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त्कार करने में साधन हैं । इसलिए वेदान्त आदि निबन्धों को भी दर्शन कहते हैं ।
दर्शन अर्थात् आस्तिक दर्शन ६ हैं । न्याय दर्शन, वैशेषिक दर्शन, सायदर्शन, योगदर्शन, मीमांसा दर्शन और वेदान्त दर्शन । इन दर्शनोंके रचयिता गौतम, कणाद, कपिल, पतञ्जलि, जैमिनि और व्यास, ये सभी महर्षि तत्वदर्शी थे । वेदके सिद्धान्तके सूक्ष्म रहस्यको ऋतम्भरा प्रज्ञाके द्वारा सब ठीक ठीक जानते थे । इसी कारण इन प्रत्येक महर्षिके परमार्थ तत्त्व जाननेमें लेशमात्र भी विप्रत्तिप्रति ( संशय ) नहीं है । किन्तु परमार्थ तत्त्वको लेकर व्यवहारकी रक्षा तथा लोकसंग्रह हो नहीं सकता है । इसलिए महर्षियोंने अधिकारियोंके भेद से भिन्न-भिन्न कक्षाओंके अनुसार भिन्न-भिन्न प्रस्थानों का ( अलग-अलग दर्शनों का ) निर्माण करके उन में परम गम्भीर आत्मतत्त्वका विवेचन करते हुए तत् तत् सिद्धान्तोंका प्रतिपादन किया है। प्रायः सभी दार्शनिकोंके मतमें मोक्ष नित्य-सुख या दुःख निवृत्ति रूप है । सांख्य, योग, वेदान्त आदि शास्त्र धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष, इन चारोंको पुरुषार्थ मानते हैं, अर्थात् इनके मत में चार पुरुषार्थ हैं। इनमें से लौकिक सुखको काम कहते हैं । वह दो प्रकारका है दिव्य ( अर्थात् स्वर्गसुख) और अदिव्य ( भूलोक सुख ), वह दोनों ही प्रकारका सुख उपेय ( साध्य ) है । अर्थ और काम उसके साधन हैं । इनमें मोक्ष ही परम पुरुषार्थ है । वही मनुष्य जीवनका मुख्य उद्देश्य है । इसीलिए योगवासिष्ठ में कहा गया है
बुद्ध्यैव पौरुषफलं पुरुषत्वमेतद् आत्मप्रयत्नपरतैव सदैव कार्या 1
नेया ततः सफलतां परमामथासौ
सच्छास्त्रसाधुजन पण्डितसेवनेन ॥ ( यो० वा०, मु० प्र० ) मोक्षकी सिद्धिके लिए धर्म भी उपादेय है । धर्म की सिद्धिके लिए अर्थ भी उपादेय है । एवं 'शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्' इस नियमके अनुसार शरीरका साधन होनेसे काम भी उपादेय ही है । जैसा कि श्रीमद्भागवतमें कहा है
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