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भाषानुवादसहिता
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काम से विषयों की ओर खिंचकर सम्पूर्ण द्वतोंसे सर्वदा मुक्त, सर्वसाक्षी, अपरोक्ष अपने आपको, दशमकी भाँति, नहीं जानता ||३४, ३५॥
सोऽयमेवमविद्या पटलावगुण्ठितदृष्टिः सन् कथमुत्थाप्यत इत्याहयथा स्वापनिमित्तेन स्वप्नदृक्प्रतिबोधितः । करणं कर्म कर्त्तारं स्वामं नैवेक्षते स्वतः || ३६ ॥ अनात्मज्ञस्तथैवाऽयं सम्यकश्रुत्याऽववोधितः ।
गुरुं शास्त्र' तथा मूढं स्वात्मनोऽन्यन्न पश्यति ॥ ३७ ॥
जैसे स्वप्न देखनेवाला अपनी
इसपर ऐसी श्राशङ्का होती है कि इस प्रकार विद्यासे स्वस्वरूपको भूले हुए पुरुषको ज्ञान होनेमें जो कारण होते हैं, वे क्या सच्चे हैं या झूठे हैं ? यदि सत्य तो सिद्धान्ता भङ्ग होता है और यदि उन्हें असत्य माना जाय, तो उनसे यथार्थ ज्ञान कैसे होगा ? इस शङ्काका परिहार दृष्टान्तके द्वारा करते हैंविद्यासे स्वप्नदशामें ही कल्पित चोर या व्याघ्रादिको देखकर डरता हुआ एकदम जाग जाता है । और स्वप्न में अज्ञानसे कल्पित कारण को अपने से विलक्षण समझता है, अर्थात् सत्य नहीं मानता। वैसे ही अनादि विद्यारूपी गाढ निद्रा में निमन्न पुरुष मोहरूपी निद्रासे ही कल्पित श्रुति, श्राचार्य इत्यादि कारणसामग्री से ‘मैं परं ब्रह्म हूँ' इस प्रकार प्रतिबुद्धि होकर गुरु, शास्त्र, मूढ, श्राचार्य आदिको अपने से अतिरिक्त नहीं देखता । इसलिए श्रद्वतको कोई क्षति नहीं हुई । और विद्या ( यथार्थज्ञान) का उदय नहीं होगा, यह आपत्ति भी नहीं हुई, क्योंकि मिथ्याभूत से भी यथार्थज्ञान उत्पन्न होता है, यह पहले दिखलाया ही है ।। ३६-३७ ॥
स किं सकलसंसार प्रविविक्तमात्मानं वाक्यात्प्रतिपद्यत उत तीति । अत्र ब्रूमः । कूटस्थावगतिमात्रशेषत्वात्प्रतिपत्तेरत आहदण्डावसाननिष्ठः स्याद् दण्डसर्पो यथा तथा । नित्याऽवगतिनिष्ठ स्याद् वाक्याञ्जगदसंशयम् ॥ ३८ ॥
शङ्का - अच्छा, इस प्रकार ज्ञानकी उत्पत्ति हो । परन्तु इस प्रकार ब्रह्मका ज्ञान क्या प्रपञ्चसे भिन्न होता है या भिन्न ? प्रथम पक्षको अङ्गीकार करिये तो श्रद्धतका भक्त हो जायगा और द्वितीय पक्ष के मानने से ब्रह्म में सप्रपञ्चता हो जायगी !
समाधान- प्रपञ्च श्रात्मामें श्रविद्यासे कल्पित है, इसलिए उससे भेद किं वा श्रमेद दोनों ही मिथ्या हैं । श्रतएव वाक्यसे जो बोध होता है, वह केवल शुद्ध चैतन्य
१ - गुरुशास्त्र, भी पाठ है ।
२ - शेषमात्रत्वात्, ऐसा पाठ भी है ।