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नैष्कर्म्यसिद्धिः एकता नहीं हो सकती है, इसलिए यहाँ अजहल्लक्षणा द्वारा 'अहं' शब्द प्रत्यगात्माका बोधक है ॥ ५४॥ [अब गौणीवृत्तिसे 'अहं' शब्द आत्माका बोधक होता है, यह दिखलाते हैं
प्रत्यक्त्वादतिसूक्ष्मत्वादात्मदृष्टयनुशीलनात् ।
अतो वृत्तीविहायाऽन्या ह्यहवृत्त्योपलक्ष्यते ॥ ५५ ॥ . अहङ्कारसे अतिरिक्त और जितने भी अनात्म पदार्थ हैं, उन सभीसे अहङ्कार ही अान्तर ( आत्माका अधिक समीपवर्ती ) है और अात्माके समान अति सूक्ष्म है एवं उसमें आत्मदृष्टिका अनुशीलन अनादिकालसे होता आया है। इन सब कारणोंसे अहङ्कार और आत्माका साम्य होनसे-जिस प्रकार तिलोंके तैलसे समानता होने के कारण सरसों आदिसे निकले हुए तैलका भी गौणीवृत्ति द्वारा तैल शब्दसे ग्रहण होता है। इसी प्रकार---अन्य वृत्तियोंको छोड़कर गौणीवृत्ति द्वारा अहं शब्दसे अात्माका ग्रहण होता है ॥ ५५ ॥
[ अब मुख्य वृत्तिसे अहं शब्द अन्तःकरण विशिष्ट अात्माका वाचक है, इसलिए शुद्ध आत्माका भी वाचक है। क्योंकि विशिष्ट में विशेषण और विशेष्य दोनों होते हैं। यह कहते हैं
आत्मना चाऽविनाभावमन्यथा विलयं व्रजेत् । .
न तु पक्षान्तरं यायादतश्चाऽहंधियोच्यते ॥ ५६॥ . अहङ्कार अपने स्थितिकालमें आत्माके बिना अस्तित्व नहीं रख सकता है। अन्यथा आत्माके बिना उसका विलय ही हो जायगा। इसके अतिरिक्त और कोई गति नहीं हो सकती। जहाँ अहंकार है वहाँ आत्मा है उसको छोड़कर उसकी स्थिति नहीं है। इसलिए, अहं शब्द शक्ति द्वारा ही प्रात्माका बोधक होता है ॥ ५६ ॥
कीहक् पुनर्वस्तु लक्ष्यम् ? नामादिभ्यः परो भूमा निष्कलोऽकारकोऽक्रियः ।
स एवाऽऽत्मवतामात्मा स्वतः सिद्धः स एव नः॥ ५७॥ प्रश्न-उस लक्ष्य प्रात्माका (ब्रह्मका) कैसा स्वरूप है ?
उत्तर-छान्दोग्य उपनिषद् में कथित नामसे लेकर प्राणपर्यन्त सब पदार्थोसे परे. 'व्यापक, विभागसे ( भेदसे ) रहित, जो किसीका साधन नहीं है और जो स्वयं क्रियासे शून्य है, वही सब आत्मवादियोंके मतमें आत्मा है।
प्रभ-उक्त विशेषण युक्त ब्रह्म आपके मतमें लक्ष्य रहे, परन्तु अन्य प्रमाणोंसे सिद्ध हुए बिना वास्तवमें वह लक्ष्य हो कैसे सकता है। . (१) तैल-शब्द अभिधा-शक्तिसे तिलोंसे निकले हुए तेलका ही बाचक है।