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भाषानुवादसहिता 'इसमें कारणका अन्वेषण मत करो।' ऐसा कहा गया। इसपर यदि कोई प्रश्न करे कि क्यों नहीं करें ? तो इसका उत्तर यह है कि वह अशान ( भ्रान्ति ) अन्वेषणको सहन नहीं कर सकता। सो कैसे ? यह बतलाते हैं--
जो यह आत्मस्वरूपकी विस्मृतिसे विपरीत भ्रान्ति हुई है, वह लोकसिद्ध पदा. के सदृश कारणवाली नहीं है। अतएव उचित अालम्बनसे रहित है। समस्त युक्तियोंसे विरुद्ध है। इसलिए जैसे अन्धकार सूर्यको नहीं सह सकता, उसी प्रकार यह भी विचारको सहन नहीं कर सकती [अर्थात् विचार करनेपर वह एकदम ही निवृत्त हो जाती है । ] ॥ ६६ ॥
तस्याः खल्वस्या अविद्याया भ्रान्तेः सम्यग्ज्ञानोत्पत्तिद्वारेण निवृत्तिः।
बुभुत्सोच्छेदिनी चाऽस्य सदसीत्यादिना दृढम् । प्रतीचि प्रतिपत्तिः स्यानासौमानान्तराद् भवेत् ॥ ६७ ॥
पूर्वोक्त इस अविद्यारूप भ्रान्तिकी निवृत्ति तत्त्वज्ञानका उदय होने से ही होती है, अन्य किसी साधनसे नहीं। और सर्वविध संशयोंको दूर करनेवाला-'तू वही है' इस प्रकारका दृढ़ तत्त्वज्ञान 'तत्वमसि' इत्यादि वेदान्तवाक्योंसे ही हो सकता है, प्रमाणान्तरसे नहीं ॥ ६७ ॥
कथं पुनर्वाक्यं प्रतिपादयत्येवेति चेत्, दृष्टान्तोक्तिःजिज्ञासोदेशमं यद्वन्नवातिक्रम्य ताम्यतः। त्वमेव दशमोऽसीति कुर्यादेवं प्रमां वचः ॥ ६८ ॥
जो ज्ञान प्रमाणान्तरसे नहीं हो सकता, उसको वाक्य कैसे उत्पन्न कर सकता है, ऐसा यदि कहो तो, इसमें दृष्टान्त देते हैं
जैसे, नौ आदमियोंसे अतिरिक्त दशवेको ढूँढने में परेशान हुए पुरुषको 'दसवाँ तू है' यह वाक्य यथार्थ ज्ञानका उत्पन्न करदेता है, वैसे ही 'तत्त्वमसि' इत्यादि वाक्य जिज्ञासुपुरुषको यथार्थ ज्ञान करा देता है । ॥ ६८ ॥
सा च तत्त्वमस्यादिवाक्यश्रवणजा प्रमोत्पन्नत्वादेव । न च नैवमिति प्रत्ययान्तरं जायते । तदेतद् दृष्टान्तेन प्रतिपादयति
दशमोऽसीति वाक्योत्था न धीरस्य विहन्यते ।
आदिमध्यावसानेषु न नवस्वस्य संशयः॥ ६९ ॥ १डा, ऐसा पाठ भी है।