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नैष्कर्म्यसिद्धिः
देहादिकार्य करण' - सङ्घातव्यतिरेकाव्यतिरेकदर्शिनः
एव विरुद्ध कार्यमुपलभ्यते ।
प्रत्यक्षत
देहेन्द्रियादि कार्यकरण सङ्घातसे अपनेको भिन्न समझनेवालों और अभिन्न समझने वालों के कार्य भी प्रत्यक्ष से ही विरुद्ध देखे जाते हैं ।
चतुर्भिरुह्यते यत्तत्सर्वशक्त्या शरीरकम् । तूलायते तदेवाऽहंधियाऽऽघातमचेतसाम् ॥ २० ॥
जिस शरीरपर हंबुद्धिके न रहने पर [ मरनेके अनन्तर ] चार आदमी उसे बड़ी कठिनता से उठा सकते हैं, उसी शरीरको, निर्बुद्धि लोग 'मैं यह देह ही हूँ' ऐसा समझते हुए, तूलके समान लिए फिरते हैं ( स्वदेह और परदेह इनमें कोई भेद नहीं है, केवल बुद्धिमात्र से ही खदेहका भार हम लोगोंको नहीं होता। इससे सिद्ध हुआ कि देह श्रात्मा नहीं है । ) ॥ २० ॥
प्रसिद्धत्वात्प्रकरणार्थोपसंहारायाऽऽह ।
चार्वाकको छोड़कर बाँकी सन वादियों के मत में स्थूल देहसे आत्माका भेद सिद्ध ही है । इसलिए प्रकरणाथका उपसंहार करते हैं
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स्थूलं युक्त्या निरस्यैवं नभसो नीलतामिव ।
देहं सूक्ष्मं निराकुर्यादतो युक्तिभिरात्मनः ॥ २१ ॥ जिस प्रकार का नीलिमाका सर्वथा अभाव है, इसी प्रकार स्थूल शरीर में
भी श्रात्मना सर्वथा अभाव है। ऐसा निश्चय करके ( तदनन्तर ) युक्तियों के द्वारा सूक्ष्म देहमें भी श्रात्मपनका निराकरण करना चाहिए ॥ २१ ॥
कथं देहं सूक्ष्मं निराकुर्यादिति ? उच्यते ।
सूक्ष्म देहसे आत्मबुद्धिका निराकरण किस प्रकारसे करना चाहिए, यह कहते हैं-अहंममत्वयत्नेच्छा नाऽऽत्मधर्माः कृशत्ववत् । कर्मत्वेनोपलभ्यत्वादपायित्वाच्च
वस्त्रवत् ।। २२ ।।
जिस प्रकार कृशता, स्थूलता आदि स्थून शरीरके धर्म हैं, आत्मा नहीं । इसी प्रकार अहङ्कार, ममता, यत्न, इच्छा आदि भी सूक्ष्म शरीर के धर्म हैं, ग्रात्मा के नहीं, क्योंकि ये सब वस्त्रादिकी भाँति आत्मा के दृश्य हैं और ग्रागमापायी हैं ॥ २३ ॥
वैधर्म्य दृष्टान्तः
१ -- कार्य कारण, ऐसा भी पाठ मिलता है ।
२ - धियाध्यातम्, और 'श्रमेधसाम्' भी पाठ मिलता है ।