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बातको 'लकीरके फकीर' इस कहावतके अनुसार प्रायः सभी अंग्रेजीके शिक्षित मानते आ रहे हैं। पंडित बलदेव उपाध्यायजी एम० ए०, साहित्याचार्य (प्रोफेसर बनारस हिन्दू-यूनीवर्सीटी ) महोदयने भी इसी आधारको सामने रख कर अपनी 'शङ्कराचार्य' नामक पुस्तकमें मण्डनमिश्र और सुरेश्वराचार्यजीको भिन्न-भिन्न सिद्ध करनेका प्रयत्न किया है। यह सब संस्कृतभाषाका विशिष्ट अध्ययन न होना, किसी सम्प्रदायपरम्परासे अध्ययन न करना तथा केवल अपनी बुद्धिसे ग्रन्थ लगा लेनेका ही फल है।
यदि किसी देशके या किसी व्यक्तिके विषयमें हमें इतिहास लिखना है तो उस देशकी, उस समाजकी, स्थितिको देख अथवा सुनकर ही उस बातको सिद्ध करना चाहिए, अपने मनसे नहीं। इस बातको पाश्चात्य
और भारतीय सभी विद्वान् लोग मानते हैं। ऋषि-महर्षियोंकी जन्मभूमि समस्त भूमण्डलके आदर्श भारतवर्षमें जबसे मण्डनमिश्र हो गए हैं, तबसे आज तकका संस्कृत विद्वत्समाज, यहाँकी जनता, भगवान् शङ्कराचार्यजीसे चलाया मठाम्नाय एवं तत्-तत् समयमें रचे गए विद्वानोंके शङ्करदिग्विजयादि काव्य, इस बातको निर्विवाद पुष्ट करते हैं कि मण्डनमिश्र ही शङ्कराचार्यजीसे शास्त्रार्थ करके पराजित होनेके बाद उनके शिष्य बन कर सुरेश्वराचार्य नामसे प्रसिद्ध हुए । अस्तु, ___पाश्चात्य विद्वानोंने भारतीय सभ्यता और संस्कृतिपर यहाँकी जनताकी अनास्था और अरुचि होनेके लिए ऐसा ऐसा उत्पात मचा रखा है। उन लोगोंने संस्कृतके विद्वानोंको एक प्रकारसे अनपढ़ सिद्ध करनेके लिए प्रयत्न किए हैं और कर रहे हैं। परन्तु यह अनुचित है। संस्कृत विद्वानोंको आधुनिक वैज्ञानिक जगत्में प्रक्रियात्मक ज्ञान न होनेपर भी आजकलके विज्ञान-शास्त्रियों और दार्शनिकोंसे वे कई गुने बढ़े-चढ़े हैं, यह बात सर्वविदित है ? ' जैसे आज विज्ञान-जगत्में श्रीजगदीशवसुको बड़ा मानते हैं । उन्होंने सारे जीवनको लगा कर स्थावरों में भी. प्राणशक्ति है, इस बातको अमे