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tosसद्धिः
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मन्यसे तावदस्मीति यावदस्मान्न नीयसे । खभिः क्रोडीकृते देहे नैवं त्वमभिस्यसे ॥ १३ ॥
तभीतक श्राप इस शरीर में हंबुद्धि कर सको हैं जबतक कि इससे निकलते नहीं । जहाँ आप इस शरीर से निकले तभी इसपर कुत्ते आक्रमण करेंगे और फिर आपका
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इसपर किञ्चिन्मात्र भी ग्रमिमान न रह जायगा ॥ १३ ॥
शिर आक्रम्य पादेन भर्त्सयत्यपरान् शुनः ।
साधारणं देहं कस्मात्स कोऽसि तत्र भोः ॥ १४ ॥
जिस शरीरपर आप इस समय बड़ा अभिमान करते हो, उसी शरीरके शिरपर पैर रखकर, आपके त्याग देने के पश्चात्, कुत्ता अभिमान करेगा और दूसरे कुत्ते जो उसको लेना चाहेंगे उनकों झिड़केगा । अरे मित्र ! ऐसे साधारण शरीर में क्यों फँस 1 रहे हो ? ॥ १४ ॥
श्रुतिप्रतिपः दितोऽयमर्थोऽनात्मा बुद्धयादिर्देहान्त इतीदमाह । बुद्धिसे लेकर देह पर्यन्त सत्र वस्तु अनात्मा है, यह बात श्रुति से भी सिद्ध है । यह अग्रिम श्लोकसे कहते हैं
बुसत्रीहिपलालांशैजमेकं त्रिधा यथा । बुद्धिमांस पुरीषांशैरनं तद्वदवस्थितम् ॥ १५ ॥
जैसे एक ही बीज भूसी, चावल और पलाल इन तीन अंशों में परिणत होता
है । वैसे ही खाया हुआ अन्न बुद्ध ( मन ); मांस और मल इन तीन रोमें परिणत
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होता है || १५ ||
यथोक्तार्थप्रतिपत्तौ सत्यां न रागद्वेषाभ्यां विक्रियते विपश्चि दित्यस्यार्थस्य प्रतिपत्तये दृष्टान्तः ।
पूर्वोक्त अर्थको यथावत् जान लेनेपर अर्थात् देहादिमें श्रात्मत्वाभिमान की निवृत्ति हो जानेसे आत्मत्वरूपका ज्ञान होनेपर विद्वान् पुरुष रागद्वेपसे अभिभूत नहीं होता । इस बात को स्पष्ट करनेके लिए दृष्टान्त देते हैं
वर्च के सम्परित्यक्ते दोषतश्चाऽवधारिते । यदि दोषं वदेत्तस्मै किं तत्रोच्चरितुर्भवेत् ॥ १६ ॥ तद्वत् सूक्ष्मे तथा रथूले देहे त्यक्ते विवेकतः । यदि द्वशेषं वदेत्ताभ्यां किं तत्र विदुषो भवेत् ॥ १७ ॥