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नैष्कर्म्यसिद्धिः यत्र यो दृश्यते द्रष्टा तस्यैवाऽसौ गुणो न तु ।
द्रष्ट्रस्थो' दृश्यतां यस्मान्नैवेयादृष्टवोधवत् ॥ २५ ॥ जिस अन्तःकरणमें जो 'अहम्' (मैं) यह ज्ञान साक्षीसे भासित होता है, वह ज्ञान उसी अन्तःकरणका धर्म (परिमाण ) है, साक्षीका नहीं। यदि ऐसा न होता तो द्रष्टाके स्वरूपभूत ज्ञानके समान, वह भी साक्षीसे प्रकाशित नहीं होता ॥ २५ ॥
प्रत्यक्षेणैव भवदभिमतस्य प्रत्यक्षस्याऽऽभासीकृतत्वात्सुस्थमेवाऽनुमानम् । अतस्तदेव प्रक्रियते । तत्र च विकल्पदूषणाभिधानम् ।
प्रत्यक्षसे ही अापका अभीष्ट है । प्रत्यक्ष दोषयुक्त सिद्ध हो गया है और पूर्वोक्त अनुमान दोष रहित स्थित है। इसलिए पुनः उसीका खण्डन करते हैं। वहाँपर दो कोटियाँ करके दोप दिखलाते हैं
नाऽऽत्मना न तदंशेन गुणः स्वस्थोऽवगम्यते ।
अभिन्नत्वात्समत्वाच निरंशत्वादकर्मतः ।। २६ ।। अात्मा अपने गुणको स्वयं अथवा अपने ग्रंशसे ग्रहण नहीं कर सकता। क्योंकि वह किसीसे भिन्न नहीं है, सर्वत्र सम है, उसका कोई अंश नहीं है और वह कभी किसीका कर्म नहीं होता ॥ २६ ।।
न युगपन्नाऽपि क्रमेणोभयथा चैकस्य धर्मिणो ग्राह्यग्राहकत्वमुपपद्यत इति प्रतिपादनाय आह
एक ही धर्मी में ग्राह्यत्व और ग्राहकत्व न एक कालमें और न क्रमसे ही रह सकते हैं, इस बातका प्रतिपादन करनेके लिए कहते हैं
द्रष्टत्वेनोपयुक्तत्वात्तदैव स्यान्न दृश्यता । ' कालान्तरे चेद् दृश्यत्वं न ह्यद्रष्टकमिष्यते ॥ २७ ॥
जिस कालमें आत्मा द्रष्टा है, उसी काल में तो वह दृश्य हो ही नहीं सकता । यदि यह कहा जाय कि कालान्तरमें दृश्य हो जायगा, यह भी ठीक नहीं। क्योंकि उस समय में द्रष्टा कोई नहीं होगा, तब फिर दृश्य किसका ? क्योंकि दृश्य तो द्रष्टाके बिना होता ही नहीं ।। २७ ॥
१-द्रष्ट्रस्थं दृश्यतां, ऐसा भी पाठ मिलता है। २-प्रत्यक्षेणाभिमतस्य, ऐसा भी पाठ है । ३-विकल्प्य दूषणाभिधानम्, भी पाठ है।