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नैष्कर्म्यसिद्धिः मात्ररूपको विषय करनेवाला होता है । जैसे दण्ड में कल्पित सर्पका पर्यवसान दण्ड ही अवशेष होना है, न कि उस दण्डमें कल्पित सर्पकी सत्ता या असत्ता है। क्योंकि सर्प ही नहीं है, तो उसका अभाव भी एक पदार्थ कहाँसे रहेगा। वैसे ही जगत्का केवल ज्ञानरूप ब्रह्ममें ही पर्यवसान है ॥ ३८॥
कुत एतत् ? यस्मात्पश्यनिति यदाहोच्चैः प्रत्यक्त्वमजमव्ययम्' ।
अपूर्वानपरानन्तं त्वमा तदुपलक्ष्यते ॥ ३९ ॥ शङ्का-किस प्रमाणसे यह सिद्ध होता है ?
समाधान क्योंकि "सुषुप्ति अवस्थामें जो द्रष्टा किसी विषयको नहीं जानता, वह स्वयम्प्रकाशरूप होता हुआ ही नहीं प्रकाश करता है, न कि वह जरूप है, इस कारणसे । क्योंकि द्रष्टाकी स्वरूपभूत दृष्टिका लोप नहीं होता । उस अवस्थामें उससे कोई भिन्न वस्तु ही नहीं है, किसको प्रकाशित करे ?" इस प्रकार श्रुति मुक्तकण्ठसे आत्माको सुषुप्ति अवस्थामें समस्त द्वैतरहित, कूटस्थ, ज्ञानरूप बतलाती हैं । ऐसी जो उत्पत्तिरहित, द्वैतसे शून्य, कार्यकारणसे रहित और बाह्याभ्यन्तर शून्य प्रत्यक पदार्थ है, वही 'स्वम्' पदसे लक्षित होता है ॥ ३६॥
'तत्त्वमस्यादिवाक्योत्थविज्ञानेनैव बाध्यते । यस्मात्---.
पूर्वोक्त युक्तिके अनुसार तत्त्वमसि इत्यादि वाक्योंसे उत्पन्न हुए तत्त्वज्ञानसे ही अविद्याका नाश होता है । इसलिए वाक्यकी अपेक्षा है। अतएव वह व्यर्थ है, ऐसी शङ्का नहीं करनी चाहिए।
.. अस्माघदपरं रूपं नास्तीत्येव निरूप्यते ।
अन्यथाग्रहणाभावाद् बीजं तत्स्वमबोधयोः॥४०॥ शङ्का-यदि अविद्याकी निवृत्ति 'तस्वमसि' वाक्यसे उत्पन्न तत्त्वशानसे ही होती है, तब सुषुप्ति अवस्थामें निर्विशेष वस्तुकी सिद्धि श्रुतिने कैसे कहो ?
समाधान-सुषुप्तिमें विपरीत ज्ञानके न होनेसे द्वतरूप जाग्रत् और स्वप्न नहीं है। अतएव वहाँ इस प्रकृत आत्मस्वरूपसे अतिरिक्त स्वरूप नहीं है, यह 'न तु तद्वितीय' इत्यादि तिने निरूपण किया है। न कि विपरीत ज्ञानकी कारण अविद्या नहीं है, इस अभिप्रायसे । क्योंकि स्वप्न और. जाग्रत् अवस्थाकी कारण जो अविद्या है, वह सषप्तिमें है ही, इसलिए उसकी निवृत्ति के लिए वाक्य भी सार्थक हुआ ॥ ४०॥
अस्यार्थस्य द्रढिम्ने उदाहरणम्2-अजमद्वयम्, ऐसा पाठ भी है।