________________
भाषानुवादसहिता
५.३
यदि श्रहङ्कार आदि श्रात्मा के धर्म होते तो वे उसके दृश्य न होते। जो जिसका धर्म होता है वह उसका दृश्य नहीं होता । इस विषय में (एक) दृष्टान्त देते हैं-नोणिमानं दहत्यग्निः स्वरूपत्वाद्यथा ज्वलन् । तथैवात्माऽऽत्मनो विद्यादहं नैवाऽविशेषतः ॥ २३ ॥
जैसे जलता हुआ न अपनी स्वरूपभूत उपगताको, उसका ही स्वरूप होने के कारण, नहीं जला सकता है। वैसे ही यदि श्रहङ्कार ग्रादि ग्रात्मत्वरूप या ग्रात्मा के धर्म होते, तो आत्मासे वे प्रकाशित न होते । प्रकाशित तो वे होते हैं। इससे सिद्ध है कि वे अनात्मा हैं || २३ ॥
एकस्याऽऽत्मनः कर्मकर्तृभावः सर्वथा नोपपद्यते इति श्रुत्वा मीमांसकः प्रत्यवतिष्ठते । श्रप्रत्ययग्राह्यत्वाद् ग्राहक' आत्मेति । तन्निवृत्त्यर्थमाह ।
आत्मा 'अहं' इस कारण कर्ता है ।
एक हौ आत्मामें कर्मकर्तृभाव सर्वथा नहीं बन सकता। इस बात को सुनकर मीमांसक लोग शङ्का करते हैं कि - 'एक ही ज्ञानका विषय होने के कारण कर्म है और इसका प्रकाशक होने के इस प्रकार एक ही आत्मामें कर्मकर्तृभाव यथावत् हो सकता है।' इस शङ्काको निवृत्ति के लिए कहते हैंकर्मको हि यो भावो नाऽसौ तत्कर्तृ को यतः । स्याद् द्रष्टृकर्मकः ।। २४ ।।
घटप्रत्ययवत्तरमान्नाऽहं
जिस क्रियाका जो कर्ता है, वह उसीका कर्म नहीं होना । जैसे घटके ज्ञानमें घट कर्म है, अर्थात् विषय है, तो वह उसके ज्ञानमें कर्ता नहीं हो सकता है । वैसे ही 'अहम्' यह ज्ञान श्रात्म-विषयक नहीं होता । क्योंकि उसमें वह कर्ता है ॥ २४ ॥
1
अत्राऽऽह, प्रत्यक्षेणाऽऽत्मनः कर्मकर्तृत्वाभ्युपगमे तत्पादोपजीविनाअनुमानेन प्रत्यक्षोत्सारणमयुक्तमिति चोद्यम् । तन्निराकरणाय प्रत्यचोपन्यासः ।
इस पर कोई लोग कहते हैं कि 'प्रत्यक्ष प्रमाणसे जत्र श्रात्मामें कर्मत्व और कर्तृव दोनों सिद्ध हैं, फिर आप प्रत्यज्ञके अनुयायी अनुमानसे प्रत्यक्षका बाध कैसे कर सकते हो' ? इस शङ्काका समाधान करने के लिए कहते हैं -
१ - ग्राह्यग्राहक ऐसा पाठ भी है ।
२ - मतः,
भी पाठ है 1