । कथम् ? शृणुदुःखिताऽवगतिश्चेत्त्यान्न प्रमीयेत साऽऽत्मवत् । कर्मयेव प्रमा न्याय्या न तु कर्तर्यपि क्वचित् ॥ ८७ ॥
.
[ आमाका दुःखादिके साथ सम्बन्ध प्रमाणान्तर से गृहीत होता है, यह मानकर मी उसके साथ विरोध होनेसे 'तत्त्वमसि' आदि वाक्यका प्रामाण्य नष्ट नहीं होता, ऐसा पूर्व में कहा गया । अब यह कहते हैं कि - ] ज्ञानरूप आत्मा में सुख-दुःखादिका सम्बन्ध प्रत्यक्षादि प्रमाणोंसे गृहीत ही नहीं होता, जिससे प्रत्यक्षादिके साथ बेदान्तवाक्यके विरोध की शङ्का होती । यदि कहिए कि आत्मामें सुख दुःखादिका सम्बन्ध प्रत्यक्षादिसे कैसे नहीं गृहीत होता ? तो सुनिए—
यदि ज्ञानस्वरूप आत्मामें दुःखादि धर्म हैं, ऐसा मानोगे तब आत्माकी भाँति उनका भी ज्ञान नहीं होगा । क्योंकि धर्मीके ज्ञानके बिना 'धर्मका ज्ञान नहीं होता, ऐसा नियम है । धर्मीरूप आत्मा प्रमाका वियष कभी भी नहीं होता । क्योंकि प्रमामत्र ही कर्म अर्थात् ज्ञानसे भिन्न विषयको ग्रहण करता है, कर्तृ स्वरूपको ग्रहण नहीं करता । इसलिए कर्मकर्तृ विरोध प्रसङ्ग भी हो जायगा ८७ ॥
अभ्युपगमेऽपि च प्रसङ्ख्यानशतेनाऽपि नैव त्वं सम्भावितदोषान्मुच्यसे । अत आह---
प्रमाणबद्धमूलत्वाद् दुःखित्वं केन वार्यते । अग्न्युष्णवन्निवृत्तिश्चेन्नैरात्म्यं ह्येति सौगतम् ॥ ८८ ॥
[ पहले इस बातका निरूपण किया गया कि प्रमाणका विषय भिन्न-भिन्न है, एवं दुःखित्वादि, यदि आत्मा के धर्म हैं तो प्रमाणगम्य भी नहीं हो सकते । इसलिए प्रमाणान्तर के साथ विरोध न होनेसे वाक्य प्रसङ्ख्यानविधिपरक नहीं है । अत्र यह कहते हैं कि - ] दुःखादि धर्म आत्मा में प्रमाणसे जाने जाते हैं और उनके साथ विरोध होने से वाक्य भी प्रमङ्खयान विधिपरक है, ऐसा यदि मान भी लिया जाय तो भी सहस्रों प्रसङ्ख्याने —— ध्यानों श्रर्थात् उपासनाओ से भी दुःखरूप संसारबन्धन से आत्माका छुटकारा नहीं
१ प्रमाणैरुद्धाव्यते, ऐसा पाठ भी है।
१७
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नैष्कर्म्यसिद्धिः
हो सकता । अतः ऐसा मान लेनेसे भी निर्मोक्ष प्रसङ्ग दोषसे श्राप छूट नहीं सकते हो । इसलिए कहते हैं कि -
आत्मामें दुःखादिसंसार प्रमाणसे ही ज्ञात हुआ है, ऐसा मान लेनेपर दुःख आदि आत्मामें पारमार्थिक ही हैं, ऐसा कहना पड़ेगा । तब उनकी निवृत्ति किसी प्रकार से नहीं हो सकेगी। जैसे अग्निकी उष्णता अमिके रहते किसी प्रकार भी निवृत्त नहीं हो सकती। वैसे हो दुःखादि परिणाम परिणामी पदार्थके ( आत्मा ) अत्यन्त निवृत्त हुए बिना तो कदापि नहीं निवृत्त हो सकेंगे । अतः परिणामी - आत्माकी - भी निवृत्ति होती है, ऐसा मानो तो आत्माकी निवृत्ति हो जानेपर बौद्धाभिमत शून्यवादका प्रसङ्ग हो जाएगा ॥ ॥
अथ मतम् -
निराकुर्यात्प्रसङ्ख्यानं दुःखित्वं चेत्स्वनुष्ठितम् । प्रत्यक्षादिविरुद्धत्वात्कथमुत्पादयेत्प्रमाम्
यदि ऐसा कहिए कि 'दुःखादिको आत्मा के स्वरूपभूत भी मान लें तो भी उनकी निवृत्ति हो सकती है । क्योंकि ध्यान अच्छे प्रकार करनेसे वह दुःखिस्वादिसे विपरीत तत्त्वज्ञानको उत्पन्न करके दुःखादिको दूर कर सकता है ?' तो यह भी ठीक नहीं । क्योंकि प्रसङ्ख्यान अर्थात् चित्तकी एकाग्रतारूप ध्यान ( परिगणित प्रमाणों के मध्य में किसी भी प्रमाणके अन्तर्गत नहीं है । फिर भी, यदि इसको प्रमाण मान भी लिया जाय तो भी वह ) प्रत्यक्षादि विरोध होनेसे प्रमाका उत्पादन कैसे कर सकेगा ? ॥ ८६ ॥ ननु प्रसङ्ख्यानं नाम तत्त्वमस्यादिशब्दार्थान्वयव्यतिरेकयुक्तिविषयबुद्ध्याऽऽग्रेडनमभिधीयते तच्चानुष्ठीयमानं प्रमितिवर्द्धनया परिपूर्णा प्रमितिं जनयति न पुनरैकाय्यवर्धनयेति । यथाऽ शेषाशुचिनीडे स्त्रीकुणपे कामिनीति निर्वस्तुकः पुरुषायास मात्रजनितः प्रत्यय इति । तन्न । यतः
1168 11
अभ्यासोपचयाद् बुद्धेर्यत्स्यादैकाय्यमेव तत् ।
न हि प्रमाणान्यभ्यासात्कुर्वन्त्यर्थावबोधनम् ॥ ९० ॥
शङ्का - तस्वमस्यादि वेदान्तवाक्यसे प्रतिपाद्य अर्थका पुनः पुनः ज्ञान तथा श्रन्वयव्यतिरेक यु योंका जो बार-बार ज्ञान है, उसीको 'प्रसंख्यान' कहते है । वह प्रसङ्ख्यान दृढ़तर संस्कारो उत्पन्न करता हुआ प्रामतिको बढ़ाकर परिपूर्ण ज्ञानको उत्पन्न करता है, न कि केवल एकाग्रता को बढ़ाकर । जैसे सम्पूर्ण अपवित्रताओं की खान
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भाषानुवादसहिता
१३१ स्त्रीशरीरमें केवल पुरुषकी कल्पनामात्रसे श्रारोपित कामिनी, इस प्रकारका निस्तत्व ज्ञान होता है। .
समाधान-ऐसा मत कहिए ? क्योंकि
अभ्यासके बढ़नेसे बुद्धिमें जो कुछ विशेषता उत्पन्न होती है, वह एकाग्रता ही है । क्योंकि प्रमाणोंका अभ्यास करनेपर ही वे प्रमाण अर्थका अवबोधन नहीं करते ॥३०॥
अभ्यासोपचिता कृत्स्नं भावना चेन्निवर्तयेत् ।
नैकान्तिकी निवृत्तिः स्याद् भावनाजं हि तत्फलम् ।। ९१ ॥
इसपर ऐसी शङ्का होती है कि "अभ्याससे उत्पन्न हुई भावना सम्पूर्ण सांसारिक दुःखोंको दूर कर ब्रह्मरूपत्व प्राप्ति में कारण है। ऐसा श्रुप्तिमें लिखा है कि इस लोकमें पुरुष जैसी भावना करता है, मरनेके बाद वह वैसा ही होता है।" इसका समाधान यह है कि श्रुतिमें जो लिखा है वह सत्य हो है। परन्तु वह प्राप्ति श्रात्यन्तिक नहीं हो सकती । भावना से उत्पन्न होने के कारण अनित्य हो जाएगी। अतएव भावनाका फल उपास्यका साक्षात्कार होना ही है, न कि ऐकान्तिक और श्रात्यन्तिक दुःखकी निवृत्ति । अतएव वाक्य निरर्थक नहीं हुआ ॥ ११ ॥
अपि चाह--- दुःख्यस्मीत्यपि चेद् ध्वस्ता कल्पकोट्युपबृंहिता । स्वल्पीयोऽभ्यासना स्थास्न्वी भावनेत्यत्र का प्रमा ॥ ९२ ।। और भी इस विषयमें कहते हैं
अनादि कालसे, न जाने कितने कोटि कोटि कल्प व्यतीत हो चुके हैं तब से, प्रवृत्त हुई 'मैं सुखी हूँ', 'दुःखी हूँ' इत्यादि भावना यदि निवृत्तिको प्राप्त हो जाती है, तब फिर अल्पकालके अभ्याससे उत्पन्न हुई यह ब्रह्मभावना चिरस्थायिनी हो जाएगी, इसमें क्या प्रमाण है ? ॥ १२ ॥
ननु शास्त्रात्स्थास्नुत्वं भविष्यति ? नैवम् । यथावस्थितवस्तुयाथात्म्यावबोधमात्रकारित्वाच्छास्त्रस्य । न हि पदार्थशक्त्याधानकृच्छास्त्रम् । प्रसिद्धं च लोके
भावनाजं फलं यत्स्यायच्च स्यात्कर्मणः फलम् । न तत्स्थास्न्विति मन्तव्यं द्रविडेष्विव संगतम् ॥ ९३ ॥ इसपर ऐसी शङ्का उठ सकती है कि "न स पुनरावर्तते-वह उपासक १-स्वल्पीयाभ्यासजा, ऐसा पाठ भी है। २-संगतिः, ऐसा पाठ भी मिलता है।
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१३२ . .. नैष्कर्म्यसिद्धिः फिर से लौटता नहीं, इत्यादि शास्त्रप्रणाण के बलसे भावनाजनित फल भी नित्य हो सकता है " परन्तु यह ठीक नहीं। क्योंकि-शास्त्र जैसा पदार्थ है, उसी प्रकार उसके यथार्थ स्वरूपमात्रका बोधन करा देता है, न कि किसी वस्तु में एक नवीन बिलक्षण शक्तिको उत्पन्न कर देता है। और लोगों ने यह बात भी प्रसिद्ध है कि भावना ( सगुणोपासना) तथा कमसे जो फल उत्पन्न होता है, उसको द्रविड लोगोंकी मैत्रीके समान स्थिर नहीं मानना चाहिए ॥ ६३ ॥
यद्यपि प्रत्यक्षादिनमाणोपात्तमात्मनो दुःखित्वं तथापि तत्त्वमस्यादिवाक्योत्थप्रत्यय एव बलीयानिति निश्चयोऽव्यभिचारिप्रामाण्यवाक्योपात्तत्त्वात् प्रमेयस्य च स्वत एव निर्दुःखित्वसिद्धेः । प्रत्यक्षादेस्तु सव्यभिचारित्वात् सम्भावनायाश्च पुरुषपरिकल्पनामात्रावष्टम्भत्वाच्चेति ।
निर्दुःखित्वं स्वतःसिद्ध प्रत्यक्षादेश्च दुःखिता ।
को ह्यात्मानमनादृत्य विश्वसेद्वाह्यमानतः ।। ९४ ।। [पहले यह कहा गया कि प्रमाणोंका परस्पर विरोध न होनेसे दुःखित्वादि प्रमाणान्तरके योग्य नहीं हैं, इसलिए तत्त्वमस्यादि वाक्य प्रमाणान्तरके साथ विरोध न होनेसे प्रसङ्ख्यानपरक नहीं हैं । अब यह कहते हैं कि दुःखित्यादिको प्रत्यक्ष प्रमाणसे सिद्ध माननेपर भी हानि नहीं, किन्तु तत्त्वमत्यादि वाक्यजन्य ज्ञान ही प्रमाणान्तरसे सिद्ध अर्य का बाधक है-] यद्यपि आत्मामें दुःखादि प्रत्यक्षादि प्रमाण से सिद्ध है, तथापि तृत्वमस्यादि वाक्यजनित ज्ञान ही बलवान् है, ऐसा निश्चय यथार्थ है। क्योंकि वह निश्चय किसी काल में अप्रमाण नहीं हो सकता। क्योंकि वह वाक्यसे उत्पन्न हुआ है । और ज्ञान के विषयभूत आत्माकी निर्दु:खिता, स्वयम्प्रकाशमान होनेसे सुषुप्तिमें स्वतःसिद्ध है, इसलिए वह बलवान् है। और प्रत्यक्षादि प्रमाणों में दोषोंकी सम्भावना है। इस प्रकार सम्भावित दोषसे युक्त प्रत्यक्षादि प्रमाणोंका प्रामाण्य स्थिर रहता नहीं। इसीलिए प्रत्यक्षादि प्रमाणोंसे सिद्ध आत्मामें दुःख आदि केवल सम्भावनामात्रसे ही सिद्ध हैं, ऐसा कहना पड़ता है और सम्भावना केवल पुरुषकी कल्पनामात्रके जोरसे उत्पन्न होती है।
इसलिए वास्तवमें अात्मा दुःख आदि नहीं है, किन्तु निर्दु:खत्व ही स्वतःसिद्ध है। दु:ख श्रादि प्रत्यक्षादि प्रमाण से सिद्ध हैं । जो स्वयं सिद्ध है वही वास्तव है । तब कौन पुरुष अपने आत्माका अनादर करके बाह्यप्रमाणोंके ऊपर विश्वास करेगा? ॥ १४ ॥
सम्बन्धार्थ एव
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भाषानुवादसहिता
अपि प्रत्यक्षबाधेन प्रवृत्तिः प्रत्यगात्मनि ।
पराश्चि खानीत्येतस्माद् वचसो गम्यते श्रुतेः ।। ९५ ।। का ही प्रतिपादन करते हैं
१३३
पूर्वोक्त
प्रत्यक्षका बाघ करके श्रुति प्रत्यगात्माको बोधन करती है, यह बात 'पराश्चि खानि ' इत्यादि श्रुतिसे स्पष्ट सिद्ध होती है । अतएव श्रुति के सामने प्रत्यक्ष कुछ नहीं है ॥९५॥
अभ्युपगम्यैवमुच्यते न तु प्रमाणं सत्प्रमाणान्तरेण विरुद्धयत इत्यसकृदवोचाम । यत्राऽपि वाक्यप्रत्यक्ष योर्विरोधाशङ्का तत्राऽपि पुरुषमोहवशादेव सा जायते न तु परमार्थत इति । अत आह-मां चेज्जनयेद्वाक्यं प्रत्यक्षादिविरोधिनीम् | गौण प्रत्यक्षतां ब्रूयान्मुख्यार्थासम्भवाद् बुधः ॥ ९६ ॥
प्रत्यक्ष प्रमाणका श्रुति के साथ विरोध है, ऐसा मान कर उसका परिहार कहा गया । वस्तुतः यदि कोई भी प्रमाण है तो वह प्रमाणान्तर से विरुद्ध नहीं हो सकता, इस बातको हम बारबार पहले कह चुके हैं । जहाँ भी श्रुति और प्रत्यक्ष इन दोनोंके परस्पर विरोधकी प्रतीति होती है, वहाँपर भी वह प्रतीति पुरुषोंको मोहवशसे ही भासमान होता है । वात में विरोधकी शङ्का नहीं है । इसलिए कहते हैं---
यदि श्रुतिसे प्रत्यक्षादि प्रमाणोंसे विरुद्ध ज्ञान उत्पन्न होता है, तब विद्वान् पुरुषको कहना चाहिए कि 'मैं दुःखी हूँ' इस प्रकार जो प्रत्यक्षज्ञान होता है, वह गौण अर्थात् श्रन्तःकरण गत दुःखादिका ही श्रात्मामें प्रतिभास हो रहा है । क्योंकि स्वयमप्रकाश चैतन्यरूप आत्माका दुःखादिरूप परिणाम न होने से 'मैं दुःखी हूँ' ऐसा ज्ञान यथार्थ कैसे हो सकता है ? इसीलिए जीवको ब्रह्मरूप बतलानेवाले 'तत्त्वमस्यादि' वाक्य प्रत्यक्षका कोई विरोध नहीं है || ६६ ॥
तस्यार्थस्य सुखप्रतिपत्त्यर्थमुदाहरणम्
अग्निः सम्यraidsaौ जहासोच्चैश्च मञ्चकः ।
यथा तद्वदहंवृत्या लक्ष्यतेऽनर्हयाऽपि सः ॥ ९७ ॥
'मैं दुःखी हूँ' यह ज्ञान गौण है, इस बातको दृष्टान्त के द्वारा स्पष्ट करनेके लिए उदाहरण देते हैं-
यह अनि अच्छी तरहसे पढ़ता है, पलङ्ग खूब जोर से हँसा, इत्यादि प्रयोगो में जैसे अग्नि और पलङ्ग ये दोनों शब्द क्रमसे पढ़नेवाले विद्यार्थी और बालक या श्रन्य किसी पुरुषको लक्षणा द्वारा बोधन करते हैं । इसी प्रकार स्वयंप्रकाश चैतन्यका बोधन करने में समर्थ भी यह अहंवृत्ति लक्षणाद्वारा आत्माको ज्ञापन करती है ॥ ६७ ॥
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१३४
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नैष्कर्म्यसिद्धिः
कस्मात्पुनः कारणात्साक्षादेवात्मा नाभिधीयते किमनया
कल्पनयेति तत्राह -
त्वमित्येतद् विहायाऽन्यन्न वर्त्माऽऽत्मावबोधने । समस्तीह त्वमर्थोऽपि गुणलेशेन वर्तते ॥ ९८ ॥
इसपर यदि कोई शङ्का करे कि मुख्यवृत्तिसे आत्मा को बतलानेवाला कोई शब्द है या नहीं ? यदि नहीं है, तब आत्मा लक्ष्य भी कैसे होंगा ! क्योंकि जो वाच्य होता है वही लक्ष्य भी होता है । अगर मुख्य वृत्तिसे बतलाने वाला शब्द हैं, तब उसीसे आत्माका कथन कीजिए, इस लक्षण की कल्पनासे क्या प्रयोजन है ? इसका उत्तर देने के लिए कहते हैं-
'तू' 'मैं' इत्यादि शब्दों को छोड़कर श्रात्माको समझानेके लिए और कोई पद हैं नहीं । वे पद भी गुणवृत्ति या लक्षणावृत्तिसे ही श्रात्माके बोधक है, न कि मुख्यवृत्तिसे । तव मुख्यवृत्तिसे बोधन करनेवाला कोई पद है नहीं। तो भी, वह किसी पदका लक्ष्य नहीं है, इससे कोई दोष नहीं होता। क्योंकि वाच्यत्व लक्ष्यस्वका प्रयोजक नहीं है । मुख्यार्थ के साथ सम्बन्ध होने ही से वह लक्ष्य हो जाएगा, ऐसा कहीं देखने में नहीं आया कि मुख्यार्थ सम्बन्ध तो है, परन्तु वाच्यत्व नहीं है, इसलिए वह लक्ष्य नहीं हुआ। शुद्ध श्रात्मामें जाति, गुण, क्रियादिके न रहने से और श्रुतिने वाच्यत्वका निषेध भी किया है इसलिए उसमें, वाच्यत्व नहीं है। तो भी वाच्यार्थ जो प्रमाता है, उसके साथ सन्बन्ध है । इसलिए 'लम्' ' अहम्' इत्यादि शब्दोंसे, गुण सम्बन्धद्वारा आत्मा लक्षित होता है ॥ ६८ ॥
कस्मात्पुनर्हेतोर्बहमित्येतदपि गुणलेशेन वर्तते न पुनः साक्षादेवेति । विधूत सर्व कल्पनाकारणस्वाभाव्यादात्मनः । अत आह— व्योम्नि धूमतुषाराभ्रमलिनानीव दुर्धियः । कल्पयेयुस्तथा मूढाः संसारं प्रत्यगात्मनि ।। ९९ ।
•
यदि कोई कहे कि 'तू' 'मैं' इत्यादि शब्द यदि प्रत्यगात्मा के बोधक हैं, तब क्या कारण है कि इन शब्दों से श्रात्माका साक्षात् बोध नहीं होता, किन्तु गुणवृचसे होता है ? तो इसका उत्तर यह है कि वाच्य, वाचक इत्यादि कल्पनाका कारण गुण, क्रिया किंवा जाति, कोई भी प्रास्मा में वास्तवमें नहीं है। इसी कारण साक्षात् किसी शब्द से उसका प्रतिपादन न होकर लक्षणा दिसे मानना पड़ता है । इसी बात को पुष्टि करने के लिए कहते हैं-
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भाषानुवादसहिता
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जैसे अविवेकी पुरुष निर्मल आकाशमें धूम, तुषार अथवा मेवमालिन्य श्रादिकी कल्पना करते हैं। वैसे ही मूढ़ लोग शुद्ध प्रत्यक् आत्मामें संसारकी कल्पना करते हैं ॥ ६६ ॥
'सर्वकल्पनानामप्यात्मन्यत्यन्ताऽसम्भवे समानेऽहंवृत्तौ कः पक्षपाते हेतुर्येन वृत्यन्तराणि विधूयाऽहंवृत्यैवात्मोपलक्ष्यत इति । उच्यते
चिनिभेयमहं वृत्तिः प्रतीचीवात्मनोऽन्यतः ।
२
पूर्वोक्तेभ्यश्च हेतुभ्यस्तस्मादात्माऽनयोच्यते ॥ १०० ॥ वृत्तिभिर्युष्मदर्थाभिलक्ष्यतेचेदृशिः
परः । अनात्मत्वं भवेत्तस्य वितथं च वचः श्रुतेः ॥ १०१ ॥
शङ्का - अहंवृत्तिके सभी पदार्थ घट, पट, शरीरादि - अधिष्ठान आत्मामें कल्पित हैं। इसमें कोई विशेष तो है नहीं । फिर वृत्त्यन्तरको छोड़कर केवल अहंवृत्तिआपका क्यों इतना श्राग्रह है, जो कि इसी वृत्तिसे लक्षणाद्वारा आत्माकी प्रतीति होती है, ऐसा कहते हो ?
समाधान - श्रहंवृत्ति चैतन्यप्रतिबिम्बको धारणकर बिलकुल चित्ररूप हो गई है, इसीलिए आत्मासे अन्य देहादिकी अपेक्षा यह ( अहंवृत्ति ) प्रत्यग्भूत ( श्रान्तर ) है अतएव पूर्वोक्त कारणोंसे भी इसीसे आत्माकी लक्षणा द्वारा प्रतीति होती है और घटादि वृत्ति द्वारा तथा घटादि शब्दोंसे आत्मा की प्रतीति लक्षणा से होगी,. ऐसा मानने पर घटादिके समान श्रात्माको अनात्मरूपसे प्रतीति होने लगेगी और ब्रह्मरूपसे प्रतीति नहीं होगी । तब 'अहं ब्रह्मास्मि' 'तत्त्वमसि' इत्यादि एकत्व - प्रतिपादक वाक्योंका वैयर्थ्य और अप्रामाण्य हो जाएगा ॥ १००,१०१ ॥
यथोक्तेन
अनेन गुणलेशेन ह्यत्यहं कर्तृकर्मया । लक्ष्यतेऽसाववृत्त्या नाञ्जसाऽत्राभिधीयते ॥ १०२ ॥
अतएव पूर्वोक्त - गुणलेशके सन्बन्धसे अहङ्कार, कर्ता ( प्रमाता ) उसके कर्म - देह, घटादिको प्रतिक्रम करके रहनेवाली जो कूटस्थ चैतन्यरून अहंवृत्ति है, उसीसे
१ - सर्वविकल्पकल्पनानां, पाठ भी मिलता है । २ --- श्रात्मा तयोच्यते, ऐसा पाठ भी मिलता है । ३- नाअसान्त्राभिधायकः, ऐसा पाठ भी मिलता है ।
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नैष्कर्म्यसिद्धिः
आत्माका प्रतिपादन होता है, साक्षात् नहीं । क्योंकि आत्माका साक्षात् श्रभिधा शक्तिके द्वारा प्रतिपादन नहीं हो सकता ॥ १०२ ॥
नाञ्जसाऽत्राभिधीयते इति को हेतुरिति चेत् ? षष्ठीगुणक्रियाजा तिरूढयः
शब्दहेतवः । नात्मन्यन्यतमोऽमीषां तेनाऽऽत्मा नाभिधीयते ॥ १०३ ॥
शङ्का - साक्षात् शब्द से आत्माका प्रतिपादन नहीं होता ( किन्तु लक्षण द्वारा होता है) इसमें क्या कारण है ?
समाधान - लोक में सर्वत्र शब्द किसी वस्तु में सम्बन्ध, गुण, क्रिया, जाति अथवा रूढि, इनमें से किसीके रहने से प्रवृत्त होता है । ग्रात्मामें इनमें से एक भी नहीं है, क्योंकि श्रात्मा श्रसङ्ग, निर्गुण, निष्क्रिय, जातिरहित और सम्बन्धसे शून्य है; इसी कारण किसी शब्दसे आत्मा साक्षात् नहीं कहा जा सकता है ॥ १०३ ॥
शब्दोऽभिधानाऽभिधेयत्वसम्बन्धाङ्गीकारेण नात्मनि
यदि वर्तते, कथं शब्दादहं ब्रह्मास्मीति सम्यग्बोधोत्पत्तिः ? उच्यते-सत्ये वर्त्मनि स्थित्वा निरुपायमुपेयते । आत्मत्वकारणाद् विद्मो' गुणवृत्त्या विबोधिताः ॥ १०४ ॥
इसपर यह शङ्का होती है कि यदि कोई भी शब्द वाच्य वाचकभाव सम्बन्धको अङ्गीकार करके आत्मामें प्रवृत्त नहीं होता, तब फिर 'अहं ब्रह्मास्मि' ऐसा ज्ञान वाक्यसे कैसे होगा ? इसका समाधान यह है कि
श्रारोपित मार्ग में स्थित होकर ( अर्थात् शबलात्मा के वाचक शब्दादि से ही ) निरुपाय अर्थात् साक्षात् उपायरहित श्रात्मतत्व प्राप्त किया जाता है । जैसे शाखाग्रसे 'चन्द्रमांका ज्ञान या रेखायो से सत्यवरणका ज्ञान होता है । और सभीका ग्रात्मा स्वप्रकाश है, इसलिए लक्षणावृत्तिसे ही उसका बोध हो जाता है ॥ १०४ ॥
सदनभिधेयेऽर्थे
कथं पुनरभिधानमभिधेयेनाऽनभिसम्बद्धं प्रमां जनयतीति । शृणु यथाऽनभिसम्बद्धमप्यनभिधेयेऽर्थेऽविद्यानिरा करणमुखेन बोधयतीत्याह
शयानाः प्रायशो लोके वोध्यमानाः स्वनामभिः |
सहसैव प्रबुद्धयन्ते यथैवं प्रत्यगात्मनि ॥ १०५ ॥ उपायमात्र उपेयके साथ सत्य सम्बन्ध रहित होनेपर भी बोधक हो सके, परन्तु
१ - कारण सिद्धा, ऐसा पाठ भी मिलता है |
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भाषानुवादसहिता
शब्द अपने अर्थके साथ सम्बद्ध न हो तो वह किस प्रकार से अनभिधेय अर्थ का यथार्थ ज्ञान उत्पन्न करेगा ? ऐसी शङ्का यदि कोई करे तो उसका समाधान यह है कि जिस प्रकार शब्द प्रकृत में असम्बद्ध होनेपर भी अनभिधेय अर्थका बोधक होता है और विद्याकां निवारक भी होता है | यही बात कहते हैं- जैसे निद्रित पुरुष 'हे देवदत्त उठो, जागो !" ऐसे पुकारने पर, उस नामसे पुकार हुई है, इसलिए जाग जाता है। ऐसे हा तमस्वादि वेदान्तवाक्योंसे मी विद्यानिद्रा में निमग्न पुरुष शब्द के साथ किसी प्रकारका सम्बन्धज्ञान न होनेपर भी प्रबुद्ध हो जाता है ॥ १०५ ॥
[ यद्यपि निद्रावस्था में पुरुष को अपने नामका अपने साथ सम्बन्ध गृहीत नहीं है, तथापि पहले तो सम्बन्ध ज्ञान था, उतीसे उस समय भी बोध हो जाता है, ऐसी शङ्का यदि कोई करे, तो उसका उत्तर यह है --]
६३७
सोया हुआ
न हि नाम्नास्ति सम्बन्धो व्युत्थितस्य शरीरतः । तथापि बुद्धयते तेन' यथैवं तत्त्वमित्यतः ॥ शरीर से अलग हुआ अर्थात् देह इन्द्रियादिके अभिमानसे रहित पुरुष मेरा यह नाम है और नामके साथ मेरा सम्बन्ध है, ऐसा नहीं जानता । क्योंकि उस काल में शब्दका श्रवण और सम्बन्धका स्मरण, दोनों नहीं हैं : यदि ये दोनों तथा शरीर-सम्बन्ध है, ऐसा मानो तब अन्योन्याश्रय दोष होगा । शरीर सम्बन्ध होनेसे . प्रतिबोध और प्रतिबोध होने से शरीरसम्बन्ध, अथवा प्रतिबोध होनेसे श्रवण, और श्रवण होनेसे प्रतिबोध । श्रतएव मानना पड़ेगा कि स्मरण हुए बिना ही नाम को में बोधन करानेकी शक्ति है । इसलिए वाचक शब्दको वाच्य श्रथमें ही सम्बन्धज्ञान की अपेक्षा है; लक्ष्त्रमें नहीं । क्योंकि गङ्गाराब्दका प्रवाह में सम्बन्ध - ज्ञान रहने पर भी तीरमें सम्बन्धज्ञान बिना ही बोधकत्व दीख पड़ता है । ऐसे ही अनात्ममिश्रित शबल में गृहीत- सम्बन्त्र तस्वमस्यादि वाक्योंको लक्षणा से अखण्ड ब्रह्मका बोब कराने में कोई बाधा नहीं है ॥ १०६ ॥
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१ – बुध्यते येन, ऐसा पाठ भी है ।
१८
१०६ ॥
यथा च
arunsahar नमोsस्पृष्ट्वा कृष्णधीनीडगौ यथा ।
बाध्येतरात्मकौ स्यातां तथेहात्मनि गम्यताम् ॥ १०७ ॥ इस पर ऐसी शङ्का होती है कि 'अच्छा, शब्द से पूर्वोक्त युक्ति के अनुसार आत्मज्ञान हो, तो भी आत्मा ज्ञान और अज्ञान दोनोंका श्राश्रय होनेसे विकारी बन जायगा ? इस शङ्काको दृष्टान्तके द्वारा दूर करते हैं
जैसे आकाश अमूर्त होनेसे नीरूप है, इस प्रकारके यथार्थज्ञान और यह
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नैष्कर्म्यसिद्धिः चूँकि अविद्याकी प्रतीति प्रत्यक्षरूपसे अज्ञ लोगोंको हो रही है, इसी कारण अविद्याकी कल्पना की गई है। इसलिए अात्माके स्वरूपको देखकर उसके अनुगेवसे यह सिद्ध होता है कि प्रात्नामें अविद्याको सम्भावना भी किसी प्रकारसे सिद्ध नहीं हो सकती। क्योंकि, जिस अात्माका स्वाभाविक स्वरूप क्रिया और कारकसे रहित ज्ञान ही है। वहाँपर अविद्याकी सम्भावना भी किस कारण से होगी ? ॥ ११२ ॥
सोऽयमेवमनुदिताऽनस्तमितावगतिमात्रशरीर आत्मापि सन्नविचारितप्रसिद्धाऽविद्यामात्रव्यवहित एवाऽतथैवेक्ष्यते यतोऽतः--
अनुमानादयं भावाद्वयावृत्तोऽभावमाश्रितः। .
ततोऽप्यस्य निवृत्तिः स्याद्वाक्यादेव बुभुत्सतः ॥११३॥ क्योंकि उत्पत्ति विनाश रहित ज्ञानमात्रस्वरूप होकर भी अात्मा अविवेकके वंशवर्ती अज्ञ जनों के कल्पनामात्रसे सिद्ध अविद्यारूपी आवरण से विपरीत-सा दीख पड़ता है। इसी कारण पहले यात्मरूपसे गृहीत देह इन्द्रियात्मक भावपदार्थोसे आमाको अनुमानकी सहायतासे पृगक समझना चाहिए कि यह आत्मा देहादिरूप नहीं है। ऐसे पृथक रूपसे ज्ञात हुआ यह आत्मा अभावरूप हुआ-सा भासमान हो रहा है। अतएवं देहादिसे पृथककृत श्रात्मामें 'मैं कौन हूँ' ऐसी उत्कट जिज्ञासावाले पुरुषको वेदान्तवाक्यसे ही ब्रह्मरूपताकी दृढ़ प्रतीति हो जानेसे अभावसे भी व्यावृत्ति अर्थात् पार्थक्य हो जाता है। तब अविद्याकी भी निवृत्ति हो जाती है ॥ ११३॥ . .
- भाववदभावादपि निवृत्तिरनुमानादेव किमिति न भवतीति चेच्छृणु--
न व्यावृत्तिर्यथा भावाद्भावेनैवाऽविशेषतः'। .
अभावादप्यभावत्वाद् व्यावृत्तिने तथेष्यते ॥ ११४ ॥
शङ्का-देहादि भात्र पदार्थोसे व्यावृत्ति जैसे अनुमानसे सिद्ध होती है। वैसे ही अभावसे भी ब्यावृत्ति अनुमानसे ही क्यों नहीं होती ? . समाधान-सुनिए, देहेन्द्रियादि भाव पदार्थसे श्रात्माकी व्यावृत्ति जैसे भावत्वके कारण नहीं होती, कारण दोनों भावरूप तुल्य हैं। किन्तु पूर्वोक्त चतुर्विध अन्धय व्यतिरेकरूप अनुमानसे ही होती है। ऐसे ही अभावरूपतासे भी व्याबृत्ति अनुमानसे निश्चित नहीं होती, क्योंकि अभावस्व निश्चित है। इसलिए भाव और अभावसे बिलक्षण ब्रह्मरूपत्व प्रतिपादक वाक्यसे ही अभावसे व्यावृत्ति प्रतीत होती है ॥ ११४ ॥
-अवशेषतः, ऐसा भी पाठ है। २-अन्यभावस्थात्, ऐसा भी पाठ है।
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१४१
- माषानुवादसहिता .. यतो नाऽनुमानेन व्याविद्धाऽशेषक्रियाकारकंफलात्मनि स्वाराज्येऽभिषेक्तुं शक्यते तस्मात्
अविद्यानिद्रया' सोऽयं प्रसुप्तो दुर्विवेकया।
भावाऽभावव्युदासिन्या श्रुत्येव प्रतिबोद्धयते ॥ ११५ ॥
चूंकि अनुमानके बलसे सम्पूर्ण क्रिया, कारक और फलसे रहित, शुद्ध ब्रह्मरूप स्वाराज्यमें अभिषिक्त नहीं कर सकते, इसलिए
प्रमाणान्तरसे निवृत्त नहीं होनेवाली इस अविद्यारूप निद्रामें सोया हुआ यह पुरुष भाव और अभावको दूर करनेवाली श्रुतिसे ही जगाया जाता है ॥ ११५ ॥
अत्राऽऽह, अनुदिताऽनस्तमितविज्ञानात्ममात्रस्वरूपत्वाद् दुःसम्भाव्याऽविद्येति । नैतदेवम् । कुतः ? यत आह
कुतोऽविद्येति चोचं स्यान्नैवं प्राग्त्वांभवात् ।
कालत्रयाऽपरिच्छित्तेन चोर्ध्व चोद्यसंभवः ॥ ११६ ॥
उत्पत्ति और विनाशसे रहित ज्ञानस्वरूप प्रात्मा अविद्याका कैसे संभव हो सकता है ? ऐसी शङ्का नहीं करना चाहिए, क्योंकि
क्या विद्याके पूर्व अविद्याका होना सम्भावित समझते हैं, या विद्याके अनन्तर ? यदि कहिए कि विद्याके पूर्व अविद्याकी सम्मावना नहीं, तो यह ठीक नहीं। कारण, आत्मा ज्ञानरूप है, ऐसा ज्ञान ही जब नहीं उदय हुआ, तब यह शङ्का कैसे हो सकेगी? यदि ज्ञान होनेके बाद शङ्का करो, तब तो आत्मामें कालत्रयमें भी अविद्या नहीं है, ऐसा बोध जब हो गया, तब ऐसी शङ्का किस तरहसे हो सकती है ? ॥ ११६ ॥
यस्मात्तत्वमस्यादिवाक्यमेवात्मनोऽशेषामविद्यां निरन्वयामपनुदति । तस्मात्
__ अद्धातममनादृत्य प्रमाणं सदसीति ये।
__ 'बुभुत्सन्तेऽन्यतः कुर्युस्तेऽक्षणापि रसवेदनम् ॥ ११७॥ . . . चूंकि 'तत्वमसि' इत्यादि वाक्य हो आत्माको समस्त अविद्याको, जिसकी कि प्रास्मासे किसी प्रकार भी सम्बन्ध हो ही नहीं सकता, दूर हटा देता है। इसलिएजो लोग साक्षात् आत्मतत्त्वके ज्ञान करानेमें समर्थ, सुनिश्चित प्रमाण-तत्त्वमसि आदि महावाक्यका अनादर करके अन्य प्रसङ्ख्थानादि (ध्यान, उपासना आदि) के
१-अनिद्रो निद्रया, ऐसा भी पाठ है। २-बुभुत्सन्तः, ऐसा पाठ भी है।
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नैष्कयंसिद्धिः द्वारा आत्मतत्त्वका साक्षात्कार करना चाहते हैं, वे लोग तो नेत्र इन्द्रियके द्वारा रसज्ञानका अनुभव कर सकते हैं ? ॥ ११७ ॥
एवमप्रतिहतामहं ब्रह्मेति प्रमां तत्त्वमस्यादिवाक्यं कुर्वदपि न प्रतिपादयतीति चेदभिमतं न कुतश्चनापि प्रतिपत्तिः स्यादत आह
इदं चेदनृतं । . ब्रूयात्सत्यामवगतावपि । , 'न चाऽन्यत्रापि विश्वासो ह्यवगत्यविशेषतः॥११८॥
इस प्रकार तत्वमस्यादि वाक्यसे 'मैं ब्रह्म हूँ' इस प्रकारका प्रमात्मक अवाधित ज्ञान यदि हो रहा है, तब यह वाक्य एतादृश वस्तुका प्रतिपादन नहीं करता, ऐसा ही आपको अभीष्ट हो तब तो किसीसे भी ऐसी अवगति (ज्ञान ) नहीं होगी, इसलिए कहते हैं
'तत्वमसि' इत्यादि वाक्योंसे पूर्वोक्त निश्चितरूपसे ज्ञान होनेपर भी यदि कोई यह असत्य है, अप्रमाण है, ऐसा कहेगा,, उस पुरुषको ज्ञान होनेपर भी विशेषता न रहनेसे अन्यत्र भी, सम्पूर्ण वेदमें कहीं भी, विश्वास नहीं रहेगा ॥ ११८॥
न चोपादित्सिताद् वाक्यार्थाद् वाक्यार्थान्तरं कल्पयितुं युक्तम्। यस्मात्- '
न चेदनुभवोऽतः स्यात्पदार्थावगतावपि ।
कल्प्यं विध्यन्तरं तत्र न ह्यन्योऽर्थोऽवगम्यते ।। ११९ ॥
इसपर यदि कोई ऐसा कहे कि 'हम वेदान्तोंको अप्रमाण नहीं कहते, किन्तु वेदान्त उपासना विधिपरक हैं ऐसा कहते हैं। तो ऐसा कहना भी युक्त नहीं है । क्योंकि
यदि तत् त्वं पदार्यके जाननेवालेको वाक्यश्रवणसे वाक्यार्थका ज्ञान न होता, तब विधिपरत्वकी कल्पना उचित थी, वह बात तो है नहीं। क्योंकि अधिकारी पुरुषको वाक्यसे ज्ञान होता हुआ अनुभवसे देख पड़ता है। और पूर्वोक्त रीतिसे मुख्य अर्थ संभव हो तो विधिकी कल्पना कर भी नहीं सकते। इसलिए विधिपरतया प्रामाण्य नहीं कह सकते । और 'तत्त्वमसि' इत्यादि वाक्य जिस प्रकरण में पठित हैं, उसमें कोई विधि श्रुत भी नहीं है ॥ ११६ ॥
न च यथाऽभिमतोऽर्थो यथोक्तेन न्यायेन नावसीयते । कोऽसौ न्याय इत्याह,
नामादिभ्यो निराकृत्य त्वमर्थ निष्परिग्रहः । नि:स्पृहो युष्मदर्थेभ्यः शमादि विधिचोदितः॥ १२० ॥ -न चान्यत्रापि वाक्ये स्थाद्विश्वासो अविशेषतः, ऐसा भी पाठ है।
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भाषानुवादसहिता और यह भी नहीं कह सकते कि जैसा हम को अभीष्ट है, वैसा अर्थ कहे हुए न्यायसे प्रतीत नहीं होता। वह न्याय कौनसा है ? यह कहते हैं
छान्दोग्य उपनिषद्में दिखाये हुए नामसे लेकर प्राणपर्यन्त पदार्थोसे अात्माको प्रथक समझकर 'अहम्' 'मम' इस प्रकार के अभिमानके परित्यागसे क्षेत्र, पुत्रादि परिग्रहोंसे रहित युष्मदर्थ अनास्म प्रपञ्चसे निःस्पृह अर्थात् उसके उपभोग करनेको तृष्णासे रहित, शमदमादि साधन चतुष्टयसे सम्पन्न होकर- ॥ १२० ॥
भक्त्वा चान्नमयादीस्तान् पञ्चानात्मतयाऽर्गलान् ।
अहं ब्रह्मेति वाक्याथ वेत्ति चेन्नार्थ ईहया ॥ १२१ ॥
तैत्तिरीयक उपनिषद्ने प्रतिपादित अन्नमयादि पाँच कोशोंमें 'अहम्' 'मम' अभिमानका परित्याग करके स्वरूपप्राप्तिमें प्रतिबन्धक जितने हैं, उन सभीका क्षय करके यदि पुरुष ब्रह्मस्वरूपताका लाभ कर सकता है, तो उपासनादि व्यापारसे क्या प्रयोजन है ?
न चेदेवमुपगम्यते वाक्यस्य प्रमाणस्य सतोप्रामाण्यं प्रामोति । तदाह--
यदर्थं च प्रवृत्तं यद् वाक्यं तत्र न चेच्छुतम् ।
प्रमामुत्पादयेत्तस्य प्रामाण्यं केन हेतुना ॥ १२२ ॥
इस प्रकार अधिकारी पुरुषको वेदान्तसे यथार्थ ज्ञान उत्पन्न होता है, यह बात पहले कही। यदि वादी इस बातको न माने तब वेदान्तवाक्योमें अप्रामाण्यरूप दोषकी प्रसक्ति हो जायगी ? यही कहते हैं
जिस बातको समझाने के लिए जो वाक्य प्रवृत्त हुश्रा है, उस वाक्यके श्रवणसे उस अर्थको प्रतीति यदि न उत्पन्न हो, तब उसका प्रमाण किस तरहसे मान सकते हैं ॥१२२॥
अथ मन्यसे-- - जानीयाच्चेत्प्रसङ्ख्यानाच्छब्दः सत्यवचाः कथम् ।
पारोक्ष्यं शब्दो नः प्राह प्रसङ्ख्यानावसंशयम् ॥ १२३ ॥ ___ हाँ, यदि ऐसा आपका अभिप्राय है कि "अधिकारी पुरुषको जो ज्ञान होता है, वह वेदान्त विहित ध्यानबलसे ही होता है" तब वेदान्तोंका तात्पर्य ध्यानके विधान करने में ही है, ऐसा मानना पड़ेगा ? अद्वितीय वस्तुमें तात्पर्य तो है नहीं फिर प्रत्यक्षादि विरुद्ध अद्वितीय वस्तु में वेदान्त प्रमाण कैसे हो सकता है ? उसको अप्रमाण कहना पड़ेगा। यदि कहिए कि "नहीं, हम लोगों को शब्दसे तो परोक्ष ही ब्रह्मका बोध होता है, शब्द और युक्तिका अभ्यासरूप-ध्यानसे असन्दिग्ध ब्रह्मरूपताका साक्षात् ज्ञान होता है तो इसका उत्तर देते हैं
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नष्कम्यसिद्धिः न च युक्तिशब्दावृत्तिलक्षणात्प्रसङ्ख्थानायथावत्प्रतिपत्तिभविष्यतीति सम्भावयामः । यस्मात्
युक्तिशब्दौ पुराऽप्यस्य न चेदकुरुतां प्रमाम् । साक्षादावर्तनात्ताभ्यां किमपूर्व फलिष्यति ॥ १२४ ॥
शब्द और युक्तिका पुनः पुनः चिन्तन करना, इस प्रकारके ध्यानसे ठीक ठीक साक्षात्कार होगा, ऐसी सम्भावना हम नहीं करते हैं। क्योंकि
इस अधिकारी पुरुष को जब पहलेसे ही युक्ति और शब्द, इन दोनोंने अपरोक्ष प्रमा (यथार्थ ज्ञान) उत्पन्न नहीं की तब पाछेसे अभ्यासके बलसे उन्हीं दोनोंसे नया ज्ञान क्या उत्पन्न हो सकता है ? ॥ १२४ ॥
अथैवमपि प्रसङ्ख्यानमन्तरेण प्राणान् धारयितुं न शक्रोषीति' चेच्छवणादावेव सम्पादयिष्यामः । कथम् ?
प्रसङ्ख्यानं श्रुतावस्य न्यायोऽरत्वानेडनात्मकः ।
ईपच्छ्रुतं सामिश्रुतं सम्यकश्रुत्वाऽवगच्छति ॥ १२५ ॥ . और इसपर भी यदि आप ऐसा कहो कि. "सूत्रकारने ही शब्द और युक्तिका अभ्यास करना चाहिए, इस प्रकारसे प्रसङ्खथानको स्वीकार किया है। इसीलिए उसके बिना वाक्य किस प्रकारसे बोधक होगा ?" तो यह ठीक नहीं ! सूत्रकारका तात्पर्य यह है कि जीवको ब्रह्मस्वरूप जाननेमें साधीभूत श्रवण, मननादिकी ही आवृत्ति करनी चाहिए। न कि श्रवणादि उपायोंसे साध्य जो ज्ञान है उसमें उस श्रावृत्तिका उपयोग करना चाहिए। अस्माके श्रमण में प्रसङ्खथान अर्थात् प्रवृत्तिका उपयोग है। अतएव सूत्रकारके कहे हुए अभ्यासन्यायका भी यही तात्पर्य है । क्योंकि श्रापातसे श्रुत अथवा अर्धश्रुत अर्थका अच्छी तरहसे श्रवण करके ज्ञानको प्राप्त होता है ॥ १२५ ॥
ननु प्रसङ्ख्यानविधिमनभ्युपगच्छतः पारमहंसी चर्या बौद्धा. दिचर्यावदशास्त्रपूर्विका प्राप्नोति । ततश्वारूढपतितत्वं न स्यात् अशेषकर्मणां च निवृत्तिन प्राप्नोतीति । उच्यते--
त्वमर्थस्याऽवबोधाय विधिरप्याश्रितो यतः । तमन्तरेण ये दोषास्तेऽपि नायान्त्यहेतवः ॥ १२६ ॥ १-न शक्नोमि, ऐसा पाठ भी है। २-प्रसंख्यानं, ऐसा और प्रसंख्यानश्रुता ऐसा पाठ भी है।
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माषानुवादसहिता शङ्का-मुमुक्षुकी नित्य और नैमित्तिक विधिसे बोधित कर्मोंमें प्रवृषि तो आपको इष्ट नहीं है । और प्रसङ्घयानकी विधि भी आप नहीं मानते । तब तो किसी तरह से भी शास्त्रीय प्रवृत्ति नहीं है । अतः पाखण्डोंकी तरह परमहंस चर्या भी निर्मूल हो प्रतीत होती हैं। तब सकल श्रुति, स्मृति, इतिहास-पुराणों में प्रसिद्ध अरूढपतितत्व भी नहीं होगा । अथवा विधिबोधित सकल कर्मके परित्याग से श्रारूढपतित हो जाएगा
और प्रसङ्ख्यानकी विधि नहीं मानोगे तो नित्य-नैमित्तिक कर्मोंकी निवृत्ति नहीं सिद्ध होगी ? प्रसङ्ख्यानकी विधि यदि मानते हो, तब तो सर्वदा अनन्यचित होकर ज्ञानाभ्यासमें प्रवृत्त होनेसे तविरुद्ध कर्मोंकी निवृत्ति होती है। यदि उसकी विधि नहीं मानते हो तब 'यावज्जीव' इत्यादि श्रतियोंसे जो यावज्जीवन कर्म करनेके लिए कहा है, उसीका अनुसरण करना पड़ेगा। तब फिर सर्वकर्म-संन्यासका अवसर ही नहीं है ?'
___ समाधान-'त्वं' पदार्थ के विवेकके लिए श्रवणादिकी विधि मानी है और तदङ्गतया सर्व-कर्मोंका संन्यास श्रुति और स्मृतिमें विहित है । अतएव अशास्त्रीयत्वादि दोषकी प्रसक्ति नहीं हो सकती है ॥ १२६ ॥
इति श्रीमत्पूज्यपाद श्री श्रीसुरेश्वराचार्यकृत नैष्कर्म्यसिद्धिके तृतीयाध्यायका
भाषानुवाद समाप्त हुआ।
ASMINATURE
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॥ श्रीगुरुः शरणम् ॥
नैष्कर्म्यसिद्ध चतुर्थोऽध्यायः प्रारभ्यते
I
पूर्वाध्यायेषु यद् वस्तु विस्तरेणोदितं स्फुटम् । सङ्क्षेपतोऽधुना वक्ष्ये तदेव सुखवित्तये ॥१॥
प्रथम, द्वितीय एवं तृतीय अध्यायोंमें जिस वस्तुका विस्तार पूर्वक वर्णन किया, उसीको सुखपूर्वक – अनायास से - जानने के लिए अब संक्षेपसे इस (चतुर्थ) श्रध्याय में स्पष्ट वर्णन करता हूँ ॥ १ ॥
सङ्क्षेपविस्तराभ्यां हि मन्दोत्तमधियां नृणाम् 1 वस्तूच्यमानमेत्यन्तःकरणं तेन भएयते ॥ २ ॥
( कही हुई बातों को फिर से क्यों कहते हो, ऐसी शङ्का नहीं करनी चाहिए ।) क्योंकि संक्षेप और विस्तार, दोनों तरहसे वस्तुतस्त्रका निरूपण करनेसे मन्द, मध्यम, उत्तम - सभी प्रकार के लोगोंके अन्तःकरण में वह विषय स्थिर हो जाता है ॥ २ ॥ आत्मानात्मा च लोकेऽस्मिन् प्रत्यक्षादिप्रमाणतः । सिद्धस्तयोरनात्मा तु सर्वत्रैवात्मपूर्वकः ॥ ३ ॥
इस जगत् में आत्मा और अनात्मा ये दोनों प्रत्यक्षादि प्रमाणोंसे सिद्ध हैं । परन्तु उनमें अनात्मा सर्वकाल में आत्मासे ही सिद्ध है । क्योंकि द्रष्टा के बिना दृश्यकी सिद्धि नहीं होती ॥ ३ ॥
अनात्मत्वं स्वतः सिद्ध' देहाद्भिन्नस्य वस्तुनः । ज्ञातुरप्यात्मता तद्द्वन्मध्ये संशयदर्शनम् ॥ ४ ॥
देहसे भिन्न घटादि दृश्य तो अनात्मरूपसे और ज्ञाता श्रात्मरूपसे स्वतः हो सिद्ध हैं । किन्तु घटादि विषय और प्रत्यगात्मा, इनके मध्य में वर्तमान शरीर, इन्द्रियादिमें कौनसा आत्मा है, ऐसा वादियोंके विवादसे संशय होता है ॥ ४ ॥ असाधारणांस्तयोर्धर्मान् ज्ञात्वा धूमाविद् बुधः ।
अनात्मनोऽथ बुद्धयन्तान् जानीयादनुमानतः ॥ ५ ॥
श्रात्मा के असाधारण धर्म द्रष्टृस्वादि और अनास्माके दृश्यत्व, जडत्वादि धर्मों
को पृथक्-पृथक् जान कर पण्डितको - जैसे धूमको देख कर अमिका निर्णय होता है, वैसे ही - देहसे लेकर बुद्धिपर्यन्त पदार्थोंका अनात्मत्व अनुमानसे निश्चित कर लेना चाहिए ॥ ५ ॥
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मावानुवादसहिता
इदमित्येव बाह्येऽर्थे ह्यहमित्येव बोद्धरि ।
द्वयं दृष्टं यतो देहे तेनाऽयं मुह्यते जनः ॥ ६ ॥
૨૭
बटादि बाह्य विषयोंमें ‘इदम्' ऐसी बुद्धि होती है । ज्ञाताका ज्ञान 'अहम्' (मैं) इस प्रकारसे होता है | शरीरमें - 'मेरा यह शरीर है' 'मैं मनुष्य हूँ' इस तरहसे दोनों प्रकारका ज्ञान उपलब्ध हो रहा है । इसी कारण लोगोंको संशय होता है ॥ ६ ॥ केन पुनर्न्यायेनात्मानात्मनोरश्वमहिषयोरिव विभागः क्रियत इति १ उच्यते
न्यायः पुरोदितोऽस्माभिरात्मानात्मविभागकृत् । तेनेदमर्थमुत्सार्य ह्यहमित्यत्र यो भवेत् ॥ ७ ॥
किन युक्तियों से अश्व और महिषके तुल्य आत्मा और अनात्माका विवेक सिद्ध होता है, ऐसी आशङ्का होनेपर कहते हैं
आरमा और अनात्मा विवेकको दिखलानेवाली युक्तियाँ पूर्वाध्यायोंमें कही गई हैं । उन्ही अनुशीलनसे सन्दिग्ध श्रहङ्कार में जो 'इदम्' अंश है, उसको दृश्यत्वादि श्रनात्मा समझकर जो अवशिष्ट अंश है - ॥ ७ ॥
हेतु
विद्यात्तत्त्वमसीत्यस्माद्भावाभावदर्श
अनन्तरमबाह्यार्थ
सदा । प्रत्यक्स्थं मुनिरञ्जसा ॥ ८ ॥
उसीको मननशील पुरुष अनायास से 'तत्त्वमसि' वाक्यसे वृत्तियों के भावाभावका प्रकाशक, बाह्याभ्यन्तरशून्य, सर्वान्तर, साक्षिस्वरूप जाने ॥ ८ ॥
उच्यतां तर्हि कया तु परिपाट्या वाक्यार्थ वेतीति ? उच्यते । अन्वयव्यतिरेकाभ्याम् |
१
त्यक्तकृत्स्त्रेदमर्थत्वात् त्यक्तोऽहमिति मन्यते ।
नाsaगच्छाम्यहं यस्मान्निजात्मानमनात्मनः ॥ ९ ॥
तब कहिए किस क्रमसे वाक्यार्थका ज्ञान होता है ? कहते हैं - प्रथम श्रन्वय व्यतिरेक द्वारा सम्पूर्ण इदमर्थको अनात्मा समझ कर त्याग देनेके कारण मुमुक्षु . आत्माका भी परित्याग हो गया है, ऐसा मान लेता है । क्योंकि अनात्मा से पृथक् करके अपने श्रात्माको मैं नहीं जानता हूँ, अतएव मैं नष्ट हो गया हूँ, ऐसा मान लेता है ॥६॥ - अथ शरीरादिबुद्धिपर्यन्तः स सर्वोऽनात्मैवेति प्रमाणाद विनिचित्य किमिति बुभुत्सातो नोपरमते । शृणु
१ - प्रत्यञ्चं, ऐसा पाठ भी है।
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नैष्कर्म्यसिद्धिः अनुच्छिन्नबुभुत्सश्च प्रत्यग्घेतोरनात्मनः ।
दोलायमानचित्तोऽयं मुह्यते भौतवनरः ॥ १० ॥ . शङ्का-शरीरसे लेकर बुद्धिपर्यन्त सब पदार्थ अनास्मा हैं, ऐसा प्रमाणसे निश्चित होनेके बाद भी मुमुक्षु क्यों जिज्ञासासे विरत नहीं होता ? समाधान-सुनिए
अहङ्कारादिमें भी प्रत्यक्ष प्रतीत होता है, इसलिए यह पुरुष भ्रान्तपुरुषकी ( भूतसे उपगृहीत पुरुषकी ) भाँति सन्दिग्ध चित्त होकर जिज्ञासु बना रहता है ॥ १० ॥
अलुप्त विज्ञानात्मन आत्मत्वादेव नित्यसान्निध्याद् बुभुत्सुः किमिति न प्रतिपद्यत इति ? यस्मात्
यैरद्राक्षीत्पुरात्मानं यमनात्मेति वीक्षते । दृष्टेन॒ष्टारमात्मानं तैः प्रसिद्धः प्रमित्सति ॥ ११ ॥
शङ्का--आत्मा नित्य, स्वयम्प्रकाश है और स्वस्वरूप होनेके कारण वह नित्य ही सन्निहित भी है। फिर जिज्ञासु पुरुषको उसका निश्चयात्मक ज्ञान होकर जिज्ञासाकी शान्ति क्यों नहीं होती ?
समाधान-इसलिए कि ज्ञान होनेके पूर्व जिन चक्षु आदि इन्द्रियोंके द्वारा देहादिको आत्मरूपसे देखता था, जिनको कि इस समय अनात्मरूपसे देखता है; उन्हीं प्रसिद्ध करणोंसे ( इन्द्रियों से ) वृत्तिके साक्षीको भी जानना चाहता है। इसी कारण स्वस्वरूप होनेपर भी आत्माको नहीं जानता ॥ ११ ॥
कस्मात्पुनर्हेतोः पराचीनाभिः शब्दाद्यवलोडिनीभिर्बुद्धिभिरात्मानमनात्मवन्न वीक्षत इति ? उच्यते--
चक्षुने वीक्षते 'शब्दमतदात्मत्वकारणात् । यथैवं भौतिकी दृष्टिात्मानं परिपश्यति ॥ १२ ॥
शङ्का-शब्दादिविषयोंको प्रकाशित करनेवाली बुद्धियोंके द्वारा शरीरादिकी तरह आत्माको यह पुरुषको क्यों नहीं जान लेता ?
समाधान-कहते हैं।
जैसे चतु शब्दगुणक द्रव्य ( अाकाश) से उत्पन्न न होनेके कारण शब्दको नहीं प्रकाशित कर सकता है ? वैसे ही भौतिक अन्तःकरणसे उत्पन्न हुआ वृत्तिरूप ज्ञान निस्य आत्माको नहीं प्रकाशित कर सकता ॥ १२ ॥
प्रत्यक्षादिप्रमाणस्वाभाव्यानुरोधेन तावत्तददर्शनकारणमुक्तम् । अथ प्रमेयस्वाभाव्यानुरोधेन प्रतिषेध उच्यते-- .
१-शब्दाद्यवलेहिनीभिः, ऐसा भी पाठ है।
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भाषानुवादसहिता धीविक्रियासहस्राणां हानोपादानधर्मिणाम् ।
सदा साक्षिणमात्मानं प्रत्यक्त्वान्नाऽहमीक्षते' ॥ १३ ॥
यहाँ तक प्रत्यक्षादि प्रमाणोंके स्वरूपका विचार करके उन प्रमाणोसे आत्माके प्रकाशित न होने में कारण बतलाया। अब प्रमेय आत्मस्वरूपके विचार करनेसे भी प्रत्यक्षादि प्रमाणोंका निषेध करते हैं
जो सम्पूर्ण बुद्धि- वृत्तियोंकी उत्पत्ति और विनाशका साक्षी है। उस इन्द्रियादिके अविषयभूत साक्षीको अन्तःकरण प्रकाशित नहीं कर सकता । ॥ १३ ॥
कपुनरियं विवेकबुद्धिः किमात्मन्युताऽनात्मनीति । किश्चातः । यद्यात्मनि कूटस्थत्वव्याघातोऽनात्मदर्शित्वात् । अथाऽऽनात्मनि 'तस्याऽप्यचैतन्यान्न विवेकसम्बन्ध' इत्युच्यते 'दाह्यदाहकतैकत्र' इत्युक्त-परिहारात् ।
वुद्धावेव विवेकोऽयं यदनात्मतया भिदा ।
बुद्धिमेवोपमृगाति कदली तत्फलं यथा ॥ १४ ॥
शङ्का-फिर यह विवेकबुद्धि किसको होती है ? आत्माको होती है या अनात्माको? यदि कहिए कि इससे क्या प्रयोजन सिद्ध होगा? तो सुनिए -यदि श्रात्मा उस विवेकबुद्धिका आश्रय हो अर्थात् यदि विवेकबुद्धिरूप परिणामको आत्मामें माना जाय, तब उसकी कूटस्थताका व्याघात होगा और यदि अनात्माको विवेकबुद्विका श्राश्रय माने तो वह भी ठीक नहीं. क्योंकि वह जड़ है ?
समाधानजैसे अग्निका लोहपिण्डके साथ तादात्म्याध्यास होनेसे उसमें दाह्यत्व और दाहकत्व ये दोनों धर्म एकत्रित होते हैं । उसी प्रकार अहङ्कार और आत्माके तादात्म्याध्याससे अचेतन भी अहकारको ज्ञातृत्व होता है; ऐसा पहले ही प्रतिपादन किया है । इसी कारण अहङ्कारपरिणामरूप विवेकज्ञानको आत्माके ऊपर आरोपित किया जाता है। अतएव आत्माकी कूटस्थता भी नष्ट नहीं हुई और न केवल अचेतनको ज्ञानका आश्रय मानना पड़ा। अत:
जिस ( बुद्धि ) की अनात्मता होनेके कारण आत्मासे भेद माना जाता है, उस बुद्धिका ही धर्म विवेक है। इसलिए जैसे कदलीफल (केला) अपनी उत्पत्तिसे अपने
१-नाहमेक्षते, ऐसा पाठ भी है। २-तस्या अप्यचैतन्यस्य, ऐसा पाठ भी है। ३-विवेकसंभवः, ऐसा भी पाठ है।
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नैश्कर्म्यसिद्धिः ही आधारको-कदलीवृक्षको नष्ट कर देता है, वैसे ही वह विवेक बुद्धिका नाशक बन जाता है ॥ १४ ॥
सोऽयमतत्त्वे तत्वदृक्अनुमानप्रदीपेन हित्वा सर्वाननात्मनः । संसारकावलम्विन्या तदभावं धियेप्सति ॥ १५ ॥
इसपर यदि ऐसी आशङ्का करो कि 'यथोक्त विवेकसे ही द्वरत प्रपञ्चकी निवृत्ति • होती है तो फिर वेदान्त-वाक्योंकी क्या आवश्यकता है ? तो यह ठीक नहीं। क्योंकि अात्मा और अनात्माका जो भेद है वह भी अद्वतके विपरीत होनेसे अतत्त्व ही कहाता है। अतएव विवेकबुद्धि भी भ्रान्ति ही है। इसलिए यह जो अतत्व (आस्माअनात्माका विवेक ) है, उसमें तत्त्वदृष्टि रखनेवाला पुरुष अनुमानरूप प्रदीपसे सम्पूर्ण अनात्माको त्यागकर भेदरूप संसारको अवलम्बन करनेवाली विवेकबुद्धिके द्वारा उसकी भी निवृत्ति चाहता है । अतएव वाक्यार्थज्ञानके बिना संसारकी निवृत्ति नहीं होती ॥१५॥
योऽयमन्वयव्यतिरेकजो विवेक आत्माऽनात्मविभागलक्षणोऽनात्मस्थः स्थाणौ संशयावबोधवत् प्रतिपत्तव्योऽयथावस्तुस्वाभाव्यान्मृगतृष्णकोदकप्रबोधवदित्यत आह
संसारबीजसंस्थोऽयं तद्धिया मुक्तिमिच्छति ।
शशो निमीलनेनेव' मृत्यु परिजिहीर्षति ॥ १६ ॥
यह जो पहले अन्वय और व्यतिरेकसे उत्पन्न हुआ, आत्मा और अनात्माके विभागको प्रकाशित करनेवाला, अनात्मामें (अन्तःकरण में) रहनेवाला विवेक दिखलाया वह भी स्थाणुमें संशयात्मक ज्ञानके तुल्य ही है। ऐसा समझना चाहिए। क्योंकि भेद आत्मस्वरूप नहीं है, अतएव मृगतृष्णाके उदकशानके समान ही मिथ्या है। इसीलिए कहते हैं
संसारके बीज अज्ञानमें ही रहकर यह विबेक बुद्धिवाला पुरुष यदि अज्ञान-कल्पित भेदबुद्धिसे ही मुक्ति चाहता है, तो वह उसका चाहना, जैसे शश ( खरगोश ) [ बिल्ली
आदिके सामने अपनी आँखोंको मूंद लेनेसे ही मृत्युको जीतना चाहता है, ठीक उसीके समान है ॥ १६ ॥
अस्याऽर्थस्य द्रढिम्ने श्रुत्युदाहरणम्1-अनात्मस्थः सन्, ऐसा और स्थाणोः, ऐसा भी पाठ है। २-दशो निमोलनेनेव, ऐसा पाठ भी है।
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भाषानुवादसहिता इममर्थ पुरस्कृत्य श्रुत्या सम्यगुदाहृतम् ।
यच्चक्षुषेति विस्रब्धं न दृष्टेरिति च स्फुटम् ॥ १७ ॥
वाक्य-जन्य ज्ञानसे ही संसारकी निवृत्ति होती है, इस विषयको दृढ़ करने के लिए श्रुतिके प्रमाणोंका उपन्यास करते हैं
वाक्य ही अज्ञानका निवर्तक है, दूसरा नहीं। इसी बातको दृढ़ करनेके लिए अतिने विस्पष्ट और निःसन्देहसे अच्छी-प्रकार यह कहा है कि "ब्रह्मरूप वस्तुको चक्षुसे नहीं देख सकते" "बुद्धिबृत्ति के साक्षीको दृश्यबुद्धिसे जाननेकी कोशिश मत करो" ॥ १७॥
बुद्धयन्तमपविद्धयेवं कोन्वहं स्यामितीक्षितुः ।
श्रुतिस्तत्त्वमसीत्याह सर्वमानातिगामिनी ॥ १८ ॥
(यदि प्रत्यक्षादि प्रमाणोंसे आत्मतत्व नहीं ज्ञात हो सकता, तब कैसे उसका ज्ञान होगा? इस प्रश्नका उत्तर देते हैं--) पूर्वोक्त अन्वय-व्यतिरेकसे शरीरसे लेकर बुद्धिपर्यन्त अनात्म-पदार्थों का संशोधन करके 'मैं कौन हूँ' इस प्रकार अपने स्वरूपका अन्वेषण करनेवाले पुरुषको-समस्त प्रमाणोंको अतिक्रमण करके अद्वैत वस्तुका बोधन करानेवाली-श्रुति कहती है कि 'त् वही सत् चित् अानन्द स्वरूप ब्रह्म है ।' ॥१८॥
एष संक्षेपतः पूर्वाऽध्यायत्रयस्याऽर्थ उक्तः। सोऽयं न्याय्योऽपि वेदान्तार्थः शास्त्राचार्यप्रसादलभ्योऽप्यनपेक्षितशास्त्राचार्यप्रसा'दोऽनन्यापेक्षसिद्धस्वभावत्वात्कैश्चिच्छद्दधानै प्रतीयते । तेषां सङ्ग्रहार्थमभिमतप्रामाण्योदाहरणम् । .
भगवत्पूज्यपादेच उदाहायैवमेव तु । सुविस्पष्टोऽस्मदुक्तोऽर्थः सर्वभूतहितैषिभिः ॥ १९ ॥
इस प्रकार सक्षेपसे पूर्वोक्त तीन अध्यायोंके अर्थका वर्णन किया। सो यह युक्तियुक्त वेदान्त-प्रतिपाद्य जीव और ब्रह्मकी एकतारूप अर्थ शास्त्र एवं श्राचार्यके प्रसादसे प्राप्त होने योग्य होनेपर भी शास्त्र और आचार्यके प्रसादको अपेक्षा नहीं रखता। क्योंकि यह निरपेक्ष अन्य किसीकी अपेक्षा न रखनेवाला, स्वयंसिदस्वरूप है। श्रतएव जिन श्रद्धालुओंको उसकी प्रतीति नहीं होती उनके सङ्ग्रहार्थ, जिनका
-ईक्षितुम्, ऐसा भी पाठ है। २-प्रामाण्योदीरणम्, ऐसा पाठ भी है। ३-चाप्युदाहारि, ऐसा पाठ भी है।
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१५२
नैष्कर्म्यसिद्धिः
प्रामाण्य लोकमें प्रसिद्ध है, ऐसे आचार्योंके ( भगवान् श्रीशङ्कराचार्यजीके) वाक्यका उदाहरण देते हैं
मैंने जिस विषयको कहा है, उसीका समस्त प्राणियोंका हित चाहनेवाले श्रीशङ्करभगवत्पूज्यपादाचार्यजीने भी ( उपदेशसाहस्री में ) स्पष्ट रीति से वर्णन किया हे ॥ १६ ॥
किं परमात्मन उपदेश उताऽपरमात्मन इति ? किञ्चातः ? यदि परमात्मनस्तस्योपदेशमन्तरेणैव मुक्तत्वान्निरर्थक उपदेशः । अथाऽपरमात्मनस्तस्यापि स्वत एव ' संसारस्वभावत्वान्निष्फल उपदेशः । एवमुभयत्रापि दोषवच्चाद् । अत आह
अविविच्योभयं वक्ति श्रुतिश्चेत्स्याद् ग्रहस्तथा ।
इति पक्षमुपादाय पूर्वपक्षं निशात्य च ॥ २० ॥
---
पूर्वपक्ष - क्या परमात्माको उपदेश किया है, या जीव को ? यदि कहिए कि इस प्रश्नसे क्या प्रयोजन है ? तो सुनिए- यदि परमात्माको उपदेश देते हो तो वह उपदेश के बिना ही मुक्त है, इसलिए उपदेश करना निरर्थक है । और यदि परमात्मा - जीवको उपदेश होता है, ऐसा कहिए, तत्र तो जो स्वयमेव संसारी स्वभाववाला है, वह उस स्वभावसे कदापि छूट नहीं सकता, इस कारण उपदेश सर्वथा निष्फलं होगा । इस प्रकार दोनों ही पक्षों में दोष है ।
सिद्धान्त - इसपर ( पूज्यपादने जो उत्तर दिया है, उसे ) कहते हैं
अहङ्कार और आत्मा, इन दोनों का परस्पर अभ्यास होकर जो एक वस्तु शबलरूप जीवनामक व्यवस्थित है, उसीको उद्दश्य करके श्रुति यदि प्रभेदका उपदेश करे तो उपदेश हो सकता है। इसलिए पहले भी यह कहा है कि- 'केवल श्रनात्मा या शुद्ध परमात्मा, इन दोनोंके लिए उपदेश नहीं हो सकता।' वही बात पूर्वपक्षका निराकरण करते हुए - ' विविक्त श्रात्मा और श्रनात्मा ही उपदेशके योग्य हैं' इस प्रकार सिद्धान्त रूपसे स्थिर करते हुए जो हमने कहा है, वही पूज्यपाद श्रीभाष्यकारने भी प्रदर्शित किया है || २०
तच्चेदमविवेकात्स्वतो विविक्तात्मने तत्त्वमसीत्युपदिष्टम् - युष्मदस्मद्विभागज्ञे स्यादर्थवदिद चचः ।
यतोऽनभिज्ञे वाक्यं स्याद् बधिरेष्विव गायनम् ॥ २१ ॥ इस प्रकार 'ब्रह्म ही ज्ञानी हुआ, उसने अपने श्रापको जाना' इत्यादि वृह
१ - संसारि०, ऐसा भी पाठ है 1
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भाषानुवादसहिता .
१५३ दारण्यक उपनिषदके वाक्यकी आलोचना करके अज्ञानवश अहङ्कारादिसे अभिन्न हुआ ब्रह्म ही उपदेशका भागी होता है, यह कहा । अब यह शङ्का होती है कि आत्मानात्मविवेकके लिए अन्वय-व्यतिरेककी क्या आवश्यकता है ? इसके निवारणार्थ कहते हैं
जिसने स्वयमेव वाक्योंके विचार करनेके पूर्व ही अन्यय-व्यतिरेकसे देह, इन्द्रियादिसे श्रात्माको पृथक् विवेचित किया है, उसीको पूर्वोक्त जीव और ब्रह्मका ऐक्य 'तत्त्वमसि' इत्यादि शास्त्र उपदेश करता है, अतएव उसकी व्यर्थता नहीं है। इसपर यदि कोई कहे कि-'तब तो अन्वय और व्यतिरेकसे ही मुक्ति होती है, फिर उपदेशका क्या प्रयोजन है ? तो यह ठीक नहीं। क्योंकि
देहेन्द्रियादिसे आत्माको पृथक् जान लेनेपर भी अज्ञान निवृत्त नहीं होता है। उसके निवारणार्थ यह उपदेश है। जो श्रात्मा और अनास्माके विभेदको जाननेवाला है, उसीको उपदेश करना सार्थक है। क्योंकि जिसको उसकी अमिज्ञता नहीं है, उसको उपदेश करना, बधिरोंको गायन सुनाने के तुल्य है ॥ २१ ॥
तस्य च युष्मदस्मद्विभागविज्ञानस्य का युक्तिरुपायभावं प्रतिपद्यते । शृणु
अन्वयव्यतिरेकौ हि पदार्थस्य पदस्य च । स्यादेतदहमित्यत्र युक्तिरेवाऽवधारणे ॥ २२ ॥ .
पूर्वोक्त आत्मा और अनात्माका विवेक कौनसी युक्तिसे होगा ? इस प्रश्नका उत्तर सुनिए
पद-पदार्थों का अन्वय और व्यतिरेक ही, यह आत्मा है यह अनात्मा है, ऐसे पृथक् पृथक् भेदज्ञानके कारण हैं ॥ २२ ॥
कथं तौ युक्तिरित्यत्राहनाद्राक्षमहमित्यस्मिन् सुषुप्तेऽन्यन्मनागपि ।
न वारयति दृष्टिं स्वां प्रत्ययं तु निषेधति ॥ २३ ॥ . वे अन्वय-व्यतिरेक किस रीतिसे विवेकका उत्पादन करते हैं, इसका उत्तर आचार्यपादकी ही उक्तिसे देते हैं
"प्रबुद्ध पुरुष निद्रित अवस्थामें-सुषुप्तिमें-'मैं अपनेसे अतिरिक्त किसीको भी नहीं जानता था, ऐसा स्मरण करता हुआ स्वस्वरूप दृष्टिका निवारण नहीं करता। क्योंकि स्मरण होनेके लिए अपेक्षित पूर्वानुभवरूपसे वहाँपर वही स्थित है। किन्तु घट, पट आदि विषयोंके ज्ञानका ही निषेध करता है। इस कारण श्रास्मा ही अव्यभिचारी (अबाधित)
२०
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१५४
नेकसिद्धिः है। अन्य दृश्यपदार्थ सब व्यभिचारी होनेके कारण बाधित हैं।" ऐसा जो निश्चय है, उसीको अन्वय-व्यतिरेक कहते हैं ॥ २३ ॥
एवं विज्ञातवाच्याथै श्रुतिलोकप्रसिद्धितः ।
श्रुतिस्तत्त्वमसीत्याह श्रोतुर्मोहापनुत्तये ।। २४ ॥
इस प्रकार जिसने अन्वयव्यतिरेकका ज्ञान सम्पादन किया है, उस पुरुषको वेदान्त वाक्य ही पूर्वोक्त एकत्वका प्रतिपादन करता है। यह भी प्राचार्यपादका कहा हुआ है-"द्रष्टा दृश्यभूत दृष्टिका विषय नहीं होता" इत्यादि श्रुति और लोक प्रसिद्धिके अनुसार अनात्माका निरास करके विविक्त (शुद्ध) प्रत्यगात्माका ज्ञान होनेपर श्रति 'तत्त्वमसि' इस वाक्यसे श्रोताके अज्ञानको दूर करने के लिए ऐक्यका प्रतिपादन करती है ॥ २४ ॥
तत्र त्वमिति पदं यत्र लक्षणया वर्तते सोऽर्थ उच्यतेअहं शब्दस्य या निष्ठा ज्योतिषि प्रत्यगामनि । . सैवोक्ता सदसीत्येवं फलं तत्र विमुक्तता ॥ २५ ॥
अहं शब्दमें लक्षणावृशिके द्वारा जिस स्वप्रकाश प्रत्यगास्माका बोध करानेकी सामर्थ्य है, वही 'तत्त्वमसि, इस वाक्यका भी अर्थ है, अर्थात् स्वं पदार्थसे तत्पदके लक्ष्यार्थका कोई भेद नहीं है और दोनोंका ऐक्य होनेसे मुक्ति ही फल है ॥ २५ ॥
अन्यच्चाऽन्वयव्यतिरेकोदाहरणम् । तथा। छित्त्वा त्यक्तेन हस्तेन स्वयं नात्मा विशेष्यते ।
तथा शिष्टेन सर्वेण येन येन विशेष्यते ॥ २६॥
पूज्यपाद आचार्यने प्रकारान्तरसे अन्वय-व्यतिरेक का उदाहरण देकर जो आत्मा और अनात्माके विवेकको दिखलाया है, वह भी कहते हैं
जैसे काटकर अलग फेंक दिये हुए हाथसे स्वयं प्रास्मा पहले 'यह पुरुष सुन्दर हाथ अथवा खराब हाथवाला है, ऐसा कहानेपर भी वर्तमान समयमें वैसा व्यवहृत नहीं होता। वैसे ही जो जो अवशिष्ट स्थूलदेह, श्रोत्रादि इन्द्रिय तथा सूक्ष्मशरीरमें रहनेवाले दुःखिस्वादि धर्म हैं, उनसे पूर्व में विशेषित होनेपर भी इस समय उनसे व्यवहार नहीं होता ॥ २६ ॥
विशेषणमिदं सर्व साध्वलङ्करणं यथा । 'अविद्याध्यस्तमतः सर्व ज्ञात आत्मन्यसद्भवेत् ॥२७॥ 2-अविद्यास्तमसः, ऐसा भी पाठ है।
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माषानुवादसहिता
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जैसे सुवर्णादिसे बने सुन्दर अलङ्कारादि, देहके अध्यासवश देहादिसे व्यतिरिक्त आत्मा में अध्यस्त होते हैं । वैसे ही पूर्वोक्त जितने विशेषण कहे गये हैं, वे भी विद्या वश आत्मामें कल्पित हैं । अतएव शास्त्र और गुरु की कृपासे शुद्ध श्रात्मा के ज्ञान होनेपर वे सब असत् रूप हो जाते हैं ॥ २७ ॥
तस्माच्यक्तेन हस्तेन तुल्यं सर्वं विशेषणम् । अनात्मत्वेन तस्माज्ज्ञो मुक्तः सर्वविशेषणैः ॥ २८ ॥
क्योंकि पूर्वोक्त कारणत्व, बधिरत्व, दुःखित्वादि विशेषण विद्यासे ही श्रात्मा में कल्पित हैं, इसलिए वे छिन्नहस्तके सदृशु अनात्मा ही है । अतएव ज्ञानी पुरुष समस्त विशेषणोंसे मुक्त हो जाता है ॥ २८ ॥
ज्ञातैवात्मा सदा ग्राह्यो ज्ञेयमुत्सृज्य केवलः ।
अहमित्यपि यद्ग्रा व्यपेताऽङ्गसमं हि तत् ।। २९ ।।
( सर्वदा स्थित न होनेके कारण ये विशेषण आत्मा के नहीं हो सकते तो श्रात्मा कौनसा है, इस शङ्काको दूर करते हैं -) जो सर्वदा न रहनेवाले समस्त विशेषणों के भाव और अभावका साक्षीरूपसे सर्वदा स्थित है, उसीको सम्पूर्ण (ज्ञेय) विशेषणों को परित्याग करके श्रात्मा समझिए और जो 'अहम्' ऐसा प्रतीत हो रहा है उसे भी सुषुप्ति में न रहने से छिन्नहस्त पादादिके समान अनात्मरूप समझना चाहिए ॥ २६ ॥ दृश्यत्वादहमित्येष नात्मधर्मो घटादिवत् ।
तथाऽन्ये प्रत्यया ज्ञेया दोषाश्चात्माऽमलो ह्यतः ||३०||
और ये
( व्यभिचारी होने से ये अहङ्कारादि छिन्न हस्तपादादिके समान अनात्मरूप हैं' धर्म भी नहीं हैं, ऐसा कह कर दृश्य होनेके कारण भी ये आत्मा या उसके धर्म नहीं हैं, ऐसा श्राचार्यने कहा है)
चूँकि यह श्रहङ्कार दृश्य है, अतएव घटादिके समान श्रस्मा या उसका धर्म नहीं है तथा और भी जो वृत्तिरूप सुख, दुःख, राग, द्व ेषादि दोष हैं, वे भी दृश्य होने के कारण आत्मरूप नहीं हैं, ऐसा समझिए । अतएव आत्मा सर्वथा विशुद्ध हैं ।। ३० ।।
सर्वन्यायोपसङ्ग्रहः—
नित्यमुक्तत्वविज्ञानं वाक्याद् भवति नान्यतः । वाक्यार्थस्याऽपि विज्ञानं पदार्थस्मृतिपूर्वकम् ॥३१॥
फिर भी जो पूज्यपाद श्राचार्योंने हमारे कहे अर्थको 'तत्त्वमसि' प्रकरण में दिल
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. नैष्कर्म्यसिद्धिः लाई हुई युक्तियोंके साथ समस्त न्यायका उपसंहार करनेवाले पाँच श्लोकोसे कहा है, उसीको कहते हैं
मैं नित्यमुक्त हूँ, ऐसा ज्ञान 'तत्त्वमसि' इत्यादि वाक्योंसे उत्पन्न होता है और किसी साधनके अनुष्ठानसे नहीं होता। वाक्यार्थका भी ज्ञान तत् और स्वम् पदके अर्थके स्मरणसे होता है ॥ ३१ ॥ . अन्वयव्यंतिरेकाभ्यां पदार्थः स्मर्यते ध्रुवम् ।
एवं निःखमात्मानमक्रियं प्रतिपद्यते ॥३२॥
तत् और त्वम् पदके अर्थका स्मरण पूर्वोक्त अन्वय और व्यतिरेकसे होता है। इस प्रकार सर्व विशेषणोंसे रहित आत्माको 'मैं ब्रह्म हूँ' इत्यादि वाक्योंसे जानता है ॥३२॥
सदेवेत्यादिवाक्येभ्यः प्रमा स्फुटतरा भवेत् । दशमस्त्वमसीत्यस्माद्यथैवं प्रत्यगात्मनि ॥ ३३ ॥
'यह सारा नाम-रूपात्मक जगत् उत्पत्तिके पूर्व केवल ब्रह्म ही था, इत्यादि वाक्यों से अवगत ब्रह्मका जब आचार्य 'तत्त्वमसि' इत्यादि वाक्यसे-'तू वही ब्रह्म है' ऐसा बोध कराता है, तब उस पुरुषको,-जैसे भ्रान्त पुरुषको 'तू दशम है' इस वाक्यसे 'मैं दशम हूँ? ऐसी स्पष्ट प्रतीति होती है। वैसे ही;--'मैं ब्रह्म हूँ' ऐसा अपरोक्ष ज्ञान होता है ॥३३॥
वीक्षापन्नम्योदाहरणम् । नववुद्धथपहाराद्धि स्वात्मानं दशपूरणम् । अपश्यन् ज्ञातुमेवेच्छेत्स्वमात्मानं जनस्तथा ॥३४॥ अविधाबद्धचक्षुष्ट्वात् कामापहृतधीः' सदा । विविक्तं दृशिमात्मानं नेक्षते दशमं यथा ॥ ३५ ॥
जो हमने तीसरे अध्यायमें सन्दिग्ध पुरुषको 'मैं कौन हूँ' ऐसी जिज्ञासा होती है, ऐसा कहा और उसमें दृष्टान्तका प्रदर्शन करके दार्शन्तिकको दिखलाया था, वह सब प्राचार्यने भी कहा है, उसीको दिखाते हैं
जैसे, गणनामें प्रवृत्त हुश्रा पुरुष 'हम लोग नौ ही हैं। इस प्रकार नव संख्या में अभिनिवेश होनेके कारण अपना दशम होना, भूलकर अपनेसे अतिरिक्त नौ आदमियोंको देखता हुश्रा भी भ्रान्ति से 'मैं दशम हूँ' ऐसा न जानता हुआ उसे जाननेकी इच्छा करता है। वैसे ही अविद्यासे जिसका स्वरूप प्रावृत्त हुआ है, ऐसा पुरुष विषयोंमें आसक्तिरूप
१-कामापहतधी:, ऐसा पाठ भी है।
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भाषानुवादसहिता
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काम से विषयों की ओर खिंचकर सम्पूर्ण द्वतोंसे सर्वदा मुक्त, सर्वसाक्षी, अपरोक्ष अपने आपको, दशमकी भाँति, नहीं जानता ||३४, ३५॥
सोऽयमेवमविद्या पटलावगुण्ठितदृष्टिः सन् कथमुत्थाप्यत इत्याहयथा स्वापनिमित्तेन स्वप्नदृक्प्रतिबोधितः । करणं कर्म कर्त्तारं स्वामं नैवेक्षते स्वतः || ३६ ॥ अनात्मज्ञस्तथैवाऽयं सम्यकश्रुत्याऽववोधितः ।
गुरुं शास्त्र' तथा मूढं स्वात्मनोऽन्यन्न पश्यति ॥ ३७ ॥
जैसे स्वप्न देखनेवाला अपनी
इसपर ऐसी श्राशङ्का होती है कि इस प्रकार विद्यासे स्वस्वरूपको भूले हुए पुरुषको ज्ञान होनेमें जो कारण होते हैं, वे क्या सच्चे हैं या झूठे हैं ? यदि सत्य तो सिद्धान्ता भङ्ग होता है और यदि उन्हें असत्य माना जाय, तो उनसे यथार्थ ज्ञान कैसे होगा ? इस शङ्काका परिहार दृष्टान्तके द्वारा करते हैंविद्यासे स्वप्नदशामें ही कल्पित चोर या व्याघ्रादिको देखकर डरता हुआ एकदम जाग जाता है । और स्वप्न में अज्ञानसे कल्पित कारण को अपने से विलक्षण समझता है, अर्थात् सत्य नहीं मानता। वैसे ही अनादि विद्यारूपी गाढ निद्रा में निमन्न पुरुष मोहरूपी निद्रासे ही कल्पित श्रुति, श्राचार्य इत्यादि कारणसामग्री से ‘मैं परं ब्रह्म हूँ' इस प्रकार प्रतिबुद्धि होकर गुरु, शास्त्र, मूढ, श्राचार्य आदिको अपने से अतिरिक्त नहीं देखता । इसलिए श्रद्वतको कोई क्षति नहीं हुई । और विद्या ( यथार्थज्ञान) का उदय नहीं होगा, यह आपत्ति भी नहीं हुई, क्योंकि मिथ्याभूत से भी यथार्थज्ञान उत्पन्न होता है, यह पहले दिखलाया ही है ।। ३६-३७ ॥
स किं सकलसंसार प्रविविक्तमात्मानं वाक्यात्प्रतिपद्यत उत तीति । अत्र ब्रूमः । कूटस्थावगतिमात्रशेषत्वात्प्रतिपत्तेरत आहदण्डावसाननिष्ठः स्याद् दण्डसर्पो यथा तथा । नित्याऽवगतिनिष्ठ स्याद् वाक्याञ्जगदसंशयम् ॥ ३८ ॥
शङ्का - अच्छा, इस प्रकार ज्ञानकी उत्पत्ति हो । परन्तु इस प्रकार ब्रह्मका ज्ञान क्या प्रपञ्चसे भिन्न होता है या भिन्न ? प्रथम पक्षको अङ्गीकार करिये तो श्रद्धतका भक्त हो जायगा और द्वितीय पक्ष के मानने से ब्रह्म में सप्रपञ्चता हो जायगी !
समाधान- प्रपञ्च श्रात्मामें श्रविद्यासे कल्पित है, इसलिए उससे भेद किं वा श्रमेद दोनों ही मिथ्या हैं । श्रतएव वाक्यसे जो बोध होता है, वह केवल शुद्ध चैतन्य
१ - गुरुशास्त्र, भी पाठ है ।
२ - शेषमात्रत्वात्, ऐसा पाठ भी है ।
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नैष्कर्म्यसिद्धिः मात्ररूपको विषय करनेवाला होता है । जैसे दण्ड में कल्पित सर्पका पर्यवसान दण्ड ही अवशेष होना है, न कि उस दण्डमें कल्पित सर्पकी सत्ता या असत्ता है। क्योंकि सर्प ही नहीं है, तो उसका अभाव भी एक पदार्थ कहाँसे रहेगा। वैसे ही जगत्का केवल ज्ञानरूप ब्रह्ममें ही पर्यवसान है ॥ ३८॥
कुत एतत् ? यस्मात्पश्यनिति यदाहोच्चैः प्रत्यक्त्वमजमव्ययम्' ।
अपूर्वानपरानन्तं त्वमा तदुपलक्ष्यते ॥ ३९ ॥ शङ्का-किस प्रमाणसे यह सिद्ध होता है ?
समाधान क्योंकि "सुषुप्ति अवस्थामें जो द्रष्टा किसी विषयको नहीं जानता, वह स्वयम्प्रकाशरूप होता हुआ ही नहीं प्रकाश करता है, न कि वह जरूप है, इस कारणसे । क्योंकि द्रष्टाकी स्वरूपभूत दृष्टिका लोप नहीं होता । उस अवस्थामें उससे कोई भिन्न वस्तु ही नहीं है, किसको प्रकाशित करे ?" इस प्रकार श्रुति मुक्तकण्ठसे आत्माको सुषुप्ति अवस्थामें समस्त द्वैतरहित, कूटस्थ, ज्ञानरूप बतलाती हैं । ऐसी जो उत्पत्तिरहित, द्वैतसे शून्य, कार्यकारणसे रहित और बाह्याभ्यन्तर शून्य प्रत्यक पदार्थ है, वही 'स्वम्' पदसे लक्षित होता है ॥ ३६॥
'तत्त्वमस्यादिवाक्योत्थविज्ञानेनैव बाध्यते । यस्मात्---.
पूर्वोक्त युक्तिके अनुसार तत्त्वमसि इत्यादि वाक्योंसे उत्पन्न हुए तत्त्वज्ञानसे ही अविद्याका नाश होता है । इसलिए वाक्यकी अपेक्षा है। अतएव वह व्यर्थ है, ऐसी शङ्का नहीं करनी चाहिए।
.. अस्माघदपरं रूपं नास्तीत्येव निरूप्यते ।
अन्यथाग्रहणाभावाद् बीजं तत्स्वमबोधयोः॥४०॥ शङ्का-यदि अविद्याकी निवृत्ति 'तस्वमसि' वाक्यसे उत्पन्न तत्त्वशानसे ही होती है, तब सुषुप्ति अवस्थामें निर्विशेष वस्तुकी सिद्धि श्रुतिने कैसे कहो ?
समाधान-सुषुप्तिमें विपरीत ज्ञानके न होनेसे द्वतरूप जाग्रत् और स्वप्न नहीं है। अतएव वहाँ इस प्रकृत आत्मस्वरूपसे अतिरिक्त स्वरूप नहीं है, यह 'न तु तद्वितीय' इत्यादि तिने निरूपण किया है। न कि विपरीत ज्ञानकी कारण अविद्या नहीं है, इस अभिप्रायसे । क्योंकि स्वप्न और. जाग्रत् अवस्थाकी कारण जो अविद्या है, वह सषप्तिमें है ही, इसलिए उसकी निवृत्ति के लिए वाक्य भी सार्थक हुआ ॥ ४०॥
अस्यार्थस्य द्रढिम्ने उदाहरणम्2-अजमद्वयम्, ऐसा पाठ भी है।
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माषानुवादसहिता कार्यकारणबद्धौ ताविष्येते विश्वतैजसो ।
प्राज्ञः कारणबद्धस्तु' द्वौ तौ तुर्ये न सिद्धयतः॥४१॥ पूर्वोक्त अर्थकी पुष्टिके लिए गौड़पादाचार्यके वाक्यको प्रमाणरूपसे उद्धृत करते हैं-विश्व-जाग्रत् अवस्थाभिमानी आत्माऔर तैजस-स्वप्नावस्थाभिमानी अात्मा, ये दोनों विपरीत ज्ञान और अज्ञान, दोनोंसे बद्ध हैं। सुपुतिअवस्थाभिमानी प्राज्ञ तो केवल अज्ञानसे ही श्रावृत है। तुरीय अवस्थामें विपरीत ज्ञान और अज्ञान दोनों ही नहीं हैं ॥ ४१ ।।
अन्यथागृह्णतः स्वमो निद्रा तत्त्वमजानतः।
विपर्यासे तयोः क्षीणे तुरीयं पदमश्नुते ॥ ४२ ॥ (किस समय तुरीय पदकी प्राप्ति होती है, इस बातको अाचार्यने कहा है-)
विपरीत ज्ञानसे स्वप्न होता है और केवल तत्त्वके अज्ञ.नसे निद्रा. अर्थात् सुषुप्ति होती है। इन दोनों अवस्थाओं का विपरीत ज्ञान और अज्ञानरूप विपर्यास जब तत्त्वज्ञानसे क्षीण होता है, तब तुरीय पदकी प्राप्ति होती है ।। ४२ ॥
तथा भगवत्पादीयमुदाहरणम्
सुषुप्ताख्यं तमोऽज्ञानं बीजं स्वमप्रबोधयोः।
आत्मबोधप्रदग्धं स्याद् बीनं दग्धं यथाभवम् ॥ ४३ ॥ भगवत्पूज्यपाद प्राचार्य ने भी ( उपदेश साहस्रीमें ) ऐसा ही कहा है--
सुषुप्ति, तम, अज्ञान इन पर्यायवाची शब्दोंसे वाच्य जो अज्ञान (अग्रहण ) स्वप्न और जाग्रत्का कारण है, वह स्वात्माके ज्ञानसे अतिशय दग्ध हो जानेपर दग्ध बीजके सदृश पुनः संसाररूप अंकुरको नहीं उत्पन्न करता ॥ ४३ ॥
एवं गौडैद्राविडैनः पूज्यैरयमर्थः प्रभाषितः ।
अज्ञानमात्रोपाधिः सन्नहमादिगीश्वरः ।। ४४ ॥ इस प्रकार हमारे पूज्य गौडपादाचार्य और द्राविड भगवत्पूज्यपादाचार्य ने भी यही बात कही है कि-अज्ञानमात्र ही जिसकी उपाधि है, ऐसा परमात्मा अहङ्कारादिका साक्षी होकर जीव रूपसे स्थित होता है ॥ ४४ ॥ . तत्राऽन्यथाग्रहणवदन्यथाग्रहणबीजमग्रहणमनात्मधर्म एवेत्याह
इदं ज्ञानमहं ज्ञाता ज्ञेयमेतदिति त्रयम् ।
योऽविकारो विजानाति परागेवाऽस्य तत्तमः ॥ ४५ ॥ १-बुद्धौ तु, ऐसा पाठ भी है। २-पूर्वरयं, ऐसा पाठ भी है।
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नैष्कर्म्य सिद्धिः
मिथ्यात्रज्ञान जैसे अनात्माका धर्म है, वैसे ही उसका कारण अज्ञान भी श्रनारमाका ही धर्म है, यह कहते हैं
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ज्ञान (प्रमाण), ज्ञाता ( ग्रहङ्कार ) तथा ज्ञेय इन तीनोंको जो अविकारी रहकर ही प्रकाशित करता है, उस श्रात्मा के बाहर ही अज्ञानरूप तम रहता है, अर्थात् अज्ञान उस आत्माका स्वरूप भी नहीं हो सकता और धर्म भी नहीं हो सकता है ॥५४॥ यत एतदेवमतस्तस्यैव बीजात्मनस्तमसश्चित्तधर्मविशिष्टस्य स्वकार्यद्वितीयाभिसम्बन्धो न त्वविकारिण आत्मन इत्याह दृष्टान्तेन
रूपप्रकाशयोर्यद्वत्सङ्गतिर्विक्रियावतोः ।
सुखदुःखादिसम्बन्धश्चितस्यैव विकारिणः ॥ ४६ ॥
चूँकि विकाररहित ही आत्मा इन पूर्वोक्त तीनोंको जानता है, श्रतएच चित्त परिणामोंसे विशिष्ट बीजरूप अज्ञानका ही स्वकार्यरूप द्वितीयके साथ ( साक्षात् ) होता है, न कि अविकारी ग्रात्माका ? उसका सम्बन्ध तो अज्ञानोपाधिसे उत्पन्न हुए चित्ररूप उपाधिके द्वारा हो होता है, स्वभावसे नहीं; इस बातको दृष्टान्त द्वारा समझाते हैं-
जैसे रूप और प्रकाश, ये दोनों ही विकारी हैं, अतएव उन दोनोंका परस्पर सन्बन्ध होता है | वैसे ही सुखदुःखादिसे सम्बन्ध विकारी चितका ही होता है आत्माका नहीं ॥ ४६ ॥
तदेतदन्वयव्यतिरेकाभ्यां दर्शयिष्यन्नाह -
सम्प्रसादेऽविकारित्वादस्तं याते विकारिणि ।
पश्यतो नात्मनः किञ्चिद्वितीयं स्पृशतेऽखपि ||४७||
चित्तके साथ सम्बन्ध रहनेसे ही आत्माका दुःखादिके साथ सम्बन्ध होता है, उसके न रहने से नहीं होता। इस कही हुई बातको अन्वयव्यतिरेक से दिखलाते हुए कहते हैं—
जव सुषुप्ति समय में विकारी चित्त प्रस्तको प्राप्त होता है, तब विकारी और असदृष्टि स्वरूप, प्रकाशमय श्रात्मा के साथ किञ्चिन्मात्र भी द्वैतका स्पर्श नहीं होता ||४७|| सोऽयं कूटस्थज्ञानमूर्तिरात्मा -
यथा प्राज्ञे तथैवाऽयं स्वमजागरितान्तयोः । पश्यन्नप्यविकारित्वाद् द्वितीयं नैव पश्यति ॥ ४८ ॥
श्रत: यह कूटस्थ ज्ञानस्वरूप श्रात्मा जैसे सुषुप्ति अवस्थामें अविकारी
१ - विक्रियावतः, ऐसा पाठ भी है।
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भाषानुवादसहिता
१६१ होनेसे देखता हुया भी द्वितीय वस्तुको नहीं देखता। वैसे ही स्वप्न और जाग्रत् अवस्थामें भी द्वैतको नहीं देखता ? ॥ ४८ ॥
एवं ज्ञानवतो नास्ति ममाऽहंमतिसंश्रयः।
भास्वत्प्रदीपहस्तस्य ह्यन्धकार इवाऽग्रतः ।। ४९ ॥
इस प्रकार प्रात्मस्वरूपका ज्ञान जिस पुरुषको हो गया है उसको प्रकाशमान दीपकको हाथमें रखनेवाले पुरुषके सामने जैसे अन्धकार नहीं रह सकता। वैसे ही, अहम् मम, ऐसी बुद्धि कभी नहीं होती ॥ ४६ ॥
तत्र दृष्टान्तःआ प्रबोधाद्यथाऽसिद्धिद्वैतादन्यस्य वस्तुनः । बोधादेवमसिद्धत्वं बुद्धयादेः प्रत्यगात्मनः ॥ ५० ॥ - इस विषयमें अन्य दृष्टान्त देते हैं--
जैसे जब तक बोध नहीं होता, तभी तक द्वैतसे भिन्न अर्थात् अद्वितीय वस्तुकी असिद्धि है। वैसे ही ज्ञान होनेके बाद प्रत्यगात्मा के साथ बुद्धयादिका सम्बन्ध भी नहीं होता ॥ ५० ॥
स एष विद्वान् हानोपादानशून्यमात्मानमात्मनि पश्यन्सर्वमेवाऽनुजानाति सर्वमेव निषेधति ।
भेदात्मलाभोऽनुज्ञा स्यानिषेधोऽतत्स्वभावतः ॥५१॥ । पूर्वोक्त तत्त्वज्ञानी पुरुष जो हेय भी नहीं है और उपादेय भी नहीं है ऐसे आत्माको अपना स्वरूप समझता हुआ
द्वैतप्रपञ्चकी अनुज्ञा भी करता है और समस्त वस्तु का निषेध भी करता है। व्यवहार दृष्टि से द्वैतप्रपञ्चका स्वरूपलाभ ही अनुज्ञा कहाती है। तत्त्वदृष्टिसे उस प्रपञ्चका न होना ही निषेध कहाता है ॥ ५१ ॥.
सर्वस्योक्तत्वादुपसंहारःपरमार्थात्मनिष्ठं यत्सर्ववेदान्तनिश्चितम् । 'तमोपनुद्धियां ज्ञानं तदेतत्कथितं मया ॥ ५२ ॥ जो कुछ कहना था, वह सब कहा गया। इसलिए अब उपसंहार करते हैं
जो समस्त वेदान्तोंसे निश्चितरूपसे उत्पन्न हुश्रा अन्त:करण के अन्धकार को निवृत्त करने वाला प्राधमाका तत्त्वज्ञान है, वह सब इस प्रकरण में मैंने कह दिया है, अर्थात् इससे अतिरिक्त कुछ जीवोंके लिए ज्ञातव्य या कथनीय अवशिष्ट नहीं है ॥५२॥
१-तमोपनुद्धि यज्ज्ञानं, पाठ भी है।
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१६२
नैष्कर्म्यसिद्धिः
एतावदिहोक्तम्-नेहाऽऽत्मविन्मदन्योऽस्ति न मत्तोऽज्ञोऽस्ति कश्चन । इत्यजानन् विजानाति यः स ब्रह्मविदुत्तमः ।। ५३ ।।
[ साङ्ख्यवादियोंके समान नानात्मवादकी शङ्का को निवृत्त करनेके लिए फिर भी उक्त अर्थका संग्रह करके उसे दिखाते हैं - ] इस प्रकरण में यह कहा गया है कि-से अन्य कोई ब्रह्मवेत्ता नहीं है और मुझसे अतिरिक्त अज्ञ भी कोई नहीं है अर्थात् ज्ञान और अज्ञानका आश्रय मैं ही हूँ । इस प्रकारसे द्वितीय श्रात्माको वृत्तिज्ञानसे विषय न करते हुए — केवल स्वरूप चैतन्यके द्वारा स्वप्रकाश रूपसे जो जानता है, वह पुरुष ब्रह्मज्ञानियों में श्रेष्ठ है ॥ ५३ ॥
१
एवमात्मानं ज्ञात्वा किं प्रवर्तितव्यमुत निवर्तितव्यमाहोस्विन्मुक्त प्रग्रहतेति ? उच्यते
ज्ञेयाऽभिन्नमिदं यस्माद् ज्ञेयवस्त्वनुसार्यतः ।
न प्रवृत्ति निवृत्ति वा कटाक्षेणाऽपि वीक्षते ॥ ५४ ॥
इस प्रकार तत्वविचारको समाप्त करके तत्त्ववेत्ताकी ( ब्रह्मवेत्ताकी ) चर्याका निरूपण करते हुए विकल्प करते हैं कि "ज्ञानोत्तर काल में ब्रह्मज्ञानीको वर्णाश्रम धर्मों में प्रवृत्त होना चाहिये ? या उनसे निवृत्ति ही उचित है ? अथवा उसको स्वच्छन्द वर्ताव करना चाहिए ?" इसका उत्तर देते हैं
घूँकि यह ज्ञान ज्ञेय वस्तु, जो अद्वितीय चैतन्य है, से अभिन्न है । अतएव उसी अनुकरण करता है और चैतन्य प्रवृत्ति एवं निवृत्तिसे शून्य है । इस कारण ब्रह्मवेत्ता उसी रूपसे स्थित होता है। प्रवृत्ति और निवृत्ति, किसीको कटाक्ष से भी नहीं देखता ॥ ५४ ॥ कुत एतज्ज्ञेयाऽभिन्नमिति ? यतः - प्रागात्मवोधाद् बोधोऽयं बाह्यवस्तूपसर्जनः प्रध्वस्ताऽखिलसंसार आत्मैकालम्बनः श्रुतेः ॥ ५५ ॥
।
3
१ - न मत्तोऽन्योऽस्ति, पाठ भी है।
२ - बाह्य वस्तू पसर्जनम्, पाठ भी है । . ३ - श्रात्मैकालम्बनं श्रुतेः, ऐसा पाठ भी है।
२
शङ्का - ज्ञान ज्ञेयभूत चैतन्यसे अभिन्न है, इसमें क्या कारण है ? समाधान - चूँकि आत्मज्ञान होनेके पूर्व यह ज्ञान बाह्य वस्तुको
विषय करता था, इसलिए भेद था । जब कि श्रुतिके द्वारा तत्त्वज्ञानका उदय होकर
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भाषानुवादसहिता सम्पूर्ण संसार का नाश हो चुका, तब केवल एक श्रात्मा ही अवशिष्ट रह जाता है ॥ ५५ ॥
एवमवगतपरमार्थतत्त्वस्य न शेषशेषिभावस्तत्कारणस्योत्सारितत्वादित्याह
वास्तवेनैव वृत्तेन निरुणद्धि यतो भवम् ।
निवृत्तिमपि मृद्नाति सम्यग्बोधः प्रवृत्तिवत् ॥ ५६ ।।
इस प्रकार आत्मतत्त्वके यथार्थज्ञानवाले पुरुषका किसी विधिके साथ शेषशेषी भाव नहीं है। क्योंकि विधिसे प्रवृत्ति उत्पन्न होनेके लिए जो अर्थित्वादि उपेक्षित है उसका कारण अविद्या है, वह तत्त्वज्ञानसे निवृत्त हो गई है, यह कहते हैं
___चूंकि तत्त्वज्ञान प्रवृत्ति और निवृत्तिसे शून्य आत्मवस्तु के अनुरोधसे संसारको नष्ट कर देता है । इसी कारण ज्ञानी पुरुषकी जैसे विधिसे प्रवृत्ति नहीं होती, वैसे ही निवृत्ति भी नहीं होती। केवल वस्तु-स्वभावसे ही अमानित्वादि धर्म उसमें रहते हैं ॥ ५६ ॥
सकृदात्मप्रसूत्यैव निरुणद्धयखिलं भवम् ।
ध्वान्तमात्रनिरासेन न ततोऽन्यान्यथामतिः ।। ५७ ॥
तत्त्वज्ञानको उत्पत्तिमात्रसे ही अविद्याकी निवृत्ति हो जाती है, यह अन्वय और व्यतिरेकसे ही लोकमें सिद्ध है । अतएव आत्मतत्त्वका यथार्थज्ञान अपनी उत्पत्तिसे ही उसी क्षण मिथ्याज्ञान और तजन्य संस्काररूप सकल जगत्को नष्ट कर डालता है। उसके लिए अभ्यास आदिकी आवश्यकता नहीं होती, क्योंकि मिथ्याज्ञान आदि अविद्याका कार्य है। इसलिए अविद्याके नष्ट होते ही सारा जगत् नष्ट हो जाता है। अतः इस अवसरमें विधिका अवकाश ही नहीं है ॥ ५७ ॥
'देशकालाद्यसम्बन्धादेशादेर्मोहकार्यतः । . नानुत्पन्नमदग्धं वा ज्ञानमज्ञानमस्त्यतः॥ ५८ ॥
लोकमें जो घटादिज्ञान उत्पन्न होते हैं, वे तत् तत् देश और कालसे नियत अपने अपने विषयोंके अज्ञानका ही निराकरण करते हैं, न कि सकल अज्ञानका ! इसका कारण यह है कि वे समस्त ज्ञान देश, काल, अवस्थादिसे परिछिन्न हैं और जड़ हैं। आत्मा तो अविद्याकार्य देशकालादिके संसर्गसे रहित और स्वयम्प्रकाश है। अतएव उसमें अन्य अनिवृत्त अज्ञान या उसे निवृत्त करनेके लिए अपेक्षित अनुत्पन्न ज्ञानान्तर भी नहीं है ॥ ५८॥
१-देशकालाद्यसंबन्धान् , और 'देहादे, ऐसा पाठान्तर भी है।
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नैष्कर्म्यसिद्धिः सम्यग्ज्ञानशिखिप्लुष्टमोहतत्कार्यरूपिणः ।
सकृन्निवृत्ते ध्यस्य किं कार्यमवशिष्यते ॥ ५९॥
तत्त्वज्ञानरूप अग्निसे जिसका अज्ञान और उसका कार्य दग्ध हो चुका है, बाध करने योग्य सम्पूर्ण प्रपञ्च एक बार ही निवृत्त हो चुका है, उस आत्माका फिर क्या कर्तव्य अवशिष्ट है ? ( अतएव ऐसे पुरुषको फिर कोई विधि प्रेरित नहीं कर सकती, यह ठीक ही कहा है। ) ॥ ५६ ॥
वास्तवेनैव वृत्तनाऽविद्यायाः प्रध्वस्तत्वान्न किञ्चिदवशिष्यत इत्युक्तः परिहारः । अथाऽपरः साम्प्रदायिकः
निवृत्तसपः सर्पोत्थं यथा कम्पं न मुञ्चति । विध्वस्ताऽखिलमोहोऽपि मोहकार्य तथात्मवित् ॥ ६० ॥
यथार्थरीतिसे विचार करनेपर अविद्याके बिलकुल ही नष्ट हो जानेके कारण ज्ञानीका किञ्चित् भी कर्तव्य अवशिष्ट नहीं है, ऐसा परिहार कर दिया। अब जीवन्मुक्ति पक्षको स्वीकार करके सम्प्रदायप्रसिद्ध दूसरा भी परिहार बताते हैं
जैसे रज्जुके तत्त्वज्ञानसे सर्पभ्रान्तिकी निवृत्ति हो जानेपर भी उससे उत्पन्न हुए भय. कम्पादिसे कुछ काल तक पुरुष युक्त ही रहता है। वैसे ही आत्मज्ञानी अविद्या और उसका सम्पूर्ण कार्य बाधित होनेपर भी कुछ देर तक, प्रारब्ध फलके भोग पर्यन्त, संसारकार्यों से युक्त रहता है ॥६०॥
यतः प्रवृत्तिबीजमुच्छिन्नं तस्मात्तरोरुत्खातमूलस्य स्पर्शेनैव' यथा क्षयः । तथा बुद्धात्मतत्त्वस्य निवृत्त्यैव तनुक्षयः ॥ ६१॥
चूंकि सारे प्रवृत्तिके कारण अविद्या, काम आदि तत्वज्ञानसे उच्छिन्न हो जाते है, अतएव
जिस बृक्षकी जड़ कट गई हो, उसका क्षय जैसे हस्तके स्पर्शसे ही हो जाता है। ऐसे ही ज्ञानीके प्रातिभासिक शरीरादिका क्षय केवल निवृत्तिसे ही हो जाता है ॥६१ ॥
अथालेपकपक्षनिरासार्थमाहबुद्धाऽद्वैतसतत्त्वस्य यथेष्टाचरणं यदि ।
शुनां तत्त्वदृशां चैव को भेदोऽशुचिभक्षणे ॥ ६२॥ . यदि कोई कहे कि "तस्ववेत्ताकी प्रवृत्ति विधि-निमित्तक न मानी जाय तो
१-शोषेणैव, ऐसा पाठ भी है।
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भाषानुवादसहिता
१६५.
फिर रागद्वेषादि निमित्तसे ही माननी पड़ेगी । तब तो यथेच्छाचार करनेपर भी तवज्ञको कोई दोष नहीं प्राप्त होगा ?" तो इस शंकाके निराकरण के लिए कहते हैं—
द्वैतात्मा यथार्थ स्वरूपको जान लेनेपर भी यदि यथेष्टाचरण होने लगे, तो फिर शुचि पदार्थका सेवन करनेमें तत्त्वज्ञानी और कुत्ते एक सरीखे हो जाएँगे । इसलिए ऐसा नहीं माना जाता। संस्कारवशसे भी तत्त्वज्ञानीकी प्रवृत्ति मनुष्यत्व जात्युचित कर्मों में नहीं होती । किन्तु वर्णाश्रमधर्मो के संस्कारवश प्रातिभासिक व श्रमोचित ही होती है ! इसलिए ज्ञानोका यथेष्टाचरण कदापि नहीं हो सकता ? ॥ ६२ ॥
कस्मान्न भवति ? यस्मात् - अधर्माज्जायते ज्ञानं
यथेष्टाचरणं ततः । धर्मकार्ये कथं तत्स्याद् यत्र धर्मोऽपि नेष्यते ॥
६३ ॥
शङ्का - वर्णाश्रमाभिमान तो आगन्तुक है, जात्यभिमान स्वाभाविक है । इसलिए संस्कार के बलसे मनुष्यत्व जात्युचित ही प्रवृत्ति क्यों नहीं होती ?
समाधान - इसलिए कि जन्म जन्मान्तर में किये हुए अधर्मसे ( पापांसे ) अज्ञान अर्थात् श्रभक्ष्य भक्षणादि में कर्तव्यताबुद्धि होती है, अज्ञानसे फिर यथेष्टाचरण होता है | तत्वज्ञान तो अनेक जन्मोंमें किए सुकृतोंसे होता है, 'धमसे ही सुख और ज्ञान होता है । तो फिर जिसके ( ज्ञान के ) होनेसे कामादि दोषोंका अत्यन्त उच्छेद हो जाने के कारण धर्माचरण में भी प्रवृत्ति नहीं होती । भला, उस ज्ञानके उदय होनेपर यथेष्टाचरण कैसे हो सकेगा ? ( अर्थात् तत्त्ववेत्ताके तो अतीत अनेक जन्मों में भी यथेष्टाचरणकी
1
वार्ता तक नहीं है । श्रतएव उसके संस्कार भी नहीं हैं, इसलिए उसका यथेष्टाचरण नहीं हो सकता ! ) ॥ ६३ ॥
प्रत्याचक्षाण आहाऽतो यथेष्टाचरणं हरिः ।
यस्य सर्वे समारम्भाः प्रकाशं चेति सर्वक' ॥ ६४ ॥
इसीलिए भगवान्ने गीता में ज्ञानीके यथेष्टाचरणका खण्डन करनेके लिए ज्ञानीका लक्षण ऐसा बतलाया है कि - "जिसके सब कार्य काम संकल्पसे वर्जित होते हैं, " ," " जो सत्व, रज और तमोगुण के कार्यों - प्रकाश, प्रवृत्ति और मोह-में श्रासक्ति या द्व ेष नहीं करता वह गुणातीत कहाता है । " ॥ ६४ ॥
तिष्ठतु तावत् सर्वप्रवृत्तिबीजघस्मरं ज्ञानं, मुमुक्ष्ववस्थायामपि
न सम्भवति यथेष्टाचरणम् । तदाह
१ -- सत्यकू, ऐसा पाठ भी है ।
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नैश्कसिधिः यो हि यत्र विरक्तः स्यान्नाऽसौ तस्मै प्रवर्तते । लोकत्रयविरक्तत्वान्मुमुक्षुः किमितीहते ॥ ६५ ॥
अस्तु, तत्वज्ञान तो समस्त प्रवृत्तिके बीजको ही भस्म कर देता है, इसलिए उसकी तो बात रहे । जब कि मुमुक्षु अवस्थामें भी यथेष्टाचरण नहीं हो सकता, तब ज्ञान होनेपर कैसे होगा ? क्योंकि जो जिस विषयमें विरक्त है, वह उसके साधनमें प्रवृत्त नहीं होता। मुमुक्षु तो लोकत्रयसे विरक्त है, तब वह उसमें क्यों प्रवृत्त होगा ? अर्थात् मुमुक्षु भी जिस विषयमें चेष्टा नहीं करता है, उसमें मुक्त पुरुष चेष्टा नहीं करता, इसमें तो कहना ही क्या है ? ॥ ६५ ॥
तत्र दृष्टान्त:-क्षुधया पीड्यमानोऽपि न विष ह्यत्तुमिच्छति ।
मिष्टान्नध्वस्ततूड जानन्नाऽमूढस्तजिघृक्षति ॥६६॥ इस विषयमें दृष्टान्त देते हैं
जैसे क्षधासे पीडित भी मनुष्य उसे शान्त करने के लिए विष नहीं खाना चाहता तो फिर जब मिष्टान्नके भक्षण करनेसे तुधा निवृत्त हो चुकी, तब भला वह विष खानेमें कैसे प्रवृत्त हो सकता है ? वैसे ही मुमुत्तुदशामें वर्तमान यह पुरुष ऐहिक और पारलौकिक सुखोंसे विरक्त होकर जब उनके साधनों में नहीं प्रवृत्त हुश्रा, तब फिर ब्रह्मानन्दका अनुभव करनेके बाद वह विषयसुखोंमें प्रवृत्त होंगा, यह बात सम्भावित भी नहीं हो सकती ? ॥६६॥
यतोऽवगतपरमार्थतत्त्वस्य यथेष्टाचरणं न मनागपि घटते मुमुक्षुत्वेऽपि च तस्मात् -
रागो लिङ्गमबोधस्य चित्तव्यायामभूमिषु । कुतः शाद्वलता तस्य यस्याऽग्निः कोटरे तरोः ॥ ६७ ॥
क्योंकि परमार्थ तत्वके ज्ञाता (तत्त्ववेत्ता) का एवं मुमुक्षु अवस्था में वर्तमान पुरुष का भी किञ्चिन्मात्र भी यथेष्टाचरण नहीं हो सकता, इसलिए
चित्तकी स्वतःप्रवृत्तिके आलम्बनभूत-शब्दादिविषयोंमें जो अनुराग होता है उसको अज्ञानका चिह्न समझना चाहिए, क्योंकि जिस वृक्षके कोटरमें अमिका निवास रहता है, उसमें हरियाली कैसे पा सकती है ? ॥६७ ॥
१-तत्र प्रवर्तते, ऐसा पाठ मी है। २-मृष्टान्नं, ऐसा पाठ भी है
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- भाषानुवादसहिता
सकलपुरुषार्थसमाप्तिकारिणोऽस्याऽऽत्मावबोधस्य कुतः प्रसूतिरिति । उच्यते
अमानित्वादिनिष्ठो यो यश्चाऽद्वेष्ट्रादिसाधनः । ज्ञानमुत्पद्यते तस्य न वहिर्मुखचेतसः ॥ ६८ ॥
समस्त पुरुषार्थ को समाप्त करने (मनुष्यको कृतकृत्य कर देने) बाला यह अात्मज्ञान कैसे उत्पन्न होता है, यह बात कहते हैं
जो पुरुष गीतोक्त 'अमानिव आदि गुणों से युक्त' तथा 'अद्वेष्ट्टत्व आदि . साधनोंसे सम्पन्न है, उसे यह ज्ञान होता है । जो बहिर्मुव है उसको नहीं होता ॥ ६७ ॥
___ उत्पन्न आत्मविज्ञाने किमविद्याकार्यत्वात् प्रवृत्तिवनिवृत्त्यात्मकाऽमानित्वादयो निवर्त्तन्ते उत नेति । नेति ब्रुमः । किं कारणम् ? निवृत्तिशास्त्राऽविरुद्धस्वाभाव्यात्परमात्मनो न तु नियोगवशात् । कथं तर्हि । शृणु. उत्पन्नाऽऽत्मप्रबोधस्य त्वद्वेष्ट्रत्वादयो गुणाः ।
अयत्नतो भवन्त्यस्य न तु साधनरूपिणः ॥ ६९ ।।
शङ्का-अच्छा, आत्मज्ञानके उत्पन्न होनेपर अविद्याके निवृत्त हो जाने से उसका कार्य प्रवृत्ति जैसे नहीं होती, वैसे ही निवृत्तिरूप अमानित्वादि गुण भी निवृत्त हो जाते हैं या नहीं निवृत्त होते ?
___ समाधान नहीं निवृत्त होते, क्योंकि आत्माका स्वभाव निवृत्तिशास्त्र के अनु. कूल है, अतएव उसमें अमानित्वादि गुण विधिके बशसे नहीं रहते । तब कैसे रहते हैं ! यह सुनिए--
__ आत्मतत्वके ज्ञातामें अद्वेष्टत्वादि गुण प्रयत्नके ही बिना सिद्ध रहते हैं । साधन अवस्थामें जैसे प्रयत्नसे उनका सम्पादन करना पड़ता है, सिद्धावस्थामें वैसे नहीं ॥ ६९॥
यत एतदेवमत:इमं ग्रन्थमुपादित्सुरमानित्वादिसाधनः ।
यत्नतः स्यान्न दुवृत्तः प्रत्यग्धर्मानुगो ह्ययम् ।। ७० ॥ जब साधकके साधनरूपसे और सिद्ध के सिद्धरूपसे ये अमानिखादि लक्षण हैं
अतएव
इस ग्रन्थको ग्रहण करने की इच्छा करनेवाला पुरुष भी यत्नपूर्वक अमोनिस्वादि
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१६८
tosसिद्धिः
साधनका सम्पादन करे, दुराचरण कदापि न करे । क्योंकि यह ग्रन्थ श्रात्मस्वरूपका
अनुकरण करनेवाला है ॥ ७० ॥
न दातव्यश्चायं ग्रन्थः
नाsविरक्ताय संसारान्नाऽनिरस्तैषणाय च ।
न चाऽयमवते देयं वेदान्तार्थप्रवेशनम् ॥ ७१ ॥ गुरुजनों को भी इस ग्रन्थका अध्यापन ऐसे पुरुषको नहीं कराना चाहिए जो कि संसार से विरक्त न हुआ हो, जिसकी इच्छाएँ निवृत्त न हुई हों और जो हिंसा यदि यम से सम्पन्न न हो उसको भी वेदान्तप्रतिपाद्य विषयमें चित्तको प्रवेश करानेवाला यह ग्रन्थ नहीं पढाना चाहिए ॥ ७१ ॥
ज्ञात्वा यथोदितं सम्यग्ज्ञातव्यं नाऽवशिष्यते ।
न चाऽनिरस्तकर्मेदं जानीयादञ्जसा ततः ॥ ७२ ॥
इस ग्रन्थ में जैसा प्रतिपादन किया है, वैसा जान लेनेसे फिर कुछ भी ज्ञातव्य अवशिष्ट नहीं रहता । और जिसने सर्व कर्मोका संन्यास नहीं किया है, वह श्रनायास से इस ग्रन्थ को नहीं समझ सकता । अतएव ॥ ७२ ॥ 'निरस्तसर्वकर्माणः प्रत्यक्प्रवणबुद्धयः निष्कामा यतयः शान्ता जानन्तीदं यथोदितम् ॥ ७३ ॥
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जिन्होंने ( विधिपूर्वक ) सर्व कर्मों का संन्यास किया हो, जिनकी बुद्धि ( एकमात्र ) श्रात्माको ओर लगी हो, तथा जिनके अन्तःकरण के धर्म - कामादि दोष दूर हुए हों, जिनका मन विक्षिप्त न हो वे विरक्त शान्त पुरुष ही इस ग्रन्थके यथोक्त मर्मको अच्छे प्रकार से समझ सकेंगे ॥ ७३ ॥ श्रीमच्छङ्करपादपद्मयुगलं संसेव्य लब्ध्वोचिवान् ज्ञानं पारमहंस्यमेतदमलं स्वान्तान्धकारापनुत् । माभूदत्र विरोधिनी मतिरतः सद्भिः परीक्ष्यं बुधैः सर्वत्रैव विशुद्धये मतमंद सन्तः परं कारणम् ॥ ७४ ॥
मैंने श्रीमत्पूज्यपाद भगवान् श्रीशङ्कराचार्य गुरुवर्य के चरणारविन्दको निष्कपट
सेवा करके हृदय के अन्धकारको दूर करनेवाला, निर्मल परमहंसरूपता को देनेवाला जो
ज्ञान प्राप्त किया, उसीको इस ग्रन्थ रूपसे प्रतिपादन किया है। कोई भी पुरुष दोषदृष्टि न करें। किन्तु महात्मा लोग प्रयत्नसे क्योंकि महात्मा पण्डितजन ही गुण अथवा दोषोंको सिद्ध करनेमें
१ - निरस्य सर्वकर्माणि, ऐसा भी पाठ है ।
इसलिए इस ग्रन्थपर इसकी परीक्षा करें । प्रमाण हैं ॥ ७४ ॥
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भाषानुवादसहिता
१६९ सुभाषितं चार्वपि नाऽमहात्मनां
दिवाकरो नक्तदृशामिवाऽमलः । प्रभाति भात्येव विशुद्धचेतसां
निधियथाऽपास्ततृषां महाधनः ॥ ७५॥ अत्यन्त सुन्दर भी कथन क्यों न हो, तथापि जो महात्मा नहीं हैं उनको वह अच्छा नहीं मालूम पड़ता। जैसे कि दिवान्धोंको (उल्लुओंकों ) निर्मल प्रकाशमान भी सूर्य नहीं दीख पड़ता। परन्तु जिनके अन्तःकरण स्वच्छ हैं, उनको इसका ज्ञान होता ही है । जैसे कि तृष्णाका परित्याग किए हुए विरक्त महापुरुषोंको बड़ी-बड़ी निधियाँ दीख पड़ती हैं ।। ७५ ।।
विष्णोः पादानुगांयां निखिलभवनुदं शङ्करोऽवाप योगात् सर्वज्ञ ब्रह्मसंस्थं मुनिगणसहितं सम्यगभ्यर्च्य भक्त्या । विद्यां गङ्गामिवाऽहं प्रवरगुणनिधेः प्राप्य वेदान्तदीप्तां
कारुण्यात्तामवोच जनिमृतिनिवहध्वस्तये दुःखितेभ्यः ॥७६॥
जिस प्रकार सर्वव्यापक भगवान् विष्णुके पादपद्मसे विनिःसृत एवं संसारके समस्त दुःखोंको मिटा देनेवाली जिस गङ्गाको भगवान् श्रीशङ्करने अपने योगके प्रभावसे प्राप्त किया, तत्पश्चात् उसी (गङ्गा) को महाराज भगीरथने, मुनिगण सहित उन सर्वज्ञ, परब्रह्मस्वरूप भगवान् शङ्करका भक्तिपूर्वक आराधन करके उनसे प्राप्त कर करुणावश लोककल्याणार्थं उसे संसारमें प्रकट किया। इसी प्रकार-जगत्कारण परमात्माके अधिष्ठान सच्चिदानन्द ब्रह्मका अनुभव करनेवाली तथा (गङ्गाजीके समान ) सम्पूर्ण सांसारिक दुःखोंको दूर कर देनेवाली जिस ब्रह्मविद्याको अपने योगसामर्थ्यसे प्राचार्य शङ्करने प्राप्त किया। उसी वेदान्तप्रतिपादित ब्रह्म विद्याको उन सर्वज्ञ, ब्रह्मनिष्ठ, मुनिगणके सहित प्राचार्य शङ्करका भक्तिपूर्वक पूजन करके उनसे प्राप्त करके करुणावश संसारके दुःखोसे दुःखित हुए लोगोंके जन्ममरणरूपी महादुःखको मिटानेके लिए मैंने उसका इस ग्रन्थमें प्रतिपादन किया है ॥ ७६ ॥
वेदान्तोदरवतिभास्वदमलं ध्वान्तच्छिदस्मद्धियो
दिव्यं ज्ञानमतीन्द्रियेऽपि विषये व्याहन्यते नक्कचित्। यो नो न्यायशलाकयैव निखिलं संसारबीजं तमः
प्रोत्सार्याऽऽविरकारषीद् गुरुगुरुः पूज्याय तस्मै नमः ॥७॥ जो ( ज्ञान ) वेदान्त शास्त्रके अन्दर अत्यन्त गूढ़ है, जो सबका प्रकाशक एवं
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१७०
नैष्कर्म्यसिद्धिः अतीव निर्मल, विशुद्ध सत्यरूप है, जो हम लोगोंकी बुद्धि के श्रावरक अज्ञानरूप अन्धकारको दूर करनेवाला है तथा जो अतीन्द्रिय है, किसी विषयमें भी प्रतिहत नहीं होता अर्थात् जो समस्त वस्तुओका ज्ञान कराता है, ऐसा दिव्य ज्ञान सम्पूर्ण संसारके बीज अज्ञानको दूर हटाकर जिस सद्गुरुने न्यायरूपी शलाकासे हमारे हृदयमें प्रकट किया, उस जगद्वन्दनीय गुरुत्रोंके गुरु आचार्य श्रीशङ्करको हमारा प्रणाम है ॥ ७७॥
सम्बन्धोक्तिरिय साध्वी प्रतिश्लोकमुदाहृता ।
नैष्कर्म्यसिद्धेत्वेिमां व्याख्याताऽसौ' भवेद् ध्रुवम् ।।७८॥ इति श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्यश्रीमच्छङ्करपूज्यपादशिष्यश्रीसुरेश्वराचार्यविरचितायां नैष्कर्म्यसिधौ
. चतुर्थोऽध्यायः नैष्कर्म्य-सिद्धि के प्रत्येक श्लोककी यह सङ्गति मैंने कही है, जो इसको अच्छे प्रकारसे समुझ लेगा, वह अवश्य इस ग्रन्थका व्याख्यान कर सकता है ॥ ७८ ॥ धर्मशास्त्राचार्य पण्डित श्रीप्रेमवल्लभत्रिपाठिशास्त्रिविरचित
नैष्कर्म्यसिद्धि के भाषानुवादमें चतुर्थ अध्याय समाप्त
. समाप्तोऽयं ग्रन्थः। .
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१-व्याख्यातास्य, ऐसा भी पाठ है।
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नैष्कर्म्यसिद्धिश्लोकानुक्रमणिका
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२ ३२
( २ )
अश्लो. असत्ये वर्मनि स्थिवा ३ १०४ | इमं प्राश्निकमुत्सृज्य असाधारणांस्तयोधर्मान् ४ ५ इममर्थ पुरस्कृत्य अस्तु वा परिणामः
८४ अस्माद्यदपरं रूपं
उत्पत्तिस्थितिनाशेषु अहंवृत्त्यैव तद्ब्रह्म
उत्पत्तिस्थितिभंगेषु अहं दुःखी सुखी चेति
उत्पन्नात्मप्रबोधस्य अहं शब्दस्य या निष्ठा
उत्पाद्यमाप्यं अहंधर्मस्त्वभिन्नः .
उद्दिश्यमानं वाक्यस्थं अहमः प्रत्यगात्माथः अहममत्वयत्नेच्छा
ऊवं गच्छति धूमे
(ऋ) अहं मिथ्याभिशापेन अहो धाष्टय मविद्यायाः
ऋते ज्ञानं न सन्त्यर्थाः
(ए) अागमापायिनिष्ठत्वात् २ ३५ एकेन वा भवेन्मुक्तिः श्रागमापायिहेतुभ्यां
एवं गौडैर्द्राविडैः आत्मनश्चेदहंधमः
एवं चंक्रम्यमाणः श्रात्मनश्चेन्निवार्यन्ते
२११४
एवं ज्ञानवतो नास्ति ओस्मना चाविनाभावं
एवं तत्वमसीत्यस्मात् आत्मनैवेत्युपश्रत्य
एवं विज्ञातवाच्याथें श्रात्मानात्मा च लोकेऽस्मिन् ४ ३
एवमेतद्धिरुक आप्रबोधाद्यथा सिद्धिः
४ ५०
एष श्रात्मा स्वयंज्योतिः आम्नायस्य क्रियार्थत्वात्
एष सर्वाधियां द्रष्टा अाम्रादेः परिणामित्वात् ૨ ૨૪
(ऐ) आरुरुक्षोर्मुनेर्योग
ऐकात्म्याप्रतिपत्तिः आर्तमन्यदृशेः २ ४२
(क)
कर्मणोङ्गाङ्गिभावेन इति हृष्टधियां
१ २२ कर्मप्रकरणाकांति इत्येवं चोदयेद्योपि
३ १.९
कर्माज्ञानसमुस्थत्वात् इत्योमित्यवबुद्धात्मा
कल्पितानामवस्तुस्वात् इदं चेदनृतं ब्रूयात् ३ ११६ काम्यकर्मफलम् इदं शानमहं शाता
कार्यकारणबद्धौ तौ इदं ज्ञानं भवेज्जातुः
कुतो विधेति चोचं स्यात् इदमित्येव बाह्येऽयें ४ ६ कुर्वन्नेवेह कर्माणि इमं ग्रन्थमुपादिसः ४ ७० कूटस्थबोधतोऽद्वतं
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कूटस्थबोधप्रत्यक्त्वं कृत्स्नानात्मनिवृत्ती क्षयो नित्येन तेषां क्षुधया पीद्यमानोऽपि खानिलाग्न्यब्धरित्र्यन्तं
(ग) गुरूक्तो वेदराद्धान्तः गृहीताहंपदार्थश्चेत् ग्राहकग्रहणग्राह्य
(घ) घटबुद्धघटाचार्थात् घटादयो यथा लिङ्गं घटादिवच्च
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अश्लो. ३ ११ तदित्येतत्पदं लोके ३ २३ । तदेतदद्वयं ब्रह्म
२ ६३ तदो विशेषणार्थवं ३ २६ | तद्वत्सूक्ष्मे तथा स्थूले
२ १७ तमोगल यथा तमोभिभूतचित्तः तरोरुवातम्लस्य
तस्मात्यक्तेन हस्तेन ३ ४४
तस्माद्दुःखोदधेः २ १०८
तस्मान्मुमुक्षुभिः २ १०० तस्यैवं दुःखतसस्य
तृष्णानिष्ठीवनात्मा २ १६ त्यक्तकृस्नेदमर्थत्वातू स्वमर्थस्यावबोधाय
३ १२६ त्वमित्यपि पदं
३ २४ त्वमित्येतद्विहायान्यत् २ २०
दग्धाखिलाधिकारः दग्धृवं च यथा
२१०२ दण्डावसाननिष्ठः यात् दशमोऽसीति वाक्योत्था दाह्यदाहकतैकत्र . ३ ५६ दिक्षितपरिच्छिन्न - ३ दुःखराशेर्विचित्रस्य . २
दुःखितावगतिश्चेत्स्यात् ४ ७२ दुःखी यदि भवेदात्मा
दुःख्यस्मीत्यपि चेद्ध्वस्ता .
दुरितक्षपणार्थस्वात् ५४ दृगेका सर्वभूतेषु
दृश्यवादह मित्येषः दृश्यस्वाटव देहः श्याः शब्दादयः
२ ४६
. २ ५३ ३६ ७ । दृष्टष्टारमात्मानं
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चक्षुर्न वीक्षते शब्द चण्डालबुद्धः चतुर्भिरुह्यते चिनिभेयमहंवृत्तिः छिट्वा त्यक्तेन हस्तेन जानीयाच्चेत्प्रसङ्ख्यानात् जिघ्राणीममहं गन्धं जिज्ञासोर्दर्शनं यद्वत् ज्ञातैवात्मा सदा ग्राह्यः ज्ञात्वा यथोदितं सम्यक ज्ञानं यस्य निजं रूपं शानात्फले ह्यवाप्ते ज्ञेयाभिन्नमिदं यस्मात्
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तत्वमर्थन संपृक्तः तत्त्वमस्यादिवाक्यानां तत्पदं प्रकृतार्थ स्यात् तथा पदपदार्थों तदर्थयोस्तु निष्ठात्मा
२
८ दृश्यानुरक्तं
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२६
देशकालाचसंबद्धात् देहादिव्यवधानत्वात् द्रष्टापि यदि दृश्यायाः द्रष्टुत्वं दृश्यता चैत्र द्रष्टुत्वनोपयुक्तत्वात् द्विषन्तीमद्विषन्
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अश्लो० ४ ५८ | नास्मना न तदंशेन ३ २६ नाद्राक्षमहमित्यस्मिन् २ ४०
नामादिभ्यः परो भूमा
नामादिभ्यो निराकृत्य ३ १२० . २ २७ नाऽयं शब्दः कुतो यस्मात् ..३ ८४
नाऽलुप्तदृष्टेदृश्यत्वं नाऽविरक्तस्य संसारात् नाऽविरक्ताय संसारात्
७॥ नासन्नुपायो लोकेऽस्ति नाहंग्राह्य नाहं न च ममात्मस्वात् २ ११७ नित्यमुक्तत्वविज्ञानं
४ ३१ निस्यानुष्ठानतः नित्यां संविदमाश्रित्य २ ११५ नित्यावगतिरूपत्वातकारकादिः २ ११३ नित्यावगतिरूपत्वादन्य
नियम: परिसंख्या वा ३११९
निरपेक्षश्च सापेक्षा १ ६५ निरस्तसर्वकर्माणः
निराकुर्यात्प्रसङ्खथानं २ ४५ निर्दखित्वं स्वमर्थस्य
निदुखित्वं स्वतःसिद्धं १ ४६ | निवृत्तसर्पः सर्पोत्थं
निवृत्तायामहंबुद्धौ निषिद्धकाम्ययोः . . नेहात्मविन्मदन्योऽस्ति . नोष्णिमानं दहत्यमिः न्यायः पुरोदितोऽस्माभिः
न्यायसिद्धमतो वक्ति २ ११२
पदान्युद्धृत्य वाक्येभ्यः ३ २१ परमात्मानुकूलेन
१ ७२. ३ १०६ परमार्थनिष्ठं यत्
५४ ! पराज्येव तु सर्वाणि
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धर्मधर्मिस्वभेदोऽस्सा घावेदिति न दानाथें धीवन्नापेक्षते सिद्धिं धीविक्रियासहस्राणां
(न) न कस्यांचिदवस्थायां न कृत्स्नकाम्यसत्यागः न रव्यातिलाभपूजार्थ न चाध्यात्माभिमानोऽपि न चामुमुक्षोः न चेदनुभवोऽत: स्यात् न तावद्योगः म परीप्सां जिहासां वा न पृथनात्मना न प्रकाशक्रिया नरकाद्भीर्यथास्याभूत नराभिमानिनं नतेस्यादिक्रियां नवबुद्धयपहाराद्धि नवसंख्याहृतज्ञानः न विदनस्यात्मनः सत्तां न व्यावृत्तियथाभावात् न स्वयं स्वस्य न हानं हानमात्रेण न हि नाम्नास्ति सम्बन्धः नाऽज्ञासिषमिति
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यैरद्राक्षीपुरास्मानं मन्यसे तावत्
२ १३ योऽयं स्थाणुः महाभूतान्यहंकारः
यो हि यत्र विरक्तः स्यात् मानान्तरानवष्टब्धं
३ ३५ मित्रोदासीनशत्रुत्वं
रागो लिङ्गमबोधस्य २ . ४८
रिपौ बन्धौ स्वदेहे च मुक्तः क्रियाभिः सिद्धत्वाज्ज्ञानं १ ९ मुक्त क्रियाभि:सिद्धत्वादिति
रूपप्रकाशयोर्यद्वत् मृत्स्नेमके
लक्षणं सर्पवद्रज्ज्वाः मोहापिधानभङ्गाय .
लिङ्गमस्तित्वनिष्ठत्वात् (य)
लिप्सतेऽज्ञानतः यस्कर्मको हि
२ २४
(व) यत्नतो वीक्षमाणोपि
वर्चस्कं तु यत्र त्वस्येति साटोपं २ ११८ वर्चस्के संपरित्यक्ते यत्र यो दृश्यते
वर्तमानमिदं यत्र स्यात्संशयो नासौ
वर्षातपाभ्यां किं यसिद्धाविदमः
वस्वेकनिष्ठं वाक्य यथा जात्यमणेः
वाक्यप्रत्यक्षमानाभ्यां यथा प्राशे तयैवायं
वाक्यश्रवणमात्राच्च यथा विशुद्ध अाकाशे
वाक्यैकगम्यं यथा स्वापनिमित्तेन
वास्तवेनैव वृत्तेन यदयं च प्रवृत्तं यत्
१२२ विक्रियाज्ञानशून्यत्वात् यवस्था व्यनक्तीति २ ६५ | विदेहो वीतसंदेहः यदा ना तत्त्वमस्यादेः
विद्यात्तत्वमसीत्यस्मात् यदा सर्व प्रमुच्यन्ते
१ .४४ विनाऽज्ञानप्रहाणेन यद्धि यस्यानुरोधेन
१ ६२ विपश्चितोऽप्यतस्तस्य यद्यद्विशेषणं दृष्टं
२ ९४ । विरहय्य क्रियां यद्यात्मधर्मोऽहंकार: २ ३३ | विशेषणमिदं सर्व यावद्यावन्निरस्यायं
३ २८ विशेष कंचिदाश्रिस्य यावन्त्यश्चेह विद्यन्ते
१ .१४
| विष्णोः पादानुगां युक्तिशब्दी पुराप्यस्य . ३ ११४ वृत्तिभिर्युष्मदर्थाभिः युष्मदर्थे परित्यक्ते ३ ५. वेदान्तोदरवर्ति युष्मदस्मद्विभागशे ४ .२१ वेदान्तोदरसंगूढ़ येनैवास्या भवेद्योगः . २ ८१ । वेदावसानवाक्योत्थं
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व्यवधीयन्त एवामी व्युत्थिताशेषकामेभ्यः व्योम्नि धूमतुषाराभ्र
. (श) शब्दाद्याकारनिर्भासा शब्दाद्याकारनिर्भासा: शमादिसाधनः शयाना:प्रायशो लोके शिर अाक्रम्य शुध्यमानं तु शुभैः प्राप्नोति श्रावितो वेति श्रीमच्छङ्करपादपद्म श्रुतयः स्मृतिभिः श्रुतिश्चेमं जगाद
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अ० श्लो २ ९३ सर्वधीव्यञ्जकः
सर्वप्रमाणासंभाव्यः ६९ सर्वमेवानुजानाति
सर्व संशयहेतौ हि सर्वाकारां निराकारः सर्वोऽयं महिमा
साध्यसाधनभावः १०५ सामानाधिकरण्यं च
सामानाधिकरण्यादेः सामान्यं हि पदं ब्रूते । सामान्याच विशेषाच्च
सामान्येतररूपाभ्यां ४ ७४ | सावशेषपरिच्छेदिनी १ ८५ सुखदुःखादिभिः ।
सुखदुःखादिसंबद्धां
सुभाषितं चार्वपि २ ८५ सुभ्रः सुनासा ३ १०३ सुषुप्ताख्यं तमोऽज्ञानं
सेयं भ्रान्तिनिरालम्बा २ | स्थाणुः स्थाणुरितीवोक्तिः ५४ स्थाणुं चोरघिया ४ ४७ स्थाणोः सतत्त्वविज्ञानं
स्थूलं युक्त्या निरस्य | स्मृतिस्वप्नप्रबोधेषु
स्वमनोरथसंक्तृप्त १ ६७ स्वमहिम्ना प्रमाणानि
स्वरूपलाभमात्रेण | स्वर्ग यियासुः | स्वसाधनं स्वयं नष्टः
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षट्सु भावविकारेषु षष्ठीगुणक्रियाजातिरूढ़यः
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संक्षेपविस्तराभ्यां हि संनिपत्य न च संप्रसादे विकारित्वात् संबन्धोक्तिरियं साध्वी संसारबीजसंस्थोऽयं संसारिताद्वितीयेन सकृत्प्रवृश्या सकृदात्मप्रसूत्यैव सदाविलुप्तसाक्षित्वं समस्तव्यस्तभूतस्य सम्यक्संशयमिथ्यात्वैः सम्यग्ज्ञानशिखिप्लुष्ट सर्वजात्यादिमत्व .
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४ ५६ हितं सम्प्रेप्सतां १ ७४ | हेतुस्वरूपकार्याणि
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