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भाषानुवादसहिता .
१५३ दारण्यक उपनिषदके वाक्यकी आलोचना करके अज्ञानवश अहङ्कारादिसे अभिन्न हुआ ब्रह्म ही उपदेशका भागी होता है, यह कहा । अब यह शङ्का होती है कि आत्मानात्मविवेकके लिए अन्वय-व्यतिरेककी क्या आवश्यकता है ? इसके निवारणार्थ कहते हैं
जिसने स्वयमेव वाक्योंके विचार करनेके पूर्व ही अन्यय-व्यतिरेकसे देह, इन्द्रियादिसे श्रात्माको पृथक् विवेचित किया है, उसीको पूर्वोक्त जीव और ब्रह्मका ऐक्य 'तत्त्वमसि' इत्यादि शास्त्र उपदेश करता है, अतएव उसकी व्यर्थता नहीं है। इसपर यदि कोई कहे कि-'तब तो अन्वय और व्यतिरेकसे ही मुक्ति होती है, फिर उपदेशका क्या प्रयोजन है ? तो यह ठीक नहीं। क्योंकि
देहेन्द्रियादिसे आत्माको पृथक् जान लेनेपर भी अज्ञान निवृत्त नहीं होता है। उसके निवारणार्थ यह उपदेश है। जो श्रात्मा और अनास्माके विभेदको जाननेवाला है, उसीको उपदेश करना सार्थक है। क्योंकि जिसको उसकी अमिज्ञता नहीं है, उसको उपदेश करना, बधिरोंको गायन सुनाने के तुल्य है ॥ २१ ॥
तस्य च युष्मदस्मद्विभागविज्ञानस्य का युक्तिरुपायभावं प्रतिपद्यते । शृणु
अन्वयव्यतिरेकौ हि पदार्थस्य पदस्य च । स्यादेतदहमित्यत्र युक्तिरेवाऽवधारणे ॥ २२ ॥ .
पूर्वोक्त आत्मा और अनात्माका विवेक कौनसी युक्तिसे होगा ? इस प्रश्नका उत्तर सुनिए
पद-पदार्थों का अन्वय और व्यतिरेक ही, यह आत्मा है यह अनात्मा है, ऐसे पृथक् पृथक् भेदज्ञानके कारण हैं ॥ २२ ॥
कथं तौ युक्तिरित्यत्राहनाद्राक्षमहमित्यस्मिन् सुषुप्तेऽन्यन्मनागपि ।
न वारयति दृष्टिं स्वां प्रत्ययं तु निषेधति ॥ २३ ॥ . वे अन्वय-व्यतिरेक किस रीतिसे विवेकका उत्पादन करते हैं, इसका उत्तर आचार्यपादकी ही उक्तिसे देते हैं
"प्रबुद्ध पुरुष निद्रित अवस्थामें-सुषुप्तिमें-'मैं अपनेसे अतिरिक्त किसीको भी नहीं जानता था, ऐसा स्मरण करता हुआ स्वस्वरूप दृष्टिका निवारण नहीं करता। क्योंकि स्मरण होनेके लिए अपेक्षित पूर्वानुभवरूपसे वहाँपर वही स्थित है। किन्तु घट, पट आदि विषयोंके ज्ञानका ही निषेध करता है। इस कारण श्रास्मा ही अव्यभिचारी (अबाधित)
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