________________
दूसरेमें विशिष्टाद्वैत सम्प्रदायका समर्थन और तीसरेमें मध्वमतका समर्थन किया है । बादमें फिर इनका खंडन भी किया है। क्या इससे अप्पय्यदीक्षित अनेक सिद्ध होते हैं ? 'व्याख्या बुद्धिबलापेक्षा' यह कहावत है। अतः यह सब कहनेका अभिप्राय यह है कि अवस्थाके भेदसे मनुष्यका ज्ञान विकसित होता है और सङ्गके द्वारा भी सिद्धान्तमें परिवर्तन होता है। यद्यपि मण्डनमिश्रजी गृहस्थाश्रममें कर्मकाण्डके समर्थक और ज्ञानकाण्डके कट्टर विरोधी थे। परन्तु जब शङ्कराचार्यजीसे शास्त्रार्थ हुआ तभीसे शङ्कराचार्यजीके सिद्धान्तोंसे प्रभावित होकर वे उनके शिष्य बने, उनके अनुयायी और उनके सिद्धान्तोंके समर्थक हो गए।
यह भी देखा जाता है कि हर एक विद्वान् किसी आचार्यके मतका अनुसरण करते हुए अपने अभिमत पक्षका भी ग्रन्थमें सन्निवेश कर देता है ? तावता वह अन्य सिद्धान्तका हो गया, यह नहीं कह सकते ! इसलिए उपर्युक्त प्रमाणोंसे यही सिद्ध होता है कि मिथिलावासी-मण्डनमिश्र ही संन्यास ग्रहण करनेके अनन्तर सुरेश्वराचार्य कहलाने लगे और शृंगेरीमठमें पहले आचार्य हुए। उनकी समाधि भी शृङ्गेरी मठमें अब तक विद्यमान है।
जैसे भारतवासी सब भारतके रहनेवाले नहीं, किन्तु बाहरसे आए हुए हैं, ऐसा वैदेशिक (पाश्चात्य) विद्वाज एवं तदनुयायी यहांके कुछ विद्वान् लिखते और कहते हैं। तथापि हम लोग बाहरके नहीं, यहीके हैं, यह हमारा दृढ़ विश्वास है। ____ अतः मण्डनमिश्र ही सुरेश्वराचार्य हैं, दूसरे नहीं। इस बातको जनताके सामने रखते हुए इस विषयका मैं उपसंहार करता हूँ। इसके विषयमें हमारे पास बहुतसी सामग्री है। किसी अवसर पर निबन्धके रूपमें उसको प्रकाशित करेंगे।
"-वेदान्तमीमांसाचार्य श्री पं० सुब्रह्मण्यशास्त्री
(प्रो० सं० वि०, काशी हिन्दूयूनीवर्सीटी).