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भाषानुवादसहिता
६५.
उत्तर -- हमारे मतमं ब्रह्म स्वत: एव सिद्ध है । उसको अपनी सिद्धि के लिए प्रमाणान्तरोंकी आवश्यकता ही नहीं है ॥ ५७ ॥
अज्ञानोत्यबुद्धयादिकर्तृत्वोपाधिमात्मानं परिगृह्यैवाऽन्वयव्यतिरेकाभ्यामहं सुखी दुःखी चेत्यहङ्कारादेरनात्मधर्मत्वमुक्तम् । केवलात्माम्युपगमेऽशक्यत्वात् फलाभावाच्च । अथेदानीमविद्यापरिकल्पितं साक्षित्वमाश्रित्य कर्तृत्वाशेषपरिणामप्रतिषेवायाऽऽह |
- अज्ञान से उत्पन्न बुद्धयादिरून कर्तृत्व, भोक्तृत्व उपाधियोंसे युक्त श्रात्माको लेकर ही अन्वय और व्यतिरे से 'मैं सुखी हूँ' 'मैं दुःखी हूँ इस प्रकारके अहङ्कारादिको धर्म बतलाया । क्योंकि विद्या से कल्पित रूपको त्याग कर केवल श्रात्मा मननेपर अन्वय और व्यतिरेक व्यवहार नहीं हो सकते हैं और उनसे कुछ प्रयोजन भी नहीं है । इसके अनन्तर विद्यासे कल्पित साक्षित्रको लेकर कर्तृत्वादि समस्त परिणामों का निषेध करनेके लिए कहते हैं
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सर्वधियां नृत्तमविलुतैकदर्शनः । वीक्षतेऽवीक्षमाणोऽपि निमिषत्तद्ध्रुवोऽध्रुवम् ॥ ५८ ॥
यह परिणामी, अद्वितीय तथा नित्य ज्ञानस्वरूप आत्मा स्वयं दृष्टिका विषय न होता हुआ भी जड़रूप बुद्धि आदि के नृत्य को देखता है ॥ ५८ ॥
ननु सर्वसिद्धान्तानामपि स्वदृष्टयपेक्षयोपपन्नत्वादितरेतरदृष्टयपेक्षया च दुःस्थितसिद्विकत्वान्नैकत्राऽपि विश्वासं पश्यामो न च सर्वतार्किकैरदूषितं समर्थितं सर्वतार्किको पद्रवापसर्पणाय वर्त्म संभावयामः । उच्यते । विश्रब्धैः सम्भाव्यतामनुभवमात्रशरणत्वात्सर्व तार्किक प्रस्था नानाम् । तदभिधीयते ।
शङ्का - सभी शास्त्रकारोंके सिद्धान्त अपनी-अपनी दृष्टि सङ्गत और विपक्षी लोगों की दृष्टि में परस्पर विरुद्ध होनेके कारण हमें किसी एक सिद्धान्तपर विश्वास नहीं होता और ( ऐसा कोई भी विषय नहीं है जिसका समस्त तार्किकांने खण्डन या मण्डन नहीं किया हो। इसलिए ) ऐसा कोई मार्ग नहीं दीख पड़ता जिससे समस्त तार्किकका उपद्रव ( वादविवाद ) शान्त हो जाय ?
समाधान- इस बातको निःशङ्क होकर मान लीजिए कि आत्मा स्वयम्प्रकाश, अकर्ता तथा भोक्ता है । क्योंकि समस्त दर्शनोंका एकमात्र शरण अनुभव ही है । यही (ग्रिमश्लोक ) कही जाती है
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