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भाषानुवादसहिता __ जैसे दण्डी पुरुषको लक्षणरूप दण्डसे पहचान लेते हैं। वैसे ही सुखदुःखादिसे युक्त बुद्धिको, उनसे असंस्पृष्ट माक्षी भली प्रकार देखता है, अतएव उसके धर्मोका सम्बन्ध उसमें नहीं है । ८० ॥
एतस्माच्च हेतोधियः' परिणामित्वं युक्तम् । येनैवाऽस्या भवेद्योगः सुखकुम्भादिना धियः ।
तं विदन्ती तदैवाऽन्यं वेत्ति नाश्तो विकारिणी ।। ८१ ।। इस कारणसे भी बुद्धिको परिणामी कहना ठीक है कि,
सुख-दुःख अथवा घटपटादि जिन-जिन विषयोंसे बुद्धिका सम्बन्ध होता है (अर्थात् बुद्धि जिन जिन श्राकारोंको प्राप्त होती है) उन्हीं विषयोंको वह ग्रहण करती है। जिनसे उसका मम्बन्ध नहीं होता है, उनको वह ग्रहण नहीं करती । इसलिए वह विकारिणी है ।।८।।
अस्याश्च क्षणभङ्गुरत्वे स्वयमेवाऽऽन्मा साती। न हि कूटस्थावबोधमन्तरेण बुद्व रेवाऽऽविर्भावतिरोभावादिसिद्धिरस्ति ।
. परिणामिधियां वृत्तं नित्याक्रमहगात्मना । . .. . षड्भावविक्रियामेति व्याप्तं खेनाऽङ्करो यथा ।। ८२ ॥
- इस बुद्धि की क्षणभङ्गरतांका साक्षी स्वयं आत्मा ही है। क्योंकि नित्यसिद्ध साक्षीरूप ज्ञानके बिना बुद्धिके उत्पत्ति और विनाश प्रतीत नहीं हो सकते।
जैसे श्राकाशसे व्याप्त होकर ही अङ्कर उत्पत्ति, अस्तित्व, वृद्धि, स्थिति, क्षय और नाशको प्राप्त होता है। इसी प्रकार परिणामी बुद्धि भी आत्मासे व्याप्त होकर ही उत्पत्ति आदि छः विकारोंका अनुभव करती है । ८२ ॥
‘सत आत्मनश्वाऽविकारित्वे युक्तिः, सत् रूप अात्माके अविकारी होनेमें युक्ति देते हैंस्मृतिस्वमाऽवबोधेषु न कश्चित्प्रत्ययो धियः ।. .
दृशाऽव्याप्तोऽस्त्यतो नित्यमविकारी स्वयंशिः ।। ८३ ॥
स्मरण के समय, जाग्रत् एवं स्वप्नावस्थामें कोई भी बुद्धि की वृत्ति ऐसी नहीं होती जो अात्मासे व्याप्त नहीं है । इसलि र अात्मा नित्य अविकारी और स्वयं प्रकाश हैं ||३||
एवं तावत्पराभ्युपगतप्रक्रियाप्रस्थानेन निरस्ताशेषविकारकात्म्यं प्रतिपादितमुपपत्तिभिः। अथाऽधुना श्रौती प्रक्रियामवलम्ब्योच्यते।
१-बुद्धः परिणामित्त्वं, इस प्रकारका पाठ भी है। २-कूटस्थावरोधमन्तरेण, पाठ भी है।