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नैष्कर्म्यसिद्धिः इमं प्राश्निकमुद्दिश्य तर्कज्वरभृशातुराः ।
स्वाच्छिरस्कवचोजालेर्मोहयन्तीतरेतरम् ॥ ५९ ॥ इसी अनुभवरूपी मध्यस्थको उद्देश्य करके तकरूप ज्वरसे अत्यन्त आर्त हुए वादी लोंग 'स्वात्' शब्द जिनके अन्तमें है ऐसे 'एतस्यात्' 'अमुकत्वात्' इत्यादि वाग्जालोंसे एक दूसरेको मोहित करते हैं ॥ ५६ ॥
अत्रापि चोदयन्ति । अनुभवात्मनोऽपि विक्रियाभ्युपगमेडनम्धुपगमेऽपि दोष एव । यस्मादाह ।
इसपर भी कोई लोग यह शङ्का करते हैं कि उस अनुभवरूप आत्माको विकारयुक्त अथवा तद्रहित चाहे जैसा मानो, दोनों प्रकारसे दोष अाता है। क्योंकि
वर्षातपाभ्यां कि योनिश्चर्मण्यस्ति' तयोः फलम् । चर्मोपमश्चेत्सो नित्यः खतुल्यश्चेदसत्समः ॥६० ॥ बुद्धिजन्मनि पुंसश्च विकृतिर्यद्यनित्यता । अथाऽविकृतिरेवाऽयं प्रमातेति न युज्यते ।। ६१ ।।
वृष्टि अथवा धूपसे आकाशमें तो कोई विकार नहीं हो सकता, किन्तु उनका ( वृष्टि और धूपका.) फल त्वचा में ही प्रतीत होता है । सो यदि आत्मा चर्मके समान विकारवाला है, तब तो अनित्य है और यदि आकाशके समान निर्विकार है, तब वह अभावरूप हो जायगा ॥ ६०॥
नाना बुद्धियोंके उत्पन्न होनेसे प्रास्मामें यदि विकार माना जाय तब वह अनिस्य हो जायगा और यदि उसे निर्विकार माना जाय तब वह प्रमाता नहीं बन सकता ॥ ६१ ।।
अस्य परिहारः। इस शङ्काका परिहार कहते हैं
ऊर्ध्व गच्छति धूमे खं भिद्यते विन्न भिद्यते । न भियते चेत्स्थास्नुवं भिद्यते चेद्भिदाऽस्य का ।। ६२ ।।
धूएँ के ऊपरको उठनेसे आकाश विदीर्ण होता है या नहीं ? यदि नहीं विदीर्ण होता है, तो धुश्रा ऊपरको जा नहीं सकता और यदि विदीर्ण होता है तो आकाशमें क्या विकार हो सकता है ? ( अर्थात् जैसे धूमकी गतिसे आकांश विकृत नहीं होता है, वैसे ही बुद्धियोंका प्रमाता होनेपर भी आत्मामें विकार नहीं हो सकता है ! ) ॥ ६२ ॥
१-चर्मण्येव, ऐसा भी पाठ है। २-अथाविकृत एवायं, पाठ भी है।