________________
नैष्कर्म्यसिद्धिः नियमः परिसङ्ख्या वा विध्यर्थोऽत्र भवेद्यतः ।
अनात्माऽदर्शनेनैव परात्मानमुपास्महे ॥ ८८॥
यहाँपर यदि विधि हो सकती है, तो नियम या परिसङ्घयाविधि हो सकती है । क्योंकि अनात्म वन्तु जिस प्रकार ध्यानमें न आवे उस प्रकार हम परमात्माकी उपासना करते हैं ।।८८॥
यच्चोक्तं 'विश्वासो नान्यतोऽस्ति नः' इति, तदपि निद्रातुरचेतसा त्वया स्वप्नायमानेन प्रलपितम् । किं कारणम् ? न हि वयं प्रमाणबलेनैकात्म्यं प्रतिपद्यामहे । तस्य स्वत एवाऽनुभवमात्रात्मकत्वात् । अत एव सर्वप्रमाणावतारासम्भवं वक्ष्यति। प्रमाणव्यवस्थायाश्चाऽनुभवमात्राश्रयत्वात् । अत आह
और जो आपने 'विश्वासो नाऽन्यतोऽस्ति नः' इत्यादि प्रकारणमें श्रुतिस्मृतिसे अन्य प्रमाणोंपर हमें विश्वास नहीं है, इत्यादि कहा, वह भी आपने ऊँघते ऊँघते स्वप्न देखते हुए प्रलाप किया है । (अर्थात् वह सब आपने हमारे सिद्धान्तको न समझकर ही कहा है।)
शङ्का-क्या कारण ?
उत्तर-हम लोग प्रमाणके बलसे, जीव-ब्रह्माकी एकताका स्थापन नहीं करते । क्योंकि वह तो स्वयं अनुभवरूप ही है। इसीलिए हम आगे जीव-ब्रह्मकी एकताके विषयमें कहेगें कि जीव-ब्रह्मकी एकता किसी प्रमाणका प्रमेय नहीं। और जब प्रमाणांकी सिद्धि ही अनुभवके अधीन है तो अनुभवरूप जीव-ब्रह्मकी एकताके साधक प्रमाण हो ही कैसे सकते हैं, इसलिए कहते हैं
वाक्यैकगम्यं यद् वस्तु नाऽन्यम्मानत्र विश्वसेत् ।
नाऽप्रमेये स्वतःसिद्धेऽविश्वासः कथमात्मनि ।। ८ ।। जो वस्तु केवल वाक्यमात्रसे ही जानी जा सकती हो उसके विषयमें तो मनुष्यको और किसी प्रकारसे विश्वास नहीं करना चाहिए । परन्तु जो स्वतः सिद्धतया समस्त प्रमाणोंका अविषय है, ऐसे आत्माके विषयमें मनुष्य कैसे विश्वास रहित हो सकता है ? ॥८६ ।।
।' यदप्युक्तमन्तरेण विधिमिति, तदप्यबुद्धिपूर्वकमिव नः प्रतिभाति । यस्मात् कालान्तरफलदायिषु कर्मस्वेतद् घटते आत्मलाभकाल एव फलदायिनि त्वात्मज्ञाने नैतत्समञ्जसमित्याह
और जो आपने यह कहा था कि, "जो बिना शास्त्र विधान के परलोकमें फलदेनेवाले कर्मोको करता है, तो वे उसको फलदायक नहीं होते। इसी प्रकार ब्रह्मज्ञान