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इसपर मीमांसक लोगों का कहना है कि – “लौकिक उपायों से दुःखोंकी आत्यन्तिक निवृत्ति भले ही न हो, परन्तु अग्निहोत्र, दर्शपौर्णमास, ज्योतिष्टोम आदि वैदिक कर्म-कलापसे स्वर्गकी प्राप्ति होनेपर अवश्य ही दुःखोंकी निवृत्ति हो सकती है । तो फिर क्यों अध्यात्मशास्त्रकी जिज्ञासा की जाय ? अर्थात् वह व्यर्थ है । क्योंकि उनके ( मीमांसकों के मत में धर्म, अर्थ और काम, ये तीन ही पुरुषार्थ हैं । इसलिए वे कहते हैं कि मोक्ष न चतुर्थ पुरुषार्थ है और न आत्मसाक्षात्कार उसका उपाय है । एवं उसका प्रतिपादन करनेवाला वेदान्त शास्त्र भी कोई स्वतन्त्र शास्त्र नहीं है किन्तु वह अर्थवाद के समान कर्मकाण्डका ही एक अङ्ग है ।"
होता ।
निवृत्ति
परन्तु विचार करने पर यह भी मत उचित नहीं प्रतीत कारण यह कोई निश्चय नहीं है कि वैदिक उपायोंसे दुःखकी हो ही जाय । संभव है कि यागमें अङ्ग-वैकल्य हो जानेसे उसका फल स्वर्ग न मिल सके और उसका फल जो स्वर्ग है, वह नित्य ही है, ऐसा भी नहीं कह सकते । क्योंकि 'तद्यथेह कर्मचितो लोकः क्षीयते एवमेवात्र पुण्यचितो लोकः क्षीयते ।' ( जैसे इस लोकमें कर्मसे जन्य कृषि आदि फल नष्ट हो जाता है, वैसे ही परलोकमें पुण्य से जन्य स्वर्गफल भी नष्ट हो जाता है | ) इत्यादि श्रुतियों और ' क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति, इत्यादि स्मृतियोंसे प्रतीत होता है कि स्वर्गादि सुख भी अनित्य एवं सातिशय ही है । इसलिए वैदिक उपायोंसे भी लौकिक उपायों ( भक्ष्य, भोज्य, पेय, औषधोपचार आदि ) के समान ही दुःखकी आत्यन्तिक निवृत्ति नहीं हो सकती है । यहाँ तक कि कर्म और उपासना द्वारा प्राप्त हुए दिव्य लोकोंमें दिव्य-सुखका उपभोग प्राप्त करके भी अद्वैत ब्रह्मरूप स्वाश्रय के साथ सायुज्यकी उत्कृष्ट इच्छा बनी ही रहती है । इससे स्पष्ट हो जाता है कि प्रकृति - प्राकृत नामरूपात्मक प्रपञ्चके अन्तर्गत चाहे जितनी भी उन्नति एवं सुख-सामग्री प्राप्त हो, परन्तु द्वैत एवं दुःखरूप होने के कारण वह सब अनन्तसुख और शान्तिके सम्पादन में नहीं समर्थ हो सकती । इसलिए सूक्ष्मतश्वके विवेचकों का कहना है कि
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