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माषानुवादसहिता कार्यकारणबद्धौ ताविष्येते विश्वतैजसो ।
प्राज्ञः कारणबद्धस्तु' द्वौ तौ तुर्ये न सिद्धयतः॥४१॥ पूर्वोक्त अर्थकी पुष्टिके लिए गौड़पादाचार्यके वाक्यको प्रमाणरूपसे उद्धृत करते हैं-विश्व-जाग्रत् अवस्थाभिमानी आत्माऔर तैजस-स्वप्नावस्थाभिमानी अात्मा, ये दोनों विपरीत ज्ञान और अज्ञान, दोनोंसे बद्ध हैं। सुपुतिअवस्थाभिमानी प्राज्ञ तो केवल अज्ञानसे ही श्रावृत है। तुरीय अवस्थामें विपरीत ज्ञान और अज्ञान दोनों ही नहीं हैं ॥ ४१ ।।
अन्यथागृह्णतः स्वमो निद्रा तत्त्वमजानतः।
विपर्यासे तयोः क्षीणे तुरीयं पदमश्नुते ॥ ४२ ॥ (किस समय तुरीय पदकी प्राप्ति होती है, इस बातको अाचार्यने कहा है-)
विपरीत ज्ञानसे स्वप्न होता है और केवल तत्त्वके अज्ञ.नसे निद्रा. अर्थात् सुषुप्ति होती है। इन दोनों अवस्थाओं का विपरीत ज्ञान और अज्ञानरूप विपर्यास जब तत्त्वज्ञानसे क्षीण होता है, तब तुरीय पदकी प्राप्ति होती है ।। ४२ ॥
तथा भगवत्पादीयमुदाहरणम्
सुषुप्ताख्यं तमोऽज्ञानं बीजं स्वमप्रबोधयोः।
आत्मबोधप्रदग्धं स्याद् बीनं दग्धं यथाभवम् ॥ ४३ ॥ भगवत्पूज्यपाद प्राचार्य ने भी ( उपदेश साहस्रीमें ) ऐसा ही कहा है--
सुषुप्ति, तम, अज्ञान इन पर्यायवाची शब्दोंसे वाच्य जो अज्ञान (अग्रहण ) स्वप्न और जाग्रत्का कारण है, वह स्वात्माके ज्ञानसे अतिशय दग्ध हो जानेपर दग्ध बीजके सदृश पुनः संसाररूप अंकुरको नहीं उत्पन्न करता ॥ ४३ ॥
एवं गौडैद्राविडैनः पूज्यैरयमर्थः प्रभाषितः ।
अज्ञानमात्रोपाधिः सन्नहमादिगीश्वरः ।। ४४ ॥ इस प्रकार हमारे पूज्य गौडपादाचार्य और द्राविड भगवत्पूज्यपादाचार्य ने भी यही बात कही है कि-अज्ञानमात्र ही जिसकी उपाधि है, ऐसा परमात्मा अहङ्कारादिका साक्षी होकर जीव रूपसे स्थित होता है ॥ ४४ ॥ . तत्राऽन्यथाग्रहणवदन्यथाग्रहणबीजमग्रहणमनात्मधर्म एवेत्याह
इदं ज्ञानमहं ज्ञाता ज्ञेयमेतदिति त्रयम् ।
योऽविकारो विजानाति परागेवाऽस्य तत्तमः ॥ ४५ ॥ १-बुद्धौ तु, ऐसा पाठ भी है। २-पूर्वरयं, ऐसा पाठ भी है।