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भाषानुवादसहिता जिस मलको वास्तव में दोषयुक्त समझकर त्याग दिया है, उसको यदि कोई दोष देने लगे ( उसकी निन्दा करने लगे), तो क्या वह दोष मलत्याग करनेवाले को लगेगा ? इसी प्रकार जिसने विवेकसे स्थूल और सूक्ष्म शरीरका त्याग कर दिया है, उससे अभिमान हटा लिया है, उस विद्वान् के शरीरमें यदि कोई मनुष्य दोष निकाले तो इससे विद्वान्का क्या विगड़ता है ।। १६-१७ ॥
___ एतावदेव ह्यहं ब्रह्माऽस्मीति बाक्यर्थाप्रतिपत्तौ कारणं यदुत' बुद्ध्यादौ देहान्ते ह्यहं ममेति निःसन्धिवन्धनो ग्रहस्तद्वयतिरेके हि न कुतश्चिद्विभज्यत एकल एव प्रत्यगात्मन्यवतिष्ठत इत्याह ।
'मैं ब्रह्म हूँ' इस ज्ञानके उत्पन्न होनेमें रुकावट केवल यही है कि बुद्धिसे लेकर देह पर्यन्त वस्तुओंमें 'मैं और मेरा' इस प्रकारका निःसन्धि-निरन्तर अर्थात् जिसमें बाधक ज्ञान बीचमें नहीं है ऐसा, प्राग्रह (निश्चय ) होना। इस अहं मम अभिमानके निवृत्त होनेसे फिर वह पुरुष किसी पदार्थ से भी अपनेको पृथक् नहीं समझता, किन्तु अद्वितीय प्रत्यगात्मामें ही उसकी स्थिति होती है। यह बात कहते हैं
रिपो बन्धौ स्वदेहे च समैकात्म्यं प्रपश्यतः ।
विवेकिनः२ कुतः कोपः स्वदेहावयवेष्विव ॥ १८ ॥ शत्रु, मित्र और अपने देहमें सम एक आत्माको देखनेवाले विवेकी पुरुषको कोप कैसे होगा ? जैसे कि अपने देहके अङ्गोंका अपने ही देहके अङ्गोंसे सङ्घर्ष (अभिघात ) होनेसे किसीको भी क्रोध नहीं उत्पन्न होता है ॥ १८ ॥
इतश्चाऽनात्मा देहादिः। और देहादिके अनात्मा होने में यह भी कारण है कि
घटादिवच दृश्यत्वातैरेव करणेदृशेः।।
स्वप्ने चाऽनन्वयाज्ज्ञयो देहोऽनात्मेति सूरिभिः ॥ १९ ॥ देह घटादिके समान दृश्य है (यदि वह आत्मरूप होता तो दृश्य नहीं होता।) और पदार्थोंका अालोचन करने के लिए जीवात्माके साधनरूप इन्द्रियोंके साथ शरीरका सम्बन्ध सब कालमें नहीं रहता, इससे इन्द्रियाँ भी यात्मरूप नहीं हैं। यदि वे आत्मरूप होती तो सब कालमें विषयोंका ग्रहण करतीं। परन्तु स्वप्नावस्थामें देखा जाता है कि बिना इन्द्रियोंकी सहायताके विषयोंका ग्रहण होता है। इससे विद्वानोंको निश्चय कर लेना चाहिए कि देह और इन्द्रियाँ आत्मा नहीं हैं, ( किन्तु जाग्रत् अवस्थामें . विषयोंका ग्रहण करने के लिए आत्माके साधनमात्र हैं ।)॥ १६ ॥
9-यदुक्तबुद्ध्यादौ, ऐसा भी पाठ है। २-विवेकिनः पुनः कोपः, भी पाठ है ।