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नैष्कर्म्यसिद्धिः
हैं कि त्वं पद केवल शुद्ध आत्माका ही प्रतिपादक नहीं है, किन्तु प्रत्यगात्मप्रतिपादक त्वं पदसे दोनों प्रतीत होते हैं -- दु:खित्वादि धर्मविशिष्ट श्रहङ्कार और प्रत्यगात्मा । इसपर भी कोई कहता है कि - "यदि त्वं पदसे दोनोंकी प्रतीति होती है तब दोनों ही उपादेय होने चाहिए, क्यों इनमेंसे एकको उपादेय और दूसरेको हेय बतलाते हो ? यदि किसीको हेय बनाना हो चाहिए, ऐसा हो आग्रह हो, तब आत्मांशको ही हेय और दुःखस्वांशको हो उपादेय क्यों नहीं मानते हो ?” इसका उत्तर यह है कि शुद्ध श्रात्माको दुःखित्वादि विशिष्ट श्रहङ्कारसे जो सम्बन्ध हुआ है वह श्रात्मस्वरूप के यथार्थ ज्ञान न होनेसे, केवल अज्ञानसे, ही हुआ है । अतएव अहङ्कार ही अनर्थका कारण है और अज्ञान से उत्पन्न होनेसे असत्य भी है । इसलिए वही हेय है, ऐसा प्रत्यक्ष से जाना जाता है । किन्तु तत्पदार्थ में कौन ग्रंश हेय है और कौन अंश उपादेय है, यह अभी तक नहीं 'जाना। इसलिए उसका निर्णय करनेके लिए यह कहते हैं----
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तत्पदार्थ में जो परोक्षता है वह अहङ्कारकी तरह त्यागने योग्य है । क्योंकि जैसे प्रत्यगात्मा के साथ श्रहङ्कारका भेद अज्ञानसे ही हुआ है, वैसे ही साक्षीस्वरूप परमात्मा का भी परोक्षता के साथ अभेद अज्ञानकृत ही है, अतएव परोक्षत्वांश हेय है ॥ ७७ ॥
कथं पुनस्तदर्थोऽद्वितीयलक्षणः प्रत्यगात्मोपाश्रयं सद्वितीयत्वं दुःखित्वं निरन्वयमपनुदतीति ? उच्यते । न चैतयोनिवर्तक निवर्त्य भावं वयं ब्रूमः । कथं तर्हि ? त्वमर्थे प्रत्यगात्मनि प्रागनवबुद्धाद्वितीयता सानेनाsaatध्यते । अतोऽनवबोधनिरासेन तदुत्थस्य सद्वितीयत्वस्य त्वमर्थ - स्थस्य परोक्षत्वस्य च तदर्थस्थस्य निरसनान्न वैयधिकरण्यादिचोद्यस्यासरोऽस्तीति । तदिदमभिधीयते-
तत्त्वमर्थेन संपृक्तो' नानात्वं विनिवर्तयेत् ।
नाsपरित्यक्तपारोक्ष्यं त्वं तदर्थ सिसृप्सति ॥ ७८ ॥
शङ्का -- तत्पदार्थ के साथ अभेद होनेसे त्वंपदार्थ में वर्तमान दुःखित्वादि धर्म हेय है, ऐसा आपने बतलाया । परन्तु यह ठीक नहीं है । क्योंकि, तत्पद त्वंपदार्थका श्रवबोधक न होनेसे त्वंपदार्थ में श्रारोपित संसारका निवर्त्तक नहीं हो सकता । क्योंकि ऐसा कहीं देखने में नहीं आता कि शुक्ति के ज्ञानसे रज्जुमें सर्पभ्रम नष्ट हो जाता हो। और यदि 'तत्' पद मी 'स्वम्' पदार्थका अवबोधक है, ऐसा कहा जाय, तब पौनरुक्तय, बुद्धिसङ्कर, पदान्तर- वैयर्थ्य, इत्यादि दोष उपस्थित होंगे ?
१ संपृक्तौ, ऐसा पाठ भी है ।
२ नापरित्यज्य, ऐसा पाठ भी है ।