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नैष्कर्म्यसिद्धिः
एतावदिहोक्तम्-नेहाऽऽत्मविन्मदन्योऽस्ति न मत्तोऽज्ञोऽस्ति कश्चन । इत्यजानन् विजानाति यः स ब्रह्मविदुत्तमः ।। ५३ ।।
[ साङ्ख्यवादियोंके समान नानात्मवादकी शङ्का को निवृत्त करनेके लिए फिर भी उक्त अर्थका संग्रह करके उसे दिखाते हैं - ] इस प्रकरण में यह कहा गया है कि-से अन्य कोई ब्रह्मवेत्ता नहीं है और मुझसे अतिरिक्त अज्ञ भी कोई नहीं है अर्थात् ज्ञान और अज्ञानका आश्रय मैं ही हूँ । इस प्रकारसे द्वितीय श्रात्माको वृत्तिज्ञानसे विषय न करते हुए — केवल स्वरूप चैतन्यके द्वारा स्वप्रकाश रूपसे जो जानता है, वह पुरुष ब्रह्मज्ञानियों में श्रेष्ठ है ॥ ५३ ॥
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एवमात्मानं ज्ञात्वा किं प्रवर्तितव्यमुत निवर्तितव्यमाहोस्विन्मुक्त प्रग्रहतेति ? उच्यते
ज्ञेयाऽभिन्नमिदं यस्माद् ज्ञेयवस्त्वनुसार्यतः ।
न प्रवृत्ति निवृत्ति वा कटाक्षेणाऽपि वीक्षते ॥ ५४ ॥
इस प्रकार तत्वविचारको समाप्त करके तत्त्ववेत्ताकी ( ब्रह्मवेत्ताकी ) चर्याका निरूपण करते हुए विकल्प करते हैं कि "ज्ञानोत्तर काल में ब्रह्मज्ञानीको वर्णाश्रम धर्मों में प्रवृत्त होना चाहिये ? या उनसे निवृत्ति ही उचित है ? अथवा उसको स्वच्छन्द वर्ताव करना चाहिए ?" इसका उत्तर देते हैं
घूँकि यह ज्ञान ज्ञेय वस्तु, जो अद्वितीय चैतन्य है, से अभिन्न है । अतएव उसी अनुकरण करता है और चैतन्य प्रवृत्ति एवं निवृत्तिसे शून्य है । इस कारण ब्रह्मवेत्ता उसी रूपसे स्थित होता है। प्रवृत्ति और निवृत्ति, किसीको कटाक्ष से भी नहीं देखता ॥ ५४ ॥ कुत एतज्ज्ञेयाऽभिन्नमिति ? यतः - प्रागात्मवोधाद् बोधोऽयं बाह्यवस्तूपसर्जनः प्रध्वस्ताऽखिलसंसार आत्मैकालम्बनः श्रुतेः ॥ ५५ ॥
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१ - न मत्तोऽन्योऽस्ति, पाठ भी है।
२ - बाह्य वस्तू पसर्जनम्, पाठ भी है । . ३ - श्रात्मैकालम्बनं श्रुतेः, ऐसा पाठ भी है।
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शङ्का - ज्ञान ज्ञेयभूत चैतन्यसे अभिन्न है, इसमें क्या कारण है ? समाधान - चूँकि आत्मज्ञान होनेके पूर्व यह ज्ञान बाह्य वस्तुको
विषय करता था, इसलिए भेद था । जब कि श्रुतिके द्वारा तत्त्वज्ञानका उदय होकर