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- भाषानुवादसहिता
१११ . ऐसे ही समस्त कार्य, कारण तथा उत्पत्ति-विनाशवान् कल्पित प्रपञ्च का साक्षिरूप आत्मा है
जो उत्पत्तिके पहले नहीं था, असद्रूप था, वही बादमें सद्रूप होता है। ऐसे ही जो वर्तमान समयमें सत् है, वहीं नाशके अनन्तर असत् हो जाता है। ऐसी जो जो वस्तु है वह सब अनात्मा ही है। आत्मा तो स्वप्रकाश है। अतएव अनात्माओंसे विपरीत, कूटस्थ, नित्य है ॥ ५५ ॥
तत्र घटादीनां दृश्यानामनात्मत्वं द्रष्ट्रात्मपूर्वकं प्रत्यक्षेणैव' प्रमाणेनोपलभ्यानात्मनश्चाऽसाधारणान्धर्मानवधार्य तैदृश्यत्वाऽऽगमापायादिभिधमः शरीरेन्द्रियमनोनिश्चयादिवृत्तीरनात्मतया व्युदस्याऽहंवृत्तिमतोऽपि दृश्यत्वाविशेषाद् द्रष्टपूर्वकत्वमवसीयते । तदेतदाह
घटादि दृश्य पदार्थों के अनात्मपनको तथा इनका द्रष्टा श्रात्मा इनसे पृथक् है, इस बातको प्रत्यक्ष प्रमाणसे ही देखकर अनात्माके असाधारण धोंको निश्चय करके उन दृश्यत्व आगमापायित्व प्रादि धर्मोंसे शरीर, इन्द्रिय, मन और निश्चयादिवृत्तियोंको आत्मासे पृथक् समझकर, अहङ्कारवृत्तिमान् अहङ्कारके भी दृश्य होने के कारण इसका द्रष्टा इससे . अतिरिक्त कोई अन्य है, ऐसा अनुमानसे सिद्ध कर सकते हैं । वही कहते हैं
घटादयो यथा लिङ्गं स्युः परम्परयाऽहमः ।
दृश्यत्वादहमप्येवं लिङ्गं स्याद् द्रष्टुरात्मनः ॥ ५६॥ जैसे घटादि विषय हैं, इसलिए वे देहादि विशिष्ट द्रष्टाके ज्ञापक होते हैं। तथा ऐसे ही देह भी इन्द्रिय-विशिष्ट द्रष्टाका, इन्द्रियाँ भी मनोविशिष्ट द्रष्टाका, मन भी बुद्धिविशिष्ट द्रष्टाका और बुद्धि भी अहङ्कारविशिष्ट द्रष्टाका, जैसे ज्ञापक होते हैं। ऐसे ही अहङ्कार भी दृश्य होने के कारण स्वव्यतिरिक्त द्रष्टाका ज्ञापक है ॥ ५६ ॥
ननु द्रष्टदर्शनदृश्यानां 'जाग्रत्स्वमसुषुप्तेष्वागमापायदर्शनाउत्साक्षिकौ तेषामागमापायौस आगमापायविभागरहित' आत्मा । यथा यन्निबन्धनौ जगतः प्रकाशाप्रकाशौ स प्रकाशाऽप्रकाशविभागरहितः सूर्य इति । यदा चैवं तदा वाक्यावगम्यस्यार्थस्याऽनुदितानस्तमितविज्ञानमात्रस्वभावस्याऽनुमानेनैव प्रतिपन्नत्वात्पुनरपि वाक्यस्य निर्विषयत्वप्रसङ्गः। नैष दोषः। लिङ्गव्यवधानेन तत्प्रतिपत्तेः। ननु
प्रत्यक्त्वेनैव, ऐसा भी पाठ मिलता है। २ आगमापायरहितः, भी पाठ है। .