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भाषानुवादसहिता यदैव तदर्थ त्वमर्थेऽति तदैवावाक्यार्थतां प्रतिपद्यते गीर्मनसोः सृतिं न प्रतिपद्यत इति, कुत एतदध्यव मीयते ? यस्मात् । .. . तत्पदं प्रकृतार्थ स्यात्वं पदं प्रत्यगात्मनि ।
नीलोत्पलवदेताभ्यां दुःख्यनात्मत्ववारणे ॥ २॥ .
शङ्का-जिज्ञासु पुरुष जब तत्पदके अर्थको त्वं पदके अर्थ के साथ अभेदरूपसे जान लेता है, तब वह वाणी और मनके रचे व्यवहारोंसे अतीत हो जाता है, इसमें प्रमाण क्या है ?
उत्तर-प्रमाण यह है कि-'तत्त्वमसि' इस वाक्यमें तत्पद अद्वितीय ब्रह्मका और त्वम्पद प्रत्यगात्माका बोधक है, अतएव 'यह. नील कमल है' ऐसा कहनेसे कमलमें नीलका भेद और नोलका कमल के साथ असम्बन्ध जैसे निवृत्त हो जाता है । इसमें देश, काल तथा साधनोंकी अपेक्षा नहीं है। वैसे ही 'तत्वमसि' इस वाक्यसे प्रत्यगात्मामें दुःखित्वादि तथा परमात्मामें अनात्मवादिकी निवृत्ति होकर शुद्ध अात्मतत्त्वका बोध होता है ॥ २ ॥
एवं कृतान्वयव्यतिरेको वाक्यादेवाऽवाकार्य प्रतिपद्यत इत्युक्तम् । अतस्तद्व्याख्यानाय सूत्रोपन्यासः ।
सामानाधिकरण्यश्च विशेषणविशेष्यता। लक्ष्यलक्षणसम्बन्धः पदार्थप्रत्यगात्मनाम् ।। ३ ।।
इस प्रकार जिसने अन्वय-व्यतिरेक के द्वारा विवेकज्ञानका सम्पादन किया है वह वाक्यसे ही वाक्य द्वारा अवाच्य-अखण्ड 'अद्वितीय' ब्रह्मरूप अर्थको जान लेता है, यह प्रतिपादन किया । इसलिए अब वाक्यसे ज्ञान किस प्रकार होता है, इसका प्रतिपादन करने के लिए अग्रिम सूत्र (श्लोक) का उपन्यास करते हैं
तत्त्वमसि' आदि महावाक्य तीन प्रकारके सम्बन्धोंसे अखण्ड वस्तुका ज्ञान कराते हूँ-उनमें (१) पहला सम्बन्ध है-पदोंका परस्पर सामानाधिकरण्य* (२) दुसरा सम्बन्ध है-विशेषण विशेष्यभाव ( अर्थात् तत् पदका अर्थ ब्रह्म और त्वं पदका अर्थ जीव, इन दोनोंका परस्पर (ब्रह्मका ) विशेषण रूपसे और (-जीवका) विशेष्यरूपसे बोध होना), और (३) तीसरा सम्बन्ध है-लक्ष्य लक्षण (अर्थात् तत्पनार्थ सर्वज्ञत्वादि रूप ब्रह्मधर्म और स्वंपदार्थ अल्पज्ञत्वादिरूप जीवधर्मको त्यागकर शुद्ध, अखण्ड, चिन्मात्रका लक्षणासे बोध होना ) ॥३॥
* सामानाधिकरण्य उसे कहते है जहाँ दोनों पद एक ही विभक्तिसे युक्त होकर एक अर्थका प्रतिपादन करते हैं ।