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नैष्कर्म्यसिद्धिः शरीरप्रतिबिम्बिताऽविचारितसिद्धात्माऽनवबोधाश्रय एव । तदुपादानत्वात्तस्येतीममर्थ निवेक्तुकाम आह ।
यद्यपि यह ज्ञाता, ज्ञानसाधन; विषय और ज्ञान तथा उससे उत्पन्न होनेवाला फल, एतदरूप ब्रह्मासे लेकर कीट पतङ्ग पर्यन्त समस्त संसार अंन्वय व्यतिरेकसे अनात्मा होनेके कारण निर्माल्य ( सारहीनवस्तु ) के समान दूर हटा दिया। तथापि वह साङ्खयवादियोंके समान स्वतःसिद्ध आत्मासे भिन्न प्रकृति आदि किसी अनात्मपद,थं के आश्रित नहीं है। किन्तु स्वतः सिद्ध, सदा उदित, निरन्तर प्रकाशयुक, कूटस्थ तथा ज्ञानस्वरूप प्रात्मामें प्रतिबिम्बित अविवेकसे सिद्ध आत्मस्वरूपांज्ञान ही इस समस्त संसारका आश्रय है। क्योंकि अात्मस्वरूपका अज्ञान ही इसका उपादान कारण है। इसी बातको स्पष्ट करने की इच्छासे आगे कहते हैं
ऋते ज्ञानं न सन्त्यर्था अस्ति ज्ञानमृतेऽपि तान् ।
एवं · धियो हिरुग्ज्योतिर्विविच्यादनुमानतः ।। ९७ ॥
जैसे ज्ञान के बिना विषय ( पदार्थ ) प्रकाशित नहीं होते, परन्तु ज्ञान उनके बिना भी प्रकाशमान है। इसी प्रकार अात्माके बिना बुद्धियाँ नहीं रहतीं। पर आत्मा बुद्धियोंके न रहने पर भी है, ऐसे अनुमान द्वारा विवेकसे आत्माको बुद्धिसे पृथक देखना चाहिए ॥ ९७ ॥
यस्मात्प्रमाणप्रमेयव्यवहार आत्मानवबोधाश्रय एव, तस्मासिद्धमात्मनोऽप्रमेयत्वम् । नैव हि कार्य स्वकारणमतिलवयाऽन्यत्राऽकारके आस्पदमुपनिबध्नात्यत आह ।
चूँकि प्रमाण, प्रमेय इत्यादि सर्व व्यवहार आत्माके न जाननेसे ही उत्पन्न हुश्रा है। इसलिए अात्मा किसी प्रमाण का विषय नहीं है, यह सिद्ध हुआ और कार्य कभी भी अपने कारएको उल्लङ्घन करके दूसरे स्थानमें अपनी स्थिति नहीं करता। इसलिए कहते हैं
व्यवधीयन्त एवामी बुद्धिदेहघटादयः ।
आत्मत्वादात्मनः केन व्यवधानं मनागपि ॥ ९८॥ .
बुद्धिकी सिद्धि में प्रात्म-प्रतिबिम्बकी अपेक्षा है तथा देह-सिद्धिमें बुद्धि और इन्द्रियोंकी भी अपेक्षा है। बाह्य घटादि पदार्थों की सिद्धिमें तो देश, कालादिकी भी अपेक्षा है । अतएव देह, इन्द्रिय, बुद्धि इत्यादि प्रमेय हैं । श्रास्मा तो समस्त वस्तुओंका स्वरूप है। अतएव उसमें किसी वस्तुका व्यवधान किंचिन्मात्र भी नहीं है। इसलिए वह अप्रमेय है ॥१८॥