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भाषानुवादसहिता
ततश्चैतत्सिद्धम् -
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पश्यन्यश्यतीं बुद्धिमशृण्वन् शृण्वतीं तथा । निर्मलोsविक्रियो ऽनिच्छन्निच्छन्तीं वाऽप्यलुक् ॥७१॥ द्विषन्तोमद्विषन्नात्मा कुप्यन्तीं चाsध्यकोपनः । निर्दुःखो दुःखिनीं चैत्र निःसुखः सुखिनीमपि ।। ७२ ।। मुद्यमानो मुह्यन्तीं कल्पयन्तीमकल्पयन् । स्मरन्तीमस्मरंचैव शयानामस्वपन् मुहुः ॥ ७३ ॥ सर्वाकारां निराकारः स्वार्थो स्वार्था निरिङ्गतः । निस्त्रि काल स्त्रि कालग्यां कूटस्थः क्षणभंगुराम् ॥ ७४ ॥ निरपेक्षच सापेक्षां पराचीं सावधिं निर्गतेयत्तः सर्वदेहेषु पश्यति ॥ ७५ ॥
प्रत्यगद्वयः ।
इससे यह सिद्ध हुआ कि,
देखना, सुनना, चाहना, द्वेष करना, कुपित होना, दुःखी होना, सुखी होना, मोहित होना, कल्पना करना, स्मरण करना, सोना इत्यादि विकारोंसे रहित, निरपेक्ष, विषयोंसे विरुद्ध, सर्वदा स्वयंप्रकाश, निर्मल, स्वार्थ, कूटस्थ तथा क्रियाओं से रहित यह आत्मा देखती, सुनती, चाहती, द्वेषकरती, कुपित होती, दुःखी होती, सुखी होती, मोहित होती, कल्पना करती, स्मरण करती, बार-बार सोती, और नाना आकारोंमें परिणित होती हुईं, क्षणभंगुरा, अपेक्षा करनेवाली विषयों में लित होनेवाली और सावधिक ( परिच्छिन्न) बुद्धि, को सब देहों में देखता है । ७१-७२-७३-७४-७५ ॥
एतस्माच कारणादयमर्थो व्यवसीयताम्
दुःखी यदि भवेदात्मा कः साक्षी दुःखिनो भवेत् । दुःखिनः साक्षिताऽयुक्ता साक्षिणो दुःखिता तथा ।। ७६ ।।
इस कारण से यह निश्चय कर लेना चाहिए कि
'यदि आत्मा दुःखी (दुःख आदि परिणामयुक्त ) है तो उसका साक्षी कौन होगा ? क्योंकि जो दुःखी है, वह साक्षी कैसे हो सकता है और जो साक्षी है वह दुःखी नहीं हो सकता है ॥ ७६ ॥
१ – निर्यत्त्रोऽविक्रियः, ऐसा भी पाठ है।