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भाषानुवादसहिता
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समाधान — हम खंपद और तत्पद अथवा इनके जो अर्थ हैं, उनका साक्षात् निवर्त्यनिवर्त्तक भाव है, ऐसा नहीं कहते, किन्तु त्वंपदार्थ में तत् शब्दसे श्रद्वितीय ब्रह्मरूपता का विधान करने से उसका ज्ञान निवृत्त हो जाता है । इसलिए ज्ञान के निराससे अज्ञानजनित त्वंपदार्थनिष्ठ सद्वितीयत्व तथा तत्पदार्थनिंष्ठ परोक्षत्वका निरास होता है । अतएव पूर्वोक्त दोषकी आशङ्का नहीं करनी चाहिए । इन्हीं सब बातों का प्रतिपादन करते हैं
तत्पदार्थ संपदार्थ के साथ अभेदसे मिलनेपर त्वंपदार्थके नानात्वको निवृत्त कर देता है । ऐसे ही त्वंपदार्थ भी तत्पदार्थ के परोक्षत्वरूप विरुद्ध धर्मका निवर्त्तन किये बिना तत्पदार्थ के साथ अभिन्न नहीं होता । इसीलिए स्वपदार्थ के अभेदसे तत्पदार्थ की परोक्षता निवृत्त हो जाती है ॥ ७८ ॥
कस्मात्पुनः कारणात्तदर्थोऽद्वितीयलक्षणस्त्वमर्थेन प्रत्यगा मना 'पृथगर्थः सन्नविद्योत्थं सद्वितीयत्वं निहन्तीति । उच्यते । विरोधात् । तदुच्यते
संसारिताऽद्वितीयेन पारोक्ष्यं चात्मना सह । प्रासङ्गिकं विरुद्धत्वात्तत्त्वंभ्यां बाधनं तयोः ॥ ७९ ॥
शङ्का - 'तत्वमसि' आदि वाक्यका जीव ब्रह्म के एकत्व प्रतिपादनमें ही तात्पर्य हैदुःखित्वादि निवृत्त में नहीं है । यदि दुःखित्वादि निवृत्ति में भी तात्पर्य माना जाय, तब वाक्यभेद हो जायगा दो तार्य होनेसे वाक्यभेद दोष शास्त्रकारोंने माना है श्रतएव यह जो कहते हो कि अद्वितीय तत्पदार्थ त्वंपदार्थ - प्रत्यगात्मा साक्षी से श्रभेदको प्राप्त होकर श्रविद्या-जनित सद्वितीयत्वका निवर्त्तक होता है, यह बात ठीक नहीं है ?
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समाधान -- तत्वमसि, इत्यादि वाक्यका तात्पर्य विषय जो जीव और ब्रह्म का ऐक्य है, उसके साथ विरोध होने के कारण दुःखित्वादिकी भी निवृत्ति हो जाती है। वही कहते हैं
अद्वितीयत्व के साथ संसारित्व विरुद्ध है तथा अपरोक्ष श्रात्मा के साथ परोक्षत्व. विरुद्ध है । इस प्रकारसे दोनोंका प्रतिपाद्य अद्वितीयत्व और प्रत्यक्त्वके साथ विरोध. रहने से ऐक्यपरक तत्पद और संपदसे दोनोंका बाध स्वभावतः हो जाता है अर्थात् अपने आप विरुद्ध धर्मोकी निवृत्ति हो जाती है ॥ ७६ ॥
तत्त्वमर्थयोस्तु बाधकत्वेऽन्यदपि कारणमुच्यते-
१ पृथगर्थः, ऐसा पाठ भी है
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