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भाषानुवादसहिता न्यायसिद्धमतो वक्ति दृष्टेन्रष्टारमात्मनः ।
न पश्येत्प्रत्यगात्मानं प्रमाणं श्रुतिरादरात् ॥ ५० ॥ श्रुति भी इसी अर्थका प्रतिपादन करती है
प्रत्यक्षादि दृष्टि दृश्य, परिच्छिन्न, जड़स्वरूप रूपादिको विषय करनेवाली है। अत एव अदृश्य, अपरिच्छिन्न, चेतन, स्वयम्प्रकाश अात्माको वह कैसे ग्रहण कर सकती है॥ ४६॥
इसीलिए युक्तिसिद्ध इस अर्थको प्रमाणभूत श्रुति बड़े अादरके साथ कहती है कि जो अनित्यभूत दृश्य-दृष्टिका भी प्रकाशक, साक्षी तथा आत्माका भी आत्मा है उसको अनित्य दृष्टिसे जाननेका प्रयत्न न करो। ॥ ५० ॥
अनुमानाऽविषयत्वेऽन्यदपि कारणमुच्यतेप्रत्यक्षस्य पराक्त्वान्न सम्बन्धग्रहणं यतः ।
आत्मनोऽतोऽनुमित्यास्यानुभवो न कथञ्चन ॥५१॥ आत्मा अनुमानका विषय नहीं होता, इस विषयमें और भी कारण बतलाते हैं
क्योंकि प्रत्यक्ष प्रमाण जड़ वस्तुको विषय करता है, इस कारण वह इससे विपरीत स्वयं-प्रकाश श्रात्माको ग्रहण नहीं कर सकता। अनुमान करने के पूर्व, अनुमानसे जिसकी सिद्धि करनी है, उसके साथ किसी वस्तुका ग्यासिज्ञान आवश्यक है, वह प्रत्यक्षसे होता है । अात्मा जब प्रत्यक्षका विषय नहीं है, तब व्यासिज्ञान किस प्रकारसे होगा ? व्याप्तिज्ञान न होनेसे अनुमान भी नहीं बन सकता। इसलिए अनुमानसे आत्माका अनुभव किसी प्रकारसे भी नहीं हो सकता ? ॥ ५१ ॥
एवमयं प्रमातृप्रमाणप्रमेयव्यवहारः सर्वे एव पराचीनविषय एव न प्रतीचीनमात्मानमवगाहयितुमलम् । एवं च सत्यनेनैव यथोक्तोऽर्थोऽनुमातुं शक्यत इत्याह
प्रमाणव्यवहारोऽयं सर्व एव पराग्यतः।
सुविचार्याऽप्यतोऽनेन युष्मद्येव दिदृक्षते ॥५२॥
इस प्रकार प्रमाता, प्रमाण, प्रमेय इत्यादि सभी व्यवहार जड़ वस्तुको ही विषय करनेवाले हैं, प्रत्यगात्माको विषय करनेमें समर्थ नहीं हैं। इसलिए इसीसे इस बातका (उक्तविषयका) अनुमान किया जा सकता है, यह कहते हैं
क्योंकि प्रमाण आदि समस्त व्यवहार जड़ वस्तुको ही विषय करता है, इस कारण
१ अवसातुं शक्यते, और 'अवसितुं शक्यते, पाठ भी मिलता है।