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नैष्कर्म्यसिद्धिः करनेमें तत्पर जो तत्त्वमस्यादि वाक्य हैं, इनसे पूर्वोक्त अखण्ड अात्मस्वरूपका ज्ञान होता है, ऐसा जो कहते हो, वह ठीक नहीं। क्योंकि ये सब वाक्य अभिधायक श्रतिरूप हैं, विधायक श्रतिरूप लिङ्ग आदि प्रत्ययोंसे युक्त नहीं हैं । लोकमें कहीं भी अभिधायक अतिको, यदि मूलभूत प्रमाणान्तर न रहे, तो प्रमाण नहीं माना जा सकता । जैसेनदीके तीरमें पाँच फल हैं, इस वाक्यको प्रमाण तभी माना जायगा, जब किसीने अन्य प्रमाणसे नदीके तीरमें पाँच फल हैं, इस बात को जानकर पीछेसे इस वाक्यका प्रयोग किया हो, नहीं तो नहीं । इसलिए अभिधायक श्रुतिका विधायक श्रुतिके साथ एकवाक्यतासे ही प्रामाण्य हो सकता है । क्योंकि विधिप्रत्यय के अर्थको प्रमाणान्तरकी अपेक्षा नहीं है। अतएव वेदान्तवाक्य भी जब विधिपरक होंगे, तभी प्रमाण हो सकते हैं, नहीं तो नहीं।" इस आक्षेपको हटानेके लिए यह कहा जाता है कि यह आत्मा वेदान्तसे इतर सम्पूर्ण प्रत्यक्षादि प्रमाणोंका विषय ही नहीं होता । जब वह इतर प्रमाणोंका विषय नहीं होता, तब विधि-प्रत्यय रहित अभिधायक श्रुतिरूप वेदान्तवाक्यका अतीन्द्रिय वस्तुका बोधन करनेमें, सुप्त पुरुषको जाग्रत् करने के लिए प्रयुक्त वाक्यकी भाँति, सामर्थ्य है और प्रामाण्य भी है, इस बातको कहने के लिए अग्रिम ग्रन्थका प्रारम्भ होता है
नित्यावगतिरूपत्वादन्यमानानपेक्षणात् । शब्दादिगुणहीनत्वात्संशयानवतारतः ॥४७॥ तृष्णानिष्ठीवनै त्मा प्रत्यक्षायैः प्रमीयते ।
प्रत्यगात्मत्वहेतोश्च स्वार्थत्वादप्रेमयतः ।। ४८॥
यह आत्मा प्रत्यक्षादि प्रमाणोंसे गृहीत नहीं होता। इसका कारण यह है कि ग्राहककी प्रवृत्ति होनेके अनन्तर पुरुषको जब देखनेकी इच्छा होती है, तब प्रत्यक्षादिको प्रवृत्ति होती है। अतएव वे तृष्णाके कार्य हैं, उनसे सर्वावभासक आत्मा कैसे प्रकाशित हो सकता है और जो ज्ञानरूप नहीं है उसी वस्तुको प्रकाशित होनेके लिए प्रमाणान्तरकी अपेक्षा होती है। प्रात्मा तो कूटस्थ और प्रकाशरूप है, अतएव उसको प्रमाणान्तरकी अपेक्षा क्यों होगी ? और प्रत्यगात्मरूप होनेके कारण किसीसे उसका व्यवधान भी नहीं है । स्वार्थ होनेके कारण वह अन्यसे उपभोग्य नहीं है और अविषय होनेसे प्रमेय होनेके योग्य भी नहीं है । और श्रोत्रादि-प्रवृत्तिके विषय जो शब्दादि गुण हैं, उनसे रहित होनेसे वह किसी प्रकार सन्देहका भी विषय नहीं होता, इसी कारण वह अनुमान प्रादि प्रमाणोंका विषय भी नहीं होता ॥ ४७,४८॥
श्रुतिरपीममर्थ निर्वदतिदिक्षितपरिच्छिन्नपराग्रूपादिसंश्रयात् । विपरीतमतो दृष्टया स्वतो बुद्ध न पश्यति ॥ ४९ ॥