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नैष्कर्म्यसिद्धिः
प्रामाण्य लोकमें प्रसिद्ध है, ऐसे आचार्योंके ( भगवान् श्रीशङ्कराचार्यजीके) वाक्यका उदाहरण देते हैं
मैंने जिस विषयको कहा है, उसीका समस्त प्राणियोंका हित चाहनेवाले श्रीशङ्करभगवत्पूज्यपादाचार्यजीने भी ( उपदेशसाहस्री में ) स्पष्ट रीति से वर्णन किया हे ॥ १६ ॥
किं परमात्मन उपदेश उताऽपरमात्मन इति ? किञ्चातः ? यदि परमात्मनस्तस्योपदेशमन्तरेणैव मुक्तत्वान्निरर्थक उपदेशः । अथाऽपरमात्मनस्तस्यापि स्वत एव ' संसारस्वभावत्वान्निष्फल उपदेशः । एवमुभयत्रापि दोषवच्चाद् । अत आह
अविविच्योभयं वक्ति श्रुतिश्चेत्स्याद् ग्रहस्तथा ।
इति पक्षमुपादाय पूर्वपक्षं निशात्य च ॥ २० ॥
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पूर्वपक्ष - क्या परमात्माको उपदेश किया है, या जीव को ? यदि कहिए कि इस प्रश्नसे क्या प्रयोजन है ? तो सुनिए- यदि परमात्माको उपदेश देते हो तो वह उपदेश के बिना ही मुक्त है, इसलिए उपदेश करना निरर्थक है । और यदि परमात्मा - जीवको उपदेश होता है, ऐसा कहिए, तत्र तो जो स्वयमेव संसारी स्वभाववाला है, वह उस स्वभावसे कदापि छूट नहीं सकता, इस कारण उपदेश सर्वथा निष्फलं होगा । इस प्रकार दोनों ही पक्षों में दोष है ।
सिद्धान्त - इसपर ( पूज्यपादने जो उत्तर दिया है, उसे ) कहते हैं
अहङ्कार और आत्मा, इन दोनों का परस्पर अभ्यास होकर जो एक वस्तु शबलरूप जीवनामक व्यवस्थित है, उसीको उद्दश्य करके श्रुति यदि प्रभेदका उपदेश करे तो उपदेश हो सकता है। इसलिए पहले भी यह कहा है कि- 'केवल श्रनात्मा या शुद्ध परमात्मा, इन दोनोंके लिए उपदेश नहीं हो सकता।' वही बात पूर्वपक्षका निराकरण करते हुए - ' विविक्त श्रात्मा और श्रनात्मा ही उपदेशके योग्य हैं' इस प्रकार सिद्धान्त रूपसे स्थिर करते हुए जो हमने कहा है, वही पूज्यपाद श्रीभाष्यकारने भी प्रदर्शित किया है || २०
तच्चेदमविवेकात्स्वतो विविक्तात्मने तत्त्वमसीत्युपदिष्टम् - युष्मदस्मद्विभागज्ञे स्यादर्थवदिद चचः ।
यतोऽनभिज्ञे वाक्यं स्याद् बधिरेष्विव गायनम् ॥ २१ ॥ इस प्रकार 'ब्रह्म ही ज्ञानी हुआ, उसने अपने श्रापको जाना' इत्यादि वृह
१ - संसारि०, ऐसा भी पाठ है 1