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भाषानुवादसहिता
शुभैराप्नोति देवत्वं निषिद्धैर्नारिकीं गतिम् ।
उभाभ्यां पुण्यपापाभ्यां मानुष्यं लभतेऽवशः ॥ ४१ ॥
शुभ कर्मों से देवादिभाव, अशुभ कर्म से नरक गति और शुभाशुभ - मिश्रितकर्मों से मनुष्य शरीरको विवश होकर प्राप्त होता है ।
स्तम्बपर्यन्ते घोरे दुःखोदधौ घटीयन्त्रवदारोहावरोहन्यायेनाऽधममध्यमोत्तम सुख दुःखमाह विद्युच्चपलसम्शतदायिनीर्विचित्रयोनीश्चण्डोत्पिञ्ज्ञ्जलकश्वसनवेगाभिहताम्भोनिधि-मध्यवर्तिशुष्कालाबुवच्छु
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भाशुभव्यामिश्रकर्म वायुसमीरितः
ब्रह्मासे लेकर तृणपर्यन्त भयङ्कर दुःखरूप संसारसमुद्र में, जिस प्रकार कुएँ में चलते हुए रहटके छोटे छोटे घड़े कभी ऊपर और कभी नीचे जाते हैं; इसी प्रकार विजली की चमक के समान क्षणिक सुख, दुःख और मोहको उत्पन्न करनेवाली, नाना प्रकारकी विचित्र अधम, मध्यम और उत्तम योनियोंको ग्रहण करता हुआ, प्रचण्ड एवं झकोर डालनेवाले वायुके वेगसे चपेटा हुआ, समुद्र में पड़े हुए सूखे तुंबे के समान- शुभ, अशुभ एवं सम्मिलित कर्मरूप वायुसे इतस्ततः प्ररित होकर इतस्ततः भटकता हुआचङ्क्रम्यमाणोऽयमविद्याकामकर्मभिः ।
एवं
पाशितो जायते कामी म्रियते चाऽसुखावृतः ॥ ४२ ॥
विद्या, पूर्ववासना तथा पुण्यपाप रूप कर्मसे बाँधा ( फाँसा ) हुआ कामी
पुरुष सुख-दु:खोंसे घेरा हुआ जन्म लेता और मरता रहता है ॥ ४२ ॥ दरविधानाय प्रमाणोपन्यासः
यथोक्तं
पूर्वोक्त विषयमें जिज्ञासुयोंका अधिक दर उत्पन्न करनेके लिए अग्रिम श्लोक द्वारा उसमें प्रमाण देते हैं
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श्रुतिश्चेमं जगादार्थ कामस्य विनिवृत्तये । संसृतिर्यस्मात्तनाशोऽज्ञानहानतः ॥ ४३ ॥
तन्मूला
श्रुति भी कामनाओं के परित्याग करनेके लिए इसी अर्थ - विषय - का वर्णन करती है । "क्योंकि यह सारा संसार अज्ञानका कार्य है, अतः ज्ञानका नाश होनेसे यह नष्ट होता है" ।
का त्वसौ श्रुतिरिति चेत् ?
शङ्का - वह श्रुति कौनसी है ? -
"यदा सर्वे प्रमुच्यन्त" " इतिन्वि " ति च वाजिनः । कामबन्धनमेवेदं व्यासोऽप्याह पदे पदे ॥ ४४ ॥