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मण्डन मिश्र ही सुरेश्वराचार्य हैं
मण्डनमिश्रजीके बारेमें पाश्चात्य और भारतीय विद्वानोंमें बड़ा मतभेद है । पाश्चात्य विद्वान् लोग भाषाविज्ञानके आधारसे कुछ इतिहास के बलसे कुछ ऐसे एक सिद्धान्तको मानकर उसीका समर्थन करनेके लिए कटिबद्ध हो जाते हैं, यह बात सर्वानुभवसिद्ध है । ये लोग मण्डनमिश्र और सुरेश्वराचार्यजी, इन दोनों को एक नहीं मानते, किन्तु अलग-अलग मानते हैं। इसका पहला व्याख्याता मैसूर यूनीवर्सीटीके दर्शनका प्रधानाध्यापक है। उसने मंडन मिश्र और सुरेश्वराचार्यजी के ग्रन्थोंको आपाततः देखकर कुछ भाषाके भेदसें, कुछ प्रतिपाद्य विषय के भेद से मण्डन और सुरेश्वर, इन दोनों को भिन्नभिन्न सिद्ध किया है । उसमें पहला कारण यह है कि "भगवान् शङ्कराचार्य अद्वैत सम्प्रदाय के प्रवर्तक हैं। उन्होंने जीवन्मुक्तिको सिद्ध किया है । यह बात शाङ्करभाष्यादिमें प्रसिद्ध है । यदि मण्डनमिश्र उनके शिष्य होते तो वे उस सिद्धान्तका खण्डन कैसे करते ? मण्डन मिश्रजीने ब्रह्मसिद्धि में जीवन्मुक्तिका खंडन किया है । दूसरा कारण यह है कि अविद्याका आश्रय और विषय ब्रह्म है, यह शङ्कराचार्यजीका सिद्धान्त है और ब्रह्मसिद्धि में मण्डन मिश्रजीने अविद्याका विषय ब्रह्मको मानकर आश्रय जीवको माना है । इसी सिद्धान्तको भामतीकार श्रीवाचस्पतिजीने भी अपनाया है । यह बात वेदान्तियोंमें प्रसिद्ध है:
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'वाचस्पतिर्मण्डनपृष्ठसेवी ।' इत्यादि
इसी प्रकार कई श्रुतियोंके व्याख्यानमें मण्डन और सुरेश्वराचार्य - जीमें अन्तर दीख पड़ता है ।" इत्यादि इत्यादि आभास हेतुओं को देखकर अंग्रेजी भाषा में इस विषयको लिखा है । जिससे संस्कृत के विद्वान् लोग इसे न जानें, इसके ऊपर कुछ न कह सकें ।
इसीको आधारकरके महामहोपाध्याय पं० कुप्पुस्वामी शास्त्रीजीने भी ब्रह्मसिद्धिकी भूमिका में यथाशक्ति उसी मतका समर्थन किया है। इसी