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नैष्कम्यसिद्धिः प्रतिबिम्बित चैतन्यरूप ज्ञानको उत्पन्न करता है। और वह आत्मा अज्ञानका कार्य भी नहीं है । क्योकि वह कूटस्थ एवं नित्य है, अज्ञानकी अपेक्षाके बिना ही श्रात्माकी स्वतःसिद्धि है। इसलिए अात्मामें ही अज्ञानको मानना उचित है।
शङ्का-वह आत्माका अज्ञान किसको विषय करता है ? समाधान-हमारा सिद्धान्त है कि अज्ञान अात्माको ही विषय करता है ।
नन्वात्मनोऽपिज्ञानस्वरूपत्वादनन्यत्वाच्च ज्ञानप्रकृतित्वादिभ्यो हेतुभ्यो नैवाऽज्ञानं घटते ? घटत एव । कथम् ? अज्ञानमात्रनिमित्तत्वात्तद्विभागस्य, सात्मतेव रज्ज्वाः। तस्मात्तदपनुत्तौ द्वैतानर्थाभावः । तदपनोदश्च वाक्यादेव तत्पदार्थाभिज्ञस्य । अतो वाक्यव्याख्यानायाऽध्याय आरभ्यते ।
शङ्का-प्रात्मा ज्ञानस्वरूप और अद्वितीय है । इसलिए भेद ही जब नहीं है, तब वह किसीका आधार नहीं हो सकता । अतएव याज्ञानका भी आश्रय कैसे हो सकता है और प्रास्मामें अज्ञानके विरोधी ज्ञानको उत्पन्न करने की शक्ति भी है। इन कारणांसे आत्मामें अज्ञान नहीं हो सकता है ?
उत्तर-आत्मा अज्ञानका प्राश्रय हो सकता है। क्योंकि वास्तव में वह अद्वितीय अर्थात् भेदशून्य होने पर भी, रज्जुमें अज्ञानसे कल्पित सर्पकी भाँति, कल्पित भेद होनेके कारण अज्ञानका आश्रय है। अतएव इस अज्ञान की निवृत्ति होनेसे द्व तरूप अनर्थका नाश होता है। और अज्ञानका नाश महावाक्य के द्वारा उसके पद-पदार्थके ज्ञाताको होता है । इसलिए अब बाक्यका व्याख्यान करने के लिए. (तृतीय) अध्यायका प्रारम्भ किया जाता है। . तत्र यथोक्तेन प्रकारेण तत्त्वमस्यादिवाक्योपनिविष्टपदपदार्थयोः कृतान्वयव्यतिरेकः ।।
यदा ना तत्त्वमस्यादेब्रह्माऽस्मीत्यवगच्छति ।
प्रध्वस्ताऽहंममो नैति तदा गीर्मनसोः सृतिम् ॥ १ ॥
पूर्वोक्त प्रकारसे 'तत्त्वमसि-वह तू है' इत्यादि वाक्योंमें प्रविष्ट पद तथा उनके अर्थोका अन्वय व्यतिरेकसे ज्ञान प्राप्त किया हुआ-पुरुष तत्त्वमस्यादि वाक्योंसे 'मैं ब्रह्म हूँ' ऐसा निश्चय जब कर लेता है, तब उसका अहङ्कार और ममकार नष्ट हो जाता है, फिर वह वाणी और मनके रचे सब व्यवहारोंसे अतीत (मुक्त) हो जाता है ॥ १ ॥
३--उपनिविष्टपदार्थयोः, भी पाठान्तर है।
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