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नेकसिद्धिः न प्रकाशक्रिया काचिदस्य स्वात्मनि विद्यते । ।
उपचारात् क्रिया साऽस्य यः प्रकाश्यस्य सन्निधिः ।। ६७ ॥ इस अात्मामें बुयादिको प्रकाशित करनेवाली कोई क्रिया नहीं है। केवल प्रकाश्य विषयोंका सान्निध्य ही उपचारमें इसकी क्रिया (इस शब्दसे ) कहा जाता है। __ मैवं शतिष्ठाः सायराद्धान्तोऽयमिति । यतः,.
यथा विशुद्ध आकाशे महसैवाऽभ्रमण्डलम् । ..
भूत्वा विलीयते तद्वदात्मनीहाऽखिलं जगत् ।। ६८ ॥ ऐसी शङ्का मत कीजिए कि 'यह तो तुमने साङ्क्षय के सिद्धान्तको स्वीकार कर लिया है ? क्योंकि जैसे विशुद्ध अाकाशमें एकाएक मेवकी काली काली घटाएँ उत्पन्न हो होकर विलीन होती रहती हैं, इसी प्रकार अात्मा यह सपूर्ण जगत् उत्पन्न और विलीन होता रहता है. ॥ ६८॥ · तम्मादेष कूटस्थो, न द्वैतं मनागपि स्पृशति । यतः।
शब्दाद्याकारनिर्भासाः क्षणप्रध्वंसिनीदृशा । ..... नित्योऽक्रमहगात्मैको व्याप्नोतीव धियोऽनिशम् ।। ६९ ॥
इस कारण यह निर्विकार अात्मा द्वैतसे किञ्चिन्मात्र भी सम्बद्ध नहीं होता। . क्योंकि यह नित्य; एक और सर्वदा प्रकाशक आत्मा अपने स्वरूपभूत चैतन्यसे, मानो
शब्दादि, विषयोंके अाकारोंको धारण करनेवाली और प्रतिक्षण नष्ट होनेवाली बुद्धिवृत्तियों को, व्याप्त कर रहा है, ऐसा प्रतीत होता है । ६९ ॥
...६८ और ६६ इन दोनों श्लोकोंमें ग्रन्थकारने जगन्मिथ्यात्व और ऐकात्म्य दिखलाकर साङ्खयवादियोंके जगत्सत्यत्ववाद और नानात्मवादसे, अपनी ६८ वें श्लोककी अनुक्रमणिकामें की हुई प्रतिज्ञाके अनुसार, वैलक्षण्य टिग्वाया है, यह जानना चाहिए। : .
. .. . . एवञ्च सति बुद्धः परिणामित्वं युक्तम् । ..' अतीतानागतेहत्यान् युगपत्सवेगोचरान्। . . . . . वेत्त्यात्मवन्न धीर्यस्मात्तेनेयं परिणामिनी ॥ ७० ॥
इसलिए बुद्धिको परिणामिनी मानना युक्त है। भूत, भविष्यत् और वर्तमान, इन सब पदार्थोको, आरमाके समान, बुद्धि एक काल में ही नहीं जान सकती। इस कारण वह परिणामिनी है ।। ७० ॥