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भाषानुवादसहिता
इत्येतत्प्रतिपत्यर्थमाह ।
उक्त दृष्टान्तको समानेके लिए कहते हैं---
अविक्रियस्य भोक्त्वं स्यादहं बुद्धिविभ्रमात् । नौयानविभ्रमाद्यद्वन्नगेषु गतिकल्पनम् || ६३ ॥
जिस प्रकार चलती हुई नौकापर बैठे हुए मनुष्योंको नदीके तीरपर स्थित वृक्ष आदि भ्रान्ति से चलते हुए जान पड़ते हैं । इसी प्रकार विकाररहित आत्मा में भोक्तृत्व त्र्यादि विकार अहं बुद्धिसे उत्पन्न हुई भ्रान्तिसे होते हैं ॥ ६३ ॥ यथोक्तार्थाविष्करणाय दृष्टान्तान्तरोपादानम् ।
पूर्वोक्त अर्थको स्फुट करने के लिए एक और दृष्टान्त देते हैं ।
यथा जात्यमणेः शुभ्रा ज्वलन्नी निश्चला शिखा । सन्निध्यसन्निधानेषु घटादीनामविक्रिया ॥ ६४ ॥
जिस प्रकार उत्तम मणिकी प्रकाशमान, निश्चल प्रभा प्रकाश्य घटादि पदार्थोंके समीप होने और न होनेपर भी विकारवाली नहीं होती ॥ ६४ ॥ यमत्रांशी विवक्षित इति ज्ञापनायाऽऽह |
इस दृान्तका कौन सा अंग दाष्टन्तिक में विवक्षित है यह बतलाने के लिए कहते हैं
यवस्था व्यनक्तीति तदवस्थैव सा पुनः ।
भएयते न व्यनक्तीति घटादीनामसन्निधौ' ।। ६५ ।।
जिस स्वरूपसे वह मणिकी प्रभा घटादि पदार्थोंके समीप होनेपर उनकी प्रकाशिका कहलाती है, उसी स्वरूपसे उनके समीप न होनेपर उनकी अप्रकाशिका कहलाती है || ६५||
तत्र च-
सर्वधीव्यञ्जकस्तद्वत्परमात्मा सन्निध्यसन्निधानेषु
इसी प्रकार जिस ज्ञानस्वरूपसे यह ग्रात्मप्रदीप ( आत्मारूपी दीपक ) बुद्धिकी वृत्तियों का, उनसे सन्निधान होनेपर, प्रकाशक है, उसी रूपमें उनके सन्निहित न होने से उनका प्रकाशक है। प्रकाशक अवस्था में वह विकारी और प्रकाशक अवस्थामें असत्रूप अर्थात् वह नहीं है ऐसा, नहीं होता ॥ ६६ ॥
१ - श्रमन्निधेः, ऐसा भी पाठ
प्रदीपकः । धीवृत्तीनामविक्रियः ॥ ६६ ॥
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