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पादसाहता
भाषानुवादसहिता अन्वय-व्यतिरेकके बिना वाक्यार्थका ज्ञान नहीं हो सकता और वाक्यार्थशानके विना अज्ञानका नाश नहीं हो सकता है ॥ ६ ॥
विनाज्ञानप्रहाणेन पुरुषार्थः सुदुर्लभः ।
तस्माद्यथोक्तसिद्धयर्थं परो ग्रन्थोऽवतार्यते ॥ १० ॥ विना अज्ञानको निवृत्ति हुए पुरुषार्थका लाभ अत्यन्त दुर्लभ है। इसलिए पूर्वोक्त प्रयोजनकी सिद्धि के लिए, अन्वय-व्यतिरेकसे त्वं पदार्थका स्पष्टीकरण करनेके लिए, अग्रिम ग्रन्थका प्रारम्भ करते हैं ॥ १० ॥
. वर्चस्क' त्वन्नकार्यत्वाद्यथानाऽत्मेति गम्यते ।
तद्भागः सेन्द्रियो देहस्तद्वकिमिति नेक्ष्यते ॥ ११ ॥
जैसे शरीरका मल अन्नका परिणाम होनेके कारण स्पष्ट ही अनात्मा है। वैसे ही इन्द्रियोंके सहित शरीर भी अन्नका ही परिणाम होनेके कारण अनात्मा है, ऐसा क्यों नहीं अनुमानसे निश्चय करते ? ॥ ११ ॥
आद्यन्तयोरनात्मत्वे प्रसिद्ध मध्ये कः प्रतिबन्धः।।
जब आदि और अन्तमें अनात्मपन प्रसिद्ध है, तो मध्यमें उसे अनात्मा मानने में क्या रुकावट है ?
प्रागनात्मैव जग्धं सदात्मतामेत्यविद्यया ।
स्रगालेपनवदेहं तस्मात्पश्येद्विरक्तधीः ॥ १२ ॥
भक्षण के पहले अन्न अनात्मा है, खा लेनेपर अविद्याके कारण वह अात्मा प्रतीत होने लगता है। इसलिए विवेकी पुरुषको माला, चन्दन इत्यादि वस्तुओंके समान ही देहको भी ( अनात्मा) समझना चाहिए ॥ १२ ॥
अथैवमपि मद्वचनं नाऽऽद्रियसे स्वयमेवैतस्माच्छरीरादशुचिराशेनिराशो भविष्यसि । .
. इतना कहनेपर भी यदि आप मेरे वचनपर श्रद्धा नहीं करते तो स्वयं ही इस अपवित्रताकी खान शरीरसे निराश" हो जाओगे।
१.-वर्चस्कमन्नकार्यत्वात्, भी पाठ मिलता है।
२-नेच्यते - नानुमीयते, देहेन्द्रियादि नात्मरूपम् , अन्नकार्यत्वात् , पुरीषवत्, . इति प्रयोगः ।
३-मध्येऽपि कः प्रतिबन्धः, भी पाठ है। ४-विविक्तधीः, भी पाठ है। . --वियुक्त, अर्थात् उसमें अभिमान शून्य ।।