________________
नैष्कर्म्यसिद्धिः न चेयं स्वमनीषिकेति ग्राह्यम् । कुतः । श्रुत्यवष्टम्भात् । शब्दायाकारनिर्भासा हानोपादानधर्मिणी ।
भास्येत्याह श्रतिदृष्टि'मात्मनोऽपरिणामिनः ॥ ९१ ।। ___ यह केवल हमारी कल्पनामात्र ही नहीं है। किन्तु श्रुति भी इस बातको प्रति. पादन करती है।
शब्दादि विषयों के अाकारको धारण कर तद्रूपसे प्रकाशित होनेवाली तथा किसी विषयका ग्रहण और किसी का त्याग करती हुई बुद्धि अपरिणामी आत्मवस्तुके द्वारा प्रकाशित होती है, न कि अात्मा उस बुद्धिसे प्रकाशित होता है। ऐसा श्रुतिने प्रतिपादन किया है ।।११।।
का त्वसौ श्रुतिः ? दृष्टेष्टारमात्मानं न पश्येदृश्ययाऽनया' ।
विज्ञातारमरे केन विजानीयाद्धियां पतिम् ॥ ९२ ॥ प्रश्न-वह श्रुति कौन सी है ?
उत्तर-'नदृष्टेष्टारं पश्येत्'--"बुद्धि की वृत्तियोंके द्रष्टा आत्माको इस बुद्धिका दृश्य मत समझो।” 'विज्ञातारमरे केन विजानीयात्'--"बुद्धि के साक्षी-आत्माको किस साधन से जान सकते हैं ।” इत्यादि श्रुति इस विषयमें प्रमाण हैं ॥ ९२ ॥
यस्मात्सर्वप्रमाणोपपन्नोऽयमर्थस्तस्मादतोऽन्यथावादिनो जात्यन्धा इवाऽनुकम्पनीया इत्याह ।
बुद्धि परिणामिनी है और आत्मा कूटस्थ एवं नित्य है, यह बात सर्व प्रमाणोंसे सिद्ध है । इसलिए इसके विरुद्ध बोलनेवाले लोग जन्मान्धोंकी तरह कृपापात्र हैं, यह बात कहते हैं।
तदेतदद्वयं ब्रह्म निर्विकारं कुबुद्विभिः ।
जात्यन्धगजदृष्टय व कोटिशः परिकल्प्यते ।। ९३ ॥ . उसी (प्रसिद्ध ) निर्विकार अद्वितीय ब्रह्मको मूर्ख लोगोंने-जैसे कई जन्मान्ध लोग एक ही हाथीकी कई प्रकारसे कल्पना कर लेते हैं, इसी प्रकार-अनेक कल्पनाओंसे अनेकरूप बना रक्खा है ॥ ९३ ॥
प्रमाणोपपन्नस्यार्थस्याऽसम्भावनातदनुकम्पनीयत्वसिद्धिस्तदेतदाह।
प्रमाणोंसे सिद्ध अर्थ के ऊपर भी विश्वास न करके वे लोग असम्भावना करते हैं, इसलिए कृपाके योग्य हैं, यह सिद्ध हुआ। इसी बातको कहते हैं।
१-दृष्टिरात्मनो, भी पाठ है ।। २-दृश्यमानया, भी पाठ है । * सालबुद्विवृत्तिप्रकाशकम् ।