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रिकामें किसी विज्ञानशास्त्रियोंके अधिवेशनमें इन्जक्शन द्वारा सिद्ध करके दिखलाया है । तबसे वैदेशिक विद्वान् भी स्थावरोंमें भी प्राणशक्ति है, यह मानने लगे हैं । परन्तु हमारे यहां तो मनुजीने, पहलेसे ही, जब कि आजका विज्ञान गर्भमें भी नहीं आया था, लिख रखा है कि
'अन्तःसंज्ञा भवन्त्येते सुखदुःखसमन्विताः ।'
इस विषय में अधिक कहना पिष्टपेषण है । प्रकृत विषय में हमें कहना यह है कि हमने जहां तक इनके ग्रन्थोंका अध्ययन और मनन किया है, इससे स्पष्ट यही प्रतीत होता है कि पूर्वोक्त कारण सब हेत्वाभास हैं । एक विद्वान् बाल्यावस्था में किसी विषय को लेकर ग्रन्थ लिखता है । पीछे पठन-पाठन और विचारसे ज्ञानगरिमा होती है, तब उस समय पहले जो कुछ लिखा है, वह उसीको गलत मालूम पड़ता है । 'तत्त्वपक्षपातो हि धियां स्वभाव ः ' ऐसा प्राचीनोंका कथन है ।
जैसे मीमांसा में शाबर भाष्यपर दो व्याख्याता बड़े बड़े हो गए हैं । कुमारिलभट्ट और प्रभाकर मिश्र । प्रभाकर मिश्र बड़े यौतिक और प्रतिभाशाली थे, इस विषयको कहना उनके ग्रन्थोंका परिशीलन करनेवालोंके सामने भगवान् सूर्यको दीपदर्शन कराना है । उन्होंने शाबर भाष्य के ऊपर शब्द-सामर्थ्य तथा अर्थ- सामर्थ्य को लेकर दो प्रकारका व्याख्यान किया है। उन दोनों का नाम है - ( १ ) विवरण और (२) निबन्ध । जो विवरण आजकल बृहती नामसे प्रसिद्ध है । इस अभिप्रायको श्रीरामानुजाचार्यजी प्रभाकर मतानुसारी 'तन्त्ररहस्य' नामक ग्रन्थमें लिखे हैं ।
'आलोच्य शब्दबलमर्थबलं श्रुतीनां
Mangi व्यरचयद् बृहतीं च लध्वीम् ।' इत्यादि ।
इन ग्रन्थोंमें बहुत सिद्धन्तोंमें अन्तर है । इसका विवेचन हम दूसरे समयमें करेंगे | इससे यह नहीं सिद्ध होता है कि प्रभाकर मिश्र दो थे । ज्ञानपरिपाकके भेदसे प्रतिपाद्य विषयोंमें भेद होता है, यह सर्वानुभव सिद्ध है । अप्पय्य दीक्षितजीको सभी जानते हैं । उन्होंने 'नयनमुखमालिका, इत्यादि तीन ग्रन्थ लिखे हैं । उनमेंसे एकमें अद्वैत सिद्धान्तका समर्थन,