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नैष्कासिद्धिः पूर्वस्यैव व्याख्यानार्थमाह। नर्ते स्याद्विक्रियां दुःखी साक्षिता का विकारिणः ।
धीविक्रियासहस्राणां' माझ्यतोऽहमविक्रियः ।। ७७ ।। पूर्वोक्त विषयके ही व्याख्यानके लिए कहते हैं--
विकार हुए बिना दुःखी नहीं हो सकता है और जो विकारी है वह साक्षा नहीं हो मकता है । इसलिए अनेक बुद्धि-विकारीका साक्षी अहं-शका लक्ष्य प्रात्मा विकार रहित है ।। ७७ ॥
एवं सर्वस्मिन् व्यभिचारिण्यात्मवस्न्वेवाऽव्यभिचारीत्यनुभवतो व्यवस्थापनायाऽऽह ।
इस प्रकार जब सब पदार्थों का मिथ्या होना सिद्ध हुअा, तब ( इतर सब पदाकि व्यभिचारो होनेसे ) केवल एक आत्मा ही अव्यभिचारी है अर्थात् उसका कभी अभाव नहीं होता। इस बातको अनुभवसे सिद्ध करनेके लिए कहते हैं
प्रमाणतन्निभेष्वस्या नोच्छिनिर्मम संविदः । मत्तोऽन्यद्रूपमाभाति यत्तत्स्यात्क्षणभङ्गि हि ॥ ७८ ।। उत्पतिस्थितिभङ्गषु कुम्भस्य वियतो यथा ।
नोत्पत्तिस्थितिनाशाः स्युर्बुद्वेरेवं ममाऽपि न ॥ ७९ ॥
बुद्धि-परिणामरूप प्रमाण अथवा प्रमाणाभास नष्ट होते रहें, परन्तु ज्ञान-स्वरूप अामाका कभी अभाव नहीं होता है और प्रामासे अन्य जितने पदार्थ जान विषय होते हैं वे सब क्षणभंगुर हैं ॥ ७८ ॥ .
जैसे घटकी उत्पत्ति, स्थिति और नाशसे आकाशकी उत्पत्ति, स्थिति और नाश नहीं होते, इसी प्रकार बुद्धिकी उत्पत्ति, स्थिति और नाशीसे प्रात्मा उनसे सम्बद्ध नहीं होता ।। ७६ ॥ ..सुखदुःखतत्सम्बन्धानां च प्रत्यक्षवान श्रद्धामात्रमाद्यमेतत् ।
सुखदुःखादिसम्बरां यथा दण्डेन दण्डिनम् ।
राधको वीक्षते बुद्धि साक्षी तद्वदसंहतः ॥८० ॥ बुद्धि प्रत्यक्ष ही सुखदुःखादिसे युक्त देखी जाती है। इसलिए यह बात केवल श्रद्धामात्रसे ग्रहण करने योग्य नहीं है।
3.-धीविक्रियासहस्रस्य, भी पाठान्तर है। २-मिथ्यारूप । ३---सत्य । ४-समापि च, और 'ममापि नो' भी पाठ है।