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भाषानुवादसहिता ननु 'आत्मेत्येवोपासीत' 'आत्मा वा अरे द्रष्टव्यः' इत्यपूर्वविधिश्रुतेः पुरुषस्याऽऽत्मदर्शनक्रियायां नियोगोऽवसीयत इति । नैवम् । अपुरुषतन्त्रत्वाद्वस्तुयाथात्म्यज्ञानस्य सकलानर्थवीजात्मानवबोधोत्सारिणो मुक्तिहेतोरिति, विध्यभ्युपगमेऽपि नाऽपूर्वविधिरयम् । यत आह
___ शङ्का-'अात्मेत्येवोपासीत' 'श्रात्मा वा अरे द्रष्टव्यः' इत्यादि अपूर्वविधिश्रुतियोंसे “यह समस्त संसार आत्मा ही है, ऐसी उपासना करो" "अात्माका दर्शन करना चाहिए" इस प्रकार पुरुष के लिए प्रात्मदर्शनरूप क्रियाकी विधि पाई जाती है। तब आप कैसे कहते हैं कि 'वेदान्तवाक्य क्रियापूरक नहीं हैं।' __उत्तर-यह शङ्का उचित नहीं है, क्यो कि, विधि उसी विषयमें हो सकती है जिसके करने, न करने और अन्यथा (विपरीत) करने में पुरुष स्वतन्त्र हो । जैसे कि "(अग्निहोत्रं जुहुयात्स्वर्गकामः ) स्वर्गकी इच्छावाला पुरुष अग्निहोत्र द्वारा स्वर्गको प्राप्त करे।" इस विधिमें अग्निहोत्र करना पुरुषके अधीन है, वह चाहे उसे करे, या न करे अथवा विपरीत करे । परन्तु समस्त अनयोंके बीजांका नाशक और मुक्तिका हेतु तत्वज्ञान तो पुरुषके अधीन नहीं है, किन्तु प्रमाण और प्रमेयके अधीन है | जैसे भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी के दिन चन्द्रदर्शनका निषेध होनेपर भी चन्द्रका, चक्षुके साथ सम्बन्ध होनेपर, ज्ञान हो ही जाता है। किसीसे रुकता नहीं है। ] अतएव उसमें विधिकी अपेक्षा नहीं है । यदि विधि मानी भी जाय तो अपूर्व विधि नहीं मान सकते। यह बात अग्रिम श्लोकसे कहते है---
अपूर्व, नियम और परिसङ्ख्या, इन भेदांसे विधि तीन प्रकारकी है। (१) अपूर्वविधि-जिससे ऐसी कोई बात विधान की जाय, जो किसी दूसरे प्रकारसे प्राप्त न हो। जैसे—'अग्निहोत्रं जुहुयात्स्वर्गकामः' इस श्रतिसे स्वर्गाभिलाषियोंको अग्निहोत्र द्वारा स्वर्ग प्राप्त करना बतलाया है। बिना इस वाक्यके स्वर्गाभिलाषी लोग अग्निहोत्रमें प्रवृत्त नहीं हो सकते थे। इस वाक्यने स्वर्गाभिलाषियोंके लिए स्वर्गका एक नूतन साधन का विधान किया, इसलिए स्वर्गप्राप्ति के लिए यह अग्निहोत्रकी विधि 'अपूर्वविधि' है। (२) नियमविधि-जिससे, किसी कृत्यके दो प्रकार प्राप्त हो तो ( उनमेंसे ) एकका निषेध करके एकका विधान किया जाता है। जैसे-'नीहीनवहन्ति' यहाँ धानोंका तुषरहित करना प्रयोजन है। वह नख-विदलनादिसे (नाखूनोंसे ) भी हो सकता है। परन्तु इस विधिसे नियम किया जाता है कि अवहनन (उलूखलमें कूटने) से ही धानोंको तुषरहित करना नखांसे नहीं। (३) परिसङ्खथा विधि-जिससे दो वस्तु प्राप्त हों तो एकका सर्वथा निषेध करना और दूसरेका विधान भी न करना। जैसे-'पञ्च पञ्चनखा भक्ष्याः ' इस विधिसे शशादिके भक्षणका विधान नहीं किया गया है ।