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भाषानुवादसहिता यद् यद् विशेषणं दृष्टं नात्मनस्तदनन्वयात् ।
खस्य कुम्भादिवत्तस्मादात्मा स्यानिर्विशेषणः ॥ ९४ ॥
जो जो विशेषण दीख पड़ता है वह वह आत्मामें अन्वित नहीं होता है । क्योंकि आत्माका उन विशेषणोंके साथ, आकाशका घटादिके समान, कोई सम्बन्ध नहीं है । इसलिए आत्मा सत्र विशेषणोंसे रहित है ॥ ६४ ॥
अतश्चात्मनो भेदासंस्पर्शी भेदस्य मिथ्यास्वाभाव्यादत आह ।
इसलिए भी आत्मामें भेदका सम्बन्ध नहीं है। क्योंकि भेदका स्वरूप मिथ्या है । इसी बातको कहते हैं
अवगत्यात्मनो यस्मादागमापायि कुम्भवत् । साहिङ्कारमिदं विश्वं तस्मात्तत्स्यात्कचादिवत् ।। ९५ ॥
चूँकि अहङ्कार सहित यह सम्पूर्ण जगत् ज्ञान स्वरूप आत्मासे ही उत्पत्ति और विनाशको प्राप्त हो रहा है, इसी कारण घटादिके समान आत्मासे भिन्न है, अतएव केशोएड्रक अादिभ्रमके समान मिथ्या है ।। ६५ ॥
सर्वस्यैवाऽनुमानव्यापारस्य फलमियदेव यद्विवेकग्रहणम् तदुच्यते ।
पूर्वोक्त सब अनुमान करने का फल यही है कि-तत्त्वज्ञान का उत्पन्न होना । यही अब आगे कहते हैं -
बुद्धेरनात्मधर्मत्वमनुमानात्प्रसिद्धयति ।
आत्मनोऽप्यद्वितीयत्वमात्मत्वादेव सिद्धयति ।। ९६ ॥ बुद्धि अनात्माका धर्म है, यह बात अनुमानसे सिद्ध होती है और आत्माकी अद्वितीयता भी उसके स्वभावसे ही सिद्ध है ।। ६६ ॥
__ यद्यप्ययं ग्रहीतग्रहणग्राह्यगृहीतितत्फलात्मक आब्रह्मस्तम्बपर्यन्तः संसारोऽन्वयव्यतिरेकाभ्यामनात्मतया निर्माल्यवदपविद्धस्तथापि तु नैवासौ स्वतःसिद्धात्मव्यतिरिक्तानात्मप्रकृतिपदार्थव्यपाश्रयः साङ्ख्यानामिव, किन्तर्हि ? स्वतःसिद्धानुदिताऽनस्तमितकूटस्थात्मप्रज्ञानमात्र
-खे अक्षिदोषेण केशसदृशं किञ्चित् दृश्यते तत्केशोण्डूकम्-नेत्रदोष केकारण आकाशमें केशके सदृश जो प्रतीत होता है, उसको केशोएड्रक कहते हैं।
२-अनुमानव्यायामस्य, भी पाठ है।