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नैष्कर्यसिद्धिः बाध नहीं कर सकती, प्रत्युत तत्त्वज्ञानके संस्कारोंसे बारम्बार उसीका स्मरण निश्चयरूपसे होता रहता है। इससे यदि कभी द्वैतका स्मरण हो भी जाय तो भी मिथ्याअज्ञान तत्वज्ञानका बाध नहीं कर सकता ॥ ३८॥
"कर्माऽज्ञानसमुत्थत्वादि"-त्युक्तो हेतुस्तस्य च समर्थनं पूर्वमेवाऽभिहितं-“हितं सम्प्रप्सतामि"-त्यादिना । तदभ्युच्चयार्थमविद्यान्वयेन च संसारान्वयं प्रदर्शयिष्यामीत्यत आह
___ "कर्म अज्ञानको नहीं नष्ट कर सकता” इस प्रतिज्ञाकी पुष्टि के लिए 'कर्माऽज्ञानसमुत्थत्वात्. इस ( ३५ वें) श्लोकमें हेतुका वर्णन किया और उसका समर्थन भी ‘हितं सम्प्रेप्सताम्' (२८) इत्यादि श्लोकोंसे पूर्व ही कर दिया। अब 'कर्म मिथ्याअज्ञानको उत्पन्न करता हुआ फिर भी कर्ममें ही प्रवृत्त करता है। इस कारणसे भी कम मिथ्याऽज्ञानका नाशक नहीं हो सकता' यह दूसरी युक्ति अग्रिम श्लोकसे दिखलाते हैं
ब्राह्मण्याद्यात्मके देहे लात्वा नाऽऽत्मेति भावनाम् ।
श्रुतेः किङ्करतामेति वामनःकायकर्मभिः ॥ ३९ ॥ यह पुरुष वर्ण, अाश्रम, आयु, अवस्था इत्यादिसे युक्त देहमें 'यही अात्मा है' ऐसा आरोप करके वाणी, मन तथा शरीर द्वारा कर्म करता हुआ वेदशास्त्रोंका किङ्कर बन जाता है ॥ ३९ ॥
यस्मात्कर्माऽज्ञानसमुत्थमेव, तस्मात्तद्वयावृत्तौ निवर्तत इत्युच्यते ।
क्योकि कर्म अज्ञानसे ही उत्पन्न हुअा है, इस कारण अज्ञानकी निवृत्तिसे ही वह निवृत्त होता है, यह कहते हैं
दग्धाखिलाऽधिकारश्चेद् ब्रह्मज्ञानाग्निना मुनिः ।
वर्तमानः श्रुतेमूनि नैव स्याद्वेदकिङ्करः ॥ ४० ॥
ब्रह्मज्ञानरूप अग्निसे जिस पुरुषका कर्मप्रवाह दग्ध हो गया है, ऐसा मननशील महात्मा तो वेदशास्त्रों के मस्तकपर प्रारूढ होता हुआ फिर उनका किङ्कर-दास-नहीं रह सकता ॥ ४० ॥
अथेतरो घनतराऽविद्यापटलसंवीतान्तःकरणोऽङ्गीकृतक त्वाद्यशेषकर्माधिकारकारणो विधिप्रतिषेधचोदनासंदंशोपदष्टः कर्मसु प्रवर्तमानः
और ब्रह्मज्ञानीसे भिन्न-अन्य संसारी पुरुष, जिसका कि अन्त:करण गाढ़ अकि. द्यारूप अन्धकारसे आच्छादित है, जिसने कर्मप्रवाह के प्रधान कारण 'मैं कर्ता हूँ', 'मैं भोक्ता हूँ' इत्यादि अभिमानोंको अङ्गीकार किया है और जो 'यह करना चाहिए' 'यह नहीं करना चाहिए' इत्यादि विधि और निषेधरूप सँड़सीसे जकड़ा हुआ कर्मों में प्रवृत्त हो रहा है, वह