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दुःखोंकी आत्यन्तिक निवृत्तिरूप मोक्ष तो केवल एक वेदान्तशास्त्रके श्रवण, मनन और निदिध्यासनसे होनेवाले आत्मसाक्षात्कारसे ही होता है।
इस प्रकार त्रिविध दुःखोंसे सन्तप्त प्राणी जब लौकिक और वैदिक दोनों उपायोंसे उस परम सुख और परम विश्रान्तिको नहीं प्राप्त होता, तब लौकिक एवं वैदिक अनेक विधि साधनोंके अनुष्ठानसे खिन्न हुए उस सच्चे सुख, सच्ची शान्तिके जिज्ञासुको एकमात्र श्रुतिकी ही शरण लेनी पड़ती है । श्रुति, माता-पितासे भी कोटिगुण अधिक जीवका हित चाहनेवाली भगवती श्रुति, पुत्रवत्सला जननीके समान समस्त दुःखोंकी निवृत्ति एवं परम सुखकी प्राप्तिका जो एकमात्र उपाय बतलाती है, उसको कहते हैं-आत्मदर्शन, आत्मज्ञान अर्थात् आत्माका साक्षात्कार ।
'आत्मा वा अरे द्रष्टव्यः श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यः ।' 'तमेव विदित्वातिमृत्युमेति नाऽन्यः पन्था विद्यतेऽयनाय ।'
'तद्विज्ञानार्थ स गुरुमेवाभिगच्छेत् ।' इत्यादि, - इसी श्रुति द्वारा निर्दिष्ट अतिगहन आत्म-दर्शनका स्पष्ट रीतिसे प्रतिपादन करनेके लिए गौतम आदि तत्त्वदर्शी मुनियोंने ततत् अधिकारियोंकी रुचि और प्रवृत्ति के अनुसार न्याय, वैशेषिक आदि छ: दर्शनोंकी रचना की है। इसीलिए आत्म-दर्शनके प्रतिपादक उन वेदान्तादि दर्शनोंको भी लक्षणा द्वारा 'दर्शन' कहा जाता है। जैसे कि उपनिषद् शब्दका मुख्य अर्थ है-अध्यात्मविद्या । तत्प्रतिपादक ग्रन्थोंमें भी लक्षणावृत्तिके द्वारा उपनिषद् शब्दका प्रयोग होता है। अथवा वेदान्तादि निबन्धोंमें दर्शन शब्दका प्रयोग करणत्वेन-साधनत्वेन-किया गया गया है। इसलिए 'दृश्यते अनेन इति दर्शनम्' जिसके द्वारा आत्माका दर्शन ( साक्षास्कार ) हो, वह वेदान्त आदि निबन्ध भी दर्शन शब्दसे कहा जाता है । क्योंकि श्रुतिने आत्म-दर्शनके लिए जिन श्रवण, मनन और निदिध्यासनरूप तीन साधनोंका निर्देश किया है, उनमेंसे द्वितीय साधन तर्कात्मक मननमें अपेक्षित उपपत्तिके प्रतिपादक वेदान्तादि निवन्ध भी परम्परासे आत्म-साक्षा