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नैष्कर्म्यसिद्धिः जगत्में कामी पुरुषांको संख्या अत्यन्त अधिक है। इस कारण समस्त श्रति और स्मृतियाँ इच्छित फल देने में समर्थ अनेक कमीका विधान करती हैं। [ इससे यह नहीं सिद्ध होता कि अात्मज्ञान नहीं है अथवा वह मोक्षका मुख्य साधन नहीं है । इसलिए वादीका यह कहना कि "श्रात्मवस्तुविषयक ज्ञानका प्रतिपादक कोई प्रमाण नहीं मिलता” सर्वथा असङ्गत है ] ॥ ८५ ॥
न च बाहुल्यं प्रामाण्ये कारणभावं प्रतिपद्यते । अत आह
यदि कोई शङ्का करे कि 'जिस विषयके प्रतिपादक वाक्य अधिक होंगे वे ही प्रमाण माने जाएँगे। जो अल्प हैं वह प्रमाण नहीं माने जा सकते। सुतरां कर्मविधायक वाक्य अधिक हैं और ज्ञान विधायक वेदान्त वाक्य अत्यन्त ही अल्प हैं, अतः अनन्त कर्म विधायक वाक्योंके बलसे थोडेसे ज्ञानविधायक वेदान्तवाक्यों का तात्पर्य मी कर्ममें ही मानना चाहिए। स्वतन्त्र अात्माका प्रतिपादन करने में नहीं ।' ला यह कथन उचित नहीं है, क्योंकि
प्रामाण्याय न बाहुल्यं न ह्यकत्र प्रमाणताम् ।
वस्तुन्यटन्ति मानानि त्वेकत्रैकस्य मानता ।। ८६ ॥ . वेदान्तवाक्योंका प्रामाण्य स्वतःसिद्ध होनेके कारण उनको अपने विषयका सिद्धि के लिये दूसरे अनुमोदक प्रमाणकी आवश्यकता नहीं है। यह कोई नियम नहीं है कि किसी एक निपयके प्रतिपादक वाक्य जबतक दूसरे वाक्य अनुमोदक न हो, प्रमाण है। नहीं हो सकते। और कर्मकाण्ड में भी तो एक-एक कर्ममें एक-एक बाक्यको ही प्रमाण मान लिया जाता है। कर्म अनेक हैं, इसलिए उनके प्रतिपादक वाक्य भी अनेक ही होने चाहिए। परन्तु यात्मा तो एकरूप है। अतएव अल्पसंख्यावाले भी वेदान्तवाक्य उसके (आत्माके ) ज्ञानके प्रतिपादन में अधिक होंगे || ८६ ॥
यत्तक्तं 'यत्नतो वीक्षमाणोऽपीति' तत्राऽपि भवत एवाऽपराधः कस्मात ! यतः
और पहले जो यह कहा था "यत्नसे देखनेपर भी वेदान्त-वाक्यों में आत्मज्ञानका विधान नहीं मिलता, इसलिए वेदान्त वाक्य आत्मज्ञानमें प्रमाण नहीं हैं ?” इसमें भी आपका ही अपराध है । क्योंकि--
'परीक्ष्य लोकान्' इत्याया आत्मज्ञान-विधायिनीः ।
नैष्कर्म्यप्रवणाः साध्वीः श्रुतीः किं न शृणोषि ताः ॥ ८७ ।।
"कसे सम्पादित भोग्य-विषयोंको अनित्य समझकर” इत्यादि कर्मफलको अनित्य और हेय बतलानेवाली, आत्मज्ञानके लिए प्राचार्य के समीप गमनका विधान करनेवाली और मोक्षका मार्ग बतलानेवाली पवित्र श्रुतियोंको क्या आप नहीं सुनते ?